गुरुवार, 25 जुलाई 2013

जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धान्त ही चल रहा है ---विजय राजबली माथुर

सुप्रसिद्ध आलोचक/साहित्यकार वीरेंद्र यादव जी को किसी के द्वारा एस एम एस से धमकी दिये जाने पर धमकीदाता के विरुद्ध FIR कराने का सुझाव जिन राजनेता द्वारा दिया गया है और इसे 'जुर्म' की संज्ञा दी गई है उनके भी संग्यान में यह बात है कि पी टी सीतापुरिया किस प्रकार मुझे न केवल धमकाता रहता है वरन उसने हमारे सम्पूर्ण परिवार को त्रस्त कर रखा है। बड़े लोगों की बड़ी बातें मुझे सीतापुरिया के प्रति शक न रखने की सलाह उनके द्वारा दी गई है। ये दो प्रकार की भूमिकाएँ सिद्ध करती हैं कि आज भी बलशाली का ही प्रभुत्व है एवं न्याय व समानता की बातें केवल कागजी हैं और बेमानी हैं। 

कारपोरेट मेनेजमेंट एवं कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में निर्णय लेने के सूत्र एक ही हैं अपने सदृश्य का बचाव करना। 1984 और 2013 में कोई फर्क नहीं है मानसिकता वही है। 

जब मुझे कार्यकारी संपादक को सहयोग करने को कहा गया था तो पार्टी-हित में काम करने की बात कही गई थी जिसे ही मैंने स्वीकारा था। किन्तु 30 मई को पहले दिन ही कार्यकारी संपादक ने यह कह कर कि,उनके साथ अनेकों लोग आए और उखड़ गए देखना है कि मैं कब तक टिक पाता हूँ यह संकेत दे दिया था कि वह मुझे उखाड़ने का हर संभव प्रयास करेंगे जिसका ज़िक्र मैं पूर्व में ही कर चुका हूँhttp://vidrohiswar.blogspot.in/2013/07/blog-post.html
"एक पी टी सीतापुरिया हैं जो बड़े कम्युनिस्ट के रूप में स्थापित होने के बाद भी क्षुद्र ब्लागर्स के हितों के संरक्षणार्थ तांत्रिक प्रक्रियाओं का सहारा लेकर खुद को सहायता देने वाले को ही तहस-नहस कर देना चाहते हैं। यह खुद भी एक जन्मपत्री का वैवाहिक विश्लेषण मुझसे प्राप्त कर चुके हैं"

13 जूलाई 2013 को पी टी सीतापुरिया ने अपने निष्क्रिय मित्र के बचाव में मुझे उसका सहायक बनाने का प्रस्ताव रखा जिसे मैंने अस्वीकार कर दिया। अतः पी टी सीतापुरिया ने अपने तांत्रिक प्रयोगों से मेरे पुत्र को अस्वस्थ कर दिया। लगभग 18 वर्ष बाद किसी बाहरी चिकित्सक का हमें परामर्श लेने पर बाध्य होना पड़ा और अपार धन भी व्यय करना पड़ा। उसके बाद मुझे व पत्नी को भी बुखार का सामना करना पड़ा। क्योंकि पी टी सीतापुरिया नहीं चाहता था कि मैं कार्यालय तक पहुंचूँ अतः उसने हमें घर में अस्वस्थता की जकड़ में डाल दिया। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उसकी जकड़ में वरिष्ठ नेतृत्व होने के कारण उसके विरुद्ध कोई भी बात सुने जाने की कहीं भी कोई भी संभावना नहीं है। अतएव मैं भी वीरेंद्र यादव जी की भांति ही उसका असली नाम,पद,पता उजागर कर देने पर बाध्य हौंउगा।   

Link to this post-



रविवार, 14 जुलाई 2013

एच के मेरठिया और पी टी सीतापुरिया में क्या अंतर है?

1972 में सारू स्मेल्टिंग,मेरठ में मुझे एकाउंट्स विभाग में जाब तो मिल गया था लेकिन न मेरे पास अनुभव था न ही मैं कामर्स पढ़ा था।  क्योंकि तब एकाउंट्स में हंस कुमार जैन साहब  क्लर्क और रिटायर्ड बैंक मैनेजर लेखराज प्रूथी साहब मैनेजर एकाउंट्स के पद पर कार्यरत थे और उन दोनों में बनती नहीं थी। जैनियों की फर्म होने के कारण क्लर्क साहब  मैनेजर साहब पर हावी थे। हंस कुमार जी खलल पड़ने से तिकड़म चलने लगे। वह मेरे द्वारा पेंसिल से किए गए लेजर के  टोटल्स में हेरा-फेरी करके मैनेजर साहब को कहते थे इनको टोटल लगाना ही नहीं आता है यह क्या काम करेंगे?मैनेजर साहब ने मुझे खाली बैठे रहने को कहा,मैंने उनसे पुरानी फाइलें अध्यन हेतु मांग लीं उन्होने पढ़ने को दे दीं;दो दिन बाद मैंने उनसे निवेदन किया कि कुछ वाउचर बनाने को मुझे भी दे दिया करें। उन्होने मुझसे वाउचर बनवाए और दो दिन सफलता पूर्वक मेरे किए काम को देख कर हंस कुमार जी बोले अब सारे वाउचर यही बनाएँगे और वह चेक करेंगे फिर उसके बाद ही मैनेजर साहब पास करें। प्रूथी  साहब ने स्वीकार कर लिया  और मुझ पर काम का काफी बोझ आ गया। हंस कुमार जैन ने चतुरतापूर्वक मेरे प्रति मृदु व्यवहार अपना लिया।

2013 में 23 मई को  एक सार्वजनिक पत्रिका के संपादक महोदय ने मुझे कार्यकारी संपादक को मदद करने को कहा जिसे मैंने संपादक महोदय के प्रति सम्मान एवं आदर भाव के कारण सहर्ष स्वीकार कर लिया। 30 मई को संपादक महोदय के टूर पर होने के कारण कार्यकारी संपादक अपने छात्र जीवन में दूसरे छात्र नेता को पीटने ,उनके पिता श्री द्वारा किसी को उठा कर फेंक देने के किस्से सुनाने लगे। उनका आशय मुझे धमकाना था कि वह मुझे भी फेंक देंगे। मैंने संपादक महोदय को उनके किस्से बता दिये थे।  पी टी सीतापुरिया साहब कंप्यूटर में सी डी अटका कर जाने लगे जिससे संचालन में दिक्कत आए इसकी भी प्रत्यक्ष जानकारी संपादक महोदय एवं उनके अन्य सहयोगी को दे दी थी। यहाँ तक तो उनका कृत्य एच के मेरठिया से मिलता-जुलता रहा किन्तु हंस कुमार जी द्वारा बाद में व्यवहार परिवर्तन की प्रक्रिया पी टी सीतापुरिया नहीं अपना सकते थे क्योंकि उनका उद्देश्य सिर्फ मुझे ही नहीं मेरे परिवारीजनों को भी परेशान करना था जिससे मैं कार्यालय तक पहुँच ही न सकूँ। ऐसा कई बार हुआ था लेकिन 12 जूलाई को फिर जब संपादक महोदय अपने साथी के साथ फिर टूर पर थे पी टी सीतापुरिया ने अपनी तांत्रिक प्रक्रिया से मेरे परिवार के बाकी सदस्यों को रुग्ण कर दिया जिससे मैं संपादक महोदय की अनुपस्थिति में कार्यालय न पहुँच सका। यह तो क्रमशः चल ही रहा था किन्तु इस बार पी टी सीतापुरिया ने खुद संपादक महोदय पर भी निशाना साध दिया। जीप के लखनऊ की सीमा में रहते ही अपनी तांत्रिक प्रक्रिया से पी टी सीतापुरिया ने सामने के विंड स्क्रीन में ब्लास्ट करा दिया जिसके काँच संपादक महोदय के शरीर के विभिन्न हिस्सों में प्रविष्ट कर गए। बिना सामने के शीशे की गाड़ी से वह गंतव्य तक पहुंचे क्योंकि उनको एक जनसभा की विशेष रिपोर्टिंग करनी थी।

पी टी सीतापुरिया के बहकावे में आकर एक राजनीतिक दल के प्रदेशाध्यक्ष महोदय भी मुझे सपरिवार परेशान करने के उपक्रम में शामिल रहे थे। उनको अब उनकी पार्टी ने पदच्युत कर दिया है,पी टी सीतापुरिया की बुरी सोहबत का परिणाम उनको मिल गया है। पी टी सीतापुरिया पूरी तरह आर के बाही के नक्शे कदम चल रहे हैं जिनकी कभी अपनी पार्टी में खूब तूती बोलती थी उन्होने ने भी अपने वरिष्ठ की बुद्धि तांत्रिक प्रक्रियाओं से जाम कर रखी थी। चंद्रास्वामी जैसे दिग्गज तांत्रिक जब धूल चाट सकते हैं तो आर के बाही की बिसात ही क्या थी। अंततः उनके उन वरिष्ठ नेता ने ही उनको पार्टी से निष्कासित करा दिया। आर के बाही की सारी की सारी तांत्रिक प्रक्रियाएँ धरी की धरी ही रह गईं। देखते हैं कि वक्त कब करवट लेता है और पी टी  सीतापुरिया को कब तक उसके कुकर्मों की सजा मिल पाती है?

Link to this post-



गुरुवार, 11 जुलाई 2013

गारबेज के खिलाड़ी-फंसा दिया कबाड़ी ---विजय राजबली माथुर

अक्सर लोग सरकारी विभागों व कर्मचारियों के भ्रष्टाचार की शिकायतें करते हुये मिलते हैं। लोगों की अवधारणा है कि निजी क्षेत्र जनता को अधिक राहत देता है। मैंने प्राईवेट लिमिटेड,पब्लिक लिमिटेड,प्रोपराईटरशिप/पार्टनरशिप सभी प्रकार की फर्मों में कार्य किया है वह भी लेखा-विभाग में। मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह है कि सरकारी क्षेत्रों से अधिक भ्रष्टाचार इन निजी क्षेत्रों में है और इसमें ईमानदार कर्मचारियों के लिए गुंजाइश बिलकुल भी नहीं है। सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों को तो ट्रिब्यूनल आदि से न्याय मिल भी जाता है किन्तु निजी क्षेत्र के कर्मचारी को तो 'श्रम अदालतों/न्यायाधिकरणों से भी न्याय नहीं मिल पाता है। मैं खुद भुक्त भोगी हूँ।

सितंबर 197 से जनवरी 1985 तक मैं होटल मुगल,आगरा में कार्यरत रहा। मैं सुपरवाईजर एकाउंट्स के पद तक ही पहुँच पाया । संस्थान में 'इंटरनल आडिट' के दौरान पौने छह लाख का घोटाला मैंने पकड़ा था और उम्मीद कर रहा था कि मुझे तरक्की मिलेगी लेकिन घोटालेबाज पूर्व अधिकारियों पर पर्दा डालने हेतु तत्कालीन अधिकारियों ने मुझे छ्टनी के अंतर्गत हटा दिया। श्रम न्यायालय के पीठासीन अधिकारी ने भी 'Petitionar is no more interested' लिख कर संस्थान के पक्ष में निर्णय घोषित कर दिया।

लेकिन मैं इस संबंध में यहाँ अभी जानकारी न देकर उस तथ्य पर प्रकाश डालना चाहता हूँ जहां,जिस ओर आसानी से किसी का ध्यान भी न जा सकता है।

होटलों में तमाम झूठन बचती है जिसे गारबेज में फेंक दिया जाता है। इस गारबेज को रामचन्द्र नामक एक कबाड़ी कुछ भुगतान करके खरीद ले जाता था। कहा जाता था कि वह इस गारबेज को सूअर पालकों को बेच देता था। सूअर पालक सूअरों की चर्बी निकाल कर 'देशी घी विक्रेताओं' को बेच देते थे जो घी में वजन बढ़ाने के लिए उसका इस्तेमाल करते थे। इस प्रकार कौड़ियों के भाव खरीदा गारबेज  ऊंची कीमत पर बेच-बेच कर  कबाड़ी साहब मालदार बन गए थे और उन्होने और भी कबाड़ खरीदना शुरू कर दिया था।

इंजीनियरिंग व हाउस कीपिंग विभाग के कर्मचारी रद्दी सामान के बीच में छिपा कर कुछ अच्छा सामान भी कबाड़ में फेंक देते थे और फिर कबाड़ी से उसी भाव में लेकर जिसमें उन्होने खरीदा था बाज़ार में ऊंचे दामों पर बेच कर ऊपरी आमदनी से अपना स्टेंडर्ड ऊंचा रखते थे। ज़ाहिर सी बात है कि जिन कर्मचारियों पर सामान रद्द करने की ज़िम्मेदारी थी वे अपने-अपने अधिकारियों के प्रिय थे। सीधी सी बात है जब सामान की कमी होगी तो उसकी पुनः आपूर्ती भी होगी। क्रय(पर्चेज)विभाग में उस समय 8 प्रतिशत कमीशन लेने का प्रचलन था जैसा कि बाहर के लोगों से ज्ञात हुआ था। चूंकि मैं कमीशन नहीं लेता था अतः बीच में रोड़ा था इसी कारण मुझे फाइनेंस से हटा कर फिक्सड एसेट्स एवं इंटरनल आडिट का कार्य सौंपा गया था।

इंजीनियरिंग व हाउस कीपिंग विभागों के कर्मचारी तो दूसरे सामानों के साथ अच्छा सामान बाहर कबाड़ी के माध्यम से निकलवा लेते थे तो फिर किचन स्टीवर्डिंग विभाग के कर्मचारी जिन पर झूठे बर्तन साफ करने का दायित्व था क्यों पीछे रहते?चांदी (सिल्वर)के छोटे-छोटे आइटम जैसे चम्मच आदि बड़ी आसानी से गरबेज में फेंक कर बाहर कर दी जाती थीं। लेकिन कबाड़ी साहब ऐसे सामान को साफ करके निकाल कर ही गरबेज पिग फार्म्स तक ले जाते थे अतः वह इसकी अधिक कीमत उन कर्मचारियों से वसूलते थे परंतु फिर भी उनको लाभ ही मिल जाता था।

एक बार किसी ऐसे कर्मचारी का कबाड़ी साहब से लेन -देन पर विवाद हो गया होगा तब उसने अपने अधिकारी से शिकायत कर दी। नतीजतन तौल कर भुगतान करने के बाद जब गारबेज सिक्योरिटी गेट पर पहुंचा तो वहाँ उसे पलटवा कर चेकिंग की गई जिसमें चांदी की तमाम छोटी-छोटी चम्मचें,तथा दूसरे आइटम्स पकड़े गए। कबाड़ी साहब का कंटरेक्ट रद्द कर दिया गया। लेकिन संबन्धित कर्मचारियों की पहचान नहीं की गई और वे बच गए उनका दूसरे नए कबाड़ी से ताल-मेल हो गया होगा।

अभी हाल ही में बिजली की निजी क्षेत्र की कंपनी 'टोरंट' के भ्रष्टाचार के विरुद्ध लंबा आंदोलन चलाया है। लेकिन दो वर्ष पूर्व इन निजी क्षेत्रों/कारपोरेट घरानों/IAS आफ़ीसर्स की पत्नियों केNGO's ने सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन चलाया था लेकिन निजी क्षेत्रों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता में आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं है क्योंकि वह क्रूर और हिंसक भी है। इस लिहाज से 'टोरंट'के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए आगरा की जनता साधूवाद की पात्र है।

Link to this post-



बुधवार, 3 जुलाई 2013

निस्वार्थ,निशुल्क सेवा देना - है मुसीबतों को दावत देना!---विजय राजबली माथुर

एक समय की बात है कि मुसीबत के मारे की मदद करना एक परोपकार माना जाता था और मदद लेने वाला इसका एहसान मानता था। एहसान न भी माने तो कम से कम मदद करने वाले का नुकसान करने की तो बात भी नहीं सोच सकता था। लेकिन आज उदारीकृत अर्थव्यवस्था सामाजिक सरोकारों को नए तरीके से परिभाषित कर चुकी है। आज मदद करने वाले को बेवकूफ  समझा और कहा जाता है। 'नेकी कर और दरिया में बहा' सूत्र के अनुसार हमने किसी से किसी भी मदद के विनिमय में किसी  भी प्रकार की अपेक्षा कभी भी रखी ही नहीं। किन्तु आश्चर्य तो तब हुआ जब मदद लेने वालों ने हमारे ज्ञान और प्रोफेशन पर हमले-दर-हमले करने शुरू किए। 

सर्वप्रथम पटना के मूल निवासी और पूना प्रवासी ब्लागर ने हमसे चार जन्मपत्रियों का विश्लेषण निशुल्क प्राप्त किया फिर उसकी पटना प्रवासी और कानपुर की मूल निवासी शिष्या  ब्लागर ने भी चार जन्मपत्रियों का निशुल्क विश्लेषण प्राप्त किया।इसके अतिरिक्त  कानपुर के मूल निवासी और विदेश प्रवासी एक फेसबुकिए स्वयंभू मार्क्स वादी विद्वान ने भी निशुल्क जन्मपत्री विश्लेषण प्राप्त किया और क्रांति नगर मेरठ के एक सी पी एम/जलेस नेता ने दो जन्मपत्रियों का निशुल्क विश्लेषण प्राप्त किया। और इन सब लोगों ने क्या किया?

मेरठ के सी पी एम/जलेस नेता ने भ्रष्ट हज़ारे-आंदोलन का मेरे द्वारा समर्थन न करने पर मुझे अज्ञानी और अदूरदर्शी की उपाधि प्रदान की। 

विदेश प्रवासी स्वयंभू मार्क्स वादी विद्वान ने  'स्टालिन' व 'नेताजी सुभाष चंद्र बोस' की तारीफ करने पर  अनेकों फेसबुक नोट्स मेरे विरुद्ध लिखने के बाद फेसबुक ग्रुप 'लाल झण्डा' से मुझे ब्लाक किया । 

पटना प्रवासी ब्लागर ने अपने पति के कार्यालय में मेरे पुत्र को नौकरी का आफ़र दिया था जिसे ठुकराने पर मेरे विरुद्ध ब्लाग जगत में निराधार-अनर्गल लेखन किया। 

पूना प्रवासी भृष्ट-धृष्ट-निकृष्ट ब्लागर ने IBN7 के कारिंदा अपने रिश्तेदार ब्लागर से 'ज्योतिष एक मीठा जहर' लेख लिखवाया और साथ ही साथ मेरे विरुद्ध घृणित प्रचार अभियान चलाया। अपने संपर्कों के आधार पर हमारी पार्टी के दो नेताओं एवं सहयोगी वामपंथी पार्टी के एक नेता को मेरे विरुद्ध सक्रिय किया। इनमें से एक पी टी सीतापुरिया तो मेरे विरुद्ध तांत्रिक प्रक्रियाओं का भी सहारा ले रहे हैं जो कि वस्तुतः पूर्व में आर के नामक सो काल्ड कम्युनिस्ट नेता के कदमों का ही अनुसरण कर रहे हैं। 

पी टी एस के मुझसे खफा होने का कारण मात्र इतना सा है कि उनके बड़े नेता जी  ने मुझे उनकी सहायता करने को कहा है जिसे मैंने सहर्ष निस्वार्थ भाव से स्वीकार कर लिया है। पहले उन्होने इर-रिलीवेंट कहानियाँ सुना -सुना कर मुझे भयभीत करने का प्रयास किया जिसमें असफल रहने पर  फिर तांत्रिक  प्रक्रियाओं के सहारे से मुझे ही नहीं परिवारी जनों को भी त्रस्त करने लगे। एक रोज़ मार्ग में साईकिल में पीछे से 'उ.प्र.सचिवालय' की तख्ती लगाए कार ने  टक्कर मारी तो अगले दिन एक स्कूटर ने सामने से हैंडिल में टक्कर मारी।फिर उन्होने सार्वजनिक ब्लाग में लेखन अधिकार देने के साथ-साथ एडमिन राईट्स भी दे दिये जिसके आधार पर उनके सामने मुझे अपनी आई डी से ब्लाग पोस्ट निकालने को कहा। स्व्भाविक रूप से उन्होने आई डी पासवर्ड हासिल किया होगा जिसे मैंने घर पहुँचने से पूर्व ही पुत्र के माध्यम से बदलवा लिया और वह अपने मिशन में असफल रह गए। लेकिन अब मैंने सार्वजनिक लेखन हेतु एक नई आई डी ही बना ली अतः पुनः अपने सामने उनके द्वारा पोस्ट डलवाने पर मुझे कोई दिक्कत नहीं रही किन्तु उन्होने इसके पासवर्ड से खिलवाड़ करने का प्रयास किया जिससे यह आभास हुआ कि वह मूलतः मेरी निजी आई डी का पासवर्ड हस्तगत करके मेरे ब्लाग में पूना प्रवासी ब्लागर और उसके समर्थकों के संबंध में लिखे विषय में हेरा-फेरी करके उन लोगों को साफ-साफ बचाना चाहते थे। डायचेवेले के पूर्व कारिंदे समेत कुछ लोगों की मदद से फेसबुक पर भी मेरे विरुद्ध उन्होने अभियान चलवा रखा है।  उनकी हरकतों के मद्दे नज़र मैंने घर से बाहर चाय पीना बंद कर दिया था फिर भी गत बुधवार -26 जून 2013 को उन्होने चाय पीने को मजबूर किया जिसके बाद से वहाँ अभी तक नहीं पहुँच पाया हूँ और यही तो वह चाहते भी थे।

सो काल्ड कम्युनिस्ट आर के : 

आर के साहब एक प्राइमरी शिक्षक यूनियन के नेता की हैसियत से कम्युनिस्ट पार्टी में कार्यरत थे। एक ज़िले के पार्टी जिलमंत्री के निजी कारखाने पर उनकी निगाह गड़ गई थी और इसके लिए उन्होने अपने बेटे को मोहरा बना कर उनकी एक लड़की से विवाह करने का प्रस्ताव रखा। वह जिलामंत्री महोदय कई पार्टी कामरेड्स की निजी तौर पर भारी सहायता कर चुके थे। सभी कामरेड्स उन जिलामंत्री महोदय को आर के से दूर हटा कर उनके परिवार को बचाना चाहते थे। लेकिन आर के ने तांत्रिक प्रक्रियाओं के जरिये उनके बड़े बेटे को रुग्ण एवं उनके मस्तिष्क को जाम कर दिया था। उनकी शाखा के मंत्री कामरेड जो उनके छोटे भाई के रूप में विख्यात थे खिन्न होकर पार्टी छोड़ गए और जाते-जाते मुझसे घर पर कह गए थे कि जैसे भी हो जिलामंत्री महोदय के परिवार को बचाने के लिए कोई उपाय ज़रूर करना। उनके व्यापार में कुछ समय पार्टनर रहे एक एवं दूसरे व्यवसाय के साथी दूसरे कामरेड ने भी मुझसे कहा कि पार्टी टूटेगी तो फिरसे खड़ी हो जाएगी लेकिन उनका परिवार एक बार टूट गया तो बुरी तरह से बिखर जाएगा। कुछ न कुछ उपाय करके उनके परिवार को बचाना है। आर के मय जिलमंत्री महोदय को समझाने के बावजूद उनके टस से मस  न होने के कारण पार्टी मे उनके विरोध का निश्चय किया गया। 1992 के ज़िला सम्मेलन में जो राज्य सम्मेलन के बाद हुआ था आर के के समर्थन के कारण जिलमंत्री महोदय को पुनः निर्वाचित न होने देने का पूरा बंदोबस्त कर लिया गया था लेकिन कोई भी उनके मुक़ाबले में उतरने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। आदतन उन्होने कहा कि इस बार दूसरा जिलमंत्री चुन लिया जाये और उनको मुक्त कर दिया जाये। हर बार सब लोग पुनः उनको सर्व-सम्मति से निर्वाचित कर देते थे। इस बार उनके फ़ार्मेलिटी के लिए कहे गए शब्दों को स्वीकार करके उनके ही विश्वस्त और निकटस्थ कामरेड का नाम उनके विकल्प में ले दिया गया जिसका विरोध भी वह न कर सके। प्रस्तावक को उन्होने नए जिलामंत्री का  सहायक सचिव बनाने का प्रस्ताव कर दिया उसे  भी सर्व-सम्मति से स्वीकार कर लिया गया।

सम्मेलन स्थल के लिए रवाना होने से  एक दिन पूर्व उन जिलामंत्री महोदय ने मुझे अपने घर बुलवाया था और मुझसे आर के का विरोध न करने को कहा था। मैंने उनको साफ कह दिया था कि आप लोग दीवार तक देख रहे हैं लेकिन मैं तो दीवार के उस पार भी देखता हूँ और मुझे दीख रहा है कि आर के आपका सबसे बड़ा शत्रु है अतः आर के का विरोध करना परमावश्यक है जिससे आपकी भावी सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। वह ठठा कर हंस दिये थे और बोले थे कल सम्मेलन में आपकी हार होने जा रही है। मैंने कहा निश्चय ही मुझे अपने हारने की बेहद खुशी होगी। बोले वह क्यों?मैंने साफ कहा आपकी एक प्रतिष्ठा है जो आपके हारने से धूमिल होगी लेकिन मुझे जानता ही कौन है ?जो हारने पर मुझे अपमानित होना पड़े। वह बोले 'तो आप हमारे खैरख्वाह हैं' मैंने स्पष्ट कहा कि निश्चय ही। 

सम्मेलन के बाद उन्होने खीझ उतारने के लिए मुझे निकालने का असंवैधानिक प्रयास किया था जिस कारण मैं बाद में निष्क्रिय हो गया था। 9 वर्ष पदारूढ़ रह कर 9 वर्ष उनको अपदस्थ रहना पड़ा था लेकिन आर के का पर्दाफाश हो चुका था अतः उन्होने खुद ही आर के को पार्टी से निकलवा दिया। पुनः पदारूढ़ होने पर वह मेरे घर आकर मुझे कार्यक्रमों में शामिल करने लगे और जिन नेता जी ने मुझे पी टी सीतापुरिया की सहायता  करने के लिए कहा है उनकी ही उपस्थिती में पुनः पार्टी में शामिल कर लिया था। 

एक आर के थे जो निहित स्वार्थ के कारण कम्युनिस्ट बन कर तांत्रिक प्रक्रियाओं से अपना कद बढ़ाना चाहते थे। एक पी टी सीतापुरिया हैं जो बड़े कम्युनिस्ट के रूप में स्थापित होने के बाद भी क्षुद्र ब्लागर्स के हितों के संरक्षणार्थ तांत्रिक प्रक्रियाओं का सहारा लेकर खुद को सहायता देने वाले को ही तहस-नहस कर देना चाहते हैं। यह खुद भी एक जन्मपत्री का वैवाहिक विश्लेषण मुझसे प्राप्त कर चुके हैं। लेकिन जैसा कि प्रारम्भ में लिखा है 'उदारीकृत अर्थ व्यवस्था वाले समाज' में निस्वार्थ,निशुल्क सेवा प्रदाता को बेवकूफ समझा जाता है। पी टी सीतापुरिया आदि-आदि मुझे बेवकूफ समझते व कहते हैं। मैं भी खुद को बेवकूफ ही समझता हूँ वरना क्यों कर  मुसीबतों को दावत देता!


Link to this post-



+Get Now!