रविवार, 15 अप्रैल 2012

आगरा/1994 -95 /भाग-11 (बउआ का निधन )

(बउआ )
शोभा-कमलेश बाबू तथा अजय के परिवार के सब लोग आगरा से चले गए थे और बउआ की तबीयत निरंतर बिगड़ रही थी। कंपाउंडर दोनों वक्त आकर इंजेक्शन  -ग्लूकोज देख जाते थे ,उनको तो प्रत्येक ट्रिप पर रु 10/-मिल जाते थे। डॉ गर्ग को अब कुछ प्राप्ति न हो रही थी अतः कंपाउंडर से कहलवाया कि ग्लूकोज हटवा दो ऐसे कितने दिन चलेंगी। लेकिन मैंने ग्लूकोज चलने दिया और कंपाउंडर आते रहे। दरअसल अजय से डॉ गर्ग ने कहा था ग्लूकोज देने की बजाए पेट मे आपरेशन के जरिये नलिए फिट करा दो जिसके जरिये तरल भोजन भेजा जाये। लेकिन आपरेशन द्वारा मौत भी हो सकती है जिसकी ज़िम्मेदारी डॉ गर्ग की नहीं होगी। अजय इस आपरेशन के लिए तैयार थे परंतु मैंने सहमति नहीं दी थी।

रविवार 25 जून की सुबह से ही बउआ की तबीयत ज्यादा गड़बड़ हो गई ,सांस तेज चलने लगी, दोपहर को ही कंपाउंडर ने कह दिया था आज बड़ा मुश्किल है। खराब समय का यही आखिरी दिन था यदि निकल जाता तो अगले दिन से तबीयत सुधर सकती थी। काम मे मन लग नहीं रहा था परंतु निबटाना तो था ही। शाम को खाना जल्दी बना दिया था और यशवन्त से खाने को कहा परंतु उसने भूख नहीं है कह कर मना कर दिया अतः मैंने भी नहीं खाया जबकि मुझे भूख ज़ोर से लगी थी।

साँय 07-40  बजे कंपाउंडर आए ,उनके ग्लूकोज की बोतल  लगाते-लगाते07 -45 हो गया   और  तभी उन्हीं के सामने बउआ का सांस चलना भी रुक गया। वह सब नलियाँ ,ग्लूकोज आदि हटा गए और पैसे लेने से मना कर दिया उनमे डॉ गर्ग की अपेक्षा मानवीयता का माद्दा था।

बाबूजी के निधन के समय तो बउआ थीं तब मेरे साथ-साथ यशवन्त हर जगह गया था और वह घर पर अकेली रही थीं। किन्तु अब?बगल वाले घर के सतीश शर्मा साहब ने कहा कहीं मत जाओ वह अपने बेटे को भेज कर अजय व शोभा को टेलीग्राम करवा देंगे। हालांकि उनका बेटा व पत्नी मथुरा जाने के लिए अपने घर से निकले ही थे परंतु रुक गए। बर्फ भी वे पिता-पुत्र ही ले आए और तत्काल पैसे देने को भी मना कर दिया। उन्हीं के पुत्र ने मुझ से पता लेकर टेलीग्राम कर दिये,वही लड़का हींग-की-मंडी के शंकर लाल जी के घर भी बता आया।

बाबूजी के वक्त बउआ, मै और यशवन्त रात मे अकेले थे तब बउआ ने दरवाजा खुला रखवाया था। लेकिन अब शर्मा जी ने मुझसे कहा सिर्फ दो लोग हो दरवाजा रात को खुला न रखो,उन्होने बंद करवा दिया तब गए। पानी बरस गया था अतः गर्मी भी कम हो गई थी। बर्फ की सिल्ली अंदर रखवाते मे मेरे मध्यमा उंगली के कुचल जाने से काफी सूजन भी हो गई थी। इस बार बर्फ सस्ती मिली थी। बाबूजी के वक्त तेज गर्मी के कारण बर्फ काफी मंहगी मिली थी। तब भी शर्मा जी और उनके पुत्र ने ही बर्फ 13 तारीख की  आधी रात को ला दी थी।  तब सुबह होने मे तीन घंटे ही रह गए थे अब सारी की सारी रात बाकी थी। नींद तो न यशवन्त को आनी थी न मुझे।

वैसे शर्मा जी काफी पियक्कड़ थे और उन्हें अपना हाल मालूम होगा। इस समय से डेढ़ वर्ष बाद उनका भी निधन हो गया था। अंदरूनी एहसास के कारण वह दूसरी जगह (हमारे माता-पिता)अपने बेटे से अंतिम समय की परिस्थितियों से रू-ब -रू करा रहे होंगे। बाबूजी को भी चारपाई से उतार कर फर्श पर लाने मे उनके बेटे ने मेरा पूरा साथ दिया था और इस बार बउआ के समय भी उन्हें उतरवाने मे वही साथ-साथ लगा। इतनी मदद करवाने के बावजूद रात ही रात मे शर्मा जी को क्या हुआ या कि किसी रण-नीति के तहत उन्होने अगले दिन 26 जून को सुबह से हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि जल्दी घाट ले जाओ। वह अजय और शोभा के पहुँचने से पूर्व क्यों अंतिम संस्कार करने का दबाव डाल रहे थे समझ से परे था। बड़ी मुश्किल से यशवन्त को समझा कर बउआ के पार्थिव शरीर के पास अकेला छोड़ कर गधा पाड़ा स्थित कामरेड एस .कुमार को कह आया था कि वह कामरेड अनंत राम राठौर को लेकर घर 12 बजे के करीब आ जाएँ। मिनी ट्रक तो शर्मा जी का लड़का पहले तय कर आया था फिर वह अपनी माँ के साथ मथुरा चला गया था। उन लोगों के जाने के बाद शर्मा जी ने हल्ला बोला था। अतः एहतियातन मैंने दो कामरेड्स से संपर्क किया था हालांकि एक वर्ष पूर्व भाकपा छोड़ चुका था किन्तु सपा मे सक्रिय ज्यादा न हो पाया था। शर्मा जी ने धम्की दी थी कि कालोनी का कोई आदमी तुम्हारे साथ मदद नहीं कर सकता ।शर्मा जी एक ही डायलाग सड़क पर चिल्ला रहे थे कि जब उन बहन -भाई को माँ की चिंता न थी बीमारी गंभीर होने पर भी छोड़ कर भाग गए थे उनका यह बेवकूफ इंतज़ार क्यों कर रहा है?

शोभा-कमलेश बाबू के पहुँचने पर वही शर्मा जी बड़बड़ाने लगे -देखो बेटी को माँ की चिंता होती है वह तो आ गई ,बेटा भागा तो अभी तक आया ही नहीं। कमलेश बाबू को मोपेड़ पर साथ लेकर मै रावत पाड़ा सब सामान लेने गया। आने पर शर्मा जी बोले धूप बढ़ रही है भाई का इंतज़ार न करो ,शोभा बोलीं कि वह,कमलेश बाबू,मै और यशवन्त चार लोग हैं ले चलो ,अजय का इंतज़ार छोड़ो। मै इन लोगों की तिकड़म समझ रहा था अतः अजय के इंतज़ार मे रुका रहा।  जब ट्रेन पहुंची तब अजय भी पहुंचे और उनकी श्रीमती जी ने ही बउआ के अंतिम संस्कार हेतु रसमे भी निभाईं वही तो उस वक्त एकमात्र पुत्र-वधू थीं। जब घाट ले जाने लगे तो यशवन्त जो दो बार पहले भी जा चुका था (17 जून 1994 एवं 14 जून 1995 को ) चल ही रहा था उसके साथ ही चलने को पौने पाँच वर्षीय अजय की पुत्री भी अड़ गई।अजय ले चलने और उनकी श्रीमती जी भेजने को तैयार थीं अतः मै भी चुप ही रहा। मैंने शोभा से कहा तुमने घाट चलने की बात कही तो तुम्हारी भतीजी सच मे ही चल रही है।

ट्रक चलने से पूर्व ही कामरेड एस कुमार और कामरेड अनंत राम राठौर भी आ गए थे ,वे भी साथ चले। फिर शर्मा जी ने हमारे दूसरे साईड वाले सिन्धी महोदय को स्कूटर पर यह देखने के लिए भेज दिया कि कालोनी के लोगों को उनके द्वारा रोके जाने से इतने कम लोगों के साथ हम कैसे,क्या करते हैं?पता नहीं कुछ लोग खुद को खुदा क्यों समझने लगते हैं? हम लोग जब घाट पर टाल से लकड़ियाँ ढो रहे थे तब तक कुछ दूसरे लोग दाह संस्कार करके लौट रहे थे। उनके बुजुर्गवार एक सदस्य ने उन युवकों से कहा कि देखो इनके छोटी-छोटे बच्चे भी लगे हुये हैं तुम लोग इनकी मदद करो। फिर तो देखते-देखते आनन-फानन मे हम लोगों की कई क्वितल लकड़ियाँ मौके पर पहुँच गईं। हम उन लोगों को सिर्फ 'धन्यवाद' ही दे सकते थे। कालोनी के पढे-लिखे ,सभ्य ?सुसंस्कृत ?लोगों के व्यवहार और इन अनपढ़ तथा-कथित गवार ,अंनजाने लोगों के व्यवहार का यही तो अंतर था।शर्मा जी तथा दूसरे लोगों को उन सिन्धी महोदय से ज्ञात हो गया होगा कि उन लोगों द्वारा पीछे हटने के बावजूद अजनबी और गरीब लोगों द्वारा किस प्रकार अचानक हमारी सहायता की गई।

शाम को कहीं जाते समय वह शर्मा जी डॉ शोभा को अपने घर की चाभी दे गए और शोभा ने रख दी। मेरे यह पूछने पर उनके घर की चाभी क्यों ले ली तो शोभा का जवाब था तुम लड़ते रहना हम क्यों बुरा बनें?अपने बड़े भाई के अपमान से ज्यादा था बहन जी के लिए दूसरों के सामने  खुद को अच्छा साबित करना !शायद अगले ही दिन वे लोग झांसी चले गए।

क्रमशः .....

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