बुधवार, 26 नवंबर 2014

ज्योतिष भाग्य पर नहीं कर्म और केवल कर्म पर ही आधारित शास्त्र है----- विजय राजबली माथुर


अतीत के ज्योतिष्यात्मक राजनीतिक विश्लेषण
ज्योतिष विज्ञान को 'ढोंग-पाखंड' कहने वाले विद्व्-जनों को धैर्य-संयम के साथ विचार करना चाहिए की 'ज्योतिष' नहीं बल्कि उसके धन-लोलुप ज्ञाता ही ढ़ोंगी-पाखंडी हैं जो उल्टे उस्तरे से जनता को मूढ़ते हैं। आवश्यकता है अपने बुद्धि-विवेक को जाग्रत रखते हुये सही व्यक्ति से संपर्क करने की। 'नाच न आवे आँगन टेढ़ा' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुये जब गलत व्यक्ति से संपर्क करेंगे तो गलत ही तो परिणाम होगा। फिर ज्योतिष विज्ञान को नहीं खुद अपने को दोष दीजिये। भाकपा नेताओं ही नहीं अतीत में अन्य नेताओं के संबंध में भी विश्लेषण करता रहा हूँ।





Thursday, 21 July 2011

अतीत के ज्योतिष्यात्मक राजनीतिक विश्लेषण

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Thursday, 21 July 2011

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Thursday, 21 July 2011

अतीत के ज्योतिष्यात्मक राजनीतिक विश्लेषण

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अतीत के ज्योतिष्यात्मक राजनीतिक विश्लेषण



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Saturday, December 4, 2010


ज्योतिष और अंधविश्वास

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 पिछले कई अंकों में आपने जाना कि,ज्योतिष व्यक्ति क़े जन्मकालीन ग्रह -नक्षत्रों क़े आधार पर भविष्य कथन करने वाला विज्ञान है और यह कि ज्योतिष कर्मवादी बनाता  है -भाग्यवादी नहीं. इस अंक में आप जानेंगे कि ,अंधविश्वास ,ढोंग व पाखण्ड का ज्योतिष से कोई सरोकार नहीं है.

कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने ज्योतिष -विज्ञान का दुरूपयोग करते हुए इसे जनता को उलटे उस्तरे से मूढ्ने का साधन बना डाला है.वे लोग भोले -भले एवं धर्म -भीरू लोगों को गुमराह करके उनका मनोवैज्ञानिक ढंग से दोहन करते हैं और उन्हें भटका देते हैं.इस प्रकार पीड़ित व्यक्ति ज्योतिष को अंधविश्वास मानने लगता है और इससे घृणा करनी शुरू कर देता है.ज्योतिष -ज्ञान क़े आधार पर होने वाले लाभों से वंचित रह कर ऐसा प्राणी घोर भाग्यवादी बन जाता है और कर्म विहीन रह कर भगवान् को कोसता रहता है.कभी -कभी कुछ लोग ऐसे गलत लोगों क़े चक्रव्यूह में फंस जाते हैं जिनके लिए ज्योतिष गम्भीर विषय न हो कर लोगों को मूढ्ने का साधन मात्र होता है.इसी प्रकार कुछ कर्मकांडी भी कभी -कभी ज्योतिष में दखल देते हुए लोगों को ठग लेते हैं.साधारण जनता एक ज्योतषीऔर ढोंगी कर्मकांडी में विभेद नहीं करती और दोनों को एक ही पलड़े पर रख देती है .इससे ज्योतिष विद्या क़े प्रति अनास्था और अश्रद्धा उत्पन्न होती है और गलतफहमी में लोग ज्योतिष को अंध -विश्वास फ़ैलाने का हथियार मान बैठते हैं .जब कि सच्चाई इसके विपरीत है.मानव जीवन को सुन्दर,सुखद और समृद्ध बनाना ही वस्तुतः ज्योतिष का अभीष्ट है

७ वर्ष पूर्व २००३ ई .क़े नवरात्रों में एक ढोंगी व पाखंडी कर्मकांडी द्वारा कमला नगर ,आगरा निवासी एक व्यवसायी की माता की निर्मम हत्या व लूट -पाट तथा उसकी पत्नी को घायल कर दिया गया.पुलिस प्रशासन द्वारा पाखंडी को बचाने हेतु नाटक रचा गया और पीड़ित परिवार का चरित्र हनन किया गया.इस हरकत की जनता में उग्र प्रतिक्रिया हुई .फलस्वरूप दो पुलिस अधिकारियों को निलंबित होना पड़ा.इतने वीभत्स और कारुणिक काण्ड पर एक प्रतिष्ठित मिशनरी विद्द्यालय क़े प्रतिष्ठित शिक्षक की प्रतिक्रिया थी कि,उस कर्मकांडी क़े बयान में कुछ सच्चाई है और कि पुलिस अधिकारी निष्पक्ष व ईमानदार हैं.क्या आप जानना चाहेंगे कि,एक तथा -कथित सभ्रांत शिक्षक क़े ऐसे उदगार क्यों हैं ?नितांत आर्थिक आधार.अतीत में कभी पीड़ित परिवार का कोई बच्चा उक्त शिक्षक से पंद्रह दिन ट्यूशन पढ़ा था और बाद में उनका पारिश्रमिक भुगतान इसलिए नहीं किया गया था कि,उस बच्चे पर कोई तवज्जो नहीं दी गई थी .बस इतने मात्र से उक्त पीडिता को दोषी कहने में इन शिक्षक महोदय ने कोई संकोच नहीं किया .
आइये ,इन शिक्षक महोदय की ऐसी सोच का ज्योतिषीय विश्लेषण करें.यह शिक्षक एक ऐसे सम्प्रदाय (गायत्री परिवार )क़े अनुयायी हैं जो ज्योतिष को अन्धविश्वासी मानता है और इसी कारण इन महोदय ने अपने आवास पर इस प्रकार निर्माण -परिवर्तन कराया है जो ज्योतिष और वास्तु क़े विपरीत है.वास्तु ज्योतिष का ही एक अंग है और ग्रह नक्षत्रों की स्थिति क़े आधार पर गृह -निर्माण की विधि बताता है.संदर्भित शिक्षक महोदय ने अपने आवास क़े ईशान में दोनों मंजिलों पर शौचालय निर्मित करा लिए;उत्तर दिशा में रसोई स्थानांतरित कर ली ,जो कि वास्तु -शास्त्र क़े अनुसार (दोनों कृत्य) बुद्धि -विपर्याय क़े सूचक हैं.ईशान दिशा बृहस्पति का क्षेत्र है जो कि ज्ञान -विज्ञान ,बुद्धि -प्रदाता ग्रह है.इस क्षेत्र को नियमानुसार खाली या हल्का रखते हैं अथवा पूजा -स्थल का वहां निर्माण कराते हैं.जिससे  बुद्धि व ज्ञान का संचार सुचारू रूप से होता रहे.प्रस्तुत उदाहरण में शिक्षक महोदय ने ज्ञान क़े देवता को (शौचालय निर्मित कर ) मल -मूत्र से आवृत करके अपनी बुद्धि पर कुठाराघात कर लिया और इस अंध विश्वास से ग्रस्त हैं कि ,ज्योतिष ही अंध विश्वास का वाहक है.इस निर्माण कार्य को ७ वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और वहां बुद्धि -विभ्रम का बहुत कुछ खेल हो चुका है (जिसका वर्णन वास्तु दोष एक प्रेक्टिकल उदाहरण में भी हुआ है और "श्रधा ,विश्वास और ज्योतिष "में भी आगे होगा ).

अब आइये ,इन्हीं की तर्ज़ पर हू -ब -हू निर्मित एक पुलिस अधिकारी क़े आवास से इस वास्तु दोष को समझते हैं,जिनके निर्माण काल को अब ११ वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और उस भवन क़े निवासियों पर समस्त वास्तु दोष सिर पर चढ़ कर बोल रहे हैं.उत्तर की रसोई और ईशान क़े दोनों मंजिलों वाले शौचालय युक्त आवास क़े निवासी पुलिस अधिकारी पब्लिक में तो सौम्य व विनम्र अधिकारी क़े रूप में जाने जाते हैं (अब रिटायर्ड ),परन्तु घर में अब उनका नियंत्रण समाप्त हो गया है.उनके बेटे -बेटियां पिता को कुछ समझते ही नहीं हैं और कहते हैं कि ,पुलिसिया डंडा घर में नहीं चलेगा. इनकी पत्नी इन्हें देखते ही गुर्राने लगती हैं.अधिकारी महोदय भी अपनी शिक्षिका पत्नी को कुछ महत्त्व नहीं देते हैं.फलतः इनका घर भानुमती का कुनबा बनकर रह गया है. इस ईशान -दोष ने बेटे -बेटियों क़े विवाह में अनावश्यक बाधाएं खडी कीं (गुण मिल जाने क़े बावजूद लड़के वाले बाद में बिदक जाते थे और कभी इन्ही क़े किसी रिश्तेदार की बेटी से विवाह करके इन अधिकारी महोदय को धोखा खिला देते थे;उपाए करने क़े बाद ही उन बच्चों का विवाह हो सका ).यही नहीं ,इस ईशान -दोष ने अधिकारी महोदय को रक्त -चाप का मरीज़ बना कर रख दिया है.घर में घुसते ही यह चिडचिडे बन जाते हैं.इनकी शिक्षिका पत्नी को गठिया रोग ने घेर लिया है और अब घर क़े कार्यों से भी लाचार हो गई हैं और पुत्रियों फिर बहुओं पर निर्भर होकर रह गई हैं.इस परिवार की बुद्धि इतनी विकृत हो गई है कि,किसी भी प्रकार का उपचार व निराकरण भी सम्यक रूप से करने को कोई तैयार नहीं है और अपनी अकर्मण्यता को छिपाने हेतु भगवान् की मर्जी को ढाल बना लेते हैं.

"अंधविश्वास "से ग्रस्त लोग ज्योतिष और वास्तु को ठुकरा कर किस प्रकार अपना अहित कर लेते हैं,इसका एक और उदाहरण उक्त शिक्षक महोदय क़े सलाहकारों पर एक नज़र डालने से मिल जाएगा .इनके एक सलाहकार बचपन क़े सहपाठी और अब दूरसंचार अधिकारी कहते हैं कि,आज विज्ञान क़े युग में ज्योतिष को केवल मूर्ख -लोग ही मानते हैं.(उन्हीं महोदय को अपनी पुत्री नीलम क़े विवाह की अडचने दूर करने हेतु मेरा परामर्श मानने पर मजबूर होना पड़ा और समुचित उपाय  करने क़े बाद ही उसका विवाह सम्पन्न हो सका ).इनके दूसरे सलाहकार चुनावों में परास्त एक छुट -भैय्ये नेता का कहना है-भाग्य में जो होना है वह हो कर रहता है और ज्योतिष का कोई लाभ नहीं है.उनके अपने निवास में जो वास्तु दोष हैं उनका उपचार वह करना नहीं चाहते और बेटे -बेटियों की बढ़ती उम्र क़े बावजूद शादी न होने से हताश हैं और  भगवान् को कोसते रहते हैं. "ऐसे  अन्धविश्वासी लोगों क़े लिए बस यही कहा जा सकता है -जो होना है ,सो होना है.फिर  किस बात का रोना है.."

ज्योतिष को अंधविश्वास का प्रतीक मानने वाली एक महिला राजनेता का रसोई घर तो पहले से ही द.-प .(S .W .)में था जो कलह की जड़ था ही;अब उसी क्षेत्र में नल -कूप भी लगवा लिया है.परिणामस्वरूप पहली छमाही  क़े भीतर ही ज्येष्ठ पुत्र को आपरेशन का शिकार होना पड़ गया.

इसी प्रकार कान्वेंट शिक्षा प्राप्त लोग प्रतीक चिन्हों का उपहास उड़ाते हैं जबकि छोटा सा चिन्ह भी गूढ़ वैज्ञानिक रहस्यों को समेटे हुए है.उदाहरण स्वरूप इस स्वास्तिक चिन्ह को देखें और इस मन्त्र का अवलोकन करें :-
            (कृपया स्कैन को इनलार्ज कर पढ़ें इसी आलेख का भाग है )



१ .चित्रा-२७ नक्षत्रों में मध्यवर्ती तारा है जिसका स्वामी इंद्र है ,वही इस मन्त्र में प्रथम निर्दिष्ट है.
२ .रेवती -चित्रा क़े ठीक अर्ध समानांतर १८० डिग्री पर स्थित है जिसका देवता पूषा है.नक्षत्र विभाग में अंतिम नक्षत्र होने    क़े कारण इसे मन्त्र में विश्ववेदाः (सर्वज्ञान युक्त )कहा गया है.
३ .श्रवण -मध्य से प्रायः चतुर्थांश ९० डिग्री की दूरी पर तीन ताराओं से युक्त है.इसे इस मन्त्र में तार्क्ष्य (गरुण )है.
४ .पुष्य -इसके अर्धांतर पर तथा रेवती से चतुर्थांश ९० डिग्री की दूरी पर पुष्य नक्षत्र है जिसका स्वामी बृहस्पति है जो मन्त्र क़े पाद में निर्दिष्ट हुआ है.

इस प्रकार हम देखते हैं कि धार्मिक अनुष्ठानों में स्वास्तिक निर्माण व स्वस्ति मन्त्र का वाचन पूर्णतयः ज्योतिष -सम्मत है.धर्म का अर्थ ही धारण करना है अर्थात ज्ञान को धारण करने वाली प्रक्रिया ही धर्म है.इस छोटे से स्वस्ति -चिन्ह और छोटे से मन्त्र द्वारा सम्पूर्ण खगोल का खाका खींच दिया जाता है.  अब  जो लोग इन्हें अंधविश्वास कह कर इनका उपहास उड़ाते हैं वस्तुतः वे स्वंय ही अन्धविश्वासी लोग ही हैं जो ज्ञान (Knowledge ) को धारण नहीं करना चाहते.अविवेकी मनुष्य इस संसार में आकर स्वम्यवाद अर्थात अहंकार से ग्रस्त हो जाते हैं.अपने पूर्व -संचित संस्कारों अर्थात प्रारब्ध में मिले कर्मों क़े फलस्वरूप जो प्रगति प्राप्त कर लेते हैं उसे भाग्य का फल मान कर भाग्यवादी बन जाते हैं और अपने भाग्य क़े अहंकार से ग्रसित हो कर अंधविश्वास पाल लेते हैं.उन्हें यह अंधविश्वास हो जाता है कि वह जो कुछ हैं अपने भाग्य क़े बलबूते हैं और उन्हें अब किसी ज्ञान को धारण करने की आवश्यकता नहीं है.जबकि यह संसार एक पाठशाला है और यहाँ निरंतर ज्ञान की शिक्षा चलती ही रहती है.जो विपत्ति का सामना करके आगे बढ़ जाते हैं ,वे एक न एक दिन सफलता का वरन कर ही लेते हैं.जो अहंकार से ग्रसित होकर ज्ञान को ठुकरा देते हैं,अन्धविश्वासी रह जाते हैं.ज्योतिष वह विज्ञान है जो मनुष्य क़े अंधविश्वास रूपी अन्धकार का हरण करके ज्ञान का प्रकाश करता है.

शक  ओ  शुबहा -अब सवाल उस संदेह का है जो विद्व जन व्यक्त करते हैं ,उसके लिए वे स्वंय ज़िम्मेदार हैं कि वे अज्ञानी और ठग व लुटेरों क़े पास जाते ही क्यों हैं ? क्यों नहीं वे शुद्ध -वैज्ञानिक आधार पर चलने वाले ज्योत्षी से सम्पर्क करते? याद रखें ज्योतिष -कर्मकांड नहीं है,अतः कर्मकांडी से ज्योतिष संबंधी सलाह लेते ही क्यों है ? जो स्वंय भटकते हैं ,उन्हें ज्योतिष -विज्ञान की आलोचना करने का किसी भी प्रकार हक नहीं है. ज्योतिष भाग्य पर नहीं कर्म और केवल कर्म पर ही आधारित शास्त्र है.  






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गुरुवार, 20 नवंबर 2014

सादगी से रहने वाले,काम करने वाले,'राजनीति ' में किसे पसंद आते हैं? ---विजय राजबली माथुर

शाह नवाज़ साहब का यह कथन  व्यावहारिक धरातल पर  'अकाट्य सत्य-वचन' है। काफी पहले लखनऊ भाकपा के जिलामंत्री के दाहिना हाथ के रूप में प्रचारित एक साहब ने मुझको घर पर आ कर चेताया था कि प्रदीप तिवारी अब यू पी AIBEA के अध्यक्ष भी बन गए हैं इसलिए उनके विरुद्ध कोई कारवाई नहीं की जा सकती है जिस कारण मुझको ही हटा दिया जाएगा। फिर 16 सितंबर को मतगणना स्थल पर उनके बायाँ हाथ माने जाने वाले दूसरे साहब ने भी कहा था कि प्रदीप तिवारी और आपके बीच 36 का रिश्ता है उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा अतः मुझे हटा दिया जाएगा। 14 नवंबर को उनके जासूस के तौर पर कार्यरत एक साहब ने मुझको घर पर आकर बताया कि ज़िला सम्मेलन में मुझको प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा । मैंने पहले भी कई- कई बार स्पष्ट कर दिया था कि न तो आगरा में और न ही लखनऊ में मैंने पार्टी सदस्यता या पद के जरिये कोई भी जायज/नायज लाभ उठाया है न उठाना है जो मैं प्रदीप तिवारी के आगे झुकूँ जिसने 13 जूलाई 2013 को काउंसिल मीटिंग में मुझ पर अपने पैरों से प्रहार किया था। 
दीवार के उस पार का दीदार :
1992 में आगरा के तत्कालीन जिलमंत्री कामरेड रमेश मिश्रा जी से सबसे पहले इस बात का ज़िक्र किया था कि आप लोग केवल दीवार पर लिखा या दीवार तक का दृश्य देखते हैं जबकि मैं दीवार के उस पार क्या है देख कर ही कोई विचार, निर्णय या कार्य करता हूँ। यह विवाद  भाकपा प्रदेश कंट्रोल कमीशन के सदस्य रमेश कटारा से संबन्धित था। उस वक्त मिश्रा जी कटारा को ठीक समझ रहे थे लेकिन बाद में उनके द्वारा ही कटारा को पार्टी से निकलवाया गया था तब मन में ज़रूर उनको मेरे द्वारा कही बात याद आई होगी  तभी तो 2006 मे तत्कालीन प्रदेश सह-सचिव डॉ गिरीश जी  की उपस्थिती में मुझे वापिस पार्टी में शामिल किया था।

लेकिन आज डॉ गिरीश जी कटारा के एक नए अवतार से वशीभूत चल रहे हैं और दीवार के उस पार लिखा हुआ अनदेखा कर रहे हैं बावजूद इस तथ्य के कि एक तो भाकपा में नया कौन आ ही रहा है? ऊपर से दिसंबर 2014 तक की राहत के बाद पार्टी की 'मान्यता' एक राष्ट्रीय दल के रूप में समाप्त होने की कगार पर है तो भी कटारा के नए अवतार की रक्षा व बचाव के लिए राष्ट्रीय नेताओं तक से गलत बात लिखवा ले रहे हैं। 



यहाँ लखनऊ में तो न ही ज्योति बसु जी की और न ही अभी तक भूपेश गुप्ता जी की शताब्दी का कोई कार्यक्रम ही हुआ है। बल्कि ज़िला काउंसिल में तय होने के बावजूद सी राजेश्वर राव साहब की शताब्दी का भी कोई कार्यक्रम सम्पन्न नहीं हुआ था।


जस्टिस वी आर कृष्ण अय्यर साहब देश की प्रथम निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार में केरल के शिक्षा मंत्री रहे थे। बाद में नेहरू सरकार द्वारा वह सरकार बर्खास्त किए जाने के बाद अय्यर साहब फिर से  वकालत करने लगे तथा सर्वोच न्यायालय के न्यायाधीश पद तक पहुंचे। उनके कार्यकाल में मजदूरों के हक में कई फैसले हुये।* इन्दिरा जी के कार्यकाल में विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने हेतु उन्होने पद-त्याग कर दिया था। 

ISCUS-इंडो सोवियत कल्चरल सोसाइटी के भी आप काफी समय अध्यक्ष रहे । इसी हैसियत से आगरा में एक कार्यक्रम में अय्यर साहब पधारे भी थे तब उनको देखने व सुनने का अवसर प्राप्त  हुआ था। अपने इस जीवित महान नेता के जन्म दिवस पर भी लखनऊ में अलग से कोई कार्यक्रम होना तो दूर बल्कि 15 नवंबर को ही सम्पन्न ज़िला काउंसिल की बैठक में उनका कोई उल्लेख तक नहीं किया गया जबकि प्रदेश नेतृत्व की भी उपस्थिती थी। 

'कथनी और करनी' का अंतर तथा 'सत्य'  को स्वीकार न करने की प्रवृति ही भाकपा को जनता से दूर किए हुये है। यदि पार्टी को जन-प्रिय बनाने हेतु सुझाव दिये जाते हैं तो उनको 'जानकारी का आभाव' और 'गलत फैसले' कह कर ठुकरा दिया जाता है। इस प्रकार कटारा के अवतार जैसों को तो निजी लाभ पहुँच जाता है और पार्टी को क्षति होती रहती है। सही को गलत और गलत को सही कह कर जनता का विश्वास नहीं अर्जित किया जा सकता भले ही कार्यकर्ताओं को 'अनुशासन' के 'डंडे ' से चुप करा दिया जाये। 
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* 04-12-2014 
 04 Dec.2014

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रविवार, 9 नवंबर 2014

संकीर्ण एवं पोंगापंथी सोच 'साम्यवाद' को जन-प्रिय नहीं होने देंगे-----विजय राजबली माथुर





'एकला चलो रे' के अनुगामी कुमार कुलदीप साहब को इस लेख में काफी सच्चाई दिखाई दी :

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

सच का सामना किए बगैर जीतना मुमकिन नहीं ---

किन्तु आगरा भाकपा  व माकपा से सम्बद्ध कामरेड्स को इसी लेख पर घोर आपत्ति भी है।  हो सकता है कि ये दृष्टिकोण उन दोनों के व्यक्तिगत हों परंतु मुझे लगता है कि उनके दृष्टिकोण 'संकीर्ण एवं पोंगापंथी सोच' पर आधारित हैं। माकपा वाले वकील साहब तो 'लकीर के फकीर' वाले सिद्धान्त पर चलने वाले हैं अतः कुछ भी सुनना व मानना पसंद नहीं करेंगे। 

लेकिन भाकपा वाले इंजीनियर साहब ने 'पार्टी अनुशासन' का उल्लेख कर या तो बात को जान बूझ कर कुरेदा है या अतीत से मुंह फेर कर केवल अपनी सोच की पसंद ज़ाहिर की है। आगरा में पार्टी कार्यालय जिस सुंदर होटल, राजा-की-मंडी में पूर्व में स्थित था उसी कार्यालय में डॉ राम विलास शर्मा जी को उनके प्रगतिशील विचारों के कारण साईकिल की चेन से पीटने वाले दो कामरेड्स के विरुद्ध कौन सा अनुशासन लागू हुआ था? वे दोनों तो 9 +3 +9 वर्ष वहाँ जिलमंत्री भी बाद में बने थे जबकि डॉ राम विलास शर्मा जी को सेंट जान्स कालेज, आगरा का जाब छोड़ कर दिल्ली शिफ्ट होना पड़ा था। उसी कार्यालय में प्रदेश कंट्रोल कमीशन के सदस्य होते हुये भी रमेश कटारा साहब ने जिन कामरेड को पीटा था वह वैसे तो इंजीनियर साहब के पड़ौसी थे किन्तु उनको अपना व्यवसाय दिल्ली शिफ्ट करके चले जाना पड़ा। 

डॉ राम गोपाल सिंह चौहान साहब को कामरेड महादेव नारायण टंडन साहब शाहजहाँपुर से लेकर आए थे और जब मैं वहाँ पार्टी  में शामिल हुआ था उस वक्त तक बावजूद वृद्धावस्था के वह ज़िला पार्टी की रीढ़ थे। उस समय के जिलामंत्री कामरेड रमेश मिश्रा जी उनको अपना 'गुरु' कहते थे किन्तु कटारा द्वारा मिश्रा जी को वशीभूत कर लेने के बाद डॉ चौहान साहब मिश्रा जी से थोड़ा विचलित भी हुये थे।  बेइमानी का पर्याय  कटारा का मुक़ाबला करने के लिए ईमानदारी पर चलने के कारण उन्होने मुझको अपने  सामने ही अपने उत्तराधिकारी के रूप में कोषाध्यक्ष बनवा दिया था। सम्पूर्ण घटनाक्रम से खुद इंजीनियर साहब अवगत हैं। अब तो प्रदेश में कटारा का एक नया अवतार हावी है जो कि लखनऊ का ही सदस्य होते हुये भी  इंचार्ज बनने के कारण 'सुपर जिलामंत्री' के रूप में है जो ज़िला काउंसिल के मंच से सिर्फ उसके अपने प्रशंसकों को ही बात रखने के अवसर दिलवाता है। सही और सच्च बातों को सुना नहीं जाता है तो 'अनुशासन मानना ही पड़ेगा' और 'पार्टी के मंच से अपनी बात कहें' जैसे शब्दों का प्रयोग क्या इंगित करता है? यही न कि बावजूद इसके कि पार्टी की मान्यता 'एक राष्ट्रीय दल' के रूप में समाप्त होने के कगार पर पहुँच जाने के बावजूद अभी भी पार्टी को 'जन-प्रिय' नहीं होने देने का मंसूबा संकीर्ण एवं पोंगापंथी सोच वाले पाले बैठे हैं। कोई भी ऐसी बात जो पार्टी की स्वीकार्यता जनता में उत्पन्न कर सके इन निहित स्वार्थी तत्वों को मंजूर नहीं है और वैसी बात करने वालों को 'अनुशासन' का डंडा दिखा कर चुप करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य है। लेकिन वैसे अनुशासन से पार्टी का तो भला नहीं ही होगा , हाँ कटारा ब्रांड नीति-निर्धारक आगे भी लाभान्वित होते रहेंगे।

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बुधवार, 5 नवंबर 2014

'अपनत्व ' राजनीति की धुरी है और इसका आभाव?--- विजय राजबली माथुर


अमर उजाला में एक समाचार प्रकाशित हुआ है कि दिल्ली में कांग्रेस के छह विधायक तोड़ कर भाजपा सरकार बनाने जा रही थी। किन्तु सोनिया जी ने अपने एक विधायक को फोन करके उसकी निजी समस्याओं पर चर्चा की और कभी मिलने को घर आने को कहा। विधायक जी सोनिया जी से मिले और वार्ता के बाद साथियों सहित भाजपा को समर्थन न देने का निश्चय किया और भाजपा को मन मसोस कर रह जाना पड़ा।

इसी पर उपरोक्त टिप्पणी है इन पत्रकार बंधु की फेसबुक पर।

लगता है यह एक सही और सटीक  निष्कर्ष है ।  'राजनीति ' शब्द POLITICS के समानार्थी के रूप में प्रयुक्त होता है। ग्रीक शब्दों POLY + TRICS का समन्वय है POLITICS जिसका शब्दानुवाद है मल्टी ट्रिक्स अर्थात मतलब निकालने के विभिन्न तरीके। अधिकांश लोग राजनीति को इसी अर्थ में लेते हैं जिस कारण इसे घृणा की दृष्टि से भी देखा जाता है। किन्तु सोनिया जी की भांति ही कुशल राजनीतिज्ञ 'अपनत्व ' के आधार पर ही राजनीति चलाते हैं और वे अक्सर सफल भी रहते हैं। आक्रामकता द्वारा भावावेष से क्षणिक सफलता ही हासिल की जा सकती है 'स्थाई ' नहीं।

इस संदर्भ में 24-22  वर्ष पूर्व का घटनाक्रम याद आ गया है। 1992 में उत्तर-प्रदेश भाकपा का राज्य सम्मेलन आगरा में आयोजित हुआ था। आगरा के तत्कालीन  जिलामंत्री कामरेड रमेश मिश्रा जी का कहना था कि राज्य सचिव का .जगदीश नारायण त्रिपाठी जी ने ज़बरदस्ती यह उन पर थोप दिया था । उस समय एक प्राइमरी अध्यापक रमेश कटारा साहब ने अपनी तांत्रिक प्रक्रियाओं से रमेश मिश्रा जी व उनके परिवार की बुद्धि जाम कर दी थी। अतः मिश्रा जी कटारा साहब को राज्य काउंसिल में भेजना चाहते थे लेकिन आगरा के कामरेड्स कटारा की स्वार्थलिप्सा को समझते थे। वे जानते थे कि कटारा न केवल पार्टी बल्कि मिश्रा जी के निजी व्यवसाय तथा भवन पर भी निगाह जमाये हुआ था। उन सबने कटारा का सामूहिक विरोध किया जिस कारण वह राज्य काउंसिल में न भेजे जा सके।
मिश्रा जी ने अपने निजी 'अपनत्व-सम्बन्धों' के आधार पर केंद्रीय कंट्रोल कमीशन के चेयरमेन कामरेड काली शंकर शुक्ला जी से प्रभाव डलवा कर कटारा को प्रदेशीय कंट्रोल कमीशन में समायोजित करवा दिया। इसका खामियाजा मिश्रा जी को अपनी कुर्सी खो कर भुगतना पड़ा फिर वह नौ वर्ष बाद ही पुनः ज़िला मंत्री बन पाये तब ही जबकि कटारा को उन्होने पार्टी से निकलवा दिया। कुर्सी जाने पर उसके लिए मिश्रा जी ने मुझको दोषी माना और मुझे कटारा के कहने पर पार्टी से निकलवाने का प्रस्ताव पास करा दिया जिसे अवैधानिक ठहराया गया और मैं अपने पदों पर बहाल रहा था। किन्तु यह आभास हो गया था कि आगे भी कटारा और कुछ हरकत कर सकता है। अतः 1994 में प्रदेश सचिव मित्रसेन यादव जी व रामचन्द्र बख़्श सिंह साहब के साथ मैं सम्मान जनक तरीके से चला गया था।

सामूहिक धरने-प्रदर्शन आदि पर भाकपा के वरिष्ठ नेता गण मिलते रहते थे और उनसे सौहाद्र पूर्ण वार्तालाप होते रहते थे। जब बेनी प्रसाद वर्मा जी  और राज बब्बर साहब ने भी सपा नहीं छोड़ी थी उनसे पूर्व ही मैं निष्क्रिय बैठ गया था।  2006 में एक दिन दयालबाग क्षेत्र में अनायास  ही कामरेड रमेश मिश्रा जी से मुलाक़ात हो गई तो उनका पहला प्रश्न था कि आजकल किसी आंदोलन में दिखाई नहीं पड़ते ,क्या बात है? जब मैंने बताया कि आप तो जानते ही हैं कि मैं दीवार के उस पार भी क्या है ताड़ लेता हूँ तब आप आसानी से समझ सकते हैं कि क्यों मैंने बब्बर साहब व वर्मा जी से बहुत पहले सपा को अलविदा कर दिया था।
(मध्य में डॉ जितेंद्र रघुवंशी जी के दाहिने हाथ पर बैठे हुये हैं-कामरेड रमेश मिश्रा जी )

इस पर मिश्रा जी का मुझसे  कहना था कि राजनीतिक व्यक्ति खाली नहीं बैठ सकता और वह मुझे खाली नहीं बैठे रहने देंगे। उन्होने स्पष्ट किया कि अब कटारा को पार्टी से निकलवा दिया है और मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी अतः मैं वापिस भाकपा में लौट आऊँ। व्यक्तिगत रूप से मिश्रा जी के 'अपनत्व ' से मैं वाकिफ था और उसे नकारा नहीं जा सकता था अतः मैंने विचार करने का आश्वासन दे दिया था। किन्तु मिश्रा जी जब-तब मेरे घर पर 'अपनत्व' के तौर पर फिर आने लगे व एक-दो पार्टी कार्यक्रमों में अपने साथ ले भी गए जबकि मुझे सदस्यता लेना बाकी भी था। उनका कहना था कि -" आपकी निष्ठा व ईमानदारी पर कभी कोई संदेह नहीं था और आपके साथ रहने से हमें बल मिलता है"।

ऐसे ही कमिश्नरी पर हुये 2006 में एक प्रदर्शन में जन-मोर्चा अध्यक्ष राज बब्बर साहब के साथ उत्तर-प्रदेश भाकपा के तत्कालीन सह-सचिव डॉ गिरीश भी  आगरा आए थे। लौटते में डॉ साहब भी उसी ट्रेक्टर ट्राली में बैठ कर ज़िला पार्टी कार्यालय आए जिसमें मैं भी था।डॉ साहब की उपस्थिती में ही मिश्रा जी ने पार्टी सदस्यता का फार्म मुझसे भरवा कर विधिवत सदस्यता प्रदान कर दी । क्योंकि मैं पूर्व में ज़िला पार्टी में था अतः तत्काल पूर्ण सदस्यता मिली।मिश्रा जी का  'अपनत्व' ही वह आधार था जो मुझे पुनः भाकपा में लौटा लाया।

समय चक्र के अनुसार 2009 में मैं आगरा से लखनऊ चला आया और निजी समस्याओं के सुलझते ही 25 सितंबर 2010 को प्रदेश सचिव डॉ गिरीश जी से पार्टी कार्यालय में संपर्क किया जो कि आगरा से ही जानते थे। अतुल अंजान साहब व अशोक मिश्रा जी भी आगरा से ही जानते थे। इन सबसे बात 'अपनत्व ' के आधार पर ही होती रही ,किन्तु रमेश कटारा साहब का एक नया अवतार प्रदेश में निर्णायक पदाधिकारी बना हुआ  था जो डॉ साहब को मुझसे दूर करने में सफल हो चुका है। 13 जूलाई 2013 की ज़िला काउंसिल मीटिंग में कटारा के उस नए अवतार ने मेरे पेट में उँगलियाँ भोंकी व अपने पैरों से मेरे पैरों पर प्रहार किए किन्तु डॉ साहब ने उससे 'मोह' के वशीभूत उसको कुछ नहीं कहा। मेरे द्वारा अंजान साहब व वर्द्धन जी के विचार पार्टी ब्लाग में पोस्ट  करने पर उस अवतार ने न केवल वे पोस्ट डिलीट कर दिये बल्कि मुझको ब्लाग एडमिनशिप तथा आथरशिप से भी हटा दिया। डॉ साहब ने कटारा-अवतार के कृत्य का समर्थन किया था। उस अवतार ने न तो विश्वनाथ शास्त्री जी को और न ही डॉ गिरीश जी को पार्टी के अधिकृत ब्लाग में एडमिन रखा था न ही आथर। फिर मुझको आथर व एडमिन क्यों बनाया ?उसके पीछे उसकी जो चाल थी वह विफल हो गई थी। अतः मैंने प्रदेश सचिव डॉ गिरीश जी व प्रदेश सह सचिव डॉ अरविंद राज स्वरूप जी को उन दोनों से निवेदन करके उन दोनों को ही पार्टी ब्लाग में आथर व एडमिन बना दिया था। इससे भी अवतार चिढ़ गया था। अब इस अवतार ने ( जो कि प्रदेश की ओर से ज़िले का सदस्य होते हुये भी पर्यवेक्षक बनाने से खुद को सुपर जिलामंत्री समझ लिया है ) अपने तो खास लोगों से मुझको ज़िला सम्मेलन से पूर्व तिकड़म द्वारा  पार्टी से हटाये जाने का ऐलान कर दिया है। 
 न तो आगरा में और न ही लखनऊ में मैंने किसी पार्टी पोस्ट से कोई निजी या नाजायज लाभ उठाया है अतः मुझे उससे कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा। यह तो रमेश मिश्रा जी का  ' अपनत्व ' ही था जो मुझे वापिस पार्टी में लौटा लाया था वरना मैं किसी लोभवश नहीं आया था। अवतार साहब का निजी लोभ मुझको बोझ समझता है तो समझता रहे।

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