अपने जन्मदिवस से चार दिन पूर्व 'नीतू सिंह ' जी की यह मुलाक़ात राज्यसभा सदस्या रेखा जी से हुई थी।
कल 08 जूलाई को नीतू सिंह जी के जन्मदिवस पर उनकी मुख्य भूमिका 'चोरनी' के रूप में किए जाने का अध्ययन इस फिल्म का अवलोकन करके किया । श्रीमती पद्मा सूद की परिकल्पना पर श्री किरण कुमार द्वारा लिखित कहानी के संवाद सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी जी के हैं और निर्देशन ज्योति स्वरूप जी का।नीतू सिंह जी ने 'दीपा' व जितेंद्र जी ने डॉ विक्रम सागर की भूमिकाओं का निर्वहन बखूबी किया है।
इस फिल्म के माध्यम से बताया गया है कि किस प्रकार अमीर लोग अप संस्कृति का शिकार होकर समाज को विकृत करते रहते हैं। आज 1982 के बत्तीस वर्षों बाद तो समाज का और भी पतन हो चुका है अतः आज भी इस फिल्म की शिक्षा प्रासंगिक है।
एक मजबूर और ज़रूरतमन्द गरीब नौकरानी दीपा को अपना शिकार बनाने में विफल रहने पर एक अमीरज़ादा 'चोरी' के झूठे इल्ज़ाम में अपने प्रभाव से गिरफ्तार करा देता है और जज साहब उसे छह माह की सजा सुना देते हैं। इसका अंजाम यह होता है कि सजा खत्म होने के बाद दीपा वास्तव में चोरी करना शुरू कर देती है क्योंकि समाज उसे इसी रूप में जानता था तो उसे प्रताड्ना झेलनी ही थी। इलाके के गुंडे को वह अधिक लाभ मुहैया कराती है। परंतु इस बार पकड़े जाने पर जज साहब से कह देती है बेकार सुनवाई क्यों करेंगे वह जुर्म कुबूल करती है। जज साहब उसे सुधार गृह में एक वर्ष के लिए भिजवा देते हैं। उसी सुधार गृह के वार्षिकोत्सव में वही जज साहब कहते हैं कि यदि परिवार इनमें से एक-एक बच्चे का दायित्व ले लें तो इन बच्चों का भविष्य संवर सकता है। सुधार गृह के संचालक संदेह व्यक्त करते हैं कि इन बच्चों को कोई भी परिवार आगे आकर सम्हालने व सुधारने की ज़िम्मेदारी नहीं लेगा क्योंकि ये सब बदनाम हो चुके हैं। यह जज साहब आगे आकर 'दीपा' को गोद ले लेते हैं और अपनी बेटी के रूप में अपने घर ले जाते हैं जिसका प्रतिवाद उनके घर के सदस्यों द्वारा किया जाता है परंतु उनके अडिग रहने पर सब चुप हो जाते हैं।
इन घटनाओं के माध्यम से न केवल समाज की विकृत सोच को उजागर किया गया है बल्कि 'न्याय-व्यवस्था' के अमीरों की चेरी होने के तथ्य की ओर भी इंगित किया गया है। यदि पहले जज साहब सही न्यायिक प्रक्रिया का पालन करते तो न तो दीपा को सजा होती और न ही वह वास्तव में चोरी को अपनाती।चोरी को मजबूरी में अपनाने के बावजूद दीपा जिन बच्चों की मदद करती है उनको सदशिक्षा ही देती है। परंतु दूसरे जज साहब की भूमिका समाज-सुधारक के रूप में भी सामने आई है। कानूनी प्रक्रिया से वह बंधे हुये थे तो व्यक्तिगत समझ के आधार पर उन्होने एक निर्दोष को सुधारने व विकास करने का अवसर प्रदान किया । लेकिन अपनी व्यस्तताओं के चलते वह अपने परिवार के सभी सदस्यों की सभी गतिविधियों से अनभिज्ञ भी हैं जिस कारण उनकी अपनी पुत्री गलत चाल में फंस जाती है तब यही दीपा जोखिम उठा कर गुंडों से संघर्ष करती है और उसे बचाती है तथा इस तथ्य को गोपनीय भी रखती है। जहां एक ओर अमीरों की उद्दंडता -उच्चश्रंखलता समाज को अफरा-तफरी की ओर धकेलती है वहीं अतीत में एक गरीब नौकरानी रही दीपा अमीरों के बीच रह कर भी अपनी सज्जनता व सचरित्रता पर कायम रहती है।
जज साहब की बेटी के चरित्र पर लांछन न आने देने हेतु दीपा वह कृत्य भी करती है जिसे वह छोड़ चुकी थी और जज साहब का कोपभाजन होकर पुनः सुधार गृह में प्रवेश कर जाती है। डॉ विक्रम सागर जज साहब के बेटे का मित्र होने के नाते दीपा के संपर्क में आता है तो उसकी सहजता से प्रभावित हो जाता है और उससे विवाह भी करने का प्रस्ताव देता है। अपने मित्र जज साहब के बेटे की मदद से वह दीपा को पुनः जज साहब के परिवार में शामिल करा देता है।
आज के समय में भी अमीरों-गरीबों के बीच स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। केवल मनोरंजन के दृष्टिकोण से नहीं समाज-सुधार व न्यायिक व्यवस्था में सुधार तथा मानवीय दृष्टिकोण से भी 'चोरनी'द्वारा दिया गया संदेश आज भी प्रेरणादायक है।
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फेसबुक मेसेज द्वारा प्राप्त टिप्पणी :
जवाब देंहटाएंRoop Kumar Sharma
4:55am
Roop Kumar Sharma---
पुरानी फिल्मोँ ने मनोरंजन के साथ अच्छे संदेश व शिक्षा देने का काम किया है। लेकिन न मालूम जनता के थोडे से समूह को छोडकर ज्यादा लोगोँ के लिए फिल्मेँ मनोरंजन ही रही?