जी हाँ 'कर्म' से ही भाग्य बनता है। मैं तो ज्योतिष का घोर विरोधी था और मेरा मानना था कि हमारा भाग्य हमारे हाथ में (मतलब अपने ही काबू में ) है। 1976 में ITC के निर्माणाधीन होटल मोगुल, ओबेराय , आगरा के एकाउंट्स विभाग में था अपने साथ साक्षात्कार में मिले और जाब पाने से रह गए विनोद श्रीवास्तव को मेन कांट्रेक्टर GS LUTHRA साहब के यहाँ एकाउंट्स में लगवा दिया था। लूथरा साहब के सुपरवाईजर अमर सिंह जी बार्डर सिक्यूरिटी फोर्स से रिटायर्ड थे और पामिस्ट व एस्ट्रोलाजर थे। विनोद मुझे ज़बरदस्ती अमर सिंह के पास ले गए और उनसे बोले कि यह ज्योतिष की खिलाफत क्यों करते हैं ज़रा देख कर बताइये। अमर सिंह जी ने मेरे हाथ देखने के बाद उनको सिर्फ इतना ही कहा कि यह ठीक बोलते हैं तब उनका प्रश्न था कि फिर वह क्यों दूसरों को उनका भविष्य बताते हैं? उनका जवाब था कि हम हाथ से उस व्यक्ति के कर्मों का लेखा-जोखा देख कर ही कहते हैं जो लोग खुद नहीं समझ पाते उनको समझा देते हैं। विनोद बोले कि इनको ज़रूरत न हो लेकिन हम जानना चाहते हैं कि यह क्या करेंगे क्योंकि यह तो एमर्जेंसी में भी सड़क पर भी इन्दिरा गांधी की खिलाफत कर देते हैं इनके साथ चलने पर डर भी लगता है। अमर सिंह जी का जवाब था कि 26 वर्ष की उम्र में इनको अपना मकान मिलेगा और 42 वर्ष की उम्र में वह इनका अपना हो जाएगा। उनके अनुसार मुझको कुल 15 वर्ष ही नौकरी करना था। विरोधाभासी बातें सुनने के बाद मुझे कहना ही पड़ा कि आज की तारीख में इतनी तंख्वाह नहीं है कि अकेले मकान का किराया भी दे सकूँ फिर बिना नौकरी के अपना मकान कैसे बन सकता है। उनका छोटा सा जवाब था देख लेना। 1978 में वेतन बढ्ने पर रु 290/-प्रतिमाह की 15 वर्षीय किश्तों पर हाउसिंग बोर्ड का मकान एलाट हो गया था और 1985 में जाब खत्म हो गया था। तब से 2000 तक स्वतंत्र रूप से दुकानों-दुकानों में एकाउंट्स करके गुज़ारा चलाया व 1986 से भाकपा में सक्रिय हो गया। 15 वर्ष की किश्तें पूरी होने के बाद 1991 में हाउसिंग बोर्ड से रजिस्टरी इस लिए न हो सकी क्योंकि रिश्वत देने को मैं तैयार न था। 1992 में मोतीलाल बोरा साहब जब राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल थे तब मैं आगरा भाकपा का ज़िला कोषाध्यक्ष था अतः अपने जिलामंत्री कामरेड से उनको शिकायत भिजवा दी थी उनके एक्शन पर रिश्वत मांगने वाले घबड़ा कर घर पर कागजात दे गए और इस प्रकार अमर सिंह जी द्वारा बताई उम्र 42 वर्ष में ही रजिस्ट्री हो सकी। 2000 से एकाउंट्स को त्याग कर ज्योतिष को ही अपना लिया। 26 अप्रैल 2012 को रेखा जी के राज्यसभा सदस्य मनोनीत होने से पूर्व 19 अप्रैल 2012 को अपने ब्लाग में उनके राजनीतिक क्षेत्र में सफलता की पोस्ट दी थी। इसके बाद एथीस्ट घोषित करने वाले कई वरिष्ठ कामरेड्स को भी उनके भविष्य के संबंध में जानकारी दे चुका हूँ।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/963727870355856?pnref=story
प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष अपने हाथों मे सम्पूर्ण ब्रह्मांड को समेटे हुये है और उसे परमात्मा-भगवान,खुदा,गाड आदि को खोजने के लिए कहीं भी भटकने की आवश्यकता नहीं है। प्रातः काल बिस्तर छोडने से पहले अपने दोनों हाथों को फैला कर परस्पर मिला लें और उनको देखें तो अखिल ब्रह्मांड के दर्शन हो जाएँगे। यदि कोई अड़चन आ रही हो तो ऐसा करते समय मन ही मन मे उसे दूर करने की कल्पना करें जिससे उससे छुटकारा मिल जाएगा।
हमे ये हाथ 'कर्म' करने हेतु ही मिले हैं और कर्म ही धर्म है। अकर्म व दुष्कर्म से दूर रहते हुये सदैव सदकर्म ही करने चाहिए। शोषकों-उतपीड़कों द्वारा विभिन्न नामों से जो धर्म बताए जाते हैं और जिनके नाम पर मनुष्य-मनुष्य के खून का प्यासा हो जाता है वे सब वस्तुतः अधर्म है जो केवल दुष्कर्म ही कराते हैं और जिंनका प्रतिकूल प्रतिफल वैसा करने वाले को ही भुगतना पड़ता है।
मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाना ही धर्म है और उसी का पालन करना चाहिए। सृष्टि मे सभी मानव समान हैं और समान आचरण की अपेक्षा सृष्टा सबसे करता है। जो विषमता व वैमनस्यता फैलाते हैं उनको भी अपने कुकर्मों का फल देर-सबेर इस जन्म नहीं तो आगामी जन्मों मे भुगतना ही पड़ता है। जन्म-जन्मांतर को न मानने से कर्मफल पर कोई अन्तर नही पड़ता है। अपना हाथ ही जगन्नाथ है और उस पर विश्वास रखें ।
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कर्मवाद का सिद्धान्त और अपवाद
============================='कर्मवाद' के अनुसार 'कर्म' तीन प्रकार के होते हैं, यथा - 1) सद्कर्म, 2) दुष्कर्म और 3 ) अकर्म ।
पहले दो के बारे में सभी जानते हैं लेकिन तीसरे और महत्वपूर्ण 'अकर्म ' के संबंध में अधिकांश अनभिज्ञ हैं। अकर्म वह कर्म है जो किया जाना था लेकिन किया नहीं गया। यद्यपि समाज व कानून की निगाह में यह कोई अपराध नहीं है और इसके लिए कोई सजा भी नहीं है। किन्तु परमात्मा (ढोंगियों और नास्तिकों की परिभाषा से भिन्न ) की निगाह में यह दंडनीय अपराध है और वह मिलता भी है। उदाहरणार्थ यदि कोई चिकित्सक मार्ग में किसी घायल को तड़पता देख कर भी उसका उपचार स्वेच्छापूर्वक आगे बढ़ कर नहीं करता तो समाज और कानून उसे दंडित नहीं करेंगे। किन्तु परमात्मा उसके इस अकर्म के लिए दंडित अवश्य करेगा। परमात्मा और प्रकृति में 'क्षमा' का कोई स्थान नहीं है। सद्कर्म का , दुष्कर्म का परिणाम अलग-अलग मिलता है परमात्मा और प्रकृति के विधान में जोड़-घटाव के बाद शुद्ध मान नहीं निकलता है। इसी प्रकार अकर्म का भी दंड अवश्य ही मिलता है। यह ऐसे ज्ञात होता है कि, अक्सर लोगों को यह कहते हुये सुना जाता है कि, हमने कभी किसी का बुरा नहीं किया फिर हमारे साथ बुरा क्यों होता है? यह बुरा 'अकर्म' के दंड स्वरूप प्रकृति का न्याय है।
1975 में एमर्जेंसी के दौरान सारू स्मेल्टिंग, मेरठ के वर्क्स मेनेजर राम दत्त मिश्रा ने मुझको बेवजह बर्खास्त करा दिया था । उससे पूर्व उसने मुझे बुला कर स्तीफ़ा देने को कहा था जो मैंने नहीं दिया था, वह अपने किसी केंडीडेट को फिट करना चाहता था। आगरा में एक व्यापारी मिश्रा और लखनऊ में एक पत्रकार मिश्रा से धोखा खा चुकने के बावजूद मैंने उपरोक्त वर्णित ब्राह्मणों को ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध करा दिया था।लेकिन बजाए इसके कि वे एहसान मानते, उनसे उपेक्षा ही मिली। और हर बात की एक हद होती ही है। अतः तीन नवंबर को बलियावासी मिश्रा जी से निवेदन प्राप्त होने के बाद समस्त ऊहा-पोहों पर विचार करने के उपरांत 'अकर्म' को अपनाते हुये उनका कार्य न करने का अप्रिय निर्णय लेना पड़ रहा है।
'अकर्म' के दंड की परवाह किए बगैर एक बलियावासी मिश्रा जी (जिनहोने जाब विहीन होने व आर्थिक संकट का ज़िक्र लिखा था ) का ज्योतिषयात्मक विश्लेषण न करने व उनकी फ्रेंड रिक्वेस्ट को नकारने का निर्णय मजबूरी में करना पड़ रहा है क्योंकि 1975 से अब तक का मेरा इतिहास मुझको ब्राह्मणों विशेष कर मिश्रा, तिवारी, पांडे द्वारा अनावश्यक ठेस पहुंचाने का रहा है। यद्यपि डॉ गिरीश शर्मा और उनकी श्रीमतीजी, डॉ मोनिका शर्मा,प्रदीप तिवारी जी की पुत्री, ओ पी अवस्थी साहब,अशोक मिश्रा जी के सुपुत्र प्रांशु मिश्रा सब को विगत में बताया है , किन्तु परिणाम दुखद ही रहा है।
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