बुधवार, 19 सितंबर 2018

किताबें और उनका प्रभाव ------ विजय राजबली माथुर



जी हाँ पत्थर के टुकड़ों को देवी - देवता की मान्यता देकर समाज की जमीन को कब्जे में लेकर फिर कोई धंधा करना ऐसे लोगों का उद्देश्य होता है। बुद्धि, ज्ञान और विवेक से रहित अपने जीवन से डरे हुये लोग ऐसे अवैद्ध कर्म करने वालों के मंसूबे पूरे करने में मदगार बनते हैं ------


विज्ञान और धर्म : विभ्रमकारी हैं दोनों  प्रचलित धारणायेँ : 
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1-  विज्ञान :  का तात्पर्य किसी भी विषय के नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध अध्ययन से होता है परंतु खुद वैज्ञानिक होने का दावा करने वाले सिर्फ उसी अध्ययन को विज्ञान मानते हैं जिसे बीकर द्वारा प्रयोशाला में सिद्ध किया जा सके।
2- धर्म : का तात्पर्य ' सत्य,अहिंसा(मनसा- वाचा - कर्मणा       ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य ' के समुच्य से है जो शरीर,परिवार,समाज,और राष्ट्र के लिए धारण करने योग्य है। परंतु पोंगा - पंडित निहित स्वार्थों के कारण ' ढोंग-पाखंड-आडंबर ' को धर्म के रूप में प्रचारित करते हैं और वैज्ञानिक  तथा एथीस्ट भी उसे ही सही मानते हुये 'धर्म' का अनर्गल विरोध करते हैं।
3- एक वैज्ञानिक महोदय एक साईट पर बहस में भाग लेते हुये घोषणा करते हैं कि, वैज्ञानिक आधार पर आत्मा होती ही नहीं है। गायत्री परिवार की एक पुस्तक में आत्मा का वजन 20 ग्राम बताया गया है जबकि दोनों ही तथ्य गलत हैं।
4- आत्मा : वस्तुतः ऊर्जा  (एनर्जी ) है। वैज्ञानिकों के अनुसार ENERGY IS GHOST , इससे उनका क्या तात्पर्य है स्पष्ट नहीं है।यथार्थत : आत्मा एक FLUID है जिसका न कोई आकार होता है न ही कोई प्रकार न ही वजन। बल्कि आत्मा जिस शरीर में होती है उसमें पूर्ण रूप से फैलाव के साथ होती है। 20 ग्राम से कम वजन के जीवों में भी आत्मा का संचार होता है। जिस प्रकार ऊर्जा अदृश्य है उसी प्रकार आत्मा।
5- जब ऊर्जा - ENERGY का अस्तित्व स्वीकारा जाता है तब तथाकथित वैज्ञानिक आत्मा को अस्वीकार करके अपनी संकीर्ण - संकुचित सोच को ही उजगार करते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से ढोंगियों,पाखंडियों व आडंबरधारियों का ही पक्ष ले रहे होते हैं।   


Kanupriya

https://www.facebook.com/kpg236/posts/2197014866991682

  कनुप्रिया जी  की इस पोस्ट से  किताब (पुस्तक ) का ज़िक्र पढ़ कर मुझे 59 वर्ष पूर्व की बातें ज्यों की त्यों याद आ गईं तब मैं 7 वर्ष का था और मेरे पिताजी मेरे लिए प्रत्येक रविवार को ' स्वतंत्र भारत ' अखबार ले देते थे तब 05 पैसे का होता था। मैं सिर्फ बच्चों वाला भाग ही नहीं राजनीतिक खबरें भी पढ़ता था। इसलिए तीन  साल बाद वह अपने कार्यालय की लाईब्रेरी से साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, सारिका, सरिता जैसी पत्रिकाएँ और कुछ राजनीतिक उपन्यास भी ( जिनमें कम्युनिस्ट पार्टी की गुप्त बैठकों का भी उल्लेख था ) ला देते थे। चूंकि मैं खेल वगैरह में भाग नहीं लेता था इसलिए रिश्तेदार भी किताबें ही देते थे। जाब में आने पर सहकर्मी भी पुस्तकें पढ़ने को देते थे उनको लौटाने से पहले महत्वपूर्ण बातों को मैं लिख कर रख लेता था। जिन छोटे बच्चों को कुछ भेंट करना होता उनके अनुसार किताबें ही भेंट करता था । पुत्र को भी किताबों का शौक हो गया और वह भी किताबें खरीदता रहता है। मेरा ख्याल है अगर हम बड़े लोग बच्चों को किताबों का महत्व समझाएँ तो वे ज़रूर समझेंगे। किताबों ने ही मुझे तो होम्योपैथी और ज्योतिष भी सिखा दीं और इसी शौक के कारण अखबारों में लिखने व कुछ साप्ताहिक में उप- संपादक के रूप में भी जुड़ा तथा अब कई ब्लाग्स भी लिख ले रहा हूँ। किताबें सच्ची मित्र व पथ - प्रदर्शक भी होती हैं।



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