(ताज राजबली माथुर : जन्म 24 -10-1919 मृत्यु 13-06-1995 ) |
यद्यपि बाबूजी को यह संसार छोड़े हुये बीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परंतु उनकी बताई हुई बातें दिमाग में अभी भी ताज़ा हैं और उन पर ही चलने का भरसक प्रयास भी रहता है। यही कारण है कि उनकी भांति ही ईमानदारी की सजा भी भुगतता रहता हूँ। एक बार मैंने बाबूजी से सवाल किया था कि उन्होने बचपन से ही ईमानदारी पर चलना क्यों सिखाया था जबकि वह खुद अंजाम भुगतते रहे थे? बाबूजी ने सीधा जवाब दे दिया था कि हमने तो तीनों को ईमानदारी सिखाई थी जब तुम्हारे बहन-भाई अलग रास्ते पर चल रहे हैं तो तुम भी चल सकते हो हम अब कोई पाबंदी तो नहीं लगाए हुये हैं।
बाबूजी ने तो सरलता से कह दिया लेकिन मेरे लिए वैसा करना संभव नहीं था। बाबूजी तो रक्षा विभाग की सरकारी सेवा में प्रोन्नति से वंचित रह कर नौकरी चला ले गए किन्तु मुझे निजी क्षेत्र की नौकरी में प्रोन्नति प्राप्त करने के बावजूद चला पाना मुश्किल रहा। तीन साल फिर दस साल बाद स्थान व जाब बदलने पड़े और फिर पंद्रह साल स्वतंत्र रूप से जाब किया और अब पंद्रह साल से कोई जाब न करके स्वतंत्र रूप से ज्योतिषीय सलाहकार के रूप में सक्रिय हूँ। बात इसमें भी वही है कि ईमानदारी की कद्र कोई नहीं करता परिणाम अर्थाभाव का सामना व लोगों की हिकारत भरी नज़र का सामना । मेंरी प्रवृत्ति बाबूजी से इस माने में भिन्न हो जाती है कि वह धन के आभाव में लोगों से मिलने-जुलने से इसलिए कतराते थे कि उनकी बराबरी नहीं कर सकेंगे; जबकि मैं सम्पन्न व विपन्न सभी लोगों से मिल लेता हूँ यदि वे मुझे मान-सम्मान देते हैं ।
कालीचरण हाईस्कूल, लखनऊ में बाबूजी के सहपाठी व रूममेट रहे कामरेड भीखा लाल जी से भी मैंने बेहिचक भेंट 'बेगम हज़रत महल पार्क ', लखनऊ में की थी जबकि बाबूजी उनके संदेश भेज कर बुलवाने के बावजूद उनसे सिर्फ इसलिए नहीं मिले कि पहले वह PCS अधिकारी- तहसीलदार हो गए थे फिर भाकपा के प्रदेश सचिव तक रहे थे। (इसी प्रकार अपने खेल के मैदान के साथी रहे अमृतलाल नागर जी व रामपाल सिंह जी से भी उनके बड़े आदमी होने के कारण बाबूजी ने संपर्क जारी नहीं रखा था । )
आगरा के एक वरिष्ठ कामरेड डॉ एम सी शर्मा जी से मैंने कामरेड भीखा लाल जी से मिलवाने को कहा था उस वक्त वह तत्कालीन प्रदेश सचिव सरजू पांडे जी व आगरा के जिलामंत्री रमेश मिश्रा जी व अन्य से वार्ता कर रहे थे किन्तु मेरे द्वारा बाबूजी के नाम का पहला अक्षर 'ताज' निकलते ही कामरेड भीखा लाल जी ने मेरे कंधे पर आशीर्वाद स्वरूप हाथ रखते हुये मुझसे कहा कि वह तुम्हारे पिता हैं तुम उनके बारे में क्या बताओगे? मैं तुमको उनके बारे में बताता हूँ। भीखा लाल जी ने बाकायदा वर्ष सन बताते हुये कि कब किस क्लास में व हास्टल के किस रूम में वे दोनों साथ-साथ रहे हैं सविस्तार सारी बातों का वर्णन इस प्रकार किया जैसे वह बीते कल की बात कह रहे हों । उनका कहना था कि मेरे बाबूजी के मिलेटरी में जाने के बाद दोनों का संपर्क टूट गया था और फिर वापिस आने के बाद उनके काफी बुलाने के बाद भी वह उनसे नहीं मिले। लेकिन भीखालाल जी ने इस बात पर खुशी भी ज़ाहिर की थी कि बाबूजी खुद भले न मिल सके लेकिन उनकी याद लगातार थी जो मुझे मिलने को कह दिया। उन्होने मुझे आदेश दिया था कि अगली बार जब लखनऊ आऊँगा तो अपने बाबूजी को उनसे मिलवाने लाऊँगा। मैंने बाबूजी से जब सब बातें बताईं तो उनको अचंभा भी हुआ कि भीखा लाल जी इतने ऊंचे ओहदों पर रहने के बावजूद मुझसे बड़ी आत्मीयता से सार्वजनिक रूप से मिले और उन्होने वायदा भी किया था कि भीखा लाल जी से मिलने चलेंगे। किन्तु ऐसा इसलिए न हो सका क्योंकि भीखालाल जी यह संसार छोड़ गए। 1995 में आज ही के दिन बाबूजी भी यह संसार छोड़ गए। लेकिन छोड़ गए हमारे लिए ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा की भावना जो मेरे लिए बड़ी पूंजी हैं।
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मैंने परंपरागत रूप से पूर्वजों की पुण्यतिथि को मनाने जिसमें अधिकांश लोग पंडितों के नाम पर ब्राह्मणों को भोजन कराते व दक्षिणा भेंट करते हैं
की बजाए 'हवन-यज्ञ' पद्धति को अपनाया है। किसी पूर्वज के नाम पर किसी व्यक्ति को कराया गया भोजन केवल और केवल फ़्लश तक ही पहुँच पाता है । जबकि 'पदार्थ-विज्ञान'(मेटेरियल साईन्स ) के अनुसार हवन में डाले गए पदार्थ अग्नि द्वारा 'अणुओं'(ATOMS ) में विभक्त कर दिये जाते हैं और वायु द्वारा बोले गए मंत्रों की शक्ति -प्रेरणा से वांच्छित लक्ष्य तक पहुंचा दिये जाते हैं। आत्मा चूंकि अमर है वह चाहे 'मोक्ष' में हो अन्यथा अन्य किसी प्राणी के शरीर में प्राण-वायु द्वारा प्रेषित इन अणुओं को ग्राह्य करने में सक्षम है। इसलिए हम अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के निमित्त विशेष सात मंत्रों से हवन में आहुतियाँ ही देते हैं बजाए किसी पाखंड,आडंबर या ढोंग का ढ़ोल बजाने के।
हम सर्व-प्रचलित 'कनागत' को भी न मना कर केवल पुण्यतिथि के अवसर पर ही इस विशेष हवन को सम्पन्न करते हैं। आर्यसमाज से हमने यह सीखा और समझा है कि, 'श्राद्ध'और 'तर्पण' मृत आत्मा के निमित्त किसी ब्राह्मण को भोज कराना नहीं है।बल्कि 'श्राद्ध'और 'तर्पण' का अर्थ है कि जीवित माता-पिता, सास-श्वसुर और गुरु की 'श्रद्धापूर्वक' इस प्रकार सेवा की जाये कि उनकी आत्मा 'तृप्त'हो जाये। अपनी क्षमता और दक्षतानुसार उनके जीवन -काल में उनको जितनी संतुष्टि पहुंचा सका अथवा नहीं अब उनके नाम पर कोई धोखा-धड़ी नहीं करता हूँ जिस प्रकार वे तमाम लोग भी करते हैं जो खुद को नास्तिक-एथीस्ट घोषित करते हैं।
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पूज्य बाबूजी को श्र्द्ान्जलि के साथ सादर नमन। मनोभावों को बखूबी व्यक्त किया है आपने आदरणीय। वाकई कलयुग में संपूर्ण ईमानदारी का पालन करते हुए चलना कठिन कार्य है परंतु कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए भी आप पूज्य पिताश्री के आदर्शों को जीवंत किए हुए हैं आपको कोटि कोटि प्रणाम्। काश आपकी बात समाज के अन्यगणमान्य लोग भी समझ पाएँ कि “श्राद्ध'और 'तर्पण' मृत आत्मा के निमित्त किसी ब्राह्मण को भोज कराना नहीं है।बल्कि 'श्राद्ध'और 'तर्पण' का अर्थ है कि जीवित माता-पिता, सास-श्वसुर और गुरु की 'श्रद्धापूर्वक' इस प्रकार सेवा की जाये कि उनकी आत्मा 'तृप्त'हो जाये।“
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