गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

सोच -सोच का समाचार

वैसे तो अक्सर अब मैं बहुत ही कम घरेलू कार्य वश निकलता हूँ किन्तु पुत्र अपने कंप्यूटर छात्रों के साथ व्यस्त चल रहा था अतः टूटी हुई चप्पलों को सिलवाने मैं खुद ही चला गया था। कारीगर महोदय जब खाली हुये और मोटरसाईकिल वाले साहब अपने जूते लेकर जाने लगे तभी एक महिला अपनी लगभग 12 वर्षीय पुत्री को लेकर कुछ कार्य करवाने पहुँचीं और वह चाहती थीं कि कारीगर महोदय पहले उनको तवज्जो दें,लेकिन क्रमानुसार उन्होने पहले मेरा कार्य हाथ में लिया। चप्पलों में छोटे-छोटे टांके लगाने  थे उनको देख कर उक्त महिला अपनी पुत्री की ओर मुखातिब होकर व्यंग्यात्मक मुस्कराहट बिखेरने लगीं। निश्चित रूप से उनकी पुत्री ने भी हास्यास्पद ढंग से अपनी माँ से सहमति व्यक्त की। हालांकि मुझसे कुछ कहा नहीं गया था किन्तु लक्ष्य मेरे द्वारा चप्पलों की मरम्मत करवाने की ओर ही था। उन लोगों के भाव से ऐसा लग रहा था कि मुझे वे चप्पलें फेंक कर नई चप्पलें खरीदना चाहिए था।

हमारा दृष्टिकोण यह है कि केवल पट्टियों के टूटने पर पूरी चप्पल फेंक कर नई खरीदने का अर्थ है एक पूंजीपति और धनाढ्य व्यापारी को लाभ पहुंचाना। जबकि मेरे द्वारा मरम्मत करवाने पर कारीगर साहब को जो बीस रुपए मिले उसमें उनका धागा और कीलें पाँच रुपए की होंगी और उनको पारिश्रमिक रूप पंद्रह रुपए मिल गए होंगे। इसी प्रकार जो लोग टूटी-फूटी चीजों की मरम्मत उनसे करवा लेते होंगे उसके आसरे उनका जीविकोपार्जन हो जाता होगा।यदि हम  सब लोग ही मरम्मत  के स्थान पर नई चीज़ें खरीदने लगें तब ऐसे कारीगरों के सम्मुख तो भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में मिलों के सूती वस्त्रों का चलन होने से बुनकरों और उनके परिवारों को मौत का वरण करना पड़ा था और एक ज़िले के कलक्टर को अपने गवर्नर जनरल को लिखना पड़ा था कि,"विश्व के आर्थिक इतिहास में ऐसी भुखमरी मुश्किल से ढूँढे  मिलेगी;बुनकरों की हड्डियों से भारत के मैदान सफ़ेद हो रहे हैं। " और इसी वजह से महात्मा गांधी ने 'चर्खा'आंदोलन के जरिये खादी को बढ़ावा देने का जनता से आह्वान किया था। लेकिन आज के मनमोहनी उदारवाद में जनता खुद धनवानों की लूट को मजबूत कर रही है और अपने बीच के छोटे कारीगरों के हितों पर डाका डाल रही है।उक्त महिला का व्यवहार -सोच इसी प्रकार की सोच का ज्वलंत उदाहरण है।



कल 19 फरवरी को जब यह समाचार फेसबुक पर दिया था तो 20 फरवरी तक 28 लोग इसे लाईक कर चुके थे और महत्वपूर्ण कमेंट्स आ चुके थे जिनकी फोटो प्रस्तुत की गई है। इनमे आजमानी साहब चूंकि 'पूंजी के व्यापारी'-बैंक से संबन्धित हैं और आगरा जो जूता उद्योग का प्रमुख केंद्र है में निवास कर रहे हैं अतः उनका कमेन्ट उद्योग हित मे है।लखनऊ नगर कमेटी ,भाकपा के सचिव कामरेड का कहना है कि यदि मैं रु 100/-में नई चप्पल खरीदता तो उसमें एकसाईज़ ड्यूटी,व्यापार कर,सेवा कर,उद्योगपति का लाभ 40-50प्रतिशत,थोक व फुटकर व्यापारियों के लाभ,ढुलाई आदि भी शामिल होते और मजदूर कारीगर का पारिश्रमिक रु 5/-से अधिक नहीं भुगतान किया जाता।

प्रस्तुत दृष्टांत में यदि कारीगर महोदय को रु 20/- में से रु 15/- का परिश्रमिक प्राप्त हो गया तो वह कारखाना श्रमिक के परिश्रमिक से तीन गुना अधिक मिल गया। चार अलग-अलग चप्पलों की मरम्मत से हमारी तीन चप्पलें इस्तेमाल लायक हो गईं मात्र रु 20/- में और एक कारीगर को तीन गुना अधिक पारिश्रमिक भी मिल गया। इसीलिए गौतम कुमार जी,अनीता गौतम जी, दृगविंदु मणि सिंह जी व सफदर हुसैन रिजवी साहब  ने मेरे निर्णय व कृत्य का समर्थन किया है। 

मैं जूलाई  1975 से अक्तूबर 2009 के प्रथम सप्ताह तक खुद भी आगरा में रहा हूँ तथा इस दौरान 1985 ई तक होटल मुगल शेरटन में सुपरवाएजर अकाउंट्स के रूप में तथा फिर 2000ई तक प्रमुख जूता बाज़ार हींग -की-मंडी  मे पाँच सिन्धी थोक व्यापारियों के यहाँ स्वतंत्र रूप से उनके अकाउंट्स कार्य -सेल्स टैक्स/इन्कम टैक्स केसेज समेत देखता रहा हूँ। मेरा बहुत नजदीक से यह अनुभव है कि सवर्ण कारखानेदार व थोक व्यापारी दलित जूता कारीगरों का घनघोर आर्थिक-मानसिक-शारीरिक शोषण करते हैं। 

आगरा भाकपा के जिलामंत्री व शाखा लँगड़े की चौकी के मंत्री भी जिस उद्योग से संबन्धित थे उसमें कबाड़ियों द्वारा खरीदी गई  टूटी-फूटी चप्पलें आदि को  काट-कतर कर चक्की में पीस कर बुरादा बनाया जाता था। इसको वे तौल के भाव दाना उठाने वाले उद्योगपति को बेच देते थे जो दाना बना कर शीट बनाने वाले उद्योगपति को बेचते थे। इन शीटों का प्रयोग फिर से जूता-चप्पल बनाने में होता था। कुल मिला कर उद्योगपति-व्यापारी भारी मुनाफे में रहते हैं और बेचारा गरीब जूता कारीगर सिसकता रह जाता है। यही वजह है कि हम लोग प्रयोग लायक रहने तक पुराने जूता-चप्पल का ही इस्तेमाल करते रहते हैं। 

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सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

शुक्रिया :शुभचिंतकों

तीन वर्ष आठ माह से ब्लाग  जगत में 'क्रांतिस्वर' के माध्यम से सक्रिय हूँ और 10 सितंबर 2013 से 'साम्यवाद(COMMUNISM)' ब्लाग भी शुरू किया है। फेसबुक ग्रुप्स में ब्लाग-पोस्ट के लिंक्स इस लिए दिये जाते हैं कि अधिक से अधिक लोग उनका अवलोकन कर सकें। किन्तु खुद को कम्युनिस्ट कहने वाले कुछ ब्राह्मणवादी लोगों को 'सत्य' से परहेज है वे एक बार मेरा आई डी अस्थाई रूप से ब्लाक करा चुके थे अतः इस पोस्ट को भी उन लोगों ने फेसबुक पर फर्जी तरीके से गलत संदेश के जरिये ब्लाक करवा दिया है- 

"केजरीवाल के भ्रष्‍टाचार-विरोधी ''मुहिम'' पर गदगद कम्‍युनिस्‍ट मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र का ककहरा भी नहीं जानते----कविता कृष्‍णपल्‍लवी"



यदि वे वास्तविक कम्यूनिस्ट होते तो इस पोस्ट का अधिकाधिक प्रचार करते किन्तु उन लोगों ने इसे रुकवाने में अपना हित देखा। जबकि मेरे जन्मदिन संबंधी पोस्ट पर भी इन ब्राह्मणवादी कम्युनिस्टों की प्रतिक्रिया प्रतिकूल थी तमाम फेसबुक साथी जिनसे व्यक्तिगत परिचय भी नहीं  है जन्मदिन पर ऐसे शुभकामना संदेश दे गए हैं जो भुलाए नहीं जा सकते हैं । उनमें से ही कुछ को नीचे उद्धृत किया जा रहा है। वैसे तो सभी शुभेच्छुओं को तत्काल धन्यवाद/आभार ज्ञापित कर दिया था किन्तु इस पोस्ट के माध्यम से सभी लोगों का एक बार फिर से शुक्रिया अदा करना मेरा फर्ज है । 

















वैसे तो राजेश राज जी का कहना वाकई सही हो सकता है जो उन्होने अपने शुभकामना संदेश में व्यक्त किया है किन्तु मेरा सोचना है कि 'हम जो आज है वह अपने कल की वजह से हैं और हम जो आज हैं वह कल के लिए ही हैं'। मेरी समझ है कि अपने भविष्य को सुखद बनाने के लिए हमें अपने अतीत -बीते हुये कल-का मनन करते हुये गलतियों और धोखा खाने से बचना चाहिए। फिर हमारे सबक से दूसरे लोग भी लाभान्वित हो सकते हैं। कोरे आदर्शों की दुहाई देने से गलत लोगों के ही हौंसले बढ़ते हैं । एक नई शुरुआत के लिए गफलत से बचना चाहिए जिसके लिए बीती बातों का स्मरण सहायक हो सकता है। 

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बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

घर ,मकान और बेघर -----विजय राजबली माथुर

 'घर' मकान नहीं होता और 'मकान' घर नहीं होता है। यह एक कटु सत्य है जिसे मैं शुरू से मानता आ रहा हूँ। यों तो मेरे पास घर भी है और मकान भी है किन्तु मुझे 'बेघर' करने की कोशिशें निरंतर जारी हैं। हालांकि 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता' फिर भी कविवर रवीन्द्र नाथ ठाकुर की इस उक्ति कि यदि कोई तुम्हारी बात न सुने तो 'एकला चलो रे धीर' का मैं अनुगामी बना हुआ हूँ।








इसी लखनऊ की धरती पर आज से बांसठ (62) वर्ष पूर्व मेरा जन्म हुआ और नौ वर्ष की उम्र (1961) तक यहीं रह कर चौथी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की फिर पाँचवी कक्षा बरेली से और छठी की पढ़ाई बरेली व (बाबूजी के सिलीगुड़ी ट्रांसफर होने के कारण नानाजी के पास) शाहजहाँपुर से हुई सातवीं कक्षा शाहजहाँपुर से उत्तीर्ण कर 1964 में सिलीगुड़ी में आठवीं में प्रवेश लिया और वहाँ से स्कूल फ़ाईनल परीक्षा पास करके 1967 में एक बार फिर से शाहजहाँपुर में 11 वीं उत्तेर्ण करके 1968 में मेरठ में पढ़ाई हुई और इंटर्मीडिएट 1969 में  तथा बी ए 1971 में करके रोजगार की तलाश में 13 माह व्यय करके 1972 में मेरठ से ही नौकरी की शुरुआत की 1975 में आगरा आकर 2000 तक रोजगार रत व 2000 से 2009 तक अवकाश रत रह कर 2009 में वापिस लखनऊ लौट आए तब से 'बोनस' की ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं।

पिताजी की सरकारी नौकरी होने के कारण तबादले होते रहे और वह लखनऊ के डालीगंज में ज़मीन खरीदने के बावजूद वह  'मकान' न बना सके और घाटे पर ज़मीन को बेचना पड़ा। प्राइवेट नौकरी के कारण मुझसे माता जी ने मकान बना लेने को कहा जिससे एक स्थान पर रहना संभव हो सके और बार-बार किराये के मकान न बदलने पड़ें। इत्तिफ़ाक से 15 वर्षीय  सरकारी मासिक किराया-क्रय योजना में मुझे  1978 में मकान मिल गया जिसमें हम 2009 तक रह कर और उसे बेच कर घाटे में लखनऊ में उससे काफी छोटा एक मकान लेकर गुजर-बसर कर रहे हैं।





किन्तु यह मकान बनाना मुझे हमारे 'घर' को 'बेघर' बनाने का सबब बन कर रह गया है। 26 वर्ष की उम्र में अपना मकान हो जाना हमारी भुआ व छोटी बहन को बहुत ज़्यादा अखरा है। भुआ ने तो बाबूजी को यह भी भड़काने का असफल प्रयास किया था कि इस मकान में अजय व शोभा को भी हिस्सा दिलाना चाहिए क्योंकि मेरी पढ़ाई-लिखाई का खर्च करने के कारण इस पर उनका(बाबूजी का ) हक बनता है। बाबूजी जानते थे कि यह कुतर्क की दलील है क्योंकि उन्होने तो अजय और शोभा की पढ़ाई-लिखाई पर भी खर्च किया था। लेकिन शोभा व कमलेश बाबू के दिमाग में भुआ का कुतर्क गहरे समा गया। जिस प्रकार भुआ ने अपने एक भाई से मुक़दमेबाज़ी करके उनको कोर्ट में छल से हराया था उस प्रकार शोभा-कमलेश बाबू के लिए संभव नहीं था अतः उन्होने 'मिल कर मारने' का छल किया। हम  उनको छोटा बहन-बहनोई मानते रहे और वे दुश्मनाई  बरतते रहे और यदि उनकी छोटी बेटी की गलती से  मुंह से यह न निकलता कि कमलेश बाबू और कुक्कू बचपन के जिगरी 'दोस्त' हैं तो मैं आज भी धोखा ही खा रहा होता। 35 वर्ष तक छोटी बहन-बहनोई के धोखे व छल से हानि उठाते रहने के बाद खुलासा हो जाने के बाद मेरे लिए यह संभव नहीं था कि मैं भावनाओं-फीलिङ्ग्स व सेंटिमेंट्स में बह कर और अधिक हानि उठाता रहूँ लिहाजा 2011  में उनके लखनऊ आगमन के  समय उनसे कुक्कू की बाबत पूछने के बाद से उन लोगों से अलगाव अख़्तियार कर लिया।



अब तक रहस्यों से पर्दा हट चुका है और अब हमें ज्ञात हुआ है कि किस प्रकार कमलेश बाबू ने मेरी व अजय की शादी अपने निहित स्वार्थों के चलते किस फितरत से करवाई थी। 1988 में अजय की शादी उन्होने अपने रिश्ते की ममेरी बहन  की नन्द से करवाई और क्योंकि हमारे माता-पिता ज़रूरत से ज़्यादा पुत्री-दामाद को महत्व देते थे इसी कारण वे लोग अपने षडयंत्रों में सफल होते रहे थे।बाकी जगहों के प्रस्ताव शोभा के जरिये  माँ-बाबूजी को कहला कर रद्द करवा देते थे।  1981 में शालिनी से मेरा विवाह भी कमलेश बाबू के पिताजी के द्वारा बताए गए रिश्ते के  आधार पर ही तमाम अनेकों प्रस्तावों को रद्द कराने के बाद ही हुआ था। अब 2008 में जब कुक्कू की बेटी की नन्द मुक्ता (शोभा की छोटी बेटी) के देवरानी बन गई तब मुक्ता ने पूना से फोन पर बताया था कि कुक्कू ने उसको बताया है कि कुक्कू और मुक्ता के पिताश्री कमलेश बाबू बचपन से ही जिगरी दोस्त रहे हैं। 2011 में लखनऊ आगमन पर शोभा/कमलेश बाबू से आमने-सामने मैंने यह चर्चा उठा दी तो दोनों के दोनों बगलें झाँकने लगे तथा मजबूरन उनको कुबूल करना पड़ा कि मधू (कुक्कू की पत्नी) कमलेश बाबू की रिश्ते की भतीजी हैं । इसका आशय यह हुआ कि अपनी भतीजी की नन्द शालिनी को उन्होने अपने पिताजी की तिकड़म से मेरी पत्नी बनवाया था। कमलेश बाबू ने कुक्कू को डॉ रामनाथ (चिकित्सक और हमारे ज्योतिषीय सलाहकार)का पता बता कर उनको खरीद लेने को कहा था जिस कारण डॉ रामनाथ ने 14 गुण को 28 मिलना बता कर विवाह तय करवा दिया था। शालिनी की मृत्यू 1994 में 36 वें वर्ष में हो गई और उनकी अल्पायु का ज्ञान उन लोगों को था।(इस खुलासे के बाद ही मुझको 'ज्योतिष' के क्षेत्र में हस्तक्षेप करना पड़ा । क्योंकि ब्राह्मण पंडित बिकाऊ होते हैं यह सिद्ध हो चुका था ) फितरत यह थी कि उसके बाद यशवन्त को शोभा/कमलेश बाबू अपने पास रख लेंगे और मेरा मकान यशवन्त की आड़ में उनके कब्जे में आ जाएगा और मैं 'बेघर' हो जाऊंगा। 

'घर' परिवार के सदस्यों से बनता हैं ;सीमेंट,ईंट,सरिया से बना मकान होता है घर नहीं। पत्नी की मृत्यू के बाद पुत्र को भी अलग किए जाने से मेरा 'बेघर' होना सुनिश्चित हो जाता। किन्तु किसी अपनी तिकड़म से या फिर सच्चाई के आधार पर अजय की पत्नी ने हमारी माँ को सलाह दी की यशवन्त को उसकी भुआ को न सौंपें। वैसे मैं यह भी नहीं समझ पाया कि बाबा-दादी अपने पौत्र को उसके पिता के जीवित रहते किसी को भी सौंपने के हकदार कैसे होते? क्या मेरे सामने प्रश्न उठने पर मैं यशवन्त को अपने से अलग कर देता? या यशवन्त माँ को खोने के बाद पिता से भी अलग खुशी से चला जाता?

इच्छा पुनर्विवाह की न होते हुये भी माँ-बाबूजी के यह समझाने पर कि उनके निधन के बाद जब मैं ड्यूटी पर चला जाऊंगा तो यशवन्त को कौन देखेगा ? सहमति दे दी थी। बाबूजी ने पूनम के पिताजी से पत्र-व्यवहार चला दिया था किन्तु बीच में ही 1995 में उनका और उनके 12 दिन बाद माँ का भी निधन हो गया था। पिताजी के बाद और माँ की बीमारी के बीच आए पूनम के पिताजी के पत्र का जवाब अजय दें या कमलेश बाबू इस बात को लेकर शोभा और अजय की पत्नी में तीखी झड़पें हुईं। जब मैं घर आया और मुझे इसका पता चला तो मैंने स्पष्ट कर दिया कि अजय भी मुझसे छोटे हैं और कमलेश बाबू का तो कोई अधिकार बनता ही नहीं है जब भी उत्तर देना होगा मैं बाबूजी के न रहने के कारण खुद ही दूँगा।बाबूजी के बाद माँ का भी निधन हो जाने पर माईंजी देहरादून से आगरा आईं थीं जिस दिन वह वापिस लौटीं उनके जाने के चार घंटे बाद अजय भी फरीदाबाद लौट गए जबकि उनको बुखार भी था। माईंजी को अजय से हमदर्दी रही है और एक बार आस्ट्रेलिया जाते समय उसे गोद लेने का असफल प्रयास भी कर चुकीं थीं।तब से अब तक मेरे कोशिशें करने के बावजूद अजय मुझसे संपर्क नहीं करना चाहते।1973 में माईंजी ने मुझ से माँ-बाबूजी से अलग हो जाने को कहा था जिसे मैंने नहीं माना था अतः वह मुझसे अंदरूनी तौर पर खफा हैं। माईंजी ने बाबूजी द्वारा पूनम के पिताजी से हुये पत्राचार के बावजूद मुझको यह सुझाव दिया था कि अब वे लोग नहीं हैं अतः पूनम की बजाए किसी और से पुनर्विवाह करूँ। लेकिन मैंने उनकी यह बात भी नहीं मानी थी।  कमलेश बाबू भी  लखनऊ स्थित माईंजी से प्रभावित हैं और उनके घर से संपर्क में  हैं जिस प्रकार भुआ के बेटों के संपर्क में हैं। भुआ के बड़े बेटा पूना तथा छोटे लखनऊ में हैं।

पूनम से एंगेजमेंट के वक्त कमलेश बाबू ने पूनम व उनके छोटे भाई को अनर्गल भड़काया भी था जिसका खुलासा काफी बाद में हो सका। पूनम के विवाहोपरांत आने के बाद शोभा/कमलेश बाबू उपद्रव करके लौटे थे तब मैंने उनसे संपर्क तोड़ लिया था किन्तु कमलेश बाबू के बड़े भाई के निधन के बाद शोभा ने खेद व्यक्त करके पुनः संपर्क कायम कर लिया था। 2002 में मेरा पाईल्स का आपरेशन होने के वक्त कमलेश बाबू यशवन्त से भड़क गए थे( क्योंकि उसने शोभा की कोई बात नहीं मानी थी )और उसको धमकी दी थी कि तुम्हारे बाप को अस्पताल से लाकर घर में पटक देंगे और हम चले जाएँगे। ये बातें भी उसी वक्त नहीं काफी बाद में मेरे सामने आ पाईं। 

जब यशवन्त की इच्छानुरूप हम आगरा छोड़ कर लखनऊ आने की कोशिश कर रहे थे तब शोभा ने हमसे कहा था कि लखनऊ न जाएँ। उनके अनुसार या तो हम पूनम के भाई साहब के साथ पटना में सेटिल हों या फिर शोभा के साथ भोपाल में । लेकिन मैंने यशवन्त की इच्छा को तरजीह इसलिए भी दी कि लखनऊ मेरा जन्मस्थान भी है और यही बात कह कर उसने अपना जन्मस्थान आगरा छोडने को इसलिए कहा कि आगरा में हमारे विरुद्ध कुक्कू और उसके पार्सल बाबू भाई आदि ने लामबंदी कर रखी थी। हमारे लखनऊ आने के बाद अब शोभा/कमलेश बाबू ने लखनऊ में हमारे विरुद्ध लामबंदी कर दी है। खानदान के रिशतेदारों,आस-पड़ौस ही नहीं पार्टी के भीतर भी कमलेश बाबू ने अपने संपर्कों से कुछ लोगों को मेरे विरुद्ध कर रखा है। 

शोभा की छोटी बेटी ने पूना में अपनी पड़ौसन रही पटना की एक श्रीवास्तव ब्लागर के माध्यम से यशवन्त को और इस प्रकार मुझे भारी नुकसान पहुंचाने का असफल उपक्रम भी किया था। उसी ब्लागर के जरिये भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दो ब्लागर्स को भी दरियाबाद-बाराबंकी से संपर्कों के आधार पर  मेरे विरुद्ध किया गया है। इस ग्रुप के एक केजरीवाल समर्थक हिन्दू-मार्क्सवादी (ब्राह्मण) कामरेड ने तो मेरे अवसान की घोषणा करके श्रद्धांजली तक दे डाली है।इनके यूनियन बैंक में कार्यरत सरगना ने मेरी आई डी पासवर्ड को हस्तगत करके पूना प्रवासी और उसके पिट्ठू ब्लागर्स संबन्धित पोस्ट्स डिलीट करने का असफल प्रयास भी किया था जिसमें विफल रहने पर मेरे  एक आई डी को अस्थाई रूप से ब्लाक करा दिया था और उसके बहाल होने पर  तब जो नई आई डी बनाई थी अब उसे ब्लाक करा दिया है।  इन लोगों की भरसक कोशिश है कि अलग-अलग यशवन्त व पूनम को इतनी  क्षति पहुंचा दी जाये कि जिससे अंततः मैं 'बेघर' और  ध्वस्त हो जाऊँ।अपने जीवन काल में तो मैं इन हमलों से पूनम व यशवन्त को बचा ले जाऊंगा लेकिन उनको खुद भी इन चालों तथा षडयंत्रों को समझने की आवश्यकता है न कि रिश्तों की भावनाओं में बह कर अपना नुकसान उठाने की।  

'सर्वजन हिताय'की भावना से मैंने 'क्रांतिस्वर','जनहित में','कलम और कुदाल','सर्वे भवन्तु...','साम्यवाद (COMMUNISM)','जन-साम्यवाद' और इस ब्लाग के माध्यम से लेखन द्वारा 'ढोंग-पाखंड-आडंबर'पर प्रहार करना प्रारम्भ किया है जिस कारण भी पोंगापंथी पंडितवादी और कम्युनिस्टों में घुसे पाखंडी ब्राह्मणवादी भी मुझसे शत्रुता बरतते हैं। किन्तु कविता कृष्णपल्लवी जी के ये विचार मेरे पक्ष को मजबूती देते हैं:
"* जब बहुत सारे लोग स्‍वयं तो कहीं भी सामाजिक संघर्षों में न हों, पर लगातार आपके और आपके प्रयोगों की खिल्‍ली उड़ाते हों, जब ऐसे बहुत सारे लोग अपनी अलग-अलग राजनीतिक अ‍वस्थितियों और आपसी अन्‍तरविरोधों के बावजूद आपके विरुद्ध एकजुट हों और आपका विरोध ही उनके संयुक्‍त मोर्चे का साझा कार्यक्रम हो, तो समझ लीजिये कि आप मुख्‍यत: सही रास्‍ते पर हैं और आपके विरोधी मौक़ापरस्‍त या पतित तत्‍व हैं।*जब कोई व्‍यक्ति राजनीतिक संघर्ष में लाइन की जगह व्‍यक्तियों को निशाना बनाये, तो समझ लीजिये वह एक अफवाहबाज़ और कुत्‍सा प्रचारक है।......................*यदि आपकी कोई बात तरह-तरह के निठल्‍लों, भगोड़ों और अवसरवादियों को एक साथ चुभ जाती हो, तो समझ लीजिये, आप एकदम सही बात कह रहे हैं।"

जैसा कि क्रांतिकारी विजय सिंह 'पथिक' जी  कहा करते थे - कई बार मैं अपने लिए दोहरा चुका हूँ एक बार फिर दोहरा रहा हूँ:

यश-वैभव-सुख की चाह नहीं,परवाह नहीं जीवन न रहे । 

इच्छा है,यह है, जग में   स्वेच्छाचार   औ'   दमन न रहे। ।

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