शनिवार, 30 जुलाई 2011

आगरा/१९८२-८३(भाग २)-कारगिल की दो बातें



कारगिल में हालांकि इस बार कुल एक माह भी नहीं रहे,परन्तु इस बार स्वास्थ्य अधिक ख़राब हुआ.चंढोक साहब खुद को ग्यानी भी बताते थे उन्होंने मुझ से कहा था दिसंबर तक का समय तुम्हारे लिए बहुत खराब है,तुम्हारे सर पर छत भी गिर सकती है.उनके पास कौन सी दिव्य-शक्ति थी इसका तो पता नहीं चला किन्तु उनकी बातों से यह आभास हो गया कि,जिन लोगों को कारगिल भेजा जाता है वह पनिशमेंट के तौर पर होता है जिसमें वह खुद भी शामिल हैं.वह मुझ से कहते थे कि अकौन्ट्स छोड़ कर आपरेशन्स में आ जाओ जिसमें बहुत मजे हैं.पहले वह खुद होटल होलीडे इन में चीफ अकाउनटेंट थे किन्तु होटल मुग़ल में उन्हें फ्रंट आफिस सुपरवाईजर की पोस्ट मिली थी.यह हकीकत थी.

पिछली बार जब टोनी चावला जी को हार्ट में पेन हुआ था तो मैनें उन्हें 'मृग श्रंग भस्म' शहद के साथ सेवन करने का सुझाव दिया था जो शायद उन्होंने नहीं किया.एलोपैथी तो उन्हें जवाब दे ही चुकी थी.कारगिल से लौटने के बाद उन्हें आई.टी.सी.छोडनी पडी और दूसरी जगह कुछ दिनों बाद उन्हें दुनिया ही छोडनी पड़ गयी ,उनका हार्ट का होल जान लेवा बना.

हार्ट की मजबूती के लिए मैनें सम्पर्क के सभी लोगों को आयुर्वेदिक फार्मूला बताया था कि भोजन के बाद सर्वप्रथम मूत्र -त्याग करना चाहिए उसके बाद ही जल ग्रहण करना चाहिए.शायद ही कोई आधुनिक व्यक्ति इस नियम का पालन करना चाहेगा,जब ई.सी.जी.,बैलूनिंग आदि उपलब्ध हैं तो क्यों कोई कष्ट उठाये?आखिरकार एम्.बी.बी.एस.,एम्.डी.,एम्.एस.करने में जो लाखों खर्च करके डा. बने हैं वे बेरोजगार नहीं हो जायेंगे क्या?

पिछले साल लौटते में तो शिकारा में ठहरने के कारण डल झील में रुके थे परन्तु कारगिल जाने से पहले जब श्री नगर में ठहरे थे तो साथ के लोग पहलगाम घूमने गए थे और मैं घूमने का शौक़ीन नहीं हूँ नहीं गया था.लेकिन कमरे पर अकेले-अकेले करता भी क्या ?डल झील के चारों और चक्कर काट डाला.औरों को इतना पैदल चल लेने का ताज्जुब भी हुआ.चक्कर पूरा करने के बाद ढाई रु.की ढाई सौ ग्राम चेरी खा ली थी.श्री नगर में तब. ६० पै.की फीकी,.८० पै.की नमकीन और रु.१/-की मीठी ब्रेड मिलती थी.मैं अक्सर मीठी ब्रेड ले लिया करता था.कारगिल में फीकी ब्रेड ही चलती थी.पहले १९६१ तक लखनऊ में भी फीकी ब्रेड का ही चलन था किन्तु अब तो आगरा की भाँती यहाँ भी नमकीन ब्रेड का चलन है.वैसे ही  लोगों के चाल-चलन में अब मिठास नहीं रह गयी है और खारा-पन आ गया है.

ड्यूटी पर न लिया जाना 

हालांकि इस बार चंढोक साहब की आगरा जाने हेतु मेरे पास लिखित परमीशन थी,फिर भी जी.एम्.-चावला साहब के निर्देश पर मुझे ड्यूटी पर नहीं लिया गया.असिस्टेंट पर्सोनेल मेनेजर श्री जोसेफ जार्ज को दवाएं देकर कारगिल रवाना किया जा चुका था ताकि मैं वहां से लौटू न ,मैंने वहां से पत्र द्वारा अस्वास्थ्यकर वातावरण की सूचना भेज दी थी.पर्सोनल मेनेजर हेमंत कुमार जी ने जी.एम्.चावला साहब को फोन पर बताया-"परमीशन दित्ता"अर्थात चंढोक साहब ने मुझे एलाऊ कर दिया था कारगिल छोड़ने के लिए.जब वे कारगिल के सरकारी डा.की रिपोर्ट नहीं मान रहे थे तो मैंने ई.एस.आई.डिस्पेंसरी का उपयोग किया परन्तु वहां के डा.की रिपोर्ट भी नहीं मानी गई.दो माह बाद मुझे हेमंत कुमार जी ने सूचित किया कं.डा.एच.बी.माथुर को दिखाओ,वैसा ही किया.डा.साहब हमारे फूफा जी के रिश्ते के छोटे भाई थे उनसे पूर्व परिचय था और वह पहले जब श्री रवी प्रकाश माथुर पर्सोनल मेनेजर थे मेरे प्रोमोशन की सफल  सिफारिश भी कर चुके थे.डा. साहब ने इलाज तो किया लेकिन मेनेजमेंट का यह सन्देश सुनाया कि जब तुमने मेनेजमेंट की बात पर युनियन में दुबारा सक्रिय होना स्वीकार नहीं किया है तो भविष्य में फिर कभी सक्रिय नहीं होगे ऐसा आश्वासन मुझे दो तो मैं उसे आगे फारवर्ड कर दूं.डा.साहब की इज्जत और पहले उनसे प्राप्त सहयोग के कारण उनकी बात मान ली.उसी दिन मुझे ड्यूटी पर ले लिया गया.पुरानी  सीट न देकर नई पोस्ट क्रियेट करके मुझे इन्टरनल आडीटर बनाया गया.

इस बीच टूंडला से शालिनी को बुलाया जा चूका था ,पुनः अगस्त में उनके पिताश्री के साथ बउआ ने भिजवा दिया.जहां २४ नवंबर १९८२ की प्रातः ४ बजे  एक पुत्र का जन्म हुआ जो उसी दिन शाम ४ बजे संसार से कूच भी कर गया.रात को शालिनी के रेलवे वाले भाई (शरद मोहन जो कभी पहले हमारे घर नहीं आए थे और जिनकी माता कहती थीं कि वह खुशखबरी लेकर आयेगा)आ कर बोले बच्चे की डेथ हो गईऔर  मुझे बुला ले गए थे यही थी उनकी खुशखबरी .२५ की प्रातः उसका अंतिम संस्कार भी मुझे ही करना पड़ा.बउआ और बाबूजी बाद में पहुँच पाए उनके साथ मैं आगरा लौट आया.बाबूजी ने तो उसकी शक्ल भी न देखी थी.बउआ और मैं तो शालिनी के पिताजी के साथ २४ ता.को गए थे और दोपहर में लौट आये थे.चंढोक साहब का इन्ट्यूशन सही निकल गया था.

फिलहाल शालिनी को कुछ दिन और वहीं रहने दिया गया तथा मकर संक्रांति के अवसर पर बुलवा लिया गया.
क्रमशः......

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बुधवार, 27 जुलाई 2011

आगरा /१९८२-८३(भाग १)

बउआ ने परंपरागत नाव उतरने की रस्म  के वास्ते शालिनी को पीहर से बुलवाने हेतु बाबूजी से पत्र भिजवा दिया जिसे जे.एस.एल.साहब ने मंजूर कर लिया.दरअसल हमारे खानदान में परंपरा है कि,बेटों को प्रत्येक १४ जनवरी (मकर संक्रांति पर)नाव चढ़ने की रस्म कराई जाती है,कभी वास्तविक नाव का प्रयोग होता रहा होगा परन्तु बाबूजी तो हम दोनों भाइयों को खोये की बर्फी को नाव मान कर उसके साथ रस्म पूरी करा देते थे.जब शादी हो जाए तो पुत्र और पुत्र वधु को एक साथ बैठा कर नाव उतरने की रस्म करा दी जाती है,अर्थात अब इसके बाद से नाव चढ़ने की रस्म ख़त्म.

संक्रांति पर बड़ों को बया देने की प्रथा है जिसमें कुछ सामर्थ्यानुसार धन वगैरह भी दिया जाता है.शालिनी ने मुझ से बउआ को रु.५१/-देने हेतु लिए परन्तु दिए उन्हें रु.३१/-ही .मैंने यह बात बउआ को नहीं बतायी लेकिन समझते देर न लगी कि जिसके पिता रेलवे में छोटी इलाईची के घपले में फंसे उसके घर के सभी लोग घपलेबाज ही होंगे.

इस बार गर्मियों में फिर मुझे कारगिल जाने वाली टीम में शामिल कर दिया गया-एन.एस.चावला और हेमंत कुमार जी गत वर्ष खाई मात का बदलना लेने पर उतारू थे.लिहाजा शालिनी को उनकी इच्छानुसार टूंडला भेज दिया गया.

इस बार फ्रंट आफिस सुपरवाईजर श्री इन्दर राज चंढोक को कारगिल मेनेजर बना कर भेजा गया.इंजीनियरिंग से दुसरे शख्स को भेजा गया ,पुराने गए लोगों में केवल मुझे ही रिपीट किया गया था.हेमंत कुमार जी के आफिस में बैठ कर चंढोक साहब ने मुझे आश्वासन दिया था इस बार स्टाफ को भोजन तुम्हारे अनुसार दिया जाएगा.लेकिन यह कोरा आश्वासन ही था.

कारगिल-1982 मे एक बार फिर 

एक रोज घुमते समय पिछली बार जिस ट्रक में जोजीला पर फंसे थे उसके ड्राइवर साहब मिल गए और देखते ही बोले-"अरे तुम फिर आ गया" उन्हें क्या बताते ,इधर-उधर बात घुमा दी.

चंढोक साहब तो टोनी चावला जी के भी पर-बाबा निकले.दो दिन बाद ही उनकी पत्नी मय दोनों बेटों और चंढोक साहब की बहन को लेकर वहां आ गयीं.चंढोक साहब ने भी आर्मी के मेजर साहब से मेल कर लिया उनके कोई रिश्तेदार लेफ्टिनेंट जेनरल थे उनके हवाले से.

एक रोज चंढोक साहब के बड़े बेटे गौरव को काफी तेज बुखार था और मेरी चंढोक साहब से बोलचाल उनके व्यवहार के कारण बंद थी.उन नन्द -भौजाई में भी खट-पट होने के कारण चंढोक साहब अपनी श्रीमती जी से खफा थे.अतः अपने बेटे की भी परवाह नहीं किये.जब बेहद परेशानी बढ़ गई तो मिसेज चंढोक ने मुझ से कहा कि चूंकि मैं पहले भी आ चूका हूँ और डा. आदि से परिचय हो सकता है उनकी मदद करूँ.जीप साथ भेजने को उन्होंने अपने अधिकार से कहा.जिन सरकारी डा. साहब को बशीर साहब टोनी चावला जी के लिए पिछले वर्ष लाये थे ,मैं उनके घर गया और उनसे चलने का निवेदन किया.

डा. साहब आये और वांछित दवाएं दीं ,कुछ परहेज बताया और फीस भी नहीं ली.तब तो बशीर साहब लाये थे इस लिए फीस नहीं ली इस बार मेरे बुलाने पर भी फीस नहीं ली.सरकारी डा. होकर घर आ जाना और फीस नहीं लेना शेख मोहम्मद अब्दुल्ला साहब के शासन में जे.एंड के.में ही संभव था यहाँ यूं.पी.में तो ऐसा होता नहीं है.

बहरहाल एक दो दिन में गौरव बिलकुल ठीक हो गया.ठण्ड और गैर वाजिब भोजन के कारण मेरा जबड़ा जकड गया था और सरकारी अस्पताल में डा.साहब को दिखाया उन्होंने एक्सरे (जो वहां तो फ्री हो गया था)देख कर एक्सरसाईज करने को कहा था और दवाएं बाहर से लिख दी थीं.उन दवाओं से लाभ न होने के कारण उन्होंने आपरेशन करने को कहा तो चंढोक साहब भी चौंक गए और बोले आपरेशन तुम आगरा जाकर अपने घर वालों के बीच कराओ,उनकी श्रीमती जी ने उनसे मुझे आगरा लौटने की लिखित परमीशन भी दिलवा दी और इस प्रकार इस बार एक ही माह के भीतर आगरा लौटना हो गया.

इस बार चंढोक साहब सपरिवार मुझे रात्रि विश्राम-स्थल तक छोड़ने आये थे.अगले दिन सुबह तडके पांच बजे एक ट्रक से निकले जिससे बात चंढोक साहब ने ही तय करा दी थी.श्री नगर शाम तक पहुंचे ,बीच में एक स्थान पर तेज गर्मी के कारण नहर पर ट्रक रुका और ड्राइवर समेत सभी लोग नहाए उसी ट्रक में पी.डब्ल्यू.डी.के एक जे.ई.साहब भी जा रहे थे जिन्होंने मुझ पर जबरदस्ती पानी डाल कर भिगो दिया अतः मुझे भी नहाना ही हुआ.

यह जे.ई.साहब खूब खाऊ आदमी थे अपनी दास्तानें सुनाते आ रहे थे कि ,कब कैसे ठेकेदार को कहाँ फंसा कर उससे कितने रु.या फ्रिज कब हडपा.उन्होंने मुझसे कहा शिकारा -विकार में मत रुको मैं मुफ्त में रुकवा दूंगा और श्रीनगर में डल-झील के पास एक मंदिर में ले जाकर सामान रखवा दिया.वह अलग पीने-खाने चले गए और मैं अलग अपना भोजन करके लौटा.

पिछली बार मैं बिस्तर भी ले गया था जो कारगिल में बंधा रहा था -होटल ने ही प्रोवाईड किया था अतः इस बार ले नहीं गया था.जे.ई.साहब के चक्कर में मंदिर में भीषण ठण्ड में रात गुजारनी पडी.अगली सुबह का रोडवेज बस का टिकट ले लिया था जब मैं चलने लगा तो जे.ई.साहब ने मुझ से रु.५/-पंडित जी को देने हेतु मांग लिए-यही उनका मुफ्त ठौर था .

श्रीनगर से बस ने जम्मू रात में पहुंचा दिया जहां बस स्टैंड की छत पर खुले में रात गुजारी और सुबह होते ही बस पकड़ कर दिल्ली चला,टिकट रात ही में ले लिया था.शाम ५ बजे तक दिल्ली पहुंचे और दूसरी बस पकड़ कर आगरा रात ११-१२ बजे तक घर .इतनी जल्दी और अचानक रात में पहुँचने पर बउआ -बाबूजी एकबारगी घबडा गए.सब बातें समझा दीं.

1981 और 1982 मे जाना-आना मिला कर 4 ट्रिप हुये लेकिन मैं एक बार भी जम्मू नहीं रुक कर सीधा आगरा पहुंचा . जबकि लोग-बाग खास-तौर से छुट्टी एवं पैसे का बंदोबस्त करके 'वैष्णो देवी'जाते हैं ,मैं मुफ्त मे आते-जाते भी मंदिर नहीं गया .कारण था ढोंग और पाखंड पर अविश्वास .यदि कोई अपने देश का भाग समझ कर पर्यटन हेतु जाता है और प्रशाद आदि के फेर मे नहीं पड़ता है तब तो ठीक है.मंदिरवाद केवल प्रदूषण बढ़ाता है और मस्तिष्क को विकृत करता है.अपने मस्तिष्क को पोंगापंथी सड़ांध  से बचाने हेतु 'वैष्णो देवी' मंदिर नहीं गया ,हालांकि आर्य समाज के संपर्क मे तो 16 वर्ष बाद ही आ पाया.

अभी कुछ बातें और कारगिल की फिर ड्यूटी पर न लिए जाने का तमाशा अगली बार......

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रविवार, 24 जुलाई 2011

आगरा/१९८०-८१ -कारगिल से लौट कर

अगले दिन जब ड्यूटी पहुंचे तो ए.यूं.ऍफ़.सी.श्री विनोद चंदर ने मुझे मेरी चाबियें सौंप दीं,मेरी अटेंडेंस रजिस्टर में मुझ से लगवा ली और वाउचर्स मुझे वेरीफिकेशन के लिए सौंप दिए.यूं.ऍफ़.सी.रामादास साहब इसी बीच ट्रांसफर हो कर बंगलौर जा चुके थे ,उनके स्थान पर रत्नम पंचाक्ष्रम साहब आ गए थे जिन्हें हिन्दी नहीं आती थी या वह तमिल होने के नाते बोलना नहीं चाहते थे और मैं अंगरेजी बोलने में हिचकता था.हालांकि चंदर साहब भी तमिल थे और उनके द्वारा मेरा समर्थन करने से पंच्छू साहब नार्मल रहे.

ऍफ़.एंड बी .मेनेजर श्री जगमोहन माथुर ने एस.पी.सिंह को पर्सोनल मेनेजर हेमंत कुमार के इशारे पर ड्यूटी पर नहीं लिया.मैंने व्यक्तिगत रूप से माथुर साहब से भेंट कर एस.पी.को ड्यूटी पर लेने का आग्रह किया ,उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि वह एस.पी. का कोई नुक्सान नहीं होने देंगें परन्तु मेनेजमेंट की इन्टरनल पालिटिक्स में उन्हें जी.एम्.के विरुद्ध हेमंत कुमार की सपोर्ट चाहिए इसलिए थोडा खेल खेलने दो और मैंने एस.पी.को यह सीक्रेट देकर आश्वस्त कर दिया.हफ्ते भर बाद उसे ड्यूटी पर ले लिया गया और दोनों को टी.ए .भी रीइम्बर्स हो गया.

अगस्त १९८० में ही हम कारगिल से वापिस आ गए जबकि आना अक्टूबर में था और शादी ०८ नवम्बर को होना तय था.अब तक वाटर वर्क्स की सुप्लाई गड़बड़ा गयी थी अतः अगस्त में घर के आँगन में पश्चिम में हैण्ड पम्प लगवा लिया.तब ४५ फीट पर पानी मिल गया था और खुदाई ५० फीट करा ली थी.बाद में २००९ में छोड़ते वक्त तीसरी बार बोरिंग हो चुकी थी और वाटर लेवल ७५ फीट जा चूका था हमने १०० फीट खुदाई करा रखी थी. 

शादी दिन की रखी थी पंडित के रूप में मेरे परिचित आयुर्वेदिक डा.थे जिनके समर्थन पर मैं आयुर्वेद रत्न कर रहा था उन्हीं के साथ का अनुभव दिखाया था.बारात टूंडला गयी थी ५० लोग ले जाना तय था परन्तु सेन्ट्रल वेयर हाउस में सेक्शन आफीसर के रूप में कार्य रत जय शंकर साहब के बड़े बेटे (जो हमारे बहनोई के मित्र और भतीज दामाद भी थे जिसका खुलासा अब लखनऊ आने पर हुआ) बाबूजी से बीच में आ कर बोले थे ३०-३५ लोग मिनी बस में आ जायेंगे.हम पहले ही बड़ी बस बुक कर चुके थे.मेरे आफिस के दो लोग ही लिए ,बाबूजी ने अपने आफिस (वह रिटायरमेंट के बाद एक फर्म में काम कर रहे थे)से किसी को नहीं लिया,मोहल्ले से किसी को नहीं लिया कुल २० लोग ले गए.उस एस.ओ.ने अपने अब्बा जान को नहीं बताया कि वह हमारे बाबूजी से क्या कह गया था.उन लोगों ने ५० बारातियों का ही बंदोबस्त किया था.खाना वहां बेहद बच रहा था रात को लौटते में बस में रखवा दिया.सब्जियां सड़ गयीं और फेंकनी पडीं.पूरियां सुखा कर दही में भिगो-भिगो कर निबटाई गईंजैसा कि अलीगढ़ में बहन की सुसराल में होता था.

उन लोगों ने बैंड और घोडी भी थोप दिया था ,हमारे बाबूजी ने कोई एतराज नहीं किया जबकि तय प्रोग्राम उलटने का एकतरफा उनका कृत अपराध था.बाबूजी इन चीजों का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं थे लेकिन कर दिया अतः यह हम  लोगों की कमजोरी समझी गई .

यह शादी बहनोई साहब के पिताश्री ने तय कराई थी.जे.एस.एल.साहब उनके रेलवे के विभागीय साथी थे.इसके अलावा एस.ओ.कुक्कू की पत्नी उनकी रिश्ते की पोती है अर्थात हमारे बहनोई साहब की भतीजी.जब जे.एस.एल.साहब दो बोरा छोटी इलाईची के गबन में फंसे तो श्री सरदार बिहारी जी (बहन के श्वसुर साहब)ने ही अपने क्लेम इन्स्पेक्टर के ओहदे से उनकी नौकरी बचाई थी.

२५ -३१ दिसंबर हमारी आयुर्वेद रत्न की परीक्षाएं थीं अतः १६ त़ा.से मैं प्रिपरेशन लीव पर रहा.२८ नवम्बर को कुक्कू की शादी की सालगिरह थी वह अपनी बहन के साथ मुझे भी बुला ले गए थे.२९ त़ा.की दोपहर मैं वापिस लौट आया.उनके एन.आर.कालेज के प्रवक्ता (जो रिश्ते में मेरे भतीज दामाद भी लगते थे) साहब ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि उन लोगों ने दामाद को पूंछे बगैर आगंतुकों को भोजन कराना शुरू कर दिया था ,उन्होंने खुद मेरे साथ ही भोजन किया.

क्रमशः........

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रविवार, 17 जुलाई 2011

आगरा/१९८०-८१ (कारगिल अवशिष्ट भाग)


उस क्षेत्र की लद्दाखी भाषा में कारगिल का अभिप्राय सेब (एपिल) से है.वहां बहुतायत में सेब के बाग़ हैं.खुमानी भी वहां प्रचुरता से पाई जाती है.उस समय तक वहां के लोग किसी भी व्यक्ति के तोड़ कर फल खाने पर आपत्ति नहीं करते थे.यदि कोई चुरा कर ले जाने लगता तभी पकड़ते थे और उसका दंड लगाते थे.वहाँ तब तक बहुत ईमानदारी और सरलता थी ,यदि बिना ताला लगाए सामान  छोड़ कर चले जाएँ तो कोई भी चोरी नहीं करता था. सुनते तो यह भी थे किसी का गहना भी रास्ते में गिर जाए तो वह भी सुरक्षित मिल जाता है.हाँ चोरी दो चीजों की होती थी-एक जलाने वाली लकड़ी और दुसरे पीने वाला पानी .इन दो आवश्यक साधनों का वहाँ बेहद अभाव था. खैर हमारा होटल हाई लैंड्स तो 'सरू'नदी के तट पर बारू नामक स्थान पर था.पिछली पहाड़ी से काट कर लाई गयी नहर से होटल की टंकी में पानी भरा जाता था जिससे कमरों में ,किचेन में पहुंचाया जाता था. पीने हेतु पानी को फ़िल्टर करना पड़ता था क्योंकि बालू बहुत आती थी.'सरू' संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है-शीतल ,यह शब्द उस क्षेत्र में हमारी प्राचीन संस्कृति का अद्भुत प्रमाण है.वैसे लद्दाख के बौध -क्षेत्र से काट कर बना  मुस्लिम बहुल जिला है कारगिल.वहाँ शिया लोगों का बहुमत है जो सुन्नियों को अछूत मानते थे और उनके साथ बैठ कर खाते पीते नहीं थे बल्कि सभी  गैर शियाओं के साथ यही नियम था.पुस्तकों में पढ़ा हुआ तिब्बती 'याक'बैल भी वहाँ प्रत्यक्ष देखा.मूल रूप से वहाँ तिब्बत्ति प्रभाव था और श्री नगर से बहुत भिन्न स्वभाव के लोग वहाँ थे.

सम्पूर्ण विकास और भौतिक प्रगति का  श्रेय वहाँ तैनात सेना को है.मनोरंजन हेतु सिनेमा भी तब तक सेना का ही था.सेना की जीप ही नागरिकों को सिनेमा बदलने की सूचना देती थी.सेना के क्वार्टर मास्टर हवलदार साहब से टोनी चावला जी ने मेल-जोल स्थापित कर लिया था.उनके जरिये मिट्टी का अतिरिक्त तेल उपलब्ध कर लेते थे जो होटल का मुख्य ईंधन था.डाक घर नजदीक था और टहलते हुए जाकर वहाँ से होटल के  तथा व्यक्तिगत लेटर्स  ले आते थे.बाजार दूर था किन्तु चावला जी सभी को पैदल कभी-कभी ले जा कर सब्जी ,ब्रेड आदि खरीदारी करने ले जाते थे.कभी-कभी जीप दे देते थे. हालांकि चावला जी के हार्ट में एक होल था.फिर भी कंजूसी के कारन पैदल ही चलते थे.यह बात उन्होंने तब बतायी थी जब एक बार उनको भयंकर -तीव्र दर्द हुआ ,समय रात  दस बजे का था.होटल मालिक गुलाम रसूल जान साहब के बड़े बेटे बशीर अहमद जान साहब वहाँ मौजूद थे जो सरकारी अधिकारियों डाक्टरों आदि से व्यक्तिगत रूप से परिचित थे.वह जीप में मुझे साथ लेकर सरकारी अस्पताल के डाक्टर के घर गए और उन्हें जगा कर साथ ले आये.डाक्टर साहब ने जरूरी दवाएं अपने पास से दे दीं और दिन में लेने के लिए पर्चे पर लिख दीं.डाक्टर साहब लौटते में यह कह कर जीप ड्राइवर के साथ अकेले ही चले गए कि, आप लोग इनका ध्यान रखें.चावला जी की श्रीमती जी दो -एक दिन में आने वाली थीं अतः उन्होंने मुझे यह हिदायत देते हुए हार्ट में होल होने की बात बताई कि,उनकी श्रीमती जी को यह न पता चलने पाए परन्तु हालत ज्यादा बिगड़ने पर डा.को चुप-चाप मैं बता दूं.

खैर  उनकी श्रीमती जी जब आ गईं तब उसके बाद मेरे वहां रहने तक उन्हें कोई दूसरा अटैक नहीं पड़ा.चूंकि मैं अकौन्ट्स सुपरवाइजर था और मेरे पास रात्री में ग्रुप्स आने पर कोई काम नहीं था अतः जब कभी एक्स्ट्रा ग्रुप आ गया तो बाजार से सब्जी,ब्रेड लेने मुझे ही भेजा जाता था,दुसरे सभी लोग व्यस्त रहते थे.चावला जी कंजूसी के तहत एक्स्ट्रा स्टाक नहीं रखते थे.कभी -कभी जीप न देकर पैदल भेजते थे.एक बार लौटते समय तेज तूफानी हवाएं चलने लगीं ,संभावना बारिश आने की भी थी,मैंने एक जीप आता देख कर उसे टैक्सी समझते हुए रुकने का इशारा किया वह रुक गयी और मैं बारू जाना है कह कर बैठ गया.उतरने पर उस समय के रेट के मुताबिक़ रु.२/-का नोट ड्राइवर को देने लगा परन्तु उसने हाथ जोड़ कर मना कर दिया-साहब यह सरकारी गाडी है.जीप आगे बढ़ने पर मैंने देखा उस पर डायरेक्टर फिशरीज लिखा था अर्थात मेरे साथ दूसरी सवारी नहीं वह अधिकारी थे.एक हमारे मेनेजर और दुसरे वह लद्धाखी सरकारी  अधिकारी दोनों के व्यवहार बड़े आश्चर्यजनक रहे.जीप तेजी से चले जाने के कारण मैं तो धन्यवाद भी न दे सका था.

प्रातः काल मैं जल्दी उठ जाता था और आस-पास टहलने निकल जाता था.एक बार टी.बी.अस्पताल की तरफ चला गया तो बाहरी आदमी देख कर सी.एम्.ओ.साहब ने बुलाया और अपना परिचय देकर मुझ से परिचय माँगा.मेरे यह बताने पर कि,होटल मुग़ल,आगरा में अकौन्ट्स सुपरवाईजर हूँ और यहाँ टेम्पोरेरी ट्रांसफर पर होटल हाई लंड्स में आया हुआ हूँ. उन्होंने यदा-कदा आते रह कर मिलने को कहा.विशिष्ट प्रश्न जो उन्होंने पूंछा वह यह था कि क्या आप लखनऊ के हैं?मैंने प्रति-प्रश्न किया आपने कैसे पहचाना ?वैसे मेरा जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा लखनऊ की ही है.डा.साहब का जवाब था आपकी जबान में उर्दू की जो श्रीन्गी है वह लखनऊ में ही पायी जाती है दूसरी जगहों पर नहीं.हालांकि उस समय हमें लखनऊ छोड़े हुए १९ वर्ष व्यतीत हो चुके थे और मैं उर्दू पढ़ा भी नहीं था.घर में बोली जाने वाली बोली से ही डा. साहब ने पहचाना था जो खुद श्रीनगर के सुन्नी थे.

आज जब मैं लखनऊ की एक बाहरी कालोनी में आकर पुनः बसा हूँ तो यहाँ पहले से रह रहे लोग जो राय बरेली,सुल्तानपुर,गोरखपुर,देवरिया,सीतापुर,लखीमपुर से  आकर बसे हैं मुझे गैर लखनवी का फतवा दे रहे हैं क्योंकि वे कुछ और बोलते हैं और मैं वही पुरानी वाली बोली जो कारगिल में भी बोलता था,और वहां इसी के आधार पर आगरा से जाने के बाद भी लखनऊ का जाना जाता था.

कारगिल में मैं कुल ढाई माह ही रहा और विदाउट परमीशन वापिस आगरा लौट गया ,क्यों ?यह बात पहले लिख चुके हैं.अगली बार आगरा लौट कर......

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आगरा/१९८०-८१( कारगिल/भाग-३)

  

मेनेजर टोनी चावला जी जब तक उनकी श्रीमती जी नहीं आई थीं बेहद अश्लील चुटकुले सुनाया करते थे.सेखों तथा इंज.सूप.इंटरेस्ट लेकर सुनते थे बाकी लोगों के लिए मजबूरी था.हालांकि होटल मालिक के बेटे बशीर अहमद जान साहब भी चुटकुले सुनाने  वालों में थे परन्तु उनके चुटकुलों को अश्लील नहीं कह सकते ,उदाहरणार्थ उनका एक चुटकुला यह था-
कारगिल आने से पहले पड़ता है द्रास.

दूर क्यों बैठी हो ,आओ बैठें पास-पास..  

बशीर साहब सुन्नी होते हुए भी भोजन से पूर्व बिस्कुट,ब्रेड,रोटी जो भी हो थोडा सा हाथ में लेकर मसल कर चिड़ियों को डालते थे.उन्होंने इसका कारण भी स्पष्ट किया था -एक तो हाथ साफ़ हो जाता है,दुसरे चिड़ियों के खाने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि,वह भोज्य पदार्थ खाने के योग्य है (क्योंकि यदि चिड़िया को तकलीफ होगी तो पता चलने पर उस भोजन का परित्याग करेंगे),और पुण्य तो है ही.चावला जी की श्रीमती जी के आने के बाद बशीर साहब श्री नगर लौट गए थे.

बशीर साहब के पिताजी गुलाम रसूल जान साहब एम्.ई.एस.में ठेकेदार थे.उन्होंने श्री नगर के लाल चौक में 'हाई लैंड फैशंस'नामक दूकान बेटों को खुलवा दी थी.लकड़ी के फर्श,छत और दीवारों के कमरे श्री नगर में बनवा कर ट्रकों से कारगिल पहुंचवाए थे और यह 'होटल हाई लैंड्स'बनवाया था.१९७९ में जब सोमनाथ नाग (यह मुग़ल ,आगरा में फ्रंट आफिस सुपरवाईजर रहे थे) कारगिल में मेनेजर बन कर आये थे तब बशीर साहब के छोटे भाई नजीर अहमद साहब असिस्टेंट मेनेजर उनके साथ थे जिनके लोकल लद्धाखियों से खूब झगडे होते थे.अतः निजी तौर पर उनकी एंट्री बैन कर दिए जाने के कारण बशीर साहब को भेजा गया था.वह बीच-बीच में आते रहते थे.सारे स्टाफ के साथ बशीर साहब का व्यवहार बहुत अच्छा था.

हम लोग बस में तडके कोट वगैरह पहन कर बैठे थे.बीच रास्ते में तेज गर्मी हो गई मैं तो वैसे ही सब पहने रहा परन्तु एस.पी. ने कोट उतार दिया और पर्स निकाला नहीं.एक जगह बस रुकने पर चाय -बिस्कुट के लिए वह पेमेंट करना चाहते थे जेब पर हाथ डाला तो सन्न रह गए ,पेमेंट मैंने कर दिया और तसल्ली भी दिलाई कि,पर्स सुरक्षित मिल जाएगा.बस में लौटने पर कोट ही नहीं दिखाई पड़ रहा था,जिस सीट पर हम लोग बैठे थे वह ढीली थी और आगे खिसक आती थी मैंने सब लोगों को उठवा कर सीट उठाई तो कोट मिल गया और उसमें रखा एस.पी. का पर्स भी तब उनकी जान में जान आई.

श्रीनगर हम लोग शाम को पहुंचे और रु.१५/- बेड के हिसाब से एक शिकारा में सामान रखा.उसमें तीन बेड थे यदि और कोई आता तो उसे उसमें एडजस्ट करना था परन्तु कोई आया नहीं.एस.पी. और मैं पहले रोडवेज के काउंटर पर गए और अगले दिन का जम्मू का टिकट लिया.फिर रात का खाना खाने के इरादे से बाजार में गए .वहां बशीर साहब ने  हमें देख लिया और पहले चाय-नाश्ता एक दूकान पर कराया और काफी देर विस्तृत वार्ता के बाद हम दोनों को एक रेस्टोरेंट में खाना भी उन्हीं ने खिलाया.

अगले दिन सुबह तडके श्रीनगर से बस चल दी.शाम तक हम लोग जम्मू में थे.ट्रेन पकड़ कर आगरा के लिए रवाना हो गए और अगले दिन आगरा भी पहुँच गए.घर में अचानक पहुँचने से सब को आश्चर्य भी हुआ और यह भय भी कि क्या नौकरी सुरक्षित बचेगी ?क्या हुआ अगली बार......

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मंगलवार, 12 जुलाई 2011

आगरा/१९८०-८१ ( कारगिल भाग २ )



जब मैंने मेनेजर चावला साहब से डा. साहब से हुई भेंट का जिक्र किया तो उन्होंने उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की ,एक रोज वह जल्दी सो कर उठ गए और मेरे साथ टी.बी.अस्पताल की और गए.डा.साहब अपनी कोठी के बरामदे में ही बैठे थे देख कर बाहर आ गए ,मैनें चावला जी का परिचय दिया तो उन्होंने चावला जी और मुझे अगले सन्डे को अपने घर भोजन पर बुलाया.परन्तु चावला जी अकेले ही चले गए और ठीक भी हुआ क्योंकि वही बड़े अपसेट थे.हालांकि वह तो मांसाहारी थे किन्तु डा.साहब के यहाँ भेड़ का मांस परोसा गया था जो चावला जी ने बेमन से खाया.मैं तो शाकाहारी था यदि वह ले जाते तो बिना खाए ही आता.

एक दिन बिना पूर्व सूचना के सरदार नृप जीत सिंह चावला,जी.एम्.-होटल मुग़ल कारगिल के होटल में सीधे पहुँच गए.सभी लोगों से व्यक्तिगत हाल-चाल पूंछा,किन्तु शायद गोपनीय तरीके से टोनी चावला जी को मुझे परेशान करने का हिंट दे गए.एन.एस.चावला जी तो एक-डेढ़ घंटे में ही चले गए लेकिन फिर टोनी चावला जी का व्यवहार एक हरबंस सिंह सेखों( जो मोना सरदार थे )को छोड़ कर सभी के प्रति बेरुखा हो गया विशेष कर मेरे प्रति तो टेढ़ा.
[अतुल माथुर,हरवंस सिंह सेखों (पीछे) सतपाल सिंह साथ ,में ]

इस चित्र में हरबंस सिंह सेखों,सत्य पाल सिंह,अतुल माथुर और उनके साथ मैं हूँ.सेखों फ्रंट आफिस के थे,एस.पी.सिंह ऍफ़.एंड बी.सेक्शन के और अतुल माथुर कुक था.यह वही अतुल माथुर है जिसके पिता के ताऊ जी(आर.एस.माथुर जिनका मेरठ कालेज और कचहरी के पास आर.एस.ब्रदर्स नामक रेस्टोरेंट है)  ने हमारे फूफा जी को चार्ज में पंखों की जगह मिट्टी की हांडियां हैण्ड ओवर की थीं और बाद में फूफा जी लम्बे समय तक सस्पेंड  रहे थे.वैसे मैंने अतुल से इस घटना का जिक्र नहीं किया था और उसका व्यवहार मेरे साथ बहुत ठीक था वह मुझे पूरा सम्मान देता था.वह दूध की चाय नहीं पीता था और नीम्बू डाल कर पीता था,मेरे अलावा  सब उसका मखौल उड़ाते थे .एक दिन उसने मुझे भी वह चाय दी मुझे अच्छी लगी लेकिन और लोग चखने को भी तैयार नहीं थे.

टोनी चावला जी ने चाय -नाश्ते,खाने वगैरह पर अपनी पाबंदी लगा दी तब कभी-कभी अतुल किचेन में बुला कर मुझे एक्स्ट्रा चाय पिला दिया करता था.शाकाहारी खाना खाने वाले केवल दो लोग थे -मेरे आलावा इंजीनियरिंग सुपरवाईजर .हम ही दो ड्रिंक भी नहीं करते थे.मेरे दुसरे साथी ने चावला जी से भोजन पर टकराना शुरू कर दिया,उनकी खुराक भी ज्यादा थी.वह मांसाहार के बदले अधिक मक्खन की मांग करते थे,ड्रिंक के बदले जूस मांगते थे.मुझे मक्खन वगरह ज्यादा हजम करना मुश्किल था अतः मैंने उनकी मांग का समर्थन नहीं किया.चावला जी कहते थे दोनों शाकाहारियों को एक सा भोजन मिलेगा उसमें भेद नहीं होगा.

एक दिन उन महोदय का चावला जी से इतना झगडा हुआ कि,उन्होंने खाने का बहिष्कार कर दिया.उनके भी सुपरवाईजर ग्रेड का ही होने के कारण मुझे उनका साथ देना पड़ा.हम लोग बाजार अपने खर्च पर खाना खाने जाने लगे और रात को बिना खाए रहे.एक दिन रास्ते के एक दुसरे होटल के कुक ने बुला कर हम लोगों को चाय नाश्ता कराया,उनके मालिक को यह मालूम होते हुए भी कि हम लोग उनके प्रतिद्वंदी होटल के कर्मचारी हैं कोई एतराज कभी नहीं किया.यह मौलिक अंतर उत्तर भारत के अपने मेनेजर और लद्धाखी व्यापारी के व्यक्तित्व का है.लद्धाखी शिया उस समय ईरान के आयतुल्ला रोह्हल्ला खोमैनी के समर्थक थे,जेड.ए.भुट्टो उनके आदर्श थे.कश्मीर घाटी के सुन्नियों से उन लोगों के सम्बन्ध मधुर नहीं थे परन्तु हम लोगों के प्रति व्यवहार बहुत अच्छा था.

उसी दौरान दुसरे सुपरवाइजर महोदय मुझे एक दिन मिलेटरी के सिनेमा हाल में 'गाय और गोरी'पिक्चर जबरदस्ती दिखाने ले गए.मैं सिनेमा वगैरह नहीं देखता था.वह थोडा ओछे स्वभाव के थे अतः बदलने पर दूसरी पिक्चर मैंने भी उन्हें दिखा दी.
हर वंस सिंह सेखों के साथ 

एक दिन सारे स्टाफ का झगडा टोनी चावला जी से हो गया.आगरा का सारा स्टाफ वापिस जाने के लिए उद्यत हो गया.टोनी चावलाजी की श्रीमती जी ने हस्तक्षेप करके सब को रुकने पर राजी कर लिया,परन्तु टोनी चावला जी का व्यवहार पूर्व वत रहने के कारण सत्य पाल सिंह,इंज.सुपरवाईजर और मैंने वापिस लौटने का ठोस निर्णय कर लिया.चावला जी ने परमीशन नहीं दी.तीनों लोगों ने अपना सामान बाँध लिया और चूंकि श्रीनगर हेतु बस सुबह ५ बजे चलती थी,स्टैंड के पास एक होटल में रुक गए ऐन चलने के टाईम टोनी चावला ने इंजीनियरिंग सुपरवाईजर को लालच देकर या धमका कर रुकने पर राजी कर लिया और उसने अपना सामान खोल लिया.लेकिन हम दो लोगों को पहुँचाने सारा स्टाफ आया था.हम आफिशियल जीप लेने के पक्ष में नहीं थे परन्तु सेखों ने कहा कि वह लोग घूमने जा रहे हैं और उन्होंने अपने लिए जीप माँगी है और चूंकि उनके पजेशन में है अतः वे लोग हमें पहुंचा रहे हैं न कि चावला जी.उनकी बात माननी पडी.

कारगिल की कुछ और बातें ,लौटने का सफ़र आदि-आदि अगली बार........

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मंगलवार, 5 जुलाई 2011

आगरा/१९८०-८१(भाग १)/एवं कारगिल-प्लेटिनम का मलवा ---विजय राजबली माथुर

१९८० में बउआ की तबियत ज्यादा खराब हुई,वह अंगरेजी दवा लेती नहीं थीं .एक परिचित डा.साहब के पिताजी मशहूर वैद्य थे उन्हें हाल बता कर दवा दी जिससे उन्हें तत्काल फायदा हुआ. यह उन दिनों की बात है जब संजय गांधी की विमान दुर्घटना में हत्या धीरेन्द्र ब्रह्मचारी की कृपा से हुई थी.मैं १५ दिन छुट्टी पर रहा और घरेलू काम किया .यूं.ऍफ़.सी.श्री पल्लाकल सुरेश रामादास नें कुछ रविवार जिनमें काम कर चुका था के कम्पेंसेशन में छुट्टी दे दी और अतिरिक्त छुट्टी हेतु अग्रिम रविवार के लिए भी कम्पेंसेटरी  आफ सेंक्शन कर दिए.मैंने 'हिन्दी साहित्य सम्मलेन,प्रयाग'की आयुर्वेद रत्न परीक्षा हेतु मंजूरी माँगी उसे भी रामदास साहब ने फॉरवर्ड कर दिया और हेमंत कुमार जी ने भी सैंक्शन कर दिया.हालांकि इस डिग्री से होटल मेनेजमेंट को कोई फायदा नहीं हो रहा था.मंजूरी लेकर कोर्स करने का फायदा यह  था कि,प्रति वर्ष एक्जाम के दौरान १५ दिन की पेड़ लीव मिल जाए.


 हेमंत कुमार जी छात्र जीवन में सयुस(समाजवादी युवजन सभा)  में रहे थे और बांग्लादेश आन्दोलन में दिल्ली के छात्र प्रतिनिधि की हैसियत  से भाग ले चुके थे.लेकिन होटल मुग़ल के पर्सोनल मेनेजर के रूप में कर्मचारियों के हितों के विपरीत कार्य करके हायर मेनेजमेंट  को खुश करना चाहते थे.कारगिल,लद्दाख में आई.टी.सी.ने एक लीज प्रापर्टी 'होटल हाई लैंड्स'ली थी.यह होटल ,होटल मुग़ल के जी.एम्.के ही अन्डर था.पेंटल साहब सीराक होटल,बम्बई ट्रांसफर होकर जा चुके थे और सरदार नृप जीत  सिंह चावला साहब नये जी.एम्.थे,वह भी एंटी एम्प्लोयी छवि के थे.यूं.ऍफ़.सी.शेखर साहब की जगह पी.सुरेश रामादास साहब आ गए थे जो पूर्व मंत्री एवं राज्यपाल सत्येन्द्र नारायण सिंहां के दामाद थे और अटल बिहारी बाजपाई के प्रबल प्रशंसक थे.१९८० के मध्यावधी चुनावों में इंदिरा गांधी पहली बार आर.एस.एस.के समर्थन से पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापिस आ चुकीं थीं.२५ मार्च १९८१ को मेरी शादी करने की बाबत फाइनल फैसला हो चुका था.इतनी तमाम विपरीत परिस्थितियों में मुझे अस्थायी तौर पर (मई से आक्टूबर)होटल हाई लैंड्स ,कारगिल ट्रांसफर कर दिया गया.इन्कार करके नौकरी छोड़ने का यह उचित वक्त नहीं था.

२४ मई १९८१ को होटल मुग़ल से पांच लोगों ने प्रस्थान किया.छठवें अतुल माथुर,मेरठ से सीधे कारगिल ही पहुंचा था.आगरा कैंट स्टेशन से ट्रेन पकड़ कर दिल्ली पहुंचे और उसी ट्रेन से रिजर्वेशन लेकर जम्मू पहुंचे.जम्मू से बस   द्वारा श्री नगर गए जहाँ एक होटल में हम लोगों को ठहराया गया.हाई लैंड्स के मेनेजर सरदार अरविंदर सिंह चावला साहब -टोनी चावला के नाम से पापुलर थे,उनका सम्बन्ध होटल मौर्या,दिल्ली से था.वह एक अलग होटल में ठहरे थे,उन्होंने पहले १५ हजार रु.में एक सेकिंड हैण्ड जीप खरीदी जिससे ही वह कारगिल पहुंचे थे.४-५ रोज श्री नगर से सारा जरूरी सामान खरीद कर दो ट्रकों में लाद कर और उन्हीं ट्रकों से हम पाँचों लोगों को रवाना कर दिया.श्री नगर और कारगिल के बीच 'द्रास'क्षेत्र में 'जोजीला'दर्रा पड़ता है.यहाँ बर्फबारी की वजह से रास्ता जाम हो गया और हम लोगों के ट्रक भी तमाम लोगों के साथ १२ घंटे रात भर फंसे रह गए.नार्मल स्थिति में शाम तक हम लोगों को कारगिल पहुँच चूकना था.( ठीक इसी स्थान पर बाद में किसी वर्ष सेना के जवान और ट्रक भी फंसे थे जिनका बहुत जिक्र अखबारों में हुआ था).

इंडो तिब्बत बार्डर पुलिस के जवानों ने अगले दिन सुबह बर्फ कट-काट कर रास्ता बनाया और तब हम लोग चल सके.सभी लोग एकदम भूखे-प्यासे ही रहे वहां मिलता क्या?और कैसे?बर्फ पिघल कर बह रही थी ,चूसने पर उसका स्वाद खारा था अतः उसका प्रयोग नहीं किया जा सका .तभी इस रहस्य का पता चला कि,इंदिरा जी के समक्ष एक कनाडाई फर्म ने बहुत कम कीमत पर सुरंग(टनेल)बनाने और जर्मन फर्म ने बिलकुल मुफ्त में बनाने का प्रस्ताव दिया था.दोनों फर्मों की शर्त थी कि ,'मलवा' वे अपने देश ले जायेंगें.इंदिराजी मलवा देने को तैयार नहीं थीं अतः प्रस्ताव ठुकरा दिए.यदि यह सुरंग बन जाती तो श्री नगर से लद्दाख तक एक ही दिन में बस  द्वारा पहुंचा जा सकता था जबकि अभी रात्रि हाल्ट कारगिल में करना पड़ता है.सेना रात में सफ़र की इजाजत नहीं देती है.

मलवा न देने का कारण

तमाम राजनीतिक विरोध के बावजूद इंदिरा जी की इस बात के लिए तो प्रशंसा करनी ही पड़ेगी कि उन्होंने अपार राष्ट्र-भक्ति के कारण कनाडाई,जर्मन या किसी भी विदेशी कं. को वह मलवा देने से इनकार कर दिया क्योंकि उसमें 'प्लेटिनम'की प्रचुरता है.सभी जानते हैं कि प्लेटिनम स्वर्ण से भी मंहगी धातु है और इसका प्रयोग यूरेनियम निर्माण में भी होता है.कश्मीर के केसर से ज्यादा मूल्यवान है यह प्लेटिनम.सम्पूर्ण द्रास क्षेत्र प्लेटिनम का अपार भण्डार है.अगर संविधान में सरदार पटेल और रफ़ी अहमद किदवई ने धारा '३७०' न रखवाई होती तो कब का यह प्लेटिनम विदेशियों के हाथ पड़ चूका होता क्योंकि लालच आदि के वशीभूत होकर लोग भूमि बेच डालते और हमारे देश को अपार क्षति पहुंचाते.धारा ३७० को हटाने का आन्दोलन चलाने वाले भी छः वर्ष सत्ता में रह लिए परन्तु इतना बड़ा देश-द्रोह करने का साहस नहीं कर सके,क्योंकि उनके समर्थक दल सरकार गिरा देते,फिर नेशनल कान्फरेन्स भी उनके साथ थी जिसके नेता शेख अब्दुल्ला साहब ने ही तो महाराजा हरी सिंह के खड़यंत्र  का भंडाफोड़ करके काश्मीर को भारत में मिलाने पर मजबूर किया था .तो समझिये जनाब कि धारा ३७० है 'भारतीय एकता व अक्षुणता' को बनाये रखने की गारंटी और इसे हटाने की मांग है-साम्राज्यवादियों की गहरी साजिश.और यही वजह है काश्मीर समस्या की .साम्राज्यवादी शक्तियां नहीं चाहतीं कि भारत अपने इस खनिज भण्डार का खुद प्रयोग कर सके इसी लिए पाकिस्तान के माध्यम से विवाद खड़ा कराया गया है.इसी लिए इसी क्षेत्र में चीन की भी दिलचस्पी है.इसी लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा हेतु गठित आर.एस.एस.उनके स्वर को मुखरित करने हेतु 'धारा ३७०' हटाने का राग अलापता रहता है.इस राग को साम्प्रदायिक रंगत में पेश किया जाता है.साम्प्रदायिकता साम्राज्यवाद की ही सहोदरी है.यह हमारे देश की जनता का परम -पुनीत कर्तव्य है कि भविष्य में कभी भी आर.एस.एस. प्रभावित सरकार न बन सके इसका पूर्ण ख्याल रखें अन्यथा देश से काश्मीर टूट कर अलग हो जाएगा जो भारत का मस्तक है .

कारगिल का विवरण अगली बार.......

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