रविवार, 8 फ़रवरी 2015

शुक्रिया शुभेच्छुओं --- विजय राजबली माथुर

यों तो उन सभी लोगों का तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ जिन सब ने मेरे जन्मदिवस पर शुभकामनायें व्यक्त की हैं परंतु उन सब में इन कुछ को मैंने ब्लाग-पोस्ट के माध्यम से सहेजने की चेष्टा की है और उम्मीद करता हूँ कि इसका अन्यथा अर्थ नहीं लिया जाएगा।

वरिष्ठ किसान नेता एवं कामरेड आदरणीय राम प्रताप त्रिपाठी जी ने SGPGI ,लखनऊ के हृदय रोग विभाग में चिकित्साधीन होते हुये भी मुझको शुभकामनायें दी हैं जो मेरे लिए अमूल्य आशीर्वाद स्वरूप हैं। उनसे काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त हुआ है जिसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।
  • Thursday


  • Shesh Narain Singh
    Shesh Narain Singh

    Happy birthday Comrade
    अग्रज तुल्य आदरणीय शेष नारायण सिंह जी ने अपने 'राईटर्स एंड जर्नलिज़्म' से सम्बद्ध करके मेरा मान बढ़ाया है और सदैव व्यक्तिगत मेसेज के जरिये अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं। 






    अग्रज तुल्य जितेंद्र रघुवंशी जी व बहन ज्योतसना रघुवंशी जी से तो आगारा से ही व्यक्तिगत रूप से परिचय है बल्कि इनके पिताजी व माताजी से पार्टी मंच के माध्यम से बहुत कुछ सीखा है। आदरणीय राजेन्द्र रघुवंशी जी के सहयोग से ही 1987 में AIPSO के कानपुर सम्मेलन में भाग भी लिया था। 
    ***                        ***        ***
    बहन अर्चना उपाध्याय जी व बंधु नरेंद्र परिहार जी निरंतर मेरा उत्साहवर्द्धन करते रहते हैं।




    आदरणीय डॉ डंडा लखनवी जी का आशीर्वाद सदा ही मुझे प्राप्त होता रहता है । लेखन के आधार पर ही उनसे घरेलू परिचय भी हुआ है। उनकी एक  दिशा-प्रेरक काव्य रचना भी मुझे उनसे भेंट स्वरूप प्राप्त हुई है। बंधु ध्रुव गुप्त जी के कई लेखन मैंने अपने ब्लाग में  भविष्य हेतु समेट लिए हैं और उनसे आत्मीयता प्राप्त की है।

अनिल चौहान साहब फेसबुक में तो अब मेरे साथ सम्बद्ध हुये हैं परंतु उनके पिताजी आदरणीय कामरेड डॉ रामगोपाल सिंह चौहान साहब का स्नेह मुझे प्राप्त रहा है। भाकपा, आगरा में ज़िला कोषाध्यक्ष पद पर अपने उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त करवा कर डॉ साहब ने मेरा अत्यधिक मान वर्द्धन किया था जिसे मैं कभी भी नहीं भूल सकता।


संजोग वाल्टर साहब ने मेरे ब्लाग लेखन को काफी सराहना प्रदान की है। उनसे व्यक्तिगत परिचय भी स्थापित हुआ है। इनके भी कई लेखन मैंने अपने ब्लाग्स में समेट  रखे हैं और इनसे बराबर प्रोत्साहन मिलता रहता है।


डॉ सुधाकर अदीब साहब के संबंध में कुछ भी कहना सूरज को दीपक दिखाना होगा। वह सदैव मेरे लेखन की सराहना करके मुझे प्रोत्साहित करते रहते हैं। उनसे उनके दो उपन्यास भी मुझे भेंट स्वरूप प्राप्त हुये हैं। एक पर दिये गए मेरे दृष्टिकोण को भी उनसे मान प्राप्त हुआ है। एक यशस्वी लेखक और उच्चाधिकारी होते हुये भी दूसरों को अदीब साहब जिस प्रकार प्रेरित करते हैं वह सराहनीय व अनुकरणीय है। 



जगदीश चंदर जी के भी कई लेख मैंने अपने ब्लाग में सहेज लिए हैं और उनसे सहयोग प्राप्त करता रहता हूँ। 







 वैसे फेसबुक के माध्यम से तो सभी जनों को आभार व्यक्त कर ही चुका था किन्तु इस ब्लाग-पोस्ट का उद्देश्य सिर्फ यह बताना था कि शुभेच्छुओं में से कुछ से पूर्व व्यक्तिगत परिचय भी रहा है। किन्तु मेरे जिस लेखन के आधार पर इन महान लोगों से आत्मीयता व सराहना मिलती है उसे बल मिलता है उन लोगों के विचारों व लेखन के अध्यन से ही। फोन पर sms व फेसबुक पर टिप्पणी के माध्यम से कुछ महान लोगों से भी बधाई मिली है किन्तु उनका नामोल्लेख किसी खास वजह से नहीं कर पा रहा हूँ वे स्वम्य समझ लेंगे। सभी जनों के प्रति हार्दिक आभार।

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गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

पूर्णांक के बाद प्रथमांक में प्रवेश ---विजय राजबली माथुर

एकला चलो रे : बचपन भविष्य का सूचक -----
मथुरा नगर, दरियाबाद में घर के बाहर


प्रस्तुत चित्र हमारे मामाजी (स्व.डॉ कृपा शंकर माथुर, पूर्व विभागाध्यक्ष, मानव शास्त्र विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय) द्वारा लिया गया है। 

न्यू हैदराबाद, लखनऊ में अपने निवास के सामने वाले पार्क में मुझे लिए हुये मामाजी


मामाजी बउआ (माँ) से मिलने मथुरा नगर, दरियाबाद जब पहुंचे तब मुझे  वहाँ न देख कर मेरे बारे में पूंछा और माँ के यह कहने पर कि मुझे मेरी सबसे बड़ी जीजी (बड़े ताऊजी की सबसे बड़ी बेटी ) लेकर  बाहर खेलने  गईं हैं। मामाजी वहीं पहुँच गए और चूंकि उनको फोटोग्राफी का शौक था ( वह यूनिवर्सिटी की फोटोग्राफी असोसियेशन के सेक्रेटरी भी थे ) अतः जैसा मुझे पाया वैसा ही कैमरे में पहले कैद कर लिया फिर गोद में लेकर माँ के पास आए। यह चित्र माँ की एल्बम में सुरक्षित है जबकि अब माँ,बाबूजी,मामाजी और वह जीजी इस दुनिया में नहीं हैं। आज 63 वर्ष पूर्ण करके 64वें वर्ष में प्रवेश के अवसर पर इस चित्र को श्रीमती जी (पूनम) के प्रस्ताव पर चुना है और इसकी व्याख्या कर रहा हूँ। 

अंक ज्योतिष के अनुसार 9 एक पूर्ण अंक है (63=6+3=9) और इस वर्ष फिर से पूर्णांक के बाद प्रथमांक (64=6+4=10=1) में प्रवेश हुआ है अतः बचपन के इस चित्र का विश्लेषण करने का आज यह उपयुक्त अवसर है।

इस चित्र में मुझे बेर के पत्ते से बेर की झाड़ी के पास अकेले लेकिन मस्त  खेलते स्पष्ट देखा जा सकता है। बेर के पत्तों में कांटे भी होते हैं और आस-पास बिखरे भी हो सकते हैं लेकिन आयु के अनुसार अनभिज्ञ होते हुये मैं उनमें ही मस्त था। मेरे अब तक के जीवन में पग-पग पर कांटे ही मुझे मिलते आए हैं और मैं उनकी परवाह किए बगैर एक लंबी उम्र अविचलित रह कर गुज़ार चुका हूँ। क्या  मामाजी को कोई पूर्वाभास हुआ रहा होगा जो उन्होने इस चित्र से उस अवस्था को सुरक्षित कर लिया था या केवल शौक में ही यह फोटो खींचा होगा ?

 किन्तु मैं अब इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि बचपन में ही भविष्य के अनेक संकेत मिल जाते हैं भले ही अभिभावक व अन्य समझ सकें अथवा नहीं।जूलाई 2011 में पूर्व प्रकाशित लेखों से उद्धृत निम्नांकित विवरणों से इसकी पुष्टि हो जाएगी। क्योंकि अबोध अवस्था में भी मैं बेर के  काँटोंयुक्त पत्ते से खेल कर ही मस्त था तब 29 वर्ष की अवस्था में भूखे-प्यासे ज़ोजिला दर्रे में फँसने पर निराश या हताश कैसे हो सकता था ? जबकि अन्य साथी काफी विचलित थे।

सिर्फ इतना ही नहीं बचपन की शिक्षा व संस्कारों का भी प्रभाव जीवन भर पड़ता है उसका भी  पूर्व प्रकाशित एक उदाहरण यह है :

*" प्रातः काल मैं जल्दी उठ जाता था और आस-पास टहलने निकल जाता था.एक बार टी.बी.अस्पताल की तरफ चला गया तो बाहरी आदमी देख कर सी.एम्.ओ.साहब ने बुलाया और अपना परिचय देकर मुझ से परिचय माँगा.मेरे यह बताने पर कि,होटल मुग़ल,आगरा में अकौन्ट्स सुपरवाईजर हूँ और यहाँ टेम्पोरेरी ट्रांसफर पर होटल हाई लैण्ड्स में आया हुआ हूँ. उन्होंने यदा-कदा आते रह कर मिलने को कहा.विशिष्ट प्रश्न जो उन्होंने पूंछा वह यह था कि क्या आप लखनऊ के हैं?मैंने प्रति-प्रश्न किया आपने कैसे पहचाना ?वैसे मेरा जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा लखनऊ की ही है.डा.साहब का जवाब था आपकी जबान में उर्दू की जो श्रीन्गी है वह लखनऊ में ही पायी जाती है दूसरी जगहों पर नहीं.हालांकि उस समय हमें लखनऊ छोड़े हुए १९ वर्ष व्यतीत हो चुके थे और मैं उर्दू पढ़ा भी नहीं था.घर में बोली जाने वाली बोली से ही डा. साहब ने पहचाना था जो खुद श्रीनगर के सुन्नी थे."
http://vidrohiswar.blogspot.in/2011/07/blog-post_8469.html

इसी प्रकार बचपन में बाबूजी अपनी पढ़ी हुई और बेहद पसंदीदा   एक अँग्रेजी कविता जो उनको कंठस्थ थी हमें अक्सर सुनाया करते थे।  उसकी कुछ पंक्तियाँ जो  इस प्रकार थीं कि ,--- हाफ ए लीग हाफ ए लीग हाफ ए लीग आनवर्ड ....केनन टू लेफ्ट आफ देम, केनन टू राईट आफ देम मुझे भी याद थीं जिनके आधार पर 'गूगल' से खोज कर उसे प्रस्तुत कर रहा हूँ :

The Charge of the Light Brigade

Alfred, Lord Tennyson

1.
Half a league, half a league,
Half a league onward,
All in the valley of Death
Rode the six hundred.
"Forward, the Light Brigade!
"Charge for the guns!" he said:
Into the valley of Death
Rode the six hundred.

2.
"Forward, the Light Brigade!"
Was there a man dismay'd?
Not tho' the soldier knew
Someone had blunder'd:
Theirs not to make reply,
Theirs not to reason why,
Theirs but to do and die:
Into the valley of Death
Rode the six hundred.

3.
Cannon to right of them,
Cannon to left of them,
Cannon in front of them
Volley'd and thunder'd;
Storm'd at with shot and shell,
Boldly they rode and well,
Into the jaws of Death,
Into the mouth of Hell
Rode the six hundred.

4.
Flash'd all their sabres bare,
Flash'd as they turn'd in air,
Sabring the gunners there,
Charging an army, while
All the world wonder'd:
Plunged in the battery-smoke
Right thro' the line they broke;
Cossack and Russian
Reel'd from the sabre stroke
Shatter'd and sunder'd.
Then they rode back, but not
Not the six hundred.

5.
Cannon to right of them,
Cannon to left of them,
Cannon behind them
Volley'd and thunder'd;
Storm'd at with shot and shell,
While horse and hero fell,
They that had fought so well
Came thro' the jaws of Death
Back from the mouth of Hell,
All that was left of them,
Left of six hundred.

6.
When can their glory fade?
O the wild charge they made!
All the world wondered.
Honor the charge they made,
Honor the Light Brigade,
Noble six hundred.
Copied from Poems of Alfred Tennyson,
J. E. Tilton and Company, Boston, 1870


 बाबूजी इस कविता के माध्यम से सिखाते रहे कि जिस तरह  से  छोटी सी फौज के जरिये दृढ़ निश्चय और लगन से एक बड़ी लड़ाई जीती जा सकती है उसी तरह जिन्दगीमें आने वाली तकलीफ़ों को हिम्मत और धैर्य रख कर मुक़ाबला करने से हल किया जा सकता है। जिस प्रकार बाबूजी का सम्पूर्ण जीवन संघर्षमय रहा उसी प्रकार मुझे भी संघर्षों से ही जूझना पड़ा है । चाहे बड़े बेटे की बारह घंटों के भीतर मौत रही हो या  साढ़े तेरह वर्षोंमें ही पत्नी की मौत और फिर उसके एक ही वर्ष के भीतर बाबूजी व उनके बारह दिनों बाद ही बउआ की मौत एवं हर बार रिश्तेदारों द्वारा दबाने व कुचलने की साजिशें। चाहे ईमानदारी के दंड स्वरूप  एमर्जेंसी में 1975 में प्रथम जाब से बरखास्त्गी हो या 1985 में द्वितीय जाब से या फिर 2000 में अकाउंट्स के प्रोफेशन को छोड़ कर 'ज्योतिष' को अपनाना लेकिन ईमानदारी का परित्याग न करना। राजनीति हो या घरेलू जीवन अथवा सामाजिक सभी क्षेत्रों में 'सत्य ' व 'ईमानदारी ' पर चलने के कारण मैं मुसीबतों को मोल लेता रहता हूँ और सबका बुरा बनता रहता हूँ परंतु किसी का भी बुरा नहीं सोचता, बुरा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए जिनका मैं भला कर चुका होता हूँ वे मेरा बुरा करने में शत्रु से भी आगे रहते हैं। 1995 में जब बाबूजी ने पूनम के बाबूजी से पत्राचार चलाया ही था कि बीच में ही उनका निधन फिर तुरंत ही बउआ  का भी निधन हो गया तो उनके ही पुत्र -पुत्री नहीं चाहते थे कि मैं फिर पूनम से विवाह करूँ। परंतु मैंने माता -पिता के चयन को ही स्वीकार किया जिस कारण निकटतम रिशतेदारों के विरोध का सामना करना पड़ा। 

 पूर्व प्रकाशित लेख के इस अंश से भी ज्ञात हो जाएगा कि संकटों से मेरा साथ अपनी छाया की तरह ही रहा है :
 

**" हेमंत कुमार जी छात्र जीवन में सयुस(समाजवादी युवजन सभा)  में रहे थे और बांग्लादेश आन्दोलन में दिल्ली के छात्र प्रतिनिधि की हैसियत  से भाग ले चुके थे.लेकिन होटल मुग़ल के पर्सोनल मेनेजर के रूप में कर्मचारियों के हितों के विपरीत कार्य करके हायर मेनेजमेंट  को खुश करना चाहते थे.कारगिल,लद्दाख में आई.टी.सी.ने एक लीज प्रापर्टी 'होटल हाई लैंड्स'ली थी.यह होटल, होटल मुग़ल के जी.एम्.के ही अन्डर था.पेंटल साहब सीराक होटल,बम्बई ट्रांसफर होकर जा चुके थे और सरदार नृप जीत  सिंह चावला साहब नये जी.एम्.थे, वह भी एंटी एम्प्लोयी छवि के थे.यूं.ऍफ़.सी.शेखर साहब की जगह पी.सुरेश रामादास साहब आ गए थे जो पूर्व मंत्री एवं राज्यपाल सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के दामाद थे और अटल बिहारी बाजपाई के प्रबल प्रशंसक थे.१९८० के मध्यावधी चुनावों में इंदिरा गांधी पहली बार आर.एस.एस.के समर्थन से पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापिस आ चुकीं थीं.२५ मार्च १९८१ को मेरी शादी करने की बाबत फाइनल फैसला हो चुका था.इतनी तमाम विपरीत परिस्थितियों में मुझे अस्थायी तौर पर (मई से आक्टूबर)होटल हाई लैंड्स ,कारगिल ट्रांसफर कर दिया गया.इन्कार करके नौकरी छोड़ने का यह उचित वक्त नहीं था.

२४ मई १९८१ को होटल मुग़ल से पांच लोगों ने प्रस्थान किया.छठवें अतुल माथुर,मेरठ से सीधे कारगिल ही पहुंचा था.आगरा कैंट स्टेशन से ट्रेन पकड़ कर दिल्ली पहुंचे और उसी ट्रेन से रिजर्वेशन लेकर जम्मू पहुंचे.जम्मू से बस   द्वारा श्री नगर गए जहाँ एक होटल में हम लोगों को ठहराया गया.हाई लैंड्स के मेनेजर सरदार अरविंदर सिंह चावला साहब -टोनी चावला के नाम से पापुलर थे,उनका सम्बन्ध होटल मौर्या, दिल्ली से था.वह एक अलग होटल में ठहरे थे, उन्होंने पहले १५ हजार रु.में एक सेकिंड हैण्ड जीप खरीदी जिससे ही वह कारगिल पहुंचे थे.४-५ रोज श्री नगर से सारा जरूरी सामान खरीद कर दो ट्रकों में लाद कर और उन्हीं ट्रकों से हम पाँचों लोगों को रवाना कर दिया.श्री नगर और कारगिल के बीच 'द्रास' क्षेत्र में 'जोजीला' दर्रा पड़ता है.यहाँ बर्फबारी की वजह से रास्ता जाम हो गया और हम लोगों के ट्रक भी तमाम लोगों के साथ १२ घंटे रात भर फंसे रह गए.नार्मल स्थिति में शाम तक हम लोगों को कारगिल पहुँच चुकना था.( ठीक इसी स्थान पर बाद में किसी वर्ष सेना के जवान और ट्रक भी फंसे थे जिनका बहुत जिक्र अखबारों में हुआ था).

इंडो तिब्बत बार्डर पुलिस के जवानों ने अगले दिन सुबह बर्फ कट-काट कर रास्ता बनाया और तब हम लोग चल सके.सभी लोग एकदम भूखे-प्यासे ही रहे वहां मिलता क्या?और कैसे?बर्फ पिघल कर बह रही थी ,चूसने पर उसका स्वाद खारा था अतः उसका प्रयोग नहीं किया जा सका .तभी इस रहस्य का पता चला कि,इंदिरा जी के समक्ष एक कनाडाई फर्म ने बहुत कम कीमत पर सुरंग(टनेल)बनाने और जर्मन फर्म ने बिलकुल मुफ्त में बनाने का प्रस्ताव दिया था.दोनों फर्मों की शर्त थी कि ,'मलवा' वे अपने देश ले जायेंगें.इंदिराजी मलवा देने को तैयार नहीं थीं अतः प्रस्ताव ठुकरा दिए.यदि यह सुरंग बन जाती तो श्री नगर से लद्दाख तक एक ही दिन में बस  द्वारा पहुंचा जा सकता था जबकि अभी रात्रि हाल्ट कारगिल में करना पड़ता है.सेना रात में सफ़र की इजाजत नहीं देती है.

मलवा न देने का कारण :

तमाम राजनीतिक विरोध के बावजूद इंदिरा जी की इस बात के लिए तो प्रशंसा करनी ही पड़ेगी कि उन्होंने अपार राष्ट्र-भक्ति के कारण कनाडाई,जर्मन या किसी भी विदेशी कं. को वह मलवा देने से इनकार कर दिया क्योंकि उसमें 'प्लेटिनम'की प्रचुरता है.सभी जानते हैं कि प्लेटिनम स्वर्ण से भी मंहगी धातु है और इसका प्रयोग यूरेनियम निर्माण में भी होता है.कश्मीर के केसर से ज्यादा मूल्यवान है यह प्लेटिनम.सम्पूर्ण द्रास क्षेत्र प्लेटिनम का अपार भण्डार है.अगर संविधान में सरदार पटेल और रफ़ी अहमद किदवई ने धारा '३७०' न रखवाई होती तो कब का यह प्लेटिनम विदेशियों के हाथ पड़ चुका होता क्योंकि लालच आदि के वशीभूत होकर लोग भूमि बेच डालते और हमारे देश को अपार क्षति पहुंचाते. धारा ३७० को हटाने का आन्दोलन चलाने वाले भी छः वर्ष सत्ता में रह लिए परन्तु इतना बड़ा देश-द्रोह करने का साहस नहीं कर सके,क्योंकि उनके समर्थक दल सरकार गिरा देते,फिर नेशनल कान्फरेन्स भी उनके साथ थी जिसके नेता शेख अब्दुल्ला साहब ने ही तो महाराजा हरी सिंह के खड़यंत्र  का भंडाफोड़ करके काश्मीर को भारत में मिलाने पर मजबूर किया था .तो समझिये जनाब कि धारा ३७० है 'भारतीय एकता व अक्षुणता' को बनाये रखने की गारंटी और इसे हटाने की मांग है-साम्राज्यवादियों की गहरी साजिश.और यही वजह है काश्मीर समस्या की .साम्राज्यवादी शक्तियां नहीं चाहतीं कि भारत अपने इस खनिज भण्डार का खुद प्रयोग कर सके इसी लिए पाकिस्तान के माध्यम से विवाद खड़ा कराया गया है.इसी लिए इसी क्षेत्र में चीन की भी दिलचस्पी है.इसी लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा हेतु गठित आर.एस.एस.उनके स्वर को मुखरित करने हेतु 'धारा ३७०' हटाने का राग अलापता रहता है.इस राग को साम्प्रदायिक रंगत में पेश किया जाता है. साम्प्रदायिकता साम्राज्यवाद की ही सहोदरी है. यह हमारे देश की जनता का परम -पुनीत कर्तव्य है कि भविष्य में कभी भी आर.एस.एस. प्रभावित सरकार न बन सके इसका पूर्ण ख्याल रखें अन्यथा देश से काश्मीर टूट कर अलग हो जाएगा जो भारत का मस्तक है ."

http://vidrohiswar.blogspot.in/2011/07/blog-post.html

परंतु दुर्भाग्य से  उपरोक्त लेख लिखने के तीन वर्षों के भीतर ही केंद्र में RSS समर्थित पूर्ण बहुमत की सरकार गठित हो चुकी है जो वर्तमान संविधान को संशोधनों के जरिये ध्वस्त करने की नीति पर पग बढ़ा चुकी है। शोषक वर्ग सांप्रदायिक आधार पर जनता को विभाजित करने में सफल होता जा रहा है क्योंकि शोषित वर्ग शोषकों के ही एक गुट को अपना हितैषी माने बैठा है ।  तर्क,बुद्धि,विवेक के आभाव में शोषितों के पुरोधाओं में भी यहाँ तक कि  सशस्त्र  साम्यवादी क्रान्ति के समर्थक तक अधिकांश शोषकों के चक्रव्यूह में फंसे हुये हैं और जीर्ण-शीर्ण - संकीर्ण विचारों के आधार पर हवाई किले बनाने में मस्त हैं। जबकि आज नितांत आवश्यकता है परिष्कृत विचारों के साथ जनता को समझा कर ढोंग-पाखंड-आडंबर के जाल से मुक्त करा कर वास्तविक 'धर्म-पालन' की। यदि ऐसा न हो सका तो दिल्ली की सड़कों पर रक्त-रंजित संघर्ष अब बहुत ज़्यादा दूर नहीं।

प्रातः काल मैं जल्दी उठ जाता था और आस-पास टहलने निकल जाता था.एक बार टी.बी.अस्पताल की तरफ चला गया तो बाहरी आदमी देख कर सी.एम्.ओ.साहब ने बुलाया और अपना परिचय देकर मुझ से परिचय माँगा.मेरे यह बताने पर कि,होटल मुग़ल,आगरा में अकौन्ट्स सुपरवाईजर हूँ और यहाँ टेम्पोरेरी ट्रांसफर पर होटल हाई लंड्स में आया हुआ हूँ. उन्होंने यदा-कदा आते रह कर मिलने को कहा.विशिष्ट प्रश्न जो उन्होंने पूंछा वह यह था कि क्या आप लखनऊ के हैं?मैंने प्रति-प्रश्न किया आपने कैसे पहचाना ?वैसे मेरा जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा लखनऊ की ही है.डा.साहब का जवाब था आपकी जबान में उर्दू की जो श्रीन्गी है वह लखनऊ में ही पायी जाती है दूसरी जगहों पर नहीं.हालांकि उस समय हमें लखनऊ छोड़े हुए १९ वर्ष व्यतीत हो चुके थे और मैं उर्दू पढ़ा भी नहीं था.घर में बोली जाने वाली बोली से ही डा. साहब ने पहचाना था जो खुद श्रीनगर के सुन्नी थे. - See more at: http://vidrohiswar.blogspot.in/2011/07/blog-post_8469.html#sthash.vPQKPjz3.dpuf

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रविवार, 1 फ़रवरी 2015

खेल कारपोरेट ट्रेड यूनियनिज़्म का :'नमक हराम' से 'चक्रव्यूह' तक ---विजय राजबली माथुर



अब जब जाति और संप्रदाय पर आधारित ट्रेड यूनियन्स मैदान में हैं तथा सबसे बढ़ कर कारपोरेट ट्रेड यूनियन्स का बाज़ार गर्म है तब फासिस्ट सरकार के जमाने में इन सरकारी कर्मचारियों को कौन राहत दिलाएगा?
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=826727240722587&set=a.154096721318979.33270.100001559562380&type=1&theater


हालांकि फिल्म निर्माता तो मनोरंजन और मुनाफे को ध्यान में रख कर आजकल फिल्में बनाते हैं। किन्तु आज़ादी से पहले और बाद में भी कुछ फिल्मों द्वारा समाज और राजनीति को नई दिशाएँ बताने का कार्य किया गया है। हाल की चक्रव्यूह और 40 वर्ष पुरानी नमक हराम फिल्में मालिक द्वारा मजदूर और किसानों के शोषण पर प्रकाश डालती तथा अपना समाधान प्रस्तुत करती हैं।

'नमक हराम' में बताया गया है कि विक्की और  सोनू दो अलग-अलग समाज वर्गों से आने के बावजूद एक अच्छे मित्र है।षड्यंत्र पूर्वक मजदूर नेता की हत्या कराये जाने से क्षुब्ध अमीर अपने धनाढ्य पिता से बदला लेने हेतु खुद हत्या का इल्ज़ाम लेकर जेल चला जाता है लेकिन पिता के गलत कार्यों में सहयोग नहीं करता है। 

'चक्रव्यूह' द्वारा कारपोरेट कंपनियों की लूट को सामने लाया गया है। इसी लूट के कारण आदिवासी किसानों के मध्य नक्सलवादी आंदोलन की लोकप्रियता पर भी प्रकाश डाला गया है और इस आंदोलन की आड़ में स्वार्थी तत्वों द्वारा आंदोलन से विश्वासघात का भी चित्रांकन किया गया है। 

'मजदूर' द्वारा भी मालिक-मजदूर के सम्बन्धों पर व्यापक प्रकाश डालते हुये पूंजीपति वर्ग की शोषण प्रवृति को उजागर किया गया है।  मजदूरों की संगठित एकता के बल पर समानान्तर रोजगार की उपलब्धि बताना भी इस फिल्म का लक्ष्य रहा है। IPTA और भाकपा में लोकप्रिय गीत की प्रस्तुति इस फिल्म में चार चाँद लगा देती है। :


लेकिन लाल इमली मिल के सरकारी मजदूरों  के समान अधिकांश मजदूरों को अब तक न्याय न मिलना सरकारी 'श्रम' विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार और पूंजीपति वर्ग की लूट के प्रति सहानुभूति ही जिम्मेदार है। क्या कारपोरेट और क्या सरकारी अंडरटेकिंग्स का प्रबंध तंत्र सभी गुंडों व दौलत का सहारा लेकर मजदूर वर्ग पर घोर अत्याचार ढाते जाते हैं कभी कभार ही अदालतों से किसी मजदूर को अपवाद स्वरूप न्याय मिल जाता है तो वह नगण्य ही है। निजी क्षेत्र में तो मेनेजमेंट सरलता से अपनी हितैषी यूनियनें बनवा कर मजदूर आंदोलन को विभक्त कर ही देता है। सरकारी क्षेत्रों के कर्मचारी नेता भी निजी लाभ के लिए अपने वर्ग से विश्वासघात करते हुये प्रबंध तंत्र को ही लाभ पहुंचाते रहते हैं। RSS प्रायोजित बी एम एस निजी क्षेत्रों में मजदूर विरोधी कृत्यों में संलग्न रहता है किन्तु सरकारी क्षेत्रों में जम कर प्रबंध तंत्र के विरुद्ध संघर्ष करता है जिससे वामपंथी यूनियनें भ्रमित होकर उसको अपने साथ जोड़े हुये हैं। जबकि बी एम एस का योगदान विनिवेश द्वारा निजीकरण को प्रोत्साहित करने का ही है। वामपंथी यूनियनों के नेताओं के विश्वासघात से सम्पूर्ण वामपंथी आंदोलन प्रभावित हुआ है और आज पूर्ण बहुमत की फासिस्ट सरकार सत्ता में आकर वर्तमान संविधान को नष्ट करने की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है। उग्र-सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक वामपंथियों के सिर पर दुधारी तलवार लटक रही है और संसदीय साम्यवाद के समर्थक दल RSS द्वारा फैलाये विभ्रम का शिकार होकर खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं। 
इसी प्रकार RSS प्रायोजित हज़ारे का समर्थन किया गया था जैसा कि अब केजरीवाल का किया जा रहा है जबकि यही शख्स बनारस में मोदी की आसान जीत के लिए जिम्मेदार है। जब सम्पूर्ण वामपंथ को केजरीवाल द्वारा ध्वस्त कर दिया जाएगा तब उनको मोदी के विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाएगा किन्तु फ़ासिज़्म तब तक चट्टानी व फौलादी बन चुका होगा और इसका खामियाजा संसदीय व क्रांतिकारी सभी वामपंथियों को भुगतना होगा। 

यदि अभी भी थोड़ा समय रहते ही साम्यवाद/वामपंथ को देश आधारित प्राकृतिक नियमों से सम्बद्ध कर लिया जाये तो हम जनता को समझा सकते हैं कि परमात्मा व प्रकृति की ओर से सभी जीवधारियों को समान अवसर प्राप्त हैं किन्तु पोंगापंथी ढ़ोंगी मजहब/संप्रदाय/रिलीजन शोषण का पोषण करते हैं अतः उनका परित्याग करके वास्तविक धर्म को अंगीकार किया जाये जिसे साम्यवादी/वामपंथी ही स्थापित कर सकते हैं । यदि हम ऐसा कर सके तो निश्चय ही सफलता हमारे चरण चूम लेगी। 
(संदर्भ:-
http://communistvijai.blogspot.in/2015/01/blog-post_30.html


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