गुरुवार, 24 जुलाई 2014

पाखंड का 'पर्दाफाश' करती :चित्रलेखा ---विजय राजबली माथुर




हिन्दी के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार भगवती चरण वर्मा जी ने चौथी शताब्दी के चन्द्रगुप्त मौर्य काल की ऐतिहासिक घटना के आधार पर 1934 में 'चित्रलेखा' उपन्यास की रचना की थी जिसके आधार पर 1964 में केदार शर्मा जी ने 'चित्रलेखा' फिल्म का निर्माण किया था।

  हालांकि आज  भी धर्म के स्वम्भू ठेकेदार 'धर्म'का दुरूपयोग कर सम्पूर्ण सृष्टि को नुक्सान पहुंचा रहे हैं। परिणाम सामने है कि कहीं ग्लोबल वार्मिंग ,कहीं बाढ़,कहीं सूखा,कहीं दुर्घटना कहीं आतंकवाद से मानवता कराह रही है। धर्म के ये ठेकेदार जनता को त्याग,पुण्य-दान के भ्रमजाल में फंसा कर खुद मौज कर रहे हैं। गरीब किसान,मजदूर कहीं अपने हक -हुकूक की मांग न कर बैठें इसलिए 'भाग्य और भगवान्'के झूठे जाल में फंसा कर उनका शोषण कर रहे हैं तथा साम्राज्यवादी साजिश के तहत पूंजीपतियों के ये हितैषी उन गलत बातों का महिमा मंडन कर रहे हैं। पंचशील के नाम पर शान्ति के पुरोधा ने जब देशवासियों को गुमराह कर रखा था तो 1962  ई.में देश को चीन के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा था। हमारा काफी भू-भाग आज भी चीन के कब्जे में ही है। तब 1964  में इसी ' चित्रलेखा ' फिल्म में साहिर लुधयानवी के गीत पर मीना कुमारी के माध्यम से  लता मंगेशकर ने यह गा कर धर्म के पाखण्ड पर प्रहार किया था-


संसार से भागे फिरते हो,भगवान् को तुम क्या पाओगे.
इस लोक को भी अपना न सके ,उस लोक में भी पछताओगे..
ये पाप हैं क्या,ये पुण्य हैं क्या,रीतों पर धर्म की मोहरें हैं.
हर युग में बदलते धर्मों को ,कैसे आदर्श बनाओगे..
ये भोग भी एक तपस्या है,तुम त्याग के मारे क्या जानो.
अपमान रचेता का होगा ,रचना को अगर ठुकराओगे..
हम कहते हैं ये जग अपना है,तुम कहते हो झूठा सपना है.
हम जनम बिताकर जायेंगे,तुम जनम गवां कर जाओगे..

हमारे यहाँ 'जगत मिथ्या 'का मिथ्या पाठ खूब पढ़ाया गया है और उसी का परिणाम था झूठी शान्ति के नाम पर चीन से करारी-शर्मनाक हार। आज भी बडबोले तथाकथित  धार्मिक ज्ञाता जनता को गुमराह करने हेतु' यथार्थ कथन' को 'मूर्खतापूर्ण कथन' कहते नहीं अघाते हैं।दुर्भाग्य से 'एथीस्टवादी ' 'नास्तिकता ' का जामा ओढ़ कर वास्तविक  धर्म (सत्य,अहिंसा :मनसा-वाचा-कर्मणा,अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य) को ठुकरा देते हैं लेकिन ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा प्रदान करते हैं और इस प्रकार वे दोनों एक-दूसरे के पूरक व सहयोगी के रूप में जनता को दिग्भ्रमित करके उसका शोषण मजबूत करते हैं।

केदार शर्मा जी ने तो 'चित्रलेखा' के माध्यम से जनता को 'ढोंग व पाखंड' से दूर रहने व यथार्थ में जीने का संदेश चीन से करारी हार के बाद ही दे दिया था किन्तु 1965,1971 और 1999 के युद्धों में पाकिस्तान पर विजय के बावजूद  'ढोंग व पाखंड' कम होने की बजाए और अधिक बढ़ा ही है। स्वानधीनता संघर्ष के दौर में जब साम्राज्यवादी लूट व शोषण के बँटवारे को लेकर एक विश्व युद्ध हो चुका था और दूसरे विसव युद्ध की रूप-रेखा बनाई जा रही थी हमारा देश स्वामी दयानन्द द्वारा फहराई 'पाखंड खंडिनी पताका' को छोड़/तोड़  चुका था तथा 'ढोंग व पाखंड' में पुनः आकंठ डूब चुका था तब स्वतन्त्रता सेनानी व साहित्यकार भगवती चरण वर्मा जी ने चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में सामंत 'बीजगुप्त' और पटलीपुत्र राज्य की राज-नर्तकी 'चित्रलेखा' के ठोस व वास्तविक 'प्रेम' को आधार बना कर धर्म के नाम पर चल रहे अधर्म -पाखंड पर करारा प्रहार किया है जिसका सजीव चित्रण 'चित्रलेखा' फिल्म द्वारा हुआ है।

'चित्रलेखा' फिल्म द्वारा जनता के समक्ष पाखंडी तथाकथित धर्मोपदेशकों के धूर्त स्वभाव को लाया गया है कि किस प्रकार वे भोली जनता को ठगते हैं। कुमार गिरि और श्वेतांक के चरित्र ऐसे ही रहस्योद्घाटन करते हैं। जबकि  बीजगुप्त व चित्रलेखा के चरित्र त्याग की भावना का पालन करते हैं क्योंकि उनको जीवन एवं प्रेम की सच्ची अनुभूति है जबकि ढ़ोंगी पाखंडी सन्यासी सत्य व यथार्थ से कोसों दूर है तथा खुद को व जनता को भी दिग्भ्रमित करता रहता है। चित्रलेखा युवावस्था में 'विधवा' हो जाने तथा समाज से ठुकराये जाने व त्रस्त  किए जाने के कारण 'नृत्य कला' के माध्यम से अपना जीवन निर्वाह करती है। इस जानकारी के बावजूद बीजगुप्त राज-पाट को त्याग कर चित्रलेखा के सच्चे प्यार को प्राप्त करता है जबकि ढ़ोंगी सन्यासी छल से चित्रलेखा को प्राप्त करने हेतु तथाकथित 'त्याग-तपस्या' को त्याग देता है व छोभ तथा प्रायश्चित के वशीभूत होकर प्राणोत्सर्ग कर देता है। 

 आज समाज में व्याप्त बलात्कार,ठगी,लूट,शोषण -उत्पीड़न और अत्याचार की घटनाओं में बढ़ोतरी होने का कारण ढ़ोंगी-पाखंडी तथाकथित महात्मा,सन्यासी,बापू,स्वामी आदि ही हैं।  पाखंडियों ने कृष्ण का माँ तुल्य मामी 'राधा' को उनकी प्रेमिका बना कर जो रास-लीलाएँ प्रचलित कर रखी हैं वे भी अनैतिकता वृद्धि में सहायक हैं। रुक्मणी हरण व सुभद्रा हरण की कपोल कल्पित गाथाएँ आज समाज में अपहरण व बलात्कार का हेतु बनी हुई हैं।  विदेशी शासन में पोंगा-पंडितों द्वारा उनके हितार्थ लिखे 'कुरान' की तर्ज़ पर  'पुराण' कुरान की भांति पाक-साफ नहीं हैं बल्कि जनता को गुमराह करते हैं। कुमारगिरी सरीखे एक तथाकथित धर्मोपदेशक बलात्कार के मामले में जेल में तो हैं लेकिन उनको जेल से बाहर निकालने के लिए 'हत्या' व 'आतंक' का सहारा लिया जा रहा है। अतः आज भी 'चित्रलेखा' फिल्म की प्रासंगिकता बनी हुई है कि उससे प्रेरणा लेकर जनता इन ढोंगियों के चंगुल से मुक्त होकर अपने जीवन को सार्थक बना सकती है।

वास्तव में' धर्म 'वह है जो शरीर को धारण करने के लिए आवश्यक है। शरीर में 'वात,पित्त,कफ' एक नियमित मात्रा में रहते हैं तो शरीर को धारण करने के कारण' धातु' कहलाते हैं,जब उनमें किसी कारण विकार आ जाता है और वे दूषित होने लगते हैं तो' दोष' कहलाते हैं और दोष जब मलिन होकर शरीर को कष्ट पहुंचाने लगते हैं तब उन्हें 'मल' कहा जाता है और उनका त्याग किया जाता है।



वात -वायु और आकाश से मिलकर बनता है.
कफ -भूमि और जल से मिलकर बनता है
पित्त - अग्नि से बनता है। 

भगवान्-प्रकृति के ये पञ्च तत्व =भूमि,गगन,वायु,अनल और नीर मिलकर (इनके पहले अक्षरों का संयोग )'भगवान्' कहलाता है। जो GENERATE ,OPERATE ,DESTROY करने के कारण" GOD '' भी कहलाता है और चूंकि प्रकृति के ये पञ्च तत्व वैज्ञानिक आधार पर खुद ही बने हैं इन्हें किसी प्राणी ने बनाया नहीं है इसलिए ये 'खुदा ' भी हैं । हमें मानव जाति तथा सम्पूर्ण सृष्टि के हित में 'भगवान्'(GOD या खुदा )की रक्षा करनी चाहिए उनका दुरूपयोग नहीं करना चाहिए।

नैसर्गिक-प्राकृतिक 'प्रेम' का संदेश देती  और पाखंड का पर्दाफाश  करती 'चित्रलेखा' प्रेरक व अनुकरणीय सामाजिक फिल्म है जिससे सतत सीख ली जा सकती है।

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मंगलवार, 22 जुलाई 2014

बदलाव और विकास कैसा हुआ है लखनऊ में ?-----विजय राजबली माथुर

नौ वर्ष की आयु में 1961 में जब लखनऊ छोड़ा था तब शहर आज के इतना न तो बड़ा था और न ही तथाकथित विकसित। लेकिन तब सड़कें भी साफ-सुथरी थीं और गोमती का पानी भी काफी साफ था। बचपन में माता-पिता के साथ जाना-आना होता था किन्तु ठीक-ठीक याद है कि चाहे किसी भी पुल -मंकी ब्रिज जिसे अब हनुमान सेतु कहते हैं,काठ का पुल (तब निशात गंज पुल का यही नाम था),या फिर डालीगंज का पुल से गुजरने पर नीचे कल कल निनाद से बहता स्वच्छ पारदर्शी जल रिक्शा या साईकिल पर बैठने के बावजूद साफ-साफ नज़र आ जाता था।  हुसैन गंज से न्यू हैदराबाद,ठाकुरगंज-निवाजगंज,या सदर कहीं भी जाने पर सड़कें और गलियां साफ-सुथरी ही मिलती थीं। 

57 वर्ष की आयु में 2009 में जब 48 वर्ष बाद  वापिस लखनऊ लौटा तब शहर का आकार भी काफी बड़ा पाया और इमारतों का आकार भी तथा गलियों को छोड़ कर मुख्य सड़कों का आकार भी काफी बड़ा पाया। लेकिन नई-नई कालोनियों के अंदर भी सड़कों को उधड़ा हुआ पाया और मुख्य मार्गों की सड़कों को भी गड्ढायुक्त हिचकोलो वाली पाया तब से अब तक इस ओर कोई फर्क नहीं नज़र आया क्योंकि अब सड़कें बनते ही उधड़ना शुरू हो जाती हैं।चौड़ी सड़कों से गुजरना भी आसान काम नहीं है क्योंकि दोनों ओर कार पार्किंग या अवैध दुकाने अवरोध उपस्थित करती हैं।पहले ऐसा नहीं था और सड़कें आवागमन के लिए मुक्त थीं।  किसी भी पुल से गुज़र जाएँ अब तो गोमती नदी नहीं 'नाला' ही नज़र आती है। काला पानी उसमें तैरती काई,पोलीथीन आदि तो दीख जाते हैं लेकिन उस पानी में अपना चेहरा भी नज़र नहीं आ सकता है। 

अक्सर दूर  कहीं भी जाना-आना बस या टेम्पो से हो पाता है। इसलिए पहले जहां रहते थे और पढ़ते थे उस ओर नहीं जा पाते थे। इत्तिफ़ाक से कल साईकिल से लंबी दूरी तक जाने का मौका मिल गया तो हुसैन गंज की उस गली की ओर भी गया जहां खुले नाले के बगल वाले मकान में तब रहते थे। मुख्य विधानसभा मार्ग के समानान्तर चल रही यह गली अब ढके हुये नाले के बावजूद बेहद गंदी नज़र आई। तब अपने घर के बारामदे में खड़े होकर खुले  नाले की सीध में नज़र दौड़ा कर विधानसभा मार्ग पर चल रहे आवागमन को साफ देख लेते थे । ताज़ियों का जुलूस हो या छात्रों का प्रदर्शन जुलूस या कर्मचारियों अथवा राजनीनीतिक प्रदर्शनकारियों का जुलूस सब घर पर खड़े-खड़े दीख जाते थे। अब कल नज़र आया कि ढके नाले पर भी अतिक्रमण है और मुख्य मार्ग इस गली से नहीं देखा जा सकता। अब इस गली में प्रवेश स्टेशन से आने वाले मार्ग से ही संभव है बीच सड़क पर डिवाईडर उपस्थित है जिसमें शायद लोगों ने छोटा सा कट लगा कर पैदल पार करने का मार्ग बना लिया है परंतु तीव्र गति से चलने वाले वाहनों के कारण दुर्घटना कारक भी है। तब मैं और छोटा भाई भी स्कूल से आते-जाते आराम से सड़क पार कर लेते थे-अकेले भी। गली के दूसरे छोर तक पहुंचना कष्टकारक रहा जबकि तब दोनों भाई भाड़ पर जाकर चना भुनवा लाते थे और बरलिंगटन होटल स्थित पोस्ट आफिस से पोस्ट कार्ड भी आराम से ले आते थे। अब ओडियन सिनेमा से क़ैसर बाग जाने वाली महत्वपूर्ण सड़क पर कई जगह बेशुमार गंदगी के ढेर व बदबू का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार ठाकुरगंज व निवाज़ गंज की गलियों का भी बुरा हाल अब है जो तब नहीं था। 

कहा जाता है कि लखनऊ अब विकसित नगर है लेकिन मुझे तो तबका लखनऊ विकसित लगता है अब तो आपा-धापी ,खींच-तान,झगड़े-झंझट का नगर हो गया है। बदलाव और विकास तो बहुत हुआ है लेकिन असमानता की खाई बढ़ाने वाला।  असमान भौतिक प्रगति किन्तु समान रूप से नैतिक पतन खूब हुआ है हमारे नगर में। 
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शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

कितने संदेश हैं कटी पतंग में ?---विजय राजबली माथुर




18 जूलाई राजेश खन्ना जी की पुण्यतिथि पर  :

जो लोग मर कर भी अमर हो जाते हैं उनमें ही एक हैं राजेश खन्ना जी उनकी फिल्म 'कटी पतंग' का अवलोकन करने का अवसर 11 जूलाई को मिला था। शक्ति सामंत साहब द्वारा निर्मित व निर्देशित यह फिल्म सुप्रसिद्ध उपन्यासकार गुलशन नंदा जी के उपन्यास 'कटी पतंग' पर आधारित है। राजेश खन्ना जी 'कमल' और आशा पारेख जी 'माधवी' की भूमिकाओं में हैं और दोनों के जीवन-संघर्षों द्वारा अनेकों संदेश इस फिल्म के माध्यम से दिये गए हैं।

माधवी भी लड़कियों को गुमराह करके उनका उत्पीड़न करने वाले कैलाश के फेर में फंस चुकी थी और जब उसके विवाह के समय कैलाश ने उसके पूर्व में लिखे पत्रों को उसे उपहार में भेंट कर दिया तो वह घबड़ा गई । इसलिए वह मंडप छोड़ कर भाग गई और कमल को बारात वापिस लौटा ले जानी पड़ी। कमल ने माधवी की शक्ल नहीं देखी थी और अपने पिता श्री की माधवी के मामा से मित्रता के कारण रिश्ता स्वीकार कर लिया था । कैलाश द्वारा ठुकराये जाने पर माधवी  शहर छोडने के निश्चय के साथ रेलवे स्टेशन पहुंची जहां विश्रामालय में उसकी पुरानी सहपाठी/सहेली 'पूनम' अपने अबोध पुत्र के साथ प्रतीक्षा करते हुये मिल गई। माधवी की कहानी सुन कर और उसका गंतव्य निर्धारित न होने के कारण पूनम ने उससे अपने साथ अपनी सुसराल चलने को राज़ी कर लिया। पूनम के सुसराल वालों ने भी उसकी शक्ल नहीं देखी थी क्योंकि उनका विवाह उन लोगों की मर्ज़ी के विरुद्ध हुआ था। परंतु अपने पुत्र के निधन के बाद  पौत्र के मोह में उसके सुसर ने पत्र भेज कर उसे बुलाया था।

ट्रेन के दुर्घटना ग्रस्त होने और अपने न बचने की उम्मीद पर पूनम ने माधवी से अपने पुत्र को पाल लेने व उसकी सुसराल में 'पूनम' नाम से अपनी भूमिका निभाने का वचन ले लिया था। माधवी जब पूनम की भूमिका में टैक्सी से नैनीताल अपनी सुसराल के लिए चली तो मार्ग में ढाबे पर बच्चे के लिए दूध खरीदने हेतु ड्राईवर को रुपए देने के लिए पर्स खोला तो ड्राईवर की निगाह रुपयों पर गड़ गई अतः वह पर्स छीनने की नीयत से जंगल की ओर टैक्सी ले गया। पूनम/माधवी की चिल-पुकार सुन कर फारेस्ट आफ़ीसर कमल ने टैक्सी का पीछा करके ओवरटेक कर लिया। ड्राईवर पर्स छीन कर टैक्सी छोड़ कर भागा तो कमल ने उसका पीछा करना शुरू किया और तालाब में संघर्ष करके पर्स हासिल करके पूनम/माधवी को सौंप दिया तथा रात्रि में विश्राम हेतु अपने निवास पर ले गया।पूनम को ठहराकर कमल खुद रात्रि पार्टी में शामिल होने चला गया। नौकर से आग्रह करके माधवी अपनी सहेली  पूनम की सुसराल के लिए ट्रक में बैठ कर चली गई। शरीफ ट्रक ड्राईवर ने उसे सुरक्षित अपनी सहेली की सुसराल वाली हवेली पहुंचा दिया जहां माधवी को पूनम बन कर उसके बच्चे का लालन-पालन माँ के रूप में करना था।

माधवी के मामा और पूनम के सुसर दोनों ही कमल के पिता के मित्र थे।कमल पूनम के सुसर अर्थात अपने चाचा जी के पास अक्सर आता रहता था और अपने बचपन के मित्र की विधवा के रूप में पूनम से सहानुभूति रखने लगा जो वस्तुतः थी तो माधवी उसकी होने वाली पत्नि । माधवी तो पूनम के रूप में कमल की वस्तुस्थिति से परिचित हो चुकी थी किन्तु कमल उसे पूनम के रूप में मानता था। कैलाश ब्लेकमेलिंग के लिए माधवी को परेशान करने पीछा करते हुये नैनीताल भी पहुँच गया था। उसने पूनम की नौकरानी रमइय्या के जरिये जहर मिला दूध पूनम के सुसर को पिलवा कर उनका खात्मा कर दिया और माधवी को गिरफ्तार करा दिया।  किन्तु  कमल और पूनम का विवाह करने का निश्चय करके पूनम के सुसर ने कमल के पिता अपने मित्र को बुलवा लिया था और उनको बता दिया था कि यह पूनम नहीं उनकी होने वाली पुत्रवधू माधवी ही थी। पूनम के नादान पुत्र ने रसोई के पीछे से एक टूटी शीशी (जिसमे जहर की गोलियां लाकर कैलाश ने दूध के ग्लास में मिलाई थीं) उठा ली और खेल रहा था जिसे पूनम के सुसर के मित्र डॉ ने उस बच्चे से ले लिया और कमल की सख्ती से  रमइय्या ने सब कुछ सही-सही बता दिया।  उसके खुलासा करने पर कमल ने चतुराई से कैलाश और उसके षड्यंत्र में शामिल शबनम तथा   रमइय्या को गिरफ्तार करवाकर माधवी को मुक्त करा दिया था। परंतु माधवी थाने से जंगल की ओर चल कर आत्महत्या करने का मंसूबा पाले थी। कमल ने थाने से सूचना पाकर उसकी खोज की और पकड़ लिया तथा अपना इरादा भी स्पष्ट कर दिया कि माधवी के मर जाने पर वह भी मर जाएगा। अतः माधवी को अपना इरादा बदलना पड़ा।

*प्रारम्भिक संदेश तो यह मिलता है कि युवतियों को भावावेश में आकर पुरुषों के प्रेमजाल में नहीं फंसना चाहिए क्योंकि इसी कारण माधवी को शादी का मंडप छोड़ कर भागना पड़ा था।आजकल युवतियों को धोखा मिलने और उनसे दुर्व्यवहार होने की अनेकों घटनाएँ अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं। यह फिल्म युवतियों को सावधान रहने की ओर इंगित करती है।

*अपने साथ सम्पूर्ण रुपए-पैसे एक ही पर्स व एक ही जगह नहीं रखने चाहिए क्योंकि ज़्यादा धन के लालच में ही टैक्सी ड्राईवर पूनम को जंगल की ओर लेकर भागा था। यात्रा करते समय कुछ ज़रूरत भर रुपए ऊपर पर्स में रख कर बाकी धन गोपनीय रूप से अन्यत्र रखना चाहिए।

*'वात्सल्य प्रेम' कभी भी निष्प्रभावी नहीं हो सकता। निश्छल प्रेम को अबोध बच्चा भी महसूस कर लेता है। माधवी ने पूनम के पुत्र को जो मातृत्व प्रदान किया था वह निस्वार्थ व निश्छल था और इसी का यह परिणाम था कि  पूनम के अबोध-नादान  पुत्र ने खेल-खेल में जहर की शीशी उठा कर रहस्य से पर्दा उठवा दिया और माधवी निर्दोष सिद्ध हो सकी। अतः प्रकृति-परमात्मा का अनुपम उपहार बच्चों से सदैव प्रेम-व्यवहार रखना चाहिए।

*अधीरता या जल्दबाज़ी में कोई निष्कर्ष या निर्णय नहीं लेना चाहिए। बार-बार माधवी ने जल्दबाज़ी में फैसले किए और कदम उठाए जिस कारण कदम-कदम पर उसे परेशानियों का सामना करना पड़ा।

*कमल की भांति सदैव धैर्यवान व संयमित रहना चाहिए जो सफलता दिलाने वाले सूत्र हैं। 

*'लालच सदा ही बुरी बला 'होता है जिसके शिकार -कैलाश,शबनम और  रमइय्या को अंततः अपने गुनाहों की सजा भुगतानी ही पड़ी। अतः लालच के फेर में कभी भी नहीं पड़ना चाहिए।


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रविवार, 13 जुलाई 2014

आर्यसमाज से संपर्क और व्यक्तिगत अनुभव ---विजय राजबली माथुर

माँ जी व बाबूजी साहब,1999 में आगरा में हवन करते हुये

वैसे आर्यसमाज का  विधिवत सदस्यता फार्म तो 13 जूलाई 1997 को ही भरा था और उस समय पूनम पटना गई हुई थीं। परंतु जून 1994 में आर्यसमाज से प्रथम संपर्क तब हुआ था जब शालिनी के निधन के बाद हवन कराने पुरोहित जी आए थे। अजय ने बलकेश्वर कमलानगर आर्यसमाज में संपर्क किया था।  फिर जून 1995 में बाबूजी के निधन के बाद अजय ने पुनः वहाँ संपर्क किया था किन्तु इस बार इंटर कालेज के अध्यापक जो शास्त्री जी आए थे वह अजय को अपने घर का पता दे गए थे। अतः 12 दिन बाद माँ का निधन होने पर अजय सीधे ही शास्त्री जी के घर संपर्क करने गए थे। चूंकि मै और यशवन्त ही अब आगरा में रह गए थे अतः यह शास्त्री जी यदा-कदा यों ही हाल लेने आते रहते थे। 

बाबूजी ने बाबूजी साहब (पूनम के पिताजी ऊपर चित्र में हवन करते हुये) से पत्र-व्यवहार चला रखा था और माँ व बाबूजी ने पूनम को पसंद किया था अतः उनके बाद मुझे खुद  ही यह पत्र-व्यवहार चालू रखना पड़ा क्योंकि भाई-बहन दोनों छोटे हैं और उन दोनों में मतभेद भी थे। पूनम से विवाह के बाद उनके भाई साहब-भाभी जी के सामने भी वह शास्त्री जी आए थे और सबको शामिल करते हुये हवन करवा गए थे। पोंगापंथी-आडंबरयुक्त पाखंडी प्रक्रियाओं के विरुद्ध होने के कारण मैंने शास्त्री जी के अनुरोध पर बगैर सदस्यता लिए हुये ही आर्यसमाज में जाना शुरू कर दिया था। विधिवत सदस्यता लेने के बाद मैं सक्रिय रूप से भाग लेने लगा था और मुझे कार्यकारिणी में भी शामिल कर लिया गया था लेकिन बाद में मैं कार्यकारिणी से हट गया था।

उपरोक्त चित्र में हवन करा रहे पुरोहित जी भी शास्त्री जी के माध्यम से यदा-कदा वैसे ही मिलने आते रहते थे। सन 1999 में जब माँ जी व बाबूजी साहब आगरा आए थे तब उनकी उपस्थिती में हमने पुरोहित जी से हवन करवाया था। जूलाई 2000 में बाबूजी साहब के निधन के बाद जब भाई साहब पूनम को आगरा पहुंचाने आए थे तब उपरोक्त चित्र वाले पुरोहित जी उनके सामने आए थे और अपने साथ पेठा-मिठाई लाये थे (जबकि हमेशा तो यों ही आते थे) भाई साहब से बात करते हुये पुरोहित जी बोले हमको तो उनके न रहने की खुशी है। जो पुरोहित उनसे मिल चुके थे उनको हवन करा चुके थे उनके मुख से ऐसे शब्द सुन कर हैरानी भी हुई और धीरे-धीरे मैंने गतिविधियों में भाग लेना बंद कर दिया और सदस्यता से भी अलग हो गया। किन्तु शास्त्री जी फिर भी घर पर व्यक्तिगत रूप से मिलने आते रहे। उनसे ही पता चला था कि उपरोक्त पुरोहित जी जयपुर हाउस के पुरोहित जी को हटाये जाने पर उनके स्थान पर वहाँ चले गए थे और कमलानगर छोड़ दिया था। उसके बाद वहाँ से नोयडा चले गए और आगरा ही छोड़ दिया। स्वभाविक रूप से   पुरोहित जी अधिक वेतन वाले स्थान पर जाते रहे । धन-लोलुप और RSS से प्रभावित लोगों के कारण आज आर्यसमाज स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' के सिद्धांतों से हटा हुआ प्रतीत होता है। 17 वर्षों बाद आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूँ कि 'मस्तिष्क' के परिष्कृत होने तथा भ्रम निवारण में आर्यसमाज का अमिट योगदान है किन्तु अधिकांश लोग व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण 'कथनी व करनी' में अंतर कर रहे हैं।एक प्रधान जी जो रेलवे में कार्यरत थे और कमलेश बाबू के बालसखा-कुक्कू के छोटे भाई के साथी थे मेरे विरुद्ध षड्यंत्र में रहते थे जिसका खुलासा शास्त्री जी की मार्फत हो गया था।  मेरे लिए ऐसा करना संभव नहीं है इसलिए मैं संगठन से दूर हूँ फिर भी सिद्धांतों पर यथा-संभव चलने का प्रयास करता रहता हूँ।

13 जूलाई 2013 को हमारी पार्टी के एक प्रदेश पदाधिकारी( जो कुक्कू के ज़िले-सीतापुर के ही हैं ) ने ज़िला काउंसिल बैठक के दौरान हाथ और पैरों से मुझे ठोकरें मारी थीं भी आर्यसमाज के बिगड़े पुरोहितों की भांति ही 'कथनी-करनी' के अंतर वाले हैं। हालांकि राजनीतिक रूप से मैं पार्टी संगठन में सक्रिय हूँ परंतु उन सीतापुरिए से दूर रहता हूँ।

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बुधवार, 9 जुलाई 2014

'चोरनी' में नीतू सिंह जी द्वारा क्या संदेश दिया गया है?---विजय राजबली माथुर


 अपने जन्मदिवस से चार दिन पूर्व 'नीतू सिंह ' जी की यह मुलाक़ात राज्यसभा सदस्या रेखा जी से हुई थी। 





 कल 08 जूलाई को नीतू सिंह जी के जन्मदिवस पर उनकी मुख्य भूमिका 'चोरनी' के रूप में किए जाने का अध्ययन इस फिल्म का अवलोकन करके किया । श्रीमती पद्मा सूद की परिकल्पना पर श्री किरण कुमार द्वारा लिखित कहानी के संवाद सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी जी के हैं और निर्देशन ज्योति स्वरूप जी का।नीतू सिंह जी ने 'दीपा' व जितेंद्र जी ने डॉ विक्रम सागर की भूमिकाओं का निर्वहन बखूबी किया है। 

इस फिल्म के माध्यम से बताया गया है कि किस प्रकार अमीर लोग अप संस्कृति का शिकार होकर समाज को विकृत करते रहते हैं। आज 1982 के बत्तीस वर्षों बाद तो समाज का और भी पतन हो चुका है अतः आज भी इस फिल्म की शिक्षा प्रासंगिक है। 

एक मजबूर और ज़रूरतमन्द गरीब नौकरानी दीपा को अपना शिकार बनाने में विफल रहने पर एक अमीरज़ादा 'चोरी' के झूठे इल्ज़ाम में अपने प्रभाव से गिरफ्तार करा देता है और जज साहब उसे छह माह की सजा सुना देते हैं। इसका अंजाम यह होता है कि सजा खत्म होने के बाद दीपा वास्तव में चोरी करना शुरू कर देती है क्योंकि समाज उसे इसी रूप में जानता था तो उसे प्रताड्ना झेलनी ही थी। इलाके के गुंडे को वह अधिक लाभ मुहैया कराती है। परंतु इस बार पकड़े जाने पर जज साहब से कह देती है बेकार सुनवाई क्यों करेंगे वह जुर्म कुबूल करती है। जज साहब उसे सुधार गृह में एक वर्ष के लिए भिजवा देते हैं। उसी सुधार गृह के वार्षिकोत्सव में वही जज साहब कहते हैं कि यदि परिवार इनमें से एक-एक बच्चे का दायित्व ले लें तो इन बच्चों का भविष्य संवर सकता है। सुधार गृह के संचालक संदेह व्यक्त करते हैं कि इन बच्चों को कोई भी परिवार आगे आकर सम्हालने व सुधारने की ज़िम्मेदारी नहीं लेगा क्योंकि ये सब बदनाम हो चुके हैं। यह जज साहब आगे आकर 'दीपा' को गोद ले लेते हैं और अपनी बेटी के रूप में अपने घर ले जाते हैं जिसका प्रतिवाद उनके घर के सदस्यों द्वारा किया जाता है परंतु उनके अडिग रहने पर सब चुप हो जाते हैं। 

इन घटनाओं के माध्यम से न केवल समाज की विकृत सोच को उजागर किया गया है बल्कि 'न्याय-व्यवस्था' के अमीरों की चेरी होने के तथ्य की ओर भी इंगित किया गया है। यदि पहले जज साहब सही न्यायिक प्रक्रिया का पालन करते तो न तो दीपा को सजा होती और न ही वह वास्तव में चोरी को अपनाती।चोरी को मजबूरी में अपनाने के बावजूद दीपा जिन बच्चों की मदद करती है उनको सदशिक्षा ही देती है।  परंतु दूसरे जज साहब की भूमिका समाज-सुधारक के रूप में भी सामने आई है। कानूनी प्रक्रिया से वह बंधे हुये थे तो व्यक्तिगत समझ के आधार पर उन्होने एक निर्दोष को सुधारने व विकास करने का अवसर प्रदान किया । लेकिन अपनी व्यस्तताओं के चलते वह अपने परिवार के सभी सदस्यों की सभी गतिविधियों से अनभिज्ञ भी हैं जिस कारण उनकी अपनी पुत्री गलत चाल में फंस जाती है तब यही दीपा जोखिम उठा कर  गुंडों से संघर्ष  करती है और उसे बचाती है तथा इस तथ्य को गोपनीय भी रखती है। जहां एक ओर अमीरों की उद्दंडता -उच्चश्रंखलता समाज को अफरा-तफरी की ओर धकेलती है वहीं अतीत में एक गरीब नौकरानी रही दीपा अमीरों के बीच रह कर भी अपनी सज्जनता व सचरित्रता पर कायम रहती है।  

जज साहब की बेटी के चरित्र पर लांछन न आने देने हेतु दीपा वह कृत्य भी करती है जिसे वह छोड़ चुकी थी और जज साहब का कोपभाजन होकर पुनः सुधार गृह में प्रवेश कर जाती है। डॉ विक्रम सागर जज साहब के बेटे का मित्र होने के नाते दीपा के संपर्क में आता है तो उसकी सहजता से प्रभावित हो जाता है और उससे विवाह भी करने का प्रस्ताव देता है। अपने मित्र जज साहब के बेटे की मदद से वह दीपा को पुनः जज साहब के परिवार में शामिल करा देता है। 

आज के समय में भी अमीरों-गरीबों के बीच स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। केवल मनोरंजन के दृष्टिकोण से नहीं समाज-सुधार व न्यायिक व्यवस्था में सुधार तथा मानवीय दृष्टिकोण से भी 'चोरनी'द्वारा दिया गया संदेश आज भी प्रेरणादायक है।





  











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