गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

यह नोटबंदी उथल पुथल और विनाश का पूर्व संकेत है ------ विजय राजबली माथुर

22-12-2016 






***                                  ***                                                ***

नोटबंदी लागू हुये 45 दिन बीत गए हैं(जिसकी घोषणा 08 नवंबर, 2016 दिन मंगलवार को धनिष्ठा नक्षत्र , पंचक के दौरान रात्रि 08 : 00 से 08 :30 के मध्य हुई थी इसी के मध्य 08 : 13 से स्थिर  'वृष लग्न ' समाप्त होकर द्वि स्वभाव  'मिथुन लग्न ' प्रारम्भ ) और जनता की समस्याएँ सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही हैं। इस पर सामाजिक चिंतकों व राजनेताओं ने अपने अपने  विश्लेषण प्रस्तुत किए हैं लेकिन हम यहाँ पर इसका ज्योतिषीय विश्लेषण इसलिए प्रस्तुत कर रहे हैं , क्योंकि मुंबई के एक ज्योतिषी का सहारा लेकर टी वी चेनल्स के माध्यम से इसे जन हितैषी कदम सिद्ध करने के भ्रामक  प्रयास सतत किए जा रहे हैं। हमारा यह विश्लेषण 'चंड मार्तंड पंचांग', निर्णय सागर में पूर्व प्रकाशित (पृष्ठ --- 46 से 50 तक ) तथ्यों पर आधारित है।

17 अक्तूबर से प्रारम्भ 14 नवंबर तक के ' कार्तिक ' मास में 5 रविवार थे और दीपावली भी रविवार को ही थी इसका परिणाम जो वर्णित है का अवलोकन करें :
दीपोत्सव रविवार का प्रतिभारक अधियोग। नहीं मन्दी की धारणा गृहिणी पक्ष  कुयोग । ।
धन - वृद्धि श्री मन्त की, निर्धन  विषय वियोग। साधन सुविधा नित्य की , निर्णय चक्र कुयोग। ।

चलन कलन  शनि भौम का, राशि भाव संबंध। अनहोनी होनी बने, गोचर फलित प्रबंध। ।
दल विरोध की जागृति, नायक सत्ता द्वंद। राज काज विपदा गति, निर्णय कथन द्वंद। । ***)

*** )  =  घोषणा के समय 'मंगल ' शनि की राशि 'मकर ' में था और 'शनि ' मंगल की राशि 'वृश्चिक ' में था अर्थात परस्पर विरोधी व शत्रु ग्रहों में परस्पर संबंध था । यही कारण है कि, इस घोषणा ने निर्धन वर्ग की कमर तोड़ दी तथा साधन सम्पन्न लोगों ने भरपूर लुत्फ उठा लिया जबकि अर्थ व्यवस्था बुरी तरह से ध्वस्त हो गई। इसका असर दीर्घकालीन होगा जिसके कारण शासकों की गद्दी हिले बगैर न रहेगी। जनाक्रोश को बदलते निर्णयों से थामा नहीं जा सकेगा।

15 दिसंबर दिन गुरुवार को 'सूर्य ' गुरु की धनु राशि में आ गया है और आगामी 'अमावस्या ' 29 दिसंबर दिन गुरुवार को पड़ रही है । इस स्थिति  ( खप्पर योग ) का भी अवलोकन करें :
"यस्मिन वारेअस्ति ....................जीव धान्यादि नाशक : "
अर्थात ---
रवि संकर्मण वार वो , मावस वो हो वार। ' खप्पर योग ' कहते इसे, शुभ लक्षण नहीं सार। । 
वित्त व्यवस्था विश्व की, असंतुलित परिवेश । मुद्रा कोष आर्थिक विषय, चिंतन देश विदेश। । 

वस्तु नित्य उपयोग की, उन्नत भाव विशेष। गृहिणी लेवे आपदा, ग्रह गोचर संदेश । । 
मंगसर एवं अग्रिम मास, पक्ष  शुक्ल में तिथि विनाश । नायक नेता - दल संताप, राजतंत्र बाधित अवकाश। । *****)

*****) =   आप एथीस्ट ( नास्तिक ) हैं अर्थात आपको अपने ऊपर विश्वास नहीं है , आप नहीं मानते तो न मानें क्या इससे ग्रह - नक्षत्रों की चाल को रोक या बदल सकेंगे?  या आप पौराणिक पोंगापंथी हैं और गलत अर्थ निकाल कर खुद गुमराह हैं और जनता व शासकों को गुमराह कर रहे हैं तो उनको तो गफलत में डाल कर उनका नुकसान तो कर सकते हैं लेकिन आप इस प्रक्रिया से ग्रह - नक्षत्रों की चाल को रोक या बदल नहीं सकते। ग्रह - नक्षत्रों के अरिष्ट का शमन करने की जो वैज्ञानिक प्रक्रिया है उसी को अपनाना होगा पौराणिक या पाखंडी प्रक्रिया को नहीं। कितना ही हास्यास्पद है कि, एक तरफ तो पौराणिक पाखंडी वैज्ञानिक प्रक्रिया का विरोध करते हैं और दूसरी तरफ खुद को वैज्ञानिक होने का दावा करने वाले एथीज़्म ( नास्तिकता ) की सनक में वास्तविक वैज्ञानिक प्रक्रिया को अवैज्ञानिक बता कर पौराणिक पाखंडी लोगों के लिए खुला मैदान उपलब्ध कराते हैं । इस द्वंद में पिसती साधारण जनता है उसी का शोषण व उत्पीड़न होता है। और यही हुआ है भारत में भी, वेनेजुएला और पाकिस्तान में भी। विश्व व्यापी आर्थिक उथल पुथल समृद्ध वर्ग की साज़िशों का ही दुष्परिणाम है और ग्रह - नक्षत्रों की चाल से यह पहले ही स्पष्ट था। 

  ध्यान कौन देता ? समृद्ध वर्ग के हितैषी शासक वर्ग द्वारा ध्यान देने का प्रश्न ही नहीं था। जन हितैषी होने का दावा करने वाले तो एथीस्ट ( नास्तिक ), वैज्ञानिक  जो ठहरे ? यही वजह है कि, उत्तर प्रदेश में सपा सरकार के पदारूढ़ होते ही जो संकेत स्पष्ट दिये थे उनकी अनदेखी की गई लेकिन ग्रह - नक्षत्रों की चाल को बदला न जा सका यथा ---
Friday, March 16, 2012

ग्रहों के आईने मे अखिलेश सरकार
"ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार के मध्य काल तक पार्टी मे अंदरूनी कलह-क्लेश और टकराव बढ़ जाएँगे। ये परिस्थितियाँ पार्टी को दो-फाड़ करने और सरकार गिराने तक भी जा सकती हैं। निश्चय ही विरोधी दल तो ऐसा ही चाहेंगे भी।*****"
http://krantiswar.blogspot.in/2012/03/blog-post_16.html

'खप्पर योग ' के साथ साथ आगामी 'माघ ' मास की 'पूर्णिमा' का क्षय हो रहा है 10 फरवरी 2017 को अतः तैयार रहिए शासक - शासित संघर्ष के लिए यह नोटबंदी उथल  पुथल और विनाश का पूर्व संकेत है। 
22-12-2016 

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22-12-2016 
24-12-2016 




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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

क्या आज 'गर्म हवा ' के संदेश की ज़रूरत है ? ------ विजय राजबली माथुर



परिस्थियोंवश 1985 से 2000 तक आगरा के  हींग की मंडी  स्थित शू चैंबर की दुकानों में लेखा कार्य (ACCOUNTING ) द्वारा आजीविका निर्वहन करना पड़ा है। प्रत्यक्ष  रूप से जूता कारीगरों की समस्या को देखा समझा भी है कि, किस प्रकार थोक आढ़तिये  असली निर्माताओं का शोषण करते हैं। इसलिए जबसे गरम हवा का ज़िक्र सुना था इसका अवलोकन करना चाह रहा था ।  प्रस्तुत चित्र में जूता फेकटरी के मालिक सलीम मिर्ज़ा ( बलराज साहनी साहब ) पाकिस्तान से आए सिन्धी कारोबारियों के व्यवसाय और अपने करीबियों के पाकिस्तान चले जाने के बाद की स्थितियों से निबटने के लिए खुद भी कारीगरी करते हुये दिखाई दे रहे हैं। देश विभाजन के बाद भारत से गए मुस्लिम पाकिस्तान में और वहाँ से आए सिन्धी- पंजाबी यहाँ व्यवसाय में समृद्ध हो गए जबकि यहीं देश से लगाव के चलते रह गए मुस्लिम सलीम मिर्ज़ा की ही तरह दाने दाने को मोहताज हो गए। एक बार पलायन का विचार लाकर भी सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी ) और उनका छोटा पुत्र सिकंदर (फारूख शेख ) कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा रोज़ी रोटी के संघर्ष में शामिल हो गए और देशवासियों की बेहतरी के पुण्य कार्य में लग गए। यही संदेश सथ्यु साहब द्वारा इस फिल्म के माध्यम से दिया गया है। 

जबसे केंद्र में भाजपा के पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है निरंतर रोजगार में गिरावट हुई है और सांप्रदायिक दुर्भावना का तीव्र विस्तार हुआ है। आज़ादी के समय की कम्युनिस्ट पार्टी आज कई कई पार्टियों  में बंट गई है और उनका आंदोलन जनता को आकर्षित करने में विफल है। नोटबंदी अभियान के बाद जनता त्रस्त है और भयभीत भी लेकिन 'एथीस्ट्वाद' : नास्तिकता रूपी दीवार खड़ी करने  के कारण कम्युनिस्ट नेतृत्व ने जनता  को अपनी ओर आने से रोक रखा है। आज जब जरूरत थी कि, पाखंडी सरकार का पर्दाफाश करके उसे जनता के समक्ष अधार्मिक सिद्ध कर दिया जाता और भारतीय वांगमय के आधार पर जनता को कम्यूनिज़्म की ओर ले आया जाता तो केंद्र में भी उसी प्रकार कम्युनिस्ट सरकार लोकतान्त्रिक तरीके से स्थापित हो जाती जिस प्रकार केरल में विश्व की प्रथम निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनी थी। काश गरम हवा कम्युनिस्ट नेतृत्व को 'एथीस्ट्वाद' : नास्तिकता रूपी दीवार ढहाने में मदद कर सके और देश की जनता फ़ासिज़्म की जकड़न में फँसने से बच जाये। 

संदर्भ : फिल्म गर्म हवा 





एम एस सथ्यू साहब से संवाद करते प्रदीप घोष साहब 





प्रथम पंक्ति में राकेश जी, विजय राजबली माथुर, के के वत्स 


लखनऊ में दिनांक 04 फरवरी, 2016 को कैफी आज़मी एकेडमी , निशांतगंज के हाल में सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मैसूर श्रीनिवास सथ्यू साहब के साथ 'सिनेमा और सामाजिक सरोकार' विषय पर एक संवाद परिचर्चा का आयोजन कैफी आज़मी एकेडमी और इप्टा के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था ।  
अपनी सुप्रसिद्ध फिल्म 'गर्म हवा' का ज़िक्र करते हुये सथ्यू साहब ने बताया  था कि ,यह इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित है किन्तु इसके अंतिम दृश्य में जिसको प्रारम्भ में पर्दे पर दिखाया गया था - राजेन्द्र सिंह बेदी की कहानी के कुछ अंशों को जोड़ लिया गया था। इस दृश्य में यह दिखाया गया था कि किस प्रकार मिर्ज़ा साहब (बलराज साहनी ) जब पाकिस्तान जाने के ख्याल से तांगे पर बैठ कर परिवार के साथ निकलते हैं तब मार्ग में रोज़ी-रोटी, बेरोजगारी, भुखमरी के प्रश्नों पर एक प्रदर्शन मिलता है जिसमें भाग लेने के लिए उनका बेटा (फारूख शेख जिनकी यह पहली फिल्म थी  ) तांगे से उतर जाता है बाद में अंततः मिर्ज़ा साहब तांगे पर अपनी बेगम को वापिस हवेली भेज देते हैं और खुद भी आंदोलन में शामिल हो जाते हैं। 

एक प्रश्न के उत्तर में सथ्यू साहब ने बताया था कि 1973 में 42 दिनों में 'गर्म हवा' बन कर तैयार हो गई थी। इसमें इप्टा आगरा के राजेन्द्र रघुवंशी और उनके पुत्र जितेंद्र रघुवंशी (जितेंद्र जी के साथ आगरा भाकपा में कार्य करने  व आदरणीय राजेन्द्र रघुवंशी जी को सुनने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त  हुआ है ) आदि तथा दिल्ली इप्टा के कलाकारों ने भाग लिया था। ताजमहल व फ़तहपुर सीकरी पर भी शूटिंग की गई थी। इप्टा कलाकारों का योगदान कला के प्रति समर्पित था। बलराज साहनी साहब का निधन हो जाने के कारण उनको कुछ भी न दिया जा सका बाद में उनकी पत्नी को मात्र रु 5000/- ही दिये तथा फारूख शेख को भी सिर्फ रु 750/- ही दिये जा सके थे। किन्तु कलाकारों ने लगन से कार्य किया था। सथ्यू  साहब ने एक अन्य प्रश्न के उत्तर में बताया कि, 'निशा नगर', 'धरती के लाल' व 'दो बीघा ज़मीन' फिल्में भी इप्टा कलाकारों के सहयोग से बनीं थीं उनका उद्देश्य सामाजिक-राजनीतिक चेतना को जाग्रत करना था। 

कुछ प्रश्नों के उत्तर में सथ्यू साहब ने रहस्योद्घाटन किया कि, यद्यपि 'गर्म हवा' 1973 में ही पूर्ण बन गई थी किन्तु 'सेंसर बोर्ड' ने पास नहीं किया था तब उनको प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी से संपर्क करना पड़ा था जिनके पुत्रों राजीव व संजय को वह पूर्व में 'क्राफ्ट' पढ़ा चुके थे। उन्होने बताया कि इंदिराजी अक्सर इन्स्टीच्यूट घूमने आ जाती थीं उनके साथ वी के कृष्णा मेनन भी आ जाते थे। वे लोग वहाँ चाय पीते थे, कभी-कभी वे कनाट प्लेस से खाना खा कर तीन मूर्ती भवन तक पैदल जाते थे तब तक सिक्योरिटी के ताम -झाम नहीं होते थे और राजनेता जन-संपर्क में रहते थे। काफी हाउस में उन्होने भी इंदर गुजराल व इंदिरा गांधी के साथ चर्चा में भाग लिया था। अतः सथ्यू साहब की सूचना पर इंदिराजी ने फिल्म देखने की इच्छा व्यक्त की जिसे तमाम झंझटों के बावजूद उन्होने दिल्ली ले जाकर दिखाया। इंदिराजी के अनुरोध पर सत्ता व विपक्ष के सांसदों को भी दिखाया और इस प्रकार सूचना-प्रसारण मंत्री गुजराल के कहने पर सेंसर सर्टिफिकेट तो मिल गया किन्तु बाल ठाकरे ने अड़ंगा खड़ा कर दिया अतः प्रीमियर स्थल 'रीगल थियेटर' के सामने स्थित 'पृथ्वी थियेटर' में शिव सेना वालों को भी मुफ्त फिल्म शो दिखाया जिससे वे सहमत हो सके। 1974 में यह फ्रांस के 'कान' में दिखाई गई और 'आस्कर' के लिए भी नामित हुई। इसी फिल्म के लिए 1975 में सथ्यू साहब को 'पद्मश्री' से भी सम्मानित किया गया और यह सम्मान स्वीकार करने के लिए गुजराल साहब ने फोन करके विशेष अनुरोध किया था अतः उनको इसे लेना पड़ा। 
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सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

बाबूजी के स्मरण के बहाने अपनी बात ------ विजय राजबली माथुर


जन्म:24-10-1919,दरियाबाद (बाराबंकी );मृत्यु:13-06-1995;आगरा  

हमारे बाबूजी ताज राजबली माथुर साहब ने अपनी पूरी ज़िंदगी 'ईमान ' व 'स्वाभिमान ' के साथ आभावों में गुज़ार दी लेकिन कभी उफ तक न की न ही कोई उलाहना कभी किसी को दिया। आज जब लोग अपने हक हुकूक के लिए किसी भी हद तक गिर जाते हैं हमारे बाबूजी ने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपने हक को भी ठुकरा दिया था। मैंने भी पूरी कोशिश करके 'ईमान ' व 'स्वाभिमान ' की भरसक रक्षा की है भले ही अपने ही भाई - बहन की निगाहों में मूर्ख सिद्ध हुआ हूँ। उत्तर प्रदेश के माथुर कायस्थ परिवारों में हमारे  बली  खानदान  से सभी परिचित हैं। 


एक परिचय :

हमारे रिश्ते में एक  भतीजे थे राय राजेश्वर बली जो आज़ादी से पहले यू पी गवर्नर के एजुकेशन सेक्रेटरी भी रहे और रेलवे बोर्ड के सदस्य भी। उन्होने ही 'भातखण्डे यूनिवर्सिटी आफ हिन्दुस्तानी म्यूज़िक' की स्थापना करवाई थी जो अब डीम्ड यूनिवर्सिटी के रूप में सरकार द्वारा संचालित है। उसके पीछे ही उनके ही एक उत्तराधिकारी की यादगार में 'राय उमानाथ बली' प्रेक्षागृह है , वह भी सरकार द्वारा संचालित है।


'बली ' वंश एक ऐतिहासिक महत्व :

जब राय राजेश्वर बली साहब उत्तर-प्रदेश के शिक्षामंत्री थे (आज़ादी से पूर्व सम्बोधन एजुकेशन सेक्रेटरी था ) तब उन्होने महिलाओं की दशा सुधारने के लिए स्त्री-शिक्षा को विशेष महत्व दिया था। संगीत विश्वविद्यालय की स्थापना करवाना भी इसी दिशा में उठाया गया कदम था। 

ऐसा नहीं है कि ये क्रांतिकारी कदम राजेश्वर बली साहब ने यों ही उठा लिए थे बल्कि इसकी प्रेरणा उनको वंशानुगत रूप से मिली थी। हमारा 'बली ' वंश एक ऐतिहासिक महत्व रखता है । जिस समय बादशाह अकबर की  तूती बोल  रही थी हमारे पूर्वजों ने उनके विरुद्ध मेवाड़ के महाराना प्रताप के पक्ष में बगावत कर दी थी और 'दरियाबाद' में स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। परंतु उस समय अकबर के विरुद्ध अधिक समय तक आज़ादी टिकाई नहीं जा सकती थी क्योंकि चारों ओर तो अकबर का मजबूत शासन स्थापित था। नतीजा यह हुआ कि शाही सेना ने पूरे के पूरे खानदान को मौत के घाट उतार दिया। परंतु स्थानीय लोग जो हमारे पूर्वजों के प्रति एहसानमंद थे ने किसी प्रकार इस परिवार की एक गर्भिणी महिला को छिपा लिया था। नर-संहार के बाद जब शाही सेना लौट गई तब उनको आगरा उनके भाई के पास भेजने की व्यवस्था की गई जो अकबर के दरबार के ही सदस्य थे। मार्ग में 'नीम' के दरख्त के एक खोटर में उन्होने जिस बालक को जन्म दिया उनका नाम 'नीमा राय ' रखा गया। हम लोग इन्हीं नीमा राय बली  साहब के वंशज हैं।

जब नीमा राय जी 10 -12 वर्ष के हो गए तब इनके मामाजी इनको भी अपने साथ दरबार में ले जाने लगे। यह बहुत ही मेधावी व होनहार थे। कभी-कभी बादशाह अकबर इनसे भी कुछ सवाल उठाते थे और इनके जवाब से बेहद संतुष्ट होते थे। लेकिन पूछने पर भी इनके मामाजी ने इनके पिता का नाम बादशाह को कभी नहीं बताया सिर्फ यही बताया कि उनके भांजा हैं। एक दिन इनके जवाब से अकबर इतना प्रसन्न हुये कि ज़िद्द पकड़ गए कि इस होनहार बालक के पिता का नाम ज़रूर जानेंगे । मजबूर होकर इनके मामाजी को बादशाह से कहना पड़ा कि पहले आप आश्वासन दें कि मेरे इस भांजे की आप जान नहीं लेंगे तब इसके पिता का नाम बताएँगे। अकबर ने ठोस आश्वासन दिया कि इस बालक की जान नहीं ली जाएगी। तब इनके मामाजी ने इनका पूरा परिचय दिया और बताया कि आपके पूरा खानदान नष्ट करने के आदेश के बावजूद मेरी बहन को स्थानीय लोगों ने बचा कर आगरा भिजवा दिया था और रास्ते में इस बालक का जन्म हुआ था। 

अकबर ने नीमाराय साहब के पूर्वजों का छीना हुआ राज-पाट वापिस करने का फरमान जारी कर दिया  और इनको अपनी सेना के संरक्षण में दरियाबाद भिजवाया। बालक नीमाराय  ने वह जगह जहां काफी खून खराबा  हुआ था और उनका खानदान तबाह हुआ था लेने से इंकार कर दिया । तब उसके बदले में दूसरी जगह चुन लेने का विकल्प इनको दिया गया। इनको दौड़ता हुआ एक खरगोश का बच्चा पसंद आया था और इनहोने कह दिया जहां यह खरगोश का बच्चा रुकेगा वही जगह उनको दे दी जाये । दिन भर शाही कारिंदे नीमाराय जी को लेकर खरगोश के बच्चे के पीछे दौड़ते रहे आखिकार शाम को जब थक कर वह खरगोश का बच्चा एक जगह सो गया उसी जगह को उन्होने अपने लिए चुन लिया। उस स्थान पर बादशाह अकबर के आदेश पर एक महल तहखाना समेत इनके लिए बनवाया गया था। पहले यह महल खंडहर रूप में 'दरियाबाद' रेलवे स्टेशन से ट्रेन में बैठे-बैठे भी दीख जाता था। किन्तु अब बीच में निर्माण होने से नहीं दीख पाता है। 

1964 तक जब हम मथुरा नगर, दरियाबाद गए थे इस महल के अवशेष उस समय की याद दिला देते थे। बाहरी बैठक तब तक मिट्टी की मोटी  दीवार से बनी थी और काफी ऊंचाई पर थी उसमें दुनाली बंदूकों को चलाने के स्थान बने हुये थे। लेकिन अब  बड़े ताऊ जी के बेटों ने उसे गिरवाकर आधुनिक निर्माण करा लिया है। अब भी खंडहर रूप में पुरानी पतली वाली मजबूत ईंटें वहाँ दीख जाती हैं। हमारे बाबाजी ने रायपुर में जो कोठी बनवाई थी वह भी 1964 तक उसी तरह थी परंतु अब उसे भी छोटे ताऊ जी के पुत्र व पौत्रों ने गिरवाकर आधुनिक रूप दे दिया है। हमारे बाबूजी तो सरकारी नौकरी में और दूर-दूर रहे, इसलिए  हम लोग विशेषतः मैं तो जमींदाराना  बू से दूर रहे हैं। यही वजह है कि, दोनों ताऊजियों के पुत्र हमसे दूरी बनाए रहे हैं। 

राजेश्वर बली साहब जब रेलवे बोर्ड के सदस्य थे तब उन्होने हर एक्स्प्रेस गाड़ी का ठहराव दरियाबाद रेलवे स्टेशन पर करवा दिया था । अब भी वह परंपरा कुछ-कुछ लागू है। हमारे बाबाजी के छोटे भाई साहब हैदराबाद निज़ाम के दीवान रहे थे और उनके वंशज उधर ही बस गए हैं। 
समय के विपरीत धारा पर  : 
जहां एक ओर इस परिवार के अधिकांश लोग समयानुसार चल रहे हैं सिर्फ मैं ही समय के विपरीत धारा पर चलते हुये भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध चल रहा हूँ। हमारे पिताजी के सहपाठी और रूम मेट रहे कामरेड भीखा लाल जी से मिलने का मुझे सौभाग्य मिला है। भाकपा एम एल सी रहे  बाराबंकी के कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह साहब से भी हमारा सान्निध्य रहा वह हमारे बाबाजी के चचेरे भाई राय धर्म राजबली साहब के परिचितों में थे। इन राय धर्म राजबली साहब के बड़े पुत्र डॉ नरेंद्र राजबली साहब का निधन भी इस वर्ष जनवरी में हो गया है जबकि सबसे छोटे  योगेन्द्र राजबली साहब का निधन कुछ वर्ष पहले ही हो चुका है । इनके दूसरे पुत्र डॉ वीरेंद्र राजबली साहब न्यूयार्क में अपना व्यवसाय कर रहे हैं। हमारे लखनऊ आने के बाद जब  वीरेंद्र चाचा  यहाँ आये  हैं तब हमसे भी मिलने पिछ्ले दो वर्षों से हमारे घर आए हैं। इस वर्ष भी उनसे मुलाक़ात होगी, मैं उनको अपने ब्लाग पोस्ट्स ई मेल के जरिये भेजता रहता हूँ और वह पढ़ कर प्रिंट करा कर रिकार्ड में रख लेते हैं।बाबूजी के इन चचेरे भाइयों से हमें अनुराग मिलता रहा है।   
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24-10-2016

25-10-2016 

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बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

हम और हमारे पर्व ------ विजय राजबली माथुर

*जब पृथ्वी पर मानव सभ्यता का विकास हुआ तब मानव जीवन को सुखी,सम्पन्न,समृद्ध व दीर्घायुष्य बनाने के लिए प्रकृतिक नियमों के अनुसार चलने के सिद्धान्त खोजे और बताए गए थे। कालांतर में निहित स्वार्थी किन्तु चालाक मनुष्यों ने अपने निजी स्वार्थ के चलते उन नियमों को विकृत करके मानवता प्रतिगामी बना दिया और बड़ी ही धूर्तता से उसे धर्म के आवरण में ढक कर पेश किया जबकि वह कुतर्क पूरी तरह से अधार्मिक व थोथा पाखंड-ढोंग -आडंबर ही था। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि, खुद को एथीस्ट और प्रगतिशील कहलाने वाला तबका भी उसे ही धर्म की संज्ञा देकर अज्ञान-अंधकार को बढ़ाने में पोंगापंथियों की अप्रत्यक्ष सहाता ही करता है। 
अर्थशास्त्र के 'ग्रेशम ' सिद्धान्त के अनुसार खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है उसी प्रकार समाज में भी खराब बातें अच्छी बातों को बेदखल कर देती हैं। बदलते मौसम के अनुसार कुछ पर्व और उनके नियम मनुष्य के फायदे के लिए बनाए गए थे जिनको आज न कोई जानता है न ही जानना चाहता है। आज हर पर्व - त्योहार व्यापार/उद्योग जगत के मुनाफे का साधन बन कर रह गया है। अब ये पर्व स्वास्थ्य वर्द्धक जीवनोपयोगी नहीं रह गए हैं। 
पाँच वर्ष पूर्व से मेरी पत्नी ने मेरी बात मान कर 'करवा चौथ' , 'बरमावस ' जैसे हीन पर्वों का परित्याग कर दिया है। अतः हमारे घर से ढोंग-पाखंड विदा हो चुका है। हम अब सुविधानुसार मेटेरियल साईन्स : पदार्थ विज्ञान पर आधारित हवन ही करते हैं जो पर्यावरण शुद्धि का भी साधन है।

*जब तुलसीदास ने तत्कालीन शासन - व्यवस्था के विरुद्ध जनता का आह्वान करने हेतु 'रामचरितमानस ' को प्रारम्भ में 'संस्कृत ' में लिखना शुरू किया था तब काशी के ब्राह्मणों ने उनकी पांडु लिपियों को जला जला दिया जिस कारण उनको अयोध्या आकर 'अवधी ' में रचना करनी पड़ी। कालांतर में ब्राह्मणों ने दो चालें चलीं एक तो 'रामचरितमानस ' में 'ढ़ोल,गंवार,शूद्र,नारी ... ' जैसे प्रक्षेपक ठूंस कर तुलसीदास को और प्रकारांतर से राम को बदनाम कर दिया। दूसरी चाल काफी गंभीर थी जिसके जरिये एक जन - नायक राम को 'अवतार ' या 'भगवान ' घोषित करके उनका अनुसरण करने से रोक दिया गया।
वस्तुतः रावण प्रकांड विद्वान  और वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ तो था किन्तु था विसतारवादी/साम्राज्यवादी उसने लगभग सम्पूर्ण विश्व की अपने अनुकूल घेराबंदी कर ली थी और भारत पर भी कब्जा करना चाहता था। उसे 'दशानन ' दसों दिशाओं ( पूर्व,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण,ईशान - उत्तर पूर्व,आग्नेय - दक्षिण पूर्व,नेऋत्य - दक्षिण पश्चिम,वावव्य - उत्तर पश्चिम,अन्तरिक्ष,भू गर्भ ) का ज्ञाता होने के कारण कहा जाता था । ...रावण ने सीता का अपहरण नहीं किया था राम व सीता की यह कूटनीति थी कि, सीता ने लंका पहुँच कर वहाँ की सामरिक व आर्थिक सूचनाओं को राम तक पहुंचाया था। सीता से सूचना पाकर ही राम की वायु सेना के प्रधान ' हनुमान ' ने 'राडार ' (सुरसा ) को नष्ट कर लंका में प्रवेश किया और कोशागार तथा आयुद्ध भंडारों को नष्ट करने के अलावा ' विभीषण ' को राम के साथ आने को राज़ी किया था।  भारत की जनता की ओर से राम ने कूटनीतिक व सामरिक युद्ध में रावण को परास्त कर भारत को साम्राज्यवाद की जकड़ से बचा लिया था। लेकिन दुर्भाग्य से आज वही राम साम्राज्यवादियों, व्यापारियों एवं ब्राह्मणों द्वारा जनता की लूट व शोषण हेतु तथा बाज़ार/कारपोरेट घरानों  की मजबूती के लिए प्रयोग किए जा रहे हैं।

*'ॐ नमः शिवाय च ' का अभिप्राय है भारत देश को नमन। इसे समझने के लिए भारत वर्ष का मानचित्र लेकर 'शिव ' के रूप मे की गई कल्पना को मिला कर विश्लेषण करना होगा। उत्तर में  हिम - आच्छादित हिमालय ही तो शिव के मस्तक का अर्द्ध चंद्र है। शिव के मस्तक में 'गंगा ' का प्रवेश इस बात का सूचक है कि, भारत भाल के ऊपर 'त्रिवृष्टि ' - तिब्बत स्थित 'मानसरोवर झील ' से गंगा का उद्गम है। शिव के साथ सर्प, बैल (नंदी ), मनुष्य आदि विविध जीवों का दिखाया जाना ' भारत की  विविधता में एकता ' का संदेश है। 'शिव ' का अर्थ ज्ञान - विज्ञान से है अर्थात शिव का आराधक व्यापक दृष्टिकोण वाला ही हो सकता है जो सम्पूर्ण देश के सभी प्राणियों के साथ सह - अस्तित्व की भावना रखता हो। इसका यह भी अर्थ है कि, जो देश के सभी प्राणियों से एक समान व्यवहार नहीं रखता है वह 'शिव - द्रोही ' अर्थात 'भारत देश का द्रोही ' है। तुलसीदास ने राम द्वारा यही कहलाया है 'जो सिव द्रोही सो मम द्रोही '। जो राम भक्त होने का दावा करे और राम के देश अर्थात शिव भारत के सभी लोगों में समान भाव न रखे वह न तो देश भक्त है न ही राम भक्त। 

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गुरुवार, 22 सितंबर 2016

यादें तो यादें हैं कब क्यों याद पड़ जाएँ ------ विजय राजबली माथुर

इकतालीस वर्ष पूर्व जब तेईस वर्ष की अवस्था में नब्बे दिनों बेरोजगार रह कर निर्माणाधीन  होटल मुगल ओबराय के अकाउंट्स विभाग में 22 सितंबर 1975 को जाब ज्वाईन किया था तो तब यह खास तारीख थी। फरवरी 1985 में होटल मुगल शेरटन , आगरा का जाब छोडने तक का वर्णन इसी ब्लाग में समयानुसार किया जा चुका है। फिर एकदम अचानक से वहाँ ज्वाईन करने का ज़िक्र क्यों छेड़ा क्योंकि आज 22 सितंबर 2016 को एक और महत्वपूर्ण घटना का सामना करना पड़ा है। 

यों तो छोटों की गलतियों को नज़रअंदाज़ कर देना मेरी  आदत का हिस्सा है। लेकिन आज जब लगभग उतनी ही उम्र के एक छात्र फेसबुक फ्रेंड को अंनफ्रेंड करना और विभिन्न ग्रुप्स से हटाना पड़ा तब यह तारीख फिर से महत्वपूर्ण हो गई है। चार दिन पूर्व 18 सितंबर को छात्र नेता कन्हैया कुमार यहाँ लखनऊ सम्बोधन हेतु आए थे उनके सम्बोधन के अपने को खास लगे अंशों को अपने ब्लाग 'साम्यवाद COMMUNISM ' पर रात्रि 08 : 20 (20 : 20 ) pm पर प्रकाशित किया था। कानपुर के एक छात्र 'मयंक चकरोबरती ने उसे 10 :24 pm पर अपने नाम से कापी पेस्ट करके पब्लिश कर दिया। चूंकि यह छात्र हमारी पार्टी भाकपा का भी सदस्य है अतः कानपुर के ही एक बड़े प्रभावशाली कामरेड नेता के संज्ञान में सम्पूर्ण तथ्यों को डाला। ऊपरी दबाव में वह बड़े नेता भी इस छात्र के दुष्कृत्य को निंदनीय न ठहरा सके। वस्तुतः यू पी में भाकपा  अब एक ऐसे परिवार की पाकेट पार्टी है जिसमें पति,पत्नी,साली व दत्तक पुत्र की मर्ज़ी ही पार्टी नीति है और वैधानिक पदाधिकारी भी खुद को असहाय पाते हैं। अतः उनके प्रश्रय की प्रबल संभावना के मद्देनज़र उस छात्र को अपनी फेसबुक फ्रेंडशिप से हटाना पड़ा। यह पहला मौका है जब बेहद छोटे व्यक्ति पर बेमन से ही  कारवाई करनी पड़ी है। 



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शनिवार, 16 जुलाई 2016

सत्य कहने - मानने का साहस सब में नहीं होता ------ विजय राजबली माथुर



*चौधरी चरण सिंह जी जिस मेरठ कालेज,मेरठ के छात्र रहे उसी कालेज का 1969-71 मैं भी छात्र रहा हूँ। हमारे सोशियोलाजी के एक प्रोफेसर साहब जो चौधरी साहब की जाति से ही संबन्धित थे और चौधरी साहब के नाम से मशहूर थे तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह जी के कई कार्यों की सामाजिक समीक्षा किया करते थे , हालांकि यह कोर्स से हट कर होती थी। उनके अनुसार छपरौली में चौधरी चरण सिंह के कार्यकर्ता दलित बस्तियों को घेर कर उन लोगों को निकलने नहीं देते थे और उनके वोट चौधरी साहब को डाल लिए जाते थे। अखबारों की सुर्खियों में रहता था चौधरी साहब को दलितों का भरपूर समर्थन।
*इस वक्त भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल उस वक्त के SYS (समाजवादी युवजन सभा ) नेता और मेरठ कालेज छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष रहे सतपाल मलिक साहब जिनकी दौराला की शुगर फेक्टरियों से चौधरी चरण सिंह जी को भरपूर चन्दा मिलता था उनके छात्रसंघ 'एच्छिक' किए जाने के निर्णय से क्षुभ्ध होकर उनको चप्पलों की माला पहनाने की घोषणा कालेज कैंपस में कर गए थे।
*मुख्यमंत्री रहते ही चरण सिंह जी एक बार मेरठ के तत्कालीन जज जगमोहन लाल सिन्हा साहब के पास घर पर किसी केस के सिलसिले में पहुंचे थे। सिन्हा साहब ने अर्दली से पुछवाया था कि, पूछो चौधरी चरण सिंह मिलना चाहते हैं या मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह। चौधरी साहब ने जवाब भिजवाया था कि, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह जज साहब से मिलना चाहते हैं।  सिन्हा साहब ने बगैर मिले ही उनको लौटा दिया था यह कह कर कि, उनको मुख्यमंत्री से नहीं मिलना है। केस का निर्णय चौधरी साहब के चहेते के विरुद्ध आया था । सिन्हा साहब को एहसास था कि उसी की सिफ़ारिश मुख्यमंत्री करना चाहते थे जिस कारण वह उनसे नहीं मिले थे। 1975 में इन सिन्हा साहब ने ही इलाहाबाद हाई कोर्ट में इन्दिरा गांधी के निर्वाचन के विरुद्ध निर्णय दिया था।
*संविद सरकार ने चौधरी चरण सिंह के स्थान पर  राज्यसभा सदस्य त्रिभुवन नारायण सिंह जी (लाल बहादुर शास्त्री जी के मित्र और वैसे ही ईमानदार ) को मुख्यमंत्री बना लिया था। उनको छह माह के भीतर विधायक बनना था गोरखपुर के मनीराम क्षेत्र से उनको उप चुनाव लड़ना था। कांग्रेस ने अमर उजाला केअलीगढ़ स्थित पत्रकार  राम कृष्ण दिवेदी को खड़ा किया था चौधरी चरण सिंह जी ने गुपचुप उनको समर्थन दिला दिया और अपने मोर्चे के उम्मीदवार टी एन सिंह को हरवा दिया वह त्याग-पत्र देकर वापस राज्यसभा चले गए।
*1971 के लोकसभा के मध्यवधी चुनाव में चौधरी चरण सिंह शामली संसदीय क्षेत्र से प्रत्याशी थे उनके विरुद्ध भाकपा के ठाकुर विजय पाल सिंह खड़े थे। चौगटा मोर्चे का भी प्रत्याशी मैदान में था लेकिन उसके वोट कम्युनिस्ट विजयपाल सिंह जी को डलवाए गए और चौधरी चरण सिंह जी को हरवा दिया गया। तब जनसंघ के ए बी बाजपेयी साहब ने खुल्लमखुल्ला कहा था कि, हमने मनीराम की हार का बदला ले लिया।
*1977  में जब  बाबू जगजीवन राम को पी एम बनाने का सवाल आया था चौधरी चरण सिंह जी अड़ गए थे कि वह दलित प्रधानमंत्री नहीं कुबूल करेंगे जिस कारण फिर मोरारजी देसाई  पी एम बने थे और जब 1979 में उनके बाद फिर से बाबू जगजीवन राम जी का नाम आया तब चंद्रशेखर जी उनको न बनाने के लिए अड़ गए थे जिससे चौधरी चरण सिंह जी इन्दिरा जी के समर्थन से पी एम बन सके थे।



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54 वर्ष पूर्व 1962 में छोटी दिवाली के रोज़ हमारे 'रूक्स हायर सेकेन्डरी स्कूल,' बरेली कैंट जो अब 'रवीन्द्रनाथ टैगोर इंटर कालेज ' के नाम से जाना जाता है में हमारी कक्षा V I की छात्राओं से कक्षाध्यापक दीनानाथ जी द्वारा 'धर्मयुग' में प्रकाशित एक नाटक का मंचन करवाया  गया था जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ थीं ---" अमर सिंह तो मर गया, लक्ष्मी होकर करें मजूरी "।

भले ही यह एक व्यंग्य संगीत नाटिका हो किन्तु इसके द्वारा इस कटु  'सत्य ' को उजागर किया गया था कि, इस संसार में लोगों के नाम से भ्रम हो सकता है उसके अनुरूप वे होते नहीं हैं। प्रस्तुत फोटो द्वारा आरोप लगाने वाले प्रिंसपल साहब इसका ज्वलंत उदाहरण हैं जिनकी सत्य से मित्रता तो दूर-दूर तक नहीं ही है।जब कोई विख्यात हो जाता है तो समझने लगता है कि, वह जो भी झूठ परोस देगा उसे लोग उसकी ख्याति व उम्र के चलते सत्य ही मान लेंगे। इसी कारण आईने में अपना ही चेहरा देख कर दूसरे पर निराधार आरोप मढ़ दिया और जब इरादतन ऐसा किया गया हो तब खेद या पश्चाताप का प्रश्न ही कहाँ उठता है?

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फेसबुक पर अक्सर कुछ लोग अपनी पोस्ट को लाईक करने व शेयर करने का अनुरोध करते दिखते हैं जबकि ऐसे लोग खुद दूसरों की पोस्ट शायद न ही शेयर करते हैं और न ही लाईक। लेकिन इसके विपरीत जब किसी विद्वान की अच्छी पोस्ट पर कुछ कमेन्ट करते हैं तब पोस्ट लेखक तो उसे लाईक करते हैं जबकि,मिश्रा,तिवारी,त्रिपाठी,पाण्डेय उपजाति के ब्राह्मण बेवजह कूद कर अनर्गल टिप्पणियाँ कर देते हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि, एक अच्छे पोस्ट पर भी कोई कमेन्ट अहंकारी लोगों की अनर्गल टिप्पणियों से बचने हेतु न किया जाये। 
यदि किसी अच्छी पोस्ट को ब्लाग में स्थान दिया है तो अधिकांश प्रख्यात विद्वानों ने उसे पसंद किया है। किन्तु यदि किसी को महत्व दे दिया जाये और वह पूर्व ख्याति प्राप्त नहीं है न ही वह दूरदृष्टा निकले तो उसके दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच जाते हैं। तब ऐसी पोस्ट को हटाना ही श्रेयस्कर रहता है।
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शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

डाक्टर्स डे पर कुछ चिकित्सकों का ज़िक्र ------ विजय राजबली माथुर



यों तो समय समय पर अनेक चिकित्सक संपर्क में आते ही रहते हैं किन्तु जिनसे कुछ व्यक्तिगत आधार पर निजत्व रहा उनमें से ही जिनकी कुछ खास बातें याद हैं उनका ही उल्लेख हो सकेगा।
डॉ रामनाथ :
सबसे पहले डॉ रामनाथ का ज़िक्र करना चाहूँगा जो होटल मुगल,आगरा में हमारे  एक साथी के सहपाठी थे। उनसे मित्रवत ही मुलाक़ात हुई थी। माता जी के इलाज के लिए उनसे सलाह व दवा भी लेने लगे थे।  :उनके परामर्श  और सहयोग पर ही मैंने आयुर्वेद रत्न किया तथा वैद्य के रूप में RMP रेजिस्ट्रेशन भी करवाया। हालांकि वह तो इसी रेजिस्ट्रेशन पर एलोपैथी की ही ज़्यादा प्रेक्टिस करते थे। एलोपैथी व आयुर्वेदिक औषद्धियों दोनों का ही अध्यन कोर्स में किया भी था। किन्तु मेरी दिलचस्पी व जानकारी  होम्योपैथी औषद्धियों की अधिक थी/है। अतः मैंने प्रेक्टिस तो नहीं की किन्तु आयुर्वेदिक व होम्योपैथी उपचार परिचितों को बताता रहा।
सरोजनी नायडू मेडिकल कालेज,आगरा के एक पूर्व चिकित्सक जिनका नर्सिंग होम हमारी कालोनी में ही था चाहते थे कि, मैं घर पर क्लीनिक खोल लूँ और क्रटिकल केस उनको रेफर करता रहूँ औरों की भांति मुझे कमीशन मिलता रहेगा। परंतु इस प्रकार धनार्जन मैं कर ही नहीं सकता था अतः उनके प्रस्ताव पर अमल नहीं किया।
इन्ही रामनाथ जी के पिताजी (कालीचरण वैद्य जी ) से एक बार माँ की दवा लेकर उनको पैसे दे आया था। अगले दिन फिर जाने पर पहले तो उन्होने वे पैसे लौटाए और फिर कहा कि तुम मेरे बेटे के मित्र हो तुमने हिम्मत कैसे की पैसे देने की और हिदायत दी कि आगे से दवा ले जाओ पैसे न दो। ज़्यादा पुरानी बात नहीं है सिर्फ 36 वर्ष पूर्व 1980 की बात है यह। लेकिन अब तो अपनी तीन-तीन जन्म पत्रियों का निशुल्क विश्लेषण प्राप्त करने वाले डॉ ज़रूरत पर सलाह मांगने पर चुप्पी साध लेते है। 36 वर्षों में चरित्र इतने बदल गए हैं।

डॉ डी मिश्रा :
इन डॉ रामनाथ जी के क्लीनिक के सामने ही डॉ डी मिश्रा साहब ने अपना होम्योपैथी का क्लीनिक खोला था और उनसे परिचय रामनाथ जी की मार्फत ही हुआ था। डॉ मिश्रा सिर्फ डॉ रामनाथ का मित्र होने के नाते मुझे जानते थे उनको मेरी होम्योपैथी में दिलचस्पी और आयुर्वेद रत्न होने की जानकारी नहीं थी। एक बार उनके कंपाउंडर जो डॉ रामनाथ के ही सहपाठी भी थे अपने पिता जी के निधन के कारण बंगलौर गए तब उनके स्थान पर  उनके आने तक डॉ मिश्रा ने मेरा सहयोग लिया था। इस दौरान उनकी कलाकारियों से परिचित होने के कई अवसर प्राप्त हुये। वैसे डॉ मिश्रा पाईलट आफ़ीसर थे और होटल क्लार्क शीराज, आगरा के पूर्व जेनरल मेनेजर के पुत्र थे। लंदन की उड़ानों के दौरान वहाँ की किसी होम्योपैथिक संस्था से रेजिस्ट्रेशन करवाकर वह होम्योपैथ चिकित्सक बन गए थे। अपने पिताजी के लकवाग्रस्त होने पर इंडियन एयर लाईन्स की सेवा जल्दी ही छोड़ दी थी । प्रारम्भ में वह सुबह हाथरस में और शाम को आगरा में प्रेक्टिस करते थे। फिर हाथरस जाना बंद कर दिया था। 
एक दिन किसी बच्चे के पेट में तीव्र दर्द होने के कारण उन्होने रेक्टीफ़ाईड स्प्रिट में मिला कर एलोपैथी की पिप्टाल के ड्राप्स देकर शीघ्र राहत प्रदान की थी। बाद में मेरे पूछने पर बोले बिजनेस में थोड़ा-बहुत इम मोरेल होना पड़ता है। अर्थात चिकित्सक का पेशा वह बतौर बिजनेस कर रहे थे। 
एक दिन मेहरा आफ़सेट प्रेस के श्याम मेहरा साहब जो उनके क्लब के साथी थे अपनी श्रीमती जी  के साथ उन की दवा लेने आए हुये थे अपनी कुछ समस्या भी बताने लगे। डॉ मिश्रा ने मुझसे कहा माथुर साहब श्याम बाबू को BG की एक डोज़ दे दो। मैंने सादी  गोलियों की पुड़िया दे दी। थोड़ी देर में उन्होने श्याम बाबू से पूछा कुछ राहत है? वह बोले हाँ थोड़ा ठीक है, डॉ मिश्रा ने उनको थोड़ी देर और रुकने को कहा उसके बाद ही कार ड्राइव करना ठीक रहेगा। जब वह चले गए तब मैंने डॉ मिश्रा से पूछा कि, BG(ब्लैंक  ग्लोबल्स ) अर्थात सादी  गोलियों से मेहरा साहब को फायदा कैसे हो गया? तब डॉ मिश्रा का जवाब था कि, उनको हुआ ही क्या था? वह तो अपनी मिसेज को यह जतलाना चाहते थे कि, वह भी बीमार हैं जिससे वह अपनी बीमारी का गम भूल जाएँ। तो यह था डॉ मिश्रा का साइक्लोजिकल ट्रीटमेंट। 
डॉ खेमचंद खत्री :
डॉ के सी खत्री, होम्योपैथ से व्यक्तिगत परिचय उन साथी की मार्फत ही हुआ था जिनके मार्फत डॉ रामनाथ से परिचय हुआ था। वैसे डॉ खत्री को मैं इसलिए जानता था कि, वह पहले डॉ पारीक के स्टोर्स में कार्यरत थे और मैं वहाँ से होम्योपैथी दवाएं खरीदता था। फिर डॉ खत्री के स्टोर्स से लेने लगा। हालांकि डॉ खत्री खुद दयालबाग के राधास्वामी सत्संग के सेक्रेटरी थे और उनको मेरे कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध होने की जानकारी थी किन्तु व्यक्तिगत स्तर पर मधुर संबंध रहे। जब उनके दामाद साहब का स्टोर दयालबाग में खुल गया तब नजदीक होने के कारण उनसे दवाएं खरीदने लगे। वहाँ डॉ खत्री आते रहते थे और उनसे मुलाक़ात होती रहती थी। उनके दामाद डॉ डी डी पाराशर तो मुझे गुरु जी कहते थे और काफी सम्मान देते थे। आगरा छोडने तक इन दोनों से संपर्क बना रहा था।   

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शनिवार, 25 जून 2016

बउआ को 22 वीं पुण्यतिथि पर श्रद्धांजली -------- विजय राजबली माथुर

(स्व.कृष्णा माथुर : जन्म- 20 अप्रैल 1924 मृत्यु - 25 जून 1995 )

जिस समय रात्रि पौने आठ बजे बउआ (माँ ) ने अंतिम सांस ली मैं और यशवंत ही पारिवारिक सदस्य वहाँ थे। इत्तिफ़ाक से कंपाउंडर महोदय ग्लूकोज चढ़ाने आए हुये थे। 16 जून 1994 को शालिनी व 13 जून 1995 को बाबूजी के निधन के बाद आगरा में मैं और यशवंत ही थे। अजय अपने परिवार के साथ फरीदाबाद में कार्यरत होने के कारण थे। दो दिन पूर्व 23 जून को ही आगरा से गए थे ड्यूटी ज्वाइन करने। शालिनी के निधन के बाद शोभा (बहन ) ने यशवंत को माँ से अपने साथ ले जाने को मांगा था, किन्तु अजय की श्रीमती जी ने ऐसा न करने की उनको सलाह दी थी। यदि माँ ने मेरी सलाह  के बगैर अपनी बेटी को अपना  पौत्र सौंप दिया होता तो उस समय मैं ही अकेला वहाँ होता। 

यशवंत की निष्क्रिय फेसबुक आई डी पर यह सूचना थी जिसे उसने 18 जून 2016 को अचानक देखा ---
एकदम से धक्का लगा छोटे बहनोई साहब के अचानक निधन समाचार से। जब इस बाबत बहन से ज़िक्र किया तो यह उत्तर मिला जिससे और भी धक्का लगा ---

भले ही हमें साढ़े तीन माह बाद ही पता चला लेकिन जब चल गया तो छोटी बहन को इस समय कोई भी उत्तर देना नैतिकता के विरुद्ध होगा और फिर वह महिला होने के नाते भी तमाम सहानुभूतियाँ बटोर ही लेंगी।दिल तो कोई भी चीर कर नहीं दिखा सकता लेकिन दिल पर हाथ रख कर ईमानदारी से सोचने पर सच का एहसास तो हो ही जाता है।  फिर भी इतना तो कहना ही होगा कि, मेरे घर के पते के विजिटिंग कार्ड शोभा, कमलेश बाबू और उनके बड़े बेटी-दामाद को मैंने खुद अपने हाथ से दिये थे जब वे लोग 2011 में लखनऊ कमलेश बाबू की  भतीजी की शादी में आए थे। वहाँ जाकर खुद मैंने कमलेश बाबू व उनके बड़े दामाद को घर पर आने का आग्रह किया था । शोभा - कमलेश बाबू तो दो दिन हमारे घर पर रुके भी थे जबकि उनके बेटी - दामाद व धेवती मिल कर चले गए थे ।कमलेश बाबू के भाई दिनेश हमारे घर दो बार आ चुके थे और फोन पर उनकी पत्नी ने  बताया था कि  शादी का कार्ड डाक से भेज चुके हैं। पता उनके पास भी था । उनके जरिये भी सूचित किया जा सकता था। यहाँ के प्रवास और फिर लौटने के बाद उन लोगों के किस कदम के कारण तब से टेलीफोनिक संपर्क टूटा यह तो अपने दिल पर हाथ रख कर सोचने की बात थी। ई -मेल एड्रेस भी कमलेश बाबू तथा उनके दोनों दामादों व छोटी बेटी के पास थे। खैर बड़े होने के नाते इल्जाम तो  हमें ही सहने ही होंगे। 

माँ और कमलेश बाबू दोनों के जन्मदिन एक ही थे 20 अप्रैल। इस बार किसी की पुण्यतिथि पर हवन नहीं कर सका हूँ। मौका मिलते ही कमलेश बाबू की आत्मा की शांति हेतु भी कर लेंगे। 

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शुक्रवार, 10 जून 2016

स्मृति के झरोखों से ------ विजय राजबली माथुर



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जितेंद्र जी ने यह फोटो 20 मई 2016 को गांधी प्रतिमा,जी पी ओ पार्क, लखनऊ में अपने फोन में किसी के माध्यम से लिया था जिस समय किसान जागरण यात्रा की धरना - सभा चल रही थी। उनकी ख़्वाहिश है कि, इस चित्र को आधार बना कर कोई पोस्ट सार्वजनिक रूप से दी जाये। किसानसभा की रैली से संबन्धित पोस्ट्स पहले ही 'कलम और कुदाल ' ब्लाग पर दी जा चुकी हैं। अतः इस निजी चित्र द्वारा निजी स्मृतियों का वर्णन करना अधिक उपयुक्त रहेगा। 

बात कुछ उल्टी लग सकती है किन्तु जितेंद्र जी के चित्र के माध्यम से उनके पिता जी कामरेड हरमिंदर पांडे जी का ज़िक्र पहले करना उचित प्रतीत होता है जिनसे अभी तक सिर्फ एक ही बार 08 जून 2011 को भेंट हुई है जबकि जितेंद्र जी से यह दूसरी मुलाक़ात थी। 

कामरेड हरमिंदर पांडे जी ने 22, क़ैसर बाग भाकपा के प्रदेश कार्यालय पर अपनी टीचर्स यूनियन की एक बैठक बुलाई थी । डॉ गिरीश जी ने उसमें भाग लेने हेतु मुझे भी sms भेज दिया था, अतः मैं पहुँच गया था। परिचय होने पर जब हरमिंदर पांडे जी को यह पता चला कि, मुझे लेखन का शौक है और आगरा में मेरे लेख साप्ताहिक व त्रैमासिक पत्रों में छप चुके हैं। मीटिंग शुरू होने से पूर्व जो समय था उसमें उन्होने कुछ लेखों की जानकारी प्राप्त की थी। 'रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना ' में मैंने जो विश्लेषण किया है उससे वह अत्यधिक प्रभावित हुये थे। उन्होने गिरीश जी से कहा था कि, इनके लेख 'पार्टी जीवन ' में छाप दिया करें जिससे कामरेड्स को असलियत का पता चल सके एवं वे जनता के बीच चर्चा कर सकें तथा सांप्रदायिक शक्तियों की पोल खोली जा सके। उनसे हाँ-हूँ तो कर दी गई लेकिन आज तक उनकी बात पर अमल नहीं किया गया । क्यों? क्योंकि जैसा मैंने अनुभव किया 'कथनी' और 'करनी ' में अन्तर है जबकि शायद पांडे जी ने इसे न समझा हो। मीटिंग समापन के बाद उनके प्रस्थान करने पर उनके विरुद्ध चर्चा भी कानों तक पहुंची जिससे साफ हो गया कि, भला फिर कैसे उनकी सिफ़ारिश मानी जा सकती थी ?

पार्टी जीवन में मेरे लेख  न छ्पें तो भी  मैं अपने ब्लाग्स के माध्यम से बराबर लेखन में सक्रिय हूँ। और ज़्यादा लोगों तक मेरी बात पहुँच रही है और उसी को दबाने हेतु बाजारवादी कामरेड्स ओछे हथकंडे अपनाने से भी नहीं चूक रहे हैं। पार्टी जीवन के एक संपादक जो प्रदेश पार्टी के सीता राम केसरी भी हैं खुद को 'एथीस्ट ' होने का भी ऐलान करते हैं और पार्टी दफ्तर में ही चमेली के तेल की खुशबू वाली धूप बत्ती जला कर  तांत्रिक प्रक्रियाएं भी करते हैं। 

संभवतः हरमिंदर पांडे जी इन सब गतिविधियों से अनभिज्ञ होंगे तभी उन्होने मेरे लेख छापने की सिफ़ारिश कर दी थी। पार्टी कार्यालय में जब जितेंद्र जी से पहली बार मुलाक़ात हुई थी और उन्होने अपने पिताजी का नाम लेकर परिचय दिया था तो वास्तव में हमें भी उनसे मिल कर बहुत अच्छा लगा था। फेसबुक के माध्यम से उनसे निरंतर संपर्क है फिर भी किसानसभा की रैली में मिलने पर उन्होने उत्साहित होकर यह चित्र खिंचवा कर स्मृति पटल पर इस मुलाक़ात को चिरस्थाई कर दिया है। किसानसभा के राष्ट्रीय महासचिव कामरेड अतुल अंजान साहब से मेरा परिचय कराते हुये (वैसे मैं अंजान साहब से आगरा से ही परिचित था )  जितेंद्र जी ने मेरे ब्लाग- लेखन का ज़िक्र बतौर तारीफ किया था। 

कामरेड जितेंद्र पांडे और उनके पिताजी कामरेड हरमिंदर पांडे साहब सैद्धान्तिक रूप से साम्यवाद के प्रति समर्पित हैं तभी ढोंग-पाखंड-आडंबर विरोधी मेरे विचारों का समर्थन कर देते हैं। वरना तो बाजारवादी/कार्पोरेटी/मोदीईस्ट कामरेड्स तो मुझे हर तरह तबाह करने की किसी भी तिकड़म से नहीं चूकते हैं। मुझे उम्मीद है कि, इन दोनों से मुझे आगे भी समर्थन मिलता रहेगा। 
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फेसबुक कमेंट्स : 
10 जून 2016 

10 जून 2016 

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मंगलवार, 24 मई 2016

देश की जनता भूखी है या कारपोरेट ने जनता लूटी है ? ------ विजय राजबली माथुर

हमारी पार्टी के एक साथी की तबीयत खराब होने की सूचना आज फोन पर प्राप्त  हुई तो शाम को चार बजे उनको देखने उनके घर गया । उनके स्वास्थ्य की कुशल क्षेम हमने पूछी तो उन्होने हम से यह सवाल किया कि, आप आज आए कैसे ? आज तो आपको रास्ते में काफी दिक्कत हुई होगी क्योंकि आज 'बड़ा मंगल ' है। अब से 59 वर्ष पूर्व जब हम लोग लखनऊ में ही थे तब तो जेठ महीने का दूसरा मंगल ही बड़ा मंगल होता था। 1961 में बाबूजी के स्थानांतरण के बाद हम लोग लखनऊ से बाहर रहे फिर जब 48 वर्ष बाद पुनः यहीं आए तब यहाँ जेठ माह के चारों मंगल को बड़ा मंगल की संज्ञा दे कर जगह-जगह पूरी - सब्जी , पकौड़ी - छोले आदि - आदि बांटते  और लपकते लोगों को पाया। यह मुफ्त वितरण सड़कों पर जगह - जगह जाम का कारण बंनता है। अपने घर से एक किलो मीटर दूर ज़रूर ऐसा जाम पाया किन्तु रिंग रोड पर भारी वाहन आज रोके जाने से रास्ता साफ  -  सुथरा मिल गया था क्योंकि हाई  -  वे के किनारे -  काफी दूर ऐसे कैंप लगे थे जिन पर गरीब ही नहीं कार, जीप वाले भी लाईन लगाए खड़े देखे थे। 

पहले जब हम यहाँ थे तब लोग मीठा शर्बत, बूंदी या अंगूरदाना ही बांटते थे । अब नमकीन भोजन बांटा जाने लगा है। सपा से संबन्धित एक अल्पसंख्यक नेता के 
 परिवार में तो एक वक्त का पूरे परिवार का भोजन ही ऐसे कैंप में बंटतेभोजन से जुटालिया जाता है। 

अल्पसंख्यक मजहब से संबन्धित जिन वरिष्ठ साथी को मैं देखने गया था ऐसे नज़ारों पर उनकी टिप्पणी थी कि दरअसल देश की जनता भूखी है इसलिए जहां भी मुफ्त खाना मिलता है भीड़ जुट जाती है। उन्होने एक पुराने किस्से काज़िक्र करते हुये बताया कि एक बहुत गरीब मजदूर जो एक ढाबे पर काम करता था और जिसका कोई संबंधी न था जब नहीं रहा तो उन लोगों ने चंदा जूटा कर उसका अंतिम संस्कार करा दिया था। उस चंदे की रकम में से उस वक्त तीन हज़ार रुपए बच गए थे। उन लोगों ने उन तीन हज़ार बचे रुपयों से पूरी  -  सब्जी बनवा कर फैजाबाद रोड पर बँटवा दी। उस दिन न तो मंगल था न नौरात्र की अष्टमी - नवमी तब भी उसे पाने की होड में कार सवार भी जुट गए थे और किसी ने भी न पूछा कि आज यह भोजन किस लिए बांटा जा रहा है, बस सबको लपकने की होड थी। इसलिए वह तब से यही कहते हैं कि, देश की जनता भूखी है। 
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/1087944084600900

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जहां तक ज्योतिष विज्ञान का संबंध है भोजन आदि 'दान ' करना किसी  - किसी के लिए कितना घातक हो सकता है इसे लखनऊ के गोंमती नगर क्षेत्र में रहने वाले UPSIDC के एक एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर साहब भुक्त  -  भोगी के रूप में सही से बता सकते हैं। लगभग दस वर्ष पूर्व जब यह इंजीनियर साहब आगरा में पोस्टेड थे वहाँ मेरे संपर्क में आए थे तब मुझे उनको लिखित में 'दान ' का निषेद्ध करना पड़ा था। वह लोगों को खूब खाना दान में खिलाते थे और खूब
लुटते थे क्योंकि उनको 'अन्न दान ' नहीं करना चाहिए था। उन्होने मुझसे दान निषेद्ध की बात इसलिए लिखित में ली थी क्योंकि मुझसे पूर्व वह जिन भी पोंगा - पंडितों के फेर में थे वे उनसे खूब दान करवाते थे जो उनके लिए परेशानी का सबब था। जब मंदिर के पुजारियों को ज्योतिषी मानते हुये उनसे सलाह ली जाती है तब ऐसे ही दुष्परिणाम मिलते हैं जो ज्योतिष को बदनाम भी करते हैं और हतोत्साहित भी। 
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/1087956034599705 

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दो सप्ताह पूर्व टाटा डोकोमो ने sms के जरिये सूचित किया कि, वे 15 मई 2016 से CDMA सर्विस बंद कर रहे हैं जब उनसे कहा कि, GSM सर्विस में इसे ट्रांसफर कर दें तो तमाम अड़ंगे खड़े कर दिये। अखबार से पता लगा कि, रिलायंस ने अपने ग्राहकों को GSM की सिम CDMA के बदले खुद ही दे दी थीं। लेकिन फिर भी तमाम लोगों को हैंड सेट तो नए खरीदने ही पड़े। भले ही हमने दूसरे आपरेटर पर mnp करा लिया और अपना पुराना नंबर सुरक्षित बचा लिया लेकिन दस दिन झंझट तो रहा ही बेवजह नया हैंड सेट व सिम खरीदने में अतिरिक्त व्यय हुआ ही। 

इस तरह ये कारपोरेट घराने जब तब जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ते रहते हैं। बाजारवाद व्यापार जगत पर ही नहीं राजनीति पर भी हावी है। अब विधानसभाओं व संसद में प्रतिनिधि कारपोरेट घरानों के चहेते ही आसानी से चुन जाते हैं और जन पक्षधरता वाले लोग बड़ी कठिनाई से वहाँ पहुँच पा रहे हैं। फिर भला जनता के हितार्थ काम कैसे हो? श्रम कानूनों  को उदारीकरण के आवरण में कारपोरेट हितैषी एवं श्रमिक विरोधी बनाया जा रहा है। 
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गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

'ज्ञान ' से शत्रुता रख कर जीत - विक्टरी कैसे हासिल होगी ? ------ विजय राजबली माथुर



ब्रह्म समाज के माध्यम से राजा राम मोहन राय ने विलियम बेनटिक से भारत में 'अङ्ग्रेज़ी' शिक्षा लागू करवाईथी। उनका दृष्टिकोण था कि, अङ्ग्रेज़ी साहित्य द्वारा उनके स्वतन्त्रता संघर्षों का इतिहास भी हमारे नौजवान सीखेंगे और फिर भारत की आज़ादी के लिए मांग बुलंद करेंगे और हुआ भी यही। मोहनदास करमचंद गांधी,सुभाष चंद्र बोस,जवाहर लाल नेहरू,भगत सिंह,चंद्रशेखर आज़ाद सभी अङ्ग्रेज़ी साहित्य से भलीभाँति परिचित थे और आज़ादी के बड़े योद्धा बने। 
हालांकि वर्तमान केंद्र सरकार का उद्देश्य 'संस्कृत' को बढ़ाने के पीछे कुछ और है जैसे कि, तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सस्ते भारतीय क्लर्क पाने के उद्देश्य से 'अङ्ग्रेज़ी' को लागू किया था लेकिन वह आज़ादी के आंदोलन का एक बड़ा हथियार भी बनी। उसी प्रकार राजा राम मोहन राय सरीखा व्यापक दृष्टिकोण अपनाए जाने की नितांत आवश्यकता है। जब आप संस्कृत जानेंगे तब आप ब्राह्मण वाद की लूट की चालाकी को भी समझेंगे और उसका प्रतिकारकर सकेंगे। 
उदाहरणार्थ आपको स्तुतियों में एक शब्द मिलेगा- 'सर्वोपद्रव्य नाशनम ' अब ब्राह्मण यजमान से ऐसे ही वाचन करवाता है जिसका आशय हुआ कि, सारा द्रव्य नष्ट कर दो। जब आपकी प्रार्थन्नुसार सब द्रव्य नष्ट होगा तब आप ब्राह्मणों के मकड़ जाल में - दान दक्षिणा देने के फेर में फसेंगे। 
लेकिन अगर आप 'संस्कृत' के ज्ञाता बन जाते हैं तब आप जानेंगे कि, इस शब्द का पहले संधि-विच्छेद करना फिर वाचन करना है। 
अर्थात जानकारी होने पर वह शब्द 'सर्व' + उपद्रव ' + नाशनम पढ़ा जाएगा जिसका अर्थ है सारे उपद्रव अर्थात पीड़ाओं को नष्ट कर दो। अब आप दान-दक्षिणा के फेर में नहीं फंस सकते। 
चतुराई इसी में है कि, अधिकाधिक लोग 'संस्कृत' की जानकारी हासिल करके वेदों के माध्यम से सारे विश्व की मानवता की एकता की बात को बुलंद करें और ब्रहमनवाद की लूट को ध्वस्त करें। 
कुछ ब्राह्मण वादी नहीं चाहते कि संस्कृत पर उनका एकाधिकार समाप्त हो वे उसको सार्वजनिक करने का विरोध कर रहे हैं उनके जाल में नहीं फंसना चाहिए और ज्ञान का विस्तार करना चाहिए जिससे मानव कल्याण संभव हो।

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लेकिन क्या करेंगे जब अति विद्वजन घोंगावादी प्रवृति को त्यागने को ही राज़ी न हों। कभी एथीज़्म/नास्तिकता के नाम पर तो कभी मूल निवासी के नाम पर संस्कृत का विरोध करने वाले वस्तुतः पोंगापंथी ब्राह्मण वाद के उस सिद्धान्त को ही लागू रखने के पक्ष धर हैं जिसके अनुसार 'वेद' पढ़ने का अधिकार शूद्रों को न था और गलती से वेद वचन सुन लेने वाले शूद्र के कान मे सीसा (lead ) डाल कर उसे बहरा बना दिया जाता था। आज के उदारीकरण के युग का सीसा- lead एथीज़्म और मूल   निवासी में रूपांतरित हो गया है। यह वर्ग संस्कृत पर ब्राह्मणों के एकाधिकार वादी वर्चस्व को टूटने न देने के लिए और बहुसंख्यक जनता को मूर्ख बनाए रख कर उल्टे उस्तरे से मूढ़ने हेतु संस्कृत के विरोध में डट कर आवाज़ बुलंद कर रहा है। 
जिसका एक और उदाहरण 'दुर्गा -सप्त शती' से प्रस्तुत है जिसमें एक स्तुति के बीच शब्द ' चाभयदा ' आता है इसका वाचन पोंगा-पंडित ऐसे ही कराते हैं जिसका  अर्थ हुआ कि, आप प्रार्थना कर रहे हैं - और भय दो। जब आप भय मांगेगे तो वही मिलेगा जिसके निराकरण के लिए आप दान-दक्षिणा के फेर में फंस कर अपनी आय व्यर्थ व्यय करेंगे। 
अब यदि आपको संस्कृत का ज्ञान होगा तब आप इसको संधि- विच्छेद करके यों पढ़ेंगे : च + अभय + दा अर्थात 'और अभय दो' जब आप अभय ( भय = डर नहीं ) मंगेगे तो निडर बनेंगे और ब्राह्मण वाद से गुमराह नहीं होंगे। हमने एक ब्लाग के माध्यम से जन - हित में स्तुतियाँ देना प्रारम्भ किया था किन्तु ज़्यादातर लोगों के हज़ारे के  कारपोरेट भ्रष्टाचार संरक्षण आंदोलन का समर्थन करने के कारण उस ब्लाग को हटा लिया था । लोग जब जाग्रत ही नहीं होना चाहते तब किया भी क्या जा सकता है। वेदना होती है विद्वानों से मूर्खता की बातें जान कर  । 
 जिन वेदों में विशेषकर 'अथर्व वेद' जो 'आयु का विज्ञान' है में समझाया गया है कि नव रात्र अर्थात नौ जड़ी-बूटियों का सेवन करके 'नीरोग' कैसे रहा जाये उसे पौराणिक ब्राह्मण वादियों ने झगड़े की जड़ बना कर समाज में विग्रह उत्पन्न कर दिया है और मूल निवासी तथा एथीज़्म वादी उस चक्रव्यूह में उलझे हुये हैं। जे एन यू विवाद के मूल में भी यही अज्ञानता है। 'ज्ञान' से शत्रुता रख कर जीत - विक्टरी कैसे हासिल होगी ?
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रविवार, 10 अप्रैल 2016

उदारीकरण का जनता पर प्रभाव : 'सच्चे साधक धक्का खाते और चमचे मज़े उड़ाते हैं' ------ विजय राजबली माथुर

1991 में अल्पमत सरकार के प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहा राव साहब ने वर्ल्ड बैंक के पूर्व अधिकारी मनमोहन सिंह जी को वित्तमंत्री बनाया था जिनके द्वारा शुरू किए गए 'उदारीकरण ' को न्यूयार्क में जाकर आडवाणी साहब द्वारा उनकी नीतियाँ चुराया जाना बताया गया  था। उस उदारीकरण की रजत जयंती वर्ष में तमाम विद्वान उसकी प्रशंसा में कसीदे गढ़ रहे हैं जो विभिन्न समाचार पत्रों में सुर्खियों के साथ छ्प रहे हैं।
उदारीकरण से 19 वर्ष पूर्व 20 वर्ष की अवस्था में रु 172और 67 पैसे  मासिक वेतन से मैंने रोजगार शुरू किया था। छह माह में खर्च के बाद इतने पैसे बच गए थे कि, रु 150/-का टेलीराड ट्रांज़िस्टर,रु 110 /-की एक कलाई घड़ी व भाई-बहन समेत अपने लिए कुछ कपड़े बनवा सके थे। अगले छह माह में बचत से रु 300/- का एक टेबुल फैन व माता जी पिताजी के लिए कुछ वस्त्र ले सके थे। तब बैंक में S B a/c मात्र रु 5/- से खुला था और चेक-बुक या किसी चीज़ का कोई शुल्क नहीं लगता था।
उदारीकरण के 25 वर्ष बाद आज कोई बचत नहीं हो पाती है। निखद कही जाने वाली अरहर की दाल खरीदना भी संभव नहीं है। बैंकों में चेकबुक लेने का भी शुल्क देना पड़ता है, बैंक बेवजह के sms भेजते हैं और उनका भी शुल्क काट लेते हैं। दूसरी ब्रांच के लिए नगद जमा करने पर भी 1 प्रतिशत शुल्क काट लेते हैं। बचत न होने से जमा नहीं होता अतः निकासी भी मुमकिन नहीं तब a/c बंद कर दिया जाता है। पहले स्टाफ का व्यवहार सौम्य होता था अब रूखा रहता है।
उदारीकरण से अमीर ही और अमीर हुये हैं गरीब की तो कमर ही टूट गई है और अब तो ज़बान भी बंद की जा रही है।
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इस 19 मार्च को उत्तर प्रदेश सरकार के एक अंडरटेकिंग में  कार्यरत  एक एक्जिक्यूटिव इंजीनियर साहब जो आगरा में भी हमसे ज्योतिषीय परामर्श लेते रहे थे तीन वर्षों के अंतराल के बाद पधारे थे। वह मुख्यमंत्री के तौर पर अखिलेश यादव के कार्य से संतुष्ट दीख रहे थे किन्तु उनको कानून-व्यवस्था की एकमात्र शिकायत थी। केंद्र की सरकार के निर्णयों से वह अधिक असंतुष्ट थे। FDI की सर्वाधिक आलोचना उन्होने की। उनका मत था कि, यदि FDI से देश का विकास होता अर्थात लोगों को बेहतर शिक्षा,स्वस्थ्य व जीवन स्तर प्राप्त होता तब यह ठीक हो सकती थी। किन्तु सरकार जिसको विकास कहती है वह विकास नहीं है। उनके अनुसार बढ़िया कपड़ा और कारें विकास का प्रतीक नहीं हैं क्योंकि ये सबको सुलभ ही नहीं हैं। वह कह रहे थे विकास वह होता यदि उनको सार्वजनिक परिवहन से मेरे पास 15 कि मी चल कर आने -जाने की सुविधा मिलती और निजी गाड़ी का प्रयोग न करना पड़ता। FDI से जो नए-नए माल खुल रहे हैं वे देश में असमानता की खाई को ही नहीं चौड़ा कर रहे हैं वरन भ्रष्टाचार के नए आयाम भी गढ़ रहे हैं।

इस बात को उन्होने उदाहरण देते हुये स्पष्ट किया कि जैसे उनके बचपन में उनके पिताजी उन लोगों की ख़्वाहिश पूरी कर देते थे वैसे ही जब वह अपने बच्चों की ख़्वाहिश पूरा करना चाहते हैं तो परेशानी महसूस करते हैं। उनके जमाने में जो बाज़ार में उपलब्ध था उसे पूरा करना उनके पिताजी के लिए मुश्किल न था। आज जब उनके बच्चे माल देखते -सुनते हैं तो चलने को कहते हैं और वहाँ जब रु 500/- में एक चम्मच आइसक्रीम एक -एक बच्चे को दिलाते हैं तो तत्काल डेढ़ हज़ार रुपए निकल जाने पर भी न बच्चों को संतुष्टि मिलती है न ही उनको खुद को तसल्ली मिल पाती है। माल के बाहर क्वालिटी की आइसक्रीम सस्ते में जी भर मिल सकती थी अगर दूसरा विकल्प न होता तो। इस प्रकार माल कल्चर विदेशी कंपनियों को न केवल फायदा पहुंचाने का वरन भारतीय पहचान मिटाने का भी बड़ा संबल बन गया है। वेतन से माल की ख़रीदारी करना संभव नहीं है , माल से माल खरीदने का मतलब है भ्रष्टाचार को अंगीकार करके शान दिखाना।

उनका यह भी साफ-साफ कहना था कि, अगले लोकसभा चुनाव आते-आते जन-असंतोष इतना भड़क जाएगा कि इस सरकार के बूते उसे सम्हालना मुश्किल हो जाएगा, साथ ही सरकार के मंत्री-सांसद जनता का सामना करने की स्थिति में ही नहीं रहेंगे। जिन सरकारी अधिकारी-कर्मचारी के दम पर सरकार चलती है उनका असंतोष भी चरम पर होगा और ये परिस्थितियाँ इस सरकार व इसकी पार्टी को पुनर्मूष्क: भव की स्थिति में ला देंगी। यदि इंजीनियर साहब का आंकलन सही भी निकले तब भी अभी तो तीन वर्ष और दो माह का समय कष्टप्रद है ही।
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इस समाचार से कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि अर्थशास्त्रीय 'ग्रेशम ' के सिद्धान्त के अनुसार " खराब 'मुद्रा' अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है "। उसी प्रकार समाज में खराब लोग हावी रहते हैं और अच्छे लोगों को व्यवहार से दूर कर देते हैं।
*1991ई  में आगरा छावनी से भाकपा प्रत्याशी को किसी तकनीकी कारण से अपना गेंहू की बाल- हंसिया वाला चुनाव चिन्ह न मिल सका था अतः  कामरेड जिलामंत्री के निर्देश पर मैं प्रदेश कार्यालय से उनको मिले चिन्ह 'फावड़ा-बेलचा' के लिए अधिकार-पत्र लेकर वापिस लौट रहा था। लखनऊ जंक्शन से अवध एक्स्प्रेस गाड़ी पकड़ना था। स्टेशन पर बैठ कर इंतज़ार कर रहे थे साथ में एक और सज्जन आकर  बैठ गए थे। अनायास बातों-बातों में हस्तरेखा विज्ञान पर चर्चा छिड़ गई थी। उत्सुकता वश एक गेरुआ वस्त्र धारी अधेड़ पुरुष भी  जगह मांग कर हम लोगों के साथ बैठ गए थे।  वह भी अपना हाथ देखने के लिए ज़ोर देने लगे। जब उनके हाथ देखे तो बाकी बातें कुबूल करते हुये एक बात पर वह कहने लगे इस बात को छोड़ें बहुत पुरानी हो गई है। बात कितनी भी पुरानी हो हाथ में अपनी अमिट रेखा के साथ उपस्थित थी। हालांकि मैं सीधे-सीधे कहने से बच रहा था किन्तु दूसरे यात्री ने साफ-साफ कह दिया कि वह साधू बनने से पूर्व एक अध्यापक थे और किसी की हत्या करने के बाद भेष बदल कर जी रहे थे। उसके बाद वह गेरुआ साधू ट्रेन आने पर हम लोगों से बच कर दूसरे कम्पार्टमेंट से गए।
** 2000 ई में जब दयालबाग, आगरा के सरलाबाग क्षेत्र में मैंने ज्योतिष कार्यालय खोला था तब पास के मंदिर के पुजारी महोदय भी मुझे अपना हाथ दिखाने आए थे । उस वक्त वह 30 वर्ष आयु के थे और 25 वर्ष की आयु में मथुरा में एक हत्या करके फ़रारी पर आगरा में पुजारी बन गए थे जिस बात को बड़ी मुश्किल से उन्होने कुबूला था । उन्होने काफी मिन्नत करके कहा था कि इस बात का किसी से भी ज़िक्र न करूँ कि वह पंडित जी भी मुझे अपना हाथ दिखाने आए थे।
***आगरा में ही सुल्तानगंज की पुलिया स्थित एक मंदिर के पुजारी महोदय का इतिहास यह था कि वह इंदौर स्थित एक मार्बल की दुकान से गबन करके  भागे हुये थे। उनका बेटा आठवीं कक्षा में लगातार तीन वर्ष फेल होने के बाद उनका सहायक पुजारी हो गया था जिसके चरण मथुरा में पोस्टेड एक तहसीलदार अग्रवाल साहब भी छूते थे क्योंकि वह पंडित था।
आज की दुनिया का यही दस्तूर है कि,' सच्चे साधक धक्का खाते और चमचे मज़े उड़ाते हैं'। फिर समाज-देश में क्यों न अफरा-तफरी और बद- अमनी हो।

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 *49 वर्ष पूर्व अर्थशास्त्र विषय का अध्यन करने के दौरान जो नियम ज्ञात हुये उनको समाज में आज हर क्षेत्र में लागू होता देखा जा रहा है। एक है ग्रेशम का सिद्धान्त जिसके अनुसार  " खराब 'मुद्रा' अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है "। उसी प्रकार समाज में खराब लोग हावी रहते हैं और अच्छे लोगों को व्यवहार से दूर कर देते हैं।
 *दूसरा है 'उपयोगिता का सिद्धान्त ' जिसके अनुसार किसी भी वस्तु की उपयोगिता सदा एक सी नहीं बनी रहती है और उस वस्तु का मूल्य उसकी उपयोगिता के अनुसार ही तय होता है।
* तीसरा सिद्धान्त ' मांग और आपूर्ती ' का है जिसके अनुसार वस्तु की मांग अधिक होने व आपूर्ती कम होने पर मूल्य अधिक व मांग कम होने एवं आपूर्ती अधिक होने पर मूल्य कम हो जाता है।

लेकिन सामाजिक/व्यावहारिक जीवन में ' खराब मुद्रा' वाला सिद्धान्त 'उपयोगिता ' तथा 'मांग व आपूर्ती ' वाले सिद्धांतों पर भारी पड़ता है। खराब चलन के लोग कृत्रिम रूप से तिकड़म द्वारा अच्छे चलन वालों को निकृष्ट घोषित करा देते हैं जिससे  उनकी उपयोगिता कम हो जाती है और समाज में उनका मूल्य भी कम आँका जाता है। सामान्य सामाजिक जीवन में इन प्रक्रियाओं पर ध्यान न दिये जाने के कारण राजनीतिक जीवन में भी इनकी पुनरावृति होती है जिसका समाज पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ता है।

अहंकार ग्रस्त राजनीतिज्ञ चापलूसी को अधिक महत्व देते हैं न की योगिता की उपयोगिता को। परिणाम स्वरूप राजनीति व समाज को तो हानि पहुँचती ही है परंतु अंततः उन राजनीतिज्ञों को भी कालांतर में इसके दुष्परिणाम भोगने पड़ जाते हैं। चतुर व बुद्दिमान राजनीतिज्ञ भूल सुधार लेते हैं किन्तु अहंकार ग्रस्त राजनीतिज्ञों को अपनी भूल का एहसास होता ही नहीं है और वे चापलूसों से ही घिरे रह कर व्यर्थ के दोषारोपण सहते रहते हैं बनिस्बत सुधार कर लेने के।

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सोमवार, 21 मार्च 2016

'होली ' क्या थी और क्या हो - ली ? ------ विजय राजबली माथुर

हमारे देश में आजकल दो प्रकार के प्रचलित मत हैं ।  एक तो ढोंगवाद/ब्रहमनवाद का पक्षधर है जो अपनी गढ़ी हुई पौराणिकताओं के भंवर जाल में फंसा कर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ता आ रहा है। दूसरा नास्तिक/मूलनिवासी पक्ष जो ढोंगवाद के आधार पर ही उसे गलत ढंग से चुनौती देने की कोशिश करता प्रतीत होता है परंतु वास्तव में वह भी ढोंगवाद को ही परिपुष्ट करता जाता है। मैं अपने ब्लाग्स के माध्यम से समय-समय पर वास्तविकताओं को प्रकाश में लाने का प्रयास तो करता रहता हूँ जिस पर एक-दूसरे का विपरीत कहलाने वाले पक्ष मिल कर प्रहार करते रहते हैं। प्रस्तुत टिप्पणी पर मैंने जो टिप्पणी की थी उसे पूर्णतया स्पष्ट करने हेतु अपने पूर्व -प्रकाशित लेख को पुनर्प्रकाशित कर रहा हूँ :


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Friday, March 18, 2011
होली मुबारक

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प्रति वर्ष हर्षोल्लास के साथ होली पर्व हम  सभी मनाते हैं.इस होली पर हम सब आप सब को बहुत-बहुत मुबारकवाद देते हैं.तमाम तरह की बातें तमाम दन्त-कथाएं होली के सम्बन्ध में प्रचलित हैं.लेकिन वास्तव में हम होली क्यों मनाते हैं.HOLY =पवित्र .जी हाँ होली पवित्र पर्व ही है.जैसा कि हमारे कृषी-प्रधान देश में सभी पर्वों को फसलों के साथ जोड़ा गया है उसी प्रकार होली भी रबी की फसल पकने पर मनाई जाती है.गेहूं चना जौ आदि की बालियों को अग्नि में आधा पका कर खाने का प्राविधान है.दरअसल ये अर्ध-पकी बालियाँ ही 'होला' कहलाती है संस्कृत का 'होला' शब्द ही होली का उद्गम है.इनके सेवन का आयुर्वेदिक लाभ यह है कि आगे ग्रीष्म काल में 'लू' प्रकोप से शरीर की रक्षा हो जाती है.वस्तुतः होली पर्व पर चौराहों पर अग्नि जलाना पर्व का विकृत रूप है जबकि असल में यह सामूहिक हवन(यज्ञ) होता था.विशेष ३६ आहुतियाँ जो नयी फसल पकने पर राष्ट्र और समाज के हित के लिए की जाती थीं और उनका प्रभाव यह रहता था कि न केवल अन्न धन-धान्य सर्व-सुलभ सुरक्षित रहता था बल्कि लोगों का स्वास्थ्य भी संरक्षित होता था.लेकिन आज हम कर क्या रहे है.कूड़ा-करकट टायर-ट्यूब आदि हानिकारक पदार्थों की होली जला रहे हैं.परिणाम भी वैसा ही पा रहे हैं.अग्निकांड अति वर्षा, बाढ़-सूखा, चोरी -लूट, विदेशों को अन्न का अवैद्ध परिगमन आदि कृत गलत पर्व मनाने का ही दुष्फल हैं.संक्रामक रोग और विविध प्रकोप इसी का दुष्परिणाम हैं.

इस पर्व के सम्बन्ध में हमारे पोंगा-पंथी बन्धुओं ने 'प्रह्लाद' को उसके पिता द्वारा उसकी भुआ के माध्यम से जलाने की जो कहानी लोक-प्रिय बना रखी है उसके वैज्ञानिक मर्म को समझने तथा मानने की आवश्यकता है न कि बहकावे में भटकते रहने की.लेकिन बेहद अफ़सोस और दुःख इस बात का है कि पढ़े-लिखे विद्व-जन भी उसी पाखंड को पूजते एवं सिरोधार्य करते हैं,सत्य कथन/लेखन को 'मूर्खतापूर्ण कथा' कह कर उपहास उड़ाते हैं और लोगों को जागरूक नहीं होने देना चाहते हैं.इसी विडम्बना ने हमारे देश को लगभग हजार वर्षों तक गुलाम बनाये रखा और आज आजादी के 68  वर्ष बाद भी देशवासी उन्हीं पोंगा-पंथी पाखंडों को उसी प्रकार  चिपकाये हुए हैं जिस प्रकार बन्दरिया अपने मरे बच्चे की खाल को चिपकाये  फिरती रहती है.


'श्री मद देवी भागवत -वैज्ञानिक व्याख्या' में पहले ही स्पष्ट किया गया है-हिरण्याक्ष और हिरणाकश्यप कोई व्यक्ति-विशेष नहीं थे.बल्कि वे एक चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जो पहले भी थे और आज भी हैं और आज भी उनका संहार करने की आवश्यकता है .संस्कृत-भाषा में हिरण्य का अर्थ होता है स्वर्ण और अक्ष का अर्थ है आँख अर्थात वे लोग जो अपनी आँखे स्वर्ण अर्थात धन पर गडाये रखते हैं हिरण्याक्ष कहलाते हैं.ऐसे व्यक्ति केवल और केवल धन के लिए जीते हैं और साथ के अन्य मनुष्यों का शोषण  करते हैं.आज के सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि उत्पादक और उपभोक्ता दोनों का शोषण करने वाले व्यापारी और उद्योगपति गण ही हिरण्याक्ष  हैं.ये लोग कृत्रिम रूप से वस्तुओं का आभाव उत्पन्न करते है और कीमतों में उछाल लाते है वायदा कारोबार द्वारा.पिसती है भोली और गरीब जनता.



एक और   तो ये हिरण्याक्ष लोग किसान को उसकी उपज की पूरी कीमत नहीं देते और उसे भूखों मरने पर मजबूर करते हैं और दूसरी और कीमतों में बेतहाशा वृद्धी करके जनता को चूस लेते हैं.जनता यदि विरोध में आवाज उठाये तो उसका दमन करते हैं और पुलिस -प्रशासन के सहयोग से उसे कुचल डालते हैं.यह प्रवृति सर्व-व्यापक है -चाहे दुनिया का कोई देश हो सब जगह यह लूट और शोषण अनवरत हो रहा है.
'कश्यप'का अर्थ संस्कृत में बिछौना अर्थात बिस्तर से है .जिसका बिस्तर सोने का हो वह हिरण्यकश्यप है .इसका आशय यह हुआ जो धन के ढेर पर सो रहे हैं अर्थात आज के सन्दर्भ में काला व्यापार करने वाला व्यापारी और घूसखोर अधिकारी (शासक-ब्यूरोक्रेट तथा भ्रष्ट नेता दोनों ही) सब हिरण्यकश्यप हैं.सिर्फ ट्यूनीशिया,मिस्त्र और लीबिया के ही नहीं हमारे देश और प्रदेशों के मंत्री-सेक्रेटरी आदि सभी तो हिरण्य कश्यप हैं.प्रजा का दमन करना उस पर जुल्म ढाना यही सब तो ये कर रहे हैं.जो लोग उनका विरोध करते हैं प्रतिकार करते है सभी तो उनके प्रहार झेलते हैं.

अभी 'प्रहलाद' नहीं हुआ है अर्थात प्रजा का आह्लाद नहीं हुआ है.आह्लाद -खुशी -प्रसन्नता जनता को नसीब नहीं है.करों के भार से ,अपहरण -बलात्कार से,चोरी-डकैती ,लूट-मार से,जनता त्राही-त्राही कर रही है.आज फिर आवश्यकता है -'वराह अवतार' की .वराह=वर+अह =वर यानि अच्छा और अह यानी दिन .इस प्रकार वराह अवतार का मतलब है अच्छा दिन -समय आना.जब जनता जागरूक हो जाती है तो अच्छा समय (दिन) आता है और तभी 'प्रहलाद' का जन्म होता है अर्थात प्रजा का आह्लाद होता है =प्रजा की खुशी होती है.ऐसा होने पर ही हिरण्याक्ष तथा हिरण्य कश्यप का अंत हो जाता है अर्थात शोषण और उत्पीडन समाप्त हो जाता है.


अब एक कौतूहल यह रह जाता है कि 'नृसिंह अवतार' क्या है ? खम्बा क्या है?किसी चित्रकार ने समझाने के लिए आधा शेर और आधा मनुष्य वाला चित्र बनाया होगा.अगर आज हमारे यहाँ ऐसा ही होता आ रहा है तो इसका कारण साफ़ है लोगों द्वारा हकीकत को न समझना.बहरहाल हमें चित्रकार के मस्तिष्क को समझना और उसी के अनुरूप व्याख्या करना चाहिए.'खम्बा' का तात्पर्य हुआ उस जड़ प्रशासनिक व्यवस्था से जो जन-भावनाओं को नहीं समझती है और क्रूरतापूर्वक उसे कुचलती रहती है.जब शोषण और उत्पीडन की पराकाष्ठा हो जाती है ,जनता और अधिक दमन नहीं सह पाती है तब क्रांति होती है जिसके बीज सुषुप्तावस्था में जन-मानस में पहले से ही मौजूद रहते हैं.इस अवसर पर देश की युवा शक्ति सिंह -शावक की भाँती ही भ्रष्ट ,उत्पीड़क,शोषक शासन-व्यवस्था को उखाड़ फेंकती है जैसे अभी मिस्त्र और ट्यूनीशिया में आपने देखा-सुना.लीबिया में जन-संघर्ष चल ही रहा है.१७८९ ई. में फ़्रांस में लुई १४ वें को नेपोलियन के नेतृत्व में जनता ने ऐसे ही  उखाड़  फेंका था.अभी कुछ वर्ष पहले वहीं जेनरल डी गाल की तानाशाही को मात्र ८० छात्रों द्वारा पेरिस विश्वविद्यालय से शुरू आन्दोलन ने उखाड़ फेंका था.इसी प्रकार १९१७ ई. में लेनिन के नेतृत्व में 'जार ' की जुल्मी हुकूमत को उखाड़ फेंका गया था. १८५७ ई. में हमारे देश के वीरों ने भी बहादुर शाह ज़फ़र,रानी लक्ष्मी बाई ,तांत्या टोपे,अवध की बेगम आदि-आदि के नेतृत्व में क्रांति की थी लेकिन उसे ग्वालियर के  सिंधिया,पजाब के सिखों ,नेपाल के राणा आदि की मदद से साम्राज्यवादियों ने कुचल दिया था.कारण बहुत स्पष्ट है हमारे देश में पोंगा-पंथ का बोल-बाला था और देश में फूट थी.इसी लिए 'प्रहलाद' नहीं हो सका.


आज के वैज्ञानिक प्रगति के युग में यदि हम ढकोसले,पाखण्ड आदि के फेर से मुक्त हो सकें सच्चाई  को समझ सकें तो कोई कारण नहीं कि आज फिर जनता वैसे ही आह्लादित न हो सके.लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश में आज स्वंयभू भगवान् जो अवतरित हो चुके है (ब्रह्माकुमारी,आनंद मार्ग,डिवाईन लाईट मिशन,आशाराम बापू,मुरारी बापू ,गायत्री परिवार, साईं बाबा ,राधा स्वामी  आदि -आदि असंख्य) वे जनता को दिग्भ्रमित किये हुए हैं एवं वे कभी नहीं चाहते कि जनता जागे और आगे आकर भ्रष्ट व्यवस्था को उखाड़ फेंके.


विकृति ही विकृति-होली के पर्व पर आज जो रंग खेले जा रहे हैं वे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं जबकि रंग खेलने का उद्देश्य स्वास्थ्य रक्षा था.टेसू (पलाश) के फूल रंग के रूप में इस्तेमाल करते थे जो  रोगों से त्वचा की रक्षा करते थे और आने वाले प्रचंड ताप के प्रकोप को झेलने लायक बनाते थे.पोंगा-पंथ और  पाखण्ड वाद ने यह भी समाप्त कर दिया एवं खुशी व उल्लास के पर्व को गाली-गलौच का खेल बना दिया. जो लोग व्यर्थ दावा करते हैं  -होली पर सब चलता है वे अपनी हिंसक और असभ्य मनोवृतियों को रीति-रस्म का आवरण पहना देते हैं. आज चल रहा फूहण पन भारतीय सभ्यता के सर्वथा विपरीत है उसे त्यागने की तत्काल आवश्यकता है.काश देशवासी अपने पुराने गौरव को पुनः  प्राप्त करना चाहें !


आप सभी को एक बार फिर से  सपरिवार होली मुबारक.

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फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणी :
06 मार्च 2015-
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22-03-2016 

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