शनिवार, 16 जुलाई 2016

सत्य कहने - मानने का साहस सब में नहीं होता ------ विजय राजबली माथुर



*चौधरी चरण सिंह जी जिस मेरठ कालेज,मेरठ के छात्र रहे उसी कालेज का 1969-71 मैं भी छात्र रहा हूँ। हमारे सोशियोलाजी के एक प्रोफेसर साहब जो चौधरी साहब की जाति से ही संबन्धित थे और चौधरी साहब के नाम से मशहूर थे तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह जी के कई कार्यों की सामाजिक समीक्षा किया करते थे , हालांकि यह कोर्स से हट कर होती थी। उनके अनुसार छपरौली में चौधरी चरण सिंह के कार्यकर्ता दलित बस्तियों को घेर कर उन लोगों को निकलने नहीं देते थे और उनके वोट चौधरी साहब को डाल लिए जाते थे। अखबारों की सुर्खियों में रहता था चौधरी साहब को दलितों का भरपूर समर्थन।
*इस वक्त भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल उस वक्त के SYS (समाजवादी युवजन सभा ) नेता और मेरठ कालेज छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष रहे सतपाल मलिक साहब जिनकी दौराला की शुगर फेक्टरियों से चौधरी चरण सिंह जी को भरपूर चन्दा मिलता था उनके छात्रसंघ 'एच्छिक' किए जाने के निर्णय से क्षुभ्ध होकर उनको चप्पलों की माला पहनाने की घोषणा कालेज कैंपस में कर गए थे।
*मुख्यमंत्री रहते ही चरण सिंह जी एक बार मेरठ के तत्कालीन जज जगमोहन लाल सिन्हा साहब के पास घर पर किसी केस के सिलसिले में पहुंचे थे। सिन्हा साहब ने अर्दली से पुछवाया था कि, पूछो चौधरी चरण सिंह मिलना चाहते हैं या मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह। चौधरी साहब ने जवाब भिजवाया था कि, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह जज साहब से मिलना चाहते हैं।  सिन्हा साहब ने बगैर मिले ही उनको लौटा दिया था यह कह कर कि, उनको मुख्यमंत्री से नहीं मिलना है। केस का निर्णय चौधरी साहब के चहेते के विरुद्ध आया था । सिन्हा साहब को एहसास था कि उसी की सिफ़ारिश मुख्यमंत्री करना चाहते थे जिस कारण वह उनसे नहीं मिले थे। 1975 में इन सिन्हा साहब ने ही इलाहाबाद हाई कोर्ट में इन्दिरा गांधी के निर्वाचन के विरुद्ध निर्णय दिया था।
*संविद सरकार ने चौधरी चरण सिंह के स्थान पर  राज्यसभा सदस्य त्रिभुवन नारायण सिंह जी (लाल बहादुर शास्त्री जी के मित्र और वैसे ही ईमानदार ) को मुख्यमंत्री बना लिया था। उनको छह माह के भीतर विधायक बनना था गोरखपुर के मनीराम क्षेत्र से उनको उप चुनाव लड़ना था। कांग्रेस ने अमर उजाला केअलीगढ़ स्थित पत्रकार  राम कृष्ण दिवेदी को खड़ा किया था चौधरी चरण सिंह जी ने गुपचुप उनको समर्थन दिला दिया और अपने मोर्चे के उम्मीदवार टी एन सिंह को हरवा दिया वह त्याग-पत्र देकर वापस राज्यसभा चले गए।
*1971 के लोकसभा के मध्यवधी चुनाव में चौधरी चरण सिंह शामली संसदीय क्षेत्र से प्रत्याशी थे उनके विरुद्ध भाकपा के ठाकुर विजय पाल सिंह खड़े थे। चौगटा मोर्चे का भी प्रत्याशी मैदान में था लेकिन उसके वोट कम्युनिस्ट विजयपाल सिंह जी को डलवाए गए और चौधरी चरण सिंह जी को हरवा दिया गया। तब जनसंघ के ए बी बाजपेयी साहब ने खुल्लमखुल्ला कहा था कि, हमने मनीराम की हार का बदला ले लिया।
*1977  में जब  बाबू जगजीवन राम को पी एम बनाने का सवाल आया था चौधरी चरण सिंह जी अड़ गए थे कि वह दलित प्रधानमंत्री नहीं कुबूल करेंगे जिस कारण फिर मोरारजी देसाई  पी एम बने थे और जब 1979 में उनके बाद फिर से बाबू जगजीवन राम जी का नाम आया तब चंद्रशेखर जी उनको न बनाने के लिए अड़ गए थे जिससे चौधरी चरण सिंह जी इन्दिरा जी के समर्थन से पी एम बन सके थे।



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54 वर्ष पूर्व 1962 में छोटी दिवाली के रोज़ हमारे 'रूक्स हायर सेकेन्डरी स्कूल,' बरेली कैंट जो अब 'रवीन्द्रनाथ टैगोर इंटर कालेज ' के नाम से जाना जाता है में हमारी कक्षा V I की छात्राओं से कक्षाध्यापक दीनानाथ जी द्वारा 'धर्मयुग' में प्रकाशित एक नाटक का मंचन करवाया  गया था जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ थीं ---" अमर सिंह तो मर गया, लक्ष्मी होकर करें मजूरी "।

भले ही यह एक व्यंग्य संगीत नाटिका हो किन्तु इसके द्वारा इस कटु  'सत्य ' को उजागर किया गया था कि, इस संसार में लोगों के नाम से भ्रम हो सकता है उसके अनुरूप वे होते नहीं हैं। प्रस्तुत फोटो द्वारा आरोप लगाने वाले प्रिंसपल साहब इसका ज्वलंत उदाहरण हैं जिनकी सत्य से मित्रता तो दूर-दूर तक नहीं ही है।जब कोई विख्यात हो जाता है तो समझने लगता है कि, वह जो भी झूठ परोस देगा उसे लोग उसकी ख्याति व उम्र के चलते सत्य ही मान लेंगे। इसी कारण आईने में अपना ही चेहरा देख कर दूसरे पर निराधार आरोप मढ़ दिया और जब इरादतन ऐसा किया गया हो तब खेद या पश्चाताप का प्रश्न ही कहाँ उठता है?

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फेसबुक पर अक्सर कुछ लोग अपनी पोस्ट को लाईक करने व शेयर करने का अनुरोध करते दिखते हैं जबकि ऐसे लोग खुद दूसरों की पोस्ट शायद न ही शेयर करते हैं और न ही लाईक। लेकिन इसके विपरीत जब किसी विद्वान की अच्छी पोस्ट पर कुछ कमेन्ट करते हैं तब पोस्ट लेखक तो उसे लाईक करते हैं जबकि,मिश्रा,तिवारी,त्रिपाठी,पाण्डेय उपजाति के ब्राह्मण बेवजह कूद कर अनर्गल टिप्पणियाँ कर देते हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि, एक अच्छे पोस्ट पर भी कोई कमेन्ट अहंकारी लोगों की अनर्गल टिप्पणियों से बचने हेतु न किया जाये। 
यदि किसी अच्छी पोस्ट को ब्लाग में स्थान दिया है तो अधिकांश प्रख्यात विद्वानों ने उसे पसंद किया है। किन्तु यदि किसी को महत्व दे दिया जाये और वह पूर्व ख्याति प्राप्त नहीं है न ही वह दूरदृष्टा निकले तो उसके दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच जाते हैं। तब ऐसी पोस्ट को हटाना ही श्रेयस्कर रहता है।
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शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

डाक्टर्स डे पर कुछ चिकित्सकों का ज़िक्र ------ विजय राजबली माथुर



यों तो समय समय पर अनेक चिकित्सक संपर्क में आते ही रहते हैं किन्तु जिनसे कुछ व्यक्तिगत आधार पर निजत्व रहा उनमें से ही जिनकी कुछ खास बातें याद हैं उनका ही उल्लेख हो सकेगा।
डॉ रामनाथ :
सबसे पहले डॉ रामनाथ का ज़िक्र करना चाहूँगा जो होटल मुगल,आगरा में हमारे  एक साथी के सहपाठी थे। उनसे मित्रवत ही मुलाक़ात हुई थी। माता जी के इलाज के लिए उनसे सलाह व दवा भी लेने लगे थे।  :उनके परामर्श  और सहयोग पर ही मैंने आयुर्वेद रत्न किया तथा वैद्य के रूप में RMP रेजिस्ट्रेशन भी करवाया। हालांकि वह तो इसी रेजिस्ट्रेशन पर एलोपैथी की ही ज़्यादा प्रेक्टिस करते थे। एलोपैथी व आयुर्वेदिक औषद्धियों दोनों का ही अध्यन कोर्स में किया भी था। किन्तु मेरी दिलचस्पी व जानकारी  होम्योपैथी औषद्धियों की अधिक थी/है। अतः मैंने प्रेक्टिस तो नहीं की किन्तु आयुर्वेदिक व होम्योपैथी उपचार परिचितों को बताता रहा।
सरोजनी नायडू मेडिकल कालेज,आगरा के एक पूर्व चिकित्सक जिनका नर्सिंग होम हमारी कालोनी में ही था चाहते थे कि, मैं घर पर क्लीनिक खोल लूँ और क्रटिकल केस उनको रेफर करता रहूँ औरों की भांति मुझे कमीशन मिलता रहेगा। परंतु इस प्रकार धनार्जन मैं कर ही नहीं सकता था अतः उनके प्रस्ताव पर अमल नहीं किया।
इन्ही रामनाथ जी के पिताजी (कालीचरण वैद्य जी ) से एक बार माँ की दवा लेकर उनको पैसे दे आया था। अगले दिन फिर जाने पर पहले तो उन्होने वे पैसे लौटाए और फिर कहा कि तुम मेरे बेटे के मित्र हो तुमने हिम्मत कैसे की पैसे देने की और हिदायत दी कि आगे से दवा ले जाओ पैसे न दो। ज़्यादा पुरानी बात नहीं है सिर्फ 36 वर्ष पूर्व 1980 की बात है यह। लेकिन अब तो अपनी तीन-तीन जन्म पत्रियों का निशुल्क विश्लेषण प्राप्त करने वाले डॉ ज़रूरत पर सलाह मांगने पर चुप्पी साध लेते है। 36 वर्षों में चरित्र इतने बदल गए हैं।

डॉ डी मिश्रा :
इन डॉ रामनाथ जी के क्लीनिक के सामने ही डॉ डी मिश्रा साहब ने अपना होम्योपैथी का क्लीनिक खोला था और उनसे परिचय रामनाथ जी की मार्फत ही हुआ था। डॉ मिश्रा सिर्फ डॉ रामनाथ का मित्र होने के नाते मुझे जानते थे उनको मेरी होम्योपैथी में दिलचस्पी और आयुर्वेद रत्न होने की जानकारी नहीं थी। एक बार उनके कंपाउंडर जो डॉ रामनाथ के ही सहपाठी भी थे अपने पिता जी के निधन के कारण बंगलौर गए तब उनके स्थान पर  उनके आने तक डॉ मिश्रा ने मेरा सहयोग लिया था। इस दौरान उनकी कलाकारियों से परिचित होने के कई अवसर प्राप्त हुये। वैसे डॉ मिश्रा पाईलट आफ़ीसर थे और होटल क्लार्क शीराज, आगरा के पूर्व जेनरल मेनेजर के पुत्र थे। लंदन की उड़ानों के दौरान वहाँ की किसी होम्योपैथिक संस्था से रेजिस्ट्रेशन करवाकर वह होम्योपैथ चिकित्सक बन गए थे। अपने पिताजी के लकवाग्रस्त होने पर इंडियन एयर लाईन्स की सेवा जल्दी ही छोड़ दी थी । प्रारम्भ में वह सुबह हाथरस में और शाम को आगरा में प्रेक्टिस करते थे। फिर हाथरस जाना बंद कर दिया था। 
एक दिन किसी बच्चे के पेट में तीव्र दर्द होने के कारण उन्होने रेक्टीफ़ाईड स्प्रिट में मिला कर एलोपैथी की पिप्टाल के ड्राप्स देकर शीघ्र राहत प्रदान की थी। बाद में मेरे पूछने पर बोले बिजनेस में थोड़ा-बहुत इम मोरेल होना पड़ता है। अर्थात चिकित्सक का पेशा वह बतौर बिजनेस कर रहे थे। 
एक दिन मेहरा आफ़सेट प्रेस के श्याम मेहरा साहब जो उनके क्लब के साथी थे अपनी श्रीमती जी  के साथ उन की दवा लेने आए हुये थे अपनी कुछ समस्या भी बताने लगे। डॉ मिश्रा ने मुझसे कहा माथुर साहब श्याम बाबू को BG की एक डोज़ दे दो। मैंने सादी  गोलियों की पुड़िया दे दी। थोड़ी देर में उन्होने श्याम बाबू से पूछा कुछ राहत है? वह बोले हाँ थोड़ा ठीक है, डॉ मिश्रा ने उनको थोड़ी देर और रुकने को कहा उसके बाद ही कार ड्राइव करना ठीक रहेगा। जब वह चले गए तब मैंने डॉ मिश्रा से पूछा कि, BG(ब्लैंक  ग्लोबल्स ) अर्थात सादी  गोलियों से मेहरा साहब को फायदा कैसे हो गया? तब डॉ मिश्रा का जवाब था कि, उनको हुआ ही क्या था? वह तो अपनी मिसेज को यह जतलाना चाहते थे कि, वह भी बीमार हैं जिससे वह अपनी बीमारी का गम भूल जाएँ। तो यह था डॉ मिश्रा का साइक्लोजिकल ट्रीटमेंट। 
डॉ खेमचंद खत्री :
डॉ के सी खत्री, होम्योपैथ से व्यक्तिगत परिचय उन साथी की मार्फत ही हुआ था जिनके मार्फत डॉ रामनाथ से परिचय हुआ था। वैसे डॉ खत्री को मैं इसलिए जानता था कि, वह पहले डॉ पारीक के स्टोर्स में कार्यरत थे और मैं वहाँ से होम्योपैथी दवाएं खरीदता था। फिर डॉ खत्री के स्टोर्स से लेने लगा। हालांकि डॉ खत्री खुद दयालबाग के राधास्वामी सत्संग के सेक्रेटरी थे और उनको मेरे कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध होने की जानकारी थी किन्तु व्यक्तिगत स्तर पर मधुर संबंध रहे। जब उनके दामाद साहब का स्टोर दयालबाग में खुल गया तब नजदीक होने के कारण उनसे दवाएं खरीदने लगे। वहाँ डॉ खत्री आते रहते थे और उनसे मुलाक़ात होती रहती थी। उनके दामाद डॉ डी डी पाराशर तो मुझे गुरु जी कहते थे और काफी सम्मान देते थे। आगरा छोडने तक इन दोनों से संपर्क बना रहा था।   

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