बुधवार, 27 मार्च 2013

नाना जी की कुछ स्मृतियाँ ---विजय राजबली माथुर

( स्व डॉ राधे मोहन लाल माथुर सुपुत्र स्व श्याम सुंदर लाल माथुर )
जैसा कि हमने बचपन से सुना है कि हमारे नानजी का जन्म 01 जनवरी 1900 ई को हुआ था। उनका निधन तो 27 मार्च 1979 ई को हुआ था ,आज यह वर्णन उनकी पुण्य तिथि के अवसर पर उनकी स्मृति मे उनको ही समर्पित है ---

हमारे नानाजी अपने जीवित रहे तीन बच्चों मे हमारी माँ जो बीच की थीं को ज़्यादा मानते थे। इसी प्रकार माँ के तीनों बच्चों मे बीच के हमारे भाई अजय को ज़्यादा मानते थे। ऐसा किसी दूसरे का अनुमान नहीं उन्होने खुद ही कहा था। हमारी माँ भी नाना जी का पूरा ख्याल रखती थीं किन्तु अजय के विचारों के बारे मे मैं कुछ भी कह सकने मे अक्षम हूँ।

माँ की शादी के बाद जब बाबूजी दरियाबाद मे मर्ज़ी मुताबिक खेती देखने की इच्छा बाबाजी के (बड़े ताऊजी के पक्ष मे)निर्णय के कारण पूरी न कर सके तो एम ई एस मे नौकरी करने लखनऊ आ गए थे। मामाजी रिसर्च के लिए आस्ट्रेलिया गए हुये थे तो नानाजी ने न्यू हैदराबाद मे ही उनके साथ टिकने का आग्रह किया था। अतः बेहद छुटपन मे भी हमे नानाजी के साथ रहने का अवसर मिला है। नानाजी तब कृषि विभाग मे नौकरी करते थे। माँ से सुना था कि नानाजी एक बूंदी का लड्डू रोजाना लाकर मुझे दिया करते थे। माँ के कहे मुताबिक मैं नानाजी की  साईकिल घर के  ऊपर चढ़ते ही उनके पास आकर कहता था "नाना जी --लड्डू" और नानाजी झोले से निकाल कर वह लड्डू मुझे दे देते थे। माँ ने बताया है तो ऐसा उस समय मेरा स्वभाव रहा होगा किन्तु अपनी याद दाश्त के समय से तो मैं किसी से भी कुछ मांगता ही नहीं था और खुद देने पर भी बड़ी मुश्किल से ही लेता था। नाना जी के बाद वाले उनके भाई जिनको हम लोग बड़े नाना जी कहते थे हम लोगों की शिकायत खुद हमारी माँ से करते थे कि तुमने इन बच्चों को कैसी आदत डाली है ये कभी हमसे कुछ मांगते ही नहीं दो तो भी नखरे दिखाते हैं। खैर दो -ढाई साल की उम्र मे मेरा वैसा स्वभाव रहा होगा तो मुझे खुद उसकी याद नहीं है।

नाना जी जब बनारस यूनीवर्सिटी से होम्योपैथी पढ़ने विभाग से छुट्टी लेकर गए थे तब उनके भांजे (गोपाल मामाजी) लखनऊ यूनिवर्सिटी के हास्टल मे रहने चले गए थे जो वहाँ से LLb कर रहे थे। नानाजी जब बनारस से आए तो उनसे मिलने एक रोज़ सुबह-सुबह गए थे साथ मे मुझे भी ले गए थे तब शायद 4 या साढ़े चार वर्ष का रहा हूंगा। पैदल ही न्यू हैदराबाद से यूनिवर्सिटी गए थे तब बीच से पुलिस लाईन होकर गए थे। आज की तरह तब पुलिस लाईन प्रवेश कोई समस्या नहीं थी। IT कालेज चौराहे से सिटी बस पकड़ने के लिए भी पुलिस लाईन होकर निकल जाते थे -बहुत अच्छे तरीके से मुझे याद है। गोपाल मामाजी ने बेचने आए फेरी वाले से केले लेकर मुझे एक खाने को दिया तब भी मैंने लेने से इंकार ही किया था और फिर नानाजी के ''ले लो " कहने पर ही लिया और खाया था।

बाद मे दुगांवा मे कुछ दिन रहने के बाद हम लोग हुसैन गंज मे नाले के किनारे वाले 'फखरुद्दीन मंज़िल'के नीचे के हिस्से मे रहने लगे थे। नानाजी अक्सर हम लोगों से मिलने आ जाते थे और हम लोग भी न्यू हैदराबाद मामाजी/नानाजी से मिलने जाते रहते थे। शुरू शुरू मे बाबूजी का वोटर लिस्ट मे नाम न्यू हैदराबाद मे ही था। अतः 1957 के आम चुनाव मे वोट डालने बाबूजी न्यू हैदराबाद ही गए थे। नाना जी की तो ड्यूटी भी उनके घर के सामने वाले पार्क मे ही थी। शाम को ड्यूटी से लौट कर नानाजी ने बाबूजी को बताया था कि उनके एक साथी ने ड्यूटी पर क्या कारस्तानी की थी। तब उम्मीदवारों के चुनाव निशान के साथ उनके अलग-अलग बाक्स होते थे और जिस बाक्स मे से वोट के पर्चे निकलते थे उसी उम्मीदवार के पक्ष मे गिने जाते थे। दो बैलों की जोड़ी के बाक्स मे कुछ वोट के पर्चे पूरे अंदर नही जा पाये थे और नानाजी उनको अंदर करने लगे तो उनके दूसरे साथी ने आ कर उनसे कहा-"क्या गजब करते हो?" और बाहर को लटकते हुये पर्चे खींच कर 'हंसिया और गेंहू की बाली' वाले लाल बाक्स मे डाल दिये। शायद नाना जी की अपनी विचार धारा 'जनसंघ' के पक्ष मे थी किन्तु ड्यूटी के अनुसार वह कांग्रेस के पर्चे उसके बाक्स मे ठीक से डालने जा रहे थे जबकि उनके दूसरे साथी ने ड्यूटी ठीक से नहीं निभाई थी।

गुड़ियों के मेले (नाग पंचमी)के दिन एक बार जोरदार बारिश हुई और सारा मेला गड़बड़ा गया था। खादी  आश्रम/विजय मेडिकल हाल के सामने वाली सड़कों  की पटरी पर मिट्टी के खिलौने बेचने वालों के बहुत से खिलौने पानी मे बह-बह कर हमारे घर के सामने की सड़क से होते हुये नाले मे समा गए थे। ऐसे मे नानाजी सब्जी वाले की दुकान पर रुक गए थे जो हम लोगों से मिलने आ रहे थे। उस समय सड़क पर कमर तक पानी हमारे घर के सामने भरा था। जब पानी एडी तक रह गया तब नाना जी हमारे घर पहुंचे और बाबूजी भी बाद मे आ पाये। नाना जी तब हमारी माँ या दिल्ली मे मौसी के घर बिना पैसे दिये कुछ नहीं खाते थे। उनको पैसे न खर्च करने पड़े इसलिए माँ भी उनको चाय वगैरह को नहीं पूंछती थी परंतु पानी मे इतना भीग जाने के कारण नानाजी को गरम चाय बना कर दी। उस समय हमारे माता-पिता केवल सुबह एक बार ही चाय पीते थे और हम बहन-भाई को तो चाय देने का कोई सवाल ही नहीं था जैसा कि आजकल नन्हें-मुन्ने को भी बोतल के जरिये चाय देने का चलन देखते हैं तब कोई ऐसा सोच भी नहीं सकता था।

1960 मे जब पीलीभीत बांध से गोमती मे ज़्यादा पानी छोड़ दिया गया था और बाढ़ आना निश्चित था तो नाना जी अपने दफ्तर से सीधे माँ को यह बताने आए थे कि बाढ़ के बाद ही अब वहाँ आना और वह भी तभी दोबारा आ पाएंगे। बाबूजी के दफ्तर से आने तक नाना जी रुके रहे जिस कारण जब वह न्यू हैदराबाद पहुंचे तो घुटनों तक पानी पार करते हुये ही जाना पड़ा। मामाजी के घर के तीन तरफ पानी भर गया था और वहाँ नाव भी चली थी। नाले के मुहाने पर घर होने के बावजूद हम लोग सुरक्षित रहे बल्कि 06 सप्रू मार्ग से पानी मे घर घिर जाने पर भुआ-फूफाजी,दोनों भाई साहब सब हमारे घर ही शरण लेने आए थे। (उनमे छोटे वाले लाखेश भाई साहब जो कमलेश बाबू के अज़ीज़ों अज़ीज़ हैं हमारे घर से डेढ़ किलो मीटर की दूरी पर हैं लेकिन 'धन्ना सेठ' होने के कारण मुझसे मुंह सिकोड़े हुये हैं क्योंकि मैं गरीब मेहनतकश हूँ)।डॉ शोभा/कमलेश बाबू से वह फोन के माध्यम से संपर्क मे रहते हैं। उनसे बड़े भाई साहब तो शोभा की बेटी मुक्ता के ही शहर पूना मे लखनऊ से जाकर बस गए हैं। 

नानाजी समय से पूर्व रिटायरमेंट लेकर शाहजहाँपुर चले गए थे। वहाँ स्टेशन और टाउन हाल के निकट भारद्वाज कालोनी मे उन्होने अपना मकान बनवा लिया था। यह कालोनी पहले अमरूदों का बाग थी जो पाकिस्तान चले गए लोगों के स्वामित्व का था। कलेक्टर भारद्वाज साहब के प्रयास से उसे आवासीय कालोनी बना दिया गया था अतः उनके ही नाम पर यह कालोनी बनी। इसमे कुल 30 मकान बनाए गए थे। हमारे नानाजी के बाद के दो भाइयों को छोड़ कर उनके बाद के दो भाइयों ने भी उनके साथ-साथ मकान बनाए थे जो तीनों लगातार एक साथ हैं। पांचों भाइयों मे एकजुटता थी और जानते हुये भी किसी ने (जिन्होने मकान नहीं बनाए थे ने  भी) अपने पिताजी को ज़मीन खरीदने की सूचना नहीं दी थी क्योंकि वह मकान-ज़मीन को झगड़े का साधन मानते थे। उनके बाद ही सबने मकान बनाए थे। मामाजी की शादी के बाद तक वह जीवित थे और उन्होने मौसी के तीन बच्चों तथा हम दो भाइयों को भी देखा था। नानाजी ने उनका चित्र अन्य राम आदि के चित्रों के साथ अपने पूजा-स्थल पर रखा हुआ था। सुबह-शाम दोनों वक्त पौराणिक आधार पर नाना जी पूजा किया करते थे। 

अपने मकान मे नाना जी ने रहने पर दिल्ली से मौसी व लखनऊ से हमारी माँ को बुलाया था। मौसी पहले पहुँच गई थीं और हम लोग बाद मे पहुंचे थे। उनकी बड़ी बेटी (मिथ्थे जीजी )से नाना जी ने चटनी पीसने का आग्रह किया था तो उन्होने जवाब दिया था कि,नाना जी चटनी तो आपकी शोभा ही पीसेगी। नाना जी ने यह बात  बाद मे हमारी माँ से बताई थी। वही मिथ्थे जीजी और शोभा आज भोपाल मे अपने-अपने मकान बनाए हुये हैं और दोनों मे गहरी छन्न रही है। मुक्ता की शादी मे कानपुर मे सात वर्ष पूर्व मिली थीं। यशवन्त के बारे मे शोभा से जानकारी पूछती रहती हैं । 

नाना जी ने माँ से अजय को (जिसे वह सबसे ज़्यादा मानते थे)अपने पास शाहजहाँपुर मे छोडने को कहा था  
उन्होने तो मना कर दिया था  किन्तु मौसी ने अपने सबसे बड़े बेटे (लाल भाई साहब)को उनके पास छोड़ दिया था लेकिन उनके लगातार दो वर्ष हाई स्कूल मे फेल हो जाने पर नाना जी ने मौसाजी से अपने पास वापिस बुला लेने को कहा था। वह नानाजी का कहना नहीं मानते थे और उनके भाइयों के साथ शतरंज पर पढ़ाई छोड़ कर डटे रहते थे तो पास कहाँ से होते?नाना जी को यह बात नापसंद थी। आज शोभा और लाल भाई साहब मे भी गहरी छनती है।( लालभाई साहब भी कमलेश बाबू की ही तरह मेरे ज्योतिषीय ज्ञान का मखौल उड़ाते हैं क्योंकि मैं पोंगा-पंथ का खंडन करता हूँ और वह उसे पूजते हैं। अपनी बेटी की जन्मपत्री को मेरे द्वारा गलत बताए जाने पर वह भड़क गए थे और मुझे आगरा यूनिवर्सिटी से ज्योतिष का कोर्स करने की हिदायत दी थी।लेकिन मेरे द्वारा बनाई जन्मपत्री और बताए गए समय पर ही उनकी बेटी की शादी हुई उनके बताए समय पर तीन वर्ष पूर्व नहीं। नाना जी के भतीजे (बबुए मामाजी )भी उनको ही सही मान कर अपने बेटे का काफी नुकसान करा चुके हैं क्योंकि मैंने जो वैज्ञानिक उपाय बताए थे उनमे कोई टीम-टाम नहीं थी और लाल भाई साहब के  बताए उपाय तड़क-भड़क और  ख़र्चीले होने के कारण उनको भाए थे। उनका तर्क था कि तुम (यानि कि मैं)घर से प्रेक्टिस करते हो जबकि लाल ने दिल्ली मे एयर कंडीशंड आफिस खोला है एक  लेडी सेक्रेटरी भी रखे हुये है। तो उनके अधिक ज्ञान का पैमाना हुआ लेडी सेक्रेटरी और एयर कंडीशंड आफिस को मेंटेन करना जो मैं नहीं कर सकता इसलिए अज्ञानी हुआ लेकिन नुकसान बबुए मामाजी के बेटे विवेक का हुआ जिनसे शोभा/कमलेश बाबू चिढ़ते हैं। )

1962 मे जब नानाजी दिल्ली से मौसी के पास से लौटते मे बरेली हम लोगों के पास मिलने हेतु रुके थे तब तक बाबूजी को सिलीगुड़ी ज्वाइन करने के आर्डर आ चुके थे। नानाजी ने बाबूजी से पूछा था कि वह नान फेमिली स्टेशन होने के कारण ये लोग कहाँ रहेंगे?कहाँ पढ़ेंगे?तो बाबू जी ने बउआ से सलाह किए बगैर ही तुरंत कह दिया था कि आपके पास तब वह चुप रह गए थे। अतः सब सामान व हम लोगों को शाहजहाँपुर छोड़ कर बाबूजी सिलीगुड़ी चले गए थे। नवंबर के महीने मे स्कूलों मे दाखिला कैसे होता?कभी नानाजी के घर मे खाना बनाने वाली मिसराईंन के बड़े बेटे बड़े अधिकारी हो गए थे और उन्होने तलुआ ,बहादुरगंज मे 'विश्वनाथ जूनियर हाई स्कूल' की स्थापना की थी उनके छोटे भाई उसके प्रबन्धक थे उनसे नाना जी ने हम लोगों की समस्या बताई जिनके कहने पर अजय व मेरा दाखिला उस स्कूल मे  हो सका। 1963 मे बउआ व शोभा बाबूजी के पास सिलीगुड़ी चले गए क्योंकि शोभा का एडमीशन नाना जी ने नहीं करवाया था। दोनों भाई नानाजी के पास रहे। नाना जी हम दोनों भाइयों को उसी प्रकार रखते थे जिस प्रकार हमारी माँ जिन्हे  हम लोग बउआ कहते थे।अजय कभी -कभी लाउड स्पीकर पर बज रहे गानों को गुंनगुनाता रहता था। एक बार वह ऐसे ही दोहरा रहा था-"जो वादा किया वह निभाना पड़ेगा" ;नाना जी ने सुन कर  कहा कि "निभा तो रहे हैं"। उनका आशय हम लोगों को रखने से था,हालांकि हम लोगों को तो उन्हे मजबूरी मे  रखना पड़ा था। 1964 मे हम लोग भी सिलीगुड़ी चले गए थे तब नाना जी लखनऊ आए थे  हम लोगों को छोडने /विदा करने। जिस दिन की हम लोगों की ट्रेन थी उस दिन नेहरू जी का दिल्ली मे अंतिम संस्कार था और लखनऊ मे बस आदि परिवहन  सब चलना बंद था अतः किसी प्रकार भुआ के घर सप्रू मार्ग से हम लोग तो चारबाग पहुंचे ही वह लोग स्टेशन तक पहुँचाने  नहीं गए। तब मामाजी ने मोपेड़ ली हुई थी उस पर ही पहली बार नानाजी उनके साथ बैठ कर स्टेशन तक गए जबकि वह उस पर नहीं बैठते थे। ट्रेफिक के कारण ही माईंजी भी स्टेशन तक न आ सकीं। 

1967 मे बाबूजी का तबादला यू पी की ओर तो एनाउंस हो गया था स्टेशन डिक्लेयर होना व रिलीव होना बाकी था। सितंबर मे बाबूजी ने बउआ के साथ हम लोगों को एक बार फिर शाहजहाँपुर नानाजी के पास भेज दिया। इतना लंबा सफर पहली बार बउआ ने अकेले हम लोगों व सामान के साथ किया जबकि इससे पहले वह लखनऊ या बरेली से भी शाहजहाँपुर अकेले नहीं गई थीं। लखनऊ मे छोटी लाईन से बड़ी की गाड़ी बदलते हुये हम लोग शाम को 5 बजे के लगभग शाहजहाँपुर पहुंचे थे। फिर बीच मे दाखिले की समस्या थी क्योंकि कोई भी स्कूल/कालेज उस समय प्रवेश नहीं लेता है। हाथी गोदाम स्थित आर्य कन्या पाठशाला मे शोभा को दाखिल कराने मे तो नानाजी को दिक्कत नहीं आई क्योंकि प्रबन्धक  तिनकू लाल वर्मा जी उनके पूर्व परिचित थे।  अजय और मेरा दाखिला कराने हेतु नानाजी ने किन्ही माथुर साहब से बात की जो सरदार पटेल हिन्दू इंटर कालेज मे वाईस प्रिंसिपल थे। उन्होने प्रिंसिपल टंडन जी से सिफ़ारिश नहीं की केवल उनके सामने ले जाकर खड़ा कर दिया और उन्होने मिड सेशन मे दाखिला करने से मना कर दिया। 

GF(गांधी फैजाम) कालेज के प्रिंसिपल चौधरी मोहम्मद वसी साहब  से नाना जी मुझे ले जाकर अकेले ही मिले तो उन्होने खुशी-खुशी मेरा दाखिला मेरे मन पसंद विषयों मे  कक्षा 11 मे कर लिया। इसके बाद अजय को ले कर मिशन स्कूल के प्राचार्य से नाना जी मिले तो उन्होने भी कक्षा 9 मे अजय को साईन्स विषय मे दाखिल कर लिया(जिस  विद्यालय मे क्रांतिकारी राम प्रसाद 'बिस्मिल' जी भी पढे थे)। 

पहले भी जब हम लोग नाना जी के पास थे उनके साथ सार्वजनिक सभाओं मे नेताओं के भाषण सुनने जाते थे जब बउआ सिलीगुड़ी मे थीं तो अजय भी जाते थे वरना वह नहीं जाते थे। नाना जी प्रत्येक पार्टी के नेता की सभा ज़रूर सुनते थे भले ही वह खुद 'जनसंघ' समर्थक थे। डॉ राम मनोहर लोहिया की सभा भी हमने नाना जी के साथ टाउन हाल मे सुनी थी। लोहिया जी की खास बात "जैसे यह मालूम होते हुये भी कि कूड़ा फिर आएगा,रोज़ झाड़ू लगाते हैं उसी प्रकार सरकारों को भी बुहारते रहना चाहिए" मुझे आज भी याद है बाकी बातें याद नहीं हैं। एस एम बनर्जी साहब की सभा भी हमने नानाजी के साथ सुनी थी जो लाल झंडे लगा कर हुई थी जबकि वह तो कानपुर से निर्दलीय सांसद थे। यू पी मे तब मंत्री और जनसंघ नेता परमेश्वर (या बरमेश्वर )पांडे की सभा भी नाना जी के साथ सुनने गए थे। 

बबुए मामा जी अपनी आर्डिनेंस क्लोदिग फ़ेक्टरी स्थित मंदिर कमेटी मे कुछ पदाधिकारी थे वह जालंधर के संत श्याम जी पाराशर को प्रवचनों हेतु बुलवाया करते थे। जितने दिन प्रवचन चले मैं नाना जी के साथ सुनने जाता रहा। मेरे इसी ब्लाग मे लिखे लेख-'रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना','सीता का विद्रोह','राष्ट्र वादी केकेयी' का स्त्रोत संत श्याम जी पाराशर के प्रवचन ही हैं। उनकी चार पुस्तकें भी नाना जी के पास पढ़ी थीं जो बाद मे दीमक लग जाने के कारण माईंजी ने सब किताबों के साथ फेंक दी।मांगने की आदत न होने के कारण ही बउआ ने नहीं मांगी वरना उन्हें किताबें फिंकने का बहुत अफसोस रहा क्योंकि एक तो उनके पिताजी की किताबें थीं दूसरे मुझे किताबें ही पढ़ने का तो शौक है। 

1973 मे मैं लखनऊ एल आई सी की एक परीक्षा देने आया था जबकि सारू स्मेल्टिंग मे जाब कर रहा था। मामाजी के बादशाहबाग वाले यूनीवर्सिटी बंगले पर ही आया था। माईंजी ने पहचान लिया था लेकिन मामाजी ने नहीं पहचाना था। सप्रू मार्ग मिलने गया था तो फूफाजी ने पहचान लिया था और भुआ ने भी नहीं पहचाना था। लौटते मे मामा जी -माईंजी मुझे सिटी बस पर छोडने आई टी कालेज चौराहे तक आए थे। तब चारबाग तक कुल 50 पैसे का टिकट था मैं लखनऊ मेल से चल कर रात मे शाहजहाँपुर पहुंचा था ,स्टेशन से पटरी-पटरी के सहारे चल कर भारद्वाज कालोनी आ गया था तब तक कोई दिक्कत नहीं थी अब तो ऐसा करना जुर्म है। लगभग एक बजे नाना जी का दरवाजा खटखटाया और उनके  कौन पूछने पर मैंने कहा नानाजी दरवाजा खोलिए तो तुरंत नानाजी ने मेरा नाम पुकार कर कहा अभी खोल रहे हैं। नाना जी ने केवल मेरी आवाज़ पर ही मुझे पहचान लिया था। बगल के घर मे नानाजी के दो भाई रहते थे उनमे से एक जिनको हम लोग बंबई वाले नाना जी कहते थे उधर से बोले कौन है दादा ऐसे दरवाजा न खोलिएगा इतनी रात मे कोई दूसरा भी आवाज़ बदल कर धोखा दे सकता है। चूंकि मेरे वहाँ पहुँचने की कोई सूचना नहीं थी इसलिए उनका ख्याल भी गलत नहीं था किन्तु हमारे नाना जी ने अपने भाई से मेरा नाम लेकर  कह दिया कि वह लखनऊ से मेरठ जा रहा था यहाँ मुझे लेने आया है। बउआ से मैंने नानाजी से मिलते हुये आने की बात कही थी साथ उनको लाने की नहीं किन्तु उनकी बात रखते हुये उनसे  साथ चलने को औपचारिक रूप से कहा  और यह मेरा खुद का किया पहला फैसला था जिसमे बाबूजी या बउआ से राय लेने का अवसर भी न था। 

बरेली और हापुड़ मे गाडियाँ बदलते हुये जब हम मेरठ घर पहुंचे तो बउआ भी नानाजी को साथ देख कर आश्चर्य चकित हो गई। नानाजी ने उनसे भी यही कहा यह हमे भी ले आया। यह  मिलेटरी क्वार्टर  कैंट स्टेशन के प्लेट फार्म की सीध मे ही आगे था। कुछ दिन रह कर नाना जी फिर दिल्ली मौसी से मिलने चले गए और लौटते मे दोबारा यहाँ होते जाने की बात कही थी। इससे पूर्व जब महेश नानाजी के बेटे विजय मामा जी की शादी मे नाना जी रुड़की रोड वाले क्वार्टर मे आए थे तब मेरे लिए दो होम्योपैथी किताबे लाकर दे गए थे कि अब अपने पास रख कर क्या करेंगे तुम स्तेमाल करना। दिल्ली मे मौसी की तबीयत ज़्यादा खराब थी और उन्होने अपने पास नानाजी से 15 दिन रुकने का आग्रह किया अतः वह अपना सामान लेने दो रोज़ को फिर मेरठ आए और लौटते मे एक होम्योपैथी किताब गोपाल (जो अब जीवित नहीं हैं) को देने हेतु ले गए कि वह इससे देख कर मौसी को दवा दे सकेगा। फिर नानाजी दिल्ली से ही सीधे शाहजहाँपुर लौट गए। 

दिसंबर 1974 मे आगरा मे अजय का एक्सीडेंट होने के बाद 1975 मे शुरू मे नाना जी वहाँ गए थे तब मैं मेरठ से वहाँ पहुंचा था। उस वक्त कुछ दिन नानाजी के साथ रहना हुआ था। सितंबर 1977 मे मामाजी के निधन के बाद चार दिन लखनऊ मे उनके साथ और रहे थे। 1978 मे आगरा मे जब हमने अपना मकान लिया तब तक नानाजी का स्वास्थ्य सफर करने लायक नहीं रह गया था। अक्तूबर मे बाबूजी और बउआ उनके द्वारा आँखों का आपरेशन करवाने पर शाहजहाँपुर गए थे। 27 मार्च 1979 को नानाजी ने यह शरीर इस संसार से छोड़ दिया। वस्तुतः मौसी के बाद मामाजी का भी निधन हो जाने से नानाजी को ज़बरदस्त मानसिक आघात लगा था और वह शारीरिक दृष्टि से भी क्षीण हो गए थे मैं उनकी बीमारी मे उनको देखने नहीं जा पाया था उनके निधन के बाद भी बउआ व बाबूजी ही गए थे। 

हालांकि राजनीतिक रूप से मेरी विचार धारा नानाजी की राजनीतिक विचार धारा से 180 डिग्री के अंतर पर है और वह भी उनके सान्निध्य से पढ़ी हुई पुस्तकों के आधार पर ही किन्तु उनका अन्य दूसरे मामलों मे व्यापक प्रभाव मैं खुद मे महसूस करता हूँ । नाना जी की ईमानदारी, सत्य बोलने की प्रवृत्ति,किसी के आगे न झुकने और न दबने की आदत ,दूसरों का ज़्यादा से ज़्यादा भला करने की चाहत एवं प्रयास आदि कुछ सिद्धान्त मैंने नानाजी से ही ग्रहण किए हैं और चूंकि बउआ व बाबूजी भी इन सिद्धांतों को मानते तथा इन पर ही चलते थे अतः मुझे इन बातों  को अपनाने से कभी रोका नहीं।

आज हमारे नानाजी को यह संसार छोड़े हुये 34 वर्ष पूर्ण हो गए हैं परंतु उनके साथ बिताया गया समय और उनकी बातें अभी कल ही की लगती हैं और उनसे हमे आगे भी प्रेरणा मिलती रहेगी। आज की होली पर हम अपने नानाजी की आत्मा की शांति की परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।





 

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शनिवार, 16 मार्च 2013

क्या गांधी जी धर्म निरपेक्ष थे? ---विजय राजबली माथुर

प्रेस-संवाददाता/संपादक की अपनी मर्यादाएं,मजबूरीया,आयोजको से संबंध/प्रभाव/प्रलोभन आदि बहुत सी तमाम बातें होती हैं जिंनका किसी भी समाचार के प्रकाशन पर प्रभाव पड़ता है।यही बातहिंदुस्तान,लखनऊ,दिनांक 14 मार्च 2013,पृष्ठ 07 पर प्रकाशित इस समाचार के साथ भी सत्य
घटित हुई है। आयोजकों द्वारा जारी किए गए 'प्रेस नोट' को ही संक्षिप्त रूप मे सभी समाचार पत्रों द्वारा प्रकाशित कर दिया जाता है और वास्तविक घटनाक्रम की उपेक्षा कर दी जाती है। चूंकि मैं इस गोष्ठी मे आमंत्रित होने के कारण उपस्थित था अतः समस्त घटनाक्रम आँखों से देखा व कानों से सुना है और मैं समझता हूँ कि प्रबुद्ध जनों की गोष्ठी मे घटित एक घटना को सार्वजनिक करना मेरा नैतिक दायित्व भी है अतः उस कर्तव्य का पालन मात्र कर रहा हूँ। न किसी का समर्थन और न ही किसी का विरोध करना मेरा अभीष्ट है।




एक आमंत्रित विद्वान जो शायद भूगोल के शिक्षक हैं अपने सम्बोधन मे डॉ अंबेडकर को गांधी जी से श्रेष्ठ बोल गए थे। 'गांधी भवन' मे गांधी जी की प्रतिमा के समक्ष यह बात अन्य विद्वान वक्ताओं को बुरी लगी। किसी ने गांधी जी के प्रसंग को उठाना विषय से भटकना बताया तो कुछ भड़क गए और डॉ अंबेडकर की आलोचना करने लगे। कुल 24 या 25 विद्वानों की गोष्ठी मे इस प्रकार का विवाद हास्यास्पद ही कहा जा सकता है। उन शिक्षक महोदय ने प्रारम्भ मे ही कहा था कि विषय परिवर्तन लगे तो उनको बता दिया जाये। संचालक,अध्यक्ष और संयोजक द्वारा उस समय कुछ भी इंगित नहीं किया गया लेकिन बाद मे सभी बिफर गए।

 मेरे दृष्टिकोण मे गांधी भवन मे गांधी प्रतिमा के समक्ष गोष्ठी का स्थान चयन 'गांधी जी'को विषय से अलग नहीं होने देता।  जैसा की उन शिक्षक महोदय से कहा गया था  मैं समझता हूँ कि उनको अनावश्यक रूप से दबाव मे लेने का प्रयास था। दूसरे विद्वान और आयोजक एक ओर तो यह कह रहे थे कि गांधी जी सांप्रदायिकता के विरोधी थे और दूसरी ओर यह भी कह रहे थे कि डॉ राही मासूम रज़ा के अनुसार 'धर्म' को 'राजनीति'से अलग किया जाना चाहिए। वह शिक्षक महोदय भारी चूक कर गए जो उन्होने यह नहीं कहा कि ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं। गांधी जी तो  'धर्म' के बिना 'राजनीति' की कल्पना भी नहीं करते थे। गांधी जी का धर्म पाखंड नहीं था उनका ज़ोर 'सत्य और अहिंसा' पर था। उनका मानना था पहले सत्य और अहिंसा का पालन सुनिश्चित हो जाये तब बाद मे 'अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का पालन करना सुगम हो जाएगा। गांधी जी मजहब को धर्म नहीं मानते थे जैसा कि यहाँ आयोजक और दूसरे विद्वान मजहब के पर्यायवाची के रूप मे धर्म का प्रयोग अनधिकृत रूप से कर रहे थे। वस्तुतः समस्या ही आज यह है कि 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' और मजहबों की विभिन्नता को धार्मिक विभिन्नता की संज्ञा  और मान्यता दी जा रही है और  अड़ियल ज़िद्द को अपनाया जा रहा है। यदि गांधी जी के बताए वास्तविक धर्म=सत्य,अहिंसा(मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को अपनाया जाये तो समाज मे टकराव को ठहराव मिल ही नहीं सकता। 'धर्म निरपेक्षता' की बात कह कर इन धर्म तत्वों से दूर रहने का उपदेश दिया जाता है और यही सामाजिक टकराव का कारण है।
ढोंग-पाखंड पर आधारित विभिन्न मजहब समाज मे वैमनस्य उत्पन्न करते है और विभिन्न लोगों के आर्थिक हितों के संरक्षण हेतु विभिन्न गुट विभिन्न मजहबों के इर्द-गिर्द एकजुट होकर तनाव व टकराव का सृजन करते हैं। आर्थिक स्वार्थों को मजहबी 'आस्था व विश्वास' का जामा पहना कर पृष्ठपोषण किया जाता है।

जहां तक डॉ अंबेडकर की श्रेष्ठता का प्रश्न है निश्चित रूप से उनका पलड़ा गांधी जी से भारी है। 'कम्यूनल एवार्ड' के तहत अस्पृश्य जनों को प्रथक निर्वाचन का अधिकार मिल रहा था और यदि  डॉ अंबेडकर अपने समुदाय और वर्ग हित को ही सर्वोपरि वरीयता देते तो गांधी जी की परवाह न करते ;किन्तु उन्होने गांधी जी की अड़ियल ज़िद्द की पूर्ती की खातिर  अपने इतने बड़े वर्ग समुदाय के हितों को 'कुर्बान' कर दिया और गांधी से 'पूना पैकट' करके उनका अनशन तुड़वा दिया। ज़रा सोचिए कि यदि पूना पैक्ट न होता और अस्पृश्य जन प्रथक निर्वाचन के तहत अधिक संख्या मे चुन कर आते तो क्या गांधी जी के परम शिष्य पंडित नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बन सकते थे?तब सम्भवतःडॉ अंबेडकर ही भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होते और भारत की राजनीति आज कुछ और ही होती । अतः निश्चय ही डॉ अंबेडकर व्यक्तिगत रूप से गांधी जी  से श्रेष्ठ ठहरते हैं। यहाँ गांधीजी निश्चय ही ब्राह्मण वाद के पृष्ठ पोषक के रूप मे याद किए जाएँगे और उनका वह 'धर्म' जो आज बौना बना दिया गया है और उस पर पाखंड हावी है उसके भी वही हेतु सिद्ध होते हैं।

वस्तुतः धर्म निरपेक्षता के स्थान पर 'संप्रदाय निरपेक्षता' की बात पर बल दिया जाना चाहिए और वास्तविक धर्म जिसको शुरू मे गांधी जी ने भी सही माना था को अपनाया जाना चाहिए तभी समाज और राजनीति मे शुचिता की प्राप्ति हो सकती है।

 

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शनिवार, 9 मार्च 2013

हमे पहले ही आभास हो गया था---विजय राजबली माथुर

28 फरवरी और 01 मार्च, 2013 के हिंदुस्तान,लखनऊ के अंक मे उपरोक्त समाचार व चित्र देख कर सहसा याद हो आया कि,मैंने 2005 ई मे सपा छोड़ कर बहुत ही अच्छा निर्णय ले लिया था। फिर बाद मे आगरा संसदीय क्षेत्र से सांसद राज बब्बर जी ने भी सपा को अलविदा कर दिया था और उनके बाद मुलायम सिंह जी के सहयोगी-सलाहकार हमारे दरियाबाद के मूल निवासी बेनी प्रसाद वर्मा जी ने भी सपा छोड़ कर 'समाजवादी क्रांति दल'का गठन कर लिया था। परंतु मैं न तो उनके दल मे गया न ही बब्बर जी के 'जन - मोर्चा' जिसके संरक्षक वी पी सिंह जी थे मे ही शामिल हुआ;मैं राजनीतिक रूप से निष्क्रिय हो गया था। अतः भाकपा के तत्कालीन ज़िला मंत्री द्वारा बार-बार मेरे घर पर आकर पुनः भाकपा मे लौटने का आग्रह किया जाने लगा -मैं उनके साथ भी पहले ज़िला कोषाध्यक्ष रह चुका  था। अंततः वह मुझे सदस्य न होते हुये भी पार्टी कार्यक्रमों मे बुलाने लगे और मुझे उनको सम्मान देने हेतु शामिल होना पड़ा। 

 2006 मे आगरा कमिश्नरी पर एक प्रदर्शन  मे जिसमे राज बब्बर जी के साथ रथ पर उत्तर प्रदेश के वर्तमान भाकपा सचिव डॉ गिरीश जी भी  भाग लेने आए थे भी मैंने भाग लिया था।  मदिया कटरा स्थित  पार्टी कार्यालय जाते समय डॉ गिरीश जी के साथ ही मैं भी ट्रैक्टर ट्राली मे बैठ कर आया था और उनकी मौजूदगी मे ही कामरेड जिलामंत्री जी ने मुझसे पुनः पार्टी प्रवेश का आवेदन तभी  ले लिया था। तबसे अब  फिर भाकपा मे सक्रिय हूँ और और अब लखनऊ मे रहते हुये  डॉ गिरीश जी द्वारा भेजी सूचनाओं को फेसबुक के माध्यम से भी प्रचारित करता रहता हूँ। 

लेकिन आज यहाँ मैं सपा मे बिताए लगभग 10 वर्षों की कुछ खास-खास बातों का ही  ज़िक्र करना चाहता हूँ। 

अप्रैल 1994 मे आगरा से लखनऊ आकर कामरेड रामचन्द्र बक्श सिंह और कामरेड मित्र सेन यादव के साथ मैं सपा मे शामिल तो हो गया था किन्तु तत्काल सक्रिय न हो सका क्योंकि पहले से बीमार चल रही शालिनी का जून'94 मे और जून'95 मे बाबूजी व बउआ का भी निधन हो गया था। इस प्रकार मेरी निष्क्रियता का लाभ उठा कर होटल मुगल के प्रबन्धकों ने श्रम न्यायालय के पीठासीन अधिकारी को खरीद कर मेरे विरुद्ध एक्स पार्टी केस जीत लिया था। 
फिर भी आगरा पूर्वी विधानसभा क्षेत्र,सपा के अध्यक्ष पूर्व कामरेड शिव नारायण कुशवाहा जी से व्यक्तिगत परिचय के कारण कुछ ज़रूरी बैठकों मे शामिल हो लेता था,यशवन्त को साथ ले जाता था-घर मे तब अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। बाद मे पूनम(जिनके पिताजी से मेरे पिताजी का पत्राचार हो चुका था)के आने के बाद पुनः सक्रिय होना शुरू किया। पूर्वी विधासभा क्षेत्र के नए अध्यक्ष अशोक सिंह चंदेल साहब ने मुझे अपने साथ महामंत्री के रूप मे  कार्यकारिणी मे शामिल कर लिया। उनके साथ 1999 के संसदीय  चुनावों  मे राज बब्बर जी के लिए प्रचार मे भाग लिया । मैं जब सक्रिय नहीं था तब भी पत्राचार करता रहता था। मैंने ही राम गोपाल यादव जी से अनुरोध किया था कि,आगरा से राज बब्बर जी को खड़ा करें। आगरा को विशेष महत्व दें और अखिलेश यादव जी को युवाओं के बीच लाएँ। और इस प्रकार सपा का आगरा से लोकसभा मे प्रतिनिधित्व हो सका। लेकिन आगरा क्षेत्र के प्रभारी राम आसरे विश्वकर्मा जी ने इन सब का श्रेय खुद ले लिया। 

चुनावों के बाद नए नगर - सपाध्यक्ष डॉ डी सी गोयल साहब ने मुझे नगर कार्यकारिणी मे शामिल कर लिया था। डॉ गोयल सभी कार्यकर्ताओं के साथ समान व्यवहार करते थे । अक्सर वह कार्यकर्ताओं को शुभकामनायें प्रेषित करते रहे जिसका एक नमूना यह कार्ड है-


चूंकि पूनम समाजवादी महिला सभा मे वार्ड अध्यक्ष थीं और मैं नगर कार्यकारिणी मे था अतः डॉ साहब ने यह शुभकामना कार्ड संयुक्त रूप से भेजा था। 
2002 के चुनावों मे उनको ही सपा ने पूर्वी विधानसभा क्षेत्र से खड़ा किया था। उनके लिए मैंने व पूनम ने सक्रिय रूप से भाग लिया ,हालांकि उसी बीच मुझको पाल्स का  एक आपरेशन भी कराना पड़ा था।  ठीक चुनावों के बीच विश्वकर्मा जी ने प्रत्याशी डॉ गोयल को सपाध्यक्ष पद से हटवा दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि वह चुनाव हार गए।जनता मे यह संदेश गया कि पार्टी को ही प्रत्याशी पर विश्वास नहीं है।  पत्र लिख कर  मैंने इस निर्णय को गलत बताया था जिस पर विश्व कर्मा जी  मुझ पर क्रुद्ध भी हो गए थे कि मैं उनके प्रभारी रहते हुये सीधे अध्यक्ष को पत्र क्यों भेजता हूँ। तभी मैंने सपा छोडने का निर्णय मन मे कर लिया था किन्तु चंदेल साहब एवं डॉ साहब की आत्मीयता के कारण उनको दो वर्ष बाद तक  सहयोग करता रहा था। जब अखिलेश यादव जी को युवा मामलों का राष्ट्रीय प्रभारी बना दिया गया और वह सांसद भी हो गए तब उनके आगरा आगमन पर उनको भी वे बातें दोहराई थीं जिनके लिए विश्व कर्मा जी क्रुद्ध हुये थे। अखिलेश जी के कहने पर विस्तृत वर्णन उनको डाक से भेजा था जिसकी प्राप्ति की सूचना  उन्होने अपने सहायक गजेन्द्र सिंह जी द्वारा पत्र भिजवाकर भी दी थी। उस पत्र की स्कैन कापी सार्वजनिक की जा रही है-
 

2007 के विधानसभा चुनावों मे डॉ डी सी गोयल साहब ने राज बब्बर जी के 'जन-मोर्चा'प्रत्याशी के रूप मे सपा/भाजपा के विरुद्ध मुक़ाबला किया था। स्थानीय तौर पर भाकपा ने डॉ गोयल का समर्थन किया था अतः एक बार फिर भाकपा की तरफ से हमने डॉ गोयल साहब के लिए चुनाव प्रचार मे भाग लिया। 
आगरा मे विशेष सपा - अधिवेशन के बाद घटनाक्रम 'ताज कारीडोर' के नाम पर बदला तो प्रधानमंत्री ए बी बाजपेयी जी के सहयोग से मुलायम सिंह जी मुख्यमंत्री बन गए तब वह निवर्तमान राज्यपाल विष्णूकांत शास्त्री जी को रेल से मुगलसराय तक विदा करने गए थे। उसी समय मुझे उनकी भाजपा से निकटता का आभास हो गया था।  

पहले निष्क्रिय रह कर फिर सदस्यता का नवीनीकरण न कराकर मैंने सपा से अलगाव कर लिया था। मेरा निर्णय गलत नहीं था क्योंकि राज बब्बर जी और बेनी प्रसाद वर्मा जी को भी बाद मे सपा को छोडना ही पड़ा। भाजपा के  अप्रत्यक्ष समर्थन  से बनी मुलायम सपा सरकार मे भाजपा व्यापारियों की पौ बारह रही। हालांकि जब जार्ज फरनाडीज़ साहब बाजपेयी जी के रक्षा मंत्री और संकटमोचक थे तब मुलायम सिंह जी उनकी तुलना संसद मे गियोलित्ती से करते थे जिनके समर्थन से हिटलर सत्ता मे आया था। लेकिन आज फरनाडीज़ साहब के उस दायित्व का निर्वहन खुद मुलायम सिंह जी बखूबी कर रहे हैं। सुषमा स्वराज जी भी कभी सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से हरियाणा मे शिक्षा मंत्री रही थीं,आज भाजपा की तरफ से विपक्ष की नेता हैं। उनके साथ मुलायम सिंह जी की घनिष्ठता अकारण नहीं है बल्कि यह भविष्य का एक भयावह संकेत है। 

 

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