सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

षष्ठी पूर्ती पर बधाई के साथ- साथ सुरक्षात्मक सलाह




जन्मदिन मुबारक हो। हम आपके सुंदर, सुखद,स्वस्थ, समृद्ध और दीर्घायुष्य जीवन की मंगलकामना करते हैं।  












तृतीय भाव में परस्पर विरोधी ग्रहों की स्थिति और उस भाव में स्थित राशि के स्वामी की परस्पर विरोधी ग्रह की राशि में स्थिति से साफ - साफ स्पष्ट है कि, आपके भाई  मूलतः आपके  विरोधी होंगे। आपके छोटे भाई ने 1995 और 96  में ही सार्वजनिक रूप से पटना में अपमानित करने के बाद 1999 में आगरा में आपसे कहा था " जब माँ और दादी अपने मायके नहीं जाती हैं तो तुम क्यों जाती हो ? " बाबू जी साहब के कूल्हे में फ्रेक्चर की जानकारी उनको देने के बाद वह झल्ला कर बोले कि, उनका घूमने मूड खराब कर दिया फिर उनका LTC बेकार गया रात्रि 11 बजे सवा साल के बेटे को लेकर झगड़ कर हमारे घर से रवाना हो गए थे।

बड़े वाले 1995 में पहले तो आकर दयाल लाज में  एक दिन ठहर गए फिर दूसरे एक दिन रुक कर तड़के अपनी दोनों बेटियों को गोद में लेकर रवाना हो गए थे। 2006,2009,2012,2015 में आपके वहाँ जाने पर उनको एतराज था लेकिन आप ज़िद्द कर गईं जिससे मुझे अपमानित होना पड़ा। 08 दिसंबर 2016 को उन्होने स्पष्ट कर दिया कि, आपका कुछ भी नुकसान हो उनको कोई फर्क नहीं है फिर दोबारा पूछने पर भी इसी वाक्य को दोहरा दिया आपकी उपस्थिती में ही।

1996 में उन्होने कहा था - वह अपने चाचा - चाची और भुआ के साथ हैं और उनके द्वारा उनकी नन्ही - नन्ही बेटियों की प्रताड़णा करने पर भी उनका प्रतिवाद नहीं करेंगे। 2015 में पुनः दोहराया कि,  "उनकी नहीं तो किसकी मानेंगे ? " यह वाक्य उन चाचा के बारे में था जिनके बारे में बाबूजी साहब ने बताया था कि वह अपनी माँ को ठगने का प्रयास कर रहे थे। उनके इशारे पर ही 1996 में वह बाबूजी साहब को धोखे में रख कर " अभी आ रहे हैं " लेकिन  उनकी टीम के साथ चले गए थे।

यह सब तब है जबकि आपके भाई साहब के चाचा - भुआ वाले भाव में स्थित राशि का शत्रु ग्रह विराजमान है और उस भाव का स्वामी ग्रह अपने स्थान से बारवांह अर्थात व्ययकारक है। उनके  चाची भाव की राशि का स्वामी शत्रु ग्रह की राशि में तथा शत्रु ग्रह के साथ ही है।

इस प्रकार उनके चाचा - चाची और भुआ उनके प्रतिकूल हैं और व्यवहार में भी ऐसा ही सामने आया भी है। वह अपने चाचाओं और चाचियों के इशारे पर ही आपका विरोध करते रहे हैं। आपकी भाभी साहिबा भी अपने चचिया सुसरों व चचिया सासों के इशारे पर ही 2015 में आपके लिए बोलीं थीं कि, " हमको उनकी ज़रूरत नहीं है " और यह भी कि,  मनोज ( ओंकार ) उनके साथ  24 सों घंटे हैं। यह वही मनोज- ओंकार हैं जिनको 1995 में भी वह अपने साथ लाई थी।इन मनोज - ओंकार ने ही जब 01-09-2012 को आप पटना से देवघर गईं थीं तब आपके समक्ष ही कहा था कि, बहन- भाई,भतीजा - भतीजी कुछ नहीं होता है।  इन मनोज - ओंकार की माँ ने ही SGPGI, लखनऊ में 2013 में आपसे अपनी भतीजियों का ख्याल न करने को कहा था तथा मनोज के मेरे पुत्र का गार्जियन बनने की बात भी कही थी  जबकि मनोज - ओंकार के पिता ने आपके भाई साहब का ख्याल न रखने को मुझसे कहा था। यहाँ से लौट कर उन लोगों ने पटना में आपके भाई - साहब व भाभी जी को हमारे खिलाफ भड़का दिया। 2014 में पटना के जिस नर्सिंग होम के जिस वार्ड और बेड पर मनोज - ओंकार के पिता रहे थे उसी पर 2015 में आपके भाई साहब को भर्ती होना पड़ा खुद्द आपकी भाभी जी ने कबूला था फिर भी उन लोगों के ही चंगुल में फंसे हुये हैं।बल्कि अपनी बेटियों को भी अपनी उसी चाची के समर्थन में मेरे खिलाफ खड़ा कर दिया है जो उनकी बेटियों की आपसे बुराई करके गई थी।

आप स्वम्य इस विश्लेषण को समझने में सक्षम हैं अतः उम्मीद है कि, उपेक्षा करके नुकसान को आमंत्रित नहीं करेंगी। यदि हो सके तो अपने भाई साहब - भाभी जी को भी समझा कर उनको लगातार हो रहे नुकसान से बचने की सलाह दें। 


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शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

पीपल के पत्ते ------ विजय राजबली माथुर

                                               



कभी - कभी बहुधा घटित होते रहने वाली छोटी सी बात भी एक अलग ध्यान आकर्षित कर देती है और आज कुछ ऐसा ही हुआ। मेरी श्रीमती जी ने एक गमले में और पौधों के अलावा एक पीपल का पौधा भी लगा रखा है। चिड़ियों द्वारा लाये बीज से यह पौधा स्वतः प्राप्त हुआ था। हमेशा की तरह आज भी दो पीले पड़ चुके पत्ते हवा से झड़ कर छत पर गिरे हुये थे इनको देख कर 55 वर्ष पूर्व की एक घटना का स्मरण हो आया।हम लोग बाबूजी के नान फेमिली स्टेशन सिलीगुड़ी ट्रांसफर हो जाने के कारण शाहजहाँपुर में नानाजी के पास 1962 से ही थे। 1963 में मैं 7 वीं कक्षा का छात्र था  और इससे मतलब भी नहीं था तब भी जी एफ कालेज यूनियन के छात्रसंघ चुनाव में एक उम्मीदवार  का पेंफ्लेट मुझे स्कूल से लौटते वक्त दे दिया गया। वह पेंफ्लेट और कुछ नहीं छांव में सुखाये हुये पीपल के पत्ते पर सफ़ेद पेंट से लगाई मोहर द्वारा उस उम्मेद्वार  को वोट देने की अपील थी।यह एक सादगी भरा, अलग हट कर अनोखा प्रचार माध्यम था जबकि और लोग कागज के पर्चे बाँट रहे थे पीपल के पत्ते चर्चा और आकर्षण बटोर रहे थे। 
दूसरी घटना 20 वर्ष पूर्व आर्यसमाज, कमलानगर- बल्केश्वर, आगरा के वेद प्रचार सप्ताह में  मेरठ के गायक प्रचारक वेगराज जी द्वारा सुनाये वर्णन की है। ढोंग - पाखंड -  आडंबर पर प्रहार करते हुये व्यर्थ के सांप्रदायिक तनाव का विरोध करते हुये उन्होने बताया था कि बिना सोचे विचारे बेवजह लोग आपस में लड़ना शुरू कर देते हैं और बेगुनाह मारे जाते हैं।
उन्होने बताया कि एक गाँव से ताजिये का जुलूस निकल रहा था चूंकि ताजिये बहुत लंबे थे और झुकाये नहीं जा सकते थे अतः मार्ग में पड़ रहे  शिव मंदिर  के वृक्ष की डालियों को काटने की बात उठी तथाकथित हिन्दू अड़ गए कि उनके शिव भगवान की जटाएँ नहीं काटी जा सकतीं। बढ़ती तकरार से खून - खराबे की आशंका के मद्दे नज़र पुलिस ने ताजिये उसी स्थान पर रखवा कर सुरक्षा के लिए पहरा बैठा दिया और जुलूस के लिए पीपल शाखाओं के काटने का मामला अदालत के फैसला आने तक  के लिए टल गया। अदालती कारवाई जैसी होती है उसमें फैसला क्या आता या नहीं आता उससे पहले एक रोज़ जोरदार आंधी तूफान आ गया जिससे ताजिये भी फट कर बिखर गए और पीपल की शाखाएँ भी टूट कर पत्ते भी झड़ कर बिखर गए । अगले रोज सफाई कर्मचारी ने बुहार कर पत्ते और ताजिये सब फेंक दिये। प्राकृतिक न्याय के आगे किसी की कुछ नहीं चली। हिन्दू - मुस्लिम सांप्रदायिकता धरी की धरी रह गई। इसी लिए आर्यसमाज देश - काल- जाति- धर्म - नस्ल से परे मनुष्य मात्र को आर्य= आर्ष = श्रेष्ठ बनाने की बात करता है।   

जब बात पीपल के पत्तों की चली है  तब लगभग पाँच वर्ष पुरानी इस पोस्ट को भी उद्धृत कर रहा हूँ  : 


हार्ट अटैक: ना घबराये ......!!!
सहज सुलभ उपाय ....
99 प्रतिशत ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है पीपल
का पत्ता....
पीपल के 15 पत्ते लें जो कोमल गुलाबी कोंपलें न हों, बल्कि पत्ते
हरे, कोमल व भली प्रकार विकसित हों। प्रत्येक का ऊपर व नीचे
का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें।
पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। इन्हें एक गिलास
पानी में धीमी आँच पर पकने दें। जब पानी उबलकर एक तिहाई रह
जाए तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें और उसे ठंडे स्थान
पर रख दें, दवा तैयार।
इस काढ़े की तीन खुराकें बनाकर प्रत्येक तीन घंटे बाद प्रातः लें।
हार्ट अटैक के बाद कुछ समय हो जाने के पश्चात लगातार पंद्रह
दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है और फिर दिल
का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती। दिल के रोगी इस नुस्खे
का एक बार प्रयोग अवश्य करें।
* पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की अद्भुत
क्षमता है।
* इस पीपल के काढ़े की तीन खुराकें सवेरे 8 बजे, 11 बजे व 2
बजे ली जा सकती हैं।
* खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए,
बल्कि सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद ही लें।
* प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। मांस, मछली,
अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। नमक, चिकनाई
का प्रयोग बंद कर दें।
* अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब
का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल,
दही, छाछ आदि लें । ......
तो अब समझ आया, भगवान ने पीपल के पत्तों को हार्टशेप
क्यों बनाया..
http://vijaimathur05.blogspot.in/2013/12/blog-post_24.html



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रविवार, 18 फ़रवरी 2018

कश्मीर ,करगिल, आगरा और लखनऊ ------ विजय राजबली माथुर

कश्मीर संबंधी यह विवरण पढ़ कर 37 वर्ष पूर्व के कुछ समय वहाँ बिताए अपने संस्मरण याद पड़ गए। उस समय भी कश्मीर व लद्दाख(करगिल )   दोनों के निवासियों का व्यवहार काफी अच्छा पाया था। इस विवरण से ज्ञात हुआ कि आज भी वहाँ के लोग अच्छे ही हैं। 





* मई 1981 में होटल मुगल, आगरा से टेम्पोरेरी ट्रांसफर पर जो छह लोग होटल हाईलैंड्स, कर्गिल भेजे गए थे उनमें मैं एकाउंट्स सुपरवाइज़र और एक मेकेनिकल सुपरवाइज़र को छोड़ कर बाकी लोग जूनियर स्टाफ के थे। बाकी सब कोई भी टूरिस्ट ग्रुप आने पर व्यस्त रहते थे रात को मेरे पास कोई काम न होने के कारण  जब कभी एक्स्ट्रा ग्रुप आ गया तो बाजार से सब्जी,ब्रेड लेने मुझे ही भेजा जाता था। मैनेजर चावला साहब  कंजूसी के तहत एक्स्ट्रा स्टाक नहीं रखते थे। कभी -कभी जीप न देकर पैदल भेजते थे। एक बार लौटते समय तेज तूफानी हवाएं चलने लगीं ,संभावना बारिश आने की भी थी,मैंने एक जीप आता देख कर उसे टैक्सी समझते हुए रुकने का इशारा किया वह रुक गयी और मैं बारू जाना है कह कर बैठ गया। उतरने पर उस समय के रेट के मुताबिक़ रु.२/-का नोट ड्राइवर को देने लगा परन्तु उसने हाथ जोड़ कर मना कर दिया-साहब यह सरकारी गाडी है। जीप आगे बढ़ने पर मैंने देखा उस पर डायरेक्टर फिशरीज लिखा था अर्थात मेरे साथ दूसरी सवारी नहीं वह एक अधिकारी थे। एक हमारे मेनेजर और दुसरे वह लद्धाखी सरकारी  अधिकारी दोनों के व्यवहार बड़े आश्चर्यजनक रहे। जीप तेजी से चले जाने के कारण मैं तो धन्यवाद भी न दे सका था।

** प्रातः काल मैं जल्दी उठ जाता था और आस-पास टहलने निकल जाता था। एक बार टी.बी.अस्पताल की तरफ चला गया तो बाहरी आदमी देख कर सी.एम्.ओ.साहब ने बुलाया और अपना परिचय देकर मुझ से परिचय माँगा। मेरे यह बताने पर कि, होटल मुग़ल, आगरा में एकाउन्ट्स सुपरवाईजर हूँ और यहाँ टेम्पोरेरी ट्रांसफर पर होटल हाई लैण्ड्स  में आया हुआ हूँ।  उन्होंने यदा-कदा आते रह कर मिलने को कहा। विशिष्ट प्रश्न जो उन्होंने पूंछा वह यह था कि क्या आप लखनऊ के हैं ? मैंने प्रति-प्रश्न किया आपने कैसे पहचाना ? वैसे मेरा जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा लखनऊ की ही है। डा.साहब का जवाब था आपकी जबान में उर्दू की जो श्रीन्गी है वह लखनऊ में ही पायी जाती है दूसरी जगहों पर नहीं। हालांकि उस समय हमें लखनऊ छोड़े हुए १९ वर्ष व्यतीत हो चुके थे और मैं उर्दू पढ़ा भी नहीं था। घर में बोली जाने वाली बोली से ही डा. साहब ने पहचाना था जो खुद श्रीनगर के सुन्नी थे। 
***  होटल मालिक के बेटे बशीर अहमद जान साहब भी चुटकुले सुनाने  वालों में थे परन्तु उनके चुटकुलों को अश्लील नहीं कह सकते, उदाहरणार्थ उनका एक चुटकुला यह था-
 "करगिल आने से पहले पड़ता है द्रास। 
दूर क्यों बैठी हो ,आओ बैठें पास-पास। ।"   

बशीर साहब सुन्नी होते हुए भी भोजन से पूर्व बिस्कुट,ब्रेड,रोटी जो भी हो थोडा सा हाथ में लेकर मसल कर चिड़ियों को डालते थे। उन्होंने इसका कारण भी स्पष्ट किया था -एक तो हाथ साफ़ हो जाता है, दूसरे चिड़ियों के खाने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि, वह भोज्य पदार्थ खाने के योग्य है (क्योंकि यदि चिड़िया को तकलीफ होगी तो पता चलने पर उस भोजन का परित्याग करेंगे), और पुण्य तो है ही। चावला साहब  की श्रीमती जी के आने के बाद बशीर साहब श्री नगर लौट गए थे। 
बशीर साहब के पिताजी गुलाम रसूल जान साहब एम्.ई.एस.में ठेकेदार थे। उन्होंने श्री नगर के लाल चौक में 'हाई लैंड फैशंस 'नामक दुकान बेटों को खुलवा दी थी। लकड़ी के फर्श, छत और दीवारों के कमरे श्री नगर में बनवा कर ट्रकों से करगिल पहुंचवाए थे और यह 'होटल हाई लैंड्स'बनवाया था। बशीर साहब  बीच-बीच में आते रहते थे। सारे स्टाफ के साथ बशीर साहब का व्यवहार बहुत अच्छा था। 
**** चावला साहब के व्यवहार पर हमारे कुछ साथियों का वापिस आगरा लौटने का इरादा बना, मैं भी उनके साथ ही लौट लिया श्रीमती चावला ने हम लोगों को जीप से डोरमेटरी पहुंचा दिया था।  
हम लोग बस से सुबह  तडके  चल कर श्रीनगर  शाम को पहुंचे और रु.15/- प्रति बेड के हिसाब से एक शिकारा में सामान रखा। उसमें तीन बेड थे यदि और कोई आता तो उसे उसमें एडजस्ट करना था परन्तु कोई आया नहीं।  एस.पी. सिंह और मैं पहले रोडवेज के काउंटर पर गए और अगले दिन का जम्मू का टिकट लिया। फिर रात का खाना खाने के इरादे से बाजार में गए । वहां बशीर साहब ने  हमें देख लिया और पहले चाय-नाश्ता एक दूकान पर कराया और काफी देर विस्तृत वार्ता के बाद हम दोनों को एक रेस्टोरेंट में खाना भी उन्हीं ने खिलाया। 
शिकारा मालिक भी अच्छे व्यवहार के थे उनका वायदा था कि  अगले दिन वह बस के समय से पहले ही जगा देंगे किन्तु हम लोग खुद ही जाग गए ।  सुबह तड़के श्रीनगर से बस चल दी। शाम तक हम लोग जम्मू में थे। ट्रेन पकड़ कर आगरा के लिए रवाना हो गए और अगले दिन आगरा भी पहुँच गए। 

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गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

कौन अपना ? कौन पराया ? ------ विजय राजबली माथुर





प्रस्तुत चित्र में प्रदर्शित अपने देश के सर्वाधिक ठंडे स्थान ' द्रास ' क्षेत्र के ' ज़ोजिला ' दर्रे में फंस कर एक पूरी रात गुजारने का मौका मुझे भी मिला है जिसका वर्णन 2011 में लिखित संस्मरणों से उद्धृत किया जा रहा है :

 "हेमंत कुमार जी छात्र जीवन में सयुस(समाजवादी युवजन सभा)  में रहे थे और बांग्लादेश आन्दोलन में दिल्ली के छात्र प्रतिनिधि की हैसियत  से भाग ले चुके थे.लेकिन होटल मुग़ल के पर्सोनल मेनेजर के रूप में कर्मचारियों के हितों के विपरीत कार्य करके हायर मेनेजमेंट  को खुश करना चाहते थे.कारगिल,लद्दाख में आई.टी.सी.ने एक लीज प्रापर्टी 'होटल हाई लैंड्स'ली थी.यह होटल ,होटल मुग़ल के जी.एम्.के ही अन्डर था.पेंटल साहब सीराक होटल,बम्बई ट्रांसफर होकर जा चुके थे और सरदार नृप जीत  सिंह चावला साहब नये जी.एम्.थे,वह भी एंटी एम्प्लोयी छवि के थे.यूं.ऍफ़.सी.शेखर साहब की जगह पी.सुरेश रामादास साहब आ गए थे जो पूर्व मंत्री एवं राज्यपाल सत्येन्द्र नारायण सिंहां के दामाद थे और अटल बिहारी बाजपाई के प्रबल प्रशंसक थे.१९८० के मध्यावधी चुनावों में इंदिरा गांधी पहली बार आर.एस.एस.के समर्थन से पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापिस आ चुकीं थीं.२५ मार्च १९८१ को मेरी शादी करने की बाबत फाइनल फैसला हो चुका था.इतनी तमाम विपरीत परिस्थितियों में मुझे अस्थायी तौर पर (मई से आक्टूबर)होटल हाई लैंड्स ,कारगिल ट्रांसफर कर दिया गया.इन्कार करके नौकरी छोड़ने का यह उचित वक्त नहीं था.

२४ मई १९८१ को होटल मुग़ल से पांच लोगों ने प्रस्थान किया.छठवें अतुल माथुर,मेरठ से सीधे कारगिल ही पहुंचा था.आगरा कैंट स्टेशन से ट्रेन पकड़ कर दिल्ली पहुंचे और उसी ट्रेन से रिजर्वेशन लेकर जम्मू पहुंचे.जम्मू से बस   द्वारा श्री नगर गए जहाँ एक होटल में हम लोगों को ठहराया गया.हाई लैंड्स के मेनेजर सरदार अरविंदर सिंह चावला साहब -टोनी चावला के नाम से पापुलर थे,उनका सम्बन्ध होटल मौर्या,दिल्ली से था.वह एक अलग होटल में ठहरे थे,उन्होंने पहले १५ हजार रु.में एक सेकिंड हैण्ड जीप खरीदी जिससे ही वह कारगिल पहुंचे थे.४-५ रोज श्री नगर से सारा जरूरी सामान खरीद कर दो ट्रकों में लाद कर और उन्हीं ट्रकों से हम पाँचों लोगों को रवाना कर दिया.श्री नगर और कारगिल के बीच 'द्रास'क्षेत्र में 'जोजीला'दर्रा पड़ता है.यहाँ बर्फबारी की वजह से रास्ता जाम हो गया और हम लोगों के ट्रक भी तमाम लोगों के साथ १२ घंटे रात भर फंसे रह गए.नार्मल स्थिति में शाम तक हम लोगों को कारगिल पहुँच चूकना था.( ठीक इसी स्थान पर बाद में किसी वर्ष सेना के जवान और ट्रक भी फंसे थे जिनका बहुत जिक्र अखबारों में हुआ था).

इंडो तिब्बत बार्डर पुलिस के जवानों ने अगले दिन सुबह बर्फ कट-काट कर रास्ता बनाया और तब हम लोग चल सके.सभी लोग एकदम भूखे-प्यासे ही रहे वहां मिलता क्या?और कैसे?बर्फ पिघल कर बह रही थी ,चूसने पर उसका स्वाद खारा था अतः उसका प्रयोग नहीं किया जा सका .तभी इस रहस्य का पता चला कि,इंदिरा जी के समक्ष एक कनाडाई फर्म ने बहुत कम कीमत पर सुरंग(टनेल)बनाने और जर्मन फर्म ने बिलकुल मुफ्त में बनाने का प्रस्ताव दिया था.दोनों फर्मों की शर्त थी कि ,'मलवा' वे अपने देश ले जायेंगें.इंदिराजी मलवा देने को तैयार नहीं थीं अतः प्रस्ताव ठुकरा दिए.यदि यह सुरंग बन जाती तो श्री नगर से लद्दाख तक एक ही दिन में बस  द्वारा पहुंचा जा सकता था जबकि अभी रात्रि हाल्ट कारगिल में करना पड़ता है.सेना रात में सफ़र की इजाजत नहीं देती है. " 
घर , बाहर , समाज, राजनीति  सभी  क्षेत्रों  का मेरा निजी अनुभव यह रहा है कि , जिन लोगों ने मुझसे कोई भी फायदा उठाया है वे ही मुझे पीछे धकेलने के  प्रयासों में आगे रहे हैं। वैसे तो मैं  निराश कभी होता नहीं हूँ परंतु इस बार अपने जन्मदिन  ( 05 फरवरी ) पर प्राप्त बधाई संदेशों पर प्रारम्भ में यह उत्तर बतौर टिप्पणी दिया था : 
 " आपकी शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद , वस्तुतः इस धरती पर एक बोझ के 66 वर्ष कम हुये। "  वैसे मैंने प्रत्येक संदेश - प्रेषक को व्यक्तिगत रूप से उत्तर दिया है फिर भी उनमें से कुछ का उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है। 
किन्तु उत्तर - प्रदेश की प्रथम संविद सरकार में गृह राज्यमंत्री रहे कामरेड रुस्तम सेटिन साहब की सुपुत्री कामरेड रीना सेटिन जी ने जो प्रत्युत्तर दिया उसी ने इस विवरण का शीर्षक " कौन अपना ?  कौन पराया ? " रखने की प्रेरणा दी है।   
कामरेड रीना सेटिन जी ने  सन्मार्ग को इंगित कर सच्चे अर्थों में एक बहन की भूमिका का निर्वहन किया है। 
जबकि सगे कहे जाने वाले बहन - भाई और रिश्तेदार  तथा निकटतम लोग टांग - खिचाई का कोई भी मौका नहीं छोडते हैं। 



यद्यपि अपने ही माता - पिता के पुत्र - पुत्री मेरे सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी विपरीत  रुख रखने के कारण और छोटे होने के कारण  जबरिया दबा पाने में असमर्थ रहने के कारण दूरी बनाए हुये हैं  हमारे बाबाजी  ( Grand Father ) के चचेरे भाई साहब के पौत्र - पौत्री  अपने कहलाने वाले भाई - बहन से भी कहीं अधिक अपनत्व अपनाते हैं । उनके बधाई संदेशों  को सहेजना और सार्वजनिक करना ज़रूरी लगता है :



:

पुत्र एवं कुछ अन्य फेसबुक फ्रेंड्स के संदेशों को भी देना अनुचित नहीं होगा। जिन लोगों ने इन बाक्स मेसेज के जरिये अपने संदेश भेजे वे क्रमानुसार अशरफ पूकम, पवन करन,महेश दौनिया,गौतम कुमार साहेबान तथा बहन सुषमा सिंह जी एवं सूर्यकांत सरवासे व नाना साहब कदम साहेबान  हैं। 






इनके अतिरिक्त एक निकटतम रिशेदार की निकटतम रिश्तेदार जिनसे मेरा कोई सीधा रिश्ता नहीं है , सिर्फ फेसबुक फ्रेंड हैं ने भी उतनी ही आत्मीयता से अपना संदेश दिया है जितनी आत्मीयता से उपरोक्त चचेरे भाइयों व बहन ने किन्तु उनका नामोल्लेख करना इसलिए उचित नहीं है कि, नाम सार्वजनिक होने पर उनके व हमारे निकटतम रिश्तेदार कहीं उनसे  भी नफरत न करने लगें जिस प्रकार कि मुझसे घोर नफरत रखते हैं। 

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