शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

लखनऊ में २०१०

जैसा कि,पहले ही बताया है कि रघुवीर सहाय फिराक गोरखपुरी सा : क़े बलिया/आगरा क़े वक्तव्य से प्रभावित होकर आगरा में बस गये थे;परन्तु आज क़े आगरा क़े लोगों क़े व्यवहार से क्षुब्ध होकर आगरा छोड़ दिया एवं २००९ में ९ अक्टूबर को लखनऊ आ गये थे.२०१० पूरा अपने लखनऊ क़े नये मकान में गुजरा है.यह भी पहले ही बताया जा चुका है कि,हमारे कुछ रिश्तेदारों को हमारा लखनऊ में पुनः आना बेहद नागवार लगा है और वे लगातार हमें परेशान कर रहे हैं.भास्मासुरों ने जो अतीत में मुझसे ज्योतिषीय लाभ उठा चुके हैं तो हर हथकंडे अपनाए ही;लखनऊ से ही सम्बंधित एक ब्लागर को भी मेरे व मेरे परिवारीजनों क़े विरुद्ध तैनात कर दिया.क्योंकि मैं ज्योतिष में ढोंग व पाखण्ड का प्रबल विरोध करता हूँ,इसलिए ऐसे लोग जिनकी आजीविका  ही ढोंग व पाखण्ड पर अवलंबित है भी उस गुट में शामिल होकर कुछ तांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा हमें निरन्तर परेशान करने लगे.लेकिन जहाँ तक मेरा प्रश्न है,मैंने सदैव ही सकारात्मक -वैज्ञानिक पूजा पद्धति को अपनाए रखा और उसी क़े बल पर खुद अपना व अपने परिवार का बचाव किया है.

बिल्डर को मिलाकर हमारे मकान में गड़बड़ियाँ तो कराई हीं.अगल-बगल क़े लोगों को भी दुष्प्रचार द्वारा हमारे विरुद्ध जुटाया गया.सबसे भीषण हमला हुआ मेरी पत्नी पर २७ दिसंबर ,सोमवार को.तांत्रिक प्रक्रिया द्वारा उनके मस्तिष्क को विचलित किया गया जिसके परिणामस्वरूप वह सीढ़ियों पर बिलकुल ऊपर पहुँच कर धुलक गईं और एकदम नीचे आकर गिरीं.यशवन्त ने घबराकर मुझे आवाज दी और मैं पूजा बीच में छोड़ कर नीचे उतरा तथा सहारा देकर उन्हें ऊपर ले गया.उपलब्ध दवाईयों तथा वैज्ञानिक स्तुतियों का सहारा लिया. हालाँकि,अभी बदन ,सिर आदि में दर्द व बुखार का प्रकोप पूरा नहीं हटा है,परन्तु खतरे को काबू कर लिया है.

कोशिश यह है कि,किसी तरह मेरी पत्नी ही लखनऊ को रिजेक्ट कर दें और मुझे यहाँ से हटना पड़े.यशवन्त को भी जाब में परेशान  किया गया था तो उसे साईबर कैफे खुलवा दिया था.अब उसके व्यवसाय तथा मेरे ज्योतिष को आर्थिक क्षति पहुंचाई जा रही है.लेकिन धन ही सब कुछ नहीं होता ऐसा हमारे विरोधियों को नहीं पता है.

यशवन्त क़े माध्यम से हम ब्लाग जगत से जुड़े और हमें कुछ विद्वान -सज्जन लोगों से सम्मान तथा सहानुभूति भी प्राप्त हुई है एवं वही हमारे लिये सबसे बड़ी पूंजी है.मैं किसी भी प्रकार की न तो समीक्षा करना चाहता हूँ न ही किसी को अच्छा या बुरा बताना चाहता हूँ ,परन्तु जिनसे प्रेरणा व ज्ञान प्राप्त हुआ या जिनके आलेख/कविता आदि हमें पसन्द आये उनका ज़िक्र करना और उनका शुक्र -गुज़ार होना  तो हमारा कर्त्तव्य बनता ही है.क्रन्तिस्वर पर केवल तीन ही विद्वानों-डा.टी.एस.दराल सा :,सलिल वर्माजी (चला बिहारी ब्लागर बनने वाले),विजय कुमार वर्माजी का ही उल्लेख हुआ है.इनके आलावा भी -अल्पना वर्मा जी ,वीना श्रीवास्तव  जी,रंजना जी,मोनिका शर्मा जी,मनोज  कुमार जी,महेंद्र वर्मा जी,पी.सी.गोदियाल सा :,क़े.क़े.यादव जी और आकांक्षा जी क़े ब्लॉगों से बहुत कुछ सीखने समझने को मिला है -इन सब का भी आभारी हूँ.और भी बहुत से ब्लाग ऐसे हैं जिनसे कुछ न कुछ सीखा ही है.*

कुल मिला कर ऐसा कुछ नहीं है जो हमें हताश कर सके और हमारे क़दमों को रोक सके.अभी २६ दिस.को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी क़े ८५ वें स्थापना दिवस पर उनकी गोष्ठी में सुनने का अवसर मिला.वक्ताओं ने भ्रष्टाचार व चुनाव -सुधार पर व्यापक विचार व्यक्त किये."हमें तुम्हारे स्विस बैंक खातों का हिसाब चाहिए"यह था नारा (स्लोगन).का.अतुल अँजान ने बताया कि,घोटालों-घपलों से आवारा पूंजी जन्मी जिसने भ्रष्टाचार को आसमान पर पहुंचा दिया.उनसे पूर्व का. गिरीश ने भी बताया था कि,भ्रष्टाचार अंग्रेजों क़े ज़माने से-नजराना,शुकराना,भेंट आदि क़े रूप में चलता आया है,परन्तु तब इसे हिकारत की निगाह से देखा जाता था.पकडे जाने पर भ्रष्टाचारी की ज़लालत होती थी.टी.टी.कृष्णामाचारी,केशव देव मालवीय आदि भ्रष्टाचार क़े कारण मंत्री-मण्डल से हटाये गये थे.धीरे-धीरे भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बताया जाने लगा और यह आज बेशर्मी की सारी हदें पार कर चुका है.

मैं न तो विद्वान हूँ न ही कोई विशेषज्ञ परन्तु मेरी अल्प बुद्धी ने जो समझा है,वह यह है कि हमारी प्रचलित संस्कृति ही भ्रष्टाचार क़े मूल में है.लोग-बाग अपने भगवान से सौदे-बाजी करते है कि,यह या वह काम पूरा होने पर इतने/उतने रु.का प्रशाद चढ़ाएंगे.इसी प्रकार मतलब साधने वाले इन्सान से भी सौदेबाजी होती है.

यदि समाज से सिर्फ पैसे वालों का सम्मान करने की प्रवृती समाप्त हो जाये तो भ्रष्टाचार का निर्मूलन होते देर नहीं लगेगी.आईये नव-वर्ष २०११ में संकल्प लें कि, योग्यता व विद्वता को ही पूजेंगे,धनाढ्यता  को नहीं.२०११ का वर्ष आप क़े लिये व आपके सभी परिवारीजनों क़े लिये मंगलमय,शुभ,स्वास्थ्यकारी एवं उज्जवल हो.


*क़े आर .जोशी जी (Patali the village ),पूनम श्रीवास्तव जी (झरोखा),जाकिर अली 'रजनीश' साहब (तस्लीम),क़े नाम जल्दी जल्दी में छूट  गये थे.

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शनिवार, 18 दिसंबर 2010

क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष (४ )

रूडकी रोड चुंगी क़े पास स्थित इस क्वार्टर से बाबूजी का दफ्तर और हम लोगों क़े कालेज तो पास हो गये थे परन्तु बहन को उसी कंकर खेड़ा क़े कालेज में काफी दूर पैदल चल कर जाना पड़ता था.सी .डी .ए .कर्मचारियों की पुत्रियों क़े साथ बहन का आना-जाना होता था.

१९६९ में मैंने इन्टर की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी.बहुत तडके अखबार वाला .५० पै.लेकर रिज़ल्ट दिखा गया था.परन्तु हाई स्कूल की परीक्षा छोटा भाई उत्तीर्ण न कर सका उसे फिर उसी कक्षा व कालेज में दाखिला लेना पड़ा जबकि,बाबूजी ने मुझे मेरठ कालेज में बी .ए .में दाखिला करा लेने को कहा और मैंने वैसा ही किया.उस समय वहां क़े प्रधानाचार्य वी.पुरी सा :थे जो बाद में अपनी यूनियन का पदाधिकारी चुने जाने क़े बाद त्याग-पत्र दे गये.फिलासफी क़े एच .ओ .डी .डा .बी.भट्टाचार्य कार्यवाहक प्रधानाचार्य बने जिनके विरुद्ध उन्हीं क़े कुछ साथियों ने छात्र नेताओं को उकसा कर आन्दोलन करवा दिया.डी.एम्.ऋषिकेश कौल सा :कालेज कमेटी क़े पदेन अध्यक्ष थे और उनका वरद हस्त डा.भट्टाचार्य को प्राप्त था.नतीजतन एक माह हमारा कालेज पी.ए.सी.का कैम्प बना रहा और शिक्षण कार्य ठप्प रहा.रोज़ यू .पी.पुलिस मुर्दाबाद क़े नारे लगते रहे और पुलिस वाले सुनते रहे.
एक छात्र ने स्याही की दवात  डा .भट्टाचार्य पर उड़ेल  दी और उनका धोती-कुर्ता रंग गया ,उन्हें घर जाकर कपडे बदलने पड़े.समाजशास्त्र की कक्षा में हमारा एक साथी सुभाष चन्द्र शर्मा प्रधानाचार्य कार्यालय का ताला तोड़ कर जबरिया प्रधानाचार्य बन गया था और उसने डा.भट्टाचार्य समेत कई कर्मचारियों -शिक्षकों की बर्खास्तगी का आदेश जारी कर दिया था.उसे गिरफ्तार कर लिया गया और बहुत दिन तक उसकी मुकदमें में पेशी होती रही;वैसे कालेज क़े सामने कचहरी प्रांगण में ही उसका ढाबा भी चलता था.सुनते थे कि,वह पंद्रह दिन संसोपा में और पंद्रह दिन जनसंघ में रह कर नेतागिरी करता था.पढ़ाई से उसे ख़ास मतलब नहीं था डिग्री लेने और नेतागिरी करने क़े लिए वह कालेज में छात्र बना था.हमारे साथ एन.सी.सी.की परेड में भी वह कभी -कभी भाग ले लेता था,सब कुछ उसकी अपनी मर्जी पर था.पिछले वर्षों तक कालेज यूनियन क़े प्रेसीडेंट रहे सतपाल मलिक (जो भारतीय क्रांति दल,इंदिरा कांग्रेस ,जन-मोर्चा,जनता दल होते हुए अब भाजपा में हैं और वी.पी.सिंह सरकार में उप-मंत्री भी रह चुके) को डा.भट्टाचार्य ने कालेज से निष्कासित कर दिया और उनके विरुद्ध डी.एम.से इजेक्शन नोटिस जारी करा दिया.

नतीजतन सतपाल मलिक यूनियन क़े चुनावों से बाहर हो गयेऔर उनके साथ उपाद्यक्ष रहे राजेन्द्र सिंह यादव (जो बाद में वहीं अध्यापक भी बने) और महामंत्री रहे तेजपाल सिंह क्रमशः समाजवादी युवजन सभा तथा भा.क्र.द .क़े समर्थन से एक -दूसरे क़े विरुद्ध अध्यक्ष पद क़े उम्मीदवार बन बैठे.बाज़ी कांग्रेस समर्थित महावीर प्रसाद जैन क़े हाथ लग गई और वह प्रेसिडेंट बन गये.महामंत्री पद पर विनोद गौड (श्री स.ध.इ.कालेज क़े अध्यापक लक्ष्मीकांत गौड क़े पुत्र थे और जिन्हें ए.बी.वी.पी.का समर्थन था)चुने गये.यह एम्.पी.जैन क़े लिए विकट स्थिति थी और मजबूरी भी लेकिन प्राचार्य महोदय बहुत खुश हुए कि,दो प्रमुख पदाधिकारी दो विपरीत धाराओं क़े होने क़े कारण एकमत नहीं हो सकेंगे.लेकिन मुख्यमंत्री चौ.चरण सिंह ने छात्र संघों की सदस्यता को ऐच्छिक बना कर सारे छात्र नेताओं को आन्दोलन क़े एक मंच पर खड़ा कर दिया.

ताला पड़े यूनियन आफिस क़े सामने कालेज क़े अन्दर १९७० में जो सभा हुई उसमें पूर्व महामंत्री विनोद गौड ने दीवार पर चढ़ काला झंडा फहराया और पूर्व प्रेसीडेंट महावीर प्रसाद जैन ने उन्हें उतरने पर गले लगाया तो सतपाल मलिक जी ने पीठ थपथपाई और राजेन्द्र सिंह यादव ने हाथ मिलाया.इस सभा में सतपाल मलिक जी ने जो भाषण दिया उसकी ख़ास -ख़ास बातें ज्यों की त्यों याद हैं (कहीं किसी रणनीति क़े तहत वही कोई खण्डन न कर दें ).सतपाल मलिक जी ने आगरा और बलिया क़े छात्रों को ललकारते हुए,रघुवीर सहाय फिराक गोरखपुरी क़े हवाले से कहा था कि,उ .प्र .में आगरा /बलिया डायगनल में जितने आन्दोलन हुए सारे प्रदेश में सफल होकर पूरे देश में छा  गये और उनका व्यापक प्रभाव पड़ा.(श्री मलिक द्वारा दी  यह सूचना ही मुझे आगरा में बसने क़े लिए प्रेरित कर गई थी ).मेरठ /कानपुर डायगनल में प्रारम्भ सारे आन्दोलन विफल हुए चाहे वह १८५७ ई .की प्रथम क्रांति हो,सरदार पटेल का किसान आन्दोलन या फिर,भा .क .पा .की स्थापना क़े साथ चला आन्दोलन  हो.श्री मलिक चाहते थे कि आगरा क़े छात्र मेरठ क़े छात्रों का पूरा समर्थन करें.श्री मलिक ने यह भी कहा था कि,वह चौ.चरण सिंह का सम्मान  करते हैं,उनके कारखानों से चौ.सा :को पर्याप्त चन्दा दिया जाता है लेकिन अगर चौ.सा : छात्र संघों की अनिवार्य सदस्यता बहाल किये बगैर मेरठ आयेंगे तो उन्हें चप्पलों की माला पहनने वाले श्री मलिक पहले सदस्य होंगें.चौ.सा :वास्तव में अपना फैसला सही करने क़े बाद ही मेरठ पधारे भी थे और बाद में श्री सतपाल मलिक चौ. सा : की पार्टी से बागपत क्षेत्र क़े विधायक भी बने और इमरजेंसी में चौ. सा :क़े जेल जाने पर चार अन्य भा.क्र.द.विधायक लेकर इंका.में शामिल हुए.

जब भारत का एक हवाई जहाज लाहौर अपहरण कर ले जाकर फूंक दिया गया था तो हमारे कालेज में छात्रों व शिक्षकों की एक सभा हुई जिसमें प्रधानाचार्य -भट्टाचार्य सा :व सतपाल मलिक सा :अगल -बगल खड़े थे.मलिक जी ने प्रारंभिक भाषण में कहा कि,वह भट्टाचार्य जी का बहुत आदर करते हैं पर उन्होंने उन्हें अपने शिष्य लायक नहीं समझा.जुलूस में भी दोनों साथ चले थे जो पाकिस्तान सरकार क़े विरोध में था.राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे यहाँ ऐसी ही एकता हमेशा रहती है,वरना अपने निष्कासन पर मलिक जी ने कहा था -इस नालायक प्रधानाचार्य ने मुझे नाजायज तरीके से निकाल  दिया है अब हम भी उन्हें हटा कर ही दम लेंगें.बहुत बाद में भट्टाचार्य जी ने तब त्याग -पत्र दिया जब उनकी पुत्री वंदना भट्टाचार्य को फिलासफी में लेक्चरार नियुक्त कर लिया गया.

समाज-शास्त्र परिषद् की तरफ से बंगलादेश आन्दोलन पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था.उसमें समस्त छात्रों व शिक्षकों ने बंगलादेश की निर्वासित सरकार को मान्यता देने की मांग का समर्थन किया.सिर्फ एकमात्र वक्ता मैं ही था जिसने बंगलादेश की उस सरकार को मान्यता देने का विरोध किया था और उद्धरण डा.लोहिया के हवाले से .मैंने कहा था कि,बंगलादेश हमारे लिए बफर स्टेट नहीं हो सकता और बाद में जिस प्रकार कुछ समय को छोड़ कर बंगलादेश की सरकारों ने हमारे देश क़े साथ व्यवहार किया मैं समझता हूँ कि,मैं गलत नहीं था.परन्तु मेरे बाद क़े सभी वक्ताओं चाहे छात्र थे या शिक्षक मेरे भाषण को उद्धृत करके मेरे विरुद्ध आलोचनात्मक बोले.विभागाध्यक्ष डा.आर .एस.यादव (मेरे भाषण क़े बीच में हाल में प्रविष्ट हुए थे) ने आधा भाषण मेरे वक्तव्य क़े विरुद्ध ही दिया.तत्कालीन छात्र नेता आर.एस.यादव भी दोबारा भाषण देकर मेरे विरुद्ध बोलना चाहते थे पर उन्हें दोबारा अनुमति नहीं मिली थी.गोष्ठी क़े सभापति कामर्स क़े H .O .D .डा.एल .ए.खान ने अपने  भाषण मेरी सराहना करते हुये कहा था 
हम उस छात्र से सहमत हों या असहमत लेकिन मैं उसके साहस की सराहना करता हूँ कि,यह जानते हुये भी सारा माहौल बंगलादेश क़े पक्ष में है ,उसने विपक्ष में बोलने का फैसला किया और उन्होंने मुझसे इस साहस को बनाये रखने की उम्मीद भी ज़ाहिर की थी.

मेरे लिए फख्र की बात थी की सिर्फ मुझे ही अध्यक्षीय भाषण में स्थान मिला था किसी अन्य वक्ता को नहीं.इस गोष्ठी क़े बाद राजेन्द्र सिंह जी ने एक बार जब सतपाल मलिक जी कालेज आये थे मेरी बात उनसे कही तो मलिक जी ने मुझसे कहा कि,वैसे तो तुमने जो कहा था -वह सही नहीं है,लेकिन अपनी बात ज़ोरदार ढंग से रखी ,उसकी उन्हें खुशी है.
मेरठ कालेज में अन्य गोष्ठियों आदि का विवरण अगली बार ......       



[टाइप समन्वय -यशवन्त ]

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सोमवार, 13 दिसंबर 2010

क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष (३ )

मारी कक्षा में रमेश गौतम नामक एक छात्र (जिनके पिताजी सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल थे )ने इतिहास की कक्षा में एक कमज़ोर खिड़की की लोहे की सलाख हाथ से मोड़ कर तोड़ दी थी. चीफ प्रोक्टर तेज पाल शर्मा जी जब पढ़ने आये तो पूंछा कि ,खिडकी किसने तोडी ?कोई छात्र मुंह खोलने को तैयार नहीं था ,तब खुद रमेश गौतम ने खड़े होकर कहा कि,सर आप टूटी खिड़की की मरम्मत नहीं करा रहे थे,इसलिए पूरी ही तोड़ दी.उसकी बात का शर्माजी पर पता नहीं क्या असर हुआ कि,उन्होंने उस वर्ष का चीफ प्रीफेक्ट उसे ही बना दिया तथा विगत वर्षों से चीफ प्रीफेक्ट चले आ रहे सरदार मनमोहन सिंह को एडीशनल चीफ प्रीफेक्ट बना दिया.सरदारजी मस्तमौला थे उसमें भी खुश हो गये,जब कुछ साथियों ने कुरेदा कि,भई तुमने प्रोटेस्ट क्यों नहीं किया था,एडीशनल क़े रूप में क्यों पद स्वीकार किया तो सरदार मनमोहन सिंह ने तपाक से उत्तर दिया कि,वह फ़ौजी अफसर का बिगडैल बेटा है अगर उसे चीफ प्रीफेक्ट न बनाया जाता तो वह लगातार अनुशासन तोड़ता जाता और उसे कन्ट्रोल करना  आसान नहीं होता ,इसलिए अच्छा ही हुआ कि बला टली.बाद में यही रमेश गौतम ,मेरठ कालेज में भी प्रीफेक्ट बना लिया गया था जहाँ पूर्व परिचय क़े आधार पर कार्यालय से वह मेरे कार्य अविलम्ब करवा देता था.

                                     नाम का स्पष्टीकरण

७ वीं कक्षा में वाद -विवाद प्रतियोगिता में प्राप्त कामायनी में भी तथा पी .एस .डी.क़े सर्टिफिकेट में भी मेरा नाम विजय  कुमार माथुर लिखा है क्योंकि,बाबू जी ने अपने बड़े भाईयों क़े व्यवहार से क्षुब्ध होकर दरियाबाद की पुश्तैनी जायदाद में अपना हिस्सा ठुकरा दिया था और हम दोनों भाईयों क़े नाम से खानदान का परिचयात्मक विशेषण "राज बली" हटा दिया था.अपना नाम तो सर्टिफिकेट ,सर्विस आदि सब जगह बदलना (जबकि ७ वर्ष फ़ौज में भी वही नाम लिखा था ) संभव नहीं था.अतः मेरा नाम जो वास्तव में "विजय राज बली माथुर "है -स्कूल रिकार्ड क़े हिसाब से विजय कुमार माथुर हो गया.परन्तु जब से मेरे लेख पत्र -पत्रिकाओं में छपे मैंने "विजय राज बली माथुर "नाम ही दिया.व्यवहार में स्कूली नाम को छोटा करके विजय माथुर ही चलाया क्योंकि,एफीडेविट देकर वास्तविक नाम चलने का अर्थ होता -पिताजी की कार्रवाई  को रद्द करना.अतः स्कूल -कालेज क़े रिकार्ड में नाम विजय कुमार माथुर रहने दिया.परन्तु लेखन आदि में जहाँ भी मेरा वास्तविक नाम "विजय राज बली माथुर "देखते हैं तो पिताजी क़े भतीजों आदि को बेहद बुरा लगता है मानों कि,खानदान का परिचय देकर मैं कोई गुनाह कर रहा हूँ? यदि कभी दुर्भाग्य से मैं कोई अहमियत हासिल कर सका मेरी कलम में कुछ ताकत दिखाई दी  तो मैं समझता हूँ कि,वे लोग ही सबसे पहले मुझे अपना सगा भई बताने में पल भर की भी देर नहीं करेंगे.जिन लोगों ने या उनके माता -पिता ने मेरे माता -पिता को परेशां किया ,प्रताड़ित किया और तरक्की क़े सारे रास्ते बन्द कर दिए उनसे समझौता करना मेरा स्वभाव नहीं है.
                         
  कंकर -खेडा निवास क़े दौरान

मेरठ कैंट में उस समय कंकर खेडा स्वतन्त्र टाउन एरिया  कमेटी क़े आधीन था जो कि, मेरठ कैंट स्टेशन क़े पीछे सरधना रोड पर स्थित है.डिस्टिलरी की तरफ से या सरू स्मेल्टिंग की तरफ से जाने पर रेलवे फाटक क्रास करने पड़ते थे.इसलिए कभी -कभी रेलवे क़े स्टेप ब्रिज (जिस पर दोनों ओर साईकिलों को चढाने -उतारने क़े लिए स्लोप दिया हुआ था )से यार्ड और स्टेशन पार करके कालेज जाते थे.हम लोगों क़े उस मकान में पहुँचने क़े कुछ दिनों बाद हमारी मौसी वहां आईं थीं अपने बड़े बेटे लाल भाई सा :


(मौसी क़े साथ लाल भाई साहब और गोदी में मिथ्थे जीजी ) 
(श्री आनंद बिहारी लाल माथुर जो चित्र में चीनी -रोटी खा रहे हैं और अब डाक -तार विभाग में आडिटर क़े पद से रिटायर्ड हो कर दिल्ली में ज्योतिष की प्रैक्टिस कर रहे हैं ) क़े साथ.हमारी मौसी स्व.भगवती देवी माथुर और मौसा जी स्व.राम बिहारी लाल माथुर बेहद मिलनसार और सज्जन थे,जब कि उनके दूसरे भी जीवित पुत्र रमेश तथा जीवित पुत्री मिथ्थे जीजी (भोपाल में बस गईं श्रीमती मिथलेश माथुर पत्नी श्री सतवन्त किशोर माथुर -रिटायर्ड सीनियर ट्रैफिक आफिसर ,इन्डियन एयर लाईन्स जो गुडगाँव क़े मूल -निवासी हैं ) बेहद विपरीत स्वभाव क़े हैं.
मौसी दो -तीन दिन रह कर चली गईं थीं.१९५९ या ६० में तब   हम लोग बचपन में लखनऊ से मौसी क़े घर दिल्ली में दो -तीन हफ्ते रहे थे.  मौसाजी को लांसर रोड पर सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था.उनके साथ रिजर्व बैंक में अधिकारी उनके छोटे भाई भी रहते थे.वह मौसाजी व उनके बच्चों की मदद करते थे परन्तु जब मौसेरे भाई -बहन बड़े हुए तो अपने चाचा -चाची का साथ रहना उन्हें पसन्द नहीं आया अतः मौसाजी क़े भाई अलग अपने बैंक क़े बंगले में चले गये और फिर उसके बाद अपना मकान बना लिया.जब हम लोग दिल्ली गये थे मौसाजी क़े भाई -भौजाई भी हम लोगों क़े साथ वैसा ही व्यवहार करते थे जैसा कि मासी -मौसा जी का था.हम लोग उन्हें भी मौसी -मौसाजी ही कहते थे.
मकान मालिक सरदार जी (मोगिया सा :)और उनकी पत्नी भी अच्छे व्यवहार क़े धनी थे.सरदारजी ने अपनी सगी छोटी साली को जनमते ही दत्तक पुत्री बना लिया था.बाद में उनका स्वंय का भी पुत्र हो गया था और असल में वे मौसी -भान्जा ,भाई -बहन क़े रूप में रहते थे.
कुछ माह बाद बाबूजी को रूडकी रोड पर सरकारी क्वार्टर मिल गया था और हम लोग वहां चले गये थे.उसकी
चर्चा अगली पोस्ट में  --------------- 
  

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शनिवार, 11 दिसंबर 2010

क्रांतिनगर मेरठ में सात वर्ष (२ )

अन्ततः बाबूजी क़े आफिस क़े एक सरदारजी मोगिया सा :ने अपने मकान में दो कमरे किराये पर दे दिए.इस प्रकार हम लोग प्रेमपुरी,मेरठ सिटी से कंकर  खेडा ,मेरठ कैंट शिफ्ट हो गये.बाबूजी का सी .डब्ल्यू .ई .आफिस ढाई -तीन कि .मी .रहा होगा और उससे थोडा ही आगे श्री सनातन धर्म ब्वायज इन्टर कालेज में हम दोनों भाईओं का दाखिला क्रमशः कक्षा १२ और १० में हो गया .कालेज क़े वाईस प्रिंसिपल प्रकाश नारायण माथुर सा :ने मेरी फीस आधी माफ़ करा दी (ऐसा नियम था कि ,दो भाईयों में जिसकी फीस कम हो उसकी आधी माफ़ कर दी जाती थी;भाई साईंस का विद्यार्थी था इसलिए कक्षा १० में उसकी फीस ज्यादा थी.)पी .एन .माथुर सा :ने बाबूजी को बुलवाकर उनसे बात की और उन्हें माथुर सभा मेरठ की गतिविधियों में भाग लेने को कहा.उनके अनुरोध पर बाबूजी होली क़े बाद वार्षिक समारोह में जाने लगे, हम सब भी शामिल होते थे.हम लोगों क़े सामने जो पहला कार्यक्रम हुआ वह बी .ए .वी .इन्टर कालेज में हुआ था.माथुर सभा क़े तत्कालीन सेक्रेटरी आर .सी .माथुर सा : हिंदुस्तान टाईम्स क़े पत्रकार थे जो अध्यक्ष महोदय की ही भांति काफी मिलनसार थे.बाद में दोनों की ही  मृत्यु उसी वर्ष हो गई.अच्छे लोगों से मुलाकात बहुत छोटी ही रही.

कालेज क़े प्रिंसिपल फतह चंद पाठक जी काफी सख्त माने जाते थे और किसी कक्षा को नहीं पढ़ाते थे,उनका सम्बन्ध कांग्रेस पार्टी से था.जब मध्यावधी चुनाव हुए तो पाठक जी ने बड़ी कक्षाओं क़े छात्रों को अपने पास बुला -बुला कर जायजा लिया कि ,किस क्षेत्र में किस पार्टी का जोर रहा ;तब सबसे खूब मुस्करा -मुस्करा कर पूछ रहे थे.
चीफ प्रोक्टर तेज पाल शर्मा जी बेहद सख्त आदमी थे ,हमें इतिहास पढ़ाते थे.ज़्यादातर छात्र उनकी कक्षा में खौफ जदा रहते थे.इतिहास मेरा प्रिय विषय था और शाहजहांपुर में प्रधानाचार्य शर्माजी द्वारा इतिहास पढाया जाना खूब भाता था उसका लाभ पांच वर्ष बाद यहाँ मेरठ में भी मिला कि,टी .पी .शर्माजी कक्षा में मुझ से प्रसन्न रहते थे जब जो पूछते थे उत्तर सही मिल जाता था.बाद में तो  उन्होंने मुझसे पूछना ही बन्द कर दिया था .जब कभी सारे छात्र  उत्तर बताने में असफल रहते थे तभी मुझसे कहते थे कि,तुम ही बता दो और मेरा उत्तर सुन कर बाकी लोगों को नसीहत देते थे.

अर्थशास्त्र हमें राम भरोसे पाठक जी पढ़ाते थे उनसे भी अधिकाँश छात्र भयभीत रहते थे.मैं रटने में माहिर था अतः उनका भी सौहाद्र प्राप्त करने में सफल रहा जब जो पूछा ,मेरा दिया उत्तर सही ही गया.
नागरिक शास्त्र हरवीर शर्माजी पढ़ाते थे.उनके पढ़ने में कुछ नाटकीयता का पुट रहता था ,अब लगता है कि,शायद वह इप्टा से सम्बंधित रहे  हों.वह पी.एस .डी. (प्रदेशीय शिक्षा दल )की भी ट्रेनिंग देते थे और उन्होंने सी.ए .वी.इन्टर कालेज में सम्पन्न युवक समारोह १९६८ -६९ में पी .एस.डी.की तरफ से "सलामी परेड "तथा "समाज सेवा "में मेरी भी ड्यूटी लगा दी थी.आम तौर पर खेलों से दूर भागने वाले इन्सान क़े लिए यह अनोखी घटना थी.


उन्होंने जबतक समारोह  स्कूल की पढ़ाई से अलग अपने साथ टीम में रखा.कक्षा में नागरिक शास्त्र में दिलचस्पी व जागरूकता देखते हुए ही शायद उन्होंने अपने साथ इस समारोह क़े लिए मेरा भी चयन कर लिया था या वह मुझे क़े नज़दीक ले जाना चाहते थे,यह मैं तब भी नहीं समझ पाया था,आज भी नहीं समझ सका हूँ.
हमें हिन्दी गिरीश चन्द्र शर्माजी पढ़ाते थे,वह भी अच्छे थे.एक अध्यापक सरलजी क़े नाम से मशहूर थे कभी -कभी खाली पीरियड में हमारी कक्षा में आ जाते थे.शर्मिला टैगोर की नवाब मंसूर अली खां पटौदी से शादी पर उनमें काफी आक्रोश था और लगभग साम्प्रदायिक प्रवचन उन्होंने दे डाला था. एक अन्य अध्यापक रस्तोगी जी विधायक रह चुके थे,बाद में कांग्रेस (ओ )में चले गयेथे.एक शिक्षक लक्ष्मीकांत गौड जी कट्टर जनसंघी थे.ये लोग हमें नहीं पढ़ाते थे.
शोभा कंकर -खेडा में ही गुरुनानक गर्ल्स इन्टर कालेज में पढ़ती थी.वह पैदल जाती थीऔर हम भाई अलग -अलग साईकिलों से -सब का समय अलग अलग था.

कंकर -खेडा की कुछ बातें और नाम का स्पष्टीकरण आगे की पोस्ट में

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रविवार, 21 नवंबर 2010

क्रांतिनगर -मेरठ में सात वर्ष (१)

हमारे बाबूजी सिलीगुड़ी से सीधे मेरठ पहुँच चुके थे.हम लोग भी जून १९६८ में मेरठ आ गए.राजनीतिक दृष्टि से मेरठ सन १८५७ ई .की प्रथम भारतीय स्वतंत्रता  की क्रांति का उदगम नगर तो है ही प्राचीन हस्तिनापुर भी तब मेरठ जिले का ही भाग था जो महाभारत -काल में इन्द्रप्रस्थ भी कहलाता था .भौगोलिक दृष्टि से यह राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली क़े बहुत निकट है तथा जलवायु की दृष्टि से एक उत्तम नगर है.यहीं तीन वर्ष पढ़ाई,तीन वर्ष कमाई और एक वर्ष  दोनों क़े बीच बेरोजगारी क़े गुजरे हैं .हमारी बउआ को यह शहर बहुत पसन्द था.एक बार आगरा छोड़ते समय विचार बना था कि पुनः मेरठ में ही शिफ्ट हुआ जाये तब यशवन्त भी वहीं जाब कर रहा था.उसे भी मेरठ पसन्द है.लेकिन राजनीतिक कारणों से वहां की बजाये लखनऊ आ गए हैं,वहां की बहुत सी बातें ,बहुत सारे संघर्ष आज भी ज्यों क़े त्यों याद हैं.पूनम तो आगरा छोड़ने क़े ही पक्ष में नहीं थीं,मेरठ तो कतई नहीं जाना चाहती थीं,किसी तरह लखनऊ क़े लिए सहमत हो गयीं थीं ,लखनऊ क़े लोगों का व्यवहार उन्हें बहुत ही नागवार लगा है.

मेरठ में सिटी स्टेशन क़े निकट प्रेमपुरी में भगवत दयाल शर्माजी क़े मकान में एक कमरा लेकर बाबूजी रह रहे थे ,उसी में हम सब लोग भी आ कर ठहरे.शर्मा दम्पत्ति बुजुर्ग थे और उनका व्यवहार मधुर था ,उन्होंने बाहर का बारामदा हम लोगों को प्रयोग करने  की छूट दे दी थी .बाबूजी का आफिस कैंटोनमेंट में था इसलिए स्कूल ,कालेज खुलने से पहले ही बाबूजी उधर ही मकान किराये पर ले लेना चाहते थे.लगभग एक माह उनके मकान में हम लोग रहे होंगे,वहां उनके पडौसी ने नया टेलीविजन जब लिया तो अपने बाहर क़े कमरे में रखा और आस -पास क़े लोगों को उनके घर आकर दूर -दर्शन पर आने वाली फिल्म देखने का न्यौता दिया.अजय और शोभा तो खुशी से चले जाते थे एक दिन मुझे भी मकान मालिक क़े कहने पर बाबूजी व बउआ ने ज़बरदस्ती भेज दिया था.कौन सी फिल्म थी क्या दिखाया गया मुझे मालुम नहीं क्योंकि बेमन से गया था तो कोई ध्यान ही नहीं दिया .मेरठ में बाबूजी क़े आफिस क़े एक (कानपूर क़े ब्राह्मन )पं .जी ने बाबूजी को आनंद मार्ग और उसके राजनीतिक संगठन प्राउटिस्ट ब्लाक आफ इंडिया में शामिल करने का प्रयत्न किया .उनकी दी हुयी पुस्तकों का अध्यन कर मैंने बउआ को पुस्तकें पढ़वाकर समझाया कि बाबूजी को इनसे अलग करवाएं ये संगठन देश -हित में नहीं हैं.मेरा अनुमान कुछ  ही वर्षों में सच साबित हो गया जब तत्कालीन प्रधान मंत्री (इदिरा गांधी ) ने आनंद मार्ग क़े आश्रमों पर छापा  डलवा कर उसकी रीढ़ तोड़ दी .उन पं . जी ने कानपूर में P .B .I .से चुनाव भी लड़ा था वह हारे भी और बर्खास्त भी कर दिए गए ;तब मैंने बउआ से कहा कि यदि तब आप बाबूजी को उनसे अलग न करातीं तो अब हम लोगों क़े समक्ष भी विकट समस्या आ सकती थी.मैं तब इंटर फाईनल में था और शुरू से ही राजनीतिक प्राणी रहा हूँ इसलिए ताड़ गया था जबकि अजय व शोभा छोटे भी थे और उन्हें इन सब बातों से मतलब भी न था.पी .बी .आई.का अखबार " प्रउत "(जिसका अर्थ प्रगतिशील उपयोगी तत्व बताया जाता था )बड़ी लुभावनी बातें लिखता था,यथा -"जब प्र उ त ने केसरिया पहना ............"प्राउटिस्ट ब्लाक   आफ इंडिया -काश्मीर समस्या का समाधान "कलजल"या  "कजहिल"में बताता था.कश्मीर ,लाहौल स्पीति,जम्मू ,लद्धाख.कश्मीर,जम्मू ,हिमाचल,लद्धाख .एक बड़ा प्रदेश बना कर नया समीकरण बनाना उद्देश्य था.आनंद मार्ग क़े संस्थापक (प्रभात रंजन सरकार उर्फ़ आनंद मूर्ती जो कभी रेलवे में क्लर्क थे )का दावा था कि वह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस क़े भान्जे हैं परन्तु उनकी नीतियां नेताजी की विचार -धरा की विरोधी थीं और इसी बात को पकड़ कर मैंने बउआ  को आगाह किया था.आनंद मार्ग सरीखे संगठन सरकारी अधिकारियों ,कर्मचारियों क़े मध्य पैठ बनाने में माहिर होते हैं.छोटी नानीजी की रिश्ते की एक भुआ क़े पति जो उस समय मेरठ में सेल्स टैक्स आफीसर थे ,भी आनंद मार्ग की गतिविधियों में संलग्न थे.लला का बाजार सब्जी लेने दोनों भाई भी अक्सर बाबूजी क़े साथ जाते थे.वहीं प्र उ त का दफ्तर भी घंटाघर क़े पास ही था ,वहां की गतिविधियाँ भी मुझे संदेहास्पद ही लगी थीं.सब बातें बउआ को बता दीं थीं और इस प्रकार अपने बाबूजी को उस संगठन से दूर कराने में कामयाबी हासिल कर ली थी.सवा सोलह वर्ष की उम्र में इसे अपनी पहली राजनीतिक सफलता कहूँ तो गलत नहीं माना जाना चाहिए.

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रविवार, 14 नवंबर 2010

लखनऊ क़े अपने मकान में एक वर्ष

हालाँकि २३ सित.०९ को आगरा क़े अपने मकान की रजिस्ट्री क्रेता क़े पक्ष में करा दी  थी परन्तु १५ दिन अधिक रह कर ०८ अक्तू .को वहां से प्रस्थान करके ०९ अक्तू .को लखनऊ पहुँच गए थे और ०९ .१० २०१० को लिखी पोस्ट में बहुत सी बातों का विवरण दे दिया था .०४ .११ ०९ को अपने मकान की लखनऊ में रजिस्ट्री करने क़े बाद १४ .११ ० ९ को गृह-प्रवेश करके रहने आ गए थे और आज इस मकान में रहते हुए एक वर्ष पूर्ण हो गया है .

(१४-११-२००९ को गृह प्रवेश हवन का फोटो)
इस एक वर्ष में तमाम संघर्षों में उलझे रहने क़े बावजूद  दो उपलब्धियां भी हासिल हुईं -एक तो "क्रांति -स्वर" व " विद्रोही स्व स्वर में "ब्लाग्स क़े माध्यम से कई विद्व -जनों से संपर्क .दूसरी और सबसे बड़ी बात यह रही है कि जिस मकान क़े लिए भस्मासुर इ .सा :ने हमारा रु .एडवांस करा क़े फंसवा दिया था उसके असली मालिक की कानूनी जीत में हमारी ज्योतिषीय राय का भी योगदान रहा .जिस व्यक्ति की वह जायदाद थी उसी क़े पास रही ,हमारा एडवांस वापिस मिल गया और हम एक अलग कालोनी में एक अलग मकान में रहने लगे .उस मकान की सं .भी वही थी जो हमारे इस मकान की है ,वहां भी सामने पार्क था -यहाँ भी सामने पार्क है ;ये समानताएं देख कर उस मकान क़े वास्तविक मालिक हैरान थे .लेकिन यह सब तो गृहों का तमाशा है.

भुना चना -परमल खा -खा कर आगरा वाले मकान की किश्तें पूरी की थीं क्योंकि मुझे जाब-विहीन कर दिया गया था .दुकान -दुकान नौकरी करके गुजारा कर रहे थे .इस तरह हासिल उस बड़े मकान को बेच कर यहाँ छोटा मकान लेना भी हमारे निकटतम व घनिष्ठतम रिश्तेदारों को बुरा लगा है .ज्यादातर को हमारा वापिस लखनऊ आना ही नहीं सुहाया है .पहले मेरी पत्नी पूनम पर शक किया गया कि उनके रिश्तेदार यहाँ होंगे इस लिए लखनऊ पसंद किया होगा .हकीकत यह है कि पूनम पटना क़े श्रीवास्तव परिवार की हैं जिनका कोई रिश्तेदार न आगरा में था न लखनऊ में है .जब यह लगा कि यशवन्त की ख्वाहिश लखनऊ आने की थी तो उसके विरुद्ध हो गए -यहाँ तक कि गत वर्ष जब वह कानपुर   में जाब कर रहा था और वहां अकेला था उसको जनम -दिन की बधाई नहीं दी गई उन लोगों द्वारा भी जिनके खुद क़े ही नहीं उनके बच्चों और बच्चों क़े भी बच्चों क़े जनम -दिन पर हम बिला नागा मुबारकवाद देते हैं .मेरे लिए तो इस बात का कोई महत्त्व नहीं था परन्तु खुद यशवन्त को थोडा अटपटा लगा ;अब वह इस वर्ष हम लोगों क़े साथ है और उसका कहना है कि यदि इस बार वे जनम -दिन पर संपर्क करेंगे तो उस पर मैं उन लोगों से बात करने का दबाव न डालूं क्योंकि पूरे एक वर्ष उन लोगों ने उसका हाल-चाल तक न पूंछा है .हमारी बउआ की एक रिश्तेदार जिन्होंने १९७३ में मुझे अपने माता -पिता से अलग होने को कहा था और मैंने उन्हें ससम्मान ऐसा करने से इनकार कर दिया था . (१९७८ से मृत्यु पर्यंत १९९५ तक बउआ -बाबूजी मेरे साथ ही रहे )संभवतः उन्ही ने अपने न्यू हैदराबाद क़े संपर्कों क़े आधार पर एक ब्लागर को भरमाकर यशवन्त को मेरे विरुद्ध करने का प्रयास किया ;उन्हें कामयाबी मिली या नाकामयाबी इसे वे लोग ही जाने .मै इतना ही बताना चाहता हूँ कि हमारी  माँ क़े विरुद्ध अभियान चलाने वाली और हमारे भाई को हमारे विरुद्ध करने वाली उन रिश्तेदार की अपनी छोटी पुत्र -वधु उनके पौत्र को लेकर अलग हो गई है और उन पर मुकदमा चला दिया है ; उन्ही क़े एक देवर ने बताया था .परमात्मा और पृकृति क़े न्याय का ढंग बेहद अनूठा होता है जिसे "मानव " प्राणी समझ ही नहीं पाता है और ठोकरें खा कर भी गलती पर गलती करता जाता है क्योंकि वह अहंकार में अपने को सदा सही ही समझता रहता है .खैर गलतियां करना और गालियाँ देना तो आज क़े बड़े (समृद्ध )लोगों का दस्तूर है.

हमारे इर्द -गिर्द भस्मासुर इ .सा :की मेहरबानी से मेरे ही नहीं मेरे पुत्र क़े भी पोफेशन क़े विरुद्ध दुष्प्रचार करने वालों की कमी नहीं है.मेरी श्रीमती जी को यह सब बहुत कचोटता है .मुझे फर्क इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि मैं इस सब क़े होने वाले अंजाम का अंदाजा रखता हूँ .लखनऊ नगर क़े ही एक और अच्छे ब्लागर सा :से सपर्क हुआ और फोन वार्ता भी लेकिन अब नाम सार्वजनिक नहीं कर रहा हूँ .स्थानीय लोग हमें मूर्ख समझते हैं जबकि ब्लाग -जगत में यशवन्त को तथा कुछ हद तक मुझे भी विद्वजनो की प्रशंसा व समर्थन मिल रहा है. पत्रकार स्व .शारदा पाठक ने स्वंय अपने लिए जो पंक्तियाँ लिखी थीं ,मैं भी अपने ऊपर लागू समझता हूँ :-

लोग कहते हम हैं काठ क़े उल्लू ,हम कहते हम हैं सोने क़े .
इस दुनिया में बड़े मजे हैं  उल्लू   होने   क़े ..


ऐसा इसलिए समझता हूँ जैसा कि सरदार पटेल क़े बारदौली वाले किसान आन्दोलन क़े दौरान बिजौली में क्रांतिकारी स्व .विजय सिंह 'पथिक 'अपने लिए कहते थे मैं उसे ही अपने लिए दोहराता रहता हूँ :-

यश ,वैभव ,सुख की चाह नहीं ,परवाह नहीं जीवन न रहे .
इच्छा है ,यह है ,जग में स्वेच्छाचार  औ दमन न रहे ..

अपनी क्षमता व सामर्थ्य क़े अनुसार अपने ब्लाग क़े माध्य्यम से लोगों को जागरूक करने और पाखण्ड से हटाने का प्रयास करता रहता हूँ .यदि कोई एक भी इनसे लाभ उठा सका तो वह मेरे लिए बोनस है ;वर्ना मै तो अपना कर्त्तव्य समझ कर लिखता जा रहा हूँ ,उसका फल तो उसे ही मिलेगा जो उसका पालन करेगा ,मुझे तो उतना ही फल मिलेगा जितने का मै पालन करता हूँ .दीपावली पर कुछ अन्य ब्लागर्स ने भी पटाखा,कृत्रिम रोशनी आदि आडम्बरों क़े विरुद्ध अपने आलेख लिखे जिन्हें पढ़ कर खुशी हुयी और यह एहसास भी हुआ कि सिर्फ मै ही अकेला नहीं हूँ .मैंने पटाखों को मानवीय क्रूरता का द्योतक बताया था तो उसकी पुष्टी एक अन्य ब्लागर क़े आलेख से हो जाती है जिसमे उन्होंने बताया है कि ,सिवाकासी में लगभग एक लाख बच्चे आतिशबाजी क़े धंधे में लगे हैं और अक्सर दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं.विदेशियों ने उन पर फीचर फिल्म तैयार की है और हमारे देशवासी उनकी ओर से मुंह मोड़े हुए हैं .ऐसे ब्लागर्स का समर्थन करना मेरा फ़र्ज़ था अतः मैंने उनके यहाँ अपनी अनुकूल टिप्पणियाँ दीं हैं .जैसा कुछ ब्लागर्स ने लिखा है कि टिपणी लिखना लेन -देन है (एक अच्छे ब्लागर सा :ने दीवाली गिफ्ट से तुलनात्मक व्यंग्य किया वह अलग बात है )मैं उनसे सहमत नहीं हो सकता  . ठीक बात है तो हमारा नैतिक दायित्व है कि हम उनका समर्थन करें और यह उम्मीद मैं नहीं करता हूँ कि बदले में वे भी आकर मेरे ब्लाग पर जवाबी टिप्पणी करें .मैं तो स्वान्तः सुखाय ,सर्वजन -हिताय लिखता हूँ और लिखता रहूँगा .मेरी तो ख्वाहिश यह है कि पाठक ब्लॉगर बजाये मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी करने क़े अपने जीवन में उन बातों से जो लाभ उठा सकते हैं -अवश्य उठायें .



(दीवाली हवन क़े फोटो)
 हम तो अक्सर ही हवन करते हैं .समस्त शुभ कार्यों ,जनम -दिवस ,शादी की सालगिरह आदि (बहन ,भाई ,भांजियों व उनके बच्चों ,भतीजी तथा श्रीमतीजी क़े भी निकटतम घनिष्ठ्त्तम लोगों क़े )हम हवन ही करते हैं.हमने चाहा था कि कालोनी क़े लोगों को "हवन -विज्ञान "की ओर मोड़ा जाये लेकिन ज्यादा पढ़े -लिखे ,समृद्ध -पैसे वालों को ढोंग -पाखण्ड से कैसे दूर किया जाये इसकी कला न जानने क़े कारण असफल रहे.वे लोग कान -फोडू भोंपू बजा -बजा कर भगवद ,रामायण का तमाशा करते हैं और राम व कृष्ण क़े जो हवन क़े अनुगामी थे का अनुसरण नहीं करते .हम बेबस होकर देखते रह जाते हैं और ब्लाग पर लिख कर तसल्ली कर लेते हैं क्योकि अकबर इलाहाबादी ने कहा है :-
न खींचो तीर -कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो .

"क्रांति -स्वर " व "विद्रोही स्व -स्वर में" दो अखबार निकालना चाहते थे ,आर्थिक व व्यवसायिक क्षमता नहीं थी इसलिए बेटे क़े व्यवसाय का इस्तेमाल कर इसी नाम क़े दो ब्लॉग आप लोगों की सेवा में प्रस्तुत किये हैं .आप लोगों का यदि कुछ भी भला हो सके तो वही मेरी सफलता है.मैं तो नन्द लाल जी द्वारा बताई आत्मिक -शक्ति का पालन करता हूँ ,आप भी चाहें तो सुन सकते हैं. :-

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गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

हर जुल्म ओ सितम की टक्कर में ,सदा संघर्ष हमारा सहारा है

सब समय करे नर क्या करे ,समय बड़ा बलवान .
समय सब पर असर करे ,क्या पशु -परिंदा क्या इंसान ..

किसी दूरदर्शी कवि ने बिलकुल ही ठीक यह कहा है .कभी -कभी हम चाह कर भी वह नहीं कर पाते जो हम करना चाहते हैं .समय कुछ और ही करा देता है .दरअसल मै मोडरेशन क़े खिलाफ था और हूँ ,लेकिन खुद अपने दोनों ब्लाग्स पर मोडरेशन लगाने पर बाध्य हुआ हूँ .माओत्सेतुंग  का कहना है कि ,दस कदम आगे बढ़ कर आठ कदम पीछे लौटना पीछे हटना नहीं कहलाता .युद्ध शास्त्र (milatary -science ) क़े नियमों में भी रण-नीति क़े तहत अपनी फौजों को पीछे हटने का आदेश देना पड़ जाता है .एक वयोवृद्ध इंजीनियर सा : क़े सानिध्य से कुछ ब्लोगर्स  में जो जूतम -पैजार चली और उनके ब्लाग्स पर जो गन्दगी फ़ैली ,वैसे ही हादसे से बचने क़े लिए मोडरेशन लागू करना ही एकमात्र उपाय बचता था .हमारा यह ब्लॉग तो अपने संघर्षों का इतिहास ही है .उस पर ढोंग -पाखण्ड भरा पूरा का पूरा एक लेख टिप्पणी कालम में किन्ही बेनामी सा :ने चस्पा कर दिया ,वहां से हटा दिया तो दूसरे ब्लाग क्रांति -स्वर पर वह लेख लगा दिया गया .इसलिए मजबूरन मोडरेशन का ही सहारा लेना पड़ा ;आखिर ब्लाग पर गन्दगी फ़ैलाने और बे -वजह क़े झगडे में उलझने से तो यही बेहतर जो है .

आखिर ३१ वर्ष अपने मकान में रहने और आगरा में उसे बेच कर लखनऊ आने पर सवा माह किराये क़े घर में जो रहे थे उससे निजात मिले एक वर्ष बीतने को है .हालाँकि पूरा समय संघर्षों भरा रहा है और संघर्ष जारी है -दरअसल संघर्ष ही जीवन है .मानव क़े विकास की कहानी प्रकृती क़े साथ उसके संघर्षों की कहानी है .जहाँ प्रकृती ने राह दी वहां वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृती की विषमताओं ने रोका वहीँ रुक गया .परन्तु हमारा संघर्ष प्रकृती क़े साथ नहीं है .शोषण -वादी ,उत्पीडन कारी शक्तियां जो हमें धौंस -दबाव में लेना चाहती हैं ;हम उनके आगे झुकने को तैयार नहीं हैं ---संघर्ष इसी बात पर है .

आगरा में एक इं. सा :हमारे क्लाइंट रहे थे ,उनकी बेटा पाने की मनोकामना  बेटा पाने की मनोकामना हमारे बताये उपायों द्वारा पूरी हुयी थी .उनको ढोंगियों -पाखंडियों क़े चंगुल से हमने केवल बचाया ही नहीं उन्हें तमाम ज्योतिषीय सूत्र भी दिए .वह भी चाहते थे की मै लखनऊ में शिफ्ट कर लूँ और उन पर और  भरोसा कर लिया -यही सब से बड़ी गलती रही .उन्होंने जितने मकान दिखाए सौ  प्रतिशत वास्तु -दोष वाले थे (जबकि उनको वास्तु का पूरा ज्ञान स्वंय मैंने प्राप्त करा दिया है );आगरा का मकान मै २३ सितम्बर ०९ को बेच चुका था .एन वक्त पर धोखा मिला -उस व्यक्ति से जो खुद किराये हेतु मकान लेता था तो फोन पर भी मुझ से राय लेता था -ऐसे व्यक्ति को भस्मासुर नहीं तो और क्या कहा जाए .उन्होंने जिस मकान क़े लिए एडवांस दिला दिया था वह केवल वास्तु -दोष वाला ही नहीं डिस्प्यूटेड भी था .जैसे -तैसे एक कमरे का मकान तीसरी मंजिल पर लेकर सारा सामान तितर -बितर ,इधर -उधर रख कर किसी तरह सवा महीना गुजारा और लगभग एक वर्ष पूर्व इस वर्तमान मकान में रजिस्ट्री करवाकर आ गए ;लेकिन उन ई .महोदय ने अपनी तिकड़म से यहाँ भी चक्रव्यूह खड़ा कर दिया है .वह इतना भी नहीं समझ रहे हैं की जो व्यक्ति दूसरों की समस्याओं का समाधान कराता है ,उनका खुद का भी गहरा तजुर्बा है -मुझसे लाभ उठाने का फिर भी परेशान करने पर आमादा हैं (किन्ही पुलिस -संपर्कों क़े कारण ).उन्हें यह भी नहीं पता की मै डी.एस .पी .(विजीलेंस )तथा कुछ एक  इंस्पेकटर  क़े साथ काम कर चुका हूँ ;सब बातें समझता हूँ और मुकाबला करने क़े तरीकों से भी वाकिफ हूँ सिर्फ ईमानदारी ,इंसानियत ,और शराफत क़े दायरे से बाहर न जा पाने क़े कारण नुक्सान उठता हूँ .लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं -विजय, को विजय न मिले .अब तक क़े सभी संघर्षों में हमारे विपक्षियों  ने सदा ही मुहं  की खाई है .

 हमारे अपने घनिष्टतम और निकटतम रिश्तेदारों ने ब्लाग जगत में भी हमें परेशान करने वाले ब्लागर्स तैयार कर दिए हैं .एक ने काठ की हांडी चढ़ा ली है अब दुबारा वह भी नहीं चढ़ सकती .बल्कि ऐसे ब्लागर की अपने ही वर्ग में खूब छीछालेदर हो चुकी है .भस्मासुर ई .सा :और दूसरे ई .सा :से गाईडेड ब्लागर्स क्या और कितना सफल हो पाते हैं या इस बार भी विजय ,विजय को ही मिलनी है .
              लखनऊ आने की साथार्कता ---सत्य और न्याय को मिली जीत

भस्मासुर ई . सा :ने जिन ई . सा :को मुझसे मकान का एडवांस दिलाया था उन्होंने अपने दोस्त क़े दामाद को दोखा देकर मकान कानूनी तौर पर अपना बनाया था ;लेकिन वास्तविक कब्ज़ा उसके मालिक क़े ही पास था .वह असली मालिक को हटा नहीं पा रहे थे मुझे बेच कर उससे लड़ाना चाहते थे .लेकिन एक ज्योतिषी क़े नाते ,मैंने उस व्यक्ति को वास्तु दोषों का निराकरण करने ,पूजा में ढोंग -पाखण्ड को हटाने तथा वैज्ञानिक विधि से पूजा करने का परामर्श दिया .उसने उन पर अमल किया और कल  दि.२७ .१० .१०को १२ .४५ पर उसने फोन करके सूचित किया कि ,वह कानूनी मुकदमा भी जीत गया है .वह व्यक्ति पूर्व ज्वाइंट सेल्स टैक्स कमिश्नर का बेटा है .उसका अच्छा  -खासा व्यापार था .एक एक्सीडेंट होने क़े बाद उसका मुनीम बैंक मनेजर से मिल कर उसके नाम पर दस लाख रु .कर्ज़ लेकर भाग गया था .इस मजबूरी का फायदा उठा कर ई . सा :ने बैंक से उसके मकान क़े कागज़ नीलामी में ले लिए थे जिन्हें दिखा कर भस्मासुर ई . सा :ने मुझे उस मकान मालिक से भिडाने का षड्यंत्र किया था .हो गया उलटा ----मेरी ज्योतिषीय सलाह से वह मकान मालिक कानूनन भी मालिक मकान मान लिया गया .उसकी जीत को मै लखनऊ आने पर अपनी पहली ज्योतिषीय सफलता मान सकता हूँ और मान सकता हूँ कि भस्मासुर का षड्यंत्र भी शीघ्र ही विफल होगा .

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रविवार, 24 अक्तूबर 2010

शाहजहांपुर द्वितीय चरण (तृतीय और अंतिम भाग )

(नाना जी और नानी जी )
नानाजी के साथ पहले भी जब रहे थे तो ऎसी सभाओं में उनके साथ जाते रहे थे .डा . राम मनोहर लोहिया के निधन की सूचना पर भी नानाजी को उदास पाया था .६४ से पहले टाउन -हाल की एक सभा में लोहिया जी ने कहा था जिस प्रकार कूड़ा रोज़ आएगा यह जानते हुए भी सफाई की जाती है उसी प्रकार ख़राब सरकार को अपने वोट से हटा दो ,वह भी ख़राब काम करे फिर उसे भी हटा देना -बदलाव तो करो .सच में उनकी बात पर १९६७ के चुनावों में जनता ने उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया कर दिया था .बबूए मामाजी (ना.श .माथुर )ने अप्रैल १९६८ में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपे राजनीतिक लेख मुझे पढने को दिए थे ."हमारा संविधान कैंची और गोंद की करामात "-यह पहला लेख डा .सम्पूर्णानन्द का था .श्री राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह ,डा .गड़पति चन्द्र गुप्त  के     लेख आज भी मेरे पास नक़ल करके लिखे हुए हैं .श्री आनंद नारायण मुल्ला का भी संविधान पर लेख बहुत सटीक था .

इन से छोटे वाले राजन मामाजी (श्री राजेन्द्र शंकर माथुर )मुझे जासूसी उपन्यास पढने को देते थे जिससे मुझमे खोजी प्रवृती घर कर गई .वह तथा उनकी छोटी बहन -रंजना मौसी अपने साथ खेल में भी शामिल करते थे .यह सब ४२ वर्ष पूर्व की बातें हैं ;अब सब बदल चुके हैं .अब सब रिश्ते चाहे जितने नजदीकी हों पैसे की गरीबी -अमीरी से तुलते हैं .

 इन सब के बावजूद निर्मला माईजी (स्व .क्र .मु .लाल माथुर की पत्नी )जनवरी २००६ में बबूए मामाजी के बेटे की शादी में जब मथुरा में मिलीं थीं तो चिर -परिचित अंदाज़ में ही मिलीं और हमें शाहजहांपुर आने को भी कहा .उन्होंने कहा की पूनम और यशवंत को भी तो दिखा दो बचपन में जिस ननसाल में रहे थे .पत्नी और મેરી  भी इच्छा तो वहां जाने -देखने की है .अब लखनऊ से ट्रेन से जाना -आना भी सुगम है .परन्तु समस्या यह है की हमारी  माँईजी यहीं लखनऊ में होते हुए भी हमारे संपर्क में नहीं हैं .फिर बउआ  के दो चचेरे भाइयों को छोड़ कर (जो सब एक ही कालोनी में रहते हैं ),उनके दिवंगत फुफेरे भाई के घर जाएँ तभी शाहजहांपुर रुक सकते हैं (हमारे फुफेरे भाई भी हमारी ही कालोनी में यहाँ रहते हैं पर वे अंमीर लोग हैं अत्याधुनिक हैं हमसे संपर्क नहीं रखते ;दूसरी तरफ न मा ही न उनके फुफेरे भाई ही जीवित हैं -तब भी मा की फुफेरी भाभी  पुराने रिश्ते मान रही हैं ---यही है  पहले के और अब के विकसित भारत का सच ) .मा के चचेरे भाई  इ .और डा .हैं बड़े रुतबे वाले लोग हैं ;जब लोग न माने तब जगहों से क्या होता है ?जगहें तो कहीं रुके बगैर भी दूर से भी दिखाई जा सकती हैं .२००६ में ही जूलाई में छोटी भांजी की शादी में कानपूर में रंजना मौसी मिली थीं ,घर उनका वहीँ है एक बार भी अपने यहाँ आने को नहीं कहा -बचपन में लूडो ,कैरम साथ खेलती थीं .

(रंजना मौसी और उनके भाई सपरिवार )
गर्मियों में रिजल्ट आने के बाद हम लोगों को मेरठ जाना था .सिलीगुड़ी से बाबूजी का ट्रान्सफर मेरठ हुआ था और वह वहां पहुँच चुके थे .सिलीगुड़ी में हमारे कोर्स की बहुत सी अच्छी -२ किताबों को रद्दी में बेच कर ही कुछ खास -२ को वह साथ ले जा सके थे .अकेले जितना सामान ला सकते थे उतना ही लाना था .और क्या सामान छोड़ा   उससे मुझे फर्क नहीं था अच्छी किताबें छूटने का मलाल था ,बाबूजी की भी अपनी मजबूरी थी .


एक नहीं दो -दो बार नानाजी ने हम लोगों के लिए जितना किया न वह उनका फ़र्ज़ था न मजबूरी .नानीजी का निधन तो बउआ  की शादी से पूर्व ही हो चुका था .माँ से ज्यादा ममत्व हम लोगों को अपने नानाजी से मिला .बचपन में मामाजी भी बहुत मानते थे (उनका निधन नानाजी से पूर्व ही हो गया था १९७७ में );मेरे सारे बचपन के फोटो मामाजी के ही खींचे हुए हैं .ब्लाग के कवर फोटो में मै उन्ही की गोद में हूँ .


 हमारे मामाजी को हमारे बाबाजी बहुत मानते थे और उनसे मेरे लिए नाम बताने को कहा था .मामाजी ने बउआ से सलाह कर बाबाजी को "विजय "नाम बताया था जिसे बाबाजी ने सहर्ष स्वीकृती दी थी
 

 (मामा जी-माँइंजी की शादी का कार्ड )

अपने विवाह से पूर्व माँइंजी भी लखनऊ (न्यू हैदराबाद )में बउआ के पास से अपने छोटे भाई -बहनों द्वारा मुझे मँगा लेती थीं और दिन -दिन भर अपने पास रखतीं थीं .उस समय तक रिश्तों में धन आड़े नहीं आया था . .

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शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

शाहजहांपुर द्वितीय चरण (द्वितीय भाग )

(स्व .हर मुरारी लाल ,स्व.के .एम् .लाल और स्व .सावित्री देवी माथुर )

इस बार चूँकि सिलीगुड़ी से हाई स्कूल पास करके आया था और एक डिग्री कालेज से इंटर कर रहा था तो बउआ के सभी रिश्तेदारों ने अखबारों में छपी राजनीतिक ख़बरों पर चर्चा में मुझे भी शामिल करना शुरू कर दिया था .वैसे नेशनल हेराल्ड तो पहले भी जब ६ठी,७वीं  में पढता था देख लेता था और अंग्रेजी में कमजोर तो था ही इसलिए वह सिर्फ बच्चे का खेल समझ लिया जाता था .नानाजी के बाद वाले उनके भाई (बड़े नानाजी उन्हें कहते थे क्योकि मा के बड़े चचा थे ) डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में सर्विस करते थे और कांग्रेसी झुकाव के थे इसलिए नेशनल हेराल्ड लेते थे ,नानाजी समेत उनके बाकी भाई जनसंघी झुकाव के थे .मामा जी तो बरेली और फिर लखनऊ में भी आर .एस .एस .में सक्रिय रहे थे .लखनऊ में संघ की  बैठक में मामाजी के घर पं .दीन दयाल उपाध्याय भी ठाकुर गंज में आये होंगे ,इसलिए मुगलसराय यार्ड में जब वह मृत पाए गए तो नानाजी को काफी धक्का लगा महसूस किया था .बउआ  के फूफा जी (स्व .हरमुरारी लाल माथुर ) भी कट्टर संघी विचार धरा के थे और वह तमाम पुराने सीक्रेट्स मुझे बताया करते थे .बउआ या नानाजी कोई भी उनसे मना  नहीं करते थे .नानाजी को ताज्जुब भी था कि उनके छोटे बहनोई ने ये तमाम राज उन लोगों को पहले क्यों नहीं बताये .एक बार पूछने पर उन्होंने  नानाजी को उत्तर दिया था कि पहले आप और हम सभी सरकारी कर्मचारी थे इसलिए कभी चर्चा नहीं उठी --- इस लड़के में कुछ झलक राजनीति की दिखी तो इसे सब बातें अब बता देते हैं .बउआ के फुफेरे भाई स्व .कृष्ण मुरारी लाल माथुर जिन्होंने चौ .चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल के नेता सरदार दर्शन सिंह के साथ वकालत शुरू की थी ,बाद में शाहजहांपुर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी रहे थे .वह भी मुझसे राजनीतिक चर्चाएँ किया करते थे .

(श्री नारायण शंकर माथुर ,बेटों के साथ )
नानाजी के एक भतीजे श्री नारायण शंकर माथुर तब आर्डिनेंस फैक्टरी ,शाहजहांपुर में ओवरसियर थे .वह फैक्टरी मंदिर की गतिविधियों में बढ़ -चढ़ कर भाग लेते थे .नानाजी को वहां बुलाते थे .नानाजी मुझे चलने को कहते थे तो मै भी साथ जाता था ,परन्तु अजय साथ नहीं जाते थे .संत श्यामजी पराशर के प्रवचन राज्नीतियुक्त होते थे ,उनमे मेरी गहरी दिलचस्पी थी .नानाजी ने उनकी लिखी पुस्तकें -"रामायण का ऐतिहासिक महत्त्व ","योगिराज श्री कृष्ण ","अपराधी कौन "आदि खरीद ली थीं .मैंने सभी पुस्तकें ध्यान से पढी थीं .अपने ब्लाग पर आज -कल लिखे विचार उन पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर हैं .अफ़सोस  यह है की वे पुस्तकें नानाजी के देहावसान के बाद (दीमक द्वारा खराब करने के कारण )माईंजी  द्वारा फेंक दी गयीं.मांगने की आदत न होने के कारण मैंने नानाजी से पहले और तब बउआ ने माईं जी से मांगी नहीं थीं वर्ना मेरे जैसे बुक -वार्म के मतलब की खराब दशा की किताबें भी थीं .नानाजी के ही पास महाभारत ,गीता और सत्यार्थ -प्रकाश भी पढ़े थे .तब का ही जो ध्यान में बचा है उसका उपयोग समय -२ पर लेखन में करता रहा हूँ अब भी कर रहा हूँ .संत श्यामजी पराशर केवल राम मंदिरों के प्रांगड़ में ही प्रवचन देते थे जिसकी समाप्ति इन शब्दों के साथ होती थी :-
love without marriage has no sens
Marriage without love has no fragrence .
 और कहते थे यह अंगरेजी पढ़े लिखे लोगों के लिए है और इसका तर्जुमा नहीं करूँगा .लेकिन मैंने इसका हिंदी अनुवाद इस प्रकार किया है :-
                 विवाह रहित प्रेम बुद्धिहीन है -
                प्रेम रहित विवाह गंधहीन है .
संत पराशर के अनुसार राम -सीता विवाह आदर्श प्रेम -विवाह था 


राजनीतिक  सभाओं में 
टाउन हाल में होने वाली किसी भी राजनीतिक दल की सभा को सुनने नानाजी जाते थे और हर बार मै उनके साथ रहता था जबकि भाई को दिलचस्पी नहीं थी ,बहन छोटी भी थी और नानाजी लड़का -लड़की का भेद भी मानते थे ,इसलिए बउआ और मौसी को प्राईमरी  से अधिक नहीं पढाया था जबकि मामाजी ने एम् .ए .भी किया और लखनऊ यूनिवर्सिटी में एन्थ्रापालोजी के एच .ओ .ड़ी . मृत्यु पर्यंत रहे .

जनसंघी मंत्री परमेश्वर पांडे ,संसोपाई मंत्री प्रभु दयाल सिंह मजदूर नेता एस .एम् .बनर्जी 
काश्मीर के पूर्व प्रधान मंत्री और फिर मुख्य मंत्री रहे शेख अब्द्दुल्ला की अलग -२ सभाएं अलग -२ समय पर हुईं और नानाजी के साथ सभी को सुनने का मौका मिला जो सुना कुछ न कुछ दिमाग में अटका जरूर रहा .
 हालाँकि इस बार आठ या नौ माह ही शाहजहांपुर में रहे परन्तु अभी कुछ बातें और याद -दाश्त में हैं जो अगले अंक में होंगी ................

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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

शाहजहांपुर द्वितीय चरण (प्रथम भाग )

शाम तक हम लोग शाहजहांपुर पहुंच गए थे .लखनऊ छोटी लाईन के उस देवदूत समान कुली ने समान इस प्रकार रखवा दिया था कि ,शाहजहापुर में कुली को कोई दिक्कत नहीं हुई .स्टेशन के पास ही नानाजी का घर था ,आधे घंटे के भीतर हम लोग वहां पहुँच गए .सितम्बर का महीना था और बाबूजी का वहां का ट्रान्सफर आर्डर नहीं था लिहाजा हम तीनो बहन भाइयों के दाखिले में एक बार फिर दिक्कत थी.सिलीगुड़ी जाने से पहले जिस स्कूल में पढ़े थे वह आठवीं तक ही था .नानाजी ने अपने परिचित माथुर साहब जो सरदार पटेल हिन्दू इंटर कालेज के वाईस प्रिंसिपल थे ,से बात की थी .लेकिन अगले दिन वह प्रिंसिपल टंडन जी के पास पहुंचा कर अपने कर्त्तव्य की इति श्री कर लिए .टंडन जी ने बिना ट्रान्सफर आर्डर के दाखिले से इनकार कर दिया ;वही  समस्या आर्डिनेंस फेक्टरी के कालेज में थी .किसी की सलाह पर नानाजी गांधी फेजाम कालेज के प्रिंसिपल चौधरी मोहम्मद वसी से मिले .वसी साहब ने मधुर शब्दों में नानाजी का अभिवादन करके कहा कालेज आप ही का है आप शौक से दाखिला करा दीजिये .इस प्रकार मेरा इंटर फर्स्ट इयर में दाखिला हो गया .अजय का मिशन हाई स्कूल (जिसमे कभी क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल भी पढ़े थे )और शोभा का दाखिला आर्य कन्या पाठशाला में हो गया .
  
 हमारे जी .ऍफ़ .कालेज में बी .ए .के साथ इंटर की पढ़ाई उस समय होती थी (अब वह केवल डिग्री कालेज है और इंटर सेक्शन इस्लामिया कालेज में चला गया है ).उ .प्र .में चौ .चरण सिंह की संविद सरकार ने अंगरेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया था .लखनऊ से भुआ ने मुझे पत्र लिखा था कि ,"यह सरकार बच्चों को कुबड़डा बनाने पर तुली है ,तुम अंगरेजी जरूर लेना ".मै अंगरेजी में कमजोर था और नहीं लेना चाहता था .तब तक कालेज में सर्कुलर का इन्तजार था ,मैंने किताब नहीं खरीदी थी .किताब की शाहजहांपुर में किल्लत भी थी .प्रो .मोहिनी मोहन सक्सेना ने बरेली से मगाने  का प्रबंध किया था  ;समय बीतने के बाद उन्होंने सब की किताबें चेक करने को कहा था .मैंने उन्ही के रिश्तेदार जो वहां टी .ओ .थे के पुत्र जो मेरे क्लास में था से पुस्तक लेकर सारी रात टेबल लैम्प जला कर कापी में नक़ल उतार ली और अगले दिन कालेज ले गया .जब प्रो .सक्सेना ने मुझ से किताब दिखाने को कहा तो मैंने वही नक़ल दिखा दी .बोले ऐसा क्यों ?मैंने  जवाब दिया चूंकि मुझे अंग्रेजी छोड़ना है ,इसलिए किताब नहीं खरीदी -आपको दिखाना था इसलिए गिरिधर गोपाल की किताब से नक़ल बना ली है .प्रो .साहब इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि जब तुमने अग्रेजी के लिए इतनी मेहनत की है तो मेरी ख़ुशी के लिए तुम अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल के रूप में जरूर लेना ,जिस से मेरा -तुम्हारा संपर्क बना रहे .इस प्रकार मैंने अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल ले लिया .प्रो . सक्सेना बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ,उनसे क्लास में संपर्क बनाये रखने में ख़ुशी ही हुई .

अंगरेजी के एक चैप्टर में पढ़ाते हुए प्रो . सक्सेना ने बड़े मार्मिक ढंग से कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के लेख को समझाया जिसमे उन्होंने (तब वह भारत के शिक्क्षा मंत्र्री थे )ब्रिटिश कौसिल इन इंडिया का उद्घाटन करते हुए कहा था ---यहाँ मै एक साहित्यकार की हैसियत से आया हूँ ,एक राजनीतिग्य की हैसियत से नहीं क्योंकि यदि एक
राजनीतिग्य कहता है ---हाँ तो समझो शायद ,और यदि वह कहे शायद तो समझो नहीं और नहीं तो वह कहता ही नहीं .

हमारे इतिहास के प्रो .माशूक अली साहब नगर पालिका के चेयरमैन रहे छोटे खां सा .के परिवार से थे .उनका लकड़ी का व्यवसाय था वह तब केवल -रिक्शा और कालेज में खाए पान का खर्च मात्र १५० रु .आन्रेरियम लेते थे .हमारे नानाजी के एक भाई स्व .हरीश चन्द्र माथुर के वह सहपाठी रहे थे .जब उन्हें यह बताया तो बहुत खुश हुए और यदा -कदा मुझसे कहते थे अपने नानाजी को मेरा सलाम कह देना .इसी प्रकार बम्बई वाले नानाजी (नानाजी के वह भाई बम्बई में सर्विस काल में रहे थे)भी प्रो .सा .को अपना आदाब कहलाते थे .
नागरिक -शास्त्र के प्रो .आर .के .इस्लाम सा .तथा अर्थ शास्त्र के प्रो .सा .(नाम अब याद नहीं है )भी अच्छा पढ़ाते थे ,इन दोनों का चयन अलीगढ मुस्लिम यूंनिवर्सिटी  में हो गया था .

इस्लाम सा .ने सर सैय्यद अहमद खां के बारे में बताते हुए उनके पुत्र सैय्यद महमूद जो बड़े वकील थे ,कभी केस हारे नहीं थे का उल्लेख किया था जो बहुत दिलचस्प है .:- पंजाब के किसी राज -परिवार के सदस्य को फांसी की सजा हो गयी थी उसे बचाने के लिए उन्हें महमूद सा . का नाम सुझाया गया था .जब वे लोग उनके पास पहुंचे तब उनके पीने का दौर चल रहा था और ऐसे में वह किसी से मिलते नहीं थे .बड़ी अनुनय -विनय करने पर उन्होंने सिख राज-परिवार के लोगों को बुलाया तथा काफी फटकार लगाई कि अब उनके पास क्यों आये ,अपने वकील से जाकर लड़ें जो अपील भी हार गया ,अब तो फांसी लगने दो .बड़ी खुशामद किये जाने पर उन्होंने कहा उनका कहा सब मानना होगा ,किसी के बहकावे में नहीं आना होगा .जब उनकी सभी शर्तें मान ली गयीं तब उन्होंने जिन्दगी बचाने की गारंटी दी और कोई अपील या केस नहीं किया .

फांसी का दिन आ गया ,घबराए परिवारीजनो से उन्होंने जेल पहुचने को कहा .खुद एन वक्त पर पहुंचे .फांसी का फंदा भी पड़ गया ,रोते लोगों को उन्होंने कहा उसे कुछ नहीं होगा ,इतने में  फंदा खींचने का हुक्म हो गया .फंदा खींच दिया गया उसी क्षण महमूद सा .ने तेज गुप्ती से फांसी का रस्सा काट दिया ,रस्सा गले में पड़ा -२ वह मुलजिम गढ़े में जिन्दा गिर गया .उसे उठाया गया लेकिन महमूद सा . ने कहा एक बार "हैंग "हो चुका दोबारा हैंग नहीं किया जा सकता .महमूद सा . के खिलाफ सरकारी काम में बाधा डालने का मुकदमा चला जिसे वह जीत गए उन्होंने सिद्ध किया कि वकील के नाते उनका काम मवक्किल को बचाना था उन्होंने बचा लिया .सरकारी काम में बाधा नहीं डाली क्योकि फांसी का फदा बाकायदा खींचा गया था .उन्होंने जजमेंट में खामी बताई कि टिळ डेथ नहीं लिखा था इसलिए दोबारा फांसी पर नहीं चढ़ाया जा सकता .वह यह मुकदमा भी जीते.लेकिन उसके बाद से फैसलों में लिखा जाने लगा -"हेंग टिळ डेथ ".इस वाकये ने न्याय  प्रणाली को बदल दिया था जो कि महमूद सा . के दिमाग का खेल था .
प्रांतीय शिक्षा दल के इंस्ट्रक्टर गफूर सा .भी अच्छे व्यवहार के धनी थे .हमारी एक मौसी (बऊआ की चचेरी बहन ,अब दिवंगत ) जो मुझ से ४ वर्ष बड़ी थीं और बी .ए .फाइनल में थीं को फीस में १० रु .कम पड़ गए थे ,एक्जाम चल रहे थे .गफूर सा .ने अपनी जेब से १० रु . देकर मदद की .मौसी की अगले दिन परीक्षा नहीं थी ,मुझे रु .देकर गफूर सा .को वापिस करने को कहा और निर्देश दिया कि लता दीदी बताना ,मौसी नहीं ,उनके हुक्म का वैसे ही पालन किया परन्तु मा की बहन को अपनी बहन बताना अजीब लगा .

एक बार नानाजी छोटे भाई को ३ - ४ रोज से साईकल चलाना सिखा रहे थे .कैंची पर उसे चलाना आ गया था .कालोनी के एक वयोवृद्ध सज्जन श्री श्रीराम जिन्हें नानाजी समेत सभी लोग आदर से बाबूजी कहते थे ,मुझसे बोले छोटा भाई तुम से पहले साईकल सीख जायेगा .उन्होंने कहा कि तुम्हारे नानाजी तो अजय को अभी और कई दिन कैंची चलवाएंगे तुम दूसरी साईकल लेकर आओ और मेरे तरीके से चलाओ आज और अभी सीख जाओगे .मैंने बउआ से पूंछ कर अपने बाबूजी वाली पुरानी साईकल उठाई और बाबू श्रीराम के फार्मूले से रेलवे ओवर ब्रिज तक साईकल पैदल ले गया और ढलान की ओर रुक कर गद्दी पर बैठ कर हैंडल साध लिए .३ -४ बार में संतुलन कायम हो गया .कई बार पुल के दोनों ओर ढलान पर ठीक से साईकल चला ले पाने पर मै गद्दी पर बैठ कर ही घर आया .नानाजी परेशान  थे कि कहीं मै हड्डी -पसली न तुडवा कर लौटूं श्रीराम उन्हें संतुष्ट कर रहे थे और मुझे देख कर नानाजी से बोले देखिये डा . सा .मेरी शिक्क्षा सफल रही .बहरहाल तगड़ा जोखिम लेकर मै एक -डेढ़ घंटे में ही साईकल चलाना तब सीख गया था आज कहीं भी किसी भी ब्रिज पर चढ़ते -उतरते साईकल क्या कोई भी वाहन चलाना काफी जोखिम भरा काम हो गया है .आज लोग काफी लापरवाह  और स्वार्थी हो गए हैं ---यह भी विकास की ही एक कड़ी है .l


अगली किश्त में जारी ..................

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मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

भावुक बिलकुल नहीं हूँ मै .........

 सिलीगुड़ी से चल कर लखनऊ होते हुए शाहजहांपुर एक बार फिर गए वहां का वर्णन होने से पूर्व पुनः लखनऊ लौट कर आये एक वर्ष पूर्ण होने का लेखा -जोखा प्रस्तुत कर दिया था .उस पर दिव्या  जी, वीना जी , वंदना दुबे अवस्थी जी ,के .के . यादव जी के विचार पढे ---सबों को धन्यवाद .
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 के .के .यादव जी ने मेरे लिखने की तारीफ की है परन्तु उनके अपने खोज पूर्ण लेखन की जितनी प्रशंसा की जाये कम है .वीना जी ने लिखा है कि मै बारीकी से अध्धयन करता हूँ शतशः सही है .वंदना जी के उत्साह वर्धन के लिए उनका आभारी हूँ .दिव्या जी ने मुझे निष्पक्ष और ईमानदार लेखक बताया है -प्रयास तो मेरा यही होता है परन्तु उन्होंने साथ ही साथ मुझे भावुक भी कहा है .वह चिकित्सक हैं शायद उनका आंकलन ऐसा हो परन्तु मै समझता हूँ कि भावुकता के साथ ईमानदारी और निष्पक्षता का निर्वाह नहीं हो सकता.मै बिलकुल भी भावुक नहीं हूँ ,किसी भी दृष्टिकोण से नहीं .भावावेष में भटकना मेरा स्वाभाव नहीं है .यदि मै भावुकता में बहता तो संघर्षों में कहीं भी नहीं टिक पाता .१३ -१४ वर्ष कि उम्र में पढ़ा था कि उदारता  एक मानवीय गुण है,सभी को उदार होना चाहिए किन्तु उसके साथ -२ पात्र की अनुकूलता भी होनी चाहिए .तब से आज ४४ वर्ष बाद भी मै उसी सीख पर अमल कर रहा हूँ .पढ़ाई मैंने केवल डिग्री बटोरने के लिए नहीं की बल्कि जो पढ़ा उस पर क्षमतानुसार अमल करने का भी प्रयास करता रहता हूँ .डा .राजेंद्र प्रसाद की यह सीख कि जो पुरानी बातें हानिकारक न हों उनका विरोध नहीं करना चाहिए -भी मुझे भाती है .
  जब कोई व्यक्ति हमारी उदारता को कमजोरी समझने लगता है तो उसके प्रति उदारता का परित्याग कर देता हूँ .कोई भी भावुक व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता.भावुकता अपना कर मै कोई नुकसान नहीं उठा सकता.ईमानदारी के कारण जो नुकसान हुए उन्हें सहर्ष झेल लिया /सकता हूँ .पिछले वर्ष जब आगरा का मकान बेचने का निर्णय लिया तो पूनम ने कई भावनात्मक मुद्दों का हवाला देकर उसे न बेचने की बात कही थी .मेरा तर्क था कि घर परिवार के सदस्यों से बनता है न कि ईंट ,गारा ,सीमेंट ,लोहा या कंक्रीट से बना ढांचा होता है.यह तर्क उन्हों ने स्वीकार किया और आज हमारे परिवार के सभी सदस्य हमारे साथ यहाँ लखनऊ में हैं तो पूरा घर साथ है .रही बात लोगों के साथ संबंधों की तो आज -कल फोन आदि के माध्यम से सतत संपर्क बनाये रक्खा जा सकता है और उसी ज़रिये अपने तमाम कार्य वहां के लोगों की मदद लेकर लखनऊ बैठे -२ ही संम्पन्न हो गए .
 मै निष्पक्षता  और ईमानदारी को ही तरजीह देता हूँ और भावुकता से मेरा दूर -२ तक  लेना -देना नहीं है .किसी पढ़ कर अनावश्यक भ्रम न हो,इसलिए आगे बढ़ने से पूर्व स्पष्ट करना अपना कर्त्तव्य समझा .अब आगे शाहजहांपुर में ...........अगली पोस्ट में ......

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शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

भस्मासुरों से टकराव और पत्रकारिता ------ विजय राजबली माथुर

(आज लखनऊ वापिस लौटे हुए एक  वर्ष पूर्ण हो चुका है और यहाँ की धरती पर उतरते ही भस्मासुरों से संघर्ष प्रारंभ हो गया जो अब भी जारी है . ये एहसान फरामोश लोग हैं और इनका उल्लेख मात्र सूचनात्मक है वर्णन तो क्रमानुसार ही होगा).
लखनऊ से सम्बंधित दो ब्लोगर्स -१.श्रीमती (डाक्टर )दिव्या श्रीवास्तव २.श्रीमती वीणा श्रीवास्तव से परिचय और विशेष कर मुंबई से सम्बंधित आचार्य संस्कृत आर्य से संपर्क ब्लॉग लेखन की विशिष्ट उपलब्धि  कहे जा सकते हैं .पोर्ट ब्लेयर  की पाखी और दिल्ली के माधव जैसे छोटे -२ बच्चों ने जब खुद आकर मेरे ब्लॉग पर दस्तक दी तो उनसे परिचय हो कर जी खुश हो गया .यह सब लखनऊ आगमन पर ही संभव हुआ है .

"क्रांति स्वर'' और "विद्रोही स्वर'' दो अख़बार निकालने की तमन्ना थी,अब ये ब्लॉग के रूप में आप के समक्ष है. 
हमने ब्लॉग लेखन ''स्वान्तः सुखाय  और सर्व जन हिताय'' प्रारंभ किया है.यदि हमारे विचारों -सुझावों से कुछ थोड़े से लोग भी लाभ उठा सकें तो हमारा प्रयास सार्थक है .सार्थकता टिप्पणियों और उनकी संख्या पर निर्भर नहीं है.न तो विपरीत टिप्पणियों से हम हतोत्साहित होंगे न ही प्रशंसक टिप्पणियों  से खुश होंगे .हमने जो ज्ञान अर्जित किया है;वह कोई कंजूस का धन नहीं है जो उसे छिपा कर रखा  जाये .हमारा ज्ञान किसी गुरु की अनुकंपा पर भी प्राप्त नहीं हुआ है बल्कि यह संघर्षों द्वारा उपार्जित ज्ञान है.१७८९ ई. की फ़्रांसीसी राज्य क्रांति के प्रणेता जीन जेक रूसो से एक बार जब पूछा गया कि आपने किस विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की है तो उनका उत्तर था -''I  have studied  in the  university  of difficulties ''   आज हम स्वतंत्रता ,समता और भ्रातृत्व  वाले जिस लोकतंत्र में हैं वह रूसो के विचारों से ही सामने आया है .
 हमारा देश ११ या १२ सौ  वर्षों की गुलामी के बाद अभी ६३ वर्ष पूर्व ही आज़ाद हुआ है और अभी भी लोगों की गुलामी वाली मानसिकता बरकरार है.लोग गुलामी के प्रतीकों से उसी प्रकार चिपके हुए हैं जिस प्रकार बंदरिया अपने मरे बच्चे की खाल को चिपकाये घूमती है.क्रान्तिस्वर में सामजिक,राजनीतिक,धार्मिक,आध्यात्मिक और ज्योतिष संबंधी जानकारी  आप लोगों के बीच बांटने की कोशिश कर रहे हैं.विद्रोही स्वर में संघर्षों की कहानी है.

अन्य ब्लॉगर्स से संपर्क कराने में सर्वप्रथम भूमिका सुरेन्द्र सिंह भाम्बू जी के Aggrigator ''लक्ष्य''की है.उसके बाद जो ब्लॉगर्स हमारे संपर्क में आये उनके विचारों से अवगत होने के अवसर मिल रहे हैं.संकृत आर्य जी के माध्यम से छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता छोड़कर ब्लौगर  बने साहब के विचारों से भी संपर्क हुआ.कुछ ब्लॉगर्स दूसरों पर व्यक्तिगत आक्षेप करते हैं जो अनुचित है.किन्तु कुछ लोगों की आदत विरोध के लिए विरोध करना ही है वैसी टिप्पणियाँ भी हमें सन्मार्ग से विचलित  नहीं कर सकतीं,अतः उनका भी स्वागत है.


डा.दिव्या की दिव्य शक्ति
quick and fast decision but slow and steady action का अनुगामी होने के कारण मैंने उपरोक्त अनुच्छेद तक लिख-लिखवा कर इस पोस्ट को सेव करा रखा था,इसी बीच बैंकाक में प्रवास कर रही डा.दिव्या श्रीवास्तव ''ZEAL" का एक पूरा पोस्ट मेरे पुत्र यशवंत पर आ गया जिस में हम दोनों का भी उल्लेख है.पढ़ कर ऐसा लगा कि डा.दिव्या के पास कोई दिव्य दृष्टि व शक्ति अवश्य ही है जो उन्होंने पूर्वानुमान के आधार पर पहल कर दी.डा.दिव्या ''क्रन्तिस्वर'' पर जब पहली बार आयीं तो तुरंत Follower भी बन गयीं उस के बाद उन्होंने तो तुरंत ''विद्रोहीस्वर'' तथा यशवंत के ब्लौग ''जो मेरा मन कहे''को भी follow  कर लिया.उनके पोस्ट्स में कुछ न कुछ ऐसा तथ्य होता ही है कि उस पर अपने विचार भी देने होते हैं.कभी कभी उन पर अनर्गल टिप्पणियाँ देख कर जो लोग न समझ कर या जान बूझ कर वैसा कर रहे होते हैं उन्हें स्पष्ट करने हेतु भी पुनः पुनः विचार देने पड़े हैं.मात्र इतने भर पर ही डा.दिव्या ने हमलोगों को जो मान सम्मान दिया है उसे बनाए रखने का पूरा प्रयास हम करेंगे.डा.दिव्या से बहुत ज्ञान वृद्धि हमारी भी हुई है.हम उनके सम्पूर्ण परिवार के उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं.


श्रीमती वीना श्रीवास्तव
हमारे ही दरियाबाद की वीना जी जो लखनऊ में ही रही हैं की भी यशवंत पर विशेष कृपा रही है.उन्होंने न केवल यशवंत के बल्कि मेरे भी ब्लौग को फोलो किया है.स्वयं अच्छी -२ कविताओं से  ज्ञान वर्धन करती रहती हैं. उनका कहना हमारे ज्योतिष के अनुसार सही है.वस्तुतः पूर्व जन्म के संचित कर्म-फल ही इस जन्म का प्रारब्ध या भाग्य कहलाते हैं.वीना जी के पिता जी ने भी मेरे पिता जी की ही भांति अपनी दरियाबाद की जायदाद ठुकरा दी और आत्म निर्भर रहे.हमारे और उनके बीच यह बात समान है.उनके समस्त परिवार के उज्जवल भविष्य के लिए हमारी शुभ कामनाएं.

इसी क्रम में लखनऊ से सम्बंधित अल्पना वर्मा जी के आबुधाबी से लिखे पोस्ट्स ''पाखी''के माध्यम  से पढ़े;उनके दोनों ब्लोग्स जानकारी का खजाना हैं जिनका अध्ययन धीरे धीरे करंगे और कुछ नया ज्ञान प्राप्त करेंगे.लखनऊ के ही डाक्टर डंडा लखनवी साहब की रचनाएं भी ज्ञानवर्धक हैं.''ज्योतिषियों और वैज्ञानिकों की नोंक झोंक '' शीर्षक में उन्होंने यथार्थ चित्रण किया है,मैं उन से सहमत हूँ और अपने पोस्ट्स-''ज्योतिष और हम''तथा ''ढोंग पाखण्ड  और ज्योतिष ''में लोगों को जागरूक करने का प्रयास कर चुका हूँ.

आशीष जी को आशीष
डाक्टर दिव्या जी ने संस्कारों की बात उठाई है तब मेरठ वासी और वर्तमान में जालंधर में रह रहे आशीष जी का ज़िक्र किये बगैर इस पोस्ट का समापन नहीं किया जा सकता.आशीष जी दो वर्ष पूर्व मेरठ के बिग बाज़ार  में यशवंत को मिले थे.यशवंत ने अपनी ड्यूटी सही ढंग से निभाई और उनकी माता जी को सहयोग दिया तभी से उनकी उस पर विशेष कृपा रही है.परन्तु मेरे ब्लौग पर आकर जो मान सम्मान मुझे उन्होंने व्यक्त किया है वह भी उनके परिवार के सुसंस्कारों का ही  प्रभाव दर्शाता है.वह अपने परिवार सहित इसके लिए धन्यवाद के पात्र हैं.

४९ वर्षों के बाद दोबारा लखनऊ आने पर एक वर्ष के भीतर ही योग्य -अनुभवी लोगों के विचारों से हमारी जो ज्ञान वृद्धी हुई,उसके लिए सबके आभारी हैं.



Typist -यश(वन्त)


 

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बुधवार, 29 सितंबर 2010

सिलीगुडी में सवा तीन साल--(अंतिम भाग): विजय राजबली माथुर

(पिछली पोस्ट से आगे...)

वस्तुतः ईस्टर्न कमांड अलग बन जाने के बाद हालात ये थे कि रिटायरमेंट तक इधर से गए सभी लोगों को वहीँ रहना था.वह तो डिफेन्स यूनियनों के नेता और कम्युनिस्ट समर्थित सांसद सुरेन्द्र मोहन बनर्जी के संसद के भीतर व बाहर किये गए प्रयासों का फल था कि सेंट्रल कमांड से गए लोगों को वापिस आने का मौका मिल रहा था. कब कहाँ का ट्रांसफर ऑर्डर मिल जाए यह तय नहीं था.अतः सितम्बर में हम लोग फिर एक बार नाना जी के पास शाहजहांपुर पढने के लिए गए.लेकिन इन सवा तीन वर्षों में सिलीगुड़ी में जिन लोगों के साथ रहे उनका भी ज़िक्र करना यहाँ ज़रूरी है.जिस मकान में पहले पहल उतरे थे वह बाबू जी के S D O राजकुमार अग्रवाल साः के घर के सामने था उन्हीं ने दिलवाया था जो उनके मकान मालिक चक्रवर्ती साः के छोटे भाई का था जो रेलवे में ड्राइवर थे.सब लोग व्यवहार में बहुत अच्छे थे.एक और S D O गोयल साः के घर से भी आना जाना था.दर असल सिलीगुड़ी में सभी गैर बंगाली अधिकारी और मातहत सभी मिलजुल कर चलते थे.सब एक दुसरे से घरेलू सम्बन्ध रखते थे.बंगाली पडौसी भी सभी अच्छे थे.दुसरे मकान में भी हम लीगों के अलावा बाकी सभी किरायेदार बंगाली थे-सब अच्छे थे.वहां बरसात में कुँए का जल स्तर इतना ऊपर आ जाता था कि मन पर थोडा झुकने पर बाल्टी सीधे डुबो कर पानी भर लेते थे.अख़बारों के मुताबिक़ अब वहां भी जल स्तर गिर गया है.

''नक्सल बाड़ी आन्दोलन''--चुनावों के बाद १४ पार्टियों के मोर्चे की सरकार अजोय मुखर्जी के नेतृत्व में बनी थी.उप मुख्यमंत्री व गृह मंत्री ज्योती बसु बने थे.खाद्य मंत्री प्रफुल्ल चन्द्र घोष थे.सिलीगुड़ी से डाक्टर मैत्रेयी बसु सांसद चुनी गयी थीं जो हुमायूँ कबीर के बांगला कांग्रेस की थीं.यह वही कबीर साः थे जिनकी पुत्री लैला कबीर जॉर्ज फर्नांडीज़ की पत्नी बनीं.नई सरकार में C P M सबसे बड़ी पार्टी थी और इसके  कुछ कार्यकर्ताओं ने सिलीगुड़ी से ८ या १० कि.मी.दूर स्थित नक्सलबाड़ी में आदिवासियों को आगे कर के बड़े किसानों की जमीनों पर कब्ज़ा कर लिया था.पुलिस का रूख आन्दोलनकारियों के प्रति नरम था आखिर गृह मंत्री की पार्टी के तो कार्यकर्ता थे.हमारे मकान मालिक के साढू सपरिवार अपनी भैंस,भैंसे लेकर उनकी शरण में आये उनके कमला (संतरा)बगान और खेत सब छिन गए थे.न्यू मार्केट में मारवाड़ियों की दुकानें जला दी गयीं थीं. बड़ी अफरा तफरी मच गयी थी.स्कूल,कॉलेज बंद हो गए.हम लोग तो वैसे ही नहीं जा रहे थे.कुछ दिनों बाद C P M ने संसदीय प्रणाली में विश्वास जताया और अपने कार्यकर्ताओं से अवैध कब्ज़े छोड़ने को कहा तिस पर उन लोगों ने अलग पार्टी का गठन कर लिया जिन में,चारु मजूमदार,कानू सान्याल और M T नागी रेड्डी प्रमुख थे.नक्सलबाड़ी से फांसीद्वार थाना आदि होते हुए असाम के नल बाड़ी तक यह आन्दोलन बढ़ गया (अब तो पूरे देश में फ़ैल गया है).

सरकार की सख्ती से भू स्वामियों को ज़मीनें वापिस मिलीं और मारवाड़ियों ने नुक्सान से ज्यादा पैसा इंश्योरेंस कम्पनियों से वसूल लिया.नुक्सान गरीब बंगाली मजदूरों का हुआ,मारवाड़ियों ने उन्हें निकाल कर दूसरे कर्मचारी रख लिए.एक आदर्श मांग को गलत तरीके से उठाने और पाने के प्रयास में यह आन्दोलन आज भटकाव में उलझा है और सरकारी दमन का शिकार हो रहा है.नतीजा गरीब भूमिहीन आदिवासियों मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है.सिलीगुड़ी में बांगला भाषा में तब कुछ ऐसे पोस्टर भी चिपके थे जिन पर लिखा था--''चीन के चेयरमैन माओ हमारे चेयरमैन''.इस आधार पर इस आन्दोलन को चीन प्रेरित मान कर भी कुचला गया.

''दार्जिलिंग की सैर'' --मुझे तो घूमने का कोई शौक तब भी नहीं था,परन्तु अजय दार्जिलिंग घूमना चाहता था अतः १९६६ की शरद पूर्णिमा (लक्ष्मी पूजा) के दिन हम लोगों को बाबू जी दार्जिलिंग घुमाने  ले गए.हम लोग जब नैरोगेज की गाड़ी में सिलीगुड़ी जंक्शन से बैठे तो तीन-तीन डिब्बों के बाद कुल तीन इंजन लगे थे.शुरू में पूरी एक गाड़ी थी.पहाड़ियों पर जब गाड़ी घूमती थी तो तीनों इंजन खिडकी से दीख जाते थे.किसी स्टेशन पर तीनों इंजन तीन तीन डिब्बों की तीन गाड़ियों में बंट गए जो बहुत कम फासले पर चल रही थीं और दीख रही थीं.एक स्टेशन पर मूलियाँ भी बाबू जी ने लीं-पहाडी मूलियाँ बेहद मीठी थीं.एक स्टेशन पर अजय को शौच के लिए बाबू जी ले कर उतरे  उतने में हम लोगों की गाड़ी चल दी और वे छूट गए.साथ के लोगों ने कहा कि वह पिछली गाड़ी पकड़ लेंगे चिंता की बात नहीं है.अगले स्टेशन पर वे दोनों पिछली गाड़ी से उतर के हम लोगों के साथ आ गए.हम लोग ''घूम'' स्टेशन पर उतर गए.(दार्जिलिंग अगला स्टेशन था)वहां बाबु जी ने ठहरने का प्रबंध कराया था,साथ में राशन वगैरह ले गए थे.लेकिन बाबू जी के एक S D O श्रीवास्तव साः अपने घर ले गए तो माँ ने सारा राशन उन्हीं के घर दे दिया.घूम से अगले दो दिन दार्जिलिंग शहर घूमने गए.ऊपर की सड़क से नीचे का बाज़ार रात में जगमग दीवाली सा चमकता दीखता था.कंचनजंघा देखने नहीं गए.मुझे सर्दी माफिक नहीं आती मेरे हाथ-पाँव सूज गए थे.लौटते में अलग अलग तीन गाड़ियाँ चलीं थीं जो रास्ते में फिर एक गाड़ी में बदल गयीं.वैसे हिलकार्ट रोड से भी पहाड़ियों का अवलोकन सिलीगुड़ी में हो जाता था.दार्जिलिंग की बात दूसरी थी अजय और शोभा को घूमने की प्रसन्नता थी.
सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग जाने वाली 'हिल कार्ट रोड' के साथ-साथ नेरोगेज की रेलवे लाईन

शाहजहांपुर वापसी-जब अगस्त  १९६७ तक बाबू जी को ट्रांसफर ऑर्डर नहीं मिला तो बाबू जी ने नाना जी से पत्र लिख कर हम लोगों को एक वर्ष वहां फिर पढ़ाने हेतु भेजने को कहा तथा उनकी सहमती के बाद सितम्बर में A T मेल से RESERVATION कराकर बैठा दिया.माँ को पहली बार हम तीनों भाई-बहनों को लेकर अकेले सफ़र करना था वह भी एक दम इतनी लम्बी दूरी का परन्तु उन्होंने कहीं भी साहस नहीं छोड़ा.गाड़ी लखनऊ चारबाग की छोटी लाइन पर पहुंची और बड़ी लाइन की गाड़ी से शाहजहांपुर जाना था.छोटी लाइन के कुली काली पोशाक पहनते थे और बड़ी लाइन के कुली लाल पोशाक.एक दूसरे के स्टेशनों में नहीं जाते थे.परन्तु छोटी लाइन का एक कुली भला निकल आया उसने छोटी लाइन से ले जा कर बड़ी लाइन से शाहजहांपुर को छूटने वाली पैसेंजर गाड़ी में सामान कई फेरों में ले जा कर पहुंचा दिया.शायद कुछ ज्यादा रु.लिए होंगे.वह कुली मुझे और अजय को सामान के साथ लाकर इंजन के ठीक पीछे वाले डिब्बे में बैठा गया.सामान ज्यादा था क्योंकि बाद में बाबू जी को अकेले आना था कितना सामान ला पते?कुली बीच में अकेला ही सामान ढो कर लाया और हम भाइयों के पास रख गया.तीसरी या चौथी बार के फेरे में माँ और शोभा भी आये;गाड़ी सीटी देने लगी थी,गार्ड ने हरी झंडी दिखा दी थी-कुली ने दौड़ लगा कर पटरियां फांद कर इंजन के सामने से सामान ला दिया और भाप इंजन के ड्राइवर को रुकने का इशारा किया जब माँ और शोभा डिब्बे में चढ़ गए तब कुली ने मेहनताना लिया और धीमी चलती गाड़ी से उतर गया.आज का ज़माना होता तो लम्बी गाड़ी में इंजन का हार्न और गार्ड की सीटी की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती और विद्युत् गति में गाड़ी दौड़ जाती.उस समय तक भलमनसाहत थी-वह अज्ञात कुली हम लोगों के लिए देवदूत सामान था उसे लाखों नमन.

(समाप्त)

Typist -यशवन्त

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शनिवार, 25 सितंबर 2010

सिलीगुड़ी में सवा तीन साल--(2)

(पिछली पोस्ट से आगे.......)

दिसंबर में सरकारी प्रदर्शनी पर भी भारत -पाक युद्ध की छाप स्पष्ट थी.कानपुर के  गुलाब बाई के ग्रुप के एक गाने के बोल थे--

चाहे बरसें जितने गोले,चाहे गोलियां
अब न रुकेंगी,दीवानों की टोलियाँ

शास्त्री जी व जनरल चौधरी जनता में बेहद लोकप्रिय हो गए थे.पहली बार कोई युद्ध जीता गया था.युद्ध की समाप्ति पर कलकत्ता की जनसभा में शास्त्री जी ने जो कहा था उसमे से कुछ अब भी याद है.पडौसी भास्करानंद मित्रा साः ने अपना रेडियो बाहर रख लिया था ताकि सभी शास्त्री जी को सुन सकें.शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था.उन्होंने सप्ताह में एक दिन (उनका सुझाव सोमवार का था) एक समय अन्न त्यागने की जनता से अपील की थी.उन्होंने PL -४८० की अमरीकी सहायता को ठुकरा दिया था क्योंकि प्रेसीडेंट जानसन ने बेशर्मी से अय्यूब का नापाक साथ दिया था.चीनी आक्रमण के समय केनेडी से जो सहानुभूति थी वह पाक आक्रमण के समय जानसन के प्रति घृणा में बदल चुकी थी,हमारे घर शनिवार की शाम को रोटी चावल नहीं खाते थे.हल्का खाना खा कर शास्त्री जी के व्रत आदेश को माना जाने लगा था.शास्त्री जी ने अपने भाषण में यह भी बताया था की १९६२ युद्ध के बाद चीन से मुकाबले के लिए जो हथियार बने थे वे सब सुरक्षित हैं और चीन को भी मुहं तोड़ जवाब दे सकते हैं.जनता और सत्ता दोनों का मनोबल ऊंचा था.
मेरी कक्षा में बिप्र दास धर नामक एक साथी के पिता कलकत्ता में फ़ौज के J C O थे.एक बेंच पर हमारे पास ही वह भी बैठता था.उसके साथ सम्बन्ध मधुर थे.जिन किताबों की किल्लत सिलीगुड़ी में थी वह अपने पिता जी से कलकत्ता से मंगवा लेता था.हिन्दी निबंध की पुस्तक उससे लेकर तीन-चार दिनों में मैंने दो कापियों पर पूरी उतार ली,देर रात तक लालटेन की रोशनी में भी लिख कर.उसके घर सेना का ''सैनिक समाचार'' साप्ताहिक पत्र आता था.वह मुझे भी पढने को देता था.उसमे से कुछ कविताएँ मुझे बेहद पसंद आयीं मैंने अपने पास लिख कर रख ली थीं।
सीमा मांग रही कुर्बानी

सीमा मांग रही कुर्बानी
भू माता की रक्षा  करने बढो वीर सेनानी
महाराणा छत्रपति शिवाजी बूटी अभय की पिला गये
भगत सिंह और वीर बोस राग अनोखा पिला गए
शत्रु सामने शीश झुकाना हमें बड़ों की सीख नहीं,
जिन्दे लाल चुने दीवार में मांगी सुत  की भी भीख  नहीं,
गुरुगोविंद से सुत कब दोगी बोलो धरा भवानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विकट समय में वीरों ने यहाँ अपना रक्त बहाया था
जब देश की खातिर अबलाओं ने भी अस्त्र उठाया था.
कण-कण में मिला हुआ है यहाँ एक मास के लालों का
अभी भी द्योतक जलियाना है देश से मिटने वालों का
वीरगति को प्राप्त हुई लक्ष्मी झांसी  वाली रानी,
सीमा मांग रही कुर्बानी.

अपनी आन पे मिटने को यह देश देश हमारा है
मर जायेंगे पर हटें नहीं यह तेरे बड़ों का नारा है
होशियार जोगिन्दर कुछ काम हमारे लिए छोड़ गए
दौलत,विक्रम मुहं शत्रु का मुख मोड़ गए.
जगन विश्व देखेगा कल जो तुम लिख रहे कहानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विक्रम साराभाई आदि परमाणु वैज्ञानिकों,होशियार सिंह,जोगिन्दर सिंह,दौलत सिंह आदि वीर सैन्य अधिकारियों को भी पूर्वजों के साथ स्मरण किया गया है.आज तो बहुत से लोगों को आज के बलिदानियों के नामों का पता भी नहीं होगा.

रूस नेहरु जी के समय से भारत का हितैषी रहा है लेकिन उसके प्रधान मंत्री M.Alexi kosigan भी नहीं चाहते थे कि शास्त्री जी लाहोर को जीत लें उनका भी जानसन के साथ ही दबाव था कि युद्ध विराम किया जाए.अंतर्राष्ट्रीय दबाव पर शास्त्री जी ने युद्ध विराम की  बात मान ली और कोशिगन के बुलावे पर ताशकंद अय्यूब खान से समझौता करने गए.रेलवे के  एक उच्च अधिकारी ने जो ज्योतिष के अच्छे जानकार थे और बाद में जिन्होंने कमला नगर  आगरा में विवेकानंद स्कूल की स्थापना की शास्त्री जी को ताशकंद न जाने के लिए आगाह किया था.संत श्याम जी पराशर ने भी शास्त्री जी को न जाने को कहा था.परन्तु शास्त्री जी ने जो वचन दे दिया था उसे पूरा किया,समझौते में जीते गए इलाके पाकिस्तान को लौटाने का उन्हें काफी धक्का लगा या  जैसी अफवाह थी कुछ षड्यंत्र हुआ 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में उनका निधन हो गया.11 जनवरी को उनके पार्थिव शरीर को लाया गया,अय्यूब खान दिल्ली हवाई अड्डे तक पहुंचाने आये थे.एक बार फिर  गुलजारी लाल नंदा ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे.वह बेहद सख्त और ईमानदार थे इसलिए उन्हें पूर्ण प्रधानमंत्री बनाने लायक नहीं समझा गया.  

नेहरु जी और शास्त्री जी के निधन के बाद 15 -15 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले नंदा जी जहाँ सख्त थे वहीँ इतने सरल भी थे कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व दिल्ली के जिस फ़्लैट में वह रहते थे वहां कोई पहचानने वाला भी न था.एक बार फ़्लैट में धुआं भर गया और नंदा जी सीडियों पर बेहोश होकर गिर गए क्योंकि वह लिफ्ट से नहीं चलते थे.बड़ी मुश्किल से किसी ने पहचाना कि पूर्व प्रधानमंत्री लावारिस बेहोश पड़ा है तब उन्हें अस्पताल पहुंचाया और गुजरात में उनके पुत्र को सूचना दी जो अपने पिता को ले गए.सरकार की अपने पूर्व मुखिया के प्रति यह संवेदना उनकी ईमानदारी के कारण थी.

कामराज नाडार ने इंदिरा गांधी को चाहा और समय की नजाकत को देखते हुए वह प्रधानमंत्री बन गयीं.किन्तु गूंगी गुडिया मान कर उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने वाले कामराज आदि सिंडिकेट के सामने झुकीं नहीं.1967 के आम चुनाव आ गए,तब सारे देश में एक साथ चुनाव होते थे.उडीसा में किसी युवक के फेके पत्थर से इंदिरा जी की नाक चुटैल हो गयी.सिलीगुड़ी वह नाक पर बैंडेज कराये ही आयीं थीं.मैं और अजय नज़दीक से सुनने के लिए निकटतम दूरी वाली रो में खड़े हो गए.मंच14 फुट ऊंचा था.सभा की अध्यक्षता पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन ने की थी.  

इंदिरा जी के पूरे भाषण में से एक बात अभी भी याद है कि जापानी लोग जरा सी भी चीज़ बर्बाद नहीं करते हमें बखूबी सीखना चाहिए.आज जब कालोनी में एक रो से दूसरी रो तक स्कूटर,मोटरसाइकिल से लोगों को जाते देख कर या सड़क पर धुलती कारों में पानी की बर्बादी देख कर तो नहीं लगता की इंदिरा जी के भक्त भी उनकी बातों का पालन करते हैं जबकि शास्त्री जी की अपील का देशव्यापी प्रभाव पड़ा था.  
उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था.संविद सरकारें बन गयीं थी.केंद्र में सिंडिकेट के प्रतिनिधि मोरार जी देसाई ने इंदिरा जी के विरूद्ध अपना दावा पेश कर दिया था.यदि चुनाव होता तो मोरारजी जीत जाते लेकिन इंदिरा जी ने उन्हें फुसला कर उप-प्रधानमंत्री बनने पर राजी कर लिया.

जाकिर हुसैन साःराष्ट्रपति और वी.वी.गिरी साः उप-राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.''सैनिक समाचार''में कैकुबाद नामक कवि ने लिखा--

ख़त्म हो गए चुनाव सारे
अब व्यर्थ ये पोस्टर और नारे हैं
कोई चंदू..............................हैं,
तो कोई हजारे हैं.........

चुनाव तो ख़त्म हुए लेकिन हमारे तो बोर्ड के इम्तिहान अभी बाक़ी थे दिसंबर में प्री-टेस्ट में ६० में से हम कुल २० छात्र ही बोर्ड के लिए चुने गए थे.स्कूल बंद हो चुके थे,घर पर ही तैय्यारी करनी थी.जनरल साइंस का कोर्स पूरा नहीं हो सका था.स्कूल सेक्रेट्री डाक्टर इंद्र बहादुर थापा अपने क्लिनिक से स्कूल आकर हम लोगों को पढ़ाते थे.एक पेशेवर डाक्टर का पढ़ाने का अंदाज़ बिलकुल मंजे हुए शिक्षक जैसा था.उनके पढाये पाठ सभी को आसानी से समझ आ जाते थे.

गरमी के मौसम में रात 11  बजे तक लालटेन से पढ़ कर उसे धीमा कर के छोड़ देते थे और सुबह 4 बजे फिर तेज़ करके थोडा देख कर स्नान आदि कर के 6 बजे घर से परीक्षा देने निकल पड़ते थे.स्कूल से मेरा एडमिट कार्ड भी बाबू जी ही लाये थे और जब रिज़ल्ट निकला तो भी वही स्कूल से पता कर के आये थे.वहां अखबार में रिज़ल्ट नहीं निकलता था.प्रीयूनिवर्सिटी में दाखिला नहीं लिया क्योंकि बाबू जी का  तबादला यू.पी.में होने की संभावनाएं थीं.

(अगली किश्त में जारी.......)

Typist -यशवन्त
   
  

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