शनिवार, 31 दिसंबर 2011

2011 को अच्छा मानें या बुरा?

आज 2011 वर्ष का समापन होने जा रहा है। पूरे वर्ष की गतिविधियों और उनके परिणाम पर दृष्टिपात करके इस वर्ष को अच्छा या बुरा नहीं कह सकते। इस वर्ष ब्लाग-लेखन द्वारा कई ब्लागर्स से जो संपर्क था वह व्यक्तिगत मुलाकातों के रूप मे भी सामने आया। कई गोष्ठियों मे श्रोता के रूप मे  भाग लिया और अनुभव प्राप्त किए। राजनीतिक रूप से जहां अपनी कम्युनिस्ट पार्टी के धरना  व प्रदर्शनों मे भाग लिया वहीं AISF  तथा प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रमों मे भी उपस्थित रहा। पार्टी की कई बैठकों मे भी भाग लेने का अवसर मिला। कई ब्लागर्स की व्यक्तिगत समस्याओं हेतु ज्योतिषीय समाधान देने के भी अवसर मिले। एकमात्र मनोज कुमार जी ही ऐसे ब्लागर रहे जिनहोने अपने कार्य-संपन्नता की औपचारिक सूचना ई-मेल द्वारा दी। एक और ब्लागर ने पूछने पर स्वीकार किया कि उन्हें पहले से अब लाभ है। परंतु अधिकांश ने लाभ होने अथवा न होने की कोई सूचना देना मुनासिब नहीं समझा। एक ब्लागर की इच्छा का आदर करते हुये 'जन हित मे' स्तुतियाँ देना प्रारम्भ की ,परंतु उन ब्लागर ने ही उन्हे देखने की जरूरत नहीं समझी।

इसी वर्ष मार्च माह मे एक परिचित बैंक अधिकारी के पुत्र की तबीयत होली खेलने के बाद ऐसी खराब हुई कि डाक्टरों ने बचने के बारे मे ही संदेह व्यक्त कर दिया और बचने पर 'दिमाग' विकृत होने की बात कह दी। उन्होने चिकत्सा विश्वविद्यालय के ICU मे भरती अपने पुत्र के पास बुला कर ज्योतिषीय समाधान मांगा। मेरे द्वारा बताए मंत्रों के प्रयोग से उनका पुत्र सकुशल स्वस्थ होकर आया और परीक्षा परिणाम भी उसका अनुकूल ही आया। इस जानकारी से मन काफी संतुष्ट हुआ।

एक ब्लागर साहब और एक परिचित के पुत्र को पूर्ण लाभ होना मेरे ज्योतिषीय सिद्धांतों की वैज्ञानिकता को ही पुष्ट करता है। जबकि फेसबुक तथा ब्लाग्स मे कई लोग मेरी पद्धति का मखौल उड़ाते हैं,उन्हे प्रचलित दक़ियानूसी  पोंगा-पंथ ही भाता है।

इसी वर्ष हमारी बहन डॉ शोभा और बहनोई श्री कमलेश बिहारी माथुर S/O स्व.सरदार बिहारी माथुर,रेलवे अधिकारी (अलीगढ़),द्वारा हमारे विरुद्ध संलिप्त रहने का पर्दाफाश भी हो गया। हम तो छोटी बहन-बहनोई समझ कर उन पर विश्वास करते रहे और वे हमारे विरुद्ध लोगों को उकसाते व भड़काते रहे। 5 वर्ष से उनकी गतिविधियां संदिग्ध लग रही  थीं परंतु पूनम और यशवन्त मिलकर मुझे चुप करा देते थे। इस बार अप्रैल मे जब वे अपने भाई दिनेश की बेटी की शादी मे लखनऊ आ रहे थे तो फोन पर कई ऐसी बातें बहन जी द्वारा कही गई कि मैंने पूनम से कह दिया था कि इस बार तो अपने माता-पिता की पुत्री-दामाद होने के नाते अपने घ्रर  आने पर उनका स्वागत कर लेंगे परंतु भविष्य मे उन लोगों का स्वागत करना मेरे लिए संभव नहीं है।

यशवन्त को कमलेश बाबू चौराहे तक ले जाने की बात कह कर अपने साथ ले गए फिर हजरतगंज होते हुये अमीनाबाद तक जाकर लौटे बिफर कर यह कहते हुये कि यह न तो आलू की टिक्की खाता है न कुल्फी हम इसे अपने साथ नहीं ले जाया करेंगे। अगले दिन उन्हे फ्लाईट पकडनी थी लिहाजा मै खामोश रहा वरना पूछता कि क्या मैंने उसे आपके साथ लगाया था?उसे साथ ले जाने से  उसका साइबर ही ठप्प रहा। रास्ते मे उससे पूछते हैं 'मोपेड़' कितने मे बेची? आगरा छोडते समय काफी सामान काफी घाटे मे बेचना पड़ा खराब हो गई मोपेड़ भी घाटे मे ही बेची थी। उसकी खरीद मे जो रूपये लगे थे उनमे से आठ हजार शालिनी के थे शायद इसी लिए कमलेश बाबू को उसकी बिक्री के पैसों की फिक्र थी,जबकि जिस दिन मोपेड़ खरीद कर लाये थे उस दिन डॉ शोभा उपस्थित थीं और भौंचक रह गई थीं। डॉ शोभा ने मोपेड़ लाने की खुशी मे अपनी माँ द्वारा दी मिठाई का एक टुकड़ा भी न चखा था और उनके पति को उसकी बिक्री के पैसों की व्यापक चिंता थी।

आगरा का मकान मैंने मेरठ मे अपनी नौकरी के बचे पैसों से सिक्योरिटी जमा करके तथा 15 वर्षों तक मासिक 'किश्तें' जमा करके खरीदा था जिसे बेच कर लखनऊ मे घाटे मे आए थे। 1976 मे कमलेश बाबू ने हमारे बाबूजी द्वारा तीन मकान खरीदने की बात हमारी माँ से कही थी। बाबूजी की हैसियत एक भी मकान खरीदने की न थी क्योंकि दो वर्ष बाद ही उनका रिटायरमेंट था।बाद मे बहन जी ने माँ को सूचित किया था कि कमलेश बाबू अपनी बी एच ई एल,हरिद्वार की नौकरी छोड़ कर दरियाबाद की खेती सम्हाल लेंगे -बस बाबूजी अपना हिस्सा ले लें। ऐसा न होने के कारण ही मेरे लखनऊ आने पर मथुरानगर,दरियाबाद के ऋषिराज,नरेश ,उमेश को डॉ शोभा और कमलेश बाबू ने मेरे खिलाफ कुछ गलत-सलत भड़का दिया। निवाजगंज,लखनऊ मे कमल दादा ने फरवरी मे बताया था कि शोभा बचपन से ही टेढ़ी है। उनके निधन के बाद हवन के समय शैल जीजी ने भी कहा था कि शोभा चिढ़ोकारी है। अगस्त मे उनका भी निधन हो गया। मै संदेह के बावजूद चुप इसलिए रहता था कि ये लोग तिकड़म से पहले ही अजय को भी भड़का कर अलग-थलग कर चुके थे और इसका शक माईंजी पर डाल दिया था। ब्लाग जगत मे उनकी छोटी  पुत्री-मुक्ता(जिसके पति साफ्टवेयर इंजीनियर तथा कुक्कू के रिश्तेदार के रिश्तेदार हैं) जो सोनू नाम की फेक आई डी से यशवन्त और मेरे विरुद्ध अनर्गल प्रचार करके शक एक बार फिर माईंजी पर डाल चुकी थी।

अतः 1978 मे मेरा मकान एलाट होते ही कमलेश बाबू मेरे विरुद्ध साज़िशों मे लग गए जिंनका पता अब  लखनऊ आने पर ही चल सका और पुष्टि उनके 2011 मे हमारे घर आने पर हो सकी कि 'मधू' पत्नी कुक्कू तो कमलेश बाबू की भतीजी थीं। कमलेश बाबू ने हमारे तब के ज्योतिषीय सलाहकार डॉ रामनाथ को कुक्कू द्वारा खरीद कर शालिनी से 14 गुणों को 28 बता कर विवाह तय करवाया था। होटल मुगल से बरखास्तगी और राजनीतिक उठा- पटक मे भी कमलेश बाबू-कुक्कू-शरद मोहन(तीनों के पिता रेलवे के साथी रहे) गठजोड़ का ही हाथ था। इसी लिए वे लोग हमारे लखनऊ आने का शुरू से विरोध कर रहे थे। यह पता लगने  पर कि यशवन्त की ख़्वाहिश पर हमने घाटे मे भी लखनऊ आने का निर्णय किया था तो वे लोग उसके भी विरुद्ध मशगूल हो गए। अंततः मुझे उससे 'बिग बाजार' का जाब छुड़वाकर घर पर साइबर खुलवाना पड़ा जबकि डॉ शोभा-कमलेश बाबू अपने परिचित 'लुटेरिया' बिल्डर के यहाँ उसे जाब पर रखवाना चाहते थे। उसी लुटेरिया के माध्यम से उन्होने हमे यहाँ परेशान रखने का उपक्रम किया हुआ है।

इतना ही नहीं बी एच ई एल ,हरद्वार मे 'सीटू' से सम्बद्ध यूनियन मे सेक्रेटरी रह चुके कमलेश बाबू ने अपने पुराने संपर्कों के आधार पर सी पी एम से संबन्धित लोगों को पहले मुझ पर सी पी आई छोड़ कर सी पी एम मे शामिल होने का सुझाव भिजवाया। 17 जून 2011 को मेरे घर सी पी एम,मेरठ के कामरेड जो ब्लागर भी हैं आए और इस प्रकार की राय व्यक्त किए,कम से कम जलेस मे लेखन का ही उनका वैकल्पिक सुझाव था। चूंकि मैंने इन सुझावों को स्वीकार नहीं किया तो उन्हीं ब्लागर सी पी एम के कामरेड ने भाकपा के प्रदेश नेता द्वारा संचालित ब्लाग को फालों करके मेरे विरुद्ध अभियान चला दिया। इस अभियान का परिणाम मेरे विरुद्ध देखने के इच्छुक लोग संतुष्ट हो पाते हैं अथवा नहीं इसका पता 2012 मे ही चलेगा।

कविवर रवीन्द्र नाथ टैगोर के 'एकला चलो रे' का मै अनुगामी हूँ और सदैव प्रत्येक के भले के लिए प्रस्तुत रहता हूँ ,इसलिए मुझे नहीं लगता कि कितनी भी बड़ी ताकत बटोर कर मुझे परास्त करने मे किसी को भी सफलता आगे भी मिल सकेगी जैसे अभी तक नहीं मिल सकी है । सन 2012 मे सभी को सद्बुद्धि मिले और सभी समृद्धि कर सकें 2011 के समापन पर यही हमारी मंगल कामनाएं हैं।


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बुधवार, 28 दिसंबर 2011

आगरा/1992-93/विशेष राजनीतिक (भाग-7 )

गतांक से आगे.....
शाखा लँगड़े की चौकी के मंत्री कामरेड एस कुमार (जिसे कभी मिश्रा जी बड़ा प्यारा कामरेड कहते थे) को कटारा के बेटे ने पार्टी कार्यालय मे ही पीट दिया। अब तो आगरा के कामरेड्स मे मिश्रा जी और कटारा के विरुद्ध उबाल ही आ गया था। एस कुमार जी भी अनुसूचित वर्ग से संबन्धित थे अतः यह माना गया कि मिश्रा जी का गुट कामरेड नेमीचन्द को हतोत्साहित करने हेतु ऐसी ओछी हरकतें जान-बूझ कर कर रहा है। एक बार पुनः राज्य-केंद्र पर अधिकृत तौर पर मिश्रा जी और कटारा साहब के विरुद्ध कारवाई करने का निवेदन किया गया। कामरेड काली शंकर शुक्ला जी का वरद हस्त मिश्रा जी का रक्षा कवच था। कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह ने खुद आगरा आकर सब की सुन कर कोई ठोस निर्णय लेने का आश्वासन दिया। मिश्रा जी ने दिलली  की भाग-दौड़ करके कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह के स्थान पर राज्य सचिव कामरेड मित्रसेन यादव का आना सुनिश्चित करवाया।

दिन मे आगरा की भाकपा जिला काउंसिल की बैठक भी राज्य सचिव के समक्ष हुई । लिखित और मौखिक शिकायतें उनको सौंपी गई। मिश्रा जी बैठक से अलग ले जाकर मित्रसेन यादव जी से मिले और उन्हें कुछ घुट्टी पिला दी। मिश्रा जी और कटारा साहब को पार्टी से हटाने का जो प्रस्ताव था उसे मित्रसेन यादव जी के कहने पर पास नहीं किया गया। उन्होने इन दोनों के सुधर जाने का आश्वासन अपनी तरफ से दिया। उनकी बात न माने जाने का प्रश्न ही न था। रात को राजा-की-मंडी स्टेशन पर 'गंगा-जमुना एक्स्प्रेस' मे मित्रसेन जी को बैठाने जिला मंत्री नेमीचन्द जी ,मै और किशन बाबू श्रीवास्तव साहब तो गए ही कटारा साहब भी मिश्रा जी के सुझाव पर पहुँच गए थे। स्टेशन पर मित्रसेन जी ने कटारा साहब से कहा मिश्रा जी का ख्याल रखो।


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मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

आगरा /1992 -93 ( विशेष राजनीतिक भाग- 6 )

गतांक से आगे.....


भकपा जिला काउंसिल के कार्यालय 'सुंदर होटल',राजा-की-मंडी मे रमेश कटारा ने कामरेड किशन बाबू श्रीवास्तव पर हमला कर दिया । नेमीचन्द समेत हम सभी लोगों ने इसे गंभीर चुनौती के रूप मे लिया । जिस शख्स को मिश्रा जी ने केंद्रीय कंट्रोल कमीशन के चेयरमेन कामरेड काली शंकर शुक्ला के प्रभाव से यू पी राज्य कंट्रोल कमीशन का सदस्य बनवाया हो वह बगैर मिश्रा जी के समर्थन के डॉ धाकरे के गुट के माने जाने वाले का  श्रीवास्तव पर पार्टी कार्यालय मे हमला करने का साहस नहीं कर सकता था। श्रीमती श्रीवास्तव ने हम लोगों को बताया था कि आतंक का सहारा लेना मिश्रा जी के लिए नई बात नहीं है। पहले भी इसी कार्यालय मे मिश्रा जी और उनके सहयोगी का जगदीश प्रसाद ने डॉ राम विलास शर्मा पर साइकिल की चेन से हमला किया था। डॉ राम विलास जी 'सेंट जौंस कालेज,आगरा' से जाब छोड़ कर दिल्ली चले गए और वहीं बस गए। मिश्रा जी के व्यवहार के कारण एक विद्वान लेखक का नाता आगरा से टूट गया।

हमने अधिकृत रूप से राज्य सचिव कामरेड मित्रसेन यादव जी को सूचित किया। पार्टी कार्य से लखनऊ आने पर कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह से निजी मुलाक़ात करके पूरी घटना और उसमे मिश्रा जी की संलिप्तता का विवरण दिया। उन्होने खेत-मजदूर सभा के नेता और सांसद कामरेड राम संजीवन को आगरा जाकर तहक़ीक़ात करने को कहा। जब कामरेड राम संजीवन आगरा आए तो मिश्रा जी और उनके गुट का कोई सदस्य स्टेशन उनकी अगवानी करने नहीं गया। होटल मे भी मिश्रा जी उनसे नहीं मिले लेकिन कटारा ने अपनी सफाई दी। मैंने कामरेड श्रीवास्तव और उनकी पत्नी की उनसे विशेष रूप से मुलाक़ात करवा दी थी। सुबह की ताज से आकर शाम की ताज से राम संजीवन जी दिल्ली लौट गए। उन्होने अपनी रिपोर्ट लखनऊ भेज दी होगी। आगरा पार्टी के कामरेड्स ने कटारा और मिश्रा जी को पार्टी से निकालने की मांग रखी थी।....  

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शनिवार, 24 दिसंबर 2011

आगरा /1992 -93 ( विशेष राजनीतिक भाग- 5 )

गतांक से आगे---
लगातार नौ वर्षों तक आगरा भाकपा के जिला मंत्री रह चुकने के बाद मिश्रा जी ने अपने हटाये जाने को अपनी करारी हार माना और बदले की कारवाइयों पर अमल करने लगे। उन्हें लगा कि यह उनके विरोधियों की उनके विरुद्ध साजिश है। उन्हें अपना अतीत याद आ रहा था जैसा पुराने कामरेड्स ने बताया था और कभी-कभी मौज मे होने पर वह खुद भी बताते रहते थे। आगरा भाकपा के संस्थापक मंत्री कामरेड महादेव नारायण टंडन के विरुद्ध डॉ जवाहर सिंह धाकरे से मिल कर मिश्रा जी ने खूब गुट-बाजी की थी और उन्हें हटने पर मजबूर किया था । टंडन जी ने भी अपने समर्थक डॉ महेश चंद्र शर्मा के पक्ष मे ही पद छोड़ा था। शर्मा जी को बीच कार्यकाल मे पद छोडने पर डॉ धाकरे और मिश्रा जी ने मजबूर कर दिया था। डॉ धाकरे जिला मंत्री और मिश्रा जी सहायक जिला मंत्री बने थे। डॉ धाकरे के 06 माह हेतु सोवियत रूस पार्टी स्कूल मे जाने की वजह से मिश्रा जी कार्यवाहक जिला मंत्री बने तो जमे ही रहे वापस चार्ज डॉ धाकरे को नहीं दिया तब से ही दोनों मे मन-मुटाव चला आ रहा था। मिश्रा जी को लगा कि यह डॉ धाकरे का खेल है। परंतु डॉ धाकरे तो पिछड़ा वर्ग के ओमप्रकाश जी को भले ही कुबूल कर रहे थे अनुसूचित वर्ग के कारेड नेमी चंद उनकी पसंद के नहीं थे। डॉ धाकरे के भांजा दामाद कामरेड भानु प्रताप सिंह ने मुझ से साफ कहा था कि,माथुर साहब कहने -सुनने मे तो बातें अच्छी लगती हैं -नेमीचन्द से तो मिश्रा जी ही भले थे। हालांकि नेमीचन्द बनेंगे मुझे खुद सम्मेलन के दूसरे दिन ही पता चला था हमारी त्तरफ से तो ओमप्रकाश जी उम्मीदवार थे। परंतु चुने जाने के बाद जैसा दूसरे लोग चाहते थे मै नेमीचन्द जी को हटाये जाने के सख्त खिलाफ था। हालांकि नेमीचन्द जी लिखत-पढ़त कुछ भी नहीं करते थे और यह भार मुझ पर अतिरिक्त था लेकिन मै चट्टान की तरह उनके समर्थन मे डटा रहा। नेमीचन्द जी भी जानते थे कि उनका पद पर कायम रहना केवल मेरे कारण ही संभव हो रहा है। लोगों ने उनके दिमाग मे खलल डालने के लिए उन्हें नेमीचन्द माथुर कहना शुरू कर दिया। परंतु वह विचलित नहीं हुये।



मिश्रा जी के समक्ष स्पष्ट था कि जब तक मै नेमीचन्द जी के साथ हूँ तब तक उनकी दाल नहीं गल पाएगी। मुझे झुका-दबा या खरीद लेने की फितरत उनके पास नहीं थी। इसलिए उन्होने षड्यंत्र का सहारा लिया। एक बार अचानक कार्यकारिणी बैठक मे मिश्रा जी ने मुझे पार्टी से निकालने का प्रस्ताव रख दिया। शायद वह पहले से लामबंदी कर चुके थे। नेमीचन्द जी भी कुछ न बोले। उस समय बाहर बारिश हो रही थी मैंने अपना छाता उठाया और बैठक से उठ कर घर चल दिया। कामरेड जितेंद्र रघुवंशी ने कहा कि बारिश बंद होने के बाद चले जाना तेज बारिश मे छाता भी बेकार है। मैंने कहा जब आप लोगों ने पार्टी से अकारण मुझे निकाल ही दिया तो चिंता क्यों?यह अवैधानिक फैसला है और मै इसे चुनौती दूंगा।




मैंने जिला मंत्री कामरेड नेमीचन्द से  बाद मे मिल कर कहा कि उनके समर्थन न देने के बावजूद मै कार्यकारिणी के इस अवैध्य फैसले को संवैधानिक चुनौती दे रहा हूँ और इस आशय का लिखित पत्र उनको सौंप दिया। उन्होने मुझे आश्वासन दिया कि वह जिला काउंसिल मे इस विषय पर मेरे साथ रहेंगे। कार्यकारिणी चूंकि मिश्रा जी द्वारा तोड़ ली गई थी वह चुप रहे थे। राज्य-केंद्र पर भी मैंने इस फैसले को चुनौती की सूचना भेज दी थी। मलपुरा शाखा के कामरेड्स जिंनका बहुमत था मेरे साथ थे ,उन्होने तो यहाँ तक कह दिया था कि यदि मिश्रा जी पीछे नहीं हटे तो वे सब भी पार्टी छोड़ देंगे। जिस दिन जिला काउंसिल की बैठक हुई मिश्रा जी ने कामरेड राजवीर सिंह चौहान को बैठक का सभापति घोषित करा दिया जिन्हें वह पहले ही सेट कर चुके थे। उन्होने सभापति बनते ही मुझे बैठक से बाहर कर दिया। अंदर धुआंधार बहस होती रही और मै इतमीनान से छत पर मौजूद रहा। डॉ जवाहर सिंह धाकरे ने आते ही मुझसे सवाल किया कि बैठक से बाहर क्यों हो ?मैंने कहा सभापति चौहान साहब का यही निर्णय है।

डॉ धाकरे से मेरे द्वारा पहले ही पार्टी संविधान पर चर्चा हो चुकी थी। उन्होने बैठक मे पहुँचते ही सभापति जी से संविधान की धाराओं पर चर्चा की और उन्हें बताया कि उनका फैसला एक और असंवैधानिक कारवाई है। कार्यकारिणी समिति का गठन जिला काउंसिल ने किया था और जिला काउंसिल का गठन सम्मेलन ने अतः कार्यकारिणी समिति जिला काउंसिल के सदस्य को हटा ही नहीं सकती थी। सभापति अगर अपना फैसला नहीं बदलेंगे तो उनके विरुद्ध भी संविधान-विरोधी कारवाई करने का प्रस्ताव पारित किया जाएगा। चौहान साहब की ठाकुर ब्रादरी के धाकरे साहब ने जब उन्हें चुनौती दी तो उन्होने अपना फैसला पलटते हुये दो-तीन वरिष्ठ कामरेड्स भेज कर मुझे बैठक के भीतर बुलवाया। उन्होने यह भी सूचित किया कि जिला काउंसिल ने कार्यकारिणी का फैसला रद्द कर दिया है अतः मै न केवल पार्टी मे बल्कि अपने सभी पदों पर पूर्ववत कार्य करता रहूँ। संवैधानिक जीत तो हासिल हो गई ,किन्तु एक बारगी इज्जत पर  तो नाहक  हमला हुआ ही इसलिए मन ही मन मौका मिलते ही पार्टी से खुद ही अलग हो जाने का निश्चय कर लिया और किसी से इस संबंध मे कुछ न कहा तथा कार्य पहले की भांति ही करता रहा।

एक बार जिला कचहरी पर कोई धरना  प्रदर्शन था मै वहाँ भी (उस घटना के बाद मैंने मिश्रा जी से बोलना बंद कर दिया था) मिश्रा जी से न बोला। मिश्रा जी मेरे पास आए और बोले माथुर साहब यह सब तो चलता ही रहता है,हम लोग एक ही पार्टी मे हैं ,उद्देश्य एक ही हैं ,काम एक साथ कर रहे हैं तो बोल-चाल बंद करने का क्या लाभ। मजबूरन उनका अभिवादन करना ही पड़ा वह वरिष्ठ थे और खुद मेरे पास चल कर आए थे । हम लोग उनके हित मे थे वह हमें गलत समझ रहे थे। कटारा ने तांत्रिक प्रक्रिया से उनके सोचने की शक्ति कुंन्द कर दी थी।

मिश्रा जी ने शायद यह भी मान लिया था कि वह मुझे हरा न पाएंगे। इसलिए उन्होने और गंभीर चाल चली जो अपने समय पर ही लिखित स्थान प्राप्त करेगी।


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बुधवार, 21 दिसंबर 2011

आगरा /1992-93(राजनीतिक विशेष-भाग-4 )

गतांक से आगे.....
हम लोगों ने मलपुरा के ग्राम प्रधान कामरेड ओमप्रकाश को मिश्रा जी के विरुद्ध जिला मंत्री पद पर खड़े होने को राजी कर लिया था। किन्तु मिश्रा जी ने अपना चक्र चला कर उन्हे पीछे हटने को राजी कर लिया ,मुझे इन बातों की खबर न थी। लेकिन मिश्रा जी के पारिवारिक हितैषी कामरेड्स ज्यादा चतुर थे,उन्होने मिश्रा जी के ही घनिष्ठ साथी नेमिचन्द को तैयार कर लिया था,ओम प्रकाश जी ने भी उन्हें समर्थन देना स्वीकार कर लिया था । इस कहानी की खबर न मुझे थी न मिश्रा जी को। राज्य-पर्यवेक्षक के रूप मे कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह के स्थान पर राज्य सचिव का मित्रसेन यादव द्वारा पूर्व राज्य-सचिव का जगदीश त्रिपाठी(जिंनका 17 दिसंबर 2011को लखनऊ मे निधन हुआ है) ,पूर्व सह-सचिव का अशोक मिश्रा(जो बाद मे राज्य  सचिव भी रहे) और आगरा क्षेत्र के इंचार्ज का डॉ गिरीश(वर्तमान राज्य सचिव) को संयुक्त रूप से भेजा गया था। मिश्रा जी खुश थे कि इन लोगों की मौजूदगी मे वह अपनी कलाकारी दिखा लेंगे।

पहले दिन की सम्मेलन कारवाई के बाद बाह मे ही एक जनसभा भी रखी गई थी। दिन मे सचिव की रिपोर्ट के बाद प्रतिनिधियों ने अपने विचार रखे थे और कहीं से भी मिश्रा जी को यह आभास नहीं मिला था कि कोई भी उन्हें हटाने की कारवाई कर सकता है ,मुझे भी यही लगा था कि मिश्रा जी ही पुनः पदारूढ़ होने जा रहे हैं। डॉ रामनाथ शर्मा और एडवोकेट सुरेश बाबू शर्मा तो खिन्न होकर आगरा वापस लौट भी गए थे। वे मुझे भी लौट चलने का दबाव बना रहे थे परंतु मै साधारण प्रतिनिधि के साथ-साथ तब तक कोशाध्यक्ष के पद पर था और इस तरह सम्मेलन का बहिष्कार करना भी मुझे पसंद नहीं था लिहाजा मै उनके साथ न जाकर अगले दिन के लिए वहीं रुका रहा था । परंतु मै सभा-मंच पर न बैठ कर सामने मैदान मे दरी पर दूसरे प्रतिनिधियों ,स्थानीय कार्यकर्ताओं एवं आम जनता के साथ बैठा था। संचालन कर रहे का हर विलास दीक्षित से मिश्रा जी ने अनाउंस करवाया कि समस्त कार्यकारिणी सदस्य मंच पर आ जाएँ ,मुझे छोड़ कर सभी पहले से ही मंच पर मौजूद थे। मै दरी पर ही बैठा रहा किन्तु सभा प्रारम्भ करने से पूर्व मिश्रा जी के इशारे पर का दीक्षित ने नाम लेकर कहा कि,का  विजय राज बली माथुर से आग्रह है कि तुरंत मंच पर अपना स्थान ग्रहण कर लें। मुझे आखिरकार मंच पर जाना ही पड़ा ,मिश्रा जी ने कहा भई आज तक तो आप कार्यकारिणी मे हैं ही नीचे क्यों बैठ गए थे?मैंने मौन रहना ही मुनासिब समझा।

बोलने के लिए पुकारे जाने पर भी मैंने अति सूक्ष्म भाषण ही दिया। रात्रि  भोजन के बाद वहीं ठहरने का प्रबंध था। गर्मी का मौसम था अतः मै दो एक लोगों के साथ खुली छत  पर ही रहा कमरों मे पंखों की हवा से बाहर की खुली हवा अच्छी थी। देखा-देखी काफी कामरेड्स छत  पर ही आ गए। अगले दिन खुली छत पर ही नहाना हुआ ,कौन कितनी देर तक गुसलखाना खाली होने का इंतजार करे। अधिकांश लोगों ने इसी प्रक्रिया का अनुसरण किया और शायद महिला कामरेड्स ने ही बाथरूम का प्रयोग किया। नाश्ते के बाद सम्मेलन की कारवाई प्रारम्भ हो गई ,बचे हुये लोगों ने अपनी-अपनी बात रखी। मै खुद भी नहीं बोलना चाहता था और शायद मिश्रा जी भी यही चाहते थे कि मै न बोलूँ। मुझे सम्मेलन के मिनिट्स लिखने का दायित्व सौंप दिया गया था।
दिन के भोजन के बाद मिश्रा जी ने नई जिला काउंसिल का पेनल पेश किया जो सर्व-सम्मति से स्वीकार कर लिया गया। इससे मिश्रा जी बिलकुल निश्चिंत हो गए कि वह पुनः निर्विरोध जिला मंत्री बनने जा रहे हैं।

चाय पान के बाद नई जिला काउंसिल की बैठक हुई जिसमे मिश्रा जी ने बतौर ड्रामा कहा कि वह काफी थक गए हैं और पद छोडना चाहते हैं। उन्हें उम्मीद थी कि पूर्व की भांति कामरेड्स उनसे विनती करेंगे कि उनका कोई विकल्प नहीं है(जैसा कामरेड सी राजेश्वर राव की उपस्थिती मे भी  हुआ था) अतः वही जिला मंत्री बने रहें। उनकी आशा के विपरीत किसी ने उनसे ही दूसरा नाम सुझाने का अनुरोध कर दिया। अब तो मिश्रा जी को काटो तो खून नहीं। मजबूरन उन्होने अपने विश्वस्त साथी और आड़ीटर कामरेड जगदीश प्रसाद का नाम ले दिया किन्तु उन्होने तत्काल कह दिया कि वह बलि का बकरा नहीं बनेंगे। मुझसे सम्मेलन मे मिश्रा जी द्वारा नया पेनल पेश करने के दौरान कान मे आकर उनके ज़मीनों के धंधे के साथी कामरेड पूरन खाँ ने कहा था कि पेनल का विरोध न करवाना का ओमप्रकाश पीछे हट गए हैं उनके स्थान पर नेमीचनाद का नाम आ रहा है ,आप समर्थन कर देना। मिश्रा जी के ही दूसरे विश्वस्त का दीवान सिंह ने का नेमीचन्द का नाम प्रस्तावित कर दिया जिसका तालियों की गड़गड़ाहट ने समर्थन कर दिया । अब तो मिश्रा जी की जमीन छिन चुकी थी। उन्होने तत्काल सहायक जिलामंत्री पद हेतु का दीवान सिंह का नाम ले दिया यह कहते हुये कि आपने का नेमीचन्द को जिला मंत्री बनवाया है उन्हें कामयाब बनाना आप ही की ज़िम्मेदारी है अतः आप उनके सहायक जिला मंत्री होंगे। सबने समर्थन कर दिया। मिश्रा जी ने का नेमीचन्द को सुझाव दिया कि एक पदाधिकारी पुराना भी होना चाहिए अतः का माथुर को कोशाध्यक्ष बनाए रखें। ऐसा ही हुआ भी । राज्य-केंद्र के तीनों पर्यवेक्षकों के लिए हस्तक्षेप का प्रश्न ही नहीं था कहीं कोई विरोध हुआ ही नहीं और मिश्रा जी अपनी ही बिछाई बिसात पर मुंह की खा गए।मुझे  मक्खी की तरह मसल डालने और हरा देने के उनके  दावे धरे के धरे रह गए। कटारा का कुसंग उन्हें ले डूबा।सबसे बड़ी बात यह थी कि यह मिश्रा जी के विरोधियों की जीत नहीं थी बल्कि उन्हीं के पारिवारिक हितैषियों ने उनके ही परिवार को बिखरने से बचाने हेतु उन्हें पदच्युत किया था। किन्तु मिश्रा जी अभी भी जागे नहीं थे......... 

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रविवार, 18 दिसंबर 2011

आगरा /1992-93(राजनीतिक विशेष-भाग-3)

गतांक से आगे.....
मिश्रा जी के समर्थकों ने उनके परिवार को कटारा के चंगुल से मुक्त कराने हेतु उन्हे पार्टी के जिला मंत्री पद से हटाने का फैसला कर लिया था और मुझ से कहा था कि मै इसकी भनक मिश्रा जी को न लगने दूँ। उधर राज्य-सम्मेलन के अकाउंट्स मे हेरा-फेरी न हो पाने की दशा मे मिश्रा जी और कटारा साहब मुझसे बुरी तरह खफा थे,वे जानते थे कि जैसे का तैसा विवरण पेश होने पर उन्हें जिला सम्मेलन मे फजीहत का सामना करना पड़ेगा। पहले कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह राज्य-पर्यवेक्षक के रूप मे आने वाले थे ,मिश्रा जी ने एडी-चोटी का ज़ोर लगा कर उन्हे रुकवाया। जिला सम्मेलन से ठीक एक दिन पहले  कामरेड किशन बाबू श्रीवास्तव के माध्यम से मुझे अपने घर पर बुलाया और अंतिम बार पूछा कि मै अकाउंट्स चेंज करूंगा या नहीं। मैंने उनसे कहा सारे दस्तावेज़ शीशे की तरह साफ हैं जो भी एडजस्टमेंट करेगा फँसेगा। वह बोले कामरेड जगदीश आडिट कर रहे हैं वह आपकी गलतिया सब के सामने रख  देंगे और कल सम्मेलन मे आपकी बुरी हार होगी। मैंने मिश्रा जी को जवाब दिया यदि मै हार गया तो मुझे खुशी होगी। मिश्रा जी चौंक पड़े और पूछ कि हारने पर क्यों खुशी होगी। मैंने स्पष्ट किया कि मेरे हारने पर आपकी जीत है और मै आपका एहसानमंद हूँ अतः मुझे अपनी हार और आपकी जीत की खुशी होगी। यदि मै जीता तो आप हारेंगे और आपकी एक प्रतिष्ठा है जिसे आघात पहुंचेगा अतः मै आपकी प्रतिष्ठा गिरने से चिंतित हूँ। मिश्रा जी बोले कि ऐसा है तब आप मेरा कहना मान कर अकाउंट्स क्यों नहीं दोबारा रात भर मे तैयार कर देते?(मुझे मिश्रा जी का यह वक्तव्य भी पता चला था कि उन्होने ऐलान किया था-'हमारी बिल्ली ,हमी से म्याऊँ'-'माथुर को मक्खी की तरह मसल कर फेंक देंगे'। मैंने संदेश वाहक से कहा था कि मक्खी क्यों मै तो उससे भी छोटा 'चींटी' हूँ और मिश्रा जी विशालकाय हाथी मै तो उनके पैरों तले पलक झपकते ही कुचल जाऊंगा। लेकिन मिश्रा जी को ध्यान रखना होगा कि चींटी उनकी सूंड मे न घुसने पाये)। अतः मैंने मिश्रा जी को सुझाव दिया कि वह कटारा को बचाने के लिए नकली अकाउंट्स बनवाने की जिद्द छोड़ कर इसे स्वीकार करते हुये कटारा के विरुद्ध खुद ही एक्शन ले लें उनकी प्रतिष्ठा मे चार चाँद लग जाएँगे। हँसते हुये मिश्रा जी ने कहा कल सम्मेलन मे आप मुंह की खा जाओगे और इतिहास की वस्तु बन जाओगे। .......  

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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

आगरा /1992 -93 (राजनीतिक विशेष -भाग- 2 )

गतांक से आगे....
पूर्व-पश्चिम के कार्यकर्ताओं मे वैभिन्य था और कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह को पश्चिम के कामरेड्स का समर्थन न मिल सका अतः उन्होने कामरेड मित्रसेन यादव का समर्थन किया जिनहे सर्व-सम्मति से राज्य-सचिव चुन लिया गया। आगरा से जो 5 कामरेड्स राज्य-काउंसिल हेतु चुने गए उनमे मिश्रा जी अपने परम-प्रिय कटारा को स्थान न दिला सके। केंद्रीय कंट्रोल कमीशन के चेयरमेन कामरेड काली शंकर शुक्ला जी से व्यक्तिगत सम्बन्धों के आधार पर मिश्रा जी ने कटारा को उत्तर-प्रदेश कंट्रोल कमीशन का सदस्य नामित करवा लिया। कोई कुछ बोल तो न सका परंतु मिश्रा जी ने ऐसा करके अपने सभी हितैषियों को अपने विरुद्ध कर लिया।

राज्य-सम्मेलन समाप्ती के बाद आगरा के जिला सम्मेलन की तैयारी होना था। मिश्रा जी ने मुझ से कहा कि,अपने ज्योतिष से गणना करके जून के महीने मे दो तारीखें बताओ जिससे सम्मेलन शांतिपूर्ण हो जाये ,राज्य सम्मेलन मे तो काफी तनाव रहा। मैंने पत्रा देख कर उन्हे मध्य जून की दो तारीखें बता दी उन्हीं मे उन्होने जिला सम्मेलन करने की घोषणा की। राज्य-सम्मेलन के आय-व्यय का विवरण तैयार होने पर मिश्रा जी भड़क गए क्योंकि लगभग रु 6000/-अधिक (EXCESS ) निकल रहे थे। अकाउंट्स का थोड़ा भी जानकार समझ सकता है कि धन का बच जाना (एक्सेस) क्राईम है जबकि कम पड़ना (शारटेज) होना आम बात है।

मिश्रा जी का भारी दबाव था कि मै अपने अकाउंट्स ज्ञान का प्रयोग करके इस विवरण को इस प्रकार एडजस्ट कर दूँ कि EXCESS न रहे। ईमानदारी और पार्टी के प्रति वफादारी का तकाजा था कि विवरण को जैसे का तैसा रखा जाये और वही मैंने किया भी,चर्चा करने पर मिश्रा जी के सहयोगी और विरोधी सभी मुझसे सहमत थे। इस विवरण को मुद्दा बना कर मिश्रा जी ने मुझे परेशान करने की तिक्ड़मे की तो मैंने उनकी हिदायत की अवहेलना करते हुये राज्य-सम्मेलन के विवरण पर बची रकम को बैंक मे जमा करा दिया उसी अकाउंट मे जिसमे जिले का धन रहता था। अब तो मिश्रा जी एक प्रकार से मेरे शत्रु ही हो गए। कामरेड सरदार रणजीत सिंह काफी पुराने थे और सबके सब हाल जानते थे और उनकी उपेक्षा थी ,मुझसे बोले इस विषय पर पूरी तरह अड़े रहो इस बार मिश्रा एक ईमानदार आदमी से टकरा रहा है उसकी करारी हार हो जाएगी। वह मुझे सुबह 7 बजे मलपुरा ले चलने हेतु मेरे घर पर 6 बजे दयालबाग से आ गए। दोनों अपनी-अपनी साइकिलों से 16 km चले,उनके लिए 72-73 वर्ष की आयु मे इतनी दूर साइकिल से आना-जाना मुश्किल था किन्तु पार्टी-हित मे उन्होने यह कष्ट भी सहा। मलपुरा शाखा पार्टी की सबसे ज्यादा संख्या वाली शाखा थी और पार्टी मे उनका बहुमत भी था। उस शाखा के वरिष्ठ नेताओं से उन्होने संपर्क किया और वस्तु-स्थिति बताई ,सभी ने इस विषय मे मिश्रा जी का विरोध करने और जरूरत पड़ने पर उन्हें जिला सम्मेलन मे हटा देने की बात कही। उन लोगों का कहना था वे सब मिश्रा जी के समर्थक माने जाते हैं इसलिए उनके प्रस्तावों का कामरेड जवाहर सिंह धाकरे विरोध करते हैं अतः उनका भी समर्थन हम लोग प्राप्त कर लें। कामरेड किशन बाबू श्रीवास्तव बाह के थे और वहीं के कटारा साहब भी थे बल्कि वही उन्हें पार्टी मे लाये थे किन्तु उन्होने श्रीवास्तव साहब को उनकी शाखा के मंत्री पद से हटवा दिया था क्योंकि उनकी छवी धाकरे साहब के पिछलग्गू की थी। लिहाजा हम लोगों ने उनसे संपर्क कर के धाकरे साहब से बात करने की जरूरत बताई। डॉ धाकरे तब R.B.S.कालेज के प्रिंसिपल थे उनके कार्यालय मे सरदारजी ,श्रीवास्तव साहब और मै मिले और उन्होने सहर्ष अपना समर्थन दे दिया। कभी भी अपने कालेज -निवास पर मिलने आने की बात भी उन्होने कही जहां ठीक से बात कर सकें।

मिश्रा जी के साथ ज़मीनों का धंधा करने वाले कामरेड पूरन खाँ जो उनके घर मे भी गहरे घुसे हुये थे और उनके सम्पूर्ण परिवार से सहानुभूति रखते थे,मुझसे लगातार कह रहे थे कि मिश्रा जी के परिवार को बचाओ कटारा उनके परिवार को तबाह करना चाहता है और वह कटारा प्रेम मे डूबे हुये हैं। कामरेड दीवान सिंह भी मिश्रा जी के एहसानमंद थे और वह भी उनके परिवार को कटारा से बचाना चाहते थे। मिश्रा जी के साथ जूते की फेकटरी खोलने वाले कामरेड नेमीचन्द भी उनके खैरख्वाह थे और भलीभाँति जानते थे कि उस फेकटरी को फेल करने मे कटारा और उनके बेटे का पूरा-पूरा हाथ था। इन लोगों का कहना था कि कटारा ने किसी तांत्रिक प्रक्रिया से मिश्रा जी को वशीभूत कर लिया है,पार्टी तो सम्हाल ली जाएगी और मिश्रा जी के बगैर भी चलती रहेगी किन्तु उनका परिवार बुरी तरह बिखर जाएगा। लिहाजा कटारा को काबू करने के लिए मिश्रा जी को हटाना जरूरी हो गया था। मलपुरा के कामरेड्स को भी मिश्रा जी से व्यक्तिगत सहानुभूति थी और वे भी कटारा से मुक्ति की मुहिम मे मिश्रा जी को पदच्युत करने के हामी थे। ...... 

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बुधवार, 14 दिसंबर 2011

आगरा /1992 -93 ( विशेष राजनीतिक भाग- 1 )

1992 मे भाकपा की 15 वी राज्य कांग्रेस आगरा मे करने का निर्णय लिया गया और इच्छा न होते हुये भी कामरेड रमेश मिश्रा जी ने राज्य सचिव कामरेड जगदीश नारायण त्रिपाठी जी का प्रस्ताव/निर्देश मान लिया। मिश्रा जी चूंकि अब तक रमेश कटारा साहब के पूरे प्रभाव मे आ चुके थे अतः उन्हे ही तैयारी हेतु इंचार्ज के रूप मे रखा। मै सतर्क था अतः मैंने मिश्रा जी से अनुरोध किया कि राज्य-सम्मेलन हेतु एक अलग बैंक अकाउंट खुलवा लें जिसे उन्होने अस्वीकार कर कर दिया। अतः मैंने राज्य-सम्मेलन से संबन्धित आय-व्यय के रजिस्टर मे रुपए जमा करने वालों के भी हस्ताक्षर लेने का कालम बना लिया। कटारा साहब ने जिनके जरिये मिश्रा जी रुपए जमा करवाते थे इस बात का ऐतराज किया ,उनका दृष्टिकोण था जब खर्च के लिए रुपए निकालेंगे तब हस्ताक्षर करेंगे ,जमा करने वाला क्यों करे?अंततः मिश्रा जी के कहने पर उन्हें मानना पड़ा।

हम लोगों पर भी मिश्रा जी ने दायित्व डाला था कि सम्मेलन हेतु धन-संग्रह मे सहयोग करें। मुझे मांगने की आदत थी ही नहीं परंतु पार्टी का कार्य था तो फर्ज भी निबाहना ही था। हींग की मंडी के सेठ जी और उनके परिचितों से जिक्र किया तो रु 50/-50/-उन लोगों ने चन्दा दे दिया। भाजपाई होते हुये भी उन लोगों को पहली बार  भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की रसीद पर चन्दा देना पड़ा। चूंकि मिश्रा जी पार्सल बाबू शरद मोहन को अपने मकान मे किराये पर रख  चुके थे उन्हें जानते थे उनके माध्यम से मुझे चन्दा संग्रह करने का उन्होने सुझाव दिया। शरद मोहन से मैंने मिश्रा जी की बात बताई तो वह सहर्ष मदद करने को तैयार थे। रसीद बुक उन्हें थमा दी ,उन्होने अपने पार्सल दफ्तर मे बैठे-बैठे व्यापारियों से धन संग्रह करके मुझे कुछ दिनों बाद सौंप दिया और मैंने मिश्रा जी को । धन लेते और देते समय दोनों बार मै संबन्धित कामरेड के हस्ताक्षर रजिस्टर पर लेता था अतः मिश्रा जी को भी इसी प्रक्रिया से दिया।

जैसे-जैसे सम्मेलन की तारीखें नजदीक आ रही थीं कटारा साहब और बाकी कामरेड्स के बीच दूरियाँ बढ़ती जा रही थीं। इसी कारण मिश्रा जी ने त्रिपाठी जी से विशेष अनुमति मांग ली कि वह आगरा का जिला सम्मेलन ,राज्य -सम्मेलन के बाद करवाएँगे। मिश्रा जी कटारा साहब को राज्य-कार्यकारिणी समिति मे रखवाने के इच्छुक थे लेकिन आगरा मे पुराने और वरिष्ठ कामरेड्स कटरा साहब को राज्य हेतु प्रतिनिधि तक नहीं बनने देना चाहते थे। मिश्रा जी के पुराने सभी शिष्य जिनहोने अतीत मे उनके गलत-सही सभी निर्णयों मे उनके कंधे से कंधा मिला कर साथ दिया था कटारा साहब के मुद्दे पर उनके विरुद्ध लामबंद थे। कोशाध्यक्ष के पद पर होने के कारण मुझ से सभी का संपर्क था। उन सब ने मुझ से कहा कि,माथुर साहब आपकी ईमानदारी निसंदिग्ध है और इसी लिए चौहान साहब ने आपको अपना उत्तराधिकारी चुना है अतः मिश्रा जी से मधुर सम्बन्धों के बावजूद आपको अपना नैतिक दायित्व भी निबाहना है। उन लोगों का तर्क था कि यह पार्टी का कार्यक्रम है ,मिश्रा जी के परिवार का नहीं,कटारा अनाप-शनाप पानी की तरह धन बहा रहा है और कार्यक्रम के बाद मिश्रा जी आप पर दबाव डाल सकते हैं आप डटे रहेंगे तो हम सब आपके पीछे रहेंगे।

01 से 04 मार्च तक राज्य सम्मेलन 'माथुर-वैश्य सभा भवन',पंचकुयिया ,आगरा मे सम्पन्न हुआ। मिश्रा जी ने मुझे सब से अलग-थलग रखने की रण-नीति के तहत आने वाले डेलीगेट्स के वापसी टिकटों का इंतजाम करने का दायित्व सौंपा और इसमे भी पार्सल बाबू शरद मोहन ने अपने तरीके से मदद दिलवा दी। कामरेड चतुरानन मिश्रा जी ने सिर्फ अपना IC नंबर दिया था और उनके लिए 'ताज एक्स्प्रेस' से दिल्ली का रिज़र्वेशन कराना था। काउंटर क्लर्क ने उनका रिज़र्वेशन करके कोच एवं सीट नंबर बता दिया जिसे मैंने उन्हें सूचित कर दिया।

कटारा साहब के चक्कर मे कभी मिश्रा जी का कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह से कोई मन-मुटाव हुआ होगा और वह अक्सर उन्हें कोसते रहते थे। त्रिपाठी जी पद छोडना चाहते थे और आर बी सिंह जी इस पद के दावेदार माने जा रहे थे। अतः मिश्रा जी उनके विरुद्ध लाबीइंग करते रहते थे। मिश्रा जी ने उन्हें बुरा-भला कहने की कवायद मे एक बार यह भी कहा था कि वह आगरा के जिला मंत्री हैं तो भी सिंह साहब उन्हें महत्व नहीं देते जबकि 'बाराबंकी का गधा' भी आ जाएगा तो वह उसे महत्व देते हैं। बात यह थी कि बाराबंकी के पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ सिंह साहब ने त्रिपाठी  जी की बैठक रखी थी जो बंद दरवाजे के भीतर हो रही थी। मिश्रा जी त्रिपाठी जी को अपना आदमी मानते थे अतः दरवाजा खोल कर घुस गए और रामचन्द्र बक्श  सिंह साहब ने उन्हें बाहर जाने को कह दिया। यह बात मिश्रा जी ने गांठ बांध कर रख ली थी।


कार्यक्रम के तीसरे दिन सिंह साहब को कोई पुस्तिका सम्मेलन मे बंटवानी थी वह प्रेस मे हुई त्रुटियों को सुधार रहे थे उन्हें कागज काटने हेतु ब्लेड अथवा चाकू की आवश्यकता थी और तलाश मे थे। मैंने हलवाई से एक नया चाकू ला कर उन्हें दे दिया जिससे उन्होने कागजों को अलग-अलग कर लिया। इसी दौरान उन्होने मुझसे मेरा परिचय पूंछा क्योंकि उन्हें ताज्जुब था कि आगरा मे कोई कामरेड उन्हें क्यों सहयोग कर रहा है जबकि बाकी मिश्रा जी के भय से उनसे दूरी बनाए हुये हैं। पार्टी पद का उल्लेख करते हुये मैंने उन्हें बताया कि मै तो बहौत छोटा कार्यकर्ता हूँ। मैंने उनसे पूंछा कि क्या आप राय धर्म राज बली माथुर और राय जगदीश राज बली माथुर को जानते हैं?उनका जवाब था बेहद अच्छी तरह से और पूंछा तुम्हारा उनसे क्या संबंध है?मैंने स्पष्ट किया कि धर्म राज बली साहब मेरे बाबूजी के चाचा होने के कारण बाबाजी और जगदीश जी बाबूजी के बड़े भाई होने के कारण ताऊ जी होते हैं। कामरेड राम चंद्र बख्श सिंह जी यह परिचय जान कर बेहद खुश हुये और बोले तभी तुमने मेरी मदद कर दी,यहाँ आगरा के लोग तो बड़े रूखे होते हैं । तुम तो हमारे बाराबंकी के हो पहले क्यों नहीं मिले। मैंने कहा आप राज्य के बड़े नेता हैं और मै मामूली कार्यकर्ता। उनका जवाब था हमारे बाराबंकी के हो यह क्या कम था। उन्होने आश्वासन दिया पार्टी मे जब कभी तुम्हें मेरी जरूरत हो बेझिझक कहना पूरी मदद करूंगा। ........ 

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शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

आगरा/1992 -93 (भाग-3 )/दरियाबाद यात्रा

......जारी

हालांकि एक वर्ष पूर्व ही सब तब मिले थे जब मै ताऊ जी के निधन के बाद दरियाबाद आया था परंतु ऋषिराज ने अब फिर नहीं पहचाना था। याद दिलाने पर समझे। हम 2-2 दिन मथुरा नगर और रायपुर रुकने के हिसाब से गए थे। लेकिन ऋषि और उमेश ने बताया कि रायपुर मे जो कोई भी महिला रात को रुकती है वह पागल हो जाती है ऐसा उन लोगों ने कुछ कर रखा है। उदाहरण उन्होने छोटी ताईजी और रेखा जीजी का दिया और यह भी बताया कि सुरेश भाई साहब की एक साली भी जो रात मे रुकी पागल हो गई। लिहाजा हमने वहाँ न रुकने का निर्णय लिया और मात्र एक दिन मिलने जाने का तय किया। सुरेश भाई साहब(08 दिसंबर की रात्रि मे दिल्ली मे जिंनका निधन हो गया हैऔर यह सूचना उनके परिवार के जरिये नाही अन्यत्र से मिली है ) सुबह  आए और स्टेशन पर एक मिठाई की दुकान मे बैठ कर संदेश उनके साथ चलने का भिजवा दिया। मथुरा नगर मे ऋषि और उमेश ही थे अतः खाना-नाश्ता शालिनी ने ही अपने रहने तक बनाया। नाश्ता करके हम लोग स्टेशन पहुंचे और सुरेश भाई साहब ने एक खड़खड़िया के माध्यम से हम लोगों को रायपुर चलने को कहा। शालिनी और यशवन्त के लिए ऐसी गाड़ी पर बैठने का यह पहला अवसर था।

पहुँचते-पहुँचते शायद एक बज गया था और भाभी जी ने सीधे खाना परोसा । रोटियाँ बेहद बड़ी और भारी थीं -यह भी उन दोनों के लिए ताज्जुब की बात थी । यशवन्त ने तो आधी रोटी ही खाई। शालिनी भी एक से ज्यादा न खा सकीं और मै दो से ज्यादा न ले सका। 1964 के बाद रायपुर मे खाने का यह मेरे लिए भी पहला अवसर था । तब तो बाबा जी भी वहाँ थे और ताईजी भी थीं। विपिन वहाँ मिले थे। वह गेरुए लिबास मे अलग कुटिया बना कर रहते थे। डॉ प्रताप नारायण माथुर और उनकी पत्नी ऊषा (जो रिश्ते मे हम लोगों की भतीजी थीं)बाराबंकी से लौटते मे वहाँ आए थे,वैसे एक दिन पूर्व जब रेल से वे जा रहे थे तो स्टेशन पर ऋषिराज ने उनसे मुलाक़ात करवा दी थी। भाभी जी से भी उनका कोई अलग रिश्ता था। शाम की चाय उनके साथ साथ ही हुई।

उन लोगों के जाते ही हम भी मथुरा नगर जाना चाहते थे। परंतु भाई साहब भाभी जी एक दिन रुकने पर ज़ोर दे रहे थे ,हम रुकना नहीं चाहते थे। शाम को अंधेरा होते ही यशवन्त जो तब साढ़े आठ वर्ष का ही था जिद्द पर अड़ गया कि यहाँ नहीं रहेंगे ऋषि चाचा के घर चलिये। जब उसने रोना शुरू कर दिया तो भाई साहब भाभी जी बोले बच्चे को रुला कर जबर्दस्ती नहीं रोकेंगे। इतनी देर बाद वहाँ से कोई वाहन भी नहीं मिल रहा था। एक ड्राइंग मास्टर साहब शायद रामसनेही घाट होकर लौट रहे थे ,सुरेश भाई साहब ने उनसे साइकिल मांग ली और बोले अब कल मिलेगी। डंडे पर यशवन्त को और कैरियर पर शालिनी को बैठा कर हम रायपुर से मथुरा नगर चले। स्टेशन पर हलवाइयों की दुकानों पर ऋषि डेरा जमाते थे तब वह वहाँ के ग्राम प्रधान थे। उन्होने हमे साइकिल पर बैठ कर जाते देखा तो आवाज दी होगी जो हमने नहीं सुनी। घर पर फिर ताला!लेकिन हाँफते-कांपते ऋषिराज तुरंत पैदल लपकते हुये पहुँच गए। उन्होने यशवन्त की खूब सराहना की कि,उसने रो कर वहाँ नहीं ठहरने दिया यह अच्छा किया।

रात मे एक भैंस और उसकी पड़िया मे भिड़ंत हो गई होगी तो उमेश उन दोनों को अलग कराने मे लगे होंगे। उमेश तब डेरी खोलने के चक्कर मे कई भैंसें पाले हुये थे उनमे और ऋषि मे संबंध मधुर न होने के कारण वह अकेले ही जूझ रहे थे। शालिनी ने मुझे जगा कर उमेश की मदद करने को कहा। मै गया तो लेकिन उमेश ने कहा जानवर आपको नहीं पहचानते हैं इसलिए आप उनके नजदीक न आयें। जब उन दोनों को अलग-अलग बांध कर उमेश लौटे तब ही हम फिर दोबारा सोये। मई के महीने मे वहाँ छत  पर ठंड पिछली  रात मे लग रही थी अतः इस दिन नीचे कमरे मे सोये थे ।

अगले दिन सुबह हम साइकिल रायपुर पहुंचा आए उसके बाद  ऋषि हम लोगों को लेकर लखनऊ माधुरी जीजी के घर राजाजी पुरम आए। चलते समय ऋषि ने पूछा और मेरे मना करने के बावजूद शालिनी ने चने ले चलना कबूल कर लिया तो एक झोले मे जितने आ सके उन्होने भर दिये और शालिनी ने सील कर पैक कर लिया।  जैसे पिछले वर्ष नरेश ने अपने साथ मेरा भी टिकट लिया था इस बार हम लोगों का ढाई टिकट भी ऋषि ने लिया। आगरा से हम दरियाबाद आए थे तो वहाँ से लखनऊ भी खुद ही आ सकते थे किन्तु वे लोग अपनी अमीरी प्रदर्शित करने हेतु हमारा टिकट भी ले देते थे।

माधुरी जीजी मुझसे दस वर्ष बड़ी हैं और बचपन मे भी अपनी माँ की फटकार खाकर भी अपनी बहन बीना (जो मुझसे मात्र छै माह छोटी हैं)को न लेकर मुझे लेकर खेलने निकल जाती थीं,ऐसा सुना है। जीजाजी के निधन हो जाने के कारण जीजी सचिवालय मे कार्य (एवजी की नौकरी मे)कर रही थीं और तब तक अधिकारी हो गई थीं। जब कभी कम्यूनिस्ट पार्टी की रैली मे लखनऊ आते थे तो रैली के बाद उनके घर मिल कर ही स्टेशन पहुँच कर  रात की अवध एक्स्प्रेस से साथियों के साथ लौटते थे। वह इन लोगों को लाने को कहती रहती थीं दो दिन उनके घर रुकने का कार्यक्रम था किन्तु दरियाबाद मे कम रुकने की वजह से उनके यहाँ अधिक रुक गए। लौटने का रिज़र्वेशन गंगा -जमुना एक्स्प्रेस से आगरा सिटी का कराया था अतः वहाँ रुकते हुये गए।

ताउजी और ताईजी दोनों का निधन हो जाने के कारण उनके द्वारा ऋषि की शादी तोड़ कर उनके महेंद्र जीजा जी(मीरा जीजी के पति) ने दूसरी जगह तय करा दी थी, माधुरी जीजी ने उसमे शामिल जरूर होने का आग्रह किया । हमने शामिल होने की हामी कर दी..........

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मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

आगरा/1992 -93 (भाग-2 )

1992 मे ही पहले भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की राज्य काउंसिल हेतु 15 वी कांग्रेस मे चुनाव हुआ। अपने जिला मंत्री मिश्रा जी के कहने पर मैंने पार्सल बाबू शरद मोहन से चन्दा जमा करने और डेलीगेट्स के वापसी टिकट लेने मे सहयोग को कहा जो मिश्रा जी के नाम पर उन्होने सहर्ष दिया। हालांकि यह ताज्जुब वाली बात थी जो व्यक्ति अपनी बहन से मिलने नहीं आता और जिसे अपनी पत्नी के इलाज के लिए वक्त नहीं मिलता और जिन मिश्रा जी ने कथित रूप से गालियों की बौछार करके उन लोगों को अपने किरायेदार के रूप मे हटाया था उन्हीं मिश्रा जी पर इतनी मेहरबानी क्यों?

सम्मेलन और फिर अपने जिला सम्मेलन का विवरण अलग से 'विशेष राजनीतिक' गतिविधियों के अंतर्गत दे रहे हैं जो कुछ अंतराल के बाद  क्रमवार प्रकाशित होता रहेगा। जिला सम्मेलन से पूर्व हम लोग दरियाबाद भी गए थे जैसा कि बड़ी ताईजी से  तब वायदा किया था जब बड़े ताउजी के निधन के बाद मै वहाँ गया था। हालांकि उसके 06 माह बाद ताईजी का भी निधन हो गया था। रिज़र्वेशन गंगा-जमुना से आगरा सिटी से दरियाबाद का कराया था। गाड़ी रात को जाती थी लेकिन हम लोग मय सामान के शाम को ही शरद मोहन के क्वार्टर पर आ गए थे। खाना घर से ही खा कर चले थे परंतु शालिनी ने अपनी माता के कहने पर थोड़ा कुछ खा लिया था,यशवन्त ने भी चखा होगा ,मैंने तो सिर्फ चाय ही ली। गाड़ी आने से पहले शरद साहब ने किसी को भेज कर सामान उठाने मे मदद की थी वह स्टेशन पर ड्यूटी मे थे। अगले दिन हमने गाड़ी को लखनऊ स्टेशन पर छोड़ दिया क्योंकि उस दिन गाड़ी को सुल्तानपुर होकर जाना था।  'देहरा एक्स्प्रेस' पकड़ कर हम लोग दरियाबाद पहुंचे। स्टेशन से मथुरा नगर के घर पहुँच कर घोर ताज्जुब हुआ जब 'ताला' लगा देखा। बारामदे मे पड़े तख्त पर बैठ गए। मै डाक से वहाँ  पहुँचने का पत्र ऋषिराज के नाम भेज चुका था। शालिनी का व्यंग्य था कि,क्या आपके घर की रस्म  है बहुओं का स्वागत  घर पहुँचने पर  'ताला बंद ' करके चले जाने से होता है? मैंने थोड़ी देर इन्तजार करने के बाद भी किसी के न आने पर 'रायपुर' सुरेश भाई साहब के घर जाने का निश्चय करा।

कुछ देर मे ऋषिराज आ गए ,वहाँ तब ऋषिराज और उमेश रहते थे तथा नरेश लखनऊ मे माधुरी जीजी के पास राजाजीपुरम मे।

क्रमशः...... 

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शनिवार, 3 दिसंबर 2011

आगरा/1992 -93 (भाग-1)


सेठ जी के मित्र और 'शू चैंबर' के प्रेसीडेंट शंकर लाल मुरजानी साहब अक्सर उनकी दुकान मे आकर सो जाते थे। वह रश्मि एन्क्लेव,कमला नगर मे रहते थे। एक दिन मुझ से बोले माथुर साहब क्या बात है बेहद कमजोर हो गए हो। मैंने कहा साहब जीवन  चलाने हेतु कमजोर होना जरूरी है,तो फिर वह बोले और कमजोर कर दें?मैंने कहा यदि आप उचित समझते हैं तो कर दें। उन्होने कहा कल सुबह मुझे घर पर मिलो। जब अगले दिन मै उनके घर गया तो उन्होने कहा तुम्हारा सेठ बड़ा मतलबी है जब फँसता है मेरे पास आता है,मैंने उससे कहा था कि,माथुर साहब को पूछो मेरे यहाँ पार्ट-टाईम करेंगे? एक साल हो गया कहता है पूछने का टाईम नहीं मिला। इसलिए मैंने तुमसे सीधे बात की। मेरे घर पर आकर डेढ़ घंटा गर्मियों मे 7-30 से 9 और जाड़ों मे 9 से 10-30 सुबह सेल्स टैक्स-इन्कम टैक्स का काम कर देना शुरू मे रु 600/- दूंगा। घर के नजदीक होने तथा उनके व्यापारी नेता होने के कारण उनसे व्यवहार रखना घाटे का सौदा नहीं था,मैंने स्वीकार कर लिया। वह 'शू फेक्टर्स फ़ेडेरेशन ' के वाईस प्रेसिडेंट थे और राज कुमार सामा जी प्रेसिडेंट जो भाजपा के बड़े नेता थे। हालांकि वह जानते थे कि मै भाकपा मे सक्रिय हूँ फिर भी उन्हे स्पष्ट कर दिया। वह बोले हमारा -तुम्हारा संपर्क सिर्फ जाब तक है हम अपनी राजनीति मे तुम्हें नहीं शामिल करेंगे और न तुम्हारी राजनीति मे दखल देंगे।

पता नहीं क्यों सेठ जी उनके घर मेरे काम स्वीकारने से खुश नहीं थे?वह खिचे-खिचे रहने लगे। मुझे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था लेकिन मै और सतर्क हो गया। इससे पूर्व वह खुद मुझे तीन अलग-अलग पार्ट-टाईम जाब दिला चुके थे परंतु उन्हें अपने मित्र के यहाँ मेरा जाब करना अखर गया था। मैंने अपने भाकपा ,जिला मंत्री मिश्रा जी से भी चर्चा की थी। उन्होने बताया कि ये जूता व्यापारी भाजपा के होते हुये भी कम्यूनिस्ट पार्टी से दबते हैं क्योंकि तमाम लोग 'सोवियत यूनियन' को जूता सप्लाई करते हैं। रूस से पेमेंट मिलना निश्चित रहता है। कभी कोई दिक्कत होती है तो पार्टी के बड़े नेताओं से संपर्क साधते हैं। इसी लिए आपका कम्यूनिस्ट होना उन्हे नागवार नहीं लगता है,और वह सेठ भी आपको अपनी तरफ से हटाने की पहल नहीं करेगा।

जब रमेशकान्त लवानिया मेयर थे तब मिश्रा जी ने अपने घर के आस-पास सीवर की समस्या को उनके दफ्तर मे जाकर बताया तो उन्होने कहा था -अरे मिश्रा जी आपने आने की तकलीफ बेकार की फोन कर देते तब भी काम हो जाता। जो काम भाजपा का क्षेत्रीय पार्षद न करा सका वह भाकपा के जिलामंत्री की पहल पर चुटकियों मे हो गया। इस उदाहरण से मिश्रा जी ने मुझे समझाया था कि ये व्यापारी बड़े डरपोक होते हैं जब तक उनकी नब्ज आपकी पकड़ मे है वे आपको हटा नहीं सकते।

राजनीति और आजीविका के क्षेत्र मे सभी कुछ बदस्तूर चलता रहा। सिर्फ घरेलू क्षेत्र मे शालिनी का अपनी भाभी संगीता के प्रति बदला हुआ व्यवहार आश्चर्यजनक रहा। इस वर्ष की गर्मियों मे भी उनकी माँ जब 7-8 रोज के लिए बाहर गई तो शालिनी जल्दी-जल्दी सिटी के क्वार्टर पर जाती थीं। चूंकि तब तक स्कूल बंद नहीं हुये थे और उनकी माँ जल्दी गई थीं। यशवन्त को स्कूल छोडते हये मै शंकर लाल जी के घर चला जाता था। उनके घर से लौटने पर शालिनी साईकिल पर मेरे साथ सिटी क्वार्टर की परिक्रमा करके उसकी छुट्टी से पहले लौट आती थीं। वहाँ दिन भर रुकने की बजाए दो ढाई घंटे मे लौट लेना होता था। मै सेठ जी के यहाँ 6 घंटों की बजाए सिर्फ 3 घंटे काम तब कर पाता था ,खैर वह कहते कुछ नहीं थे। इसी क्रम मे एक बार शालिनी ने संगीता को कुछ इशारा किया और उन्होने मुस्करा कर जवाब दिया हाँ वायदा याद है आप बताइये किस गाने पर डांस करना है। शालिनी ने उन्हें कान मे कुछ कहा और उन्होने कहा ठीक है मौन डांस ही करेंगे गाएँगे नहीं। मै नहीं कह सकता कि कोई गाना भी था या नहीं। डांस मेरे समझ से परे था। मै तो सिर्फ इतना ही समझ सका कि डांस के नाम पर वह शरीर को मटकाना भर था। ऐसी हरकत ने केवल संगीता के शरीर मे उत्तेजना ही व्याप्त की और पूर्व की भांति जब स्वतः वस्त्र न खुले तो संगीता ने भाव-प्रदर्शन के सहारे उन्हे खोला ,नारा ढीला करने के नाम पर नीचे के वस्त्र हटाने से साफ हो गया कि बार-बार एक ही प्रक्रिया का दोहराया जाना किसी खास मकसद की छोटी कड़ी है। डी एस पी इंटेलीजेंस (जो मुगल होटल मे सेक्यूरिटी आफ़ीसर थे जब मैंने 1975 मे ज्वाईन किया था) के साथ बैठकें-चर्चाए व्यर्थ नहीं थीं उनसे कुछ न कुछ सीखा ही था। अच्छी या बुरी किसी प्रकार की प्रतिक्रिया मैंने कभी भी न दी। मैंने घर पर शालिनी से पूछना भी बंद कर दिया कि ऐसा करने का कारण क्या?

1990-91  मे आडवाणी की रथ-यात्रा और रामजन्म भूमि आंदोलन  द्वारा होने वाले अनिष्ट से जनता को आगाह करने हेतु यू पी मे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ने तब की सातों कमिशनरियों के मुख्यालयों पर 'सांप्रदायिकता विरोधी रैली ' के आयोजन का फैसला किया था ।  मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने सभी जिलों मे रैली करने का प्रस्ताव किया ,उसी क्रम मे मथुरा मे भी एक रैली हुई थी। मै अपने भाकपा साथियों के साथ ट्रेन से मथुरा गया था। शालिनी का कहना था कि उनकी छोटी बहन सीमा के घर भी हाल-चाल लेता आऊ;  क्योंकि योगेन्द्र चंद्र का क्वार्टर मथुरा जंक्शन पर ही था मैंने साथियों से सीधे रैली स्थल पर मिलने का वादा करके प्लेटफार्म से ही क्वार्टर का रास्ता पकड़ा। तभी थोड़ी देर पहले योगेन्द्र दिल्ली की गाड़ी पकड़ने हेतु गए होंगे और सीमा ने समझा था कि उनकी गाड़ी छूट गई होगी जिससे वह घर लौट आए होंगे । उन लोगों को मेरे पहुँचने की सूचना नहीं थी। सीमा ने दरवाजे खोले तो अस्त-व्यस्त और पुराने-फटे कपड़ों मे थी ,सफाई करते -करते बेल बजने पर यह सोच कर दरवाजा खोला था कि योगेन्द्र ही उल्टे -पैरों लौटे होंगे। उस दशा मे पहले कभी सीमा को नहीं देखा था। सीमा ने सोफ़े पर बैठाने के बाद अपनी बेटी (जो जब 6-7 वर्ष की रही होगी )से पानी भिजवा दिया और खुद कपड़े बदलने के बाद ही आई। यह अंतर था शरद मोहन और उनकी पत्नी संगीता के चरित्र और शरद की छोटी बहन सीमा के चरित्र का ,गफलत की बात और थी जो सीमा ने दरवाजा खोला था तब की दशा मे और फिर बैठ कर बात-चीत करते समय की दशा मे। मुझे ताज्जुब भी था कि आवारा माँ, भाइयों,भाभी का असर सीमा पर भी अपनी और  बहनों की ही तरह  बिलकुल नहीं पड़ा था।बेटियाँ  अपनी माँ के चरित्र से प्रभावित नहीं थीं जबकि बेटे माँ के चरित्र से प्रभावित थे। कमलेश बाबू के जिगरी दोस्त और भतीज दामाद कुक्कू(जिनकी बेटी की नन्द कमलेश बाबू की छोटी बेटी की देवरानी है) तो अश्लील पुस्तकें ला कर बिस्तर के नीचे छिपा कर रखते थे ताकि उनकी बहनें भी पढे और प्रभावित हों परंतु उनकी बहनें अपने आवारा भाई से प्रभावित नहीं हुई। यह एक अच्छी बात रही।

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बुधवार, 30 नवंबर 2011

आगरा/1990-91(भाग-10)

काफी दिनों बाद एक बार फिर शालिनी वहाँ सुबह गई क्योंकि फिर स्कूल खुलने वाले थे। लौटते मे मुझे बुलाने जाना ही था,सुबह सीधे ड्यूटी चला गया था। चाय के बाद आँगन मे बैठना हुआ क्योंकि दिन बड़े थे उजाला था अतः लौटने मे थोड़ी देर होने पर भी दिक्कत न थी। शालिनी की माता थी परंतु वह बच्चों के साथ टी वी ही देखती थी। संगीता ने बताया कि उन्हे नेटरम मूर से तीन दिनों मे ही लाभ हो गया था परंतु मेरे बताने के मुताबिक 10 दिनो तक खा और लगा ली थी। वह बची हुई दवा मुझे देना चाहती थी। मैंने कहा कि सम्हाल कर रखे किसी को भी किसी कीड़े-मकोड़े के काटने पर देने के साथ-साथ यह लू -sunstrok की भी अचूक दवा है। खैर फिर नेटरम मुर्यार्टिकम अपने पास ही रखी,दवा की कीमत तो तुरंत भुगतान कर चुकी थी। चूंकि संगीता ने ही फिर पुरानी बात उठाई थी तो शालिनी ने भी बिना चूके कह दिया कि इन्हें दवा आपसे  लगवाने मे आनंद आया और आपने फिर दोबारा आकर लगाई ही नहीं। संगीता क्यों चूकती फटाफट कह दिया आप भेजती तभी तो आते। काफी पुरानी बात जो ध्यान से भी हट चुकी थी संगीता ने याद दिलाते हुये कहा कि जब कविता ने ऊपर से ही इंनका हाथ मेरे सीने पर फिरवा दिया था तो आपने कविता से एतराज किया था अब खुद आपने ही फिरवा दिया फिर रोक दिया होगा। शालिनी ने कहा न रोका न भेजा ,आप चाहती थी तो भेजने को कहा होता।

कविता ,संगीता की बड़ी बहन थी और अपने पति राकेश के साथ सिटी के क्वार्टर पर आई थी तब हम लोग वहाँ पहले से मौजूद थे। राकेश को कोई काम होगा वह अपना हाथ मुझे दिखा कर चाय पीने के बाद चले गए थे। बाद मे कविता ने भी अपना हाथ दिखाया था और संगीता को भी हाथ दिखवाने को कहा था। आम तौर पर मै किसी का भी हाथ दूर से ही देखता हूँ। परंतु कविता ने अपने हाथ की कुछ लकीरों के बारे मे पूछते हुये मेरा हाथ जबर्दस्ती अपने हाथ पर रख कर बताया था और इस क्रम मे खुद ही मेरे हाथ को इस प्रकार घुमाया कि उनके सीने को छू गया तब संगीता ठठा कर हंस दी थी । इस हंसी के बदले मे ही कविता ने मेरा हाथ तुरंत संगीता के सीने पर फिरा दिया था ,उसी का जिक्र अब संगीता ने किया था।

कविता के दो पुत्रियाँ थी और वह बेटा चाहती थी ,मेरे यह कहने पर कि योग है तो बोली थी कि फिर प्रयास करेंगे और इसी बात की खुशी मे मेरा हाथ अपने सीने तक ले गई थी और संगीता के हंसने पर उसके सीने पर फिरा दिया था। शालिनी ने तब संगीता पर हाथ फिराने का कविता से विरोध किया था। बाद मे कविता के पुत्र भी उत्पन्न हुआ। कविता के एक जेठ विश्वपति माथुर आगरा मे ही ट्रांस यमुना कालोनी मे रहते थे। उनसे भी परिचय इनही लोगों के माध्यम से हुआ था। वह हाईडिल मे जूनियर इंजीनियर थे और उनका स्वभाव बेहद अच्छा था। वह हर एक की मदद करने को हमेशा तत्पर रहते थे। उनसे हमारा मेल हो गया था और हम उनके घर भी चले जाते थे। एक बार कविता उनके घर आई हुई थी ,राकेश नहीं आए थे। संगीता ने मुझे उनके घर जाकर कविता को संगीता के सिटी के क्वार्टर पर लाने को शालिनी से कहा था। वी पी माथुर साहब के घर जाने मे एतराज था ही नहीं। किसी कारण से कविता उस दिन नहीं आई लेकिन उनके सामने ही विश्वपति जी ने उनकी शादी का एक किस्सा सुनाया। उन्होने बताया था कि,राकेश की शादी मे उन्होने अपने एक-दो साथियों के साथ मिल कर मजाक करने की योजना बनाई थी और एन फेरों से पहले राकेश से कहला दिया था कि कलर्ड टी वी मिलने पर ही फेरे हो सकेंगे। वे लोग एकदम परेशान हो गए ,और हैरान भी क्योंकि माथुर कायस्थों मे दहेज का रिवाज-चलन है ही नहीं। कविता के घर के लोग समझा कर हार गए तो कविता के भाई बोले बारात लौटा दो। तब संगीता मैदान मे आई और विश्वपति जी तथा अपने होने वाले जीजा राकेश से सीधे बात करने पहुँच गई कि उनकी मांग संभव नहीं भाई साहब नाराज हैं और बारात लौटाने को कह रहे हैं। विश्वपति जी ने संगीता से कहा कि तुम आ गई हो तो बिना टी वी के शादी करवा देंगे वरना बारात लौटा ही ले जाते। उन्होने संगीता से डांस करने की शर्त रखी । संगीता ने फेरे पड़ने के बाद डांस दिखाना कबूल किया और सच मे वादा पूरा भी किया। विश्वपतिजी ने कहा कि संगीता ने कविता की शादी करा दी। कविता ने हंस कर उनकी बात का समर्थन कर दिया।

शालिनी को यह बात घर आकर बताई थी जो उन्हे याद भी थी। अपनी आदत पुरानी बातो  को याद कर समय पर दोहराने की न होने पर भी पता नहीं कैसे शालिनी ने कहा कि विश्वपति भाई साहब ने कविता की शादी की जो कहानी सुनाई थी वह भी जरा इन्हे सुना दीजिये। मैंने कहा खुद ही बता दो तो बोली आपने सीधे उनसे सुना है ज्यादा ठीक से बता सकते हैं इसलिए इसे आप ही बताएं। संगीता भी मुस्कराते हुये बोली हाँ क्या कहानी थी आप ही बता दीजिये। मैंने पूरा विवरण सुना दिया तो हँसते-हँसते ,लॉट-पोट होते हुये संगीता ने कहा क्या बुरा काम किया ,मजाक ही सही मम्मी और भाई साहब तो उस वक्त बहौत परेशान थे ,चुटकियों मे हल तो निकाल लिया। शालिनी ने पहले कभी टूंडला मे होली की रंग-पाशी पर संगीता द्वारा श्वसुर और जेठ के समक्ष किए गए 'मै तो नाचूँगी,मै तो नाचूँगी' गाना गाते हुये डांस का जिक्र भी सुना दिया और कहा आपको डांस वगैरह पसंद नहीं है ,नहीं तो कभी देखते। संगीता बोली पसंद न हो तो भी मै डांस दिखा दूँगी,जब कभी मम्मी जी अगली बार कहीं जाएँ तो आप (शालिनी से) इशारा कर दीजिएगा।

मुझे उस समय यह सब बड़ा अजीब लगा और बेहद खोज-बीन के बाद भी इस सबका रहस्य न समझ सका। तब से अब तक के तमाम घटनाक्रमों  को मई 2011 मे कमलेश बाबू द्वारा कुक्कू के श्वसुर को अपना कज़िन बताने के बाद तुलना करने पर सारा का सारा रहस्य एक पल मे उजागर हो गया और उनके  तथा उनकी  छोटी बेटी के द्वारा  फेसबुक मे फेक आई डी बना कर टटोल-खकोल करने से उसकी पुष्टि भी हो गई।  लेकिन  उसका जिक्र अपने समय पर ही।

1991 की गर्मियों मे ही बड़े ताउजी के निधन का 'टेलीग्राम' अचानक आया ,वह पूर्ण स्वस्थ थे। एकाएक बाबू जी का जाना संभव नहीं था। बिना रिज़र्वेशन के मै 'गंगा-जमुना' एक्स्प्रेस से गया , टिकट तो मैंने लिया ही था परंतु शरद मोहन ने जेनरल कोच मे  आसानी से  बैठवा दिया था । इत्तिफ़ाक से उस दिन फैजाबाद होकर जाने का टर्न था तो सीधे 'दरियाबाद' स्टेशन पर ही उतरा था। ताईजी समेत सभी ने परिचय देने पर पहचाना परंतु गाँव के एक सज्जन ने देखते ही उन लोगों से पूछा कि क्या यह 'दुलारे भैया' का बेटा है? मैंने पूछा बिना देखे आपने कैसे पहचाना तो उनका उत्तर था तुम्हारी शक्ल उनसे मिलती है न पहचानने का क्या सवाल?

ताउजी रात मे बिना लालटेन लिए उठ गए थे और अंदाज मे गलती होने से बाथरूम की तरफ जाने की बजाए कुएं मे गिर पड़े थे ,ब्रेन हेमरेज से तत्काल उनकी मौत हो गई थी। रात मे ही उन्हें कुएं से निकाल लिया गया था। मै तो औपचारिक रूप से शोक प्रगट करने गया था,दकियानूस वाद  मानता न था अतः तेरहवी  तक रुकने का प्रश्न ही नहीं था। दो दिन के लिए दुकानों से गैर-हाजिर था। रायपुर से सुरेश भाई साहब रोजाना वहाँ नहाने आते थे इन लोगों ने मुझे भी उन्हीं के साथ बाहर के कुएं पर नहाने भेजा और नहाते ही भुने चने खाने को दिये। अगले दिन भी यही प्रक्रिया रही।



मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ कि इस शोक के माहौल मे भी ताईजी ने 1988 मे बाबूजी के नाम भेजे इस पत्र का जिक्र किया (मुझे यह पत्र बाबूजी के कागजात से उनके निधन के बाद मिला है) जिसमे उन्होने बाबूजी से वहाँ आकर 'चकबंदी' के माध्यम से अपना खेती का हिस्सा लेने की बात कही थी। मैंने तो यह कह कर पल्ला झाड लिया कि ये सब आप बड़े लोगों के बीच की बातें हैं। मैं आप का संदेश बाबूजी को दे दूंगा।

अगले दिन ताईजी ने लखनऊ मे माधुरी जीजी से मिलते जाने को कहा हालांकि उनके एक बेटा और एक बेटी दरियाबाद मेरे पहुँचने के बाद ही आ गए थे। नरेश मेरे साथ लखनऊ आए ,वैसे तब वह लखनऊ ही रहते थे। रात को अवध एक्स्प्रेस से मै आगरा रवाना हो गया।

जिस प्रकार चंद्र शेखर जी ने भाजपा और कांग्रेस से मिल कर वी पी सिंह की सरकार गिरवा दी थी उसी प्रकार उनकी सरकार को राजीव गांधी के वक्तव्य-"हरियाणा पुलिस के दो कांस्टेबल मेरी जासूसी करते हैं" ने गिरवा दिया था और मध्यावधि चुनाव चल रहे थे कि इस प्रचार के दौरान ही राजीव गांधी की निर्मम हत्या भी लिट्टे विद्रोहियों ने कर दी जिन्हें खुद राजीव गांधी और उनकी माँ इंदिरा गांधी ने प्रश्रय दिया था। 

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सोमवार, 28 नवंबर 2011

आगरा/1991 -92 (भाग-9 )

गर्मियों की छुट्टी मे अक्सर शरद की माँ कुक्कू के पास कुछ दिन ज्यादा रहने को चली जाती थीं और शालिनी से कह जाती थीं कि जल्दी-जल्दी उनके क्वार्टर पर जाकर हाल-चाल लेती रहें। शालिनी सुबह ही रात की भी सब्जी बना कर फ्रिज मे रख देती थीं और यशवन्त को लेकर मेरे ड्यूटी जाने के वक्त वहाँ रुक जाती थीं। मै सुबह तो सीधे ड्यूटी निकल जाता था परंतु इन दोनों को लेने शाम को वहाँ थोड़ी देर रुकना ही होता था। बच्चे तो हमेशा टी वी पर ही बैठे रहते थे ,मुझे टी वी का शौक न था अतः शाम के वक्त आँगन मे बैठना पसंद करता था।

मुझे हमेशा ही अखबारों का बेहद शौक रहा है और यदि कोई राजनीतिक खबर विशेष हो तो अखबार मांग भी लेता था। होटल मुगल मे तो फ़ाईनेंशियल कंट्रोलर विनीत सक्सेना साहब ने कई अखबार मुझे घर लाने हेतु दिलवाने प्रारम्भ कर दिये थे जो उनके कंपनी छोडने के बाद भी बहौत दिनों तक मिलते रहे थे। दुकान पर सेठ जी से भी मै 'पंजाब केसरी' मांग लिया करता था और अक्सर एक लेख की चाह पर भी वह पूरा अखबार ही सौंप देते थे। डोडा डसकर साहब एक श्रंखला-'रूसियों का साम्यवाद से जी भर गया' लेखों की चला रहे थे। वैसे काफी अखबार मै ला चुका था जो घर पर सम्हाल कर रखे हुये थे। उन्ही मे से एक मे कहीं पंजाब की स्थानीय खबरों मे एक अजीब समाचार छपा था उसकी कटिंग काट कर शालिनी चुप-चाप सुबह ले आई होंगी।

उस बार शाम को जब मै आया और मेरी वजह से शालिनी और संगीता भी आँगन मे आ गए तो थोड़ी देर बाद शालिनी ने वह कटिंग निकाली  और बोली कि उस दिन भाभी जी ने आपको उस दिन की मजेदार खबर सुनाई थी आज आप यह पुरानी खबर उन्हे सुना दे उन्हे खूब मजा आयेगा। पहले मैंने कहा कि उस कटिंग को भाभी जी को दे दो वही खुद पढ़ लेंगी। परंतु शालिनी को तो अपनी उस भाभी से बदला निकालना था जिसका वह हमेशा ही बचाव करती थीं। वह अड़ गई कि भाभी जी को जो मजा सुनने मे आयेगा वह पढ़ने मे नहीं आयेगा। फिर मैंने सुझाव दिया कि सुनने मे नहीं तो सुनाने मे तो भाभी जी को मजा आता ही है ,अतः उन्हे सुनाने को दे दो ,अंततः शालिनी ने वह कटिंग संगीता को पकड़ा दी । उसमे एक नव-विवाहिता द्वारा सुहाग रात के बाद उसी रात खेतों मे एक बच्चे को जन्म देने की खबर थी जिसे बाद मे उसके पति ने तक्रार के बाद स्वीकार कर लिया था। इस खबर को खूब हँसते हुये संगीता पढ़ रही थीं और उनके पेट मे खूब बल पड़ रहे थे। हंसने और हंसी से पेट फूलने का नतीजा यह हुआ कि,संगीता के सभी वस्त्रों के हुक खुल कर ऊपरी वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गए और पेट के तनाव के कारण उन्हे नारा भी खोलना पड़ा । जान-बूझ कर या लापरवाही के कारण संगीता द्वारा एक हाथ से नारा खोलने पर दूसरे हाथ से चुन्नटें खुल कर बिखर गई। चुन्नटों को सम्हालने के चक्कर मे दूसरे हाथ से नारा भी फिसल गया और फिर नीचे निर्वस्त्र,ऊपर तो कहने को वस्त्र फिर भी बांहों पर  टंगे ही थे । एक बार तो संगीता सन्नाटे मे आ गई परंतु तुरंत सम्हल कर मुस्कराते हुये सब वस्त्र फिर ढंग से कर लिए। इसके  बाद संगीता बेहद प्रसन्न नजर आती रहीं। चाय के बाद हम लोग घर आ गए ।

घर पर इतमीनान से बैठने पर मैंने उस घटनाक्रम का कारण पूछा तो शालिनी का जवाब था कि जब संगीता (उन्होने भाभी जी शब्द नही बोला ) जरूरत से ज्यादा बेशर्म हैं आपको उस दिन वह खबर सुना रही थीं तो मैंने उन्हे आप से सुनवाना चाहा था। लेकिन यह भी ठीक रहा कि आपने उन्हे ही सुनाने को कहा और उनकी पूरी फिल्म सामने आ गई। चार या पाँच दिन बाद फिर शालिनी वहाँ गई और शाम को लौटते समय जब मै बुलाने गया तो उन्होने संगीता से पूछा कि उस दिन आपको बुरा तो नहीं लगा था क्योंकि आपको शर्मिंदगी उठानी पड़ गई। संगीता का जवाब फिर हैरत-अंगेज़ ही था कि किस बात  की शर्मिंदगी? आपने जो मज़ाक किया था वह बुरा मानने की बात क्या है? इस पर शालिनी ने संगीता से फिर कहा कि दिन मे आपने जो बात मुझसे कही थी तो वह भी बता दीजिये। काफी प्रसन्नतापूर्वक संगीता ने उस बात को दोहराते हुये बताया कि उन्होने कहा था कि आपने खुद देखा था विजय बाबू कुछ भी नहीं बोले इस जगह योगेन्द्र बाबू होते तो वह तो चिपट जाते। इस संभावना का कारण भी संगीता ने स्पष्ट किया कि एक बार जब वह योगेन्द्र को टी वी खरीदवाने उनके साथ रिक्शा पर साथ गई थी तो जाते-आते योगेन्द्र उनके (संगीता के) कूल्हो को थपथपाते मजा लेते गए थे। शालिनी ने बीच मे टोंक कर कहा कि आपको भी तो मजा आता रहा था,इस पर संगीता हंस दी।

जब घर पर मैंने शालिनी से पूछा कि अब क्या वह अपनी भाभी के खिलाफ हो गई हैं जो उनको बेनकाब करती जा रही है। शालिनी का उत्तर था वह बेहद गलत हैं इसका उतना अंदाजा शुरू मे किसी को नहीं था उनही के कारण मम्मी को यहा ज्यादा रुकना पड़ता है,15 दिन को गई तो मुझको  जल्दी-जल्दी चक्कर लगते रहने को कह गई है। लाईन मेन चारपाई बुनने आया था उसके पैंट की चेन खराब होगी मम्मी के सामने ही मुस्करा-मुस्करा कर वह कहती रहीं कि संतोष की चेन  खुली हुई है। उन्हे मर्दो से ही बात-चीत करने मे आनंद आता है इसी लिए आपके सामने भी खुलासा किया वैसे भी आपको बहौत कुछ पता था ही।

इसी पखवाड़े मे एक बार और शालिनी का वहाँ का ट्रिप लगा धूप और गर्मी से बचने हेतु वह घर से जल्दी चली थी लेकिन दुकान 11 बजे से पहले नही खुलती थी अतः मुझे सुबह भी एक घंटा रुकना ही पड़ा। चाय के बाद जब बच्चे टी वी पर जम गए और आँगन मे धूप थी अतः यह कहकर कि आपको टी वी से डिसटरबेन्स होता है संगीता हम लोगो को बारामदे मे ले आई। थोड़ी देर बाद संगीता इशारे से  कहती है कि उनके यहाँ (एक स्तन पर हाथ रख कर) सूजन हो गई है कोई दवा हो तो बता दीजिये और शाम को लौटते मे लेते आयेगा। शालिनी ने कहा कि पिछली बार निपिल कटे होने पर आपने बिना देखे दवा (SULPHOR 30) ला दी उससे फायदा भी हो गया लेकिन यह तरीका  गलत और रिसकी है पहले आपको देखना चाहिए तभी दवा का फैसला करना चाहिए। वस्तुतः वह निपिलों का कटना खुश्की के कारण था और उसमे सल्फर ही अचूक दवा होती है इसलिए ला दी थी।  उन्होने संगीता को दिखाने का इशारा किया वह तो जैसे उधार खा कर बैठी इसी बात का इंतजार कर रही थी । पलक झपकते ही दोनों खोल कर रख दिये। मै तो देखते ही समझ गया था कि यह चींटी के काटने की सूजन है किन्तु शालिनी ने मेरा हाथ पकड़ कर सूजे स्थान पर रख कर कहा दबा कर देखिये दर्द है या नहीं। दबाने पर दर्द होना लाजिमी ही था। फिर दूसरे पर उन्होने ही हाथ रख कर कहा और इसमे ,उसमे दर्द का प्रश्न कहाँ था बल्कि पहले वाला दर्द भी दूर हो गया और संगीता हंस दी। शाम को लौटते मे मै NATRUM MUR 6 X(किसी भी जहरीले कीड़े के काटने पर इस बायोकेमिक दवा से अचूक लाभ होता है) लेता आया और चार-चार गोलिया दिन मे तीन बार या 10-10-10 मिनट पीछे खाने को कहा। एक गोली पीस कर उसी चूर्ण को सूजन वाले स्थान पर लगाने को कहा। शालिनी ने तपाक से कहा कि सूजन पर एक बार लगा कर समझाते जाइए कैसे लगाना है। हा बता जाइए कह कर संगीता ने भी उसी तपाक से दोनों खोल डाले। जब मै चिकित्सक के नाते संगीता के पैर पर पट्टी बांध सकता था तो उसी चिकित्सक के नाते दवा की एक गोली अंगूठे से दबा कर पीस ली और सूजन वाले भाग तथा उसके इधर-उधर मल दी। शालिनी बोली सूजन के कारण संगीता (मुंह पर भी भाभी न कह कर)को दर्द हो गया जरा दूसरे को सहला दे जिससे आराम मिल जाये और अपने हाथ से मेरा हाथ दूसरी ओर रख दिया,आदतन संगीता को राहत मिलनी ही थी। घर आकर शालिनी ने कहा कि अब संगीता को ऐसे ही मजा चखाना पड़ेगा बहौत उछलती हैं। ......यह समय जहां राजनीतिक हलचलों का था वहीं इस प्रकार की बेवकूफी भरी हलचलों का भी। 

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शनिवार, 26 नवंबर 2011

आगरा /1990-91 (भाग-8 )

इन दिनों विहिप आदि का रामजन्मभूमि आंदोलन भी ज़ोरों पर था। शिला पूजन आदि के नाम पर धन बटोरा जा रहा था विद्वेष भड़काया जा रहा था। 'मंटोला' क्षेत्र मे पी ए सी के माध्यम से तत्कालीन एस एस पी कर्मजीत सिंह घरों से निवासियों को खदेड़ने मे कामयाब रहे थे। वह कल्याण सिंह के चहेते थे बाद मे मायावती के चहेते बन कर डी जी पी बने। हमारी पार्टी भाकपा 'सांप्रदायिकता विरोधी' अभियान चलाती रहती थी ,अक्सर जिला मंत्री मिश्रा जी मुझ से भी विचार व्यक्त करने को कहते थे। मै संत कबीर के दोहों के माध्यम से अपनी बात सिद्ध करता था जो उन्हें तब पसंद आता था और वह भी कभी-कभी ऐसा ही करते थे।

इन्ही वर्षों के लगभग 'पनवारी' नामक गाँव मे एक दलित को घोड़ी पर चढ़ कर बारात निकालने से रोकने हेतु जातीय संघर्ष भी हुआ था। (सन ठीक से याद नहीं है)। कमलानगर मे भी कर्फ़्यू लागू था। बउआ -बाबूजी उस समय फरीदाबाद मे अजय के पास थे। एक दिन शरद की बड़ी बेटी मेरे साथ साइकिल पर बैठ कर आ गई थी। सुबह शालिनी ने ही सिटी पर मिलते आने को कहा था। दिन मे उन्हें बुखार चढ़ गया था ,शाम को खाना बनाने का विचार नहीं था परंतु भतीजी के अचानक आ जाने पर बनाना पड़ा हालांकि वह 4या 5 वर्ष की ही रही होगी। जब कर्फ़्यू लगा उस समय वह हमारे घर थी। दो दिन के बाद पहुंचाने का वादा कर्फ़्यू ने पूरा नहीं होने दिया। शरद के एक मौसेरे भाई आशुतोष मेडिकल कालेज मे शायद तब हाउस जाब कर रहे थे ,एक दोपहर आकर अपने स्कूटर से शरद की बेटी को ले गए । डॉ होने के नाते वह बिना पास के आ-जा सकते थे। अपने हास्टल से सिटी क्वार्टर पहुंचे उन लोगों का हाल-चाल लेने तो उनकी भाभी संगीता ने अपनी बेटी को ले आने को उनसे कहा था।

कर्फ़्यू समाप्त होने के काफी बाद एक दिन राज कुमार शर्मा जी (सप्तदिवा वाले विजय जी के बड़े भाई) एक और सज्जन के साथ यों ही मिलने चले आए थे। वह हमारी विचार -धारा से परिचित थे फिर भी बोले कि परंपरा तोड़ कर दलितों को बारात नहीं निकालनी चाहिए थी। पढे-लिखे सहायक अभियंता जी साईन्स साईड के थे फिर भी अवैज्ञानिक बातों के जरिये पोंगावाद का समर्थन कर रहे थे। वस्तुतः अमीर लोग गरीबों को ऊपर उठते नहीं देख सकते बल्कि उन्हें कुचले रखना चाहते हैं इसीलिए जातिवाद का समर्थन करते हैं।

लगभग यही धारणा शरद और उनकी माँ की भी थी। घर मे भी उनके यहाँ दकियानूस वाद  ही हावी था। संगीता को फिर रेलवे अस्पताल मे इलाज नहीं कराया जबकि फ्री होता। मेडीकल कालेज मे फेफड़ों की टी बी बताया गया और फेफड़ों से इंजेक्शन के जरिये पानी निकाला जाता था। एक दिन शालिनी सुबह मेरे साथ ड्यूटी जाने के समय यशवन्त को लेकर चलीं और सिटी क्वार्टर पर रुक गई। शाम को उन्हे लेने गया तो पता चला कि शरद टाईम न होने के नाम पर अपनी पत्नी को मेडीकल कालेज ड्यू टाईम पर नही ले गए थे। अतः उन लोगों ने शालिनी से कहा था कि अगले दिन ड्यूटी जाने से पहले मै संगीता को उनकी सास के साथ मेडीकल कालेज ले चलूँ और फेफड़ों से पानी निकाले  जाने के बाद अपनी ड्यूटी चला जाऊ और वे लोग अपने घर लौट आएंगे। मन  मे बुरा तो यह लगा कि जब संगीता के कहने पर डॉ रामनाथ को बुला लाया था तो झांसी से योगेन्द्र को बुला कर रेलवे अस्पताल भेज दिया था और मेरा समय बेवजह खराब करा दिया था तो अब मै साथ चलने से इंकार कर दूँ ।फेफड़ों मे भरा पानी पीठ की किसी नस से सीरिञ्ज द्वारा खींच कर निकाला जाता था।

 परंतु सब को मदद करने की आदत के कारण हामी भर दी और वादा भी निभाया।अतीत मे अजय की शादी और यशवन्त के जन्मदिन कार्यक्रम मे छोले -भटूरे बनाने का  शालिनी से  वायदा करके भी संगीता ने पूरा नहीं किया था। तब भी शालिनी की तमन्ना रहती थी कि मै उनकी भाभी को मदद कर दूँ। कभी तो शालिनी संगीता के असंगत व्यवहार पर उनमे बचपना होने की बात कह देती थीं जबकि उस समय खुद संगीता दो बच्चियों की माँ थीं। कभी -कभी खुद शालिनी को ही संगीता का व्यवहार पीड़ा पहुंचाता था। यो ही एक बार दिन मे यशवन्त को लेकर वह सिटी के क्वार्टर पर रुक गई थीं। शाम को दुकान से लौटते मे मै बुलाने गया था।चाय देने के बाद संगीता ने पूछा कि आपने मजेदार खबर सुनी है?उन लोगों के यहाँ 'अमर उजाला' आता था जो क्रिमिनल खबरें ज्यादा छापता था। दुकान पर 'पंजाब केसरी' आता था वहीं पढ़ लेता था ,घर पर नहीं लेता था। बाकी अखबार पार्टी (भाकपा)आफिस पर पढ़ लेता था। उस दिन पार्टी आफिस न जाकर वहाँ मौजूद था लिहाजा मै उस समाचार से बेखबर था। फिर खुद ही संगीता ने अखबार से वह खबर पढ़ कर सुनाई -दिल्ली मे आमने -सामने रहने वाले दो दम्पतियों के रोमांस की खबर को चटक ढंग से छापा गया था। एक परिवार का पुरुष दूसरे परिवार की महिला को लेकर नैनीताल मे गुलछर्रे उड़ाने गया था ,वह महिला अपने पति को झूठ बोल कर पीहर जाने के नाम पर पडौसी के संग गई थी। उसके पति ने सोचा कि पड़ौसन अकेली है उसका पति भी नहीं है वह उसे लेकर नैनीताल पहुँच गया। दोनों अलग-अलग होटलों मे ठहर कर एक -दूसरे की बीबियों के साथ मौज-मस्ती करते रहे। एक शाम दोनों अपनी-अपनी पड़ौसनो के साथ  विपरीत दिशा से घूमते हुये आमने-सामने आ गए और एक-दूसरे का कालर पकड़ कर मार-धाड़ करने लगे। भीड़ मे लोगो  ने उन्हें छुड़ा कर अपनी-अपनी बीबियों के साथ चुप-चाप चले जाने को कहा और चेतावनी दी कि यदि लड़े तो पुलिस को सौंप दिया जाएगा। इस खबर को जिस खुशी और मस्ती से संगीता ने पढ़ा था शालिनी को बुरा लगा होगा ,वहाँ तो चुप रहीं घर आकर मुझसे बोलीं दिन मे उन्हें बताया तो ठीक था परंतु उस खबर को मुझे इस अंदाज मे क्यों सुना रहीं थीं क्या वह मेरी पत्नी थीं। मैंने उन्हें जवाब दिया तुम्ही  समझो अपनी भाभी की बड़ी तरफदारी करती हो वह क्या हैं?उनमे बचपना है?या आवारगी?

'पनवारी कांड 'के कर्फ़्यू के दौरान ही गुरुशरण भाई साहब की बेटी की शादी भी पड़ी। लड़के वालों के बारात लाने से इंकार करने के कारण उन्होने दिल्ली जाकर शादी की  थी। शामिल न हो सके थे। अतः जब उनकी बेटी पीहर आई तो उन्होने सूचित किया कि शैली आई है। हम लोगों ने उनके घर जाकर अपनी हैसियत के अनुसार शैली को रु 21/- भेंट कर दिये।

हमने कभी बदले की आकांक्षा नहीं रखी और अपनी तरफ से सदा संबंध मधुर बनाए रखने का प्रयास किया जिसे मेरी कमजोरी समझा गया।


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सोमवार, 21 नवंबर 2011

आगरा/ 1990-91 ( विशेष राजनीतिक)

इसी काल मे भाकपा के जिला मंत्री रमेश मिश्रा जी के रमेश कटारा (जो अब पार्टी से बाहर हैं) के नियंत्रण मे आने की बात सामने आई। उनके निकटतम और घनिश्ठ्तम साथी आ -आ कर मुझ से कहते थे कि पार्टी और मिश्रा जी के परिवार को बचाओ। मैंने एक बार सीधे-सीधे मिश्रा जी से बात की तो पाया कि कटारा सहाब का जादू उनके सिर चढ़ कर बोल रहा था और कुछ फायदा कटारा के खिलाफ बोलने का नहीं होने वाला था। कटारा के मुद्दे पर ही मिश्रा जी को बड़ा भाई मानने वाले आनंद स्वरूप  शर्मा जी पहले 'लँगड़े की चौकी के शाखा मंत्री का पद' फिर बाद मे पार्टी ही छोड़ गए। एक एक कर लोग निष्क्रिय होते गए या पार्टी छोडते गए परंतु मिश्रा जी का कटारा प्रेम बढ़ता गया। अंदर ही अंदर एक काफी बड़ा वर्ग मिश्रा जी का विरोधी होता चला जा रहा था लेकिन मिश्रा जी इन सभी को पार्टी विरोधी घोषित करते जा रहे थे।

नानक चंद भारतीय भाकपा और नौ जवान सभा छोड़ कर बसपा मे चले गए। पार्षद शिव नारायण सिंह कुशवाहा भी भाकपा तथा नौ जवान सभा छोड़ कर समाजवादी पार्टी मे शामिल हो गए। पार्टी की शक्ति निरंतर कमजोर होती जा रही थी और रमेश मिश्रा जी कटारा के प्रेम मे मस्त थे। मेरी सहानुभूति कटारा विरोधियों के साथ थी परंतु कार्य मिश्रा जी के अनुसार करने की मजबूरी भी थी। कोशाध्यक्ष पद पार्टी का था मिश्रा जी की निजी फेकटरी का नहीं। कटारा साहब मुझे दबाने या धमकाने के फेर मे नहीं पड़े जबकि दूसरे लोगों के साथ ऐसी ज़ोर-आजमाईश करते रहते थे। डॉ  राम गोपाल सिंह चौहान और हफीज साहब भी कटारा से खुश नहीं थे यदि वे दबाव बनाते तो शायद मिश्रा जी उनकी बात मान सकते थे या शायद नहीं मानते तो इसी भय से उन लोगों ने कुछ कहा नहीं।

कटारा के प्रभाव मे मिश्रा जी के आने के बाद और अपनी बीमारी से पहले डॉ चौहान को प्रेक्टिल अनुभव हो चुका था कि कटारा को शिकस्त केवल मै ही दे सकता था। डॉ जवाहर सिंह धाकरे की पत्नी जो बहौत दिनों से महिला शाखा की मंत्री थीं अपने स्थान पर अपनी भतीजी श्रीमती मंजू सिंह को बनाने पर राजी थीं। कटारा की यह चाल थी कि अपनी भतीजी के पक्ष मे श्रीमती कमला धाकरे को हट जाने दो फिर वरिष्ठ शिक्षक नेता की हैसियत से कनिष्ठ शिक्षिका मंजू सिंह को अपने अनुकूल चलवाते रहेंगे। मिश्रा जी तो ब्लाईंड सपोर्ट कटारा की कर रहे थे उन्होने डॉ चौहान को महिला शाखा मे पर्यवेक्षक के रूप मे भेज कर श्रीमती मंजू सिंह को शाखा मंत्री चुनवाने का दायित्व सौंपा था। मिश्रा जी के भक्त किन्तु कटारा के प्रबल विरोधी कामरेड्स ने मुझसे अपेक्षा की कि कटारा की योजना को ध्वस्त कर दूँ। विकट स्थिति थी न तो मै मिश्रा जी को नाराज करना चाहता था न ही डॉ चौहान को  और न ही कटारा की योजना को सफल होने देना चाहता था और न ही डॉ धाकरे को यह एहसास होने देना चाहता था कि उनकी पत्नी की भतीजी को मैंने शाखा मंत्री नहीं बनने दिया।

हालांकि शालिनी भाकपा की महिला शाखा की सदस्य थीं किन्तु मैंने उन्हें सलाह दी थी कि वह बैठकों मे तटस्थ रुख ही रखें। सबसे पहले उस शाखा की सहायक मंत्री श्रीमती मंजू श्रीवास्तव (जो किशन बाबू श्रीवास्तव साहब की पत्नी थीं )को राजी किया कि वह सरला जी के स्थान पर उनकी भतीजी श्रीमती मंजू सिंह के विरुद्ध अपना नाम प्रस्तावित होने पर पीछे न हटें और मुक़ाबले मे डटी रहें। उसके बाद मिश्रा जी की सबसे विश्वस्त कामरेड को सारी परिस्थिति समझा कर उनसे महिला शाखा का मंत्री बनने का निवेदन किया और उनके इंकार करने पर   मंजू श्रीवास्तव जी का नाम प्रस्तावित करने का अनुरोध किया जिसे उन्होने न केवल स्वीकार कर लिया बल्कि रिक्शा से बाकी महिलाओं के घर-घर जाकर उन्हें कमला जी द्वारा प्रस्तावित मंजू सिंह के विरुद्ध मंजू श्रीवास्तव का समर्थन करने पर राज़ी किया।

बैठक मे कामरेड कमला  धाकरे ने खुद हटने और अपने स्थान पर अपनी भतीजी कामरेड मंजू सिंह का नाम प्रस्तावित किया जिसका किसी ने भी समर्थन नहीं किया और मिश्रा जी की विश्वस्त  कामरेड ने कामरेड मंजू श्रीवास्तव का नाम प्रस्तावित कर दिया जिसका (कमला  जी और मंजू सिंह के अतिरिक्त ) सभी ने ताली बजा कर स्वागत किया । बाद मे कमला  जी ने भी अपनी स्वीकृति दे दी और इस प्रकार अपने पहले ही शक्ति परीक्षण मे कटारा साहब मुंह की खा गए। डॉ चौहान की उपस्थिती मे हुये इस चुनाव की औपचारिक पर्यवेक्षक रिपोर्ट के अतिरिक्त मौखिक रूप से सारा विवरण उन्होने मिश्रा जी को दिया तो मिश्रा जी हैरान रह गए कि डॉ चौहान की मौजूदगी के बावजूद एक ठाकुर कामरेड को रिजेक्ट कर दिया गया। मिश्रा जी ने डॉ चौहान से पूछा कि आपने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया तो वह बोले वहाँ मतभेद होता तभी तो हस्तक्षेप की नौबत आती ,कमला  जी ने भी तो खुद ही मंजू सिंह के स्थान पर मंजू श्रीवास्तव को स्वीकार कर लिया था तो बतौर पर्यवेक्षक वह क्या कर सकते थे?मिश्रा जी ने कहा डॉ साहब यह आपकी पहली हार है,पड़ताल कीजिये कि क्यों आप मिशन मे कामयाब नहीं हुये?उन्होने कहा जांच तो करेंगे ही और उन्होने अपने तरीके से जांच मे सच्चाई का पता भी निकाल लिया ,किन्तु मिश्रा जी को कहते रहे कुछ पता नहीं चल पा रहा है,उन्होने तभी मन मे तय कर लिया था कि मिश्रा जी को कटारा के चंगुल से यह (विजय माथुर)ही निकाल पाएगा और इसी लिए अपनी बीमारी के दौरान ही उन्होने अपना चार्ज मुझे दिलवाकर अपने स्थान पर कोशाध्यक्ष बनवा दिया था और निश्चिंत हो गए थे। जैसा कि मिश्रा जी ने बताया था कि उन्हें अपना नाम तक लिखना नहीं आता था यह डॉ चौहान ही थे जिनहोने उन्हें पार्टी मे भी बढ़ाया और पढ़ाया उनको खुद का नाम लिखना भी सिखाया। शायद इसी गुरु धर्म के निर्वाह मे वह मिश्रा जी का खुल कर विरोध या आलोचना नहीं करना चाहते होंगे और असंतुष्ट होने के कारण उन्हें खुशी ही हुई होगी कि मैंने डिप्लोमेटिक तरीके से कटारा का तिलस्म तोड़ दिया और मिश्रा जी पर आंच भी न आने दी ।हकीकत पता चलने पर डॉ धाकरे और उनकी पत्नी कमला  जी भी खुश थीं कि मैंने उनकी भतीजी श्रीमती मंजू सिंह को एक गलत आदमी के चंगुल मे फँसने से बचाने हेतु उनका विरोध करवाया था। धाकरे दंपति का मुझे आशीर्वाद भी इस घटना के बाद हासिल हो गया और आगे उन दोनों ने मुझे ब्लाईंड सपोर्ट भी किया जिसका वर्णन अपने उपयुक्त समय पर होगा ।  

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गुरुवार, 17 नवंबर 2011

आगरा /1990-91 (भाग- 7 )

गोविंद बिहारी मौसा जी (बउआ की फुफेरी बहन रानी मौसी के पति) जो कमलेश बाबू के चाचा के मित्र होने के कारण उनके चाचा भी हुये अपनी भतीजी की शादी शरद मोहन,पार्सल बाबू से करवाना चाहते थे। वह और मौसी स्कूटर पर बैठ कर टूंडला भी गए थे। परंतु शरद की माता जी ने उन दोनों को हमारे रिश्ते को ध्यान मे रखते हुये रु 11/-11/-देकर बिदा कर दिया था और शरद की शादी अलवर की काली पप्पी  अर्थात संगीता से कर दी। वह मुझ से तब से विशेष चिढ़ गए थे। उन्होने यह नहीं सोचा कि मै किस हैसियत से उन लोगों को बाध्य कर सकता था। 1990-91 मे आर एस एस की हलचलें तथा जार्ज बुश का तांडव बढ्ने का उनके दिमाग पर पूरा-पूरा असर था। उन्होने मुझे सद्दाम हुसैन कहना शुरू कर दिया था। अतः मैंने भी उनके घर जाना कम कर दिया था।

संगीता ने बाद मे बताया था कि जहां उनकी भतीजी की शादी हुई थी वहाँ से तलाक भी हो गया था। वह लड़का संगीता के पीहर वालों मे था। रानी मौसी की बड़ी भतीजी की एक नन्द की शादी शरद के मौसेरे भाई से हुई थी,उसका भी तलाक हो गया था। गोविंद बिहारी मौसाजी अपनी बड़ी साली को इंदिरा गांधी कह कर मज़ाक उड़ाने लगे थे। जबकि सीता मौसी का व्यवहार तो रानी मौसी से बहौत ज्यादा अच्छा था। इसलिए कई बार दोनों का घर अगल-बगल होते हुये भी केवल सीता मौसी के घर से लौट आते थे और रानी मौसी के घर नहीं जाते थे।

तारीख तो अब ठीक से ध्यान नहीं परंतु इन्हीं दिनों सेठ जी ने भी अपने 'भरतपुर हाउस'मे बने नए मकान का गृह प्रवेश किया था। मुझे सुबह आठ बजे से वहाँ बुला लिया था दूसरे कर्मचारियों के साथ ही। उनकी पूजा समाप्त होने के बाद उनके कहने पर मैंने भी लोगों को प्रशाद के दोने उठा-उठा कर दिये थे। गर्मी का मौसम था। एक ग्लास पानी को भी उनके यहाँ किसी ने नहीं पूंछा। न ही प्रशाद लेने को किसी ने कहा ,वैसे भी मुझे ढ़ोंगी प्रशाद मे दिलचस्पी नहीं थी,उल्लेख तो उनका शिष्टाचार जतलाने हेतु किया है। जब दोपहर  मे भोजन प्रारम्भ हुआ तो मै चुप-चाप घर चला आया,मुझ से तो उन्होने भोजन का न पहले जिक्र किया था न उस दिन जबकि सुबह से बुला लिया था। बाद मे दुकान पर बोले कि,बिना खाना खाये क्यों चले आए? मैंने भी स्पष्ट कह दिया आपने खाने को कब कहा था? दूसरे कर्मचारी कह रहे थे कि खाने को तो उनसे भी नहीं कहा था पर वे खा आए। सबकी बात मै नहीं जानता परंतु मै कभी भी दूसरों के घर खाना-नाश्ता के फेर मे नहीं पड़ता। यदि मुझे विशेष तौर पर कहा जाता है तभी गौर करता हूँ वरना नही।काम की जानकारी होने और मजबूत पकड़ के कारण दुकान पर तो मै अपने हिसाब से काम कर लेता था और उसी समय मे कटौती करके भाकपा की गतिविधियों मे भाग ले लेता था और वह चुप रह जाते थे,परंतु अब घर पर मौका था कि वह अमीरी-गरीबी के भेद को स्पष्ट करते सो उन्होने कर दिखाया।

क्रमशः.....


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सोमवार, 14 नवंबर 2011

लखनऊ के अपने मकान मे दो वर्ष

आज ही की  तारीख मे गत वर्ष अपने लखनऊ आने का विवरण दिया था। पहले इस वर्ष इस विषय पर कुछ लिखने का विचार नहीं था ,हालांकि ऐसा कुछ भी विशेष कारण इसका नहीं था। यों तो हम लोग जिस प्रकार अपने लोगों के जन्मदिन पर केवल हवन करते हैं उसी प्रकार आज भी केवल हवन ही किया था ,किन्तु 'वास्तु शास्त्र' के मुताबिक कुछ विशेष सामाग्री और लेकर विशेष मंत्रों से अतिरिक्त आहुतियाँ और दे दी।

ब्लाग जगत मे पिछले कई पोस्ट मे नव-वर्ष आदि के अवसर पर जिन ब्लागर्स की तारीफ मे दो शब्द भी लिखे थे उनके प्रोफाईल खंगाल कर हमारी छोटी भांजी साहिबा ने अपने पिताश्री के बी माथुर साहब के माध्यम से उन्हें मेरे विरुद्ध करने का प्रयास किया। फिर 'अन्ना' का कारपोरेट घरानों का हितैषी आंदोलन चलने पर तमाम ब्लागर्स ने उसका अंध समर्थन किया। इस कारण मुझे कई ब्लाग्स अनफालों भी करने पड़े और कई को फेसबुक मे ब्लाक भी किया। कुछ पर 'अन्ना' के विरोध मे टिप्पणिया खुल कर दी और अधिकांश पर मौन रखा। हम-संम विचार धारा के ब्लागर्स ने अन्ना-विरोधी लेख प्रकाशित किए उन पर खुल कर समर्थन किया और उनमे से कुछ को अपने 'कलम और कुदाल' पर साभार  पुनर्प्रकाशित भी किया। जहां अन्ना/रामदेव की कीचड़ मे फंस कर अधिकांश ब्लागर्स अपना आपा खो बैठे थे और अन्ना विरोधियों को 'बकवास','वाहियात' जैसी उपाधियों से विभूषित कर रहे थे। उनके बीच मे उनके समर्थक होते हुये भी 'कीचड़ मे कमल' अथवा 'काँटों के बीच गुलाब' के रूप मे डॉ टी एस दराल साहब, मनोज कुमार जी एवं सलिल वर्मा जी का नाम आदर सहित लिया जा सकता है। इन तीनों का नाम पहले भी ससम्मान आया है इनके साथ और जो नाम प्रशंसा पाये थे वे सब अन्ना की अंध आंधी मे उड़ गए हैं।

पिछले वर्ष से अब तक (अप्रैल से नवंबर के मध्य) कुछ ब्लागर्स से व्यक्तिगत मुलाकातें भी सम्भव हुई जिनमे स्थानीय के अतिरिक्त दूसरे नगरों और विदेश से पधारे सज्जन भी थे। सभी मुलाकातें बेहद अच्छी रहीं  हैं। तीन साहित्यिक गोष्ठियों मे भी बुलावा मिला और हम तीनों मे ही उपस्थित हुये तथा  ज्ञानार्जन किया। AISF के प्लेटिनम जुबली समारोह मे एक कार्यकर्ता की हैसियत से भाग लिया। प्रगतिशील लेखक संघ के भी 75 वर्ष सम्पन्न होने के कार्यक्रम मे एक श्रोता की हैसियत से उपस्थित रहा और तमाम जानकारी हासिल कीं। भाकपा के आंदोलनों मे से कुछ मे एक कार्यकर्ता के नाते  सक्रिय रूप से शामिल हुआ। और इस प्रकार राजनीति एवं साहित्यिक गतिविधियों  मे पूरी तरह संतुष्टि प्राप्त हुई जबकि ब्लाग जगत का अनुभव अच्छा नहीं रहा। और अच्छा नहीं रहा व्यक्तिगत रिश्तेदारियों का कटु अनुभव। छोटी बहन डॉ शोभा और बहनोई माननीय कमलेश बिहारी माथुर साहब के पोल-पट्टों का खुलासा तथा उनकी के एम एवं शरद मोहन माथुर (पार्सल बाबू) के साथ घनिष्ठता का उजागर होना जहां धक्का लगने वाली बात थी वहीं इससे और आगे उनके द्वारा क्षति पहुंचाए जाने की कोशिश को ब्रेक भी लग सकता है जो हमारे लिए लाभदायक स्थिति ही होगी। हालांकि अभी तो छल-छ्द्म इनके चल ही रहे हैं। इनके रिशतेदारों तथा मित्रों को फेसबुक पर ब्लाक कर देने के कारण इन्हों ने kb mathur नाम से दूसरी आई डी बना कर हम लोगों का फेसबुक अकाउंट खँगालने का प्रबंध किया था जिसे भी ब्लाक कर देने के कारण अब यह और कोई तिकड़म भिढ़ाएंगे।  इनके रवैये के कारण ही 1990-91 और आगे -पीछे की वे बातें जो पहले ब्लाग मे देने का विचार नहीं था,देनी पड रही हैं।बात बेहद साफ है जब बहन-बहनोई की कारगुजारियाँ प्रकाश मे लानी पड़ी तो उन लोगों को क्यों छोड़ा जाये जिनके इशारे पर इन लोगों ने हमे मिल कर मारने की चाले चलीं।

पिछले वर्ष के लेख के बाद बाबूजी के फुफेरे भाई के पुत्रों -पुत्री से संपर्क हुआ था। इनमे से कमल दादा ने डॉ शोभा को 'टेढ़ी' बताया था उनका निधन मार्च 2011 मे हो गया। उनके शांति हवन मे मिली शैल जीजी ने भी डॉ शोभा को 'चिढ़ोकारी' बताया था उनका भी निधन अगस्त  2011 मे हो गया । यहाँ आने के बाद हमने सभी रिशतेदारों से संपर्क रखना चाहा था लेकिन ज़्यादातर के  अमीर होने के कारण निर्वाह नहीं हो सका ,अब हमने ऐसे संपर्क न करने का ही फैसला किया है। 'एकला चलो' वाला  जो सिद्धान्त पहले से ही प्रिय था उसी पर आगे चलने का पक्का फैसला किया है। यही इस एक वर्ष की उपलब्धि है। 

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बुधवार, 9 नवंबर 2011

आगरा /1990-91 (भाग-6 )

इसी प्रकार एक बार शाम के समय दुकान से लौटते मे सिटी स्टेशन गए थे चूंकि काफी दिनों से वहाँ की कोई खबर नहीं थी। तब मोबाईल/फोन नहीं थे। शालिनी अक्सर सुबह ही कह देती थीं कि पार्टी आफिस जाने से पहले उनके भाई के घर का हाल-चाल पता करता जाऊ । ऐसे ही उस दिन भी कहा था और वहाँ पहुँचने पर पाया कि फिर संगीता दर्द से पीड़ित थीं। उन्होने अपनी सास और दोनों बेटियों की मौजूदगी मे ही कहा कि आप अपने मित्र डॉ (चिकित्सक) रामनाथ  को बुला लाइये उनका ही इलाज करते हैं। उन्होने प्रत्यक्ष रूप से कहा कि शरद तो डबल ड्यूटी कर सकते हैं ,घर नहीं देख सकते। (चूंकि ड्यूटी पर अतिरिक्त कमाई होती थी इस वजह से पार्सल बाबू स्टेशन छोडना ही न चाहते थे)। हालांकि उनकी सास को अच्छा  नहीं लगा था परंतु फिर भी फर्ज के नाते मैंने उनसे पूंछा कि यदि आप कहेंगी तभी हम उन डॉ साहब को लाएँगे अन्यथा नहीं। उन्होने डिप्लोमेटिक जवाब दिया कि जब संगीता उनको कह रही हैं तो उन्हें ही बुला दीजिये ,शरद को तो अभी समय नहीं है जो दिखाने ले जाये।

मेरे मित्र डॉ साहब चिकित्सक,पंडित,ज्योतिषी,शेयर ब्रोकर सभी थे उन्हें उनके क्लीनिक या घर पर पकड़ने का मतलब तमाम वक्त इंजार मे गुज़ारना होता था। अतः मै उस दिन अपनी पार्टी भाकपा के कार्यालय नहीं जा कर घर आया और शालिनी को सारा वृतांत बता दिया कि तुम्हारी माँ ने सीधा जवाब नहीं दिया  है जबकि तुम्हारी भाभी ने स्पष्ट कहा है। शालिनी ने तो डॉ को लेते जाने को कह ही दिया मेरे माता-पिता ने भी उनका समर्थन कर दिया। रात के साढ़े-नौ बजे डॉ साहब अपने क्लीनिक पर पधारे ऊपर ही उनका घर भी था। उनके क्लीनिक पर अपनी साइकिल छोड़ कर उनके स्कूटर पर बैठ कर उनके साथ सिटी स्टेशन के क्वार्टर पहुंचा ।
आव-भगत मे तेज शालिनी की माता जी तो फटा-फट चाय -नाश्ता डॉ साहब के लिए बनाने उठ गई। डॉ साहब ने नब्ज,स्टेथोस्केप से चेक करने के बाद संगीता का  पेट पेड़ू तक  चेक(नारा खुलवा कर) करके तात्कालिक रूप से खाने हेतु कुछ दवाएं लिख दी और सीने का एक्सरे कराकर दिखाने को कहा और उसी के बाद इलाज शुरू करने को कहा। डॉ साहब के सामने ही तय हुआ जिसमे शालिनी की माता जी ने भी हाँ मे हाँ मिलाई थी कि अगले दिन मै सुबह अपनी ड्यूटी जाने से पहले वहाँ आकर संगीता और उनकी सास को एक्सरे हेतु ले चलूँ।

मै जब अपने दिये समय पर पहुंचा  तो पता चला कि झांसी से सीमा के पति योगेन्द्र चंद्र आकर संगीता को रेलवे अस्पताल चेक कराने ले गए हैं। तब तक दुकानें खुलने का वक्त नहीं हुआ था लिहाजा वहीं कुछ देर और  रुकना पड़ा। शाम को लौट कर मैंने शालिनी से यह दास्तान बताई तो उन्होने कहा मिलने पर पता करके बताएँगे कि रात-रात मे प्रोग्राम कैसे बदला और झांसी से योगेन्द्र रातों-रात चल कर सुबह-सुबह कैसे पहुँच गए। यदि ऐसे करना था तो मुझे क्यो कहा गया था?

बहर-हाल रेलवे डॉ ने भी एक्सरे कराने को कहा था। शरद ने अपने राजा-की-मंडी स्टेशन के पास एक एक्सरे क्लीनिक पर अपनी माँ और पत्नी को भेज कर एक्सरे करवाया था जिसे रेलवे डॉ ने रिजेक्ट करके दूसरा एक्सरे करवाने को कहा था। शरद को तो वक्त ही न था लिहाजा पुनः एक्सरे टलता रहा। काफी दिन हो गए थे मै उधर जाना नहीं चाहता था। एक रोज शालिनी फिर बेहद अनुरोध के साथ बोलीं कि आज जाते मे जरा देर को खड़े-खड़े ही हाल पता कर लें। लिहाजा मै सिटी क्वार्टर के रास्ते से ही गया। वहाँ देखा कि संगीता और उनकी सास घर मे ताला लगा कर क्वार्टर के बाहर खड़ी हैं,लड़कियां स्कूल मे थीं। कारण यह बताया कि शरद ने सिटी स्टेशन के फोन के जरिये संदेश भेजा था तैयार रहना आकर एक्सरे क्लीनिक चलेंगे। घंटे भर से खड़े हैं इन्तजार कर रहे हैं कहीं कोई संदेश,कोई खबर नहीं है। संगीता बोलीं आप किसी दूसरे एक्सरे क्लीनिक को जानते हों तो वहाँ ले चले वहीं एक्सरे  करा लेते हैं,उनकी सास साहिबा बोलीं कि अरे पहले चाय तो पिला दो फिर चलना। मैंने कहा अगर चलना है तो ताला न खोलें और किसी तकल्लुफ मे न पड़ें तुरंत चलें क्योंकि मेरा भी ड्यूटी पहुँचने का समय हो रहा है।

खैर फिर वे लोग सीधे रिक्शे के जरिये चले मैंने एस एन मेडिकल कालेज के पीछे स्थित एक एक्सरे क्लीनिक पर पहुंचा दिया। शालिनी की माता जी बोलीं थोड़ी और देर कर लीजिये एक्सरे हो जाये तब आप ड्यूटी निकल जाएँ हम लोग घर चले जाएँगे। राजा-की-मंडी स्टेशन के पास उनसे रु 75/-चार्ज हुये थे जबकि यहाँ रु 60/- ही लगे। मंहगे क्लीनिक के एक्सरे मे पिन आने से तस्वीर साफ नहीं थी वहाँ के टेकनीशियन ने कुछ बताया नहीं था। इस सस्ते किन्तु मेडिकल कालेज के बगल वाले क्लीनिक का टेकनीशियन चतुर था। उसने ब्लाउज के हुक तो खुलवाए ही,पिन भी हटवाए तथा गले की चेन भी उतार देने को कहा। पिन तो संगीता ने रुमाल मे लपेट लिए थे चेन मुझे संभालने को पकड़ा दी क्योंकि उनकी सास तो उनके साथ ही थीं। एक्सरे हो जाने के बाद चेन सौंप कर मै ड्यूटी के लिए चला गया हालांकि देर हो चुकी थी और सेठ जी कुछ कहने की स्थिति मे नहीं थे। एक्सरे प्रिंट शाम को मिलना था उन लोगों ने कहा लौटते मे मै लाकर उनके घर दे दूँ ।

मैंने शाम को एक्सरे प्रिंट और रिपोर्ट सौंप दी। सुबह घर के बाहर से लौट गया था अतः चाय पिलाई । मै इस दिन फिर भाकपा कार्यालय नहीं पहुँच पाया। शालिनी से इस नाटक को बता कर पूंछा कि योगेन्द्र चंद्र को झांसी से बुला कर रेलवे अस्पताल मे दिखाना,एक्सरे कराना दोबारा कराने मे तुम्हारे भाई द्वारा टाल-मटोल करना फिर आखिर मे मेरी  ही मदद लेना कौन सी थ्योरी है?इसका जवाब न शालिनी दे सकती थीं न दिया।

क्रमशः....


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रविवार, 6 नवंबर 2011

आगरा/1990-91(भाग-5 )

यह जानते हुये भी कि मै शालिनी के पीहर वालों के व्यवहार और रवैये से खुश नहीं था उनका अक्सर आग्रह होता था कि मै जाते या आते मे थोड़ी देर रुक कर सिटी स्टेशन पर उनकी माँ,भतीजियों ,भाई-भाभी का हाल-चाल पता करता आऊ क्योंकि यदि कोई खास बात हो तो वह भी वहाँ जा कर देख सकें। उनके यहाँ जब एलोपैथी दवा से लाभ नहीं होता था तो मुझ से पूंछ कर होम्योपैथी दवा लेकर इलाज करते थे। एक रोज शाम को हींग की मंडी से लौटते मे जब वहाँ पहुंचे तो नजारा अजीब था। शालिनी की भाभी संगीता ने सेवई बनाने की मशीन आलमारी साफ करते मे अपने पैर पर गिरा ली होगी जिस वजह से पैर से खून बह रहा था और उनकी सास साहिबा एक एलोपैथी दवा का लोशन दूर से उनके पैरों पर फेंकते हुये शीशी आधी खाली कर चुकी थीं और खून बहता जा रहा था। सास कैसे बहू के पैर पर पट्टी बांधे?यह समस्या थी। मैंने कहा बेनडेज,मुझे दे मै पट्टी बांध देता हूँ तो शालिनी की माता जी का तर्क था आप दामाद होकर कैसे सलहज के पैर पर पट्टी बांधेंगे जबकि दामाद के पैर छूए जाते हैं। मैंने जवाब दिया कि मैंने आयुर्वेद रत्न किया है और वैद्य के रूप मे रेजिस्टर्ड हूँ अतः एक चिकित्सक के नाते पैर पर पट्टी बांध देता हूँ और इलाज करना चरण-स्पर्श नहीं है। बड़ी मुश्किल से उन्होने दवा और पट्टी मुझे दी। एक फाहा बना कर वह लोशन लगा कर कस कर पैर मे पट्टी बांधने से खून बहना तुरंत रुक गया। फर्स्ट एड मे भी उन लोगों का व्यवहार रिश्तों की रस्मों मे उलझा था जबकि कुल मिला कर मेरे साथ व्यवहार कभी अच्छा नहीं था। मैंने घर पर आकर बउआ-बाबूजी से बताया तो उन्हे भी ताज्जुब हुआ कि ऐसे मामलों मे सास-बहू या दामाद नहीं देखा जाता कैसे हैं वे लोग ?मेरे द्वारा शालिनी की भाभी के पैर मे पट्टी बांध देने पर मेरे माता-पिता ने कोई एतराज नहीं किया। लेकिन मैंने शालिनी से कह दिया था कि उनकी माँ-भाभी इसके बावजूद एहसान फरामोशी की आदत से बाज नहीं आने वाले।

एक बार फिर अचानक शाम के समय दुकान से लौटते मे सिटी स्टेशन के क्वार्टर गए थे ,सुबह ही शालिनी ने विशेष आग्रह किया था बहौत दिनों से वहाँ का हाल नहीं मिला है ,पता करते आयें। उनके भाई और माँ मुजफ्फरनगर  गए हुये थे कूकू के पास( जिसकी खबर हम लोगों को नहीं थी) और घर पर दोनों छोटी-छोटी लड़कियां थी। घर मे अंधेरा था और संगीता दर्द से कराह रही थी। मेरे कहने पर शरद की बड़ी बेटी ने बल्ब जलाया ,हाल पूंछ कर मै रावत पाड़ा गया और डाबर की सरबाईना एक स्ट्रिप लाकर दे दी। एक गोली अपने सामने ही खिलवा दी। 15 मिनट मे दर्द कम हो गया और उठ कर संगीता ने तुरंत दवा की कीमत का भुगतान मुझे कर दिया। अगले दिन यशवन्त की स्कूल से छुट्टी करवाकर शालिनी मेरे दुकान जाते समय अपनी भाभी के पास गई और शाम को लौटते मे मै दोनों को अपने साथ वापिस ले आया। हालांकि शालिनी के दिन मे जाने पर बउआ को शाम का खाना बनाना पड़ जाता था  तब भी मदद करने जाने से कभी नहीं रोका।

क्रमशः ..... 

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गुरुवार, 3 नवंबर 2011

आगरा/1990-91(भाग-4 )'सप्तदिवा' मे लेखन और सिद्धान्त निष्ठा

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http://vijaimathur.blogspot.com/2011/02/blog-post_27.html

हमारे होटल मुगल के सहकर्मी श्री हरीश छाबरा ने ( जिंनका जिक्र पूर्व मे किया जा चुका है के सहपाठी रहे) डॉ राम नाथ शर्मा ,आर एम पी से परिचय कराया था। उनके पिताजी -काली चरण वैद्य जी आगरा के काफी मशहूर   वैद्य थे । एक जमाने मे स्टेशन पर रिक्शा वाले से उनका नाम लेने पर वह उनके घर लेंन  गौ शाला पहुंचा देता था। वैद्य जी टाईफ़ाईड-मोतीझला के विशेज्ञ थे। एक बार मै बउआ का हाल बता कर दवा लाया था और उनकी फीस रु 2/- दे आया था। अगले दिन फिर दवा लेने जाने पर उन्होने पहचानते हुये कहा कि तुम तो बलुआ (डॉ का घर का नाम) के दोस्त हो ,तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई जो मुझे पैसे दे गए पहले अपने दिये ये रु 2/-सम्हालो फिर माँ का हाल बताओ। फायदा होने तक उन्होने पूरी दवा मुफ्त दी।

डॉ भी घर आने-जाने की फीस नहीं लेते थे केवल दी गई दवा की कीमत लेते थे। 1981 मे टूंडला बतौर पंडित उन्होने ही शादी कारवाई थी। घर से सूट-बूट पहन कर बाराती बन कर गए थे ,फेरों के वक्त कोट उतार कर पंडित की भूमिका अदा करा दी फिर उसके बाद बाराती बन गए थे। यदि वह क्लीनिक मे उपलब्ध हुये तो घंटों उनसे इधर-उधर की बातें होती रहती थीं। ज्योतिषीय सलाह भी वह हमे मुफ्त ही प्रदान करते थे।

ऐसे डॉ राम नाथ (03-11-1951) के पड़ौसी और बचपन के मित्र थे श्री विजय शर्मा(डॉ से लगभग दो वर्ष छोटे) जो संजय गांधी की यूथ कांग्रेस के नेता रहे और जनता सरकार बनने पर जनता पार्टी मे शामिल हो गए। उनके बड़े भाई राज कुमार शर्मा जी जल निगम मे सहायक अभियंता थे और उन्होने अपनी दो नंबर की कमाई को एक मे बदलने हेतु छोटे भाई से एक अखबार 'सप्तदिवा-साप्ताहिक'चलवा दिया था । वह खुद सरकारी नौकरी मे होने के कारण कबीर उपनाम से 'कलम कबीर की' व्यंग्य कालम लिखते थे। उन्हें मेरे विचार पसंद आए अतः अपने भाई विजय से मुझे अपने साथ जोड़ने को कहा। पहली बार लेन-गौ शाला से निकलते अखबार मे मै मात्र लेखक था। एक शख्स खुद को 'सरिता' का पूर्व उप-संपादक बता कर उनके अखबार मे इतना गहरा घुसा कि उन्हीं के घर पर भी डेरा डाल लिया।उसने 'श्रमजीवी पत्रकार समिति'का गठन करवाया और उस समिति को मालिक बनवा दिया। विजय जी ने उसे प्रबंध संपादक बना दिया था। मैंने उसकी गतिविधियों से उन्हें सावधान रहने को कहा था परंतु उन्होने उपेक्षा कर दी। किन्तु बाद मे उन दोनों मे मतभेद हो गए ,वह शख्स अपनी पत्नी को उन्हीं के घर छोड़ कर खुद छीपी-टोला मे अपने रिश्तेदार के घर रहने लगा। मैंने उन्हें दोबारा चेताया कि उन जनाब की श्रीमती जी दिल्ली के मिरांडा हाऊस की स्टूडेंट रही हैं ,अकेले उन्हे घर पर रखेंगे तो परेशानी मे फंस जाएँगे। उनका सवाल था कि कैसे हटाएँ? मैंने उन्हें सुझाव दिया कि श्रीमती जैन को कहें कि अपने पति को या तो बुलाएँ या उनके पास ही जाएँ । इतना सवाल उठते ही वह शर्मा जी का घर छोड़ गई। बाद मे उनकी उस चालाक शख्स से कोर्ट मे मुकद्म्मेबाजी भी चली और अखबार बंद हो गया।

मुकद्म्मा जीत कर उन्होने दूसरी बार अखबार गांधी नगर से प्रकाशित करना शुरू किया और इस बार उन्हें एक और ठग मिल गया जिसे उन्होने प्रबंध संपादक बना दिया। राज कुमार जी ने कमला नगर मे -शालीमार एंक्लेव मे-एक मकान लिया और उसमे सुधार कार्य करने का दायित्व भी उन ठग साहब को सौंप दिया। मैंने विजय जी को फिर आगाह किया परंतु उनका जवाब था कि वह भाई साहब का मुंह लगा है हम कुछ नहीं कर सकते। उस ठग ने जब राज कुमार जी का काफी पैसा साफ कर दिया तब उनकी आँखें खुलीं और उसे हटा दिया। इस प्रकार दूसरी बार फिर उन्हें अखबार बंद करना पड़ा।

तीसरी बार विजय जी ने अपने घर के निचले हिस्से मे प्रेस डालकर खुद अपने नियंत्रण मे अखबार निकालना शुरू किया ,उनके भाई साहब ने हाथ खींच लिया तो उन्होने अपनी मित्र-मंडली को अपना फाइनेंसर बना लिया।
दूसरी बार की तरह इस बार भी डॉ राम नाथ के साथ-साथ मुझे भी सह-संपादक बनाए रखा। इस बार डॉ राम नाथ के मेरे पिताजी से कहलाने के कारण मुझे भी उस समिति का एक शेयर रु 100/- का लेना पड़ा। अब व्यंग्य लेखक उनके भाई के स्थान पर एस एन मेडिकल कालेज के एक्सरे टेकनीशियन डॉ राकेश कुमार सिंह थे जिंनका संबंध 'जलेस' से था।

तीनों बार के प्रकाशन मे विजय जी ने मेरे एक साथ कई-कई लेख एक ही अंक मे निकाले थे। यहाँ तक कि कई लेख मुझे दूसरे रिशतेदारों के नाम डाल कर भी देने पड़े थे। डॉ राकेश केवल व्यंग्य कहानिया ही देते थे,बाकी समाचार और लेख मै ही लिखता था। कई बार मैंने भाकपा के मुख-पत्र 'मुक्ति संघर्ष' से अपने पसंदीदा लेख दिये उन्हें भी उन्होने छाप दिया। लेकिन 1991 आते -आते आर एस एस का आतंक इतना तीव्र हो गया था कि उसने समस्त सहिष्णुता समाप्त कर दी थी। समाज का वातावरण विषाक्त हो रहा था। वैमनस्य का बोल-बाला हो गया था। उनके फाइनेंसर अधिकांश संघी/भाजपाई थे उन्हें मेरे लेखों पर एतराज होने लगा। मेरे कई लेखों मे विजय जी ने मुझ से संशोधन करने को कहा जिससे फाइनेंसर्स का एतराज दूर हो सके। मैंने एक शब्द का भी संशोधन करना मंजूर नहीं किया। उनका तर्क था कि आखिर जो पैसा लगा रहा है वह अपने खिलाफ कैसे आपके लेखन को सह ले?मेरा तर्क था कि आप मेरे लेख मुझे वापिस कर दें और फाइनेंसर्स की दी नोटों की गड्डियाँ मशीन के सामने रख दें तो क्या आपके लेख छ्प सकते हैं?मै किसी दूसरे की संतुष्टि हेतु अपना ईमान क्यों गवाऊ?

अंततः उन्हें मेरे लेख वापिस करने पड़े और विषय-वस्तु के आभाव मे उन्हे अखबार भी बंद करना पड़ा और अपने उसी पुराने प्रतिद्वंदी के हाथों बेच देना पड़ा। उन्हें भी एक दाल मिल मे नौकरी करनी पड़ी। एक प्रकार से संपर्क टूट बराबर गया। यदा-कदा रास्ते मे मुलाक़ात हो जाया करती थी। आजकल 1991 जैसे हालात 'अन्ना','रामदेव','आडवाणी','कांग्रेस के मनमोहन गुट'ने बना कर रख दिये है;ईराक का इतिहास लीबिया मे दोहराया जा चुका है। अतः मैंने अपने उन अप्रकाशित लेखों को 'क्रांतिस्वर' पर प्रकाशित करने का सिलसिला चला रखा है। 

डॉ सुब्रहमनियम स्वामी चाहते क्या हैं?http://krantiswar.blogspot.com/2011/09/blog-post_25.html

यदि मै प्रधानमंत्री होता?http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/blog-post_21.html

 खाड़ी युद्ध का भारत पर भावी परिणाम 1991 का  अप्रकाशित लेख http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/1991-1.htm

उपरोक्त तीनों लेख दे चुका हू और 'सद्दाम हुसैन','जार्ज बुश' आदि कुछ लेख क्रमशः देने हैं। इनमे से डॉ सुब्रहमनियम स्वामी वाले लेख को तो श्री शेष नारायण सिंह जी ने 'भड़ास' ब्लाग पर तथा श्री अमलेन्दू उपाध्याय जी ने 'हस्तक्षेप .काम ' पर भी प्रकाशित किया था। वैसे अधिकांश मस्त-मौला टाईप के लोगों को ये पसंद नहीं आए हैं और आ भी नहीं सकते थे क्योंकि उन्हें 'सत्य' जानने मे कोई दिलचस्पी नहीं होती है। मैंने इन विचारों को भविष्य मे वर्तमान काल का इतिहास लिखने वालों की सहूलियत के ख्याल से इन्हें देना उचित समझा है। 

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सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

आगरा/1990-91(भाग-3 )

1990-91 का काल कई अलग-अलग क्षेत्रों मे अलग-अलग किस्म की हलचलो का काल रहा। जहां नौकरी मे सेठ जी का विवादस्पद केस ससम्मान सुलझ गया। राजनीति मे अचानक नई ज़िम्मेदारी ओढनी पड़ी।'सप्तदिवा-साप्ताहिक' मे मै सहायक संपादक था और उसकी सहकारी समिति मे  शेयर होल्डर भी परंतु प्रधान संपादक जो वस्तुतः उसके मालिक ही थे ने अपने फासिस्ट फाइनेंसर के दबाव मे मेरे लेखों मे संशोधन कराने चाहे जो न करके मैंने लेख वापिस मांग लिए उन्हें अब 'क्रांतिस्वर' पर क्रमशः प्रकाशित कर रहा हूँ।  भाकपा ,आगरा के कोशाध्यक्ष डॉ राम गोपाल सिंह चौहान जो बीमारी मे घर से कार्य-निष्पादन कर रहे थे उनकी तकलीफ बढ़ गई और उन्होने जिला मंत्री रमेश मिश्रा जी के समक्ष प्रस्ताव रखा की उनका चार्ज मुझे दिला दे। हालांकि मै जिला काउंसिल का सदस्य तो था परंतु कार्यकारिणी मे नहीं था। पहले से मौजूद पुराने और तपे-तपाये नेताओं की बजाए  मेरे जैसे चार-पाँच वर्ष पुराने एक छोटे कार्यकर्ता को अचानक एक इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी देने को मिश्रा जी सहर्ष तैयार हो गए और सीधे मेरे घर आकर मुझसे चल कर चौहान साहब को रिलीव करने को कहा। जब मैंने इंकार कर दिया तो उन्होने बाबूजी की ओर मुखातिब होकर कहा आप कह दीजिये। बाबूजी ने मिश्रा जी के जवाब मे मुझ से कहा कि जब सेक्रेटरी साहब का आदेश है और वह खुद चल कर आए हैं तो' तुम अवहेलना' कैसे कर सकते हो?मेरे सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं था। उसी वक्त मिश्रा जी की मोपेड़ पर उनके साथ डॉ चौहान के घर पहुंचे। मै वैसे उनका हाल-चाल पूछने जाता ही रहता था। परंतु मिश्रा जी और मेरे द्वारा उनका सुझाव सिरोधार्य करने पर वह बेहद खुश हो गए। उन्होने अपनी पुत्री डॉ रेखा पतसरिया से पार्टी अकाउंट्स और कैश मुझे दिलवा दिया। उन्होने यह भी आश्वासन दिया कि कभी भी उनका परामर्श मुझे चाहिए तो वह जरूर देंगे,बाकी अकाउंट्स का आदमी होने के कारण कार्य करना मेरे लिए आसान रहेगा, यह भी उन्होने जोड़ दिया। मिश्रा जी ही मुझे मेरे घर पर छोड़ गए। मैंने मिश्रा जी से शर्त कर ली थी कि कोई भी पेमेंट मै उनके(जिला मंत्री)के हस्ताक्षर के बगैर नहीं करूंगा। पहले तो मिश्रा जी ने कहा था कि उन्होने कभी किसी पेमेंट पर दस्तखत नहीं किए है सब डॉ चौहान खुद करते रहे हैं। परंतु बाद मे उन्होने मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया था।


डॉ रामगोपाल सिंह चौहान जब शाहजहाँपुर मे पढ़ते थे तो का .महादेव नारायण टंडन (जो आगरा मे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के संस्थापक माने जाते थे और उन्हीं के नाम पर अब नया पार्टी कार्यालय-का .महादेव नारायण टंडन भवन कहलाता है) उन्हें अपने साथ आगरा ले आए थे और छात्र राजनीति मे सक्रिय कर दिया था उसके बाद आगरा कालेज मे प्रो .रहते हुये वह पार्टी के जिला मंत्री फिर उस समय लंबे वक्त से कोशाध्यक्ष थे। आगरा कालेज की स्पोर्ट्स क्लब मे भी वह सक्रिय थे। आगरा कालेज का स्टाफ बंगला-6,हंटले हाउस सिर्फ डॉ चौहान का निवास ही नहीं था वरन पार्टी की बड़ी,महत्वपूर्ण बैठकें वहीं होती थी। रिटायरमेंट के बाद अपने हिन्दी विभाग मे ही कार्यरत प्रो.डॉ रेखा के नाम उस बंगले को करवा लिया था। डॉ रेखा ईपटा और चौहान साहब की दूसरी नाट्ट्य-संस्था मे भी सक्रिय थीं जिसमे उनके पति विनय पतसरिया, एडवोकेट भी सक्रिय थे।

मैंने डॉ चौहान से प्राप्त अकाउंट्स चेक किया तो पाया कि उनका अपना लगभग रु 2500/-पार्टी पर खर्च हो चुका था क्योंकि वह अपने सेविंग्स अकाउंट के माध्यम से आपरेट कर रहे थे उनके ध्यान मे नहीं आया था। मैंने मिश्रा जी को रिपोर्ट की तो उन्होने पार्टी के आडीटर हरीश आहूजा ,एडवोकेट साहब से आडिट करवाकर चौहान साहब को कैश लौटा देने का आदेश कर दिया। जब डॉ चौहान को रु 2500/-लौटाने मै उनके घर गया तो उन्होने कैश अपनी बेटी डॉ रेखा को सौंपते हुये कहा कि इसी ईमानदारी की वजह से मैंने इसे अपना उत्तराधिकारी चुना था वरना दूसरा कामरेड भी लौटाता यह जरूरी नहीं था,पार्टी फंड की हिफाजत यही कामरेड कर सकता था । उन्हें इलाज पर उस समय खर्च को देखते हुये डूबा धन मिलने से राहत हुई।

क्रमशः........ 

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शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

आगरा/1990-91(भाग-2 )

सेठ जी का इन्कम टैक्स का केस श्रीमती आरती साहनी ने एसेस्मेंट दोबारा करने का आदेश इन्कम टैक्स आफिसर फूल सिंह जी को दे दिया। सारी पुस्तकें सीज करते समय श्रीमती साहनी पैकिंग नोट और इनवाईस बुक्स जमा कराना भूल गई थीं । इसी का फायदा उठा कर वकील साहब ने उन्हे केस इस प्रकार पेश किया कि,शक के आधार पर वह केस दोबारा खोल दें। अब वकील साहब ने मुझ से कहा कि सारी इनवाईसेज इस प्रकार तैयार करनी हैं कि जो स्टाक बेलेन्स शीट मे दिखाया गया है उससे एक जोड़ी जूते का फर्क आ जाये। वस्तुतः ये व्यापारी स्टाक रेजिस्टर तो रखते नहीं हैं और जितना प्रतिशत लाभ दिखाना चाहते हैं उसी के हिसाब से स्टाक घटा या बढ़ा देते हैं। इस मामले मे भी यही था ,अतः रेट घटा कर मात्रा बढ़ा कर बिल दोबारा बनाए गए और स्टाक एडजस्ट किया गया । पूरा प्रकरण काफी दिमाग खाने का था । जब वकील साहब के मुताबिक बिल बुक्स तैयार हो गई तो आई टी ओ साहब के समक्ष पेश की गई। फूल सिंह जी ने अध्यन करके खूब माथा-पच्ची कर ली और कोई गलती न पकड़ सके ,केवल जो अंतर वकील साहब ने जान-बूझ कर डलवाया था वही था और उसे खुद वकील साहब ने ही इंगित कर दिया था। फ़ाईनल एसेस्मेंट के दिन आई टी ओ साहब ने सेठ जी से कहा कि,तुम्हें वकील साहब और अकाउंटेंट अच्छे मिल गए हैं वरना तो तुम बुरी तरह फंस चुके थे,इन दोनों ने तुम्हारी गर्दन बचा ली है अब तुम ही बताओ क्या दण्ड लगाया जाये। वकील साहब ने आई टी ओ साहब को सुझाव दिया कि -बुक्स आफ अकाउंट्स रिजेक्ट कर दें । उन्होने हँसते हुये फैसला लिखा और वकील साहब का सुझाव मानते हुये मात्र रु 10000/-का अर्थ दण्ड लगा कर सूचना अपीलेट कमिश्नर श्रीमती आरती साहनी को भेज दी। एक ईमानदार अधिकारी के रूप मे सख्ती दिखा कर श्रीमती साहनी ने सेठ जी को रिश्वत देने के प्रयास का अच्छा सबक सिखाया था कई वर्ष तक उनकी नींद और चैन उड़ा रहा था। आई टी ओ साहब को जो भेंट दिये होंगे परंतु मुझेऔर जैसा वकील साहब ने मुझे बताया वकील साहब को भी एक बताशा भी नहीं खिलाया जबकि पहले ढाई लाख तक पेनल्टी देने को तैयार बैठे थे।

काम का एक ही प्रभाव था कि अब काम सेठ जी के आदेश पर नहीं मेरे अपनी इच्छा पर निर्भर हो गया था। मै
कम्यूनिस्ट पार्टी के काम से भी दिन मे दुकान से उठ कर बता कर चला जाता था वह मना नहीं करते थे। पहले सिर्फ दूसरे स्टाफ को दीपावली पर गिफ्ट के साथ जूते देते थे अब मुझे भी देना शुरू कर दिया था। कई बार ज्योतिषीय सलाह भी मुझ से कर लेते थे और बात मान भी लेते थे। ...... 

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मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

आगरा /1990-91 (भाग-1 )-फरीदाबाद यात्रा-2

मुजफ्फरनगर से लौटते मे सब के साथ और अनुमिता के जन्म पर केवल यशवन्त के साथ जाने पर छोटे भाई के यहाँ जाने के अनुभव अच्छे नहीं रहे थे। बउआ ने पत्र मे पूछा था कि क्या लड़की मूलों मे हुई है?मैंने पत्रा देख कर उसकी पुष्टि कर दी तो वहाँ बाबूजी ने भतीजी के मूल 54 वें दिन शांत करा दिये थे। यशवन्त के मुंडन तो कमलानगर आगरा मे हुये थे किन्तु उसकी चचेरी बहन के मुंडन फरीदाबाद मे हुये। मेरे इच्छा तो नहीं थी कि फिर वहाँ जाऊ और शायद बउआ-बाबूजी को भी एहसास था कि मै अब नहीं आना चाहता तो उन्होने बहन को झांसी से आगरा हमारे पास रुकते हुये आने को कह दिया। लिहाजा बहन और उनके परिवार के साथ ही हम लोगों को भी जाना ही पड़ा। इस बार भी जी टी नहीं मिली और किसी दूसरी गाड़ी मे बैठे थे। कमलेश बाबू ने दिल्ली से लौट कर आने की बात कही थी किन्तु फरीदाबाद स्टेशन से पहले सिग्नल पर किसी ने चेन खींच दी और तमाम लोग उतर रहे थे ,हम लोग भी उतर गए और समय तथा पैसा बच गया ,केवल एक किलो मीटर पटरी के सहारे पैदल चलना पड़ा।

अनुमिता के मुंडन कार्यक्रम मे मुख्य भूमिका उसके फूफा जी अर्थात कमलेश बाबू की थी। कमलेश बाबू के छोटे भाई दिनेश को भी बुलाया था जो फरीदाबाद मे ही कहीं रहते थे। उस समय वह केल्विनेटर इंडिया मे काम करते थे। दिनेश की पत्नी रीता भी किसी रिश्ते से बाबूजी की भतीजी होती हैं। वे लोग दिन का खाना खा कर शाम तक चले गए थे। अजय के एक मित्र सिंगला साहब (जिनके साथ मिल कर बाद मे उन्होने ठेके पर काम भी शुरू किया) वैसे ही किसी काम से आए थे उन्हें बुलाया नहीं था। उनके मांगने पर एक ग्लास पानी केवल दिया गया ,घर मे मिठाई रखे होने बेटी के मुंडन पर्व को सम्पन्न करने के बाद भी खाली पानी पिलाना अच्छा नहीं लगा और यह बउआ-बाबूजी की अपनी परंपरा के भी विरुद्ध था। वे चुप-चाप तमाशा देखते रहे,सिंगला साहब के जाने के बाद मैंने पूछा तो बउआ ने कह दिया जैसी अजय की मर्जी। लेकिन आगरा मे मै तो अपनी मर्जी चला नहीं सकता था ,मुझे तो उनके हिसाब से चलना पड़ता था। यही गरीब-अमीर का अंतर होता है जो घर-परिवार मे भी बखूबी चलता है।

 दो दिन बाद हम लोग आगरा लौट लिए। दुकान के सेठ जी छुट्टी देने मे हमे कभी भी आना-कानी नहीं करते थे। वेतन और बढ़ाने की मांग पर उन्होने वकील साहब से कह कर कमलानगर निवासी एक और जूता व्यापारी के यहाँ पार्ट-टाईम काम दिलवा दिया। अतिरिक्त श्रम तो करना पड़ा रात्रि  आठ बजे से नौ बजे तक उनके घर अकाउंट्स कर आते थे उनका घर हमारे घर के पास ही था। ये लोग खोजे मुस्लिम थे। खोजे मुस्लिम ईसाई से मुसलमान बने लोग होते हैं उनके नियम अलग होते हैं। रफीक चरानिया साहब के घर बेहद साफ-सफाई थी। उनकी माता जी बाहर के लोगों को घर के बर्तनों मे चाय आदि नहीं देती थीं परंतु मुझे चाय अपने बेटे के ही साथ घर के बर्तनों मे दे देती थीं। रफीक साहब के पिताजी की मृत्यु बस एक्सीडेंट से हुई थी और उन्होने जिक्र किया था कि उनके पिताजी की डेड बाडी सामने होते हुये भी उनकी माता जी से डा सारस्वत  ने अपनी फीस की डिमांड कर दी। चिकित्सक के पेशे मे यह अजीब चरित्र था। अक्सर चिकित्सक मरीज की मृत्यु हो जाने पर अपनी फीस नहीं लेते थे।

रफीक साहब अकेले थे उनकी बहन की शादी हो चुकी थी अतः कई बार उनकी माता जी ने कलकत्ता से रसोगुल्ला के आए टीन के डिब्बों मे से एक-एक मुझे दिये थे। कच्चे केले सब्जी के वास्ते उनके पड़ौसी  द्वारा प्रदान करने पर भी उनकी माता जी ने मुझे दे दिये। वे लोग कर्मचारी के रूप मे नहीं पड़ौसी के रूप मे ही मेरे साथ व्यवहार करते थे। रफीक साहब की शादी होने पर उनकी पत्नी से ही चाय-मिठाई उनकी माता जी ने परोसवाई थी । बाद मे रफीक साहब आगरा से काम समेट कर अपनी सुसराल कलकत्ता चले गए थे। .......... 

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