शनिवार, 14 अगस्त 2010

लखनऊ वापसी क्यों ? --- विजय राजबली माथुर

१९७८ में आगरा में मकान ले कर बस चुकने के बाद क्या केवल पुत्र के आग्रह पर ही वापिस आया अथवा लखनऊ से लगाव पहले से ही था यह बताना भी बेहद जरूरी है.आगरा में १९८६ में राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय भाग लेना शुरू किया और शहर छोड़ने तक २३ वर्षों में सिर्फ एक बार ही दिल्ली प्रदर्शन में गया जबकि लखनऊ प्रदर्शन के हर अवसर का उपयोग लखनऊ आने में किया.एक तो लखनऊ खुद का जन्म स्थान था दूसरे बाबूजी का बचपन और शिक्षा-दीक्षा लखनऊ में होने के कारण लखनऊ का ज़िक्र होता ही रहता  था.डाली गंज में बाबू  जी ने फूफा जी के प्लाट के बगल में मकान बनवाने के लिए ज़मीन भी खरीदी थी लेकिन दोनों ही मकान न बना सकेऔर ज़मीन बेचनी पड़ी.
बाबूजी कालीचरण हाईस्कूल  में पढ़ते थे,खेल कूद में सक्रिय थे.टेनिस में सीनियर ब्वायज एसोसियेशन  के पंडित अमृत लाल नागर जी  के साथ भी बाबूजी खेले हैं और पत्रकार राम पाल सिंह जी  भी बाबूजी के खेल के साथी थे.का.भीखा  लाल जी  तो बाबू  जी के रूममेट  और सहपाठी थे  जो जब तहसीलदार बने   तो बाबूजी का उनसे संपर्क टूट गया.एक प्रदर्शन के दौरान का.भीखा  लाल  जी से मैने भेंट की तो उन्होंने शिकायत भी की कि वह उनसे क्यों नहीं मिलते लेकिन उन्होंने संतोष भी जताया था कि वह खुद न मिले लेकिन अपने बेटे को तो भेज दिया.पुराने लोगों में बेहद आत्मीयता थी.१९३९ में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बाबू जी तो फ़ौज में चले गए थे; भीखा  लाल जी तहसीलदार बन गए थे फिर नौकरी छोड़ कर राजनीती में आगये थे और उत्तर प्रदेश भारतीय कम्मुनिस्ट पार्टी के सचिव भी बने.युद्ध समाप्त होने के बाद बाबू जी खेती देखने के विचार से दरियाबाद आ गये थे.लेकिन वहां भाइयों का अनमना व्यवहार देख कर खिन्न हो गए.सात साल लड़ाई के दौरान पूरा वेतन बाबूजी ने बाबा जी को भेजा उसका भी कोई रिटर्न  नहीं मिला.लड़ाई के दौरान बाबूजी की यूनिट  के कंपनी कमांडर ने लखनऊ में लेफ्टिनेंट कर्नल  हो कर C .W. E. बनने पर बाबू  जी से फिर से नौकरी करने को कहा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया.इस प्रकार हम लोगों को लखनऊ में जन्म से ही रहने का अवसर मिला.जिन लोगों का ,जिन लोगों कि संतानों का बउआ – बाबूजी के प्रति बर्ताव ठीक नहीं रहा उनका कोई जिक्र अपने संस्मरणों में नहीं कर रहा हूँ. जो लोग मेरे माता-पिता के साथ ठीक-ठाक रहे सिर्फ मुझे ही ठुकराया है उनका उल्लेख जरूर किया जा रहा है५ या ६ वर्ष का रहा होऊंगा तब बड़े मंगल पर अलीगंज मंदिर में मैं  भीड़ में छूट गया था.बउआ महिला विंग से गयीं.नाना जी ने अजय को गोदी ले लिया और बाबूजी शोभा को गोदी में लिए थे मैने बाबूजी का कुर्ता  पकड़ रखा था.पीछे से भीड़ का धक्का लगने पर मेरे हाथ से बाबूजी का कुर्ता छूट गया और मैं कुचल कर ख़तम ही हो जाता अगर एक घनी दाढ़ी वाले साधू मुझे गोद में न उठा लेते तो.वे ही मुझे लेकर बाहर आये और सब को खोजने के बाद एक एकांत कोने में मुझे रेलिंग पर बैठा कर खड़े रहे उधर नाना जी और बाबू जी भी अजय और शोभा को बउआ के सुपुर्द कर मुझे ढूंढते हुए पहुंचे और खोते-खोते मैं बच गया.इसी प्रकार जब मामा जी लखनऊ university की ओर से रिसर्च के लिए आस्ट्रेलिया जाने हेतु बम्बई की गाडी से जा रहे थे तो अजय को चारबाग प्लेटफार्म  से कोई बच्चा चोर ले भागा.तुरंत mike से anauncement कराया गया तो घबरा कर उस आदमी ने अजय को ओवर ब्रिज पर छोड़ दिया जिसे मामा जी के छोटे साले ने देखा और गोद में ले आये तभी मामा जी बम्बई के लिए रवाना हुए वर्ना यात्रा रद्द कर रहे थे.मामा जी की बेटी की शादी में शोभा की बड़ी बेटी भी बादशाह बाग़ की कोठियों में खो गयी थी.सब लोग उसे खोज रहे थे और एक धोबी पुत्र रत्ना को साइकिल पर लिए घर-घर पूछ रहा था.मुझे देखते ही रत्ना रोते हुए मेरे पास आगई.लखनऊ में मैं ,भाई और भांजी खोते-खोते बचे.लखनऊ खोने की नहीं पाने और मिलने की धरती रही है.बाबु जी नहीं बना सके लखनऊ में मकान तो आगरा से हट कर मैं बस गया जो बाबू जी का सपना था मैंने पूरा कर दिया।
Typist-Yashwant
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फेसबुक पर प्राप्त कमेन्ट :19 मई 2015 ---

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शनिवार, 7 अगस्त 2010

लखनऊ में बीता बचपन --- विजय राजबली माथुर

मामा जी के साथ 


न्यू हैदराबाद के एक स्कूल में भी कुछ समय गया और हुसैन गंज कि राष्ट्रीय पाठशाला में भी पढ़ा तथा बहुत कम समय दुगांवा में रहने का कुछ भी याद नहीं है.हुसैन गंज में नाले के पास बनी फखरुद्दीन मंजिल के एक हिस्से में जब आकर रहे तभी पहले बाबु जी का विचार बंगाली ब्वायज  स्कूल में भेजने का था लेकिन फिर डी पी निगम गर्ल्स  जू हा.स्कूल में दाखिला करा दिया जहाँ दूसरी से चौथी क्लास तक पढ़ा.शिक्षा का माहौल अच्छा था,सिलाई और संगीत की भी शिक्षा दी गयी.संगीत की क्लास में लड़कों को गेंद और लड़कियों को रस्सी कूदने का खेल भी कराया जाता था.चौथी क्लास में कुछ समय तक वृद्ध  बंगाली पुरुष गणित  पढाने आये जो गलत करने वाले लड़के और लड़कियों दोनों को बुरी तरह स्केल से पीटते थे उन्हें बहुत जल्दी हटा दिया गया.प्रभात कमल श्रीवास्तव नामक एक साथी से बहुत प्रगाढ़ता हो गयी थी उसके पिता जी शायद डॉक्टर थे इसलिए वह कभी कभी विजय मेडिकल हाल और बगल के खद्दर भण्डार में हमें भी साथ ले जाता था.सिर्फ उसीके साथ ही बऊआ मुझे और छोटे भाई अजय को भेजती थीं.वह अक्सर सरकारी दफ्तर में लगी जंगल जलेबी तोड़ेने के लिए खड़ी जीपों पर भी चढ़ जाता था।

आज सड़कें चौड़ी हो गयी हैं लेकिन बड़े डिवाइडर भी लग गए हैं तब हम लोग स्कूल जाते आराम से सड़क पार कर लेते थे तब ये डिवाइडर नहीं थे शायद उनकी जरूरत भी नहीं थी लोग नियमों का पालन करते होंगे.बर्लिंग्टन होटल में ही पोस्ट ऑफिस था दोनों भाई जाकर पोस्ट कार्ड  वगैरह बड़े आराम से ले आते थे और सड़क के उस पार हलवाई से किसी मेहमान के आने पर समोसा वगैरह भी ले आते थे.तब समोसे का रेट एक आना था.आज जितने  रु.में एक समोसा मिलता है तब ४८ मिल जाते.सदर में राम लीला देखने या अमीनाबाद पैदल ही जाते थे कहीं सड़कों पर परेशानी नहीं होती थी.सबसे छोटे होने के कारण बहन शोभा को तो बऊया बाबूजी गोदी में ले लेते थे,हम दोनों भाईयों को पैदल सड़क पर चलने या पार करने में कोई परेशानी नहीं हुई।

१९६० में जब जी.पी.ओ.तक बढ़ का पानी आ गया था तब हमारी भुआ,फूफाजी सपरिवार अपने सप्रू मार्ग के मकानमें ताला लगा कर आ गए और बाढ़ उतरने के बाद ही वापिस गए थे.उन दिनों हर इतवार को बाबू  जी मेरे लिए ५ पैसा कीमत का ''स्वतंत्र भारत'' ले देते थे.हमारे फुफेरे भाईयों को यह अच्छा नहीं लगता था.उनमें से छोटे वाले हमारी ही कोलोनी में सिर्फ १ कि.मी.कि दूरी पर रहते हैं लेकिन जो फासला एक अमीर एक गरीब के साथ रखता है वही वह भी रख रहे हैं-अब भूल चुके हैं कि कभी हमारे घर पर बाढ़ पीड़ित बन कर भी रहे थे।

मामा जी की गोद में

न्यू हैदराबाद में हमारे मामाजी डाक्टर कृपा शंकर माथुर भी रहते थे उनके घर,भुआ के घर और बाबू  जी के मामाजी के घर ठाकुरगंज भी हम लोग जाते थे.बाबु जी के ममेरे भाइयों में एक श्री गंगा प्रसाद जलेसरी नामी वकील और एक श्री दुलारे लाल माथुर I.A.S.का व्यवहार बाबू  जी के साथ मधुर रहा.हमारे ममेरे भाई भी यहीं शहर में हैं लेकिन रिश्ते निबाहने में वही दिक्कत है जो दौलतमंद महसूस करते हैं.निवाज गंज में बाबू  जी के फुफेरे भाई स्व.रामेश्वर दयाल माथुर रहते थे उनका भी मधुर व्यवहार बाबू  जी के साथ था.ताई जी (बाबु जी की फुफेरी भाभी) ने तो मेरे छुटपन में मेरे बीमार पड़ने पर अस्पताल की काफी दौड़-धूप की और बऊआ को ज़रा भी तकलीफ नहीं होने दी.१९६१ में बाबू  जी का तबादला बरेली हो गया तो  लखनऊ शहर छूट गया.

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मंगलवार, 3 अगस्त 2010

लखनऊ तब और अब ------ विजय राजबली माथुर

जन्म से १९६१ तक लखनऊ में रहने के बाद गत वर्ष अक्टूबर,२००९ में पुनः लखनऊ वापसी हुई.तब से अब तक के लखनऊ में न केवल क्षेत्रफल की  दृष्टि से बल्कि लोगों के तौर तरीकों और आपसी व्यव्हार में भी बेहद तब्दीली हो चुकी है.१९८१ में जब करगिल में नौकरी के सिलसिले में था तो टी बी अस्पताल के सीऍमओ साः ने बोली के आधार पर कहा था कि क्या आप लखनऊ के हैं.९ वर्ष कि उम्र में शहर छोड़ने के बीस सालों बाद भी बोली के आधार पर मुझे लखनऊ से जोड़ा गया था.लेकिन ४९ साल बाद वापिस लखनऊ लौटने पर यहाँ के लोगों ने मुझे बाहरी माना है.तब हुसैन गंज में रहता था,मुरली नगर के डी पी निगम गिर्ल्स जू.हाई स्कूल  में पढता था और अब कचहरी से लगभग १० कि मी दूर नई कोलोनी में रहता हूँ.लखनऊ की नई कोलोनियों में लगभग ८०% लोग बाहर  से आकर बसे हैं और लखनवी तहजीब से कोसों दूर हैं वे ही मुझे बाहरी मानते हैं.अपने नजदीकी रिश्तेदार भी मेरे लखनऊ  वापिस आ जाने से असहज महसूस कर रहे हैं.हकीकत यह है कि अपना ३१ वर्ष पुराना जमा-जमाया मकान बेच कर उसके आधे से भी छोटा मकान लेकर नयी कोलोनी में रहना उनको भारी अखर गया है जब कि अपना पहला मकान भूखे रहकर या,चना-परमल पर भी गुज़ारा करके १५ सालों में  किश्तें चुका  कर बना पाया था और उसी को बेच कर बहुत छोटा सा महंगा मकान मिल पाया है. कहीं से भी किसी से भी एक चुटकी धूळ या एक भी गिट्टी खैरात में लेकर या उधार में ले कर गुजारा  नहीं किया,यही उन दौलत वालों को खटकता है.लोगों को ईमानदारी और मेहनत से गुज़र-बसर करना सुहाता नहीं है और वे पेशे पर हमला करते हैं.जो ज्योतिषी बेईमानी,ढोंग और पाखण्ड पर चलते हैं उन्हें भी मेरा मानदारी और वैज्ञानिक आधार पर  चलना नहीं सुहाता है.यह सब लखनवी कल्चर के खिलाफ है लेकिन लखनऊ उन्हीं का है

photo by mr.kartik mathur

लखनऊ से बरेली वहां से शाहजहाँपुर जहाँ से सिलिगुरी फिर शाहजहाँपुर और मेरठ रहकर आगरा पहुंचे और अपना मकान बना कर बस गए.मेरठ कॉलेज में पढाई के दौरान छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष( सत्यपाल मलिक साहब )  से  शायर फ़िराक गोरखपुरी का यह कथन सुनकर आगरा बसने का फैसला किया था की,यू .पी.में जितने आन्दोलन मेरठ -कानपुर डायगोनल  से शुरू हुए विफल रहे जबकि बलिया-आगरा डायगोनल  से शुरू आन्दोलन पूरे यू.पी. में छा कर देश में भी सफल रहे.आगरा के अब के लोगों में वह राजनीतिक  समझ नहीं देखी  उनकी बेरुखी और पुत्र के आग्रह के कार पुनः लखनऊ आने का फैसला किया, अभी तो पूरी तरह सेटल भी नहीं हो सके हैं –देखते हैं की क्या यहाँ रह कर देश के लिए कोई राजनीतिक योग दान दे सकता हूँ या नहीं. " जननी जन्मभूमिश च स्वर्गादपि गरीयसी” कहा तो जाता है लेकिन मेरी जन्म  भूमि लखनऊ और यहाँ के लोग मुझे देश- समाज के हित में कुछ करने देने में कितना सहयोग करते हैं – यही देखना – समझना बाकी है.उम्मीद छोड़ी नहीं है.

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 १३ अप्रैल २०११ को 'हिन्दुस्तान' लखनऊ में छपा आदरणीय के. पी. सक्सेना साहब और १७ अप्रैल २०११ को सैय्यद हैदर अब्बास रजा साहब  के कथन से भी लखनऊ वासियों के चरित्र में बदलाव की पुष्टि होती है -







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