बुधवार, 30 मार्च 2011

आगरा में १९७५

इमरजेंसी के दौरान बगैर किसी सोर्स और फ़ोर्स के आयी .टी.सी.के निर्माणाधीन होटल मोगुल ओबेराय में जाब मिलने तथा प्रोजेक्ट में कमर्शियल मेनेजर बदल जाने का विवरण पहले दे चुके हैं.यह खन्ना सा :पहले सिगरेट कं.में क्लर्क के रूप में भरती  हुए थे और तरक्की करते -करते इस मुकाम तक पहुंचे थे.अवकाश ग्रहण करने के बाद भी कं .ने ससम्मान उन्हें होटल डिवीजन के गठन के समय बुलाया हुआ था और आगरा में स्थानांतरित कर दिया था.वह कहते थे'-दिस इज नाट ए हिन्दुस्तानी छकड़ा कं.'अगर यहाँ जम गए तो भविष्य सुनेहरा है.५ बजे सायं ड्यूटी समाप्त होने बाद भी कभी-कभी तो ९ -१० बजे रात तक रुक कर कार्य करना पड़ता था.धन तो नहीं परन्तु पूरा मान- सम्मान वह देते और दिलाते थे.इलेक्ट्रिकल इंजीनियर द्वारा डुप्लीकेट बिल पास कर दिया गया और चेकिंग में पकड़ने पर जब वह भड़क गए तो खन्ना सा :ने खुला समर्थन मुझे देकर उन्हें आगे से सचेत रहने को कहा था.इसी प्रकार हार्टीकल्च्रिस्ट सरदार कमल जीत सिंह का पास किया गलत बिल पकड़ने पर भी मुझे खन्ना सा :का समर्थन तो मिला ही सरदार जी ने अफसर होने के बावजूद मुझसे मित्रवत संपर्क बना लिया तब उनकी देखा-देखी बलबीर सिंह यादव जी ने भी वैसा ही किया.इन दोनों अफसरों ने यह कहा आगे से गलती पकड़ना तो सीधें  हमें बताना हम खुद ही ठीक करा देंगे.सिक्यूरिटी आफीसर जगदीश चन्द्र चौधरी सा :डी.एस.पी.इंटेलीजेंस की पोस्ट से तभी-तभी रिटायर होकर आये थे और बेहद रौब में रहते थे.एक बार खन्ना सा :और प्रोजेक्ट मेनेजर दोनों की गैर हाजिरी में मुझसे कोई अर्जेंट पेमेंट विदाउट अप्रूवल करने को दबाव बनाने लगे की मैं इंटेलीजेंस में रहा हूँ सब मुझ से दबते हैं -तुम मुझ से कानूनी बात मत करो और चुप-चाप पेमेंट दे दो. मैंने नियम विरुद्ध भुगतान  नहीं किया और उन्होंने खन्ना सा :के आते ही मेरी शिकायत करके नौकरी से हटाने की सिफारिश कर दी.खन्ना सा :ने मजबूती से मेरे कदम का समर्थन किया और भविष्य के लिए यह समाधान दिया -जब अप्रूव करने वाला कोई मेनेजर न हो और किसी दुसरे अफसर को रु.की जरूरत हो तो उन अफसर को I .O .U .लिखवा कर वांछित रकम मैं दे दूं और यह रुक्का कैश माना  जाएगा बिल उस अफसर को पास कराकर देना ही होगा.बिल न देने पर यह उस अफसर का पर्सनल एडवांस माना जाएगा.

एक बार कं.की और अटैच्ड दोनों कारें कहीं गयीं हुईं थीं और अर्जेंट कैश छीपी -टोला स्थित स्टेट बैंक से लाना था जो लाख से ऊपर की रकम थी.खन्ना सा :ने सिक्यूरिटी आफीसर चौधरी सा :को बुला कर उनके पर्सनल स्कूटर पर मुझे उनके साथ कैश लाने भेजा.उस दिन  से चौधरी सा :मेरे अभिन्न मित्र बन गए. जब कभी मुझे समय मिलता या लंच समय में (क्योंकि मैं घर से खा कर जाता था और वहां नहीं खाता था)चौधरी सा :के पास बैठता था ऐसा उन्होंने ही कहा था और खन्ना सा :का भी समर्थन था.लेखा -विभाग,पुलिस और इंटेलीजेंस की गतिविधियों तथा कार्य शैली पर उनसे चर्चा चलती थी.वह जो रिपोर्ट प्रोजेक्ट मेनेजर को देते थे मुझे पढवा देते थे.इस प्रकार यह एक और ट्रेनिंग मुफ्त में होती गयी.चौधरी सा :के पास इंटेलीजेंस के इन्स्पेक्टर लोग आते रहते थे उनसे भी उन्होंने परिचय करवा दिया था.जब तक आगरा में रहे इस परिचय का पूरा लाभ मिला.

शोभा की शादी के लिए बाबूजी ने राशन दफ्तर में परमिट के लिए अर्जी दी थी और यह जानते हुए भी कि वह डिफेन्स एम्प्लाई हैं वहां रिश्वत माँगी जा रही थी.मैंने चौ.सा :से कहा और उन्होंने इंटेलीजेंस इन्स्पेकटर  से एवं परमिट मुझे उन इंटेलीजेंस इन्स्पेक्टर ने ला कर दे दिया एक पैसा भी रिश्वत नहीं देनी पडी.मुझे तीन दिन से ज्यादा की छुट्टी नहीं मिली ,अभी ज्वाईन किये पूरे दो माह भी नहीं हुए थे.हाँ ड्यूटी पर ज्यादा देर नहीं फालतू रोका.प्रोजेक्ट का काम काफी तेजी से चल रहा था इसलिए रात को शादी के वक्त कोई नहीं आया ऐन शादी के रोज दोपहर में सुदीप्त मित्र हाजिरी लगा गए थे.भुआ-फूफा जी और दोनों भाभी जी (देवेन्द्र भाई सा :एवं लाखेश भाई सा :की पत्नियाँ )चार दिन पहले आ गए थे.मामा जी -माईं जी दो दिन पहले आये उन्हीं के साथ बाबू जी के एक भतीजा भी आये थे जिन्हें पग -धुलाई करना था.पग -धुलाई में उन्हें जो सूट शोभा की सुसराल से मिला उसे फूफा जी के उकसावे पर घटिया बता दिया.

भुआ ने मंजू भाभी जी (लाखेश भाई सा :जिनका घर अब हमारे घर से मात्र एक कि.मी.होगा और अब अमीरी के नशे में हमसे संपर्क नहीं रखते हैं की पत्नी)की तारीफों के पुल बांधते हुए ब्रेड की बर्फी उनसे बनाने को कहा. डेरी से लाया दूध स्टोव पर चढ़ा कर वह कहीं इधर-उधर हो गयीं और काफी दूध उबल कर बर्बाद हो गया.फिर बंदोबस्त करके दूध लाये और तब ब्रेड की बर्फी बनी जिसे रंजना मौसी (जो शोभा की जेठानी भी हैं  )को छोड़ कर किसी ने भी पसंद नहीं किया और फफूंद कर बर्बाद हो गई.फूफा जी ने मंडी से बैगन ला कर रख दिए वह सब्जी भी नहीं पसंद की गई.भुआ ने बरात की विदा के समय ठोस नाश्ता नहीं देने का प्रोग्राम बनवा दिया नतीजतन ऐन वक्त पर मामा जी को खुद हलवाई के साथ जुट कर कुछ ठोस नमकीन सिकवाना पड़ा.

मैंने रु.२७५ (एक माह का वेतन)में एक आल परपज फैन(जो छत ,दीवार और मेज सब पर इस्तेमाल हो सकता है)गिफ्ट में दिया था.अजय जो पढ़ रहे थे और जिनका कुछ माह पहले भीषण  एक्सीडेंट हुआ था कमजोर और चिडचिडे भी थे अपने मिले-मिलाये रु. से एक टाईम पीस घड़ी खरीदी थी जिसे मामाजी ने बाबूजी से कमलेश बाबू को दिलवा दिया और अजय का कोई गिफ्ट न रहा;उस पर वह भड़क गए और विदा के समय बहन-बहनोई को छोड़ने बाहर तक नहीं आये.बाद में माईं जी ने पोट-पाटकर राजी किया.लता मौसी की शादी में १९६९ में शाहजहांपुर में भी अजय के भड़कने पर उन्हीने रजामंद किया था और आज हमसे जो कट-आफ किये हुए हैं वह भी उन्हीं के इशारे पर ही. शोभा की शादी तो शाह गंज में मकान लेकर हुयी थी फिर रुई की मंडी में शिफ्ट हो गए  थे.शायद अजय ही अलीगढ़ बहन को बुलाने गए थे.यह मकान रेलवे फाटक के पास था यहाँ से बाबू जी का दफ्तर नजदीक था वह और मैं अलग-अलग दिशाओं में ड्यूटी जाते थे अपनी-अपनी साईकिलों से.

मकान मालिक पोपली सा : पोस्ट आफिस से रिटायर्ड थे और अच्छे व्यक्ति थे.उनके एक मित्र हमारे होटल में सब कंट्राक्टर थे.वह मुझे एक सौ रु. माहवार भुगतान करके अपने बिल विदाउट चेकिंग पेमेंट करवाना चाहते थे. मैंने पोपली सा :को स्पष्ट इनकार कर दिया न तो ऐसा पैसा लूँगा न आँख बंद कर पेमेंट करूंगा. परन्तु पोपली सा :ने बुरा नहीं माना.आज की बात होती तो मकान खाली करने को कहा जाता.जनवरी १९७६ में शोभा को उनके देवर अलीगढ़ बुला ले गए .बाकी फिर.........


 














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गुरुवार, 24 मार्च 2011

आगरा में आ गिरा

आगरा के लोगों को अक्सर यह कहते सुना -जिसे कही कोई और ठौर न मिला वह आगरा में आ गिरा.हो सकता है मुझे मेरे बेरोजगार होकर आने के कारण यह सुनाया जाता हो.मैं तो आगरा के भौगोलिक और ऐतिहासिक महत्त्व के कारण ही चला आया था ,वर्ना मेरठ में रुक कर ही जाब पा सकता था,अजय भी बीमारी से उठे थे-कमजोर थे और शोभा को कुछ ही समय में सुसराल चले जाना था अतः माता-पिता को भी मुझ से सहयोग मिल जाए यह भी मन में था.

मकान मालिक खुद अशोक नगर में रहते थे और नगर निगम में सर्विस करते थे.कालोनी में कायस्थ और ब्राह्मणों में नाम को लेकर रस्साकशी थी.कायस्थों ने उसका नामकरण 'चित्रगुप्त कालोनी'रखा था और इसी पते से डाक आ जाती थी.ब्राह्मणों ने'जनकपुरी' 'नामकरण कर रखा था.कुछ समय द्वन्द चला फिर नगर निगम ने जनकपुरी ही मान्य किया.उसी कालोनी में तब तक श्मशान घाट भी चल रहा था.वैसे ए.डी.ए .के मकान बउआ  को पसंद थे और मुझ से कहती थीं की अपना ले लो.फिलहाल मेरा लक्ष्य पहले नौकरी ढूंढना था.वाचनालय जा कर अखबारों में टटोलना और साक्षात्कार देते जाना यही कार्य था-सोर्स थी नहीं.

आई.टी.सी.का Hotel Moughul Oberay बन रहा था उनके लेखा विभाग के लिए एप्लाई कर दिया .१५  सितम्बर १९७५ को लिखित टेस्ट का बुलावा मिला जो हुआ१६ को. इन्टरवियू लेटर मिला  १८ को इस हेतु पहुंचे.२० टेस्ट देने वाले( जिनमें कास्ट अकौन्टेंसी में इंटर पास तथा सिंधी भी थे) लोगों में से सिर्फ चार को बुलाया गया था और वे चारों कायस्थ थे ,सीट दो ही थीं.प्रोजेक्ट कमर्शियल मैनेजर श्री एन.के.कानूगा ने खुद सिंधी होते हुए भी उन सिंधी उम्मीदवारों को फेल होने पर २० ता.के  इन्टरवियू में नहीं बुलाया था.सर्वश्री विनोद श्रीवास्तव एवं सक्सेना के पास अनुभव नहीं था,उन्हें नहीं लिया गया.श्री सुदीप्तो मित्रा के पास कुछ माह का अनुभव था उन्होंने ०१ अक्टूबर से ज्वाईन करने को कहा.मेरे पास सवा तीन साल का अनुभव था और बेरोजगार था;सोमवार २२ सितम्बर से ज्वाईन करने का आश्वासन दे दिया .कानुगा सा :चाहते थे मैं उसी दिन ज्वाईन कर लूं,वहां से लौटते में टक्कर रोड पर पी.डब्ल्यू.डी.क्वार्टर में रानी मौसी से मिलने गया था वह भी बोलीं तुमने गलती की आज शनिवार को ही ज्वाईन कर लेते.शाम को दफ्तर से लौट कर बाबूजी ने भी यही कहा आज ही ज्वाईन करते तो ठीक था.वस्तुतः ऐसी मान्यता है कि शनिवार को प्रारंभ किया काम लम्बा चलता है इसलिए नौकरी के लिए शनिवारी ज्वाईनिंग शुभ मानी जाती है.परन्तु जब सरू स्मेल्टिंग,मेरठ में मैं सोमवार १५ मई १९७२ को ज्वाईन करने की कह कर आया तब से अब तक मुझ से यह बात बाबूजी ने कही नहीं थी,वर्ना मुझे कोई दिक्कत न होती.और यह भी हो सकता है कि सरू स्मेल्टिंग ,मेरठ में शनिवार को ज्वाईन करता तो वहीं से रिटायर होता और आज भी वहीं होता.या फिर शनिवार को होटल मुग़ल,आगरा ज्वाईन करता तो २०१० में वहीं से रिटायर होता,मकान वहीं बन ही गया था.
यदि ,किन्तु,परन्तु न हों तो कोई भी क्या से क्या न बने. यदि अवरोध और बर्खास्तगीयों का सामना न करता ,लोगों के तीखे विरोध सामने न होते तो जैसा था वैसा ही रह गया होता.इन थपेड़ों ने एक मामूली से क्लर्क को 'विपत्ति के विश्वविद्यालय'में पढ़ा कर लेखक,ज्योतिषी एवं राजनीति का सिपाही बना दिया है.आज जब एन .डी .टी.वी.के रवीश कुमार जी इस ब्लाग को 'हिंदुस्तान'में स्थान देते हैं या दूसरे ब्लाग 'क्रांति स्वर 'को 'जन सन्देश टाईम्स'में जाकिर अली'रजनीश' जी स्थान देते हैं तो शायद उन परिस्थितियों में सम्भव न होता.मेरे पास कहने-लिखने लायक कुछ नहीं होता.'रजनीश'जी के ब्लाग पर आज जब फासिस्ट ब्लागर्स मेरी आलोचना करते है तो सिद्ध होता है कि वस्तुतः क्रांति एवं विद्रोह लायक कुछ तो बात मेरे अन्दर भी है ही वर्ना इतने महान विद्वान मेरा नाम भी लेना क्यों पसंद करते?

जब १९७३ में २१ वर्ष की उम्र में 'पी.सी.टाईम्स',मेरठ में लिखना शुरू किया तो शौकिया ही था.अखबार के प्रबंधक मिश्र जी ने सम्पादक महोदय द्वारा सन्देश देकर मिलने को बुलाया था तो मुझसे पूंछा था-'आपने साहित्य में एम्.ए. किया है या राजनीति में?'मैंने सहज उत्तर दिया था सा :मैंने तो एम्. ए .ही नहीं किया है बी.ए .करके नौकरी में आ गया.उन्होंने कहा था-लेखन में डटे रहो हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है.बुजुर्गों के आशीर्वाद व्यर्थ नहीं होते हैं ,शायद ये आशीर्वाद ही सम्मान दिला देते हैं.लेकिन विरोधियों की भूमिका इन आशीर्वादों से भी ज्यादा मानता हूँ ,यदि विरोध न हो तो मुझे पता कैसे चले कि मुझे मान दिया गया था.क्रिटिकसिज्म रूपी टार्च की लाईट मुझे आगे बढ़ने का रास्ता दिखाती रही है और इस रोशनी की निरन्तर जरूरत बनी रहेगी.

२२ सितम्बर ,१९७५ सोमवार के दिन ठीक ०९ बजे मैं हाजिर था ,मेरा एप्वायीन्मेंट लेटर भी तैयार था जिसे प्राप्त कर मैंने ज्वाईनिंग दे दी.पहले दिन कानुगा सा :ने हाफ डे में ही घर भेज दिया और कहा वैसे ड्यूटी के बाद भी रुकना पड़ेगा. वह बहुत नेक इंसान थे,परन्तु जो भले होते हैं उन्हें ही तो समस्याओं का सामना करना पड़ता है.कानुगा सा :को हार्ट अटैक पड़ा और वह घर से ही काम देखने लगे. मैं कागजात लेकर जाता था ,काम देख कर वह खुश थे लेकिन उनको अफ़सोस इस बात का था कि मुझे वेतन रु.२७५ मात्र ही दिया था और मित्रा जी को रु.३०० कारण सिर्फ यह था वह एक्सपेरिएंस सर्टिफिकेट ले आये और मैं एक बर्खास्त कर्मचारी कहाँ से लाता.उन्होंने बाद में कम्पेन्सेट करने को कहा.लेकिन बीमारी के बीच ही उन्हें कं.ने दूसरी जगह ट्रांसफर कर दिया.उनकी जगह श्री राजा राम खन्ना ,रिटायर्ड कमर्शियल मैनेजर ,सहारनपुर  फैक्टरी भेजे गए .वह भी अच्छे आदमी थे.उनसे बहुत काम सीखा जो आगे बहुत काम आया.विस्तार से अगली बार.........













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शनिवार, 19 मार्च 2011

क्रान्ति नगर मेरठ में सात वर्ष (१८)

मेरठ की सर्विस के दौरान ही अजय को देखने आगरा गया था तो बाबूजी अपने साथ दिल्ली मिथलेश जीजी की शादी में ले गए थे.वह बाद में आगरा लौटे और मैं मेरठ चला आया था.हालांकि मौसी के बाद यह शादी हुयी थी,परन्तु उनकी दो देवरानियों ने मौसी की ही भांति बर्ताव किया था;एक तो बउआ और मौसी की मौसेरी बहन थीं ही.माईं जी से मिलने वीरेंद्र चाचा(बाबूजी के चचेरे भाई जो माईं  जीके मौसेरे भाई भी हैं)आये थे ;मैंने उन्हें पहचान कर बाबूजी को बताया था.अगले दिन वह माडल टाउन अपने घर सुबह के नाश्ते पर बुलाकर ले गए.उस समय वह सेन्ट्रल सेक्रेटेरियेट में प्लास्टिक एंड केमिकल्स सेल में उच्चाधिकारी थे.

लाल भाई सा :के चचेरे भाई श्री बी.बी.माथुर ने  जो सेन्ट्रल बैंक में थे अपने सहपाठी डॉ जायसवाल का हवाला दिया था जिनका क्लीनिक सरू स्मेल्टिंग की बिल्डिंग में किराए पर था और उनका कं.से विवाद चल रहा था.डॉ.जायसवाल ने मुझे बताया था उस कं.के संस्थापक सेठ शीतल प्रसाद जैन पहले ठठेरा थे और सर पर रख कर बर्तन बेचा करते थे.डॉ. सा :के पिताजी सेठ जी को तब ब्याज पर रु. उधार दिया करते थे जिनके न रहने पर उन्होंने उनका सारा धन हड़प लिया और सेठ बन गए.डॉ. सा :को एक कमरा क्लीनिक चलने को तब दिया था और उनकी प्रेक्टिस जम जाने के बाद सेठ जी के बेटे उन्हें बेदखल करना चाहते थे.सेठ जी के सात बेटे थे जिनमें आपस में टकराव रहता था.मेरे वहां  से चले आने के बाद सुना था वह कं.उन भाईयों  में अलग -अलग टुकड़ों में बटी . 
सेल्स विभाग में श्री रमेश गौतम मेरे ज्वाईन करने के वक्त सेल्स ट्रेनी थे.यह मेरे साथ मेरठ कालेज में इकोनामिक्स की क क्षा  में साथ थे.मेरठ कालेज के पूर्व प्राचार्य के यह पुत्र थे और आर्मी से शार्ट सर्विस कमीशन  पूरा  करके कैप्टेन की पोस्ट से आये थे.मेरे कं. छोड़ते वक्त यह सेल्स एक्जीक्यूटिव हो गए थे ;मार्केटिंग डायरेक्टर श्री नरेश चन्द्र जैन के साथ यह आर्मी में जाने से पूर्व पढ़े थे.बाद में इन्हें दिल्ली दफ्तर का हेड बना दिया गया था.नरेश जी के एक और साथी डा.शेखर थे जिन्होंने मेरी हाथ की दसों उँगलियाँ पक जाने पर बिना फीस लिए दवाएं प्रेस्क्रायीब की थीं.फायदा हो जाने  के बाद दस दिन एक्स्ट्रा दवा खाने का उन्होंने परामर्श दिया था.

१९७१ की बाढ में शराब का घपला करके मोहन मीकिंस ,लखनऊ से बर्खास्त हुए श्री के.पी.गर्ग ,सी.ए.कं. के इंटरनल आडीटर बन गए थे वह कभी इसी कं. में लेखाकार रहे थे.उन्होंने अपने साले श्री ब्रिज मोहन साहनी  को कास्ट लेखाधिकारी बनवा दिया जिन्होंने अपने और रिश्तेदारों को भरने हेतु पहले मुझे और बाद में गौड़ सा :को हटवाया.सस्पेंशन पीरियड में ओमेश कालिया जी के मित्र के साथ जब दिल्ली जाते थे तो वीरेंद्र चाचा  से भी दफ्तर में मिलते थे.उन्होंने दूसरी जगह नौकरी दिलाने का वायदा किया भी था ,लेकिन २६ जून को इमरजेंसी लग गयी.उस दिन भी दिल्ली में थे ,सड़कों पर सन्नाटा था.दोपहर में ही वापिस मेरठ लौट आये जबकि हमेशा प्रातः उस पेसेंजर से जाते थे जो सिटी स्टेशन से केन्द्रीय कर्मचारियों के लिए चलती थीऔर लौटती उसी गाड़ी से लौटते थे.कैंट स्टेशन से सिटी स्टेशन तक रेलवे पटरी के सहारे -सहारे पैदल ही जाते थे.दोनों जनों को पैसों की दिक्कत थी लिहाजा कोई वाहन नहीं पकड़ते थे.चूंकि पेसेंजर में लोग एम्.एस.टी.वाले होते थे कोई चेकिंग नहीं होती थी. सब कर्मचारी मिनटों ब्रिज उतारते थे हम लोग भी वहीं उतर जाते थे.सचिवालय तो पास ही पड़ता था.ट्रेन में  बिना टिकट चलने का अनैतिक कार्य कालिया जी के संघी साथी के सौजन्य से संपन्न होता था.आपात काल में भी एक-दो बार जाना हुआ.

मुझे तो वीरेंद्र चाचा के माध्यम से नौकरी नहीं मिली परन्तु मौसा जी ने गोपाल को उन्हीं के जरिये जाब दिलवा दिया.मुझे आगरा लौटना मजबूरी थी क्योंकि बाबूजी से पैसे  मंगा कर मेरठ टिके रहना उचित नहीं लगा.कभी-कभी मौसा जी से भी मिलने चले जाते थे.मौसी के न होने पर भी एक बार मौसा जी ने रोक लिया और रात का खाना खुद बना कर खिलाया था.महेश जो अब जीवित नहीं हैं ने उन्हें रोटी बेल कर दीं थीं.उस बार रात १२ बजे मेरठ कैंट पर उतरे थे.मेरा कमरा बाहर से बंद होता था ,अतः माकन-मालिक को परेशानी तो नहीं हुयी ;परन्तु अगले दिन उन्होंने पूंछा कैसे देर हो गयी.बताने पर उन्हें इत्मीनान हुआ

अब  मेरठ में और अधिक रुकने का कोई औचित्य नहीं था.मैंने बाबूजी को लिख दिया था शनिवार २८ जून को चल कर पेसेंजर से २९ की सुबह आगरा पहुंचूंगा.सारा सामन साथ था और तोता का ताल वाला मकान  छोड़ कर बाबूजी जिस मकान  में शिफ्ट हुए थे उसका नं.एवं कालोनी का मुझे पता नहीं था.यदि मेरा लेटर  समय से न पहुंचे तो बाबूजी का स्टेशन पहुंचना भी संभव न हो यह जोखिम थी.उस सूरत में उनके दफ्तर से भी पता चलना मुश्किल होता कारण रविवार होना. बहरहाल मेरठ कैंट से पुराणी दिल्ली और गाड़ी बदल कर फिर आगरा कैंट पहुंचे.स्टेशन पर बाबूजी मिल गए थे.

सवा तीन वर्ष नौकरी करने के बाद सवा तेईस वर्ष की उम्र में बेरोजगार हो कर आगरा -माता-पिता के पास पहुंचे.१९७५ से ०८ अक्टूबर २००९ तक कोई  चौंतीस वर्ष से अधिक आगरा में रहे.अर्थात एक चौथाई शताब्दी से भी अधिक समय जो आगरा में गुजरा उसका वर्णन होली के बाद.फिलहाल आप सबों को होली की बहुत-बहुत मुबारकवाद...........









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बुधवार, 16 मार्च 2011

क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष (१७) ---विजय राजबली माथुर

यूं तो मैं जून 1978 तक  तक मेरठ में था और सस्पेंशन पीरियड में दिल्ली में अपने एक चाचा से कहीं और सर्विस दिलवाने के सम्बन्ध में मिलता रहा ;उस सिलसिले का जिक्र बाद में.अभी जो व्यक्तिगत -राजनीतिक बातें मेरठ में रहते हुए वर्णन करने से रह गईं थीं उनका विवरण देना चाहूँगा.११ -१२ वर्ष की उम्र में शाहजहांपुर में नानाजी के साथ सभी राजनीतिक दलों की सभाओं में गया और सभी नेताओं को सुना फिर १९६७ में सिलीगुड़ी में प्रधानमंत्री इंदिराजी को सुनने छोटे भाई को लेकर गया.मुख्यमंत्री अजोए मुखर्जी को सुनने अकेले ही सिलीगुड़ी कालेज गया;आदत पड़ गयी थी हर दल और नेता को सुनने की.मेरठ में तो इंटर और बी. ए.का छात्र  था ;बाद में सर्विस में था अतः राजनीतिक दलों और नेताओं को न सुनने का प्रश्न ही न था.

उ.  प्र.में हुए १९६९ के मध्यावधी चुनावों के सम्बन्ध में पूर्व में वर्णन हो चूका है.१९७१ में बांगला देश निर्माण से उत्साहित होकर इंदिराजी ने संसद भंग करके मध्यावधी चुनाव करा दिये.स्वंत्र पार्टी-जनसंघ -भा.क्र.द.-कांग्रेस (ओ )-संसोपा आदि मिल कर चुनाव लड़ना चाहते थे.लेकिन चौ.सा :किन्हीं बातों पर अड़ गए और अलग हो गये.बाकी चार दलों के गठबंधन को 'चौगटा मोर्चा ' कहा गया.इस मोर्चा ने ताशकंद के शहीद लाल बहादुर शास्त्री जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री हरिकिशन शास्त्री को मेरठ से अपना उम्मीदवार बनाया था.बउआ ने तो कभी वोट डाला ही नहीं उनको सभी बेकार लगते थे.हमारे नानाजी और बाबूजी सिर्फ जनसंघ को वोट देते थे.लिहाजा इस बार बाबूजी ने भी वोट न देने का फैसला किया था.मैंने उन्हें समझाया कि आपकी पसंद के जनसंघ ने समर्थन दिया ही है और हरिकिशन जी तो शास्त्री जी के पुत्र हैं तो आप उन्हें ही वोट दे दीजिये. इस प्रकार बाबूजी ने मेरे आग्रह पर पहली बार गैर जनसंघी को वोट दिया.बाद में तो मैं धीरे-धीरे बाबूजी को जनता पार्टी और जनता दल को वोट दिलवाने में आसानी से राजी कर सका और फिर मेरे कम्यूनिस्ट पार्टी में शामिल होने एवं उनके हास्टल के  साथी  और सहपाठी का.भीखा लाल जी से संपर्क करने पर तो वह अंततः भाजपा -विरोधी भी हो गये थे.

भैन्साली ग्राउंड में राजनीतिक दलों की मीटिंग होती थीं मैंने हर मीटिंग अटेंड की.इंदिराजी मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा जी के साथ आयीं थीं.'समाजवाद कोई जादू की छडी नहीं है जो घुमाते ही सब समान हो जायेंगे' उनका महत्वपूर्ण डायलाग था.उनके दो-तीन दिन बाद जनसंघ अध्यक्ष पं.अटल बिहारी बाजपाई की भी सभा उसी जगह हुई जो कांग्रेस (ओ) के ह.कि.शास्त्री के समर्थन में आये थे.अटल जी का प्रमुख डायलाग था-'लोग आज मेरा ओजस्वी भाषण सुनने आये हैं परसों यहाँ लोग इंदिरा जी का मुखड़ा निहारने आये थे.' मुझे उनका यह वाक्य बेहद बुरा लगा था हालांकि मैं खुद इंदिरा विरोधी था.मैंने बाबू जी से भी कहा था आप जनसंघ का समर्थन करते रहे है उनके अध्यक्ष कितना अशालीन हैं.बाबूजी को भी इंदिरा-विरोधी होने के बावजूद यह कथन सुहाया नहीं था.मैंने याद किया कि पढ़ाई के दौरान हमारे प्रिय प्रो.कैलाश चन्द्र गुप्त भी जनसंघ के    सक्रिय कार्यकर्ता होने के बावजूद अटल जी से अच्छा प्रो.बलराज मधोक को मानते थे.

उ. प्र.विधान सभा के मध्यावधी चुनावों में प्रो.बलराज मधोक ने एल.के.आडवानी जी के जनसंघ अध्यक्ष बनने पर उससे अलग होकर जो 'राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक समूह' नामक पार्टी बनाई थी उसके उम्मीदवार के रूप में पं.जय स्वरूप तिवारी को मेरठ सिटी से खड़ा किया था.तिवारी जी की सियाही बनाने की फैक्टरी थी. उनकी फैक्ट्री  में घुस कर जनसंघियों ने मशीने तोड़ दीं और उन्हें भारी आर्थिक क्षति पहुंचाई थी.प्रो. मधोक ने जब यह सूचना खैर नगर चौराहे पर हो रही सभा में दी तो उनके कार्यकर्त्ता जनसंघ-विरोधी प्रचंड नारे लगाने लगे.उस पर प्रो. मधोक ने उन्हें ऐसा करने से रोका और अपनी बातें जारी रखीं.वह चाहते थे नारे लगाने की बजाये जनसंघ की हार सुनिश्चित की जाए.

अटल जी ने अपनी सभा में प्रो.मधोक (जिन्होंने पं.दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के बाद अटल जी को हाथ पकड़ कर अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाया था) को काफी कोसा.आदतन इंदिराजी की भी खूब खिल्ली उडाई जबकि खुद ही पहले इंदिराजी को 'दुर्गा' संबोधन के साथ माला पहना चुके थे -बांग्ला विजय पर .

इंदिरा जी भी आईं तो उन्होंने जनता से सवाल किया कि वह शख्स जो विधान सभा का चुनाव तक लड़ने से डर रहा है आपको 'हर खेत को पानी -हर हाथ को काम'कैसे दे पायेगा.(जनसंघ के पोस्टरों में यही नारा था और कहा गया था-'उ. प्र.की बागडोर अटल जी के मजबूत हाथों में सुरक्षित है')?

मुजफ्फर नगर -शामली संसदीय सीट से चौ. सा :उम्मेदवार थे.जाट बाहुल्य क्षेत्र में चौगटा मोर्चा ने अपना उम्मेदवार सांकेतिक खड़ा किया और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार ठा.विजय पाल सिंह को अन्दर खाने सपोर्ट कर दिया परिणामतः चौ.चरण सिंह की शर्मनाक पराजय हो गयी. अखबारों ने इस हार पर अटल जी का बयान सुर्ख़ियों में छापा था-'हमने मनीराम की हार का बदला ले लिया'.कितने मजे की बात थी बदला लेने के लिए १८० डिग्री पर चलने वाली कम्यूनिस्ट पार्टी को जनसंघ कार्यकर्ताओं ने जी -जान लगा कर जिता दिया था.यहाँ आप जरूर जानना चाहेंगे कि यह 'मनीराम की हार' क्या थी?


मनीराम विधान सभा क्षेत्र गोरखपुर में था .चौ.सा :की संविद सरकार में अंतर्विरोधों के चलते उन्हें हटा कर पूर्व प्रधानमंत्री स्व.लाल बहादुर शास्त्री के सखा और उन्हीं की भाँती बेहद ईमानदार राज्य सभा सदस्य श्री त्रिभुवन  नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया था.संविधान के मुताबिक़ उन्हें छः माह के भीतर विधायक निर्वाचित होना था तभी वह आगे पद पर बने रह सकते थे.मनीराम के विधायक ने उनके लिए सीट खाली की थे और वह उप-चुनाव लड़ रहे थे.चौ.सा:नहीं चाहते थे कि टी .एन.सिंह सा:जीत कर मुख्यमंत्री बने रहें अतः उन्होंने भा.क्र.द.से कमजोर उम्मीदवार खड़ा कर दिया था.कांग्रेस(आर) से अलीगढ़ में अमर उजाला के पत्रकार श्री रामकृष्ण दिवेदी चुनाव लड़े थे.चौ.सा:का भीतरी समर्थन उन्हें प्राप्त था सो उन्होंने उप-चुनाव में मुख्यमंत्री को हरा दिया .टी.एन.सिंह सा: राज्य सभा में बने रहे और उ.प्र.विधान सभा इस विवाद के कारण भंग कर दी गयी यहाँ राष्ट्रपति शासन लागू हो गया.'जैसे को तैसा'के आधार परचौ.सा :को  हराने के बाद अटल जी ने 'मनीराम की हार का बदला' कहा था.इसी कारण विधान सभा का चुनाव भी लोक सभा के साथ हुआ था.


१९७१ में इंदिरा जी बांग्ला  देश की लहर पर सवार होकर भारी बहुमत से जीतीं थीं.उन्होंने समाज में अन्धकार फैला रहे संगठनों पर करारा प्रहार किया और उस समय उनकी कमर तोड़ दी थी.(आज फिर वे फुफकार रहे हैं).माउंट आबू में पूर्व हीरा व्यापारी लेखराज जी ने 'ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय' में अनैतिक अनर्थ चला रखा था जो उस समय के 'नव भारत टाईम्स' दिल्ली में प्रमुखता से छपा था.ख़ुफ़िया जांच में पुष्टि होने पर वहां छापा डलवा कर 'मटका' खेल रंगे हाथों पकड़वाया था.काफी समय कोर्ट केस भी चला.अब शायद वह 'मटका' खेल खुले में नहीं हो रहा है.यह मटका सट्टे का नहीं सेक्स का था.

'बाल योगेश्वर' उर्फ़ 'बाल योगी' नामक १३ वर्षीय बालक को कलयुगी अवतार घोषित करके 'डिवाइन लाईट मिशन' भी अनैतिक कार्यों में संलग्न था वहां प्रार्थनाएं होती थीं-'तन मन धन सब गुरु  जी के अर्पण' और वैसा ही होता भी था.यह अवतार घोषणा करता था कि वह 'राम'और 'कृष्ण'को नहीं मानता.गृह मंत्रालय में श्री कृष्णचन्द्र पन्त एवं श्री नाथू राम मिर्धा 'राज्य मंत्री' थे.इंदिराजी को लगा वे उनकी सत्ता को भी चुनौती दे रहे हैं.ख़ुफ़िया जांच करा कर उनके यहाँ भी छापा डलवा दिया.१३ वर्षीय अवतार और उनकी माता जी देश छोड़ कर अमेरिका भाग गए.'बाल योगी' जी अब वहीं सेटिल हैं और भारत आ कर सभाएं  करके 'दान'बटोर कर चले जाते हैं.

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का भान्जा बताने वाले रेलवे के पूर्व क्लर्क श्री प्रभात रंजन सरकार उर्फ़ 'आनंद मूर्ती' अपने 'आनंद मार्ग ' और 'प्राउ टिस्ट ब्लाक आफ इण्डिया' के माध्यम से देश में गड़बड़ियाँ फैला रहे थे.मतभेद की और सही बात कहने की उनके यहाँ इजाजत नहीं थी.विरोध करने वाले की खोपड़ी धड से अलग कर दी जाती थी. पुरुलिया आदि में इंदिराजी ने आश्रमों पर छापे डलवा कर ऐसी अनेकों खोपड़ियाँ बरामद करवाईं थीं.मुक्क्दमे भी पर आज फिर आनंद मार्ग सक्रिय है.


ये तीनों संगठन केन्द्रीय तथा राज्यों के सरकारी कर्मचारियों में घुसपैठ बना कर अपने को मजबूत बनाये हुए थे.ये ही नहीं बल्कि 'राधा स्वामी'-'साईं बाबा'-'इस्कान' आदि-आदि संगठन धार्मिक लबादा ओढ़ कर शासन -प्रशासन में अपनी लाबी बना कर देश को खोखला करने में लगे रहते हैं.पूर्व राष्ट्रपति अवकाश ग्रहण से पूर्व दयालबाग आगरा 'राधास्वामी सत्संग 'में भाग लेने आये थे तो पूर्व प्रधानमंत्री श्री नरसिंघा राव आगरा के आंवल खेडा में  आचार्य श्रीराम शर्मा के दामाद श्री प्रणव पांड्या के बुलावे पर उनके कार्यक्रम में भाग लेने आये थे.इस राजनीतिक प्रश्रय से इन संगठनों की लूट-शक्ति बढ़ जाती है और उसी अनुपात में आम जनता का शोषण भी बे-इंतिहा बढ़ जाता है.


इंदिराजी में एक बात तमाम खामियों के बावजूद थी कि वह चाहें दिखावे ही के लिए सही आम जनता के हक़ की बातें कहती और कुछ करती भी रहती थीं.भले ही वह धार्मिक स्थलों की यात्रा कर लेती थीं परन्तु अन्याय नहीं सहती थीं.शायद उडीसा के किसी मंदिर में उनके साथ बाबू जगजीवन राम जी को प्रवेश नहीं करने दिया गया था तो उन्होंने खुद भी उस मंदिर में प्रवेश नहीं किया और बिना दर्शन किये लौट गईं.यही वजह थी कि वह सुगमतापूर्वक धार्मिकता का जामा ओढ़े संगठनों के विरुद्ध ठोस कार्यवाही कर सकीं जिससे तब जनता को राहत ही मिली.

जब इमरजेंसी लगी थी तब हमारे कार्यस्थल पर साथी रहे श्री ओमेश कुमार कालिया के पडौसी और मित्र रहे एक सज्जन के साथ कई बार दिल्ली गए .वह सज्जन कुछ राजनीतिक दस्तावेज लेकर जाते थे और श्री कालिया को देते थे.श्री कालिया अपने पिताजी( जो एन.डी.एम्.सी.में ओवरसीयर थे और शायद आर.एस.एस. में भी सक्रिय थे ) को दे देते थे.यह बात बहुत बाद में मालूम चल पाई थी जिसके बाद से मैंने उन सज्जन के साथ जाना छोड़ दिया था.ओमेश कालिया सा :सरू स्मेल्टिंग में स्टेनो टाईपिस्ट थे और बहुत फास्ट थे.युनियन में भी सक्रिय एक दुसरे स्टेनो टाईपिस्ट जिनके छोटे भाई कांग्रेस (आर)के युवा नेता थे ने श्री कालिया को गुमराह करके दिल्ली के भागीरथ पैलेस में दुगने वेतन(१६०० रु)पर जाब दिला दिया था और फिर तीन माह में टर्मिनेट करा दिया था.मेरे भी आगरा जाने के बाद वह शख्स युनियन का प्रेसीडेंट बन गया था और सारा फंड खा गया था. युनियन दो फाड़ हो गयी थी और वह शख्स मेनेजमेंट का चहेता होते हुए भी बर्खास्त कर दिया गया था.मुझे हटवाने में भी उसकी अहम् भूमिका रही थी.गलत करने वाले चाहे चौ. सा:रहे हों या यह छुट भैय्ये नेता अपनी करनी का फल पा ही गए थे.

अगली बार दिल्ली आवागमन की बातें........





































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रविवार, 13 मार्च 2011

क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष (१६)

सुरेन्द्र गुप्ता जी को जब यह पता लगा कि रविवार की छुट्टी में मैं घटाघर तक पैदल ही चला जाता हूँ तो वह शनिवार की शाम अपनी साईकिल मेरे कमरे पर छोड़ जाने लगे.वह मोदी नगर से सोमवार की सुबह लौटते थे.१४ दिसंबर १९७४ के रविवार को जी उचाट होने के कारण मैं उनकी साईकिल होते हुए भी कहीं नहीं गया.खाना खा कर झपकी लग गई जबकि आम तौर पर मैं दिन में लेटता ही नहीं हूँ.तीन-चार बजे के लगभग मुझे स्वप्न में लगा की अजय का ट्रक से एक्सीडेंट हो गया है. उन दिनों फोन की इस तरह सुविधा तो थी नहीं.ध्यान हटाने के लिये मजबूरी में साईकिल लेकर निकल पड़ा.बाद में एक हफ्ते बाद शोभा का लिखा पोस्ट-कार्ड मिला जिसमें उस दिन सुबह अजय को एक्सीडेंट से चोट लगने की बात लिखी  थी.इसका मतलब यह हुआ कि जो स्वप्न शाम को मैंने देखा वह घटना पहले ही सुबह घटित हो चुकी थी.मैंने छुट्टी सेंक्शन करा कर आगरा जाने का निर्णय लिया .छुट्टी भी मिल गई लेकिन सुरीली मौसी ने कहा मामूली चोट होगी अब अजय ठीक होगा और अपने घर अपनी गैर हाजिरी में रुकने की ड्यूटी लगा दी.दरअसल उनका मकान  मालिक से टकराव चल रहा था और वह उनकी गैर हाजिरी में उनके घर चोरी करवा देता था.एक बार एक माथुर सा:एस.एस.पी.थे उनके पास शिकायत लेकर मिलने से भी उनका चोरी गया माल नहीं मिल सका था.इस प्रकार मैं आगरा न जा सका गलती यह भी हुई कि उससे अगले दिन चला जाता  क्योंकि मौसी का शिक्षक प्रदर्शन स्थगित हो गया था और उनका लखनऊ ट्रिप कैंसिल हो गया वह बच्चा पार्क से वापिस लौट आयीं और मैं वापिस अपने कमरे पर लौट गया था.परन्तु मौसी के समझाने पर छुट्टी कैंसिल करा दी थी.पत्र द्वारा अजय का हाल पूछा तो फिर शोभा का ही जवाब आया कि अजय अभी अस्पताल में ही है जबकि पिछले पत्र में अस्पताल का जिक्र नहीं किया था.

इस बार छुट्टी मिलने में दिक्कत हुई क्योंकि गौड़ सा :के ऊपर एक टैक्जेशन आफीसर लच्छू सिंह जैन आ गए थे.वह कुटिल व्यक्ति थे और हंस कुमार जैन सा :के इशारे पर चलते थे.जब मैंने हर हाल में जाने का निश्चय बता दिया तो गौड़ सा :ने ही हस्तक्षेप करके छुट्टी मंजूर करवा दी .सिर्फ सात दिन की छुट्टी इस बार मिली.मेरठ से बस ६ घंटे में आगरा पहुंचा देती थी और बिजलीघर बस स्टैंड से छीपी टोला में घर पैदल के रास्ते पर था.शाम तक पहुँच गया.तब जाकर पता चला कि अजय का वह एक्सीडेंट कितना भयंकर था.डाक्टरों ने तीन दिन खतरनाक बताये थे.अजय के माथे ,कलाई ,पैर आदि की कई हड्डियें टूट गयीं थीं माथे में प्लेट डालनी थी.सरोजनी नायडू मेडिकल कालेज के आर्थोपेडिक वार्ड में अजय भरती रहे और बाबूजी उनकी तीमारदारी में रहे.शोभा जिनकी तभी-तभी एंगेजमेंट हुई थी मेडिकल कालेज बाबूजी के लिये खाना और अजय के लिये हिदायत वाला लेकर जाती थी.अजय के सहपाठी अनिल माथुर की माता जी अनिल के छोटे भाईयों को शोभा के साथ भेज देतीं थीं.सुरीली मौसी के कहने पर मेरे मेरठ में ही  रुकने से यहाँ बहुत परेशानी हुई.यदि बउआ अस्पताल जातीं तो शोभा को घर पर अकेला रहना पड़ता था.मेरे पहुँचने के बाद शोभा की भाग-दौड़ रुकी.

मकान मालिक मोती   लाल कर्दम सा :बहुत भले व्यक्ति थे.वह कलक्टर के पेशकार थे.उन्होंने ही राशन कार्ड आदि सुगमता से बनवा दिया था.जब अजय के एकसीडेंटकी खबर लेकर स्टुडेंट्स पहुंचे थे उन्होंने अपने पास से रु.अपनी जेब में रख लिये थे और बाबूजी को गंभीरता के बारे में कुछ नहीं बताया था.बाबूजी तो उनके साथ खाली हाथ ही चले गए थे.कर्दम सा : ने मकान का किराया और अपने खर्च किये रु.तब तक नहीं लिये जब तक अजय घर नहीं पहुँच गया.श्रीमती कर्दम ने मेरी माता जी को पूर्ण विश्वास के साथ कह दिया था कि डा.भले ही तुरंत खतरे की बात कर रहे हैं परन्तु अजय को कुछ नहीं होगा उनके मकान की यह खासियत है किसी की जान को कोई खतरा नहीं होता है.


चूंकी अजय किंग जार्ज मेडिकल कालेज,लखनऊ से डेंटल हाईजीन का कोर्स किये हुए थे बहुत सी दवाओं की जानकारी थी और डा.को गलत दवा देने पर झाड देते थे बाद में सीनियर डा.आकर अजय की बात का समर्थन और जूनियर डा.को फटकार लगाते थे.कुछ दिन बाद सभी जूनियर डा.अजय को दिखा और पूंछ कर दवाएं देने लगे.नाक की हड्डियों का आपरेशन डा.मुरारी लाल ने किया जो ई.एन.टी.के सीनियर सर्जन थे और बहुत लालची थे.उनकी आदत मरीज को एनस्थीसिया लगने के बाद तीमार दारों को ब्लैकमेल करके पैसा ऐंठने की थी परन्तु अजय के मामले में चुप रहे.बल्की एक बार बाद में दुबारा अजय ने नाक का आपरेशन करवाया तो उन्हीने ठीक से तथा बिना अतिरिक्त धन लिये ही किया था.

कोई सवा या डेढ़ माह बाद अजय को अस्पताल से छुट्टी मिली तब तक मैं ड्यूटी पर मेरठ नहीं लौटा और पोस्ट-कार्ड के जरिये छुट्टी बढाने की रिकुएस्ट भेज दी थी.अजय के घर आने के बाद भी भाग दौड़ तो थी ही एक लम्बे अरसे बाद बाबूजी को भी ड्यूटी ज्वाईन करना था अतः मेरी जरूरत यहाँ थी.लेकिन लच्छू सिंह जैन ने इस अर्जी को रद्द करके 'अब्सेंट विदाउट परमीशन ' के बेस पर मेरे टर्मिनेशन की बात उठायी तब फिर गौड़ सा :ने हस्तक्षेप करके कं.की तरफ से टेलीग्राम भेज कर कहा-"Leave  not granted join immediately ."--N .K .Gaud  .मैं नौकरी छोड़ने को तैयार था परन्तु बउआ ने कहा जब उस समय हो गया तो इस समय भीहो जायेगा नौकरी मत छोडो .लिहाजा मुझे मेरठ लौटना पड़ा.लच्छू सिंह जी ने अजय के एक्सीडेंट और उसकी गंभीरता सुन कर भी पहले खुड-पेंच खड़ी की लेकिन गौड़ सा :मेरे साथ थे उन्होंने पूरी छुट्टी मंजूर करा दी.


जब किसी से पता चला होगा कि मैं आगरा से लौट आया हूँ तो सुरीली मौसी रात साढ़े आठ बजे एक दिन मेरे कमरे पर पहुँचीं.ड्यूटी के बाद यूनियन के लोगों तथा दीपक माथुर और उनके पिताजी (जिनके नाम वह राशन की दुकान सौरभ जी ने अपनी सरकारी नौकरी के बाद करा दी थी क्योंकि तब वह अवकाश प्राप्त कर चुके थे) से बातें करते और होटल से खाना खा कर ही मैं कमरे पर पहुँचता था.अजय का हाल सुन कर उन्हें भी अफ़सोस हुआ कि उन्होंने नाहक ही मुझे रोक दिया था.मुझे तो उन पर आक्रोश था परन्तु ऐसा जाहिर नहीं किया और उनके बहुत कहने बाद भी उनके घर बहुत दिनों तक नहीं ही गया.

प्रत्यक्ष-दर्शियों ने उस दुर्घटना का जो हाल बताया था उसके अनुसार अजय तो बेवजह दूसरों के एक्सीडेंट का शिकार हो गया.अजय को अपने कालेज स्पोर्ट्स हेतु दयाल बाग़ जाना था वह अपनी दिशा में चल रहा था.उस दिन सेन्ट्रल एक्साईज इन्स्पेक्टर की परीक्षा थी और दो उम्मीदवार जो समय से लेट हो चुके थे सदर की तरफ तेज मोटर साईकिल चला कर भाग रहे थे उनके आगे N . C . C .का ट्रक चल रहा था.रंगरूट धीरे-धीरे चलते हैं और उन लड़कों ने उस ट्रक को ओवर टेक करना चाहा तो उनकी मोटर साईकिल का हैन्डिल ट्रक के पीछे लटक रही चेन से टकरा गया.बैलेंस बिगड़ कर वे अपने वाहन समेत उछल कर  सड़क के दूसरी तरफ अजय तथा एक और साईकिल सवार के ऊपर जा गिरे जिस कारण अजय दुर्घटनाग्रस्त हुए.चूंकि यह स्थान आगरा कालेज और सामने हास्टल के पास था अतः पल भर में छात्रों ने एकत्रित होकर सभी घायलों को मेडिकल कालेज में एडमिट करा दिया जिसके लिए मोटर वालों को बाध्य किया कि वे सब को ले चलें.यदि कालेज क्षेत्र न होता और छात्र एकजुट न होते तो अजय को बचाना डा.लोगों के मुताबिक़ मुश्किल था.सबसे ज्यादा चोटें उसी को लगीं थी. किसी छात्र ने साईकिल भी कहीं सुरक्षित रख दी थी.वे छात्र मेडिकल कालेज भी इन लोगों से मिलने कुछ दिन तक गए उन्हीं में से एक ने बाबूजी को वह साईकिल लेने में मदद की.

बहुत बाद में आगरा में एक परिचित ज्योतिषी (उस समय तक मैं पूर्ण ज्ञान नहीं प्राप्त कर सका था) ने जो पुरातत्व विभाग में क्लर्क थे उस दुर्घटना के समय के आधार पर बताया था कि तब अजय के नौ के नौ ग्रह मारक स्थानों में थे. चंद्रमा लगभग ढाई दिन में राशि परिवर्तित कर लेता है वह जैसे ही ठीक हुआ स्वास्थ्य ठीक होता चला .डा.गण ने जो तीन दिन खतरे के बताये थे उनके आधार पर इस कथन की पुष्टि होती थी.इस विश्लेषण ने भी मुझे ज्योतिष की और अधिक जानकारी हासिल करने को प्रेरित किया.जैसे-जैसे ग्रह ठीक होते गए अजय भी ठीक होते गए.इस दुर्घटना से अजय का एक साल पढ़ाई का बर्बाद हो गया वह इम्तिहान न दे सका.

मेरठ में अब और रुकने का मन नहीं रह गया था नौकरी में भी जो गड़बड़ शुरू हुयी थी बढ़ती चली लेकिन उन बातों के जिक्र का कोई लाभ नहीं .हाँ कुछ व्यक्तिगत एवं  राजनीतिक बातें जरूर करना चाहूँगा अगली बार.....
 
 

























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बुधवार, 9 मार्च 2011

क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष (१५)

अक्टूबर १९७४ में बाबूजी तो आगरा चले गए थे.ट्रक से सामान के साथ ही सब गए थे मैं भी पहुँचाने गया था.जून १९७५ तक मैं सरू स्मेल्टिंग की सर्विस में था और 'आपात काल ' लागू होने के बाद बेरोजगार होकर आगरा लौटा था. बाकी बातों के लिये यह समय बहुत महत्त्वपूर्ण रहा था.शोभा की शादी तय हो गयी थी और नवम्बर में उसकी एंगेजमेंट हुई.मैं छुट्टी लेकर आगरा गया.भुआ-फूफाजी कानपुर से आये थे और किसी बात को लेकर भुआ एवं अजय में तीखी झड़प हो गई थी.लिहाजा अलीगढ़ बाबूजी भुआ फूफा जी और शोभा गए थे .अजय के कारण बउआ के साथ मैं भी आगरा में रुका रहा.उसी दिन रात तक सब लोग वापिस लौट आये थे.भुआ-फूफा जी वहां से मथुरा नरेंद्र चाचा के पास चले गए थे फिर सीधे कानपुर लौट गए.

मेरी ड्यूटी ५ साँय समाप्त होने के बाद वक्त काटने के लिये अक्सर श्री सौरभ माथुर की राशन (केरोसिन) की दूकान पर उनके साथ वार्ता करने रुक जाता था.कभी-कभी सुरीली मौसी के घर भी चला जाता था. सुरीली मौसी महेश नानाजी की भांजी हैं.उनकी माता तो नानाजी की फुफेरी बहन होने के नाते हमारी बउआ की भुआ थीं जबकी उनके पिताजी हमारे बाबूजी के मौसेरे भाई थे.वह शोभा की सितार टीचर भी रहीं या यों कहें कि उन्हीं के कारण शोभा को सितार लेना पड़ा.वह हमारे रूडकी रोड वाले मकान में भी कई बार बुलाने पर आ जाती थीं.

हमारे साथियों में से मुकेश मुटरेजा तो एशियन पेंट्स में स्टोर क्लर्क बन कर आगरा चले गए थे.एक सुरेन्द्र गुप्ता जो मोदी नगर के कपडा व्यापारी के पुत्र थे मेरठ कालेज से एल.एल.बी.कर रहे थे.उन्होंने मुझसे भी' ला ' कर लेने को कहा था.गोविन्द बिहारी मौसा जी भी व्यंग्य  में कहते थे 'ला' कर लो.शायद मैंने एडमीशन न लेकर गलती ही की.वैसे सुरेन्द्र कालेज के डिसकशंस बताते रहते थे.उन्होंने पहले ही बता दिया था -इंदिरा जी के खिलाफ फैसला हो सकता है क्योंकि श्री जग मोहन लाल सिन्हा दबंग-ईमानदार न्यायाधीश है.सिन्हा जी के एक रिश्तेदार प्रो.सिन्हा मेरठ कालेज में 'ला' पढ़ते थे.वही ये बातें बतलाते थे.जब श्री सिन्हा मेरठ में सिविल जज थे और चौ.चरण सिंह उ.प्र.के मुख्य मंत्री तब एक केस में वह श्री सिन्हा की कोठी पर किसी की पैरवी वास्ते पहुंचे.जज सिन्हा सा :ने अर्दली से पुछवाया कि उ.प्र .के मुख्य मंत्री या चौ.चरण सिंह किस हैसियत से वह आये हैं पता करके आओ.चौ.सा :ने कहला भेजा जज सा :से कहो उ.प्र.के मुख्य मंत्री उनसे मिलना चाहते है.जज सा:सिन्हा जी ने अर्दली से कहला दिया कि उन से कहो वह वापिस लौट जाएँ जज सा: को मुख्य मंत्री जी से नहीं मिलना है.चौ.सा को बैरंग लौटना पड़ा और बाद में फैसला उस शख्स के खिलाफ हुआ जिसकी पैरवी वह करने गए थे.(यदि यह आज की बात होती तो शायद जज सा :की हत्या ही हो जाती).उन्हीं प्रो. सिन्हा ने यह भी बताया था कि १९८० के बाद से श्रम-न्यायालयों में फैसले श्रमिकों के खिलाफ होने लगेंगे.वास्तव में १९८० में इंदिराजी की दुबारा सत्ता में वापिसी के बाद से ऐसा ही हो रहा है जिसका शिकार खुद मैं भी हूँ.

होली के बाद होने वाले माथुर फंक्शन के लिये सौरभ माथुर ने मुझसे अपना कंट्रीब्यूशन न देने को कहा क्योंकि मैं वहां पर अकेला था.लेकिन अपने साथ मुझे कार्य-क्रम में ले गए.शायद उस वक्त अन्न की कमी के कारण दावतों आदि पर पाबंदी थी.एरिया राशन आफीसर विजय कुमार माथुर ने कह दिया था घोषणा कूटू के आंटे के फलाहार की करके बाकायदा पूरी वगैरह चलवा लेना. वह खुद कार्य-क्रम में शामिल नहीं हुए परन्तु उनके परिवारीजन आये थे.चूंकि मैंने कंट्रीब्यूशन नहीं दिया था इसलिए भोजन नहीं किया और आ कर अपने होटल पर ही खाना खाया था.फिर भी सौरभ माथुर के छोटे भाई दीपक (जो उनके रोडवेज में बस कंडक्टर बनने के बाद उनकी राशन की दुकान सी.डी.ए. आफिस से आफ करके देखते थे) ने मुझे एक कप आईसक्रीम जबरदस्ती खिला ही दी थी

सम्पूर्ण कार्य -क्रम में एक नाटक बहुत संदेशपरक लगा.एक कामचोर व्यक्ति अपनी कं.से अक्सर अपनी पत्नी की बीमारी का बहाना बना कर बीच दिन में भाग आता था और इधर-उधर मस्ती करता-फिरता था.वह घर का भी कोई काम नहीं करता था .एक दिन जब उसकी पत्नी कुछ खरीदारी करने जाने वाली थी वह व्यक्ति अपने एक और साथी को उसकी बीमारी का बहाना बना कर घर आ कर टी.वी. देखने लगा.उधर उसके आफिसर ने एक और अधिकारी को साथ लेकर उसके घर पर दस्तक दे दी.अब जब इन महाशय को पता लगा आफीसर घर धमक गए हैं तो तत्काल नौकर के लड़के को बुलाकर लिहाफ(रजाई) उढा कर लिटा दिया दुसरे साथी को पिछले दरवाजे से भगा दिया.परेशानी का भाव लेकर दरवाजा खोला.अफसर सा :को जब पत्नी की दास्तान सुना रहे थे तभी उनकी पत्नी ने प्रवेश किया और यह सब किया हो रहा है जानना चाहा.वह आफीसर सा :बोले इनकी पत्नी बहुत बीमार रहती हैं यह अक्सर जल्दी गहरा जाते हैं हम उन्हें देखने आये हैं.श्रीमान जी की पत्नी भौचक रह गयीं और बोलीं इनकी पत्नी तो मैं हूँ यह कौन है -कह कर रजाई हटा दी और नौकर को खूब डांटा.आफीसर महोदय ने तत्काल प्रभाव से उन श्रीमान जी की सेवाएं समाप्त कर दीं.उस नाटक में पत्नी की भूमिका एक युवती ही ने की थी जिसकी खूब चर्चा रही क्योंकि किसी जवान लडकी का यों किसी की पत्नी कहा जाना अच्छा नहीं समझा जाता था तब तक.

 यों तो अनेकों बातें हैं मेरठ रहने के दौरान की किन्तु एक बहुत महत्वपूर्ण घटना का ही वर्णन और करेंगे अगली बार......
     
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गुरुवार, 3 मार्च 2011

क्रान्ति नगर मेरठ में सात वर्ष(१४)

करन लाईन्स वाले क्वार्टर में भुआ -फूफा जी भी लखनऊ से कुछ दिन के लिए आये थे.फूफा जी अपनी सर्विस में मेरठ में रह चुके थे और उस वक्त उनके एक चचेरे भाई डॉ. अर्जुन प्रसाद माथुर वहीं पर सिविल सर्जन थे.वे लोग मुझे तथा शोभा को भी उनके घर ले गए थे.एक दिन फूफा जी अपने पुराने साथी श्री आर.एस.माथुर के घर साकेत कालोनी मिलने गये और चूंकि यह नयी कालोनी थी ,इसलिये मुझे भी साथ ले गये थे -दोनों लोग अलग -अलग साईकिलों से गये थे.गर्मी के दिनों में भी आर.एस. सा :ने पानी तभी पिलाया जब चलते वक्त फूफा जी ने माँगा .यह वही सज्जन थे जिनका कचहरी रोड पर मेरठ कालेज के सामने 'आर.एस.ब्रदर्स'नामक रेस्टोरेंट था.पता नहीं क्यों फूफा जी इनसे मिलने चले गये जबकि इन्ही के कारण फूफा जी को नाहक ही सात वर्ष सस्पेंड रहना पड़ा और बेहद तकलीफें उठानी पडीं थीं.जैसा उस समय मैंने सुना था कि, यूं.पी.हैण्डलूम्स में कहीं फूफा जी ने इन महाशय से चार्ज लिया था और इनके ब्राद्री का होने के कारण फूफा जी ने इन पर विशवास कर के सिर्फ कागजों पर चार्ज ले लिया -फिजिकल वेरिफिकेशन नहीं किया.इन सा :ने छत के पंखों के स्थान पर मिट्टी की हांड़ीयें लटका दी थीं.कपडा ढक रखा था और पंखे बेच खाये थे..इल्जाम फूफा जी को झेलना पड़ा था.लेकिन वह दोषी नहीं थे,इसलिये बहाल हो सके.जब बाबूजी ने ही फूफा जी को उनसे मिलने से रोकने का प्रयत्न नहीं किया तो मैं क्या बोलता ,वैसे मुझे फूफा जी का उनके घर जाना पसंद नहीं आया था.
 नानाजी की ही भांति बाबूजी को भी लड़कियों को पढ़ाना पसंद नहीं था,इसलिये शोभा को इंटर के बाद नहीं पढने भेजा.मेरे विचार से ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि शोभा हम दोनों भाईयों के मुकाबले पढने में तेज थी और उसको नं.भी ज्यादा मिलते थे.लेकिन कुछ बोलने की हैसियत नहीं थी.भुआ तथा मामाजी से बउआ  ने शोभा की शादी हेतु वर की तलाश करने में मदद माँगी. दोनों ने कह दिया पहले ग्रेज्युएट कराओ.बाबू जी पढ़ाना नहीं चाहते थे.अतः बउआ ने छोटी नानी जी से कहा जो उनके प्रति मित्रवत व्यवहार रखती थीं.जनवरी ७४ में रंजना मौसी की शादी हो चुकी थी इसलिये नानी जी ने पूंछा कि उनके देवर से  करना चाहें तो बात चलायें.बाबूजी ने छोटे नानाजी से संपर्क करके उनके समधी सा :अलीगढ़ के श्री सरदार बिहारी माथुर ,रेलवे के क्लेम्स विभाग में विजिलेंस अधिकारी से बात चलाई.बायोडाटा स्वीकार करते हुए उन्होंने फोटो दूसरा 'माथुर स्टूडियो'से ही खिंचवाकर भेजने को कहा.वैसा ही किया गया.बात चलने के बीच ही बाबूजी आगरा ट्रांसफर लेकर चले गये.
१९७३ में कमल मौसी (नानाजी की भतीजी)के विवाह में भाग लेने हेतु ,माता-पिता की और से मैं गया था.तब तक नानाजी और उनके भाईयों का व्यवहार पहले जैसा ही था.शादी के बाद सलाद आदि की बची गाजरें विश्वनाथ नानाजी घिस रहे थे उनकी परेशानी देखते हुए मैंने मदद करने को कहा तो उन्होंने कह दिया हम नाती से काम नहीं लेंगे. मैंने यह कह कर आप काम नहीं ले रहे है -अकेले-अकेले मन न लगने के कारण मैं व्यस्त होना चाहता हूँ तब बड़ी मुश्किल से वह हटे.हलवा बनाने के बाद उन्होंने सबसे पहले मुझे ही खिलाया फिर सबको दिया.इसी बीच मेरठ में साम्प्रदायिक दंगे हो गये थे उन्होंने मुझे एक दिन और रोक लिया जबकि मेरे पास छुट्टी नहीं थी.स्टेशन वह ,हमारे नाजी तथा बबूए मामाजी भी छोड़ने आये थे.शाहजहांपुर से बरेली तक फिर वहां से दूसरी गाडी पकड़ कर हापुड़ और वहां से फिर दूसरी गाडी से मेरठ जाना होता था.चुकी टिकट विश्वनाथ नानाजी ने खरीद कर दिया (मैं उनकी भतीजी का बेटा था इसलिये) जो मेरठ सिटी तक था और हमें कैंट तक जाना था.कैंट पर उतरने पर उसे बिना टिकट माना गया,टी.सी..सा :जानते थे मैं मिलेटरी क्वार्टर में रहता हूँ ,बोले अर्दली को ५० पैसे चाय पीने के दे दो और मस्ती से घर जाओ.
सरू स्मेल्टिंग की नौकरी के दौरान एक बार एल.आई.सी .,का लिखित एक्जाम देने मैं लखनऊ आया था.मामा जी यूनिवर्सिटी कैम्पस में रहते थे.सुबह-सुबह मैं पहुंचा था.मामा जी को जय राम जी कह कर अभिवादन किया उन्होंने वहीं बाहर दूसरी कुर्सी पर बैठा लिया.उनका छोटा पुत्र शेष उनके कहने पर पानी लाया था उसने पहचान लिया और जाकर माँइजी से बताया.तब उन्होंने आकर मामाजी से पूंछा आपने अपने भांजे को नहीं पहचाना,यह विजय है.मामाजी बोले इसने नाम नहीं बताया था सिर्फ मामाजी कहा था हमने सोचा शायद शाहजहांपुर से कोई आया होगा.(इसी प्रकार एक बार भुआ के घर सप्रू मार्ग पर अकेले आये थे तो भुआ ने नहीं पहचाना ,फूफा जी के टोकने पर कह दिया दरियाबाद के सभी लड़के हमें भुआ कहते हैं इसने नाम नहीं बताया था).घरेलू रिश्तों में तब तक अपना नाम बताने का प्रचालन नहीं था ,इसलिये अपना नाम खुद तब तक नहीं बताते थे जब तक कहा न जाये.
लौटते में लखनऊ मेल से शाहजहांपुर नानाजी से मिलने चला गया था.आधी रात को अचानक पहुँचने पर नानाजी बेहद खुश हुए थे.उनके एक भाई ने बगल के घर से पूंछा कि इतनी रात में किसके लिए दरवाजे खोल दिये,क्या बात है क्या वह मदद को आयें.नाना जी ने जवाब दे दिया चिंता न करो कन्हैय्या  आया है मुझे मेरठ ले जाने को.(नानाजी के पिताजी ने मेरा नाम कन्हैय्या  रखा था और ननसाल में यही नाम चलता था)हालाँकि मैं तो मिलने ही गया था परन्तु फिर नानाजी की बात ही दोहरा दी .दो  गाडियें बदल कर जब घर पहुंचे तो बउआ भी अपने पिताजी को देख कर चौंकीं,मैंने उन्हें बता दिया नाना जी आना चाह रहे थे इसलिये ले आये.नानाजी बाद में दिल्ली मौसी के पास भी गये और वहीं से सीधे लौटे.
अक्सर रानी मौसी के घर घंटाघर बाजार जाया करते थे.माता-पिता उनके घर कम ही जाते थे.अजय आगरा में थे इसलिये मुझे ही हाल-चाल जानने  हेतु जाना होता था.बीच चौराहे पर एक बार सी.पी.एम्.वालों का जुलूस जा रहा होने के कारण रुकना पड़ा.सामने मौसी का घर होते हुए भी आधे घंटे बाद ही पहुँच पाये.जुलूस में जो नारे लग रहे थे उनमें मुख्य यह था-'इंदिरा तेरे राज में बच्चे भूंखे मरते हैं'.मेरे विचार में तब से स्थितियां वैसी ही हैं.
उनके घर से लौटते में कभी-कभी एक तंग गली से चले जाते थे जिससे चौराहे की भीड़ से बच सकें.जाते वक्त भी उस गली से चले जाते थे. कभी दिक्कत नहीं हुई थी,लेकिन एक बार एक ऐसी अनहोनी दुर्घटना होते-होते बची अगर वह घट जाती तो मैं आज आप से यह सब  कहने बताने-लिखने के लिए उपलब्ध न होता.उस दिन दोपहर के तीन -चार बजे के करीब गली में भारी भीड़ के कारण साईकिल से उतर कर पैदल चलना पड़ा था.एक हलवाई (जो लोकल भाषा में हिन्दू था)के पकौड़ियों के थाल से मेरी साईकिल का कैरियर एक शख्स (जो मुस्लिम था)ने
टकरा कर उलट दिया और मुझे पकड़ कर उसका हर्जाना भरने की हुंकार करने लगा.आनन्-फानन में बहुत बड़ा मजमा जुट गया उन लोगों का इरादा मुझे क़त्ल कर शहर को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झोंक देना था.हलवाई सा :से मैंने कहा आप ही बताइये कि मेरी गलती है या उन सज्जन की.वह वृद्ध बेचारे बोले कि हम क्या बतायें हमारा तो नुक्सान हो ही गया है.वह जानते थे उनका नुक्सान करने वाले ही उनकी आड़ लेकर हंगामा काट रहे हैं. मैंने तो उस क्षण समझ लिया था कि बस वह जीवन का अंतिम क्षण है और इस बात पर अडिग था कि नुक्सान मैंने नहीं बल्कि इल्जाम लगाने वाले सा :का है.'जाको राखे साईंयां ,मार सके न कोये' वाली उक्ति चरितार्थ करते हुए उपद्रवी गुरुप का एक तगड़ा युवक आगे आया और उसने थाल पलटने वाले अपने साथी से मेरी साईकिल ले ली और तेज-तेज  डग भर कर लपकने लगा ;यह देख कर उपद्रवी ने मेरा हाथ यह सोच कर छोड़ दिया कि वह मुझे मार डालेगा.वह बहुत आगे था मैं दौड़ते-दौड़ते उसके पास जब तक पहुंचा भीड़ उसी तरफ आती हुई बहुत पीछे थी.मैंने साईकिल का कैरियर पकड़ लिया तब वह मुझे घसीटता हुआ तेजी से चौराहे तक ले गया और जब पुलिस वाला दिखाई दे गया तो मुझसे बोला बिना पीछे मुड़े हुए सीधे घर भाग जाओ और वहीं जाकर रुकना .मैं नहीं जानता भीड़ से वह युवक कैसे निपटा होगा जो उसी की धर्मावलम्बी थी. बहर हाल उस युवक की ताकीद के मुताबिक़ फिर कभी उस गली से नहीं गये -आये.घंटाघर तो आते जाते रहे तब भी जब अकेले मेरठ में रह गये थे.लोगों के मुताबिक़ मेरा वह इसी जीवन में पुनर्जन्म था.जबकि एक बार लखनऊ के अलीगंज मंदिर में भी ५ वर्ष की उम्र में कुचलते -कुचलते बचा था तब भी शायद पुनर्जन्म था और तब भी जब रूडकी रोड क्रास करते में मोटर साईकिल से टकराया था.एक तरफ कुछ लोग पुनर्जन्म नहीं मानते तो दूसरी तरफ कुछ लोग इसी जीवन में मेरे तीन पुनर्जन्म मानते हैं.मैं खुद आज उन ग्रहों के प्रभाव को समझता हूँ जिनके कारण ऐसी घटनाएं हुई थीं.कुछ और भूली बिसरी बातें अभी मेरठ की ही अगली बार भी फिर उसके बाद आगरा प्रस्थान.........























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