रविवार, 23 अप्रैल 2017

यादों के तहखाने से ( भाग - 2 ) ------ विजय राजबली माथुर

****** " मुझे खेलों में भाग लेने का शौक नहीं था। लेकिन मुझे अपनी कक्षा के एक पहलवान टाईप सहपाठी जिसके पिताश्री पुजारी / कथावाचक थे का हमेशा कबड्डी में आउट न होना अखरता था। सुना था कि, वह रोजाना भगवा झंडे के साथ लगने  वाली शाखा में भाग लिया करता था। उसको सबक सिखाने के लिहाज से एक रोज़ मैंने उसकी विरोधी टीम में कबड्डी खेलने की इच्छा व्यक्त कर दी , ...........................उनको इस बात की खुशी थी कि, पढ़ाई में अनाड़ी छात्र ( जिसे अक्सर बेंच पर पूरे क्लास वह दंड स्वरूप खड़ा करते थे ) को खेल में भी चाहे एक ही बार सही उस छात्र ने परास्त कर दिया जिसे वह सराहते थे और जिससे अक्सर पाठ का वाचन करवाते थे। 
चूंकि पढ़ाई में फिसड्डी होने के कारण वह हम लोगों से मदद लेता था इसलिए अपनी हार पर भी प्रतिशोध उसने नहीं माना था। " ******

पचपन वर्ष पीछे 1962 में लौटते हैं तो ध्यान आता है कि, चीन के हमले के बाद जब बाबूजी का ट्रांसफर बरेली से सिलीगुड़ी हो गया था तब भी बीच सत्र में हम लोगों को दाखिले की समस्या का सामना करना पड़ा था वजह यह थी कि, बाबू जी का ट्रांसफर जहां हुआ वहाँ हम लोग नहीं गए थे । तब भी हम लोग शाहजहाँपुर नाना जी के पास रहने गए थे क्योंकि सिलीगुड़ी शुरू में नान - फैमिली स्टेशन घोषित हुआ था। बहन का दाखिला तो नाना जी ने अपने एक परिचित तिनकू  लाल वर्मा जी के प्रबंध वाले आर्य कन्या पाठशाला में सहजता से करवा दिया था। अंततः अपने एक और पूर्व परिचित के तल्लउआ, बहादुरगंज स्थित  विश्वनाथ जूनियर हाई स्कूल  में भाई व मुझे भी प्रवेश दिलवा दिया। 

स्कूल के बाहर खाली पड़ी ज़मीन में स्कूल के बच्चे इंटरवेल में कबड्डी वगैरह खेलते थे। मुझे खेलों में भाग लेने का शौक नहीं था। लेकिन मुझे अपनी कक्षा के एक पहलवान टाईप सहपाठी जिसके पिताश्री पुजारी / कथावाचक थे का हमेशा कबड्डी में आउट न होना अखरता था। सुना था कि, वह रोजाना भगवा झंडे के साथ लगने  वाली शाखा में भाग लिया करता था। उसको सबक सिखाने के लिहाज से एक रोज़ मैंने उसकी विरोधी टीम में कबड्डी खेलने की इच्छा व्यक्त कर दी , मैं रोज़ उसकी गतिविधियों को बारीकी से देखता रहा था। उसके विरोध की टीम का नेतृत्व हर नारायण नामक छात्र ही करता था जिसने मुझे सहर्ष शामिल कर लिया। हमारी टीम में हर नारायण समेत जब सभी छात्र आउट हो गए और मैं अकेला ही बचा तब वह पंडित पुत्र पहलवान छात्र आया मैं पीछे हटते  हुये  उसे पाले के अंतिम छोर तक ले आया और वहाँ कस कर उसका हाथ पकड़ लिया पूरी ताकत लगा कर भी वह छुड़ा न पाया , मुझे गिराया तो खुद भी गिर पड़ा और खींचता रहा किन्तु पाले तक न पहुँच पाया और उसे भी पहली बार आउट होना ही पड़ गया। यह खबर तुरंत प्राचार्य शर्मा जी तक पहुँच गई जो हम लोगों को हिस्ट्री (इतिहास ) पढ़ाते थे , वह सरदार पटेल हिन्दू इंटर कालेज के प्रिंसिपल पद से रिटायर्ड़ थे और निशुल्क पढ़ाते थे किन्तु आने - जाने का रिक्शा भाड़ा प्रबन्धक उनको दे देते थे। उनको इस बात की खुशी थी कि, पढ़ाई में अनाड़ी छात्र ( जिसे अक्सर बेंच पर पूरे क्लास वह दंड स्वरूप खड़ा करते थे ) को खेल में भी चाहे एक ही बार सही उस छात्र ने परास्त कर दिया जिसे वह सराहते थे और जिससे अक्सर पाठ का वाचन करवाते थे। 
चूंकि पढ़ाई में फिसड्डी होने के कारण वह हम लोगों से मदद लेता था इसलिए अपनी हार पर भी प्रतिशोध उसने नहीं माना था। एक बार नाना जी के साथ उनके किसी परिचित के यहाँ कथा में गए थे वहाँ भी वह अपने कथावाचक पिता जी के साथ उनके सहायक के रूप में आया था और बाद में उनको बताया था कि, हिस्ट्री में यह हमारी बहुत मदद करते हैं वैसे तो खेलते नहीं हैं लेकिन एक बार खेल कर मुझे हरा दिया था। उसके पिता जी ने हिस्ट्री में उसकी मदद कर देने के लिए शाबाशी ही दी थी। 
1963 में सिलीगुड़ी के फैमिली स्टेशन घोषित हो जाने पर माँ और बहन बाबू जी के पास चले गए थे। भाई और मैं नाना जी के पास ही रहे थे। जब नाना जी बाज़ार जाते थे हम भाई लकड़ी चीड़ कर रख देते थे और कुएं से पानी भी भर कर रख लेते थे। हालांकि नाना जी एतराज़ करते थे कि, तुम लोग पानी भरने और लकड़ी चीड़ने का काम क्यों करते हो ? इसलिए रोकने के लिए कभी कभी वह हम दोनों को भी बाज़ार अपने साथ ले जाते थे। 
वैसे तो नाना जी को गाना वगैरह पसंद नहीं था लेकिन अजय को वह अधिक चाहते थे इसलिए उसके गुनगुनाने पर एतराज़ नहीं करते थे। अजय को 'जो वादा किया वह निभाना पड़ेगा ' बेहद पसंद था उसी को अक्सर गुनगुनाते थे :

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