सोमवार, 13 अप्रैल 2015

कुछ भूली बिसरी यादें (भाग-1 ) --- विजय राजबली माथुर

(जब यह ब्लाग शुरू किया था तब इरादा यह था कि क्रमानुसार घटना क्रम का उल्लेख करता जाऊंगा। परंतु लिखते समय कुछ बातें ध्यान से छूट गईं जिनकी बाद में याद आई इसलिए अब यह प्रयास कर रहा हूँ कि उन छूटी हुई बातों को भी शामिल कर सकूँ ) 
शुक्रवार, 10 सितंबर 2010--- बरेली के दौरान:

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010


बरेली के दौरान


१९६२ में चीनी आक्रमण के दौरान सिलीगुड़ी नॉन फैमिली स्टेशन था अतः हम लोगों को शाहजहांपुर में नानाजी के घर रहना पड़ा.एक ही क्लास को दो शहरों में पढना पड़ा.डेढ़ वर्ष में ही बरेली छूट गया था.

http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/09/blog-post_10.html

जब बाबूजी लखनऊ से बरेली ट्रांसफर होकर गए तो शुरुआत में अकेले ही गए थे और वहाँ जिन सज्जन की मदद से ठहरे व बाद में किराये पर मकान लेकर हम लोगों को ले गए वह बाला प्रसाद जी थे। वैसे तो बाबूजी के आफिस में और भी बहुत से लोग थे जो अच्छे थे किन्तु सिर्फ बाला प्रसाद जी का उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ कि उनके एक दत्तक पुत्र की बारात में बाबूजी मुझे व छोटे भाई को भी ले गए थे। दरअसल वह पुत्र उनके पिताजी के एक कर्मचारी का था जिनकी मृत्यु के समय उस बालक की अवस्था मात्र 10 वर्ष थी और उसकी माँ का निधन पहले ही हो चुका था। मृत्यु से पूर्व उस बालक के पिता ने बाला प्रसाद जी को गहनों की एक पोटली सौंपते हुये उसका ख्याल रखने को कहा था। बाला प्रसाद जी ने उसे अपने पुत्रों के समान ही प्यार दिया,पढ़ाया-लिखाया और इंजीनियर बनवा दिया अपने खर्च पर और वह पोटली उसके विवाह के समय उसी को सौंप दी थी । चूंकि बाला प्रसाद जी वैश्य वर्ग के तेली समुदाय से संबन्धित थे और उस व्यक्ति को पुत्र घोषित करने के बावजूद उसकी शादी  उसी के कहार समुदाय की एक शिक्षिका से करवाई थी इसलिए आफिस के लोगों के कौतूहल पर उनको साथियों को यह रहस्य उजागर करना पड़ा था। 

शादी के समय बाला प्रसाद जी बरेली से ट्रांसफर हो चुके थे अतः बाहर से बारात लेकर आए थे। वह शिक्षिका हमारी छोटी बहन के स्कूल में पढ़ाती थीं और हमारे घर में बर्तन माँजने वाली मेहरी साहिबा की पुत्री थीं। माँ ने लड़की के लिए उसकी माँ को भेंट दी थी जबकि बाबूजी के साथ हम दोनों भाई उनके घर बाराती की हैसियत से भोजन करके आए थे। इस बात पर वह मेहरी साहिबा प्रसन्न हुईं थीं और जब उनकी पुत्री सुसराल से उनके घर आईं थीं तो माँ से मिलवाने हमारे घर लाईं थीं। वे दोनों ज़मीन पर ही बैठ रहीं थीं लेकिन माँ ने दोनों को चारपाई पर ही बैठाया था (हमारे घर पर जो दो कुरसियाँ थीं भी वे वैसी ही पैक थीं जैसी रेल से लखनऊ से आईं थीं)। वे लोग चारपाई पर बैठने में एतराज़ कर रहीं थीं किन्तु माँ ने ज़ोर देकर उनको चारपाई पर ही बैठवाया था। एक तो वह शिक्षिका बहन को पढ़ाती थीं दूसरे बाबूजी के साथी-मित्र की पुत्र-वधू अतः उनको ज़मीन पर नहीं बैठने दिया जा सकता था। 

अबसे 54 वर्ष पूर्व भी जबकि जाति-पांति और ऊंच-नीच काफी चलती थी हमारे माँ-बाबूजी उस दक़ियानूसी से दूर थे। इंसान और उसकी योग्यता की कद्र करना मैंने भी बचपन से ही अपने माँ- बाबूजी से ही सीखा है।

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