कबीरदास जी ने कहा था :
'' सार - सार को गही देय , थोथा देय उडाय ।
साधू ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय । । "
लेकिन आज प्रगतिशील कहाय जाने वाले विद्वान सिर्फ समारोहों में माला पहनने तक ही सीमित है साहित्य का परिमार्जन खुद वे नहीं करेंगे " पर उपदेश कुशल बहुतेरे " नीति के तहत दूसरों से ऐसा करने की अपेक्षा रखेगे ------
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