सोमवार, 25 जून 2012

बउआ पुण्य तिथि पर एक ज्योतिषयात्मक विश्लेषण

जननी,माँ और माता थीं हमारी बउआ

बउआ का चित्र -विवाह पूर्व


बाबू जी (निधन 13 जून 1995) के साथ बउआ (निधन 25 जून 1995)-चित्र 1978 का है 


बउआ की जन्म पत्री के अनुसार उनका जन्म 20अप्रैल 1924 अर्थात वैशाख कृष्ण प्रतिपदा ,रविवार ,संवत 1981 विक्रमी को 'स्वाती' नक्षत्र के चतुर्थ चरण मे हुआ था।

लग्न-सिंह और राशि-तुला थी।
लग्न मे-सिंह का राहू।
तृतीय भाव मे -तुला के चंद्र और शनि।
चतुर्थ भाव मे-वृश्चिक का ब्रहस्पति।
षष्ठम  भाव मे -मकर का मंगल।
सप्तम भाव मे -कुम्भ का केतू।
नवे भाव मे-मेष का सूर्य व बुध।
दशम भाव मे-वृष का शुक्र।

08 नवंबर 1948 से 10 नवंबर 1951 तक वह 'शनि'महादशांतर्गत 'शनि' की ही अंतर्दशा मे थीं जो उनके लिए 'कष्टदायक' समय था और इसी बीच उनका विवाह सम्पन्न हुआ था।यही कारण  रहा कि 'युद्ध काल' की फौज की नौकरी का पूरा का पूरा वेतन बाबाजी के पास भेज देने और बाबाजी द्वारा उसे बड़े ताऊजी के बच्चों पर खर्च कर देने के बावजूद बड़ी ताईजी ने बउआ को भूखों तड़पा दिया। 
11 नवंबर 1951  से 19 जूलाई 1954तक का समय लाभ-व्यापार वृद्धि का था। इसी काल मे मेरा जन्म हुआ और अजय का भी।अजय के जन्म के बाद बाबूजी को फौज की यूनिट के उनके कमांडर रहे और अब CWE के पद पर लखनऊ MES मे कार्यरत अधिकारी महोदय ने बाबूजी को भी जाब दिला दिया।
29 अगस्त 1955 से 28 अक्तूबर 1958 तक सुखदायक समय था और इसी बीच डॉ शोभा का जन्म हुआ।
 20 जून 1962 से 25 अप्रैल 1965 तक शनि महादशांतर्गत 'राहू' की अंतर्दशा का था जो उनके लिए 'कष्टप्रद,यंत्रणा और बाधायुक्त' था। -
बउआ को 'बाँके बिहारी मंदिर',वृन्दावन पर बड़ी आस्था थी। उन्होने अपने पास के   (नाना जी,मामा जे से मिले)रुपए देकर बाबूजी से वृन्दावन चलने को कहा। वहाँ से लौटते ही बरेली जंक्शन से गोला बाज़ार आने के  रास्ते मे बाबू जी को उनके दफ्तर के एक साथी ने सिलीगुड़ी ट्रांसफर हो जाने की सूचना दी जो तब 'चीन युद्ध' के कारण नान फेमिली स्टेशन था। वस्तुतः बाबूजी की जन्म कुंडली मे 'ब्रहस्पति'तृतीय भाव मे 'कर्क' अर्थात अपनी उच्च राशि मे था और बउआ की जन्म कुंडली मे तृतीय भाव मे तुला का होकर 'शनि' उच्च का था एवं 'मंगल' षष्ठम भाव मे 'मकर' का होकर उच्च का था,नवें भाव मे 'मेष' का सूर्य उच्च का था,तथा दशम भाव मे 'वृष' का शुक्र स्व-ग्रही था। अर्थात बाबूजी और बउआ को तथा उनके धन से हम भाईयों - बहन को इन चीजों का दान नहीं करना चाहिए था-
1- सोना,पुखराज,शहद,चीनी,घी,हल्दी,चने की दाल,धार्मिक पुस्तकें,केसर,नमक,पीला चावल,पीतल और इससे बने बर्तन,पीले वस्त्र,पीले फूल,मोहर-पीतल की,भूमि,छाता आदि। कूवारी कन्याओं को भोजन न कराएं और वृद्ध-जन की सेवा न करें (जिनसे कोई रक्त संबंध न हो उनकी )।किसी भी मंदिर मे और मंदिर के पुजारी को दान नहीं देना चाहिए।
2-सोना,नीलम,उड़द,तिल,सभी प्रकार के तेल विशेष रूप से सरसों का तेल,भैंस,लोहा और स्टील तथा इनसे बने पदार्थ,चमड़ा और इनसे बने पदार्थ जैसे पर्स,चप्पल-जूते,बेल्ट,काली गाय,कुलथी, कंबल,अंडा,मांस,शराब आदि।
3- किसी भी प्रकार की मिठाई,मूंगा,गुड,तांबा और उससे बने पदार्थ,केसर,लाल चन्दन,लाल फूल,लाल वस्त्र,गेंहू,मसूर,भूमि,लाल बैल आदि।
4- सोना,माणिक्य,गेंहू,किसी भी प्रकार के अन्न से बने पदार्थ,गुड,केसर,तांबा और उससे बने पदार्थ,भूमि-भवन,लाल और गुलाबी वस्त्र,लाल और गुलाबी फूल,लाल कमल का फूल,बच्चे वाली गाय आदि।
5-
हीरा,सोना, सफ़ेद छींट दार चित्र और  वस्त्र,सफ़ेद वस्त्र,सफ़ेद फूल,सफ़ेद स्फटिक,चांदी,चावल,घी,चीनी,मिश्री,दही,सजावट-शृंगार की वस्तुएं,सफ़ेद घोडा,गोशाला को दान,आदि। तुलसी  की पूजा न करें,युवा स्त्री का सम्मान न करें ।

ये सब जांनकारीयेँ तथाकथित ब्राह्मण और पंडित तो देते नहीं हैं अतः बाबूजी  चाहे एक पैसा ही सही मंदिर मे चढ़ा भी देते थे,शनिवार को भड़री को तेल भी दिलवा देते थे, मंगल के दिन प्रशाद लगा कर मंदिर के बाहर चाहे किनका भर ही क्यों नहीं बच्चों को प्रशाद रूपी मिठाई भी दे देते थे। एक बार 'बद्रीनाथ' होकर आए थे तब से नियमतः वहाँ मंदिर के लिए रु 10/- या रु 15/-भेजते रहते थे। ये सब तमाम कारण परेशानियाँ बढ़ाने वाले थे जिंनका खुलासा अब अध्यन द्वारा मैं कर पाया हूँ और खुद सख्ती के साथ 'दान-विरोधी' रुख अख़्तियार किए हुये हूँ। आर्यसमाज की मुंबई से प्रकाशित पत्रिका'निष्काम परिवर्तन' मे भी मेरा दान विरोधी लेख छ्प चुका है।

1964 मे सिलीगुड़ी हम लोगों के जाने पर बउआ  को सारे शरीर मे एकजमा हो गया था और तभी से मुझे घर पर खाना बनाने मे बाबू जी की मदद करने की आदत पड़ गई थी जो बाद मे बउआ की मदद के रूप मे चलती रही।

26 अप्रैल 1965 से 07 नवंबर 1967 तक बउआ का शनि महादशांतर्गत 'ब्रहस्पति'की अंतर्दशा का समय उनके लिए 'शुभ फलदायक' था। 1967 मे मैंने स्कूल फाइनल का इम्तिहान उत्तीर्ण कर लिया जबकि हमारे खानदान के बड़े भाई लोग (फुफेरे भाई भी )पहली अटेम्प्ट मे हाई स्कूल न पास कर सके थे।

02 अप्रैल 1971 से 01 फरवरी 1974 तक उनकी 'बुध' मे शुक्र की अंतर्दशा उनके लिए अनुकूल थी। इस दौरान मैंने बी ए पास कर लिया और 'सारू स्मेल्तिंग',मेरठ मे नौकरी भी प्रारम्भ कर दी,अजय ने भी हाईस्कूल के बाद मेकेनिकल इंजीनियरिंग ज्वाइन कर लिया और शोभा भी इंटर पास कर सकीं।हालांकि मौसी का निधन इसी बीच हुआ।
 02 फरवरी 1974से 07 दिसंबर 1974 तक उनके लिए 'बुध'  मे सूर्य की अंतर्दशा 'पद-वृद्धि' की थी। अतः शोभा की एंगेजमेंट हो गई।
08 दिसंबर 1974 से 07 मई 1976 तक उनकी शनि मे 'चंद्र' की अंतर्दशा 'शुभ' व 'मांगलिक कार्यों वाली थी। जबकि 1973 से 1978 तक का समय बाबूजी का बुध मे 'राहू'  और 'ब्रहस्पति'की अंतर्दशा का 'कष्टदायक था। 
दिसंबर मे अजय का भयंकर एक्सीडेंट हुआ जिसमे वह बच गए, मेरी मेरठ की नौकरी जून  '75 मे  खत्म हुई किन्तु मुगल,आगरा मे सितंबर मे मिल गई। नवंबर '75 मे शोभा का विवाह सम्पन्न हुआ।
इन घटनाओं से यह भी सिद्ध होता है कि विवाह के समय 'गुण'मिलान होने पर समस्याओं का समाधान भी सुगम हो जाता है। बउआ -बाबू जी के 28 गुण मिलते थे। संकट आए तो लेकिन निबट भी गए।  हालांकि बाबूजी और बउआ दोनों की जन्म लग्ने 'स्थिर' थीं किन्तु बउआ  की कुंडली के दशम भाव मे स्व्ग्रही होकर 'शुक्र' स्थित था जिसके कारण बाबूजी को ट्रांसफर का सामना करना पड़ा।  जो ज्योतिषी 'गुण-मिलान' की मुखालफत करते हैं वे वस्तुतः लोगों के भले का हित नहीं देखते हैं।
05 मई 1977 से 22 नवंबर 1979 तक  'बुध' मे 'राहू' की अंतर्दशा उनके लिए 'कष्टकारक' थी। इसी बीच 21 सितंबर 1977 को मामाजी और 27 मार्च 1979 को नाना जी का निधन हो गया। इसी बीच जाड़ों मे खुले मे गरम पानी से अपनी बीमार रह चुकी पुत्री को नहलाने पर शोभा को उन्होने डांटा तो जाने तक वह अपनी माँ से मुंह फुलाए रहीं और चलते वक्त भी उनसे नमस्ते तक न करके गईं।
23 नवंबर 1979 से 28 फरवरी 1982 तक 'बुध' मे 'ब्रहस्पति' की अंतर्दशा उनके लिए-'कष्टदायक,अशुभ व बाधापूर्ण' थी। इसी दौरान शोभा के श्वसुर साहब की मेहरबानी से और के बी साहब द्वारा डॉ रामनाथ को 'कुक्कू' से खरीदवा कर मात्र 14 गुणों पर (झूठ बोलकर रामनाथ ने 28 गुण मिलते बताए थे जो बाद मे मैंने पकड़ा था)शालिनी से मेरा विवाह हुआ था।
29 फरवरी 1982 से 07 नवंबर 1984 तक 'बुध' मे 'शनि' की अंतर्दशा थी जिसका उत्तरार्द्ध अनुकूल था। इसी दौरान उनके पौत्र 'यशवन्त'का जन्म हुआ। काफी गंभीर बीमार रहने के बावजूद वह स्वस्थ हुईं।
08 अक्तूबर 1987 से 10 नवंबर 1990 तक 'केतू' महादशा मे क्रमशः सूर्य,ब्रहस्पति और शनि की अंतर्दशाएन रहीं जो क्रमशः 'घोर बाधापूर्ण कष्ट','परेशानीपूर्ण' एवं 'हानीदायक' थीं। हालांकि इसी बीच अजय की शादी भी के बी माथुर साहब की मेहरबानी से सम्पन्न हुई किन्तु बीमारी,कूल्हे की हड्डी टूटना और आपरेशन का सामना करना पड़ा।
08 नवंबर 1991 से 07 मार्च 1995 तक 'शुक्र' मे 'शुक्र' की ही अंतर्दशा उनके लिए बाधा और कष्ट की थी। जबकि यह समय बाबूजी का श्रेष्ठ था। इसी बीच 16 जून 1994 को उनकी बड़ी पुत्र वधू-शालिनी का लंबी बीमारी के बाद निधन हुआ। यह उनके लिए दिमागी झटका था।

08 मार्च 1995 के बाद 'शुक्र' मे 'सूर्य' की अंतर्दशा उनके लिए उन्नतिदायक होती और इस बीच उन्होने और बाबूजी ने मिल कर मुझ पर दबाव बनाया कि मैं पटना के सहाय साहब द्वारा अपनी पुत्री के लिए भेजा प्रस्ताव स्वीकार कर लूँ। उनको यशवन्त का समर्थन हासिल था ,लिहाजा मुझे उनकी बात माननी पड़ी। किन्तु निर्णय होने से पूर्व ही 13 जून 1995 को बाबूजी का देहांत हो गया और 25 जून 1995 को बउआ का भी निधन हो गया।  14 तारीख को जब हम लोग -यशवन्त समेत घाट पर गए हुये थे और घर पर मात्र डॉ शोभा,अजय की श्रीमती जी और उनकी पाँच वर्षीय पुत्री ही थे उनके दिमाग पर घातक अटेक हुआ और वह कुछ भी बोलने मे असमर्थ हो गईं। अजय और शोभा उन पर झल्लाते रहे किन्तु उन्होने कोई प्रतिक्रिया न दी।  जब इन लोगों ने मुझसे कहा कि तुम्ही पूछो तो मेरे प्रश्न के जवाब मे उनका उत्तर था-"क्या कहें,किस्से कहें?"यही उनके मुंह से निकला अंतिम वाक्य है फिर वह कुछ न बोल सकीं। हालांकि मुंह के अंदर जीभ चलती मालूम होती थी और लगता था कि कुछ कहना चाह रही हैं। डॉ अशोक गर्ग ने बताया था कि -'ब्रेन का रिसीविंग पार्ट डेमेज हो गया है'और यही स्थिति चलती रहेगी जब तक शेष जीवन है। हालांकि मेरे पास बहुत साहित्य था किन्तु 'संस्कृत' मे कमजोर होने के कारण वाचन मे भी पिछड़ता था और उस वक्त-मौके पर ध्यान भी न आया। अब 'जनहित' मे वह 'सुदर्शन कवच' दे रहा हूँ जिसके बारे मे डॉ नारायण दत्त श्रीमाली ने   1981 मे प्रकाशित एक पत्रिका मे लिखा है कि  उनके मित्र 'हरी राम जी'का पुत्र 17 वर्ष की उम्र मे आम तोड़ते हुये कमर के बल गिर गया था किन्तु वह अवचेतन हो गया था  और  पटना मेडिकल कालेज मे डाक्टरों ने 48 घंटों से पूर्व होश न आने की बात कही थी।किन्तु उन्होने मात्र 11 बार 'सुदर्शन कवच' का वाचन किया था कि बच्चे को होश आ गया जिस पर डॉ लोग हैरान थे और उनसे डाक्टरों ने  इसे हासिल कर लिया और कई गंभीर रोगियों को इसके सहारे ' अन -कानशसनेस' से मुक्ति दिलाई। हालांकि मैं तो अपनी माताजी को इससे लाभ न दिला सका परंतु दूसरे रोगों मे इसका सटीक प्रभाव देखते हुये इसे सार्वजनिक कर रहा हूँ,हालांकि हमारी बहन -डॉ शोभा लोगों का भला मुफ्त मे करने की मेरे आदत की कड़ी विरोधी हैं।

हमारी बउआ न केवल 'जननी'वरन माँ और माता भी थीं । उन्होने चरित्र निर्माण ,आत्म-निर्भरता,आत्म-विश्वास और परोपकार के भाव हम सब मे डाले। यह दूसरी बात है कि बहन भाई उन सिद्धांतों को सही नहीं मानते और उनसे हट गए लेकिन मैं आज भी उनके सिद्धांतों को ठीक मानते हुये उन्हीं पर चलने का प्रयास करता रहता हूँ। 






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शनिवार, 16 जून 2012

'शालिनी'--एक ज्योतिषयात्मक विश्लेषण

18 वर्ष बाद प्रथम बार लिपिबद्ध श्रद्धांजली-

(सिकन्दरा,आगरा मे अक्तूबर 1993 मे लिए सामूहिक चित्र से 'शालिनी माथुर')


04 जनवरी 1959 को साँय 06 बजे मैनपुरी मे जन्मी शालिनी की मूल जन्म पत्री तो कभी दिखाई ही नहीं गई ,बताया गया कि खो गई है परंतु जो हस्त-लिखित प्रतिलिपि हमारे यहाँ भेजी गई थी उसका विवरण यह है-

रविवार,कृष्ण पक्ष दशमी,पूष मास,विक्रमी संवत 2015,'स्वाती नक्षत्र'।
लग्न-मकर और उसमे 'शुक्र'।
तृतीय भाव मे- 'मीन' का केतू।
चतुर्थ भाव मे -मेष का मंगल।
नवे भाव मे-कन्या का राहू।
दशम भाव मे -तुला का चंद्र।
एकादश भाव मे-वृश्चिक के बुध व गुरु।
द्वादश भाव मे -धनु के सूर्य व शनि।

ग्रहों का विश्लेषण देने से पूर्व यह भी बताना ज़रूरी है कि शालिनी के पिताजी और के बी माथुर साहब (डॉ शोभा के पति) के पिताजी 'रेलवे' के साथी थे और उनही के माध्यम और उनकी सिफ़ारिश पर विवाह हुआ था। जन्म कुंडली डॉ रामनाथ जी ने मिलाई थी ,14 गुण मिलने पर विवाह नहीं हो सकता था अतः उन्होने 28 गुण मिल रहे हैं बताया था। शालिनी के भाई 'कुक्कू' के बी माथुर साहब के पुराने मित्र थे । इससे निष्कर्ष निकाला कि डॉ रामनाथ को खरीद लिया गया था और उन्होने हमारे साथ विश्वासघात किया था। इस धोखे के बाद ही खुद 'ज्योतिष' का गहन अध्यन किया और तमाम जन्म-कुंडलियों का विश्लेषण व्यवहारिक ज्ञानार्जन हेतु किया। (  रेखा -राजनीति मे आने की सम्भावनालेख 19 अप्रैल 2012 को दिया था और 26 अप्रैल 2012 को वह 'राज्य सभा' मे नामित हो गईं। )

शालिनी के एंगेजमेंट के वक्त जब कुक्कू साहब की पत्नी मधू (जो के बी माथुर साहब की भतीजी भी हैं) ने गाना गाया तब के बी साहब ने स्टूल को तबला बना कर उनके साथ संगत की थी। इस एंगेजमेंट के बाद कुक्कू के मित्र वी बी एस टामटा ने टूंडला से इटावा जाकर शालिनी का हाथ देख कर उनके 35 वर्ष जीवित रहने की बात बताई थी और इसका खुलासा खुद शालिनी ने किया था। यह भी शालिनी ने ही बताया था कि कुक्कू उनको मछली के पकौड़े खूब खिलाते थे। कुक्कू अश्लील साहित्य पढ़ने के शौकीन थे और पुस्तकें बिस्तर के नीचे छिपा कर रखते थे। यह भी रहस्योद्घाटन खुद शालिनी ही ने किया था।

05 जनवरी 1981 से 10 दिसंबर 1981 तक शालिनी की 'गुरु' महादशा मे 'मंगल' की अंतर्दशा थी। यह काल भूमि लाभ दिलाने वाला था। इसी बीच 25 मार्च 1981 को एंगेजमेंट और 08 नवंबर 1981 को मेरे साथ विवाह हुआ । अर्थात विवाह होते ही वह स्वतः मकान स्वामिनी हो गई।

11 दिसंबर 1981 से 04 मई 1984 तक वह 'गुरु' महादशांतर्गत 'राहू' की अंतर्दशा मे थीं जो समय उनके लिए हानि,दुख,यातना का था। नतीजतन उनका प्रथम पुत्र 24 नवंबर 1982 को टूंडला मे प्रातः 04 बजे जन्म लेकर वहीं उसी दिन साँय 04 बजे दिवंगत भी हो गया।
इसी काल मे 1983 मे 'यशवन्त' का भी जन्म हुआ जो बचपन मे बहुत बीमार रहा है।

05 मई 1984से 07 मई 1987 तक का कार्यकाल  'शनि' की महादशांतर्गत 'शनि' की ही अंतर्दशा का उनके लिए लाभदायक था। परंतु   इसी काल मे 24/25 अप्रैल  1984 को मुझे होटल मुगल शेरेटन ,आगरा से सस्पेंड कर दिया गया क्योंकि मैंने इंटरनल आडिट करते हुये पौने 06 लाख का घपला पकड़ा था तो बजाए मुझे एवार्ड देने के घपलेबाजों को बचाने हेतु यही विकल्प था मल्टी नेशनल कारपोरेट घराने के पास। (यही कारण है कारपोरेट घरानों के मसीहा 'अन्ना'/'रामदेव' का मैं प्रबल विरोधी हूँ)।
लेकिन 01 अप्रैल 1985 से मुझे हींग-की -मंडी ,आगरा मे दुकानों मे लेखा-कार्य मिलना प्रारम्भ होने से कुछ राहत भी मिल गई।

26 फरवरी  1991 से 25 अप्रैल 1994 तक 'शनि' मे 'शुक्र' की अंतर्दशा का काल उनके लिए श्रेष्ठतम था। इस बीच मुझे कुछ नए पार्ट टाईम जाब भी मिलने से थोड़ी राहत बढ़ गई थी। इसी बीच 11 अप्रैल 1994 को लखनऊ के रवींद्रालय मे प्रदेश भाकपा के सपा मे विलय के  समय मैं भी आगरा ज़िला भाकपा के कोषाध्यक्ष पद को छोड़ कर सपा मे आ गया था। किन्तु नवंबर 1993 मे अपनी माँ के घर खाना खा कर शालिनी बुखार से जो घिरीं वह बिलकुल ठीक न हुआ।

26 अप्रैल 1994 से अक्तूबर तक 'शनि'महादशांतर्गत 'सूर्य'की अंतर्दशा उनके लिए सामान्य थी। किन्तु 16 जून 1994 को साँय 04 बजे से 05 बजे के बीच उनका प्राणान्त हो गया। 

इस समय के अनुसार शालिनी की जो मृत्यु कुंडली बनती है उसका विवरण यह है-

ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी,संवत-2051 विक्रमी,पूरवा फाल्गुनी नक्षत्र।
लग्न तुला और उसमे-गुरु व राहू।
पंचम भाव मे -कुम्भ का शनि।
सप्तम भाव मे-मेष के केतू व मंगल।
नवे भाव मे -मिथुन के सूर्य और बुध।
दशम भाव मे-कर्क का शुक्र।
एकादश भाव मे -सिंह का चंद्र।

अब इस मृत्यु कुंडली का ग्रह-गोचर फल इस प्रकार होता है -
गुरु भय और राहू हानि दे रहे हैं। शनि पुत्र को कष्ट दे रहा है। केतू कलह कारक है और 'मंगल' पति को कष्ट दे रहा है। बुध पीड़ा दे रहा है तो 'सूर्य' सुकृत का नाश कर रहा है और शुक्र भी दुख दे रहा है। जब सुकृत ही शेष नहीं बच रहा है तब जीवन का बचाव कैसे हो?

जन्म कुंडली मे 'बुध' ग्रह की स्थिति भाई-बहनों से लाभ न होने के संकेत दे रही है तो 'क्रोधी' भी बना रही है । 'केतू' की स्थिति अनावश्यक झगड़े मोल लेने की एवं पारिवारिक स्थिति सुखद न रहने की ओर संकेत कर रही है।  'ब्रहस्पति' की स्थिति पुत्रों से दुख दिलाने वाली है।



कैंसर -

हालांकि डॉ रामनाथ ने शालिनी को टी बी होने की बात कही थी  जो TB विशेज्ञ की जांच मे सिद्ध न हो सकी। 

बाद मे 1994 मे ही  डॉ रमेश चंद्र उप्रेती ने बताया था कि आँतें सूज कर लटक चुकी हैं एक साल इलाज से लाभ न हो तो आपरेशन करना पड़ेगा। उनकी मृत्यु के उपरांत जन्म-कुंडली की ओवरहालिंग से जो तथ्य ज्ञात हुये उनके अनुसार उनको आंतों का' कैंसर ' रहा होगा जिसे किसी भी मेडिकल डॉ ने डायगनोज नहीं किया। इसी लिए सही इलाज भी नही दिया। 

ज्योतिष के अनुसार शनि ग्रह का कुंडली के 'प्रथम'-लग्न भाव और 'अष्टम' भाव से संबंध हो तथा साथ ही साथ 'मंगल' ग्रह से 'शनि' का संबंध हो तो निश्चय ही 'कैंसर' होता है। 
शालिनी की जन्म कुंडली मे प्रथम भाव मे 'मकर' लग्न है जो 'शनि' की है। यह 'शनि' अष्टम  (सिंह राशि  )भाव के स्वामी 'सूर्य' के साथ द्वादश भाव मे स्थित है। द्वादश भाव (धनु राशि) का स्वामी ब्रहस्पति  एकादश भाव मे 'मंगल' की वृश्चिक राशि मे स्थित है। 

अनुमानतः 16-17 वर्ष की उम्र से शालिनी की आंतों मे विकृति प्रारम्भ हुई होगी जो मछली के पकौड़े जैसे पदार्थों के सेवन से बढ़ती गई होगी। चाय का सेवन अत्यधिक मात्रा  मे वह करती थीं जिससे आँतें निरंतर शिथिल होती गई होंगी। डॉ उप्रेती ने तले-भुने,चिकने पदार्थ और चाय से कडा परहेज बताया था फिर भी उनकी माता ने डॉ साहब के पास से लौटते ही मैदा की मठरी और एक ग्लास चाय उनको दी। इस व्यवहार ने ही रोग को असाध्य बनाया होगा।

मेडिकल विशेज्ञों की लापरवाही और खुद को उस वक्त ज्योतिष का गंभीर ज्ञान न होने के कारण ग्रहों की शांति या 'स्तुति' प्रयोग न हो सका। इसी कारण अब 'जन हित मे' स्तुतियों को सार्वजनिक करना प्रारम्भ किया है जिससे जागरूक लोग लाभ उठा कर अपना बचाव कर सकें। लेकिन अफसोस कि 'पूना' स्थित 'चंद्र प्रभा',ठगनी प्रभा' और 'उर्वशी उर्फ बब्बी' की तिकड़ी ब्लाग जगत मे भी मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार करके लोगों को इनके लाभ उठाने से वंचित कर रही है। 

शालिनी अपने पुत्र यशवन्त की 'माँ' और 'माता' तो न बन सकीं किन्तु 'जननी' तो थी हीं। जिस प्रकार हम अपने बाबूजी और बउआ की मृत्यु की कैलेंडर तारीख को 'हवन' मे सात विशेष आहुतियाँ देते हैं उसी प्रकार शालिनी हेतु भी उन विशेष आहुतियों से उनकी 'आत्मा' की शांति की प्रार्थना करते हैं। किसी 'ढ़ोंगी' का पेट धासने  की बजाए वैज्ञानिक विधि से हवन करना हमे उचित प्रतीत होता है। 





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बुधवार, 13 जून 2012

बाबूजी-एक ज्योतिषयात्मक विश्लेषण

13 जून पुण्य तिथि के अवसर पर


बाबू जी (निधन 13 जून 1995 ) और बउआ (निधन 25 जून 1995 )

सरकारी कागजों मे बाबू जी की जन्मतिथि 04 सितंबर 1920 दर्ज रही होगी जिसके अनुसार उनका रिटायरमेंट 30 सितंबर 1978 को हुआ था। किन्तु उनके कागजों मे प्राप्त उनकी जन्मपत्री के अनुसार उनकी जन्मतिथि 24 अक्तूबर 1919 होगी। शुक्रवार,कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत 1976 ,स्वाती नक्षत्र (चतुर्थ चरण)मे उनका जन्म होना लिखा है। आज जब उनकी मृत्यु हुये 17 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं  अब अपने खुद के  द्वारा किए उनकी जन्मपत्री के विश्लेषण को प्रस्तुत कर रहा हूँ।

(वैसे मेरा इरादा था और इस ब्लाग मे पहले मैंने घोषित भी किया था कि एक बार लखनऊ पुनः आने के बाद तक का विवरण संकलित हो जाने के बाद सब घटनाओं का ज्योतिषयात्मक विश्लेषण दूंगा। किन्तु गत एक वर्ष से जबसे डॉ शोभा और उनके पति महाराज के बी माथुर साहब सुपुत्र स्व सरदार बिहारी माथुर साहब (अलीगढ़ वाले)लखनऊ होकर गए हैं उनकी छोटी पुत्री के नगर-पूना से मेरे तथा मेरे पुत्र यशवन्त के विरुद्ध षडयंत्रों की एक बाढ़ सी आ गई है। चंद्र प्रभा-ठगनी प्रभा-उर्वशी उर्फ बब्बी की तिकड़ी ने बड़े पैमाने पर हमे घेर कर नष्ट करने का उपक्रम किया हुआ है। हालांकि षड्यंत्रकारी सफल हो पाएंगे पूरे तौर पर संदिग्ध ही है किन्तु दुश्मन को कभी भी कमजोर नहीं समझने की अपनी प्रवृत्ति के तहत एहतियाती तौर पर बीच मे ही कुछ-कुछ ज्योतिषयात्मक विश्लेषण देते चलने का नया निर्णय लिया है जिसके अंतर्गत सर्व-प्रथम अपने बाबूजी की पुण्य तिथि पर उनकी जन्म-कुंडली की ओवर हालिंग से हासिल खास-खास नजीजे देने का प्रयास किया है। )

जन्मपत्री का विवरण-

लग्न-वृष और उसमे केतू ,तृतीय भाव मे- कर्क मे उच्च का ब्रहस्पति,चतुर्थ भाव मे  -सिंह के मंगल,शुक्र,शनि,षष्टम भाव मे -तुला के चंद्र,सूर्य,बुध,सप्तम भाव मे-वृश्चिक का राहू।

जन्मपत्री मे स्पष्टत : 'काल -सर्प योग' है जिसकी या तो वैज्ञानिक शांति हमारे बाबाजी ने करवाई नहीं होगी या फिर 'ढोंग-पाखंड' के अनुसार 'चांदी के सर्प' दान करा दिये होंगे। जैसे मैंने सुना और कुछ देखा भी बाबूजी के समस्त कार्यों मे झंझट-झमेले ,अड़ंगे पड़ते रहे कोई कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न नही हुआ।फौज छोडने के बाद खेती देखना चाहते थे उनके सबसे बड़े भाई-भाभी ने परेशान किया पुनः एम ई एस मे नौकरी ज्वाइन कर ली। 1958-59 मे डालीगंज (जहां अब हम हैं से लगभग 4-5 किलोमीटर दूर)उन्होने ज़मीन खरीदी जो बेचनी पड़ी मकान बना न सके। इन सबके आधार पर मेरा निष्कर्ष है कि 'काल-सर्प योग' की वैज्ञानिक शांति नहीं हुई होगी। 

राहू की महादशा के अंतर्गत केतू की अंतर्दशा मे लगभग उनकी चार वर्ष की अवस्था मे दादी जी अर्थात उनकी माँ का देहांत हुआ । उनकी माँ के भाव मे मंगल और शनि क्रूर ग्रह थे शुक्र 'सौम्य' होते हुये भी शत्रु क्षेत्री था। 12 अप्रैल 1939 से उनकी गुरु की महादशा मे सूर्य की अंतर्दशा लगी थी जिसका पूर्वार्द्ध शुभ था तब उन्होने साथियों के साथ पढ़ाई छोड़ कर फौज ज्वाइन कर ली। 1945 मे जब उन्होने नौकरी जारी न रख कर खेती देखने का निर्णय किया तब उनकी शनि की महादशा मे शनि की ही अंतर्दशा चल रही थी जिस कारण सात साल की नौकरी मे पूरी की पूरी सेलरी बाबाजी को भेज देने के कारण उनकी जेब खाली थी। बाबाजी ने वह धन बड़े ताऊ जी और उनके बच्चों पर ही खर्च किया था। हानिप्रद समय मे फौज की नौकरी छोडना उनके लिए घातक रहा। यह कष्टदायक समय बुध की अंतर्दशा की समाप्ती -11 जून 1950 तक था। 12 जून 1950 से शनि की महादशा मे केतू की अंतर्दशा लगी जो 20जूलाई 1951 तक थी और यह 'शुभ' थी इसी समय उनका विवाह सम्पन्न हुआ। 21 जूलाई 1951 से 20 सितंबर 1954 तक शनि की महादशा मे 'शुक्र' की अंतर्दशा थी जो 'श्रेष्ठ'थी और इसी मध्य मेरा तथा छोटे भाई अजय का जन्म हुआ। अजय के जन्म के बाद ही फौज मे उनकी यूनिट के कंपनी कमांडर रहे अधिकारी ने जो तब तक लेफ्टिनेंट कर्नल हो चुके थे और कमांडर वर्क्स इंजीनियर के पद पर लखनऊ मे तैनात थे उन्हें MES मे क्लर्क के पद पर भर्ती करवा दिया। 

21 सितंबर 1954 से 02 सितंबर 1955 तक शनि महादशांतर्गत सूर्य की अंतर्दशा थी जो 'हानिप्रद'होती है फिर 03 सितंबर 1955 से 02 अप्रैल 1957 तक 'चंद्र' की अंतर्दशा थी जो 'व्यवधान व चिंताजनक' थी और इसी समय छोटी बहन डॉ शोभा का जन्म हुआ है। ताजिंदगी उन्हें अपनी बेटी की ओर से फिक्र लगी रही। 

03 अप्रैल 1957 से 11 मई 1958 तक 'मंगल' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'श्रेष्ठतम समय' था। इसी दौरान जेठ के बड़े मंगल पर अलीगंज के मंदिर मे बाबूजी का कुर्ता मेरी पकड़ से छूटने के कारण भीड़ मे कुचल जाने से मैं बचा और चारबाग के प्लेटफार्म से (मामा जी स्व डॉ कृपा शंकर माथुर के आस्ट्रेलिया हेतु बंबई जाते वक्त)अजय को अपहरण कर्ता एनाउंसमेंट होने के कारण ओवर ब्रिज पर छोड़ कर भाग गया। बाबूजी के श्रेष्ठतम समय मे (श्रेष्ठ समय मे जन्मे )दोनों पुत्र उनसे बिछुड्ते-बिछुड्ते बच गए।

18 मार्च 1961 से 29 सितंबर 1963 तक शनि महादशांतर्गत 'ब्रहस्पति की अंतर्दशा' थी जो उनके लिए -'व्यय प्रधान,पूर्ण कष्टदायक समय' था। इसी दौरान पहले लखनऊ से बरेली फिर वहाँ से चीन युद्ध के दौरान सिलीगुड़ी ट्रांसफर हो गया। सिलीगुड़ी शुरू मे नान-फेमिली स्टेशन होने के कारण हम लोगों को शाहजहाँपुर अपने नानाजी के पास रहना पड़ा।

24 फरवरी 1967 से 23 दिसंबर 1969 तक उनका बुध की महादशांतर्गत 'शुक्र' की अंतर्दशा का समय था जो उनके लिए श्रेष्ठत्तम समय था। इसी दौरान मैंने सिलीगुड़ी से हाई स्कूल और मेरठ से इंटर्मेडिएट उत्तीर्ण किया किन्तु अजय को हाई स्कूल उत्तीर्ण करने मे दो एटेंम्प्ट लग गए।

30 अक्तूबर 1970 से 29 मार्च 1972 तक बाबूजी की बुध महादशांतर्गत 'चंद्र' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'धन और व्यापार वृद्धि का समय' था। मैंने इसी समय मे ग्रेज्युएशन के बाद पढ़ाई छोडने और नौकरी करने का निर्णय लिया था अतः एक जन की पढ़ाई पर होने वाला उनका खर्च बचा। 30 मार्च 1972 से 26 मार्च 1973 तक 'बुध' मे 'मंगल' की अंतर्दशा उनके लिए श्रेष्ठतम थी और इसी दौरान महेश नानाजी (नानाजी के फुफेरे भाई)की कृपा से मुझे नौकरी मिल गई।

27 मार्च 1973 से 14 अक्तूबर 1975 तक 'बुध'मे 'राहू' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'कष्टदायक समय' था ।इसी दौरान अजय जो दयाल बाग आगरा मे मेकेनिकल इंजीनियरिंग कर रहे थे को अपने साथियों के कारण खुद बेगुनाह होते हुये भी जेल जाना पड़ा। बाबूजी-बउआ को मेरठ से आगरा की दौड़ करनी पड़ी। मेरी सलाह पर उन्होने अपने खर्चे पर आगरा म्यूचुअल ट्रांसफर करवाया। मैं मेरठ मे नौकरी करता रहा। इसीदौरानBHEL,हरिद्वार मे मेषीनिस्ट के पद पर कार्यरत के बी माथुर साहब से शोभा की एंगेजमेंट अलीगढ़ जाकर की। अलीगढ़ से लौट कर भुआ और अजय मे तूफानी झगड़ा हुआ। (अलीगढ़ बाबू जी,भुआ,  फूफाजी व शोभा ही गए थे)। भुआ ने अजय को काफी कोसा । इसके एक माह बाद अजय का भयंकर एक्सीडेंट हुआ जिसमे डॉ ने तीन दिन काफी खतरे के बताए थे। लगभग डेढ़ माह बाबूजी को अजय की तीमारदारी मे मेडिकल कालेज मे उसके साथ रहना पड़ा। इसके 06 माह बाद मेरठ की नौकरी से मेरी भी बर्खास्तगी हो गई और मैं पुनः बेरोजगार होकर आगरा आ गया। लेकिन 22 सितंबर 1975 से मैंने होटल मोगूल ओबेराय मे नौकरी ज्वाइन कर ली। 

15 अक्तूबर 1975 से 20 जनवरी 1978 तक बाबूजी की 'बुध' मे 'ब्रहस्पति' की अंतर्दशा थी जो उनके लिए 'मृत्यु संम कष्ट ' का समय था। इसी दौरान 20 नवंबर 1975 को शोभा  का कमलेश बिहारी माथुर साहब से 'शुभ विवाह' सम्पन्न हुआ। 
21 जनवरी 1978 से 29 सितंबर 1980 तक बाबूजी का सामान्य समय चला और इसी दौरान 24 वर्ष की एम ई एस की नौकरी से रिटायर हुये। शोभा की बड़ी पुत्री 'रत्न-प्रभा' का जन्म अलीगढ़ मे हुआ और वह आगरा  भी आई।

27 फरवरी 1981 से 26 अप्रैल 1982 तक बाबू जी 'केतू' की महादशांतर्गत 'शुक्र' की अंतर्दशा मे रहे जो उनके लिए श्रेष्ठ समय था।  इसी दौरान शोभा की छोटी पुत्री-'चंद्र-प्रभा' का जन्म झांसी मे हुआ। इसी दौरान शोभा के श्वसुर साहब के माध्यम से मेरा विवाह भी हुआ। चूंकि बाबू जी की कुंडली मे 'चंद्र' षष्टम भाव मे शत्रु क्षेत्री है अतः 'चंद्र' की अंतर्दशा मे उन्हें अपने प्रथम पौत्र (यशवन्त का बड़ा भाई) का भी दुख सहना पड़ा जो जन्म से मात्र 12 घंटे ही जीवित रहा और जिसे जिंदा और मुर्दा दोनों प्रकार से वह देख न सके क्योंकि वह टूंडला मे जन्मा था।

30अगस्त 1983 से 17 सितंबर 1984 तक 'केतू' मे 'राहू' की अंतर्दशा उनके लिए -'दुखपूर्ण' थी। इसी दौरान उनके द्वितीय पौत्र -'यशवन्त' का जन्म हुआ जो शुरू मे काफी बीमार रहा और इसी दौरान 'होटल मुगल शेरटन'से मेरा सस्पेंशन भी हुआ।

30 सितंबर 1987 से 29 जनवरी 1991 तक बाबू जी 'शुक्र' की महादशा मे 'शुक्र' की ही अंतर्दशा मे रहे जो उनके लिए शुभ थी और इसी दौरान डॉ शोभा के पति महोदय (के बी माथुर साहब)की मेहरबानी से अजय का विवाह ग्वालियर जाकर सम्पन्न हुआ तथा इसी दौरान अजय की पुत्री का जन्म फरीदाबाद मे हुआ। बउआ-बाबूजी इस दौरान फरीदाबाद भी जाकर रह आए।

30 सितंबर 1993 से 29 नवंबर 1994 तक वह 'शुक्र' की महादशा मे 'मंगल' की अंतर्दशा मे थे जो उनके लिए 'श्रेष्ठ समय' था। इसी लिए इस दौरान अपनी बड़ी पुत्र-वधू (शालिनी) के निधन के बाद जब( के बी माथुर साहब के सहयोग और समर्थन से उनके भतीज दामाद) 'कुक्कू' और उनका भाई मुझे फँसाने के चक्कर मे थे विफल हो गए।

30 नवंबर 1994 से वह 'राहू' की अंतर्दशा मे आ गए थे वैसे तो यह समय 'सामान्य' था और इसी समय के दौरान उन्होने अपने पौत्र 'यशवन्त' से राय करके पटना के बी पी सहाय  साहब के प्रस्ताव को स्वीकार करके उनकी पुत्री से विवाह करने को मुझे राज़ी किया। परंतु 13 जून(घड़ी मे 14 जून)1995 ,मंगलवार की  रात्रि डेढ़ बजे उन्होने इस संसार को छोड़ दिया। हालांकि सोते समय रात्रि नौ बजे तक उन्होने खुद हैंड पंप चला कर पानी स्तेमाल किया था। मामूली बुखार था और वह भली-भांति चलते-फिरते रहे थे। भोजन अलबत्ता कम किया था। उनके पसंद की करेले की सब्जी मैंने बनाई तो थी जिसे उन्होने चखा भर था अगले दिन ठीक से खाने को कहा था जो फिर उन्होने देखा ही नहीं।

हमने आर्यसमजी विधि से शांति हवन कराया था। प्रतिवर्ष 13 जून को विशेष सात आहूतियों के साथ उनकी आत्मा की शांति हेतु घर पर हवन करते हैं। हम किसी भी प्रकार के 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' को नहीं करते हैं। उनके छोटे बेटा करते हों तो हम कह नहीं सकते। माता-पिता के जीवन काल मे हम उन्हें संतुष्ट रख सके अथवा नहीं यह निर्णय तो हम खुद नहीं कर सकते परंतु प्रयास यथा-संभव किया था। अब केवल हवन ही सहारा है।  

   






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गुरुवार, 7 जून 2012

आगरा/1996-97 (भाग-1 )

 ......जारी..........

चूंकि उस समय तक टिकट आगरा से लौटने का  बुक करने की व्यवस्था नहीं थी अतः पटना से बाबू जी साहब ने 'मगध एक्स्प्रेस' से टिकट बुक करा रखा था। नियत समय साँय सात बजे हेतु स्टेशन पहुंचे तो पता चला कि गाड़ी  तीन घंटे लेट छूटेगी। पहुंचाने गए ई ओ साहब उनके इंजीनियर भाई और उनकी आरा वाली चाची के बेटों ने मिल कर घर लौट चलने का तय किया। यों तो मेरी आदत लेटने-आराम करने की नहीं है किन्तु एक-हफ्ता चिकना-तला-भुना खाना जो मुझे नापसंद है खाते-खाते तबीयत गड़बड़ा गई थी अतः लेट गया था। उसी दौरान ई ओ सहाब के रेस्टोरेन्ट वाले साढ़ू साहब का फोन आया होगा। उनसे मेरा परिचय कभी नहीं कराया गया था फोन पर मुझे उनसे बात करने को कहा गया। एक अंनजान व्यक्ति से(मुझसे) जिस प्रकार उन्होने कहा वह बगैर ई ओ साहब या उनकी श्रीमती जी के सहयोग व समर्थन के संभव न था। बाद मे इंजीनियर साहब ने तो स्पष्ट रूप से अपने भाई और भाभी को ही दोषी ठहराया था। लेकिन परिस्थितिका  कूटनीतिक तकाजा था कि शांतिपूर्ण और निर्विघ्न यात्रा सम्पन्न करने हेतु  उस समय मौन रहा जाये और वही मैंने किया। मैंने  अपनी माँ से सुना हुआ था कि एक चुप सौ को हरावे। इस कहावत पर अमल करने का यह समय था जिस कारण ई ओ साहब और उनकी श्रीमती जी के मंसूबे ध्वस्त हो गए। लेकिन आगरा पहुँच कर मैंने पत्र मे बाबूजी साहब को उस फोन काल के बारे मे सूचित किया जिस पर उन्होने जवाब दिया कि वह अपने स्तर से जांच कर मुझे सूचित करेंगे जो कि मृत्यु पर्यंत उन्होने सूचित नहीं किया क्योंकि वह अपने ज्येष्ठ पुत्र और पुत्र-वधू की कारगुजारी से अच्छी तरह वाकिफ थे अतः चुप्पी साधे  रखना उनकी अपनी मजबूरी भी थी।

इंजीनियर साहब  बालाघाट से पटना जाते हुये अक्सर आगरा एक-दो रोज़ रुक जाते थे। अगस्त मे भी ऐसे ही अचानक आए थे। हमारे यहाँ से जाने के बाद पटना मे उनकी एंगेजमेंट हुई और न तो यहाँ पूनम को बता कर गए थे न वहाँ से सूचित किया बल्कि बात ज़ाहिर करने पर अपनी भाभी को झाड ज़रूर दिया। पूनम के माता-पिता अपने पुत्रों के आगे बेबस थे अतः उन लोगों ने भी अपनी पूत्री  को सूचित करने का साहस नहीं किया था। ई ओ साहब की श्रीमती जी ने नन्द को सूचित किया तो आदरणीय देवर साहब से झाड खानी पड़ी। उनकी शादी की तारीख यशवन्त के जन्मदिन के दिन की रखी गई थी जिसका श्रेय इंजीनियर साहब अपने ऊपर लेते हैं और बाबू जी साहब ने अपना निर्णय बताया था। बहरहाल मुझे मजबूरन यशवन्त के जन्मदिन पर अपने घर से बाहर रहना पड़ा। इंजीनियर साहब की शादी के 12 दिन बाद ई ओ साहब की प्रिया चाची आरा वाली की बेटी की भी शादी थी। शादी वाले रोज  सुबह बाबूजी साहब ई ओ साहब से इंजीनियर साहब की शादी की तैयारी के सिलसिले मे ज़रूरी सलाह कर रहे थे उन्होने मुझे भी वहाँ बुला कर बैठा लिया था शायद यही ई ओ साहब को अच्छा नहीं लगा और जैसे ही उनके सबसे छोटे चाचा ने आँख का इशारा किया ई ओ साहब अपने पिताजी से कुछ भी बताए बगैर चुप-चाप उठ कर उनके साथ घर से बाहर निकल गए। जब काफी देर हो गई तो बाबू जी साहब ने ई ओ साहब को खोजना चाहा तो मैंने बता दिया कि वह तो राजवंशी नगर वाले चाचा जी के साथ कहीं चले गए हैं। उनको यह बुरा लगा कि पिता को ठुकरा कर चाचा के साथ अपनी प्रिया चाची की बेटी की सुसराल ई ओ साहब चले गए और वह भी उनको सूचित किए बगैर। दिन मे जब वह दिखाई दिये तो सब के सामने बाबू जी साहब ने ई ओ साहब को जम कर लताड़ते हुये कहा-"You are not reliable to me, You are not faith full to me." मन मे अपनी गलती महसूस करते हुये ई ओ साहब चुप-चाप सुनते रहे उन्होने ई ओ साहब की चाची को भी जम कर लताड़ा उनकी भी बोलती न निकल पाई।

इंजीनियर साहब रिक्शा द्वारा खुद खाजा-गाजा खरीदने जा रहे थे साथ मे मुझे भी बैठा ले गए। रास्ते मे उन्होने ई ओ साहब के साढू का ज़िक्र करके अपने भाई-भाभी के विरुद्ध मेरी मदद मांगी। मैंने उन्हें स्पष्ट कर दिया अपने शिकवे से हम अपने आप निपटेंगे अपने भाई-भाभी से आप अपने आप निपटिए मैं हस्तक्षेप नहीं करूंगा। मैंने उन्हें सलाह भी दी की वह किसी और से अपने भाई -भाभी के विरुद्ध मदद न मांगे क्योंकि घर की बात बाहर जाती है जो नहीं जानी चाहिए। शायद इंजीनियर साहब को मन मे बुरा लगा कि मैंने उनका साथ नहीं दिया । उस समय वह चुप रहे किन्तु प्लेट फार्म नंबर चार पर हम लोगों को मगध एक्स्प्रेस पर छोडने आते समय उन्होने पूनम को बुरी तरह झाड़ा और दूसरे प्लेटफार्म पर रांची वाले प्रोफेसर चाचा-चाची के पास चले गए। स्टेशन पर मैंने पूनम को समझा दिया कि छोटे भाई को यहाँ नजर अंदाज़ कर दो।

उनकी शादी के बाद जिस दिन वह अपनी पत्नी को विदा करके घर ला रहे थे प्रोफेसर साहब ने भी पूनम को नाहक ही कस कर झाड़ा था कि कोई सफाई नहीं की दुल्हन का पलंग नहीं सजाया। प्रोफेसर साहब की तहबीज मे कैसे यह बात शामिल हुई कि बड़ी बहन छोटे भाई की पत्नी का पलंग सजाये मेरी समझ से परे थी जबकि वहाँ अनेकों उनसे  छोटी  अविवाहित बहने मौजूद थीं। पूनम का कहना था कि उन्होने चार साल रख कर पढ़ाया-लिखाया है इसका एहसान है। मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूँ। यदि कोई एहसान था तो पूनम के माता-पिता के ऊपर था पूनम पर नहीं। फिर किस हेसियत से विवाहित भतीजी को प्रोफेसर साहब ने उसके पति के समक्ष फटकारा?यह कौन सी काबिलियत है?वह तो बाबू जी साहब पर भी इसलिए बिफर गए थे कि उन्होने छोटे भाई को लेक्चरार कह  दिया था। प्रोफेसर साहब ने अपने सबसे बड़े भाई को भनना कर कहा था-"I am not lecturer ,I am professor." कहा जाता है कि प्रोफेसर साहब का अहंकार और पैसे वाला होने का गरूर बात-बात मे झलकता है। एक और गरूर उन्हें यह है कि उनका बीच का बेटा और पुत्र-वधू दोनों IAS हैं। वैसे इंजीनियर साहब की दाढ़ी-मूंछ प्रोफेसर साहब ने सँवारी  थी तब नाई की ड्यूटी बखूबी अदा की थी।

एक और अपने भतीजे की शादी मे आने पर प्रोफेसर साहब ई ओ साहब की बेटियों को संस्कृत के खिलाफ भड़का रहे थे,मुझसे समर्थन कराना चाहते थे कि इंगलिश के बगैर आदमी भूखा मरता है। मुझे उनकी एक भी बात धेला भर भी नही सुहाती है मैंने कह दिया-'पेट तो एक भिखारी भी बगैर कुछ पढे भर लेता है'। एक बार उसके बाद और मुझसे पहले तो अपने रांची वाले मकान के संबंध मे 'वास्तु' की जानकारी पूछी और डायरी मे नोट कर लिया फिर कहते हैं हमे वास्तु पर विश्वास नही। तब क्यों पूछा और क्यों नोट किया?प्रोफेसर साहब ने अपने छोटे बेटे की शादी का पत्र भेजा और लिख दिया कि आने की पूर्व सूचना देना। इससे पूर्व उनके बड़े बेटा हमारे आगरा के घर मे बिना पूर्व सूचना के मय सपरिवार आ चुके थे फिर उसी बेटा के साढू अपने और अपने मित्र के परिवार सहित भी बिना पूर्व सूचना के आ चुके थे। यही नहीं वह खुद भी उस शादी और पत्र लिखने के बाद हमारे घर अचानक बिना पूर्व सूचना के पहुंचे थे।उनके IAS बेटा और पुत्र-वधू भी बिना पूर्व सूचना के ही हमारे घर आए थे।  फोन पर मुझसे आगरा का मकान बेचने और लखनऊ मे खरीदने का दाम पूछना उनकी कौन सी हेसियत हुई? न बताने पर  टोह लेने हेतु अपने अहमदाबाद (मोदी भक्त)निवासी भतीजा को लखनऊ हमारे घर भेजने का असफल प्रयास किया। मेरे मौजूदगी मे ई ओ साहब से भोजपुरी मे इस लिए बात करने लगते हैं कि उन्हें यह जतलाना रहता है कि वह अपने क्षेत्र  और जाति से भिन्न लोगों को दोयम दर्जे का मानते हैं।


 हमारी बहन जी डॉ शोभा(जो संस्कृत मे पी एच डी हैं) को प्रोफेसर साहब की बातें भी पसंद हैं और ई ओ साहब की आरा वाली चाची की बेटी भी जो उनकी छोटी बेटी के शहर पूना मे ही रहती है। पूना आजकल मेरे तथा मेरे पुत्र यशवन्त के विरुद्ध षडयंत्रों का अड्डा बना हुआ है। वहाँ प्रवास कर रहे ब्लेक मेलर्स ब्लागर ,ब्लाग जगत मे हमारे विरुद्ध हम लोगों से पहले लाभ उठा लेने के बाद अब षड्यंत्र बुन रहे हैं।

क्रमशः..... 

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मंगलवार, 5 जून 2012

आगरा/1994 -95 /भाग-21

..... जारी .....


ई ओ साहब मय अपने परिवार और भाइयों के 12 नवंबर की रात मस्ती से दयाल लाज मे रुके। 13 तारीख को सुबह 10 बजे तक हमारे घर पहुंचे दिन का खाना खाने के बाद देर से 'किला' व 'ताज महल'घूमने निकले। किला घूमते-घूमते उनकी बड़ी बेटी थक गई और पूनम ने उसे गोद ले लिया तो मैंने छोटी को गोद ले लिया परंतु वह मुझ अजनबी की गोद से तुरंत उतर गई। बड़ी को उसके सगे चाचा ने जोरदार  डांट पिलाई जिस पर वह रो पड़ी। अधूरा किला घूम कर ताजमहल पहुंचे समय अधिक होने के कारण रु 20/- वाले टिकट मिलने बंद थे और प्रति टिकट रु 100/- वाला उपलब्ध था अतः ई ओ साहब बेरंग लौट लिए आखिर रु 900/- टिकट पर खर्च कैसे करते?मै इस हैसियत मे था ही नहीं कि इतना खर्च कर देता । वहाँ से बालाघाटी इंजीनियर साहब ने सबको टेम्पो टैक्सी के माध्यम से घर भेज दिया (चाबियाँ मैंने पूनम के सुपुर्द कर दी) और वह खुद मेरे मोपेड़ पर बैठ कर फोर्ट रेलवे स्टेशन पहुंचे। बड़े भाई-भाभी,चचेरे भाई और भतीजियों के टिकट 14 तारीख सुबह 06 बजे की  'जोधपुर -हावड़ा'से ले लिए ,सभी टिकेट वेटिंग मे थे। खुद और दो-चार दिन रुकने का कार्यक्रम रखे थे।

अगले दिन सुबह ई ओ साहब ने बुखार होने की शिकायत की और अपने छोटे भाई साहब को टिकट केनसिल कराने का निवेदन किया। फिर उन्हें मोपेड़ पर बैठा कर तड़के पाँच बजे फोर्ट स्टेशन ले गया वहाँ टिकट कनफर्म  मिले इत्तिफ़ाक से गाड़ी एक-डेढ़ घंटा लेट थी। भागमभाग घर पहुंचे ई ओ साहब की सोती बेटियों को जबर्दस्ती जगा कर  इंजीनियर साहब ने अपनी भाबी द्वारा तैयार कराया। जाना केनसिल होने के कारण पूनम ने तब तक कोई नाश्ते का प्रबंध नहीं किया था। घर मे रखे 'रस्क' के पेकेट  बटोर कर मैंने साथ के लिए दे दिये। हड़बड़ी मे चाय हुई। फिर सब लोग उन्हे पहुंचाने फोर्ट स्टेशन पहुंचे। उसी रात पटना पहुँच कर भी अगले दिन से ई ओ साहब लगभग एक माह ड्यूटी नहीं गए घर पर आराम फरमाते रहे जैसा कि उनके छोटे भाई ने प्रचारित किया। पूछने पर पूनम ने हमेशा चुप्पी साधे  रखी है।

इंजीनियर साहब को मै कामरेड किशन बाबू श्रीवास्तव एवं अशोक तथा गुरुदेवशरण के घर मिलाने ले गया था । धीरे-धीरे इन सभी ने कट-आफ कर लिया पता नहीं इंजीनियर साहब कौन सा जादू चला गए थे। दो दिन बाद इंजीनियर साहब रात की 'जोधपुर-हावड़ा' से जोधपुर एक हीरे की खान मे इंटरवियु देने रवाना हुये फिर उन्हें मोपेड़ से छोडने फोर्ट स्टेशन गया। गाड़ी काफी लेट थी लौटने मे बहुत देर हुई,पूनम घर पर परेशान रहीं उन्हे अभी पहुंचे हुये एक सप्ताह ही  तो हुआ था।

09 दिसंबर राजा की मंडी.....

27 सितंबर को दिन मे पूनम के पिताजी से ई ओ साहब के सामने व उसी दिन शाम को उनकी माताजी से उनके ही सामने स्पष्ट कर दिया था कि शालिनी के घर के लोगों से हमारे अब कोई संबंध नहीं हैं। फिर भी उन लोगों ने पूनम को कौन सा पाठ पढ़ाया था कि वह लगातार राजा-की-मंडी चलने की ज़िद कर रही थीं। मैंने यहाँ तक कहा कि बउआ ने मना किया था कि वहाँ बिना बुलाये पूनम को न ले जाना (क्योंकि वे ही लोग पूनम का फोटो पसंद करके मुझ पर दबाव बनाए थे उनसे विवाह करने हेतु)। पूनम ने यह कह दिया कि," अपनी मरी माँ की बात भी मानना है और हमारी ज़िंदा माँ की बात भी नही मान रहे हैं। " इस बात पर मैंने कह दिया कि ठीक है मौका मिलने पर ले चलेंगे। यशवन्त को उसके बाबा जी-दादी जी वृन्दावन-बाँके बिहारी मंदिर दर्शन करवाने लगभग हर वर्ष भिजवाते थे,1994 मे भी भिजवा दिया था। इस बार अभी तक नही गया था लिहाजा यह तय हुआ कि 09 दिसंबर को ट्रेन से चलते हैं और ट्रेन से ही लौटते हैं तब लौटते मे राजा-की मंडी भी ले चलेंगे। वैसा ही किया। बाहर के बरामदे को कवर्ड कर बनाए कमरे मे संगीता ने बैठा दिया और शालिनी की माँ काफी विलंब से आई। पूनम ने उनसे कहा -"मेरी माँ तो 800 किलोमीटर दूर हैं यहाँ आप ही मेरी स्थानीय माँ हैं। " वह औरत मौन ही रही । बाज़ार से चाय वाले के यहाँ से मगा कर बिस्कुट दिये और संगीता ने जो चाय बनाई खुद पूनम ही पूरी न पी सकीं उनका ही कहना है कि गुड़ की थी। बड़ा शौक था अपनी ज़िंदा माँ की बात मान कर और मुझ पर अविश्वास कर वहाँ जाने का वह पूरा हो गया ।


मेरी गैरहाजिरी मे गुरुदेवशरण पूनम को हम सब का भोजन उनके घर  करने का निमंत्रण दे गए  थे। मै इच्छुक नहीं था परंतु फिर वह खुद ही बुलाने भी आ गए तो जाना ही पड़ा । गुरुदेवशरण के घर का खाना खा कर लौटते मे पूनम ने मंकामेश्वर मंदिर जाने की इच्छा व्यक्त की जिसकी खूब तारीफ गुरुदेव जी ने की थी। मै इच्छुक नहीं था परंतु आग्रह टाला नहीं। रास्ते मे स्पीड ब्रेकर पर पूनम मोपेड़ से गिर गई और कंधे-कमर मे अंदरूनी चोटे आई। एक तो राजा-की मंडी जाकर शालिनी की माँ को अपनी माँ कहना फिर उनके एजेंट गुरुदेवशरण का भोज स्वीकार करना खुद पूनम को ही काफी भारी पड़ा।

ई ओ साहब अपने पिताजी की एक चिट्ठी अपने साथ लाये थे जिसमे उन्होने मुझसे पूनम और यशवन्त को लेकर बड़े दिन पर उनके पास पटना आने को कहा था। मुझे काफी हैरानी है कि जब कुछ ही दिन मे पटना जाना ही था और वहाँ सब आमने-सामने होते तब राजा-की मंडी जाने या न जाने का फैसला हो सकता था फिर क्यों उन्होने या उनकी माताजी ने उनसे मुझ पर दबाव बनवाया जिसका परिणाम खुद पूनम के लिए ही घातक हुआ। 24 दिसंबर को चल कर 25 को हम लोग पटना पहुंचे 'मगध एक्स्प्रेस' फिर लेट पहुंची पूनम के पिताजी तैयार खड़े थे हम लोगों के घर पहुँचते ही वह अपने ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन के गेट-टुगेदर मे भाग लेने रवाना हो गए। उन्होने चूंकि पत्र मे यह नहीं लिखा था कि वह कितने दिन के लिए बुला रहे हैं या कि पूनम को कुछ दिनो के लिए रोकना  था लिहाजा मैंने सबके लौटने का टिकट पहली जनवरी का बुक कराने को कह दिया था।


जितने दिन वहाँ रहे ई ओ साहब की परम प्रिया  चाची आरा वाली के दोनों पुत्र हमारे साथ छाया की भांति लगे रहते थे ,उस समय यह धोखा हुआ   कि वे मिलनसार हैं परंतु बाद मे ज्ञात हुआ कि टोही लोग थे और किसी न किसी खौफनाक मकसद से घेरे रहते थे। 

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रविवार, 3 जून 2012

आगरा/1994-95 (भाग-20)

.... जारी......

चूंकि डॉ शोभा के पहले चले जाने का प्रोग्राम तय हो चुका था अतः 12 नवंबर की चाय पार्टी की देख-रेख हेतु मुझे अशोक और नवीन की पत्नियों से आग्रह करना पड़ा जिसे उन लोगों ने सहर्ष स्वीकार तो कर लिया था किन्तु दूसरे का घर दूसरे का घर ही होता है के आधार पर गैर-जिम्मेदाराना तरीके से व्यवस्था उन लोगों ने की जिसमे काफी सामान बर्बाद हुआ। 12 तारीख की सुबह गंगा-जमुना एक्स्प्रेस  से पूनम के ई ओ भाई और उनके परिवार को आगरा पहुंचना था किन्तु सरकारी अधिकारी महोदय टूंडला मे ही उतर गए(जबकि टूंडला से उसका एक भाग आगरा के तीन स्टेशनो से होकर गुजरता था) वहाँ से टैक्सी मे आकर कमलानगर को क्रास कर निकलते हुये   उसे  भगवान टाकीज़ चौराहे पर छोड़ा और दयाल लाज मे सपरिवार ठहर गए। मस्ती मे नहाते -धोते,नाश्ता करके आराम फरमाने लगे।


इधर घर पर पूनम परेशान कि उनके भाई-भाभी,बच्चे कहाँ खो गए?क्योंकि पी सी ओ से फोन करके पूछा तो पटना से उनके पिताजी ने कहा कि वे सब कल दानापुर से गाड़ी मे बैठे थे (जबकि गाड़ी पटना ही से होकर चली थी)। यशवन्त को तो नाश्ता करा  दिया था किन्तु पूनम व मैंने कुछ भी न लिया कि आगंतुक लोग कहाँ भटक गए हैं इसकी चिंता थी। मै काफी समय से कह रहा था कि जाकर दयाल लाज चेक कर लेते हैं वे लोग ज़रूर वहाँ आराम फर्मा रहे होंगे और तुम नाहक परेशान व भूखी हो। पूनम का कहना था भैया दो बार यहाँ आ चुके हैं घर देखा हुआ है सीधे यहीं आने को बोल रहे थे वहाँ क्यों जाने लगे?पूनम सहज-सरल स्वभाव की है वह अपने भाइयों की तिकड़म नहीं समझती(पिताजी ने आने-जाने का खर्च दिया था क्यों न ऐश करते?भला भोली बहन कैसे समझे भाइयों की करतूत?)। अंततः दिन के 12 बजे मैंने मोपेड़ उठाई और दयाल लाज जा पहुंचा। वहाँ देखा कि पूनम के बड़े भाई-भाभी उनकी नन्ही बेटियाँ,छोटे इंजीनियर भाई और एक चचेरे भाई दो कमरों मे  मस्ती मे आराम फर्मा रहे हैं।  वे लोग बाज़ार से लाकर नाश्ता भी कर चुके थे और घर पर हम दोनों भूखे-प्यासे उन लोगों का इंतज़ार कर रहे थे। मैंने उन लोगों को तत्काल घर चलने को कहा ई ओ साहब बोले आपका कार्यक्रम शाम का है हम शाम को पहुंचेंगे। मैंने उनसे सीधे सवाल किया तब तक हम लोग भूखे-प्यासे ही बैठे रहें क्या?आप हमारे बुलावे पर आए हैं और घर न आ कर आपने हमारे निमंत्रण का मखौल बनाया है। बड़ी मुश्किल से उन लोगों को घर चलने को राज़ी किया क्योंकि लाज का किराया दे चुके थे अतः सामान वहीं छोड़ कर आए और रात मे सोने वहीं पहुंचे।

निर्धारित समय से पूर्व ही डॉ अस्थाना,पुरोहित तीरथ राम शास्त्री जी  और मूलचंद जी (पार्ट टाईम दुकान के साथी) आ आ कर चले गए अलग-अलग उनको चाय नाश्ता कराया उन लोगों को फायदा रहा। तीरथ राम जी ने हवन करने को कहा मैंने इसकी कोई तैयारी नहीं की थी। वह खुद आर्यसमाज से हवंन कुंड,सामाग्री आदि ले आए उन्हें भुगतान कर दिया। ई ओ साहब ने उन्हे रु 100/- दिये तो उन्होने एक रुपया और मांग कर रु 101/-की आर्यसमाज की रसीद तत्काल दे दी। मैंने तो सिर्फ रु 11/- ही दिये थे ,शेख़ी बघारना मुझे नहीं आता।

नियत समय पर कम लोग ही आए आगे-पीछे लोग आए। कामरेड किशन बाबू श्रीवास्तव साहब और उनकी बीमार पत्नी कामरेड मंजू श्रीवास्तव भी आए।कामरेड मंजू श्रीवास्तव ने ई ओ साहब की पत्नी और पूनम से काफी आत्मीयता से वार्ता की। अकड़ू खां गुरुदेव्शरण माथुर साहब भी सपत्नीक पधारे थे। अशोक-नवीन और उनके परिवार तो थे ही। रेकसन से नारायण दास पहलाजानी साहब,मेक्सवेल से शंकर लाल जी के बड़े बेटे,वाकमेक्स से सुंदर लाल जी के साले भी आए थे।

पूनम को शिकायत है और वाजिब भी है कि उनके आगमन पर ढंग से रिसेप्शन ,पार्टी वगैरह कुछ नहीं हुआ। पाँच माह पूर्व ही बाबूजी और बउआ का निधन हुआ था उनकी बेटी-दामाद अकड़ कर वापिस जा चुके थे और छोटे बेटा -अजय तो उनके निधन के बाद से पलट कर आए ही नहीं। इन परिस्थितियों मे मै किस प्रकार पूनम का स्वागत-सत्कार धूम-धाम से कर सकता था?हालांकि वह खुद भी इसे महसूस करती हैं परंतु  दिल मे कसक तो रह ही गई।  आते ही तो उन्हे झाड़ू लगाना पड़ गई । वह इसे अपने साथ किस्मत का छल कहती हैं और मै ग्रहों का परिणाम मानता हूँ जो किसी न किसी मनुष्य के माध्यम से फलित होता है। मेरे अपने साथ भी वही बात लागू होती है कि जिसका भला करता हूँ वही टांग-खिचाई शुरू कर देता है-आज भी यही क्रम जारी है।
क्रमशः .... 

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