सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

बाबूजी के स्मरण के बहाने अपनी बात ------ विजय राजबली माथुर


जन्म:24-10-1919,दरियाबाद (बाराबंकी );मृत्यु:13-06-1995;आगरा  

हमारे बाबूजी ताज राजबली माथुर साहब ने अपनी पूरी ज़िंदगी 'ईमान ' व 'स्वाभिमान ' के साथ आभावों में गुज़ार दी लेकिन कभी उफ तक न की न ही कोई उलाहना कभी किसी को दिया। आज जब लोग अपने हक हुकूक के लिए किसी भी हद तक गिर जाते हैं हमारे बाबूजी ने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपने हक को भी ठुकरा दिया था। मैंने भी पूरी कोशिश करके 'ईमान ' व 'स्वाभिमान ' की भरसक रक्षा की है भले ही अपने ही भाई - बहन की निगाहों में मूर्ख सिद्ध हुआ हूँ। उत्तर प्रदेश के माथुर कायस्थ परिवारों में हमारे  बली  खानदान  से सभी परिचित हैं। 


एक परिचय :

हमारे रिश्ते में एक  भतीजे थे राय राजेश्वर बली जो आज़ादी से पहले यू पी गवर्नर के एजुकेशन सेक्रेटरी भी रहे और रेलवे बोर्ड के सदस्य भी। उन्होने ही 'भातखण्डे यूनिवर्सिटी आफ हिन्दुस्तानी म्यूज़िक' की स्थापना करवाई थी जो अब डीम्ड यूनिवर्सिटी के रूप में सरकार द्वारा संचालित है। उसके पीछे ही उनके ही एक उत्तराधिकारी की यादगार में 'राय उमानाथ बली' प्रेक्षागृह है , वह भी सरकार द्वारा संचालित है।


'बली ' वंश एक ऐतिहासिक महत्व :

जब राय राजेश्वर बली साहब उत्तर-प्रदेश के शिक्षामंत्री थे (आज़ादी से पूर्व सम्बोधन एजुकेशन सेक्रेटरी था ) तब उन्होने महिलाओं की दशा सुधारने के लिए स्त्री-शिक्षा को विशेष महत्व दिया था। संगीत विश्वविद्यालय की स्थापना करवाना भी इसी दिशा में उठाया गया कदम था। 

ऐसा नहीं है कि ये क्रांतिकारी कदम राजेश्वर बली साहब ने यों ही उठा लिए थे बल्कि इसकी प्रेरणा उनको वंशानुगत रूप से मिली थी। हमारा 'बली ' वंश एक ऐतिहासिक महत्व रखता है । जिस समय बादशाह अकबर की  तूती बोल  रही थी हमारे पूर्वजों ने उनके विरुद्ध मेवाड़ के महाराना प्रताप के पक्ष में बगावत कर दी थी और 'दरियाबाद' में स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। परंतु उस समय अकबर के विरुद्ध अधिक समय तक आज़ादी टिकाई नहीं जा सकती थी क्योंकि चारों ओर तो अकबर का मजबूत शासन स्थापित था। नतीजा यह हुआ कि शाही सेना ने पूरे के पूरे खानदान को मौत के घाट उतार दिया। परंतु स्थानीय लोग जो हमारे पूर्वजों के प्रति एहसानमंद थे ने किसी प्रकार इस परिवार की एक गर्भिणी महिला को छिपा लिया था। नर-संहार के बाद जब शाही सेना लौट गई तब उनको आगरा उनके भाई के पास भेजने की व्यवस्था की गई जो अकबर के दरबार के ही सदस्य थे। मार्ग में 'नीम' के दरख्त के एक खोटर में उन्होने जिस बालक को जन्म दिया उनका नाम 'नीमा राय ' रखा गया। हम लोग इन्हीं नीमा राय बली  साहब के वंशज हैं।

जब नीमा राय जी 10 -12 वर्ष के हो गए तब इनके मामाजी इनको भी अपने साथ दरबार में ले जाने लगे। यह बहुत ही मेधावी व होनहार थे। कभी-कभी बादशाह अकबर इनसे भी कुछ सवाल उठाते थे और इनके जवाब से बेहद संतुष्ट होते थे। लेकिन पूछने पर भी इनके मामाजी ने इनके पिता का नाम बादशाह को कभी नहीं बताया सिर्फ यही बताया कि उनके भांजा हैं। एक दिन इनके जवाब से अकबर इतना प्रसन्न हुये कि ज़िद्द पकड़ गए कि इस होनहार बालक के पिता का नाम ज़रूर जानेंगे । मजबूर होकर इनके मामाजी को बादशाह से कहना पड़ा कि पहले आप आश्वासन दें कि मेरे इस भांजे की आप जान नहीं लेंगे तब इसके पिता का नाम बताएँगे। अकबर ने ठोस आश्वासन दिया कि इस बालक की जान नहीं ली जाएगी। तब इनके मामाजी ने इनका पूरा परिचय दिया और बताया कि आपके पूरा खानदान नष्ट करने के आदेश के बावजूद मेरी बहन को स्थानीय लोगों ने बचा कर आगरा भिजवा दिया था और रास्ते में इस बालक का जन्म हुआ था। 

अकबर ने नीमाराय साहब के पूर्वजों का छीना हुआ राज-पाट वापिस करने का फरमान जारी कर दिया  और इनको अपनी सेना के संरक्षण में दरियाबाद भिजवाया। बालक नीमाराय  ने वह जगह जहां काफी खून खराबा  हुआ था और उनका खानदान तबाह हुआ था लेने से इंकार कर दिया । तब उसके बदले में दूसरी जगह चुन लेने का विकल्प इनको दिया गया। इनको दौड़ता हुआ एक खरगोश का बच्चा पसंद आया था और इनहोने कह दिया जहां यह खरगोश का बच्चा रुकेगा वही जगह उनको दे दी जाये । दिन भर शाही कारिंदे नीमाराय जी को लेकर खरगोश के बच्चे के पीछे दौड़ते रहे आखिकार शाम को जब थक कर वह खरगोश का बच्चा एक जगह सो गया उसी जगह को उन्होने अपने लिए चुन लिया। उस स्थान पर बादशाह अकबर के आदेश पर एक महल तहखाना समेत इनके लिए बनवाया गया था। पहले यह महल खंडहर रूप में 'दरियाबाद' रेलवे स्टेशन से ट्रेन में बैठे-बैठे भी दीख जाता था। किन्तु अब बीच में निर्माण होने से नहीं दीख पाता है। 

1964 तक जब हम मथुरा नगर, दरियाबाद गए थे इस महल के अवशेष उस समय की याद दिला देते थे। बाहरी बैठक तब तक मिट्टी की मोटी  दीवार से बनी थी और काफी ऊंचाई पर थी उसमें दुनाली बंदूकों को चलाने के स्थान बने हुये थे। लेकिन अब  बड़े ताऊ जी के बेटों ने उसे गिरवाकर आधुनिक निर्माण करा लिया है। अब भी खंडहर रूप में पुरानी पतली वाली मजबूत ईंटें वहाँ दीख जाती हैं। हमारे बाबाजी ने रायपुर में जो कोठी बनवाई थी वह भी 1964 तक उसी तरह थी परंतु अब उसे भी छोटे ताऊ जी के पुत्र व पौत्रों ने गिरवाकर आधुनिक रूप दे दिया है। हमारे बाबूजी तो सरकारी नौकरी में और दूर-दूर रहे, इसलिए  हम लोग विशेषतः मैं तो जमींदाराना  बू से दूर रहे हैं। यही वजह है कि, दोनों ताऊजियों के पुत्र हमसे दूरी बनाए रहे हैं। 

राजेश्वर बली साहब जब रेलवे बोर्ड के सदस्य थे तब उन्होने हर एक्स्प्रेस गाड़ी का ठहराव दरियाबाद रेलवे स्टेशन पर करवा दिया था । अब भी वह परंपरा कुछ-कुछ लागू है। हमारे बाबाजी के छोटे भाई साहब हैदराबाद निज़ाम के दीवान रहे थे और उनके वंशज उधर ही बस गए हैं। 
समय के विपरीत धारा पर  : 
जहां एक ओर इस परिवार के अधिकांश लोग समयानुसार चल रहे हैं सिर्फ मैं ही समय के विपरीत धारा पर चलते हुये भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध चल रहा हूँ। हमारे पिताजी के सहपाठी और रूम मेट रहे कामरेड भीखा लाल जी से मिलने का मुझे सौभाग्य मिला है। भाकपा एम एल सी रहे  बाराबंकी के कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह साहब से भी हमारा सान्निध्य रहा वह हमारे बाबाजी के चचेरे भाई राय धर्म राजबली साहब के परिचितों में थे। इन राय धर्म राजबली साहब के बड़े पुत्र डॉ नरेंद्र राजबली साहब का निधन भी इस वर्ष जनवरी में हो गया है जबकि सबसे छोटे  योगेन्द्र राजबली साहब का निधन कुछ वर्ष पहले ही हो चुका है । इनके दूसरे पुत्र डॉ वीरेंद्र राजबली साहब न्यूयार्क में अपना व्यवसाय कर रहे हैं। हमारे लखनऊ आने के बाद जब  वीरेंद्र चाचा  यहाँ आये  हैं तब हमसे भी मिलने पिछ्ले दो वर्षों से हमारे घर आए हैं। इस वर्ष भी उनसे मुलाक़ात होगी, मैं उनको अपने ब्लाग पोस्ट्स ई मेल के जरिये भेजता रहता हूँ और वह पढ़ कर प्रिंट करा कर रिकार्ड में रख लेते हैं।बाबूजी के इन चचेरे भाइयों से हमें अनुराग मिलता रहा है।   
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24-10-2016

25-10-2016 

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बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

हम और हमारे पर्व ------ विजय राजबली माथुर

*जब पृथ्वी पर मानव सभ्यता का विकास हुआ तब मानव जीवन को सुखी,सम्पन्न,समृद्ध व दीर्घायुष्य बनाने के लिए प्रकृतिक नियमों के अनुसार चलने के सिद्धान्त खोजे और बताए गए थे। कालांतर में निहित स्वार्थी किन्तु चालाक मनुष्यों ने अपने निजी स्वार्थ के चलते उन नियमों को विकृत करके मानवता प्रतिगामी बना दिया और बड़ी ही धूर्तता से उसे धर्म के आवरण में ढक कर पेश किया जबकि वह कुतर्क पूरी तरह से अधार्मिक व थोथा पाखंड-ढोंग -आडंबर ही था। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि, खुद को एथीस्ट और प्रगतिशील कहलाने वाला तबका भी उसे ही धर्म की संज्ञा देकर अज्ञान-अंधकार को बढ़ाने में पोंगापंथियों की अप्रत्यक्ष सहाता ही करता है। 
अर्थशास्त्र के 'ग्रेशम ' सिद्धान्त के अनुसार खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है उसी प्रकार समाज में भी खराब बातें अच्छी बातों को बेदखल कर देती हैं। बदलते मौसम के अनुसार कुछ पर्व और उनके नियम मनुष्य के फायदे के लिए बनाए गए थे जिनको आज न कोई जानता है न ही जानना चाहता है। आज हर पर्व - त्योहार व्यापार/उद्योग जगत के मुनाफे का साधन बन कर रह गया है। अब ये पर्व स्वास्थ्य वर्द्धक जीवनोपयोगी नहीं रह गए हैं। 
पाँच वर्ष पूर्व से मेरी पत्नी ने मेरी बात मान कर 'करवा चौथ' , 'बरमावस ' जैसे हीन पर्वों का परित्याग कर दिया है। अतः हमारे घर से ढोंग-पाखंड विदा हो चुका है। हम अब सुविधानुसार मेटेरियल साईन्स : पदार्थ विज्ञान पर आधारित हवन ही करते हैं जो पर्यावरण शुद्धि का भी साधन है।

*जब तुलसीदास ने तत्कालीन शासन - व्यवस्था के विरुद्ध जनता का आह्वान करने हेतु 'रामचरितमानस ' को प्रारम्भ में 'संस्कृत ' में लिखना शुरू किया था तब काशी के ब्राह्मणों ने उनकी पांडु लिपियों को जला जला दिया जिस कारण उनको अयोध्या आकर 'अवधी ' में रचना करनी पड़ी। कालांतर में ब्राह्मणों ने दो चालें चलीं एक तो 'रामचरितमानस ' में 'ढ़ोल,गंवार,शूद्र,नारी ... ' जैसे प्रक्षेपक ठूंस कर तुलसीदास को और प्रकारांतर से राम को बदनाम कर दिया। दूसरी चाल काफी गंभीर थी जिसके जरिये एक जन - नायक राम को 'अवतार ' या 'भगवान ' घोषित करके उनका अनुसरण करने से रोक दिया गया।
वस्तुतः रावण प्रकांड विद्वान  और वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ तो था किन्तु था विसतारवादी/साम्राज्यवादी उसने लगभग सम्पूर्ण विश्व की अपने अनुकूल घेराबंदी कर ली थी और भारत पर भी कब्जा करना चाहता था। उसे 'दशानन ' दसों दिशाओं ( पूर्व,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण,ईशान - उत्तर पूर्व,आग्नेय - दक्षिण पूर्व,नेऋत्य - दक्षिण पश्चिम,वावव्य - उत्तर पश्चिम,अन्तरिक्ष,भू गर्भ ) का ज्ञाता होने के कारण कहा जाता था । ...रावण ने सीता का अपहरण नहीं किया था राम व सीता की यह कूटनीति थी कि, सीता ने लंका पहुँच कर वहाँ की सामरिक व आर्थिक सूचनाओं को राम तक पहुंचाया था। सीता से सूचना पाकर ही राम की वायु सेना के प्रधान ' हनुमान ' ने 'राडार ' (सुरसा ) को नष्ट कर लंका में प्रवेश किया और कोशागार तथा आयुद्ध भंडारों को नष्ट करने के अलावा ' विभीषण ' को राम के साथ आने को राज़ी किया था।  भारत की जनता की ओर से राम ने कूटनीतिक व सामरिक युद्ध में रावण को परास्त कर भारत को साम्राज्यवाद की जकड़ से बचा लिया था। लेकिन दुर्भाग्य से आज वही राम साम्राज्यवादियों, व्यापारियों एवं ब्राह्मणों द्वारा जनता की लूट व शोषण हेतु तथा बाज़ार/कारपोरेट घरानों  की मजबूती के लिए प्रयोग किए जा रहे हैं।

*'ॐ नमः शिवाय च ' का अभिप्राय है भारत देश को नमन। इसे समझने के लिए भारत वर्ष का मानचित्र लेकर 'शिव ' के रूप मे की गई कल्पना को मिला कर विश्लेषण करना होगा। उत्तर में  हिम - आच्छादित हिमालय ही तो शिव के मस्तक का अर्द्ध चंद्र है। शिव के मस्तक में 'गंगा ' का प्रवेश इस बात का सूचक है कि, भारत भाल के ऊपर 'त्रिवृष्टि ' - तिब्बत स्थित 'मानसरोवर झील ' से गंगा का उद्गम है। शिव के साथ सर्प, बैल (नंदी ), मनुष्य आदि विविध जीवों का दिखाया जाना ' भारत की  विविधता में एकता ' का संदेश है। 'शिव ' का अर्थ ज्ञान - विज्ञान से है अर्थात शिव का आराधक व्यापक दृष्टिकोण वाला ही हो सकता है जो सम्पूर्ण देश के सभी प्राणियों के साथ सह - अस्तित्व की भावना रखता हो। इसका यह भी अर्थ है कि, जो देश के सभी प्राणियों से एक समान व्यवहार नहीं रखता है वह 'शिव - द्रोही ' अर्थात 'भारत देश का द्रोही ' है। तुलसीदास ने राम द्वारा यही कहलाया है 'जो सिव द्रोही सो मम द्रोही '। जो राम भक्त होने का दावा करे और राम के देश अर्थात शिव भारत के सभी लोगों में समान भाव न रखे वह न तो देश भक्त है न ही राम भक्त। 

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