गुरुवार, 25 जून 2015

बउआ की पुण्यतिथि पर एक स्मरण --- विजय राजबली माथुर


(स्व.कृष्णा माथुर : जन्म- 20 अप्रैल 1924 मृत्यु - 25 जून 1995 )
बउआ  को  पुण्यतिथि पर श्रद्धांजली :
हम लोगों के यहाँ माँ को बउआ कहने का रिवाज था वही हमें भी बताया गया था आजकल फैशन में कुछ लोग मम्मी उच्चारित करने लगे हैं किन्तु हम अब भी वही ज़िक्र करते हैं जो बचपन से सिखाया गया था। हाँ सहूलियत के लिए कभी-कभी माँ कह देते हैं। जो ममत्व दे वह माँ और जो निर्माण करे वह माता कहलाने के योग्य होता है। श्री कृष्ण के लिए देवकी जननी तो थीं किन्तु माँ और माता की भूमिका का निर्वहन यशोदा ने किया था। इस दृष्टि से मैं खुद को भाग्यशाली समझ सकता हूँ कि हमारी बउआ  सिर्फ जननी ही नहीं वास्तव में माँ और माता भी थीं।सिर्फ बाबूजी ही नहीं बउआ की बताई -सिखाई बातों का भी प्रभाव आज तक मुझ पर कायम है जबकि दोनों को यह संसार छोड़े हुये अब बीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। वैसे हमारे नानाजी ने मौसी को 5 वीं तथा बउआ को 4थी कक्षा तक ही पढ़वाया था। लेकिन बउआ का व्यवहारिक अनुभव आजकल के Phd. पढे लोगों से कहीं अधिक और सटीक था उनकी खुद की पुत्री भी डबल एम ए, Phd.होने के बावजूद अपनी माँ के बराबर ज्ञानार्जन न कर सकी हैं जिसका एक कारण अपनी माँ को ही अल्पज्ञ समझना भी है।

जहां तक मैं कर सका बउआ व बाबूजी की परम्पराओं व बातों को मानने का पूरा-पूरा प्रयास किया। लेकिन विद्रोहात्मक स्वभाव के कारण सड़ी-गली मान्यताओं को उनके जीवन काल में उनसे ही परिपालन न करने-कराने  की कोशिश करता रहा और अब पूरी तौर पर अव्यवहारिक व भेदभावमूलक मान्यताओं का पालन नहीं करता हूँ। व्यक्तिगत रूप से एकांतप्रिय स्वभाव अनायास ही नहीं बन गया है बल्कि बचपन से ही एकांत में मस्त रहने का अभ्यस्त रहा। इसका प्रमाण यह चित्र है :*****

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 मथुरानगर, दरियाबाद के पुश्तैनी घर में बड़े ताऊजी की बड़ी बेटी स्व.माधुरी जीजी अपनी चाची अर्थात हमारी बउआ से मुझे मांग कर ले जाती थीं और अपनी छोटी बहनों के साथ खेलने लगती थीं। मुझे एक तरफ बैठा देती थीं मुझे उन बड़ी बहनों के खेल में दिलचस्पी नहीं रही होगी तभी तो बेर के पत्तों से अकेले ही खेल लेता था। उन पत्तों में कांटे भी हो सकते हों परंतु मुझे कभी किसी कांटे से फर्क नहीं पड़ा होगा अन्यथा फिर जीजी मुझे कभी अपने साथ न ले जा पातीं। संघर्षों व अभावों से झूझते हुये बउआ ने बचपन से ही मेरी मानसिकता को जिस प्रकार ढाला था उसे मजबूती के साथ अपनाए हुये मैं आज भी अपने को सफल समझता हूँ। हाँ पत्नि व पुत्र के लिए ये स्थितियाँ अटपटी लगने वाली हैं। परंतु मेरे लिए नहीं जिसका उदाहरण पूर्व प्रकाशित लेख का यह अंश है :*****

"पत्रकार स्व .शारदा पाठक ने स्वंय अपने लिए जो पंक्तियाँ लिखी थीं ,मैं भी अपने ऊपर लागू समझता हूँ :-



लोग कहते हम हैं काठ क़े उल्लू ,हम कहते हम हैं सोने क़े .
इस दुनिया में बड़े मजे हैं  उल्लू   होने   क़े ..


ऐसा इसलिए समझता हूँ जैसा कि सरदार पटेल क़े बारदौली वाले किसान आन्दोलन क़े दौरान बिजौली में क्रांतिकारी स्व .विजय सिंह 'पथिक 'अपने लिए कहते थे मैं उसे ही अपने लिए दोहराता रहता हूँ :-
यश ,वैभव ,सुख की चाह नहीं ,परवाह नहीं जीवन न रहे .
इच्छा है ,यह है ,जग में स्वेच्छाचार  औ दमन न रहे .."

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मंगलवार, 16 जून 2015

एक स्मरण 22 वीं पुण्यतिथि पर --- विजय राजबली माथुर

22 वीं पुण्यतिथि पर स्मरण :
(शलिनी माथुर : 04 जनवरी 1959- 16 जून 1994 )

कुल साढ़े बारह वर्ष का ही साथ रहा और 25 मार्च 1981 को एंगेजमेंट के तुरंत बाद जब उन लोगों ने शालिनी के हाथ का अध्यन करने को कहा था और आयु रेखा 35 वर्ष पर ही समाप्त दीखी थी तब माथा तो ठनका था कि क्या महज़ 13 वर्ष का ही साथ होगा। उस वक्त कुछ किसी को बताया नहीं जा सका , बताना उचित भी नहीं था फिर दिमाग से बात ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग। फिर जब मथुरा में शालिनी के ममेरे भाई राम अवध नारायण माथुर साहब की पुत्री लवलीन ने उनका हाथ देख कर कहा था  कि " भुआ आपकी आयु तो 36 वर्ष ही है। " तो उनका जवाब था कि अब हम मरने वाले हैं। उनके बड़े भाई कुक्कू के दोस्त वीर बहादुर सिंह टामटा ने टूंडला से इटावा पहुँच कर हाथ देख कर पहले ही बता दिया था कि कुल आयु 36 तक है अतः उन सबको पहले से ही मालुम था। 16 जून 1994 को मृत्यु के समय 36 वां वर्ष ही चल रहा था। 

चूंकि अजय को शीघ्र ही वापिस फरीदाबाद लौटना था अतः बाबूजी ने परंपरागत तेरहवीं के चक्कर में न पड़ कर 'आर्यसमाज' के पुरोहित से पाँच दिन पर 'हवन' करवा लिया था। दकियानूस पोंगापंडितों के चक्कर में फंसे रिशतेदारों व अन्य लोगों ने इसकी आलोचना की कि तेरहवीं क्यों नहीं की। गोविंद बिहारी मौसाजी सबसे ज़्यादा बाबूजी के विरुद्ध मुखर थे। तब माँ ने बताया कि उन मौसाजी के श्वसुर अर्थात माँ के फूफाजी ने तो उनकी भुआ के निधन पर सिर्फ तीन दिन बाद ही हवन करवा लिया था। मैंने इस प्रश्न को उनके समक्ष रखा और पूछा कि वह अपने  साढ़ू अर्थात हमारे बाबूजी की तो निंदा कर रहे हैं अपने श्वसुर साहब के बारे में उनकी क्या राय है। तब से मुझको सद्दाम हुसैन कहने व प्रचारित करने लगे थे। 

बहरहाल शालिनी के बाद से जो आर्यसमाज से संपर्क हुआ वह अगले वर्ष जून 1995 में बाबूजी व माँ के निधन के बाद से और गहरा हो गया व बाद में कमलानगर-बल्केशवर  आर्यसमाज, आगरा की कार्यकारिणी में भी मैं शामिल रहा किन्तु आर्यसमाज के आर एस एस प्रभुत्व के लोगों के नियंत्रण के बाद संगठन छोड़ दिया। जबकि नीति और सिद्धांतों का अनुसरण अब भी करता हूँ। आर्यसमाज 'हिंदूवाद' के विरुद्ध है अतः मौलिक आर्यसमाजी सदैव आर एस एस का विरोधी होता है जिसका गठन ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए हुआ था जबकि आर्यसमाज का गठन ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ने हेतु किया गया था।


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शनिवार, 13 जून 2015

बाबूजी की पुण्यतिथि पर एक स्मरण --- विजय राजबली माथुर

(ताज राजबली माथुर : जन्म 24 -10-1919 मृत्यु 13-06-1995 )
 बाबूजी को पुण्य तिथि पर श्रद्धांजली :

यद्यपि बाबूजी को यह संसार छोड़े हुये बीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परंतु उनकी बताई हुई बातें दिमाग में अभी भी ताज़ा हैं और उन पर ही चलने का भरसक प्रयास भी रहता है। यही कारण है कि उनकी भांति ही ईमानदारी की सजा भी भुगतता रहता हूँ। एक बार मैंने बाबूजी से सवाल किया था कि उन्होने बचपन से ही ईमानदारी पर चलना क्यों सिखाया था जबकि वह खुद अंजाम भुगतते रहे थे? बाबूजी ने सीधा जवाब दे दिया था कि हमने तो तीनों को ईमानदारी सिखाई थी जब तुम्हारे बहन-भाई अलग रास्ते पर चल रहे हैं तो तुम भी चल सकते हो हम अब कोई पाबंदी तो नहीं लगाए हुये हैं। 

बाबूजी ने तो सरलता से कह दिया लेकिन मेरे लिए वैसा करना संभव नहीं था। बाबूजी तो रक्षा विभाग की सरकारी सेवा में प्रोन्नति से वंचित रह कर  नौकरी चला ले गए किन्तु मुझे निजी क्षेत्र की नौकरी में प्रोन्नति प्राप्त करने के बावजूद चला पाना मुश्किल रहा। तीन साल फिर दस साल बाद स्थान व जाब बदलने पड़े और फिर पंद्रह साल स्वतंत्र रूप से जाब किया और अब पंद्रह साल से कोई जाब न करके स्वतंत्र रूप से ज्योतिषीय सलाहकार के रूप में सक्रिय हूँ। बात इसमें भी वही है कि ईमानदारी की कद्र कोई नहीं करता परिणाम अर्थाभाव का सामना व लोगों की  हिकारत भरी नज़र  का सामना । मेंरी प्रवृत्ति बाबूजी से इस माने में भिन्न हो जाती है कि वह धन के आभाव में लोगों से मिलने-जुलने से इसलिए कतराते थे कि उनकी बराबरी नहीं कर सकेंगे; जबकि मैं सम्पन्न व विपन्न सभी लोगों से  मिल लेता हूँ यदि वे मुझे मान-सम्मान देते हैं । 
कालीचरण हाईस्कूल, लखनऊ में बाबूजी के सहपाठी व रूममेट रहे कामरेड भीखा लाल जी से भी मैंने बेहिचक भेंट 'बेगम हज़रत महल पार्क ', लखनऊ  में की थी जबकि बाबूजी उनके संदेश भेज कर बुलवाने के बावजूद  उनसे सिर्फ इसलिए नहीं मिले कि पहले वह PCS अधिकारी- तहसीलदार हो गए थे फिर भाकपा के प्रदेश सचिव तक रहे थे। (इसी प्रकार अपने खेल के मैदान के साथी रहे अमृतलाल नागर जी व रामपाल सिंह जी से भी उनके बड़े आदमी होने के कारण बाबूजी ने संपर्क जारी नहीं रखा था । )

आगरा के एक वरिष्ठ कामरेड डॉ एम सी शर्मा जी से मैंने कामरेड भीखा लाल जी से मिलवाने को कहा था उस वक्त वह तत्कालीन प्रदेश सचिव सरजू पांडे जी व आगरा के जिलामंत्री रमेश मिश्रा जी व अन्य  से वार्ता कर रहे थे किन्तु मेरे द्वारा बाबूजी के नाम का पहला अक्षर 'ताज' निकलते ही कामरेड भीखा लाल जी ने मेरे कंधे पर आशीर्वाद स्वरूप हाथ रखते हुये मुझसे कहा कि वह तुम्हारे पिता हैं तुम उनके बारे में क्या बताओगे? मैं तुमको उनके बारे में बताता हूँ। भीखा लाल जी ने बाकायदा वर्ष सन बताते हुये कि कब किस क्लास में व हास्टल के किस रूम में वे दोनों साथ-साथ रहे हैं सविस्तार सारी बातों का वर्णन इस प्रकार किया जैसे वह बीते कल की बात कह रहे हों । उनका कहना था कि मेरे बाबूजी के मिलेटरी में जाने के बाद दोनों का संपर्क टूट गया था और फिर वापिस आने के बाद उनके काफी बुलाने के बाद भी वह उनसे नहीं मिले। लेकिन भीखालाल जी ने इस बात पर खुशी भी  ज़ाहिर की थी कि बाबूजी खुद भले न मिल सके लेकिन उनकी याद लगातार थी जो मुझे मिलने को कह दिया। उन्होने मुझे आदेश दिया था कि अगली बार जब लखनऊ आऊँगा तो अपने बाबूजी को उनसे मिलवाने लाऊँगा। मैंने बाबूजी से जब सब बातें बताईं तो उनको अचंभा भी हुआ कि भीखा लाल जी इतने ऊंचे ओहदों पर रहने के बावजूद मुझसे बड़ी आत्मीयता से सार्वजनिक रूप से मिले और उन्होने वायदा भी किया था कि भीखा लाल जी से मिलने चलेंगे। किन्तु ऐसा इसलिए न हो सका क्योंकि भीखालाल जी यह संसार छोड़ गए। 1995 में आज ही के दिन बाबूजी भी यह संसार छोड़ गए। लेकिन छोड़ गए हमारे लिए ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा की भावना जो मेरे लिए बड़ी पूंजी हैं। 
फेसबुक पर प्रकाशित स्टेटस का लिंक
मैंने परंपरागत रूप से पूर्वजों की पुण्यतिथि को मनाने  जिसमें अधिकांश लोग पंडितों के नाम पर ब्राह्मणों को भोजन कराते व दक्षिणा भेंट करते हैं 
की बजाए 'हवन-यज्ञ' पद्धति को अपनाया है। किसी पूर्वज के नाम पर किसी व्यक्ति को कराया गया भोजन केवल और केवल फ़्लश तक ही पहुँच पाता है । जबकि 'पदार्थ-विज्ञान'(मेटेरियल साईन्स ) के अनुसार  हवन में डाले गए पदार्थ अग्नि द्वारा 'अणुओं'(ATOMS ) में विभक्त कर दिये जाते हैं और वायु द्वारा बोले गए मंत्रों की शक्ति -प्रेरणा से वांच्छित लक्ष्य तक पहुंचा दिये जाते हैं। आत्मा चूंकि अमर है वह चाहे 'मोक्ष' में हो अन्यथा अन्य किसी प्राणी के शरीर में प्राण-वायु द्वारा प्रेषित इन अणुओं को ग्राह्य करने में सक्षम है। इसलिए हम अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति  के निमित्त विशेष सात मंत्रों से हवन में आहुतियाँ ही देते हैं बजाए किसी पाखंड,आडंबर या ढोंग का ढ़ोल बजाने के। 
हम सर्व-प्रचलित 'कनागत' को भी न मना कर केवल पुण्यतिथि के अवसर पर ही इस विशेष हवन को सम्पन्न करते हैं। आर्यसमाज से हमने यह सीखा और समझा है कि, 'श्राद्ध'और 'तर्पण' मृत आत्मा के निमित्त किसी ब्राह्मण को भोज कराना नहीं है।बल्कि 'श्राद्ध'और 'तर्पण' का अर्थ है कि जीवित माता-पिता, सास-श्वसुर और गुरु की  'श्रद्धापूर्वक' इस प्रकार सेवा की जाये कि उनकी आत्मा 'तृप्त'हो जाये। अपनी क्षमता और दक्षतानुसार उनके जीवन -काल में उनको जितनी संतुष्टि पहुंचा सका अथवा नहीं अब उनके नाम पर कोई धोखा-धड़ी नहीं करता हूँ जिस प्रकार वे तमाम लोग भी करते हैं जो खुद को नास्तिक-एथीस्ट घोषित करते हैं। 



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मंगलवार, 9 जून 2015

विकल्प का सिनेमा 'कागज की चिन्दियाँ ' : प्रो.सतीश चित्रवंशी का सराहनीय प्रयास --- विजय राजबली माथुर



http://www.jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Lucknow/Lucknow/09-06-2015&spgmPic=4
इलाहाबाद निवासी और राजर्षि पुरुषोतम दास टंडन विश्वविद्यालय के मास कम्यूनिकेशन विभाग के निदेशक पद से अवकाश प्राप्त प्रोफेसर सतीश चित्रवंशी जी  के अथक प्रयासों से फीचर फिल्म  'कागज की चिन्दियाँ ' पूर्ण हो चुकी है तथा शीघ्र ही सार्वजनिक प्रदर्शन  के लिए उपलब्ध होगी। इस सिलसिले में लखनऊ पधारने पर दैनिक 'जन संदेश टाईम्स' ने उनका एक विस्तृत साक्षात्कार कामरेड कौशल किशोर जी के सौजन्य से कल लिया था जिसे  आज दिनांक 09 जून 2015 को अपने सांस्कृतिक पृष्ठ पर छापा है। मुझे भी इस साक्षात्कार का साक्षी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।यों तो प्रोफेसर साहब द्वारा दिये गए साक्षात्कार के जो अंश प्रकाशित हुये हैं उनसे सबको ही इस फिल्म के उद्देश्य के बारे में भान हो ही जाता है कि प्रस्तुत फिल्म 'नारी की अस्मिता' पर प्रकाश डालती है। प्रदेश की समाजवादी सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जी लखनऊ को फिल्म निर्माण के क्षेत्र में विकसित करना चाहते हैं। यह एक सकारात्मक पहल है किन्तु प्रश्न यह है कि क्या मुंबई के स्थापित फ़िल्मकारों को ही प्रोत्साहित किया जाएगा या सरकार प्रदेश में 'विकल्प का सिनेमा' को भी सहयोग,समर्थन  व प्रोत्साहन प्रदान करेगी? यदि प्रो .सतीश चित्रवंशी सरीखे विद्वजनों को सरकार सहायता उपलब्ध कराती है तो उत्तर-प्रदेश से सार्थक फिल्म निर्माण संभव हो सकेगा।

 मैंने अपने इसी ब्लाग में कुछ देखी गई फिल्मों पर निर्माता-निर्देशक द्वारा फिल्म प्रस्तुत करने के उद्देश्य चिन्हित करते हुये प्रकाश डाला है और 'कागज की चिन्दियाँ ' को देखने के बाद अपने दृष्टिकोण से उसकी समीक्षा प्रस्तुत कर सकूँगा।सार्वजनिक हित से संबन्धित मेरे ब्लाग्स में ये भी प्रमुख स्थान रखते हैं :

सुर - संगीत 

http://sur-sangeet-pv.blogspot.in/ 

 सर्वे भवन्तु सुखिनःसर्वे सन्तु निरामयः 

http://vijaimathur05.blogspot.in/ 

(1) शनिवार, 4 जनवरी 2014

उमरावजान का आधुनिक सुल्तान कौन?रेखा राजनीति में कैसे??

आज 'आप'/केजरीवाल उसी भूमिका में हैं जिसमें उस वक्त के सुल्तान और नवाब थे। जनता के उत्पीड़न और शोषण से संग्रहीत धन को कारपोरेट घराने इन नए सुल्तानों पर लुटा रहे हैं और ये नए सुल्तान मनमोहनी अदाओं से आज की उमराव जान अर्थात बेगुनाह जनता को दिवा-स्वप्न या ख़्वामख़्वाह के झूठे सब्जबाग दिखा रहे हैं ,जैसे इस सुल्तान ने उमरावजान को दिखाये थे।

http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/01/blog-post.html

(2)रविवार, 11 मई 2014

  टी वी चेनल्स,सोशल मीडिया,कारपोरेट प्रिंट मीडिया एक स्वर से 'सांप्रदायिक तानाशाही' का स्वागत करते प्रतीत हो रहे हैं। उस पार्टी द्वारा 10 हज़ार करोड़ रुपए  विज्ञापनों पर खर्च किए जा चुकने का अनुमान है।

क्या संदेश है नई उम्र की नई फसल का ? 
http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/05/blog-post_11.html 

 

(3 )बुधवार, 9 जुलाई 2014


'चोरनी' में नीतू सिंह जी द्वारा क्या संदेश दिया गया है?

इस फिल्म के माध्यम से बताया गया है कि किस प्रकार अमीर लोग अप संस्कृति का शिकार होकर समाज को विकृत करते रहते हैं। आज 1982 के बत्तीस वर्षों बाद तो समाज का और भी पतन हो चुका है अतः आज भी इस फिल्म की शिक्षा प्रासंगिक है। 

  vidrohiswar.blogspot.in/2014/07/blog-post_9.html

(4)शुक्रवार, 18 जुलाई 2014


कितने संदेश हैं कटी पतंग में ?

'वात्सल्य प्रेम' कभी भी निष्प्रभावी नहीं हो सकता। निश्छल प्रेम को अबोध बच्चा भी महसूस कर लेता है। माधवी ने पूनम के पुत्र को जो मातृत्व प्रदान किया था वह निस्वार्थ व निश्छल था और इसी का यह परिणाम था कि  पूनम के अबोध-नादान  पुत्र ने खेल-खेल में जहर की शीशी उठा कर रहस्य से पर्दा उठवा दिया और माधवी निर्दोष सिद्ध हो सकी। अतः प्रकृति-परमात्मा का अनुपम उपहार बच्चों से सदैव प्रेम-व्यवहार रखना चाहिए।

http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/07/blog-post_18.html 

(5 )गुरुवार, 24 जुलाई 2014


पाखंड का 'पर्दाफाश' करती :चित्रलेखा

धर्म के ये ठेकेदार जनता को त्याग,पुण्य-दान के भ्रमजाल में फंसा कर खुद मौज कर रहे हैं। गरीब किसान,मजदूर कहीं अपने हक -हुकूक की मांग न कर बैठें इसलिए 'भाग्य और भगवान्'के झूठे जाल में फंसा कर उनका शोषण कर रहे हैं तथा साम्राज्यवादी साजिश के तहत पूंजीपतियों के ये हितैषी उन गलत बातों का महिमा मंडन कर रहे हैं।  

http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/07/blog-post_24.html 

(6 )सोमवार, 4 अगस्त 2014


समाज में विषमता व कृषक उत्पीड़न को उजागर करती है 'दुश्मन' 

फ़िल्मकार का दृष्टिकोण 'दंडात्मक' के बजाए 'सुधारात्मक' न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों को जागरूक करना था । परंतु लोग बाग तो महज मनोरंजन के दृष्टिकोण से ही  फिल्में देखते हैं किसी ओर से भी ऐसी पहल की मांग नहीं उठाई गई आज 43 वर्षों बाद भी लोग 'फांसी-फांसी' के नारों के साथ प्रदर्शन करते हैं और 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की ' की तर्ज़ पर नित नए-नए अपराधों की बाढ़ आती जाती है।  

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(7 )शुक्रवार, 22 अगस्त 2014


इन्सानी भाई चारे का संदेश है 'काबुलीवाला'

 मिनी और उनके पिता श्री द्वारा खान साहब के प्रति जो उदारता व सदाशयता ' काबुलीवाला ' कहानी में गुरुवर रवीन्द्र नाथ ठाकुर साहब ने दिखाई थी उसे इस फिल्म में निर्माता बिमल राय व निर्देशक हेमेन गुप्ता ने ज्यों का त्यों कायम रखा है। 53 वर्ष पूर्व प्रदर्शित यह फिल्म आज भी ज्यों का त्यों समाज व राष्ट्र के समक्ष सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष में सहायक है। 16 वीं लोकसभा चुनावों के पूर्व व पश्चात जिस प्रकार सांप्रदायिकता को उभार कर व्यापार जगत ने सामाजिक सौहार्द को नष्ट  करके मानवता का हनन किया है उसको काबू करने में  'काबुलीवाला ' बहुत हद तक सफल साबित हो सकती है।

  http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/08/blog-post_22.html

(8 )सोमवार, 1 सितंबर 2014


उसने कहा था का संदेश क्या था?

 गुलेरी जी ने लहना सिंह के बचपन के प्रेम को आधार बना कर इस कहानी के माध्यम से युद्ध की विभीषिका,छल-छद्यम,व्यापार मुनाफा,काला बाजारी सभी बातों को जनता के समक्ष रखा है सिर्फ प्रेम-गाथा को नहीं । सैनिकों की मनोदशा,उनके कष्टों तथा अदम्य साहस का वर्णन भी इस कहानी तथा फिल्म दोनों में है। 

  http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/09/blog-post.html

 

(9 )गुरुवार, 18 दिसंबर 2014


दो कलियाँ आज भी प्रेरक फिल्म

वीभत्स आतंकवाद (पेशावर कांड ) के शिकार सवा सौ से अधिक बच्चों के मार्मिक दुखांत ने हमें 1968 में रिलीज़ हुई 'दो कलियाँ' देखने को प्रेरित कर दिया। जिसमें बाल-कलाकार के रूप में नीतू सिंह की मुख्य भूमिका है। निर्देशक द्वय आर कृष्णन व एस पंजू ने इस फिल्म के माध्यम से मनोरंजन करते हुये जो संदेश दिया है वह वास्तव में नितांत गंभीर है। इसके माध्यम से समाज की तमाम विकृतियों, विभ्रम, स्वार्थ-लिप्सा, अनैतिक कार्यों के दृष्टांत प्रस्तुत करते हुये यह भी दिखाया गया है कि इसी पथ -भ्रष्ट समाज में कुछ लोग  अपने साहस व लगन के द्वारा उन पर विजय हासिल करने में भी समर्थ हैं। हालांकि फिल्म के उपसंहार में बालाजी पर आस्था व विश्वास के दृश्यों द्वारा समाज में व्याप्त अंध-विश्वास व ढोंग को महिमामंडित कर दिया गया है जिससे जनता में कर्तव्य पथ से परे परा -  शक्ति  पर भरोसा रखने की प्रवृत्ति को बेजा बढ़ावा मिलता है। यदि फिल्म के अंतिम पाखंडी दृश्यों की उपेक्षा कर दी जाये तो बाकी फिल्म प्रेरक प्रतीत होती है जिसने दो छोटी-छोटी बच्चियों के साहस,बुद्धि-कौशल व दृढ़ निश्चय को दर्शाया है। इन दोनों जुड़वां बहनों ने न केवल अपनी माँ के प्रति उत्पन्न अपने पिता की गलत फहमी को दूर किया वरन अपनी घमंडना  नानी को एड़ियों के बल खड़ा होने पर मजबूर कर दिया। 

http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/12/blog-post.html 

(10 )रविवार, 1 फ़रवरी 2015


खेल कारपोरेट ट्रेड यूनियनिज़्म का :'नमक हराम' से 'चक्रव्यूह' तक

 हालांकि फिल्म निर्माता तो मनोरंजन और मुनाफे को ध्यान में रख कर आजकल फिल्में बनाते हैं। किन्तु आज़ादी से पहले और बाद में भी कुछ फिल्मों द्वारा समाज और राजनीति को नई दिशाएँ बताने का कार्य किया गया है। हाल की चक्रव्यूह और 40 वर्ष पुरानी नमक हराम फिल्में मालिक द्वारा मजदूर और किसानों के शोषण पर प्रकाश डालती तथा अपना समाधान प्रस्तुत करती हैं।

'नमक हराम' में बताया गया है कि विक्की और  सोनू दो अलग-अलग समाज वर्गों से आने के बावजूद एक अच्छे मित्र है।षड्यंत्र पूर्वक मजदूर नेता की हत्या कराये जाने से क्षुब्ध अमीर अपने धनाढ्य पिता से बदला लेने हेतु खुद हत्या का इल्ज़ाम लेकर जेल चला जाता है लेकिन पिता के गलत कार्यों में सहयोग नहीं करता है। 

'चक्रव्यूह' द्वारा कारपोरेट कंपनियों की लूट को सामने लाया गया है। इसी लूट के कारण आदिवासी किसानों के मध्य नक्सलवादी आंदोलन की लोकप्रियता पर भी प्रकाश डाला गया है और इस आंदोलन की आड़ में स्वार्थी तत्वों द्वारा आंदोलन से विश्वासघात का भी चित्रांकन किया गया है। 

'मजदूर' द्वारा भी मालिक-मजदूर के सम्बन्धों पर व्यापक प्रकाश डालते हुये पूंजीपति वर्ग की शोषण प्रवृति को उजागर किया गया है।  मजदूरों की संगठित एकता के बल पर समानान्तर रोजगार की उपलब्धि बताना भी इस फिल्म का लक्ष्य रहा है। IPTA और भाकपा में लोकप्रिय गीत की प्रस्तुति इस फिल्म में चार चाँद लगा देती है।

http://vidrohiswar.blogspot.in/2015/02/blog-post.html 

(11 )सोमवार, 30 मार्च 2015


स्थापित मान्यताओं पर आधारित 'राम राज्य' एक उत्तम कलात्मक फिल्म 


इस फिल्म में यद्यपि लोक प्रचलित मान्यतों के आधार पर ही प्रदर्शन है किन्तु मैंने अपने कई लेखों के माध्यम से राम-वनवास तथा सीता-वनवास के राजनीतिक,कूटनीतिक कारणों का उल्लेख किया है  

http://vidrohiswar.blogspot.in/2015/03/blog-post_52.html 

(12 )शनिवार, 21 दिसंबर 2013


ब्रह्मचारी 'त्याग'व 'परोपकार' की शिक्षाप्रद मनोरंजक कथा -

जहां एक ओर शीतल की माँ व मामा का चरित्र निकृष्ट रहा जो अपनी बेटी व भांजी का ही अहित करने पर तुले थे। वहीं ब्रह्मचारी व रवि की माँ का चरित्र एक आदर्श दृष्टांत उपस्थित करता है।  

http://vidrohiswar.blogspot.in/2013/12/blog-post.html 

 

***                                            ***                                  ***

स्मिता पाटिल जी द्वारा अमिताभ बच्चन जी को जो ज्योतिषीय परामर्श दिया था उस पर भी मैंने अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है :

ज्योतिष का मखौल उड़ाना जितना आसान है उसकी अवहेलना करने पर हानि से बचना नहीं। काश स्मिता जी पूर्ण आयु प्राप्त करतीं तो समाज उनके ज्योतिषीय ज्ञान से लाभ उठा सकता था। परंतु दुनिया का यह दुखद दस्तूर है कि किसी के जीवित रहते उसको उसका वाजिब हक व सम्मान नहीं दिया जाता है। जिन साहब ने मृतयोपरांत स्मिता  पाटिल जी के ज्योतिषीय ज्ञान को रेखांकित किया वह साधूवाद के पात्र हैं।

http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/08/blog-post_25.html

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फेसबुक पर प्रतिक्रिया :

 

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