बुधवार, 29 सितंबर 2010

सिलीगुडी में सवा तीन साल--(अंतिम भाग): विजय राजबली माथुर

(पिछली पोस्ट से आगे...)

वस्तुतः ईस्टर्न कमांड अलग बन जाने के बाद हालात ये थे कि रिटायरमेंट तक इधर से गए सभी लोगों को वहीँ रहना था.वह तो डिफेन्स यूनियनों के नेता और कम्युनिस्ट समर्थित सांसद सुरेन्द्र मोहन बनर्जी के संसद के भीतर व बाहर किये गए प्रयासों का फल था कि सेंट्रल कमांड से गए लोगों को वापिस आने का मौका मिल रहा था. कब कहाँ का ट्रांसफर ऑर्डर मिल जाए यह तय नहीं था.अतः सितम्बर में हम लोग फिर एक बार नाना जी के पास शाहजहांपुर पढने के लिए गए.लेकिन इन सवा तीन वर्षों में सिलीगुड़ी में जिन लोगों के साथ रहे उनका भी ज़िक्र करना यहाँ ज़रूरी है.जिस मकान में पहले पहल उतरे थे वह बाबू जी के S D O राजकुमार अग्रवाल साः के घर के सामने था उन्हीं ने दिलवाया था जो उनके मकान मालिक चक्रवर्ती साः के छोटे भाई का था जो रेलवे में ड्राइवर थे.सब लोग व्यवहार में बहुत अच्छे थे.एक और S D O गोयल साः के घर से भी आना जाना था.दर असल सिलीगुड़ी में सभी गैर बंगाली अधिकारी और मातहत सभी मिलजुल कर चलते थे.सब एक दुसरे से घरेलू सम्बन्ध रखते थे.बंगाली पडौसी भी सभी अच्छे थे.दुसरे मकान में भी हम लीगों के अलावा बाकी सभी किरायेदार बंगाली थे-सब अच्छे थे.वहां बरसात में कुँए का जल स्तर इतना ऊपर आ जाता था कि मन पर थोडा झुकने पर बाल्टी सीधे डुबो कर पानी भर लेते थे.अख़बारों के मुताबिक़ अब वहां भी जल स्तर गिर गया है.

''नक्सल बाड़ी आन्दोलन''--चुनावों के बाद १४ पार्टियों के मोर्चे की सरकार अजोय मुखर्जी के नेतृत्व में बनी थी.उप मुख्यमंत्री व गृह मंत्री ज्योती बसु बने थे.खाद्य मंत्री प्रफुल्ल चन्द्र घोष थे.सिलीगुड़ी से डाक्टर मैत्रेयी बसु सांसद चुनी गयी थीं जो हुमायूँ कबीर के बांगला कांग्रेस की थीं.यह वही कबीर साः थे जिनकी पुत्री लैला कबीर जॉर्ज फर्नांडीज़ की पत्नी बनीं.नई सरकार में C P M सबसे बड़ी पार्टी थी और इसके  कुछ कार्यकर्ताओं ने सिलीगुड़ी से ८ या १० कि.मी.दूर स्थित नक्सलबाड़ी में आदिवासियों को आगे कर के बड़े किसानों की जमीनों पर कब्ज़ा कर लिया था.पुलिस का रूख आन्दोलनकारियों के प्रति नरम था आखिर गृह मंत्री की पार्टी के तो कार्यकर्ता थे.हमारे मकान मालिक के साढू सपरिवार अपनी भैंस,भैंसे लेकर उनकी शरण में आये उनके कमला (संतरा)बगान और खेत सब छिन गए थे.न्यू मार्केट में मारवाड़ियों की दुकानें जला दी गयीं थीं. बड़ी अफरा तफरी मच गयी थी.स्कूल,कॉलेज बंद हो गए.हम लोग तो वैसे ही नहीं जा रहे थे.कुछ दिनों बाद C P M ने संसदीय प्रणाली में विश्वास जताया और अपने कार्यकर्ताओं से अवैध कब्ज़े छोड़ने को कहा तिस पर उन लोगों ने अलग पार्टी का गठन कर लिया जिन में,चारु मजूमदार,कानू सान्याल और M T नागी रेड्डी प्रमुख थे.नक्सलबाड़ी से फांसीद्वार थाना आदि होते हुए असाम के नल बाड़ी तक यह आन्दोलन बढ़ गया (अब तो पूरे देश में फ़ैल गया है).

सरकार की सख्ती से भू स्वामियों को ज़मीनें वापिस मिलीं और मारवाड़ियों ने नुक्सान से ज्यादा पैसा इंश्योरेंस कम्पनियों से वसूल लिया.नुक्सान गरीब बंगाली मजदूरों का हुआ,मारवाड़ियों ने उन्हें निकाल कर दूसरे कर्मचारी रख लिए.एक आदर्श मांग को गलत तरीके से उठाने और पाने के प्रयास में यह आन्दोलन आज भटकाव में उलझा है और सरकारी दमन का शिकार हो रहा है.नतीजा गरीब भूमिहीन आदिवासियों मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है.सिलीगुड़ी में बांगला भाषा में तब कुछ ऐसे पोस्टर भी चिपके थे जिन पर लिखा था--''चीन के चेयरमैन माओ हमारे चेयरमैन''.इस आधार पर इस आन्दोलन को चीन प्रेरित मान कर भी कुचला गया.

''दार्जिलिंग की सैर'' --मुझे तो घूमने का कोई शौक तब भी नहीं था,परन्तु अजय दार्जिलिंग घूमना चाहता था अतः १९६६ की शरद पूर्णिमा (लक्ष्मी पूजा) के दिन हम लोगों को बाबू जी दार्जिलिंग घुमाने  ले गए.हम लोग जब नैरोगेज की गाड़ी में सिलीगुड़ी जंक्शन से बैठे तो तीन-तीन डिब्बों के बाद कुल तीन इंजन लगे थे.शुरू में पूरी एक गाड़ी थी.पहाड़ियों पर जब गाड़ी घूमती थी तो तीनों इंजन खिडकी से दीख जाते थे.किसी स्टेशन पर तीनों इंजन तीन तीन डिब्बों की तीन गाड़ियों में बंट गए जो बहुत कम फासले पर चल रही थीं और दीख रही थीं.एक स्टेशन पर मूलियाँ भी बाबू जी ने लीं-पहाडी मूलियाँ बेहद मीठी थीं.एक स्टेशन पर अजय को शौच के लिए बाबू जी ले कर उतरे  उतने में हम लोगों की गाड़ी चल दी और वे छूट गए.साथ के लोगों ने कहा कि वह पिछली गाड़ी पकड़ लेंगे चिंता की बात नहीं है.अगले स्टेशन पर वे दोनों पिछली गाड़ी से उतर के हम लोगों के साथ आ गए.हम लोग ''घूम'' स्टेशन पर उतर गए.(दार्जिलिंग अगला स्टेशन था)वहां बाबु जी ने ठहरने का प्रबंध कराया था,साथ में राशन वगैरह ले गए थे.लेकिन बाबू जी के एक S D O श्रीवास्तव साः अपने घर ले गए तो माँ ने सारा राशन उन्हीं के घर दे दिया.घूम से अगले दो दिन दार्जिलिंग शहर घूमने गए.ऊपर की सड़क से नीचे का बाज़ार रात में जगमग दीवाली सा चमकता दीखता था.कंचनजंघा देखने नहीं गए.मुझे सर्दी माफिक नहीं आती मेरे हाथ-पाँव सूज गए थे.लौटते में अलग अलग तीन गाड़ियाँ चलीं थीं जो रास्ते में फिर एक गाड़ी में बदल गयीं.वैसे हिलकार्ट रोड से भी पहाड़ियों का अवलोकन सिलीगुड़ी में हो जाता था.दार्जिलिंग की बात दूसरी थी अजय और शोभा को घूमने की प्रसन्नता थी.
सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग जाने वाली 'हिल कार्ट रोड' के साथ-साथ नेरोगेज की रेलवे लाईन

शाहजहांपुर वापसी-जब अगस्त  १९६७ तक बाबू जी को ट्रांसफर ऑर्डर नहीं मिला तो बाबू जी ने नाना जी से पत्र लिख कर हम लोगों को एक वर्ष वहां फिर पढ़ाने हेतु भेजने को कहा तथा उनकी सहमती के बाद सितम्बर में A T मेल से RESERVATION कराकर बैठा दिया.माँ को पहली बार हम तीनों भाई-बहनों को लेकर अकेले सफ़र करना था वह भी एक दम इतनी लम्बी दूरी का परन्तु उन्होंने कहीं भी साहस नहीं छोड़ा.गाड़ी लखनऊ चारबाग की छोटी लाइन पर पहुंची और बड़ी लाइन की गाड़ी से शाहजहांपुर जाना था.छोटी लाइन के कुली काली पोशाक पहनते थे और बड़ी लाइन के कुली लाल पोशाक.एक दूसरे के स्टेशनों में नहीं जाते थे.परन्तु छोटी लाइन का एक कुली भला निकल आया उसने छोटी लाइन से ले जा कर बड़ी लाइन से शाहजहांपुर को छूटने वाली पैसेंजर गाड़ी में सामान कई फेरों में ले जा कर पहुंचा दिया.शायद कुछ ज्यादा रु.लिए होंगे.वह कुली मुझे और अजय को सामान के साथ लाकर इंजन के ठीक पीछे वाले डिब्बे में बैठा गया.सामान ज्यादा था क्योंकि बाद में बाबू जी को अकेले आना था कितना सामान ला पते?कुली बीच में अकेला ही सामान ढो कर लाया और हम भाइयों के पास रख गया.तीसरी या चौथी बार के फेरे में माँ और शोभा भी आये;गाड़ी सीटी देने लगी थी,गार्ड ने हरी झंडी दिखा दी थी-कुली ने दौड़ लगा कर पटरियां फांद कर इंजन के सामने से सामान ला दिया और भाप इंजन के ड्राइवर को रुकने का इशारा किया जब माँ और शोभा डिब्बे में चढ़ गए तब कुली ने मेहनताना लिया और धीमी चलती गाड़ी से उतर गया.आज का ज़माना होता तो लम्बी गाड़ी में इंजन का हार्न और गार्ड की सीटी की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती और विद्युत् गति में गाड़ी दौड़ जाती.उस समय तक भलमनसाहत थी-वह अज्ञात कुली हम लोगों के लिए देवदूत सामान था उसे लाखों नमन.

(समाप्त)

Typist -यशवन्त

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शनिवार, 25 सितंबर 2010

सिलीगुड़ी में सवा तीन साल--(2)

(पिछली पोस्ट से आगे.......)

दिसंबर में सरकारी प्रदर्शनी पर भी भारत -पाक युद्ध की छाप स्पष्ट थी.कानपुर के  गुलाब बाई के ग्रुप के एक गाने के बोल थे--

चाहे बरसें जितने गोले,चाहे गोलियां
अब न रुकेंगी,दीवानों की टोलियाँ

शास्त्री जी व जनरल चौधरी जनता में बेहद लोकप्रिय हो गए थे.पहली बार कोई युद्ध जीता गया था.युद्ध की समाप्ति पर कलकत्ता की जनसभा में शास्त्री जी ने जो कहा था उसमे से कुछ अब भी याद है.पडौसी भास्करानंद मित्रा साः ने अपना रेडियो बाहर रख लिया था ताकि सभी शास्त्री जी को सुन सकें.शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था.उन्होंने सप्ताह में एक दिन (उनका सुझाव सोमवार का था) एक समय अन्न त्यागने की जनता से अपील की थी.उन्होंने PL -४८० की अमरीकी सहायता को ठुकरा दिया था क्योंकि प्रेसीडेंट जानसन ने बेशर्मी से अय्यूब का नापाक साथ दिया था.चीनी आक्रमण के समय केनेडी से जो सहानुभूति थी वह पाक आक्रमण के समय जानसन के प्रति घृणा में बदल चुकी थी,हमारे घर शनिवार की शाम को रोटी चावल नहीं खाते थे.हल्का खाना खा कर शास्त्री जी के व्रत आदेश को माना जाने लगा था.शास्त्री जी ने अपने भाषण में यह भी बताया था की १९६२ युद्ध के बाद चीन से मुकाबले के लिए जो हथियार बने थे वे सब सुरक्षित हैं और चीन को भी मुहं तोड़ जवाब दे सकते हैं.जनता और सत्ता दोनों का मनोबल ऊंचा था.
मेरी कक्षा में बिप्र दास धर नामक एक साथी के पिता कलकत्ता में फ़ौज के J C O थे.एक बेंच पर हमारे पास ही वह भी बैठता था.उसके साथ सम्बन्ध मधुर थे.जिन किताबों की किल्लत सिलीगुड़ी में थी वह अपने पिता जी से कलकत्ता से मंगवा लेता था.हिन्दी निबंध की पुस्तक उससे लेकर तीन-चार दिनों में मैंने दो कापियों पर पूरी उतार ली,देर रात तक लालटेन की रोशनी में भी लिख कर.उसके घर सेना का ''सैनिक समाचार'' साप्ताहिक पत्र आता था.वह मुझे भी पढने को देता था.उसमे से कुछ कविताएँ मुझे बेहद पसंद आयीं मैंने अपने पास लिख कर रख ली थीं।
सीमा मांग रही कुर्बानी

सीमा मांग रही कुर्बानी
भू माता की रक्षा  करने बढो वीर सेनानी
महाराणा छत्रपति शिवाजी बूटी अभय की पिला गये
भगत सिंह और वीर बोस राग अनोखा पिला गए
शत्रु सामने शीश झुकाना हमें बड़ों की सीख नहीं,
जिन्दे लाल चुने दीवार में मांगी सुत  की भी भीख  नहीं,
गुरुगोविंद से सुत कब दोगी बोलो धरा भवानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विकट समय में वीरों ने यहाँ अपना रक्त बहाया था
जब देश की खातिर अबलाओं ने भी अस्त्र उठाया था.
कण-कण में मिला हुआ है यहाँ एक मास के लालों का
अभी भी द्योतक जलियाना है देश से मिटने वालों का
वीरगति को प्राप्त हुई लक्ष्मी झांसी  वाली रानी,
सीमा मांग रही कुर्बानी.

अपनी आन पे मिटने को यह देश देश हमारा है
मर जायेंगे पर हटें नहीं यह तेरे बड़ों का नारा है
होशियार जोगिन्दर कुछ काम हमारे लिए छोड़ गए
दौलत,विक्रम मुहं शत्रु का मुख मोड़ गए.
जगन विश्व देखेगा कल जो तुम लिख रहे कहानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विक्रम साराभाई आदि परमाणु वैज्ञानिकों,होशियार सिंह,जोगिन्दर सिंह,दौलत सिंह आदि वीर सैन्य अधिकारियों को भी पूर्वजों के साथ स्मरण किया गया है.आज तो बहुत से लोगों को आज के बलिदानियों के नामों का पता भी नहीं होगा.

रूस नेहरु जी के समय से भारत का हितैषी रहा है लेकिन उसके प्रधान मंत्री M.Alexi kosigan भी नहीं चाहते थे कि शास्त्री जी लाहोर को जीत लें उनका भी जानसन के साथ ही दबाव था कि युद्ध विराम किया जाए.अंतर्राष्ट्रीय दबाव पर शास्त्री जी ने युद्ध विराम की  बात मान ली और कोशिगन के बुलावे पर ताशकंद अय्यूब खान से समझौता करने गए.रेलवे के  एक उच्च अधिकारी ने जो ज्योतिष के अच्छे जानकार थे और बाद में जिन्होंने कमला नगर  आगरा में विवेकानंद स्कूल की स्थापना की शास्त्री जी को ताशकंद न जाने के लिए आगाह किया था.संत श्याम जी पराशर ने भी शास्त्री जी को न जाने को कहा था.परन्तु शास्त्री जी ने जो वचन दे दिया था उसे पूरा किया,समझौते में जीते गए इलाके पाकिस्तान को लौटाने का उन्हें काफी धक्का लगा या  जैसी अफवाह थी कुछ षड्यंत्र हुआ 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में उनका निधन हो गया.11 जनवरी को उनके पार्थिव शरीर को लाया गया,अय्यूब खान दिल्ली हवाई अड्डे तक पहुंचाने आये थे.एक बार फिर  गुलजारी लाल नंदा ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे.वह बेहद सख्त और ईमानदार थे इसलिए उन्हें पूर्ण प्रधानमंत्री बनाने लायक नहीं समझा गया.  

नेहरु जी और शास्त्री जी के निधन के बाद 15 -15 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले नंदा जी जहाँ सख्त थे वहीँ इतने सरल भी थे कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व दिल्ली के जिस फ़्लैट में वह रहते थे वहां कोई पहचानने वाला भी न था.एक बार फ़्लैट में धुआं भर गया और नंदा जी सीडियों पर बेहोश होकर गिर गए क्योंकि वह लिफ्ट से नहीं चलते थे.बड़ी मुश्किल से किसी ने पहचाना कि पूर्व प्रधानमंत्री लावारिस बेहोश पड़ा है तब उन्हें अस्पताल पहुंचाया और गुजरात में उनके पुत्र को सूचना दी जो अपने पिता को ले गए.सरकार की अपने पूर्व मुखिया के प्रति यह संवेदना उनकी ईमानदारी के कारण थी.

कामराज नाडार ने इंदिरा गांधी को चाहा और समय की नजाकत को देखते हुए वह प्रधानमंत्री बन गयीं.किन्तु गूंगी गुडिया मान कर उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने वाले कामराज आदि सिंडिकेट के सामने झुकीं नहीं.1967 के आम चुनाव आ गए,तब सारे देश में एक साथ चुनाव होते थे.उडीसा में किसी युवक के फेके पत्थर से इंदिरा जी की नाक चुटैल हो गयी.सिलीगुड़ी वह नाक पर बैंडेज कराये ही आयीं थीं.मैं और अजय नज़दीक से सुनने के लिए निकटतम दूरी वाली रो में खड़े हो गए.मंच14 फुट ऊंचा था.सभा की अध्यक्षता पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन ने की थी.  

इंदिरा जी के पूरे भाषण में से एक बात अभी भी याद है कि जापानी लोग जरा सी भी चीज़ बर्बाद नहीं करते हमें बखूबी सीखना चाहिए.आज जब कालोनी में एक रो से दूसरी रो तक स्कूटर,मोटरसाइकिल से लोगों को जाते देख कर या सड़क पर धुलती कारों में पानी की बर्बादी देख कर तो नहीं लगता की इंदिरा जी के भक्त भी उनकी बातों का पालन करते हैं जबकि शास्त्री जी की अपील का देशव्यापी प्रभाव पड़ा था.  
उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था.संविद सरकारें बन गयीं थी.केंद्र में सिंडिकेट के प्रतिनिधि मोरार जी देसाई ने इंदिरा जी के विरूद्ध अपना दावा पेश कर दिया था.यदि चुनाव होता तो मोरारजी जीत जाते लेकिन इंदिरा जी ने उन्हें फुसला कर उप-प्रधानमंत्री बनने पर राजी कर लिया.

जाकिर हुसैन साःराष्ट्रपति और वी.वी.गिरी साः उप-राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.''सैनिक समाचार''में कैकुबाद नामक कवि ने लिखा--

ख़त्म हो गए चुनाव सारे
अब व्यर्थ ये पोस्टर और नारे हैं
कोई चंदू..............................हैं,
तो कोई हजारे हैं.........

चुनाव तो ख़त्म हुए लेकिन हमारे तो बोर्ड के इम्तिहान अभी बाक़ी थे दिसंबर में प्री-टेस्ट में ६० में से हम कुल २० छात्र ही बोर्ड के लिए चुने गए थे.स्कूल बंद हो चुके थे,घर पर ही तैय्यारी करनी थी.जनरल साइंस का कोर्स पूरा नहीं हो सका था.स्कूल सेक्रेट्री डाक्टर इंद्र बहादुर थापा अपने क्लिनिक से स्कूल आकर हम लोगों को पढ़ाते थे.एक पेशेवर डाक्टर का पढ़ाने का अंदाज़ बिलकुल मंजे हुए शिक्षक जैसा था.उनके पढाये पाठ सभी को आसानी से समझ आ जाते थे.

गरमी के मौसम में रात 11  बजे तक लालटेन से पढ़ कर उसे धीमा कर के छोड़ देते थे और सुबह 4 बजे फिर तेज़ करके थोडा देख कर स्नान आदि कर के 6 बजे घर से परीक्षा देने निकल पड़ते थे.स्कूल से मेरा एडमिट कार्ड भी बाबू जी ही लाये थे और जब रिज़ल्ट निकला तो भी वही स्कूल से पता कर के आये थे.वहां अखबार में रिज़ल्ट नहीं निकलता था.प्रीयूनिवर्सिटी में दाखिला नहीं लिया क्योंकि बाबू जी का  तबादला यू.पी.में होने की संभावनाएं थीं.

(अगली किश्त में जारी.......)

Typist -यशवन्त
   
  

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बुधवार, 22 सितंबर 2010

सिलीगुड़ी में सवा तीन साल------ विजय राजबली माथुर

हांलांकि बाबू जी तो १९६२ से १९६८ तक सिलीगुड़ी में पोस्टेड रहे लेकिन हम लोग ६४ से ६७ तक ही वहां रहे.चक्रवर्ती साःके आश्रमपाड़ा स्थित जिस मकान में हम लोग उतरे थे उसका एक कमरा पक्का व् दूसरा बांस की चटाई की दीवारों का था.छत टीन की थी.बारिश अधिक होने के कारण दोनों और ढलवा टीन की छतें होती थीं.जलवायु के प्रकोप से माँ को एक्जीमा हो गया तो बाबू जी के ऑफिस के एक S D O साः की पत्नी ने हम दोनों भाइयों से कहा की कूएँ से पानी भर के बहन को भी दो सब अपने -अपने कपडे अपने आप धोओ,सब्जी काट के रखो,आटा माड़ लो,जिससे ड्यूटी से आने पर बाबू जी पर अधिक भार न पड़े.इस प्रकार हम लोगों को आत्मनिर्भर रहने की आदत पड़ गयी.वर्षा ऋतू की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुला तब दाखिले हुए.दिसंबर में वार्षिक परीक्षा के बाद ६५ में नवीं में आगये.गणित में कमजोर होने के कारण हेड मास्टर कैलाश नाथ ओझा साः ने मुझे साइंस नहीं दी.छुट्टी से लौटने पर साइंस टीचर जुगल किशोर मिश्रा जी ने मुझ से कोमर्स छोड़ कर साइंस लेने को कहा परन्तु मैंने संकाय नहीं बदला.स्कूल के सभी टीचर बहुत अच्छे थे,अच्छा पढ़ाते भी थे.
स्कूल के बारे में- हमारे स्कूल का नाम कृष्ण  माया मेमोरियल हाई स्कूल  था.उस में सुबह की पाली में प्राइमरी section चलता था.वस्तुतः वह पहले प्राइमरी स्कूल ही था.हेड मास्टर ओझा साः व वरिष्ठ टीचर पहले सिलीगुड़ी हाई स्कूल में पढ़ाते थे उनका वहां के हेड मास्टर व मेनेजर से विवाद हो गया था.इन लोगों ने हिंदी भाषी छात्रों को लेकर वह स्कूल छोड़ दिया और नेपाली भाषा के इस प्राइमरी स्कूल के सेक्रेट्री डाक्टर इंद्र बहादुर थापा की अनुमति से इसे हाई स्कूल बना दिया.डाक्टर ओझा साः आरा (बिहार) के थे वहां के कुछ छात्रों को यहाँ लाकर अध्यापक बना दिया जो खुद आगे पढ़ते हुए हम लोगों को बढ़िया सरल तरीके से पढ़ाते थे.इनमे से एक मिश्रा जी Pol .sc .के तथा नेपाली मूल के भीम सेन जी अंग्रेजी के प्रो.हो कर गोहाटी यूनिवर्सिटी चले गए.सभी छात्रों को दुःख हुआ लेकिन उनका भविष्य उज्जवल हुआ इसकी खुशी भी मनाई.सेकिंड हेड मास्टर वैद्यनाथ शास्त्री जी भी ३ माह भोपाल यूनिवर्सिटी में deputation पर पढ़ा कर लौट आये.स्कूल का मुख्य फंक्शन वसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा के रूप में होता था.हम लोगों के सामने ही हेड मास्टर साः को P.hd .करने पर doctrate भी मिल गयी थी उन्हें सम्मानित किया गया.
डाक्टर के.एन.ओझा--हमारे हेड मास्टर साः भी द्वितीय विश्व युद्ध में सेना में रहे थे-वारेंट औफिसर के रूप में.उन्होंने बताया था उनके बैच में २० लोग भर्ती हुए थे १९ मारे गए.वह आगरा में C O D में तैनात रहे इसीलिए बच गए थे.निराला की ''वर दे वीणा वादिनी वर दे'' कड़क आवाज़ में सस्वर पाठ उनके ओज को दर्शाता था.पहले दिन कोई छात्र उनकी कसौटी पर खरा नहीं उतरा.दुसरे दिन मेरे साथ एक अन्य को उन्होंने पास किया.तीसरे दिन 3 को.६० छात्रों के बीच सिर्फ हम ५ छात्र ही निराला की कविता के लिए उपयुक्त पाए गये.डाक्टर ओझा ने कई पुस्तकें भी लिखीं थी;जब हम लोगों के स्कूल में लाइब्रेरी का प्रबंध हो गया तो उन्होंने कुछ पुस्तकें भेंट कर दीं.
भारत पाक संघर्ष--जी हाँ १९६५ की लड़ाई को यही नाम दिया गया था.टैंक के एक गोले की कीमत उस समय ८० हज़ार सुनी थी.पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना साः की बहन फातिमा जिन्ना को जनरल अय्यूब खान ने चुनाव में हेरा फेरी करके हरा भी दिया और उनकी हत्या भी करा दी परन्तु जनता का आक्रोश न झेल पाने पर भारत पर हमला कर के अय्यूब साः हमारे नए प्रधान मंत्री शास्त्री जी को कमजोर आंकते थे.यह पहला मौका था जब शास्त्री जी की हुक्म अदायगी में भारतीय फ़ौज ने पाकिस्तान में घुस कर हमला किया था.हमारी लड़ाई रक्षात्मक नहीं आक्रामक थी.पाकिस्तानी फौजें अस्पतालों और मस्जिदों पर भी गोले बरसा रही थीं जो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन था.लाहौर की और भारतीय फौजों के क़दमों को रोकने के लिए पाकिस्तानी विदेशमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो सिक्योरिटी काउन्सिल में हल्ला मचाने लगे.हवाई हमलों के सायरन पर कक्षाओं से बाहर निकल कर मैदान में सीना धरती से उठा कर उलटे लेटने की हिदायत थी.एक दिन एक period खाली था,तब तक की जानकारी को लेखनीबद्ध कर के (कक्षा ९ में बैठे बैठे ही) रख लिया था जिसे एक साथी छात्र ने बाद में शिक्षक महोदय को भी दिखाया था.यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:--
''लाल बहादूर शास्त्री'' -
खाने को था नहीं पैसा
केवल धोती,कुरता और कंघा ,सीसा
खदरी पोशाक और दो पैसा की चश्मा ले ली
ग्राम में तार आया,कार्य संभालो चलो देहली
जब खिलवाड़ भारत के साथ,पाकिस्तान ने किया
तो सिंह का बहादुर लाल भी चुप न रह कदम उठाया-
खदेड़ काश्मीर से शत्रु को फीरोजपुर से धकेल दिया
अड्डा हवाई सर्गोदा का तोड़,लाहोर भी ले लिया
अब स्यालकोट क्या?करांची,पिंडी को कदम बढ़ाया-
खिचड - पिचड अय्यूब ने महज़ बहाना दिखाया
''युद्ध बंद करो'' बस जल्दी करो यु-थांद चिल्लाया
चुप न रह भुट्टो भी सिक्योरिटी कौंसिल में गाली बक आया
उस में भी दया का भाव भरा हुआ था
आखिर भारत का ही तो वासी था
पाकिस्तानी के दांत खट्टे कर दिए थे
चीनी अजगर के भी कान खड़े कर दिए थे
ऐसा ही दयाशील भारतीय था जी
नाम भी तो सुनो लाल बहादुर शास्त्री जी
आज जब भी सोचता हूँ तो यह किसी भी प्रकार से कविता नज़र नहीं आती है पर तब युद्ध के माहोल में किसी भी शिक्षक ने इस में कोई गलती नहीं बताई.
जब जनरल चौधरी बाल बाल बचे-बरसात का मौसम तो था ही आसमान में काला,नीला,पीला धुंआ छाया हुआ था.गर्जन-तर्जन हो रहा था.हमारे मकान मालिक संतोष घोष साः (जिनकी हमारे स्कूल के पास चौरंगी स्वीट हाउस नामक दूकान थी)की पत्नी माँ को समझाने लगीं कि शिव खुश हो कर गरज रहे हैं.आश्रम पाड़ा में ही यह दूसरा मकान था.उस वक़्त बाबू जी बाग़डोगरा एअरपोर्ट पर A G E कार्यालय में तैनात थे.उन्होंने काफी रात में लौटने पर सारा वृत्तांत बताया कि कैसे ५ घंटे ग्राउंड में सीना उठाये उलटे लेटे लेटे गुज़ारा और हुआ क्या था?
दोपहर में जब हल्ला मचा था तब मैं और अजय राशन की दूकान पर थे,शोभा बाबू जी के एक S D O साः के घर थी,घर पर माँ अकेली थीं.जब हम लोग राशन ले कर लौटे तब शोभा को बुला कर लाये.पानी बरस नहीं रहा था,आसमान काला था,लगातार धमाके हो रहे थे.बाबू जी एयर फ़ोर्स के अड्डे पर थे इसलिए माँ को दहशत थी,मकान मालकिन उन्हें ढांढस बंधा रही थीं.माँ तक उन लोगों ने पाकिस्तानी हमले की सूचना नहीं पहुँचने दी थी.
बाबू जी ने बताया कि चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल जतिंद्र नाथ चौधरी बौर्डर का मुआयना करने दिल्ली से चले थे जिसकी सूचना जनरल अय्यूब तक लीक हो गयी थी.अय्यूब के निर्देश पर पूर्वी पाकिस्तान से I A F लिखे कई ज़हाज़ उन्हें निशाना बनाने के लिए उड़े.इधर बागडोगरा से बम वर्षक पूर्वी पाकिस्तान जाने के लिए तैयार खड़े थे. जनरल चौधरी के आने के समय यह घटना हुई.उधर जनरल चौधरी को हांसीमारा एअरपोर्ट पहुंचा दिया गया क्योंकि हमारी फौजों को पता चल गया था कि पाक को खबर लीक हो गयी है.बागडोगरा एअरपोर्ट का इंचार्ज I A F लिखे पाकिस्तानी ज़हाज़ों पर फायर का ऑर्डर नहीं कर रहा था और वे हमारे बम लदे ज़हाज़ों पर गोले दाग रहे थे लिहाज़ा सारे बम जो पाकिस्तान पर गिरने थे बागडोगरा एअरपोर्ट पर ही फट गये और आसमान में काला तथा रंग बिरंगा धुआं उन्हीं का था.डिप्टी इंचार्ज एक सरदार जी ने अवहेलना करके I A F लिखे पाक ज़हाज़ों पर फायर एंटी एयरक्राफ्ट गनों से करने का ऑर्डर दिया तब दो पाक ज़हाज़ बमों समेत नष्ट हो गये दो भागने में सफल रहे.जनरल चौधरी को सीधे दिल्ली लौटा दिया गया और उनकी ज़िन्दगी जो तब पूरे देश के लिए बहुत मूल्यवान हो रही थी बचा ली गयी.
मेले और प्रदर्शनी-युद्ध के बाद दुर्गा पूजा के पंडालों में अब्दुल हमीद आदि शहीदों की मूर्तियाँ भी सजाई गयीं टूटे पाकिस्तानी पैटन टैंकों की भी भी झलकियाँ दिखाई गयीं.काली पूजा के समय भी युद्ध की याद ताज़ा की गयी.
अगली किश्त में जारी.....
Typist-Yashwant Mathur
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फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणियाँ :
AAI द्वारा बागडोगरा एयरपोर्ट को पूर्णिया भेजने का निर्णय ---
30 जूलाई 2015 :


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सोमवार, 20 सितंबर 2010

शाहजहाँपुर में---(प्रथम चरण)

 बाबु जी का तबादला तो सिलीगुड़ी हुआ और हम लोगों को नाना जी के पास शाहजहांपुर रहना था अतः NOVEMBER के माह में किस  स्कूल में दाखिला मिलता?इसलिए नाना जी तलउआ स्थित विश्वनाथ जू.हा.स्कूल के प्रबंधक से मिले जिनकी माँ कभी हमारे नाना जी के बचपन में उन के घर खाना बनाया करती थीं.उन लोगों ने अभावों में शिक्षा प्राप्त की थी अतः उन के बड़े भाई ने सरकारी अधिकारी बनते ही शाहजहांपुर में उस स्कूल की स्थापना की थी और नाम शिव उपासक होने के कारण ही ऐसा रखा था.उनकी हिदायत थी की उनके विद्यालय से किसी को लौटाया न जाए.विद्यालय के प्रधानाचार्य शर्मा जी जो पहले सरदार पटेल इंटर कोलेज के प्रिंसिपल थे मात्र आनरेरियम पर स्कूल देखते थे उनकी पूर्व छवि बहुत दबंग की थी परन्तु बहुत अच्छा पढ़ते थे.उनकी शक्ल देखते ही शोरगुल बंद हो जाता था.मेरी ही तरह कक्षा ६ में निर्मल कुमार श्रीवास्तव भी देर से एडमिट हुआ था उस के पिता जी का दरोगा के रूप में  तबादला लखनऊ से शाहजहांपुर हुआ था वह क्लास में स्वच्छंद घूमता था,पढने में दिलचस्पी नहीं रखता था.एक दिन सेकिंड हेड मास्टर साः (अचल बिहारी बाजपेयी जी)ने उसे आड़े हाथ लेते हुए कहा-निर्मल यह अमीनाबाद बाज़ार नहीं है अगर तुम पढना नहीं चाहते तो तुम्हारे पिता जी को बुला कर तुम्हारा नाम कटवा लेने को कहेंगे.उस के बाद से वह ठीक हो गया,पिता से शिकायत के नाम पर सहम गया था.आज तो पुलिस में सिपाही की बच्चे भी पूरे रौब -दाब में रहते हैं.
मैं अन्ताक्षरी वगैरह में भाग लेता था इस लिए बाजपेयी जी ने जिला वाद-विवाद प्रतियोगिता में पक्ष में बोलने के लिए मेरा भी चयन किया था.मुझे व विपक्ष में बोलने वाले साथी को लेकर वह गवर्नमेंट हा.स्कूल.रिक्शा से ले गए थे.दोनों ही प्रतियोगिता में स्थान नहीं बना पाए,किन्तु उन्होंने मुझे आश्वासन दिया था कि,कोई बात नहीं अगले साल फिर मौका देंगे और वाकई अगले साल फिर उन्होंने मेरा नाम पक्ष में बोलने के लिए रखा,विषय-वस्तु उन्होंने ही उपलब्ध करायी थी.साड़े चार मिनट में मैं बोल कर जब अपने स्थान की ओर आ रहा था तो उन्होंने धीरे से कहा ''शाबाश बैठ जाइये''.इस बार जिला स्तर पर मुझे प्रथम स्थान मिला था.स्कूल का वार्षिक समरोह शिवरात्रि पर होता था,उस अवसर पर मुझे जय शंकर प्रसाद की ''कामायनी''तथा शील्ड मिली.शील्ड तो एक माह बाद स्कूल में जमा हो गयी-कामायनी को ले कर माँ से उन के चचेरे भाई ने कहा की ७ वीं कक्षा में विजय को B A स्तर की किताब मिल गयी वह क्या समझेगा?(आगे सिलीगुड़ी में प्राचार्य ओझा जी ने एक बार बताया कि कामायनी के एक छंद को लेकर प्रतिष्ठित कवियों में विवाद छिड़ गया कि इसका यह अर्थ है -वह अर्थ है-फैसले के लिए जब वे कवि जय शंकर प्रसाद के पास पहुंचे तो उन्होंने उत्तर दिया -उस समय क्या सोच कर लिखा था मुझे याद नहीं है आप लोग अपने अपने हिसाब से मतलब निकाल लें)तो छायावादी रहस्यवादी काव्य का अर्थ समझना तो B A में भी संभव नहीं था.
छोटा भाई खेल-कूद में भाग लेता था उसे किसी खेल का तृतीय पुरस्कार मिला था;मेरी रुचि खेलों में नहीं थी.इंटरवल में लड़के कबड्डी आदि खेलते थे मैं मूक दर्शक ही रहता था.एक कथा वाचक का पुत्र मेरी ही ७ वीं कक्षा में था काफी बलशाली था सब खेलों में आगे था.सुना था कि रोज़ भगवा झंडे के सामने कसरत करता था.उसी की टीम रोज़ ही जीत ती थी.मैं उसका एकाधिकार  तोडना चाहता था और दस पंद्रह दिन उसके खेल और दांव पेंच पर कड़ी नज़र रखने के बाद एक दिन उसकी विपक्षी टीम में शामिल हो गया.कबड्डी -कबड्डी बोल कर खेलते थे.हमारी टीम के जब सभी लोग आउट हो गए अकेला मैं ही बचा तो वह पंडित जी का बेटा बड़ी शान से आया,मैंने पाले के आखिरी छोर तक पीछे हटते हुए उसे आने को बाध्य किया और तब पकड़ लिया,हांलांकि उसने ज़मीन पर गिरा भी दिया और लेटे लेटे  ही खींचता व बोलता रहा पर मेरी पकड़ छुड़ा कर भाग न सका और आखिर हार ही गया हांलांकि उसके आउट होने पर भी टीम उसी की जीती लेकिन बात प्रधानाचार्य शर्मा जी तक भी पहुँच गयी की आज ताकतवर पंडित जी कबड्डी में परास्त हो गए.शर्मा जी हमें इतिहास पढ़ाते थे उस लड़के से पूछा कि आज कमजोर कैसे पड़ गए -जवाब में वो सिर्फ हंस दिया,मेरी उससे कोई लड़ाई नहीं थी वह पीछे बैठता था और मैं आगे.शर्मा जी इतिहास की पुस्तक का वाचन मेरे अलावा एक और लड़के से ही करवाते थे और बीच बीच में वाक्यों को पेंसिल से UNDER लाइन कराते  थे.पूरे पाठ के बाद कहते थे इस para से उस para  तक प्रश्न (१) का जवाब इसी प्रकार सारे प्रश्नों का हल चुटकियों में कर देते थे-इतिहास पर गज़ब की पकड़ थी उनकी.
बाजपेयी जी संस्कृत पढ़ाते थे और मैं उस में कमजोर था.पहले बिना बताये टेस्ट होते थे एक दिन अचानक हुए टेस्ट में मुझे शून्य मिला.नाना जी के साथ बाज़ार हम दोनों भाई जाते रहते थे.नाना जी जो भी अध्यापक बाज़ार में दीख जाते उन से हम लोगों का ब्यौरा मांगते थे.एक दिन बाजपेयी जी ने शून्य की बात कह कर संस्कृत पर जोर देने को कहा तो नाना जी ने उन से कहा इस के पिता तो बंगाल में हैं वैसे भी हम लोग उर्दू पढ़े हैं संस्कृत आप ही देख लीजिये.  तब से बाजपेयी जी को मुद्दा मिल गया तुम्हारे नाना जी ने अधिकार दे दिया है जब तक संस्कृत का पाठ ठीक न दिखादुं वह अपने साथ मुझे दूसरे कक्षाओं में ले जाने लगे और मेरी कक्षा के दूसरे विषय छूट जाते थे-लिहाज़ा खुद ही संस्कृत पर ध्यान बढ़ा दिया.आज श्लोक आदि संस्कृत  पढ़ बोलकर हवन आदि कराने  में दिक्कत नहीं होती उस के लिए बाजपेयी जी की सख्ती के लिए आभारी हूँ.
नाना जी का घर (भारद्वाज कोलोनी में स्टेशन और टाउन हाल के मध्य)रेलवे लाइन के किनारे था.तमाम रेलों का आवागमन देखते  और स्टेशन  भी घूमने जाते थे तब यों ही टहलने पर पाबंदी नहीं थी.लाइन उस पार झाड़ियों में किसी पेड़ के पत्ते जला कर उस की भस्म शहद में मिलाकर देने से खांसी में लाभ होता था.हमारी एक मौसी (माँ की चचेरी बहन)जो मुझ से बहुत छोटी थीं उन्हें वह दवा दी जाती थी.पत्ते पडोसी के चपरासी को पहचान थे वही लाता था.एक दिन वह चपरासी कहीं बाहर गया था और नानी जी परेशान थीं,मैंने माँ से कहा की मैं वो पत्ते ला सकता हूँ और ला कर दे दिए-नानी जी ने पहचान कर कहा की ठीक हैं पर तुम झाड़ियों के बीच से चुन कर कैसे लाये मैं उस चपरासी के आने जाने झाड़ी में घुसने और पत्ते चुनने पर कड़ी निगाह रखता था उस का लाभ हो गया.माँ की चाची का घर पास ही था.
नाना जी के घर में कूआं था.हम लोग जब नाना जी घर पर नहीं होते थे कूएँ से पानी भर कर रख देते थे और चूल्हे के लिए लकड़ी भी चीर देते थे.नाना जी माँ से कहते थे बच्चों से क्यों काम लेती हो कोई कूएँ में गिर गया तो?कूएँ के पास कटहल का ९० साल पुराना पेड़ था.फल नहीं लगता था और नाना जी पेड़ काटने के खिलाफ थे.माँ और हम लोग पेड़ के नीचे कपडे धोते थे साबुन का भी पानी जाता था उसमे फिर से कटहल लगने लगे सभी को आश्चर्य हुआ!
चीन से लड़ाई तो बहुत जल्दी निबट गयी थी.सिलीगुड़ी फॅमिली स्टेशन डिक्लेयर हो गया.दोनों भाई नाना जी के पास रह गए और माँ छोटी बहन को लेकर सिलीगुड़ी चलीं गयीं.नाना जी का सख्त हुक्म था जब तक माँ वापिस न आये तुम लोग न कूएँ से पानी भरोगे न लकड़ी चीरोगे.बाज़ार नाना जी के साथ अक्सर एक ही भाई जाता था और दूसरा कूएँ से पानी भरकर लकड़ी चीर देता था.फिर नाना जी दोनों को जबरदस्ती एक साथ ले जाने लगे.वह मरीजों को मुफ्त दवा देते थे और जब ज्यादा मरीज़ हुए तभी हम लोग दांव लगा कर पानी कूएँ से भर डालते थे और थोड़ी थोड़ी लकड़ी चीर देते थे.नाना जी कहते थे तुम्हारे माँ बाप ने पढने के लिए छोड़ा है काम करने के लिए नहीं-हमें लगता था बुढापे में नाना जी पर हम लोगों का काम बढ़ गया है मदद करनी चाहिए सो उनकी बात न मान कर भी मदद करते थे.
बाबू जी शायद माँ और बहन को पहुंचाने के लिए सिलीगुड़ी से आये हुए थे-माँ के चचेरे भाई लगभग रूआंसे हो कर बोले-जीजा जी प्रेसिडेंट कैनेडी शॉट डेड.बाबु जी भी थोड़ा उदास हो गए.चीन के हमले के समय कैनेडी ने मदद का प्रस्ताव रखा था जिसे नेहरु जी ने ठुकरा दिया था.कैनेडी के प्रति देश में सहानुभूति थी.
गर्मियों की छुट्टी के बाद बाबु जी हम सब को सिलीगुड़ी ले जाने हेतु आने वाले थे बाबा जी ने गाँव बुलाया था. वहां  से २७ मई १९६४ को लखनऊ भुआ के पास जाना  था जब तक चारबाग़ पहुंचे नेहरु जी के निधन की सूचना फ़ैल गयी थी बाज़ार आदि बंद होने लगे थे.स्टेशन पर बड़े फुफेरे भाई आये थे. 
जिस दिन हम लोगों को सिलीगुड़ी ट्रेन से जाना था उसी दिन नेहरु जी का अंतिम संस्कार होना था.बड़ी मुश्किल से स्टेशन तक के लिए तांगा का प्रबंध हो पाया था.भुआ आदि स्टेशन पहुंचाने नहीं जा पाए.नाना जी जो कभी किसी की मोटर साईकिल पर नहीं बैठे और कोई वाहन न होने के कारण मामा जी के साथ विक्की पर बैठ कर स्टेशन पहुंचाने आये थे.तब मामा जी सेकिंड हैण्ड विक्की का प्रबंध कर पाए थे.आज के प्रो.स्वंय को I A S के समकक्ष समझते हैं.
ट्रेन छोटी लाइन की थी-अवध-तिरहउत मेल.तब प्रत्येक डिब्बे का कोच कंडक्टर रात को डिब्बे में ताला बंद कर लेता था और स्टेशन पर ही खोलता था.आज की तरह एक ही कंडक्टर कई कोच नहीं देखता था.तीसरे दिन ट्रेन ने सिलीगुड़ी पहुंचा दिया था.शाहजहांपुर मेरठ जाने से पहले फिर एक वर्ष पढ़े थे वह सब द्वितीय चरण में.उससे पहले बंगाल की बातें आएँगी. 
Typist -यशवन्त माथुर

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शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

बरेली के दौरान ---विजय राजबली माथुर

बरेली कैंट में गोला बाज़ार में हम लोग रहते थे और रुक्स प्राइमरी स्कूल से पांचवी पास कर रुक्स हायर सेकण्ड्री स्कूल से छठवीं में पढ़ रहा था तो अजय प्राइमरी स्कूल में ही था.एक बार अफवाह फैली की प्राइमरी स्कूल के हैडमास्टर ने किसी लड़के को मुर्गा बना कर उसकी पीठ पर १०-१२ ईंटें रखकर स्कूल के गेट के बाहर धूप में सजा दी जिस कारण उसके नाक-मुहं से खून बहने लगा.हायर सेकण्ड्री स्कूल के वह बच्चे जिनके छोटे भाई प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे अपनी-अपनी क्लास छोड़ कर वहां दौड़ पड़े उनमे मैं भी शामिल हो गया.प्रा.स्कूल के सेकंड हेड मास्टर रमजान अहमद साःने अपने हेड मास्टर इशरत अली साः की जम कर पिटाई की और पुलिस के हवाले कर दिया तथा स्कूल में छुट्टी करा दी.घर पर अजय को सुरक्षित देख कर फिर से अपनी क्लास में साथियों के साथ पहुच गए.रमजान अहमद साः को छावनी बोर्ड ने तरक्की दे कर अन्य स्कूल में हेड मास्टर बना दिया और इशरत अली साः को पद से गिरा कर अन्य स्कूल में सेकंड हेड मास्टर बना दिया.इस स्कूल में अवस्थी जी को हेड मास्टर बना दिया.हमारे उस स्कूल में रहने के दौरान भी रमजान अहमद साः बहुत अच्छा पढ़ाते थे,बच्चों के प्रति उनका व्यवहार बहुत अच्छा था,इसलिए उनकी तरक्की की बात से ख़ुशी हुई थी.

हमारे हायर सेकण्ड्री स्कूल में सालाना प्रोग्राम के के समय लड़कियों द्वारा एक नाटक प्रस्तुत किया गया था जिसमे दो भूमिकाएं याद हैं-(१) अमर सिंह तो मर गया (२)लक्ष्मी हो कर करें मजूरी.

बरेली में पुराने टायर से बनी चप्पलों का रिवाज़ तब था.बाबू जी ने वे चप्पलें सफ़र के लिए लीं थीं.मामाजी का पथरी का लखनऊ में ऑपरेशन हुआ था.बउआ तो शोभा को लेकर मामा जी के घर न्यू हैदराबाद रहीं थीं.बाबू  जी अजय व् मुझे लेकर भुआ के घर सप्रू मार्ग रुके थे.लौटते में लाखेश भाई साः.ने बाबू  जी से वे पुरानी चप्पलें ले लीं थीं.ट्रेन में रात किसी ने बाबू  जी के नए जूते भी चुरा लिए तो बरेली कैंट से गोला बाज़ार तक बाबू  जी को बिना जूता,चप्पल पहने ही आना पड़ा .

पास के गाँव चन्हेटी में साप्ताहिक पैंठ लगती थी जिसमे दोनों भाई बाबू  जी के साथ सब्जी लेने जाते थे.एक बार जब बाबू जी दरियाबाद से होकर लौटे थे तो दोनों भाई सुबह छै बजे चन्हेटी हाल्ट पर उन्हें लेने भी गए थे.जिस दिन हमारे स्कूल का वार्षिकोत्सव था हम लोगों को ट्रेन से मथुरा जाना था.
बउआ की इच्छा बाँके बिहारी मंदिर वृन्दावन जाने की थी और उन्होंने अपने मिले-मिलाए रु.बाबूजी को टिकट वास्ते दिए थे.३-४ दिन वृन्दावन और मथुरा रह कर मंदिर घूम कर जब लौट कर कैंट स्टेशन से घर आरहे थे;रिक्शा पर ही बाबूजी के किसी साथी ने सूचना दी कि उनका तबादला सिलीगुड़ी हो गया है.१९६२ में चीनी आक्रमण के दौरान सिलीगुड़ी नॉन फैमिली स्टेशन था अतः हम लोगों को शाहजहांपुर में नानाजी के घर रहना पड़ा.एक ही क्लास को दो शहरों में पढना पड़ा.डेढ़ वर्ष में ही बरेली छूट गया था.

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गुरुवार, 9 सितंबर 2010

लखनऊ की कुछ और झीनी यादें --- विजय राजबली माथुर

(यों तो १९७३ में मेरठ से ही मैं साप्ताहिक अख़बारों में लिख रहा था,लखनऊ आकर ब्लॉग के माध्यम से लखनऊ से सम्बंधित से कुछ और लोगों से संपर्क हुआ तो लखनऊ में बचपन की कुछ और यादों को लिखने का पक्का विचार बना अन्यथा बरेली के सम्बन्ध में अधूरे लेखन को पूरा करना था.मेरी पत्नी पूनम कई दिनों से इसे आगे बढाने को कह रहीं थीं,लेखन में उनका पूरा सहयोग और प्रेरणा रहती है.उनके पिता जी पटना के श्रीवास्तव परिवार के स्व.विलास पति सहाय साः की सलाह पर मैंने ज्योतिष को प्रोफेशन बनाया था जिनके हमारे आगरा निवास पर हवन करते हुए फोटो 'क्रन्तिस्वर' पर चस्पा है,चूंकि वह गणित के माहिर थे अतः उन्होंने ज्योतिष के महत्त्व को ठीक से समझ लिया था.)
बात शायद ५९ या ६० की रही होगी;अजय और मैं बाबू  जी के साथ  साईकिल से ६-सप्रू मार्ग भुआ के घर से लौट रहे थे.बर्लिंगटन होटल के पास पहुंचे ही थे की पता चला नेहरु जी आ रहे हैं.बाबू  जी ने प्रधान मंत्री को दिखाने के विचार से रुकने का निर्णय लिया जबकि घर के पास पहुच चुके थे.नेहरु जी खुली जीप में खड़े होकर जनता का अभिवादन करते और स्वीकार करते हुए ख़ुशी ख़ुशी अमौसी एअरपोर्ट से आ रहे थे.आज जब विधायकों,सांसदों तो क्या पार्षदों को भी शैडो के साए में चलते देखता हूँ तो लगता है कि नेहरु जी निडर हो कर जनता के बीच कैसे चलते थे? जनता उन्हें क्यों चाहती थी? हुसैनगंज चौराहे पर मेवा का स्वागत फाटक बनवाने वाले चौरसिया जी का भतीजा मेरे क्लास में पढता था.नेहरु जी की सवारी जा चुकी थी और जनता आराम से मेवा तोड़ कर ले जा रही थी कहीं कोई पुलिस का सिपाही नहीं था और फ़ोर्स भी तुरंत हट चूका था.यह था उस समय के शासक और जनता का रिश्ता.आज क्या वैसा संभव है?हुसैनगंज चौराहे पर ही मुहर्रम का जुलूस या गुड़ियों का मेला दिखाने भी बाबु जी ले जाते थे.इक्का-दुक्का सिपाही ही होते होंगे आज सा भारी पुलिस फ़ोर्स तब नज़र नहीं आता था.
विधान सभा पर २६ जनवरी को गवर्नर विश्वनाथ दास द्वारा ध्वजारोहण भी बाबू  जी ने साईकिल के कैरियर और गद्दी पर दोनों भाइयों को खड़ा करके आसानी से दिखा दिया था क्या आज वैसा संभव है? आज तो साईकिल देखते ही पुलिस टूट पड़ेगी.उस समय तो एक निजी विवाह समारोह में भी विधान सभा के लॉन में एक चाय पार्टी में बाबा जी के साथ शामिल होने का मौका मिला था.वह समारोह संभवतः राय उमानाथ बली के घर का था.आज तो उस छेत्र में दो लोग दो पल ठहर भी जाएँ तो तहलका मच जायेगा.यह है हमारे लोकतंत्र की मजबूती !
न्यू हैदराबाद से पहले तो मामा जी खन्ना विला में रहते थे जिसे स्व.वीरेन्द्र वर्मा ने किराए पर ले रखा था और मामा जी वर्मा जी के किरायेदार थे.वर्मा जी तब संसदीय सचिव थे और उनके पास रिक्शा में बैठ कर दो मंत्री चौ.चरण सिंह और चन्द्र भानु गुप्ता अक्सर आते रहते थे.तब यह सादगी थी और आज के मंत्री.......? बाद में मामा जी वहां से शिफ्ट हो गए जिसमे पहले सेन्ट्रल एकसाइज़ इंस्पेक्टर उनके साले श्री वेद प्रकाश माथुर रहते थे. 
घर के पीछे इसी पार्क के सामने मुझे लिए उनका (मामा जी का) फोटो :

वेद मामाजी की मोटर साईकिल पर मुझे बैठाये सरोज मौसी (माईंजी की बहन व डॉ राजेन्द्र बहादुर श्रीवास्तव साहब की पत्नि ) उनके घर के आगे पुलिस लाईन की तरफ वाली सड़क पर। 

इसी पार्क में बचपन में खेलने का अवसर मिला है.१९६० की बाढ़ में मामा जी का घर तीन तरफ से पानी से घिर गया था.कई दिन वे लोग वहीँ घिरे रहे और पानी उतरने पर ही निकल सके वहां नाव तक चली थी.हमारा घर हुसैनगंज में नाले से सटा था लेकिन हमलोग बाढ़ से बचे हुए थे बल्कि भुआ का पूरा परिवार हमारे ही घर में आकर रहा था.बाढ़ उतरने के बाद ही नाना जी ने आकर कुशलता की सूचना दी थी बल्कि जिस दिन बाढ़ आने वाली थी वह आकर बउआ को बता गए थे की बाढ़ आ रही है कई दिन बाद मिल पाएंगे.तब उनके सामने वाले पार्क में वोट भी पड़ते थे.क्या आज खुले में मतदान स्थल बन सकता है?बातें तो बहुत सी धुंधली यादों में हैं.लखनऊ वापिस आने पर लखनऊ से सम्बंधित पुराने लोगों से ये ब्लॉग परिचित कराता जा रहा है यही बहुत है.


नोट-रोमन से देवनागरी में टाइप होने के कारन इस ब्लॉग में वर्तनी की त्रुटियाँ होना संभव है.पाठक यथा स्थान कृपया सुधार कर लें.


Typist -यशवंत (जो मेरा मन कहे......)

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