बहुत कम ही ऐसे अवसर रहे हैं जबकि मेरे कार्यों या निर्णयों को समर्थन मिला हो। अधिकांशतः मुझे आलोचनाओं व विरोध का ही सामना करना पड़ता रहा है। किन्तु विगत 30 नवंबर 2014 ,रविवार का दिन मेरे लिए इस संदर्भ में इसलिए स्मरणीय बना रहेगा कि इस दिन मेरे निर्णयों व कार्यों को हमारे ऊपर की पीढ़ी के हमारे चाचा (पिताजी के एक चचेरे भाई ) द्वारा सही ठहराया गया। 1978 में जब हमने अपने निजी मकान (कमला नगर,आगरा ) में प्रवेश किया था तब हमारे माता-पिता दोनों जीवित थे अतः भाई-बहन तो आते ही रहते थे बल्कि ऊपर की पीढ़ी के भुआ-फूफाजी व एक ताऊजी भी वहाँ आए थे। माँ के दो चाचा, एक चाची और चचेरे भाई-बहन भी वहाँ आए थे। किन्तु 1995 में माता-पिता के न रहने के तत्काल बाद माईंजी आईं थीं । एक अरसे बाद पिताजी के एक चचेरे भाई व माँ के एक चचेरे भाई ही हमसे मिलने आए जबकि 2009 में लखनऊ आ जाने के बाद से अब तक छोटी बहन -बहनोई व बड़ी भांजी सपरिवार आए जबकि एक चचेरे भाई व एक चचेरी भांजी ही सपरिवार आए हैं।
30 नवंबर को पिताजी के दूसरे चचेरे भाई जब हमसे मिलने आए तो बेहद खुशी हुई कि अभी हमें बुज़ुर्गों ने भुलाया नहीं है। माता-पिता द्वारा पूनम से मेरे पुनर्विवाह का निर्णय लेने के बाद उन दोनों का ही निधन हो जाने के कारण जहां छोटे भाई -बहन सहित अधिकांश रिश्तेदार पूनम से विवाह किए जाने को गलत ठहरा रहे थे इन चाचा ने स्पष्ट कहा कि तुमने भाई साहब -भाभी जी की बात उनके बाद भी मान कर सही निर्णय लिया है।उन्होने मेरे ब्लाग -लेखन को भी सही ठहराया। उन्होने पैतृक संपति न लेने के हमारे पिताजी के निर्णय को भी सही ठहराया। पिताजी की ईमानदारी व परिवार के प्रति निभाए कर्तव्यों की भी चाचा ने सराहना की। इससे यह ढाड़स मिला की अभी भी ईमानदारी अपना कर हमने कुछ भी गलत नहीं किया है और इसी पथ पर आगे भी चलते रहना चाहिए।
1975 में बहन की शादी हुई थी और 1976 में बहनोई साहब ने बहन से माँ को कहलाया था कि बाबूजी को दरियाबाद की पैतृक संपति ले लेनी चाहिए उसकी देख-रेख करने के लिए वह BHEL की अपनी नौकरी भी छोडने को तैयार थे। उनका यह भी कहना था कि यदि बाबूजी मकान बनाते हैं तो उनको एक-एक कमरे के ही सही तीन मकान बनाने होंगे। परंतु बाबूजी जब 1978 में रिटायर हुये तो उनको पूरी पेंशन भी इसलिए न मिली कि वह पहले ही बहन की शादी के वक्त पेंशन बेच चुके थे तो मकान कैसे बनाते? मेरे द्वारा 15 वर्षीय किश्तों पर आगरा में मकान लेना उनको भी नागवार गुजरा था। होटल मुगल में जाब खत्म कराने में उनकी भी भूमिका रही थी जिसका अब जाकर खुलासा हुआ है। वे लोग सोचते थे किश्तें अदा न कर पाने के कारण मेरा एलाटमेंट केन्सिल हो जाएगा। परंतु मैंने भूखे रह कर भी किश्तें चुका दीं थी और उसी मकान को बेच कर अब लखनऊ में घाटे पर लिया है। मेरा लखनऊ आना तो उनको इतना अखरा कि तिकड़म करके मेरे पुत्र का जाब भी खत्म करा दिया। दरियाबाद में बाबूजी के भतीजों को भी अपने साथ लामबंद करके उन्होने हमें अलग-थलग करने की किलेबंदी कर रखी है।
ब्लाग-जगत में दरियाबाद से संबन्धित रांची स्थित एक ब्लागर के माध्यम से पटना के पूना प्रवासी ब्लागर को अपनी छोटी बेटी के संपर्क द्वारा मेरे व पुत्र के लेखन के विरुद्ध भी बवंडर खड़ा किया गया। उन्ही संपर्कों द्वारा हमारी पार्टी के एक प्रदेश नेता को भी मेरे विरुद्ध जुटाया गया जो मेरे लेखन का प्रखर विरोधी और आलोचक बन कर मुझे उत्पीड़ित करने का हर प्रयास करता रहता है।
ऐसी परिस्थितियों के बीच हमारे चाचा ने हमारे घर आकर हमको सही ठहराया यही हमारी वर्ष 2014 की सबसे मूल्यवान उपलब्धि है।
वीभत्स आतंकवाद (पेशावर कांड ) के शिकार सवा सौ से अधिक बच्चों के मार्मिक दुखांत ने हमें 1968 में रिलीज़ हुई 'दो कलियाँ' देखने को प्रेरित कर दिया। जिसमें बाल-कलाकार के रूप में नीतू सिंह की मुख्य भूमिका है। निर्देशक द्वय आर कृष्णन व एस पंजू ने इस फिल्म के माध्यम से मनोरंजन करते हुये जो संदेश दिया है वह वास्तव में नितांत गंभीर है। इसके माध्यम से समाज की तमाम विकृतियों, विभ्रम, स्वार्थ-लिप्सा, अनैतिक कार्यों के दृष्टांत प्रस्तुत करते हुये यह भी दिखाया गया है कि इसी पथ -भ्रष्ट समाज में कुछ लोग अपने साहस व लगन के द्वारा उन पर विजय हासिल करने में भी समर्थ हैं। हालांकि फिल्म के उपसंहार में बालाजी पर आस्था व विश्वास के दृश्यों द्वारा समाज में व्याप्त अंध-विश्वास व ढोंग को महिमामंडित कर दिया गया है जिससे जनता में कर्तव्य पथ से परे परा - शक्ति पर भरोसा रखने की प्रवृत्ति को बेजा बढ़ावा मिलता है। यदि फिल्म के अंतिम पाखंडी दृश्यों की उपेक्षा कर दी जाये तो बाकी फिल्म प्रेरक प्रतीत होती है जिसने दो छोटी-छोटी बच्चियों के साहस,बुद्धि-कौशल व दृढ़ निश्चय को दर्शाया है। इन दोनों जुड़वां बहनों ने न केवल अपनी माँ के प्रति उत्पन्न अपने पिता की गलत फहमी को दूर किया वरन अपनी घमंडना नानी को एड़ियों के बल खड़ा होने पर मजबूर कर दिया।
'गंगा'/'जमुना' के रूप में बाल-कलाकार बेबी सोनिया नाम से नीतू सिंह की भूमिकाएँ और उनका प्रस्तुतिकरण सराहनीय व प्रशंसनीय हैं। किरण के रूप में माला सिन्हा की भूमिकाएँ ठीक रही हैं जबकि निगार सुलताना को उनकी माँ के रूप में विकृत चेहरा प्रस्तुत करना पड़ा है। उनके समकक्ष शबनम की माँ मधुमती के रूप में मनोरमा को भी अनैतिकता का सहारा लेते दिखाया गया है। सुजाता के रूप में सुजाता की भूमिका भी आदर्श प्रस्तुतीकरण है।शेखर के रूप में बिस्वजीत किरण की माँ के व्यवहार की प्रतिक्रिया वश मधुमती के प्रपंच व जाल में फँसते दिखाये गए हैं।
गंगा जब वेश बदल कर जमुना के रूप में ननसाल में माँ के साथ रहती है तो उसकी मार्मिक भूमिका में बालिका नीतू सिंह का कमाल इस गीत के माध्यम से देखिये-
किरण के पिता के रूप में ओमप्रकाश व शेखर के मित्र के रूप में महमूद अली की भूमिकाएँ भी कम सराहनीय नहीं हैं। समाज में फैले भ्रष्टाचार, कर-चोरी, जनता के शोषण-उत्पीड़न पर हास्य प्रस्तुति के रूप में महमूद के कृत्य का कायल हुये बगैर नहीं रहा जा सकता है-
खुले दिल और दिमाग से देखें और पाखंड को त्याज्य दें तो आज की परिस्थितियों में भी फिल्म 'दो कलियाँ' एक आदर्श मनोरंजक फिल्म सिद्ध होती है।