शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

पुण्य तिथि पर मामा जी का स्मरण इस बार क्यों? ------ विजय राजबली माथुर





21 सितंबर 1977 को जिंनका निधन हुआ  डॉ कृपा शंकर माथुर साहब (तत्कालीन विभागाध्यक्ष -मानव शास्त्र,लखनऊ विश्वविद्यालय) की कुछ यादें : 



न्यू हैदराबाद ,लखनऊ मे घर के सामने के पार्क मे लेखक को गोद मे लिए हुये


यों तो इसी ब्लाग मे मामा जी का ज़िक्र कई बार आया है और आगे भी होगा।  परंतु उनके निधन के 35 वर्ष बाद 36 वीं पुण्य तिथि पर सिर्फ उनसे संबन्धित खास-खास बातें लिखने का ख्याल 18 अगस्त 2012 को तब आया जब हमे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान मे आयोजित डॉ राही मासूम रज़ा साहब के चित्र अनावरण मे भाग लेने का अवसर मिला। 'डॉ राही मासूम रज़ा साहित्य एकेडमी' के मंत्री और फारवर्ड ब्लाक , उत्तर प्रदेशके अध्यक्ष राम किशोर जी ने हमे भी समारोह मे आने को कहा था जहां डॉ रज़ा साहब के भांजे साहब जो इस वक्त लखनऊ विश्वविद्यालय मे मानव शास्त्र के विभाध्यक्ष हैं भी आए थे और उन्होने अपने मामाजी डॉ राही मासूम रज़ा साहब के संबंध मे व्यक्तिगत जानकारियों का विस्तृत वर्णन किया था। उन्हीं से प्रेरणा लेकर मैं भी अपने मामाजी डॉ कृपा शंकर माथुर साहब को आज उनकी पुण्य तिथि पर श्रद्धांजली अर्पित कर रहा हूँ। 

मामा जी हमारी माँ से पाँच वर्ष छोटे थे और उनको काफी प्रिय थे। मामाजी भी हम लोगों को काफी मानते थे हम लोगों के बचपन के सभी फोटो उनके ही खींचे हुये हैं सिवाए एक-दो फोटो के जिनमे वह मुझे गोद मे लिए हुये हैं। वह बचपन से ही काफी मेधावी थे और उनको शुरू से ही योग्यता के कारण 'वजीफा' मिलता रहा था। नाना जी एगरीकल्चर विभाग मे बरेली मे पोस्टेड थे जब मामा जी ने इंटर् मीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। मामाजी के घनिष्ठ मित्र आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ यूनिवर्सिटी मे दाखिला ले रहे थे अतः वह भी उनके साथ ही पढ़ना  चाहते थे। नाना जी ने व्यक्तिगत आधार पर कुछ नुकसान उठाते हुये लखनऊ ट्रान्सफर करवाया और मामा जी को लखनऊ यूनिवर्सिटी मे दाखिला लेने का अवसर प्रदान किया। जब मामा जी ने B.com.मे लखनऊ यूनिवर्सिटी को टाप किया  तो एङ्ग्थ्रोपालोजी के तत्कालीन विभागाध्यक्ष डॉ माजूमदार साहब ने मामाँजी को बुला कर कहा कि M.A. मे एङ्ग्थ्रोपालोजी लो तुम्हें विभाग मे ही रख लेंगे। मामा जी ने उनकी बात को आदर दिया और उन्होने भी अपना वायदा निभाते हुये मामा जी के पुनः यूनिवर्सिटी मे टाप पर रहने के आधार पर नियुक्ति -पत्र दिलवा दिया। उस वक्त शायद उनका वेतन रु 300/-मासिक था। 

यूनिवर्सिटी मे मामाजी फोटोग्राफी एसोसिएशन के सेक्रेटरी भी रहे जबकि प्रो शेर सिंह साहब अध्यक्ष थे। डॉ माजूमदार साहब के बाद प्रो शेर सिंह जी विभाध्यक्ष बने थे किन्तु बाद मे वह नेहरू मंत्रिमंडल मे बतौर उप-मंत्री शामिल हो गए थे । अतः मामाजी उनके बाद से मृत्यु पर्यंत एङ्ग्थ्रोपालोजी के विभागाध्यक्ष रहे। शायद उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की स्थापना के समय मामाजी भी उससे सम्बद्ध रहे थे।

बरेली से आने के बाद नाना जी ठाकुर गंज मे अपनी फुफेरी बहन के मकान मे किराये पर रहे थे वहाँ से यूनिवर्सिटी दूर थी और मामाजी साइकिल से ही पढ़ने आते थे किन्तु जाब मिल जाने पर उन्होने न्यू हैदराबाद मे 'खन्ना विला' मे किराये पर एक हिस्सा ले लिया । यह मकान चौधरी वीरेंद्र वर्मा ने किराये पर लिया था और मामाजी उनके किरायेदार  थे। वीरेंद्र वर्मा जी उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल मे तब संसदीय सचिव थे(जो बाद मे हिमाचल के राज्यपाल बने और भाजपा मे शामिल हो गए थे) और उनके पास दो मंत्री- चंद्र भानु गुप्ता जी एवं चौधरी चरण सिंह जी अक्सर रिक्शा पर बैठ कर आते-जाते थे । उस वक्त तक ये मंत्री गण सादगी से और जनता से घुल-मिल कर रहते थे आज तो पार्षद भी खुद को VIP समझता है। उस समय मामाजी के पास फोन नहीं था आवश्यकता पड़ने पर वर्मा जी  के फोन का इस्तेमाल आठ आना के भुगतान पर कर लेते थे।

डॉ माजूमदार तो मामाजी का विवाह भी अपनी पुत्री से करने के इच्छुक थे परंतु हमारी एक दादी जी (बाबूजी की चाची )अपनी भांजी से उनका विवाह कराने मे सफल रहीं। माईंजी के भाई  वेद प्रकाश माथुर साहब सेंट्रल एकसाईज मे तब इंस्पेक्टर थे और न्यू हैदराबाद मे ही रहते थे। जब हमारी माँ नानाजी के पास आती थीं तो माईंजी विवाह पूर्व ही अपने छोटे भाई-बहनों से मुझे मँगवा लिया करती थीं और दिन भर अपने पास रखती थीं। मामाजी की बारात मे मैं भी बाबूजी और नानाजी की गोद मे रह कर शामिल हुआ था। अजय काफी छोटे होने के कारण माँ के साथ घर पर रहे,तब (58 वर्ष पूर्व)महिलाओं के बारात मे शामिल होने का चलन नहीं था।

जब माईंजी के भाई साहब का अन्यत्र ट्रांसफर हो गया तो मामाजी ने उसी मकान को किराये पर ले लिया और उसमे यूनिवर्सिटी मे बंगला मिलने तक रहे। ऊपर वाला चित्र उसी मकान के सामने के पार्क का है। जब बाबूजी ने एम ई एस की नौकरी ज्वाइन की तब मामाजी रिसर्च हेतु आस्ट्रेलिया गए हुये थे और नानाजी पूरे मकान मे अकेले रहते थे अतः उनके कहने पर बाबूजी कुछ समय वहाँ रहे। बाद मे हुसैन गंज मे नाले के निकट फख़रुद्दीन मंज़िल मे नीचे के एक हिस्से मे हम लोग रहते थे और अक्सर न्यू हैदराबाद मामाजी के यहाँ जाना होता रहता था। उन लोगों का भी हमारे यहाँ आना होता रहता था । एक बार दीवाली के रोज़ मामाजी अकेले ही थोड़ी देर को आए थे और कुछ आतिशबाज़ी दे गए थे। 'अनार' शायद शक्तिशाली था जिससे मेरा पैर झुलस गया था। दोज़ पर जब हम लोग उनके घर गए तब मामाजी ने कहा कि वह यह बताना भूल गए थे कि बड़ों की निगरानी मे ही हम लोगों को वह आतिशबाज़ी दी जाती। अब तो हम लोग आतिशबाज़ी के विरुद्ध हैं और मेरा पुत्र भी पटाखे नहीं छुड़ाता है।

1961 मे हम लोगों के बरेली जाने के बाद मामाजी का कोई आपरेशन हुआ था तब फिर लखनऊ आना हुआ था। बहन तो माँ के साथ मामाजी के घर रहीं और हम दोनों भाई बाबूजी के साथ भुआ के घर -6,सप्रू मार्ग पर। मेडिकल कालेज मे मामाजी को देखने बाबूजी के साथ जाते थे। तब मेडिकल कालेज यूनिवर्सिटी के ही अंडर था और इस कारण मामाजी का विशेष ध्यान वहाँ रखा जाता था।

1971 मे अजय डेंटल हाईजीन का कोर्स करने हेतु मामाजी के घर रहा था। जब बाढ़ आने पर RSS के लोग मामाजी के बंगले पर फोन करने आते थे तो मामाजी ने उन लोगों को निशुल्क सुविधा प्रदान की थी । माईंजी चूंकि तब शायद कांग्रेस मे सक्रिय थीं और उनके कोई भाई भी कांग्रेस मे थे(माईंजी के एक भतीजे प्रदीप माथुर साहब तो इस वक्त कांग्रेस विधायक दल के नेता हैं)। इसलिए लोगों को कौतूहल हुआ। नाना जी ने हमे बताया था कि पढ़ाई के दौरान ठाकुर गंज मे निवास करते हुये मामाजी RSS मे सक्रिय रहे थे। पंडित दीन दयाल उपाध्याय मामाजी के घर किसी कार्यक्रम मे आए थे और नानाजी भी उनसे मिले थे। 1948 मे गांधी जी की हत्या के बाद से मामाजी ने RSS से अलगाव कर लिया था किन्तु बाढ़-सहायता हेतु उनके लोगों को फोन करने की सुविधा प्रदान कर दी थी।

1969 मे लता मौसी (माँ की चचेरी बहन) की शादी के बाद जब हम लोग मामा जी के घर आए थे तो मामजी ने मेरे विषय जानने के बाद माँ से कहा था कि जीजाजी से कह कर B.A.मे  विजय से 'इतिहास' विषय हटवा लेना क्योंकि इतिहास पढ़ कर दृष्टिकोण 'सांप्रदायिक' हो जाता है। इतिहास मेरा प्रिय विषय था किन्तु मामाजी के परामर्श के अनुसार उसे छोड़ कर 'सोशियोलाजी' ले लिया। मामाजी ने M.A.लखनऊ यूनिवर्सिटी से उनके एङ्ग्थ्रोपालोजी मे उनके पास रह कर करने को कहा था और आश्वासन दिया था कि वह यूनिवर्सिटी मे ही अपने विभाग मे जाब दिला देंगे। किन्तु मैंने एम ए ही नहीं किया और प्राईवेट जाब पकड़ लिया। यदि तब मामाजी की बात पूरी की होती तो शायद डॉ राही मासूम रज़ा साहब के भांजे साहब के साथ उनके विभाग मे होता। 

1977 की 21 सितंबर को जब मैं होटल मुगल से ड्यूटी करके घर पहुंचा था तब तक मामजी की मृत्यु  की सूचना टेलीग्राम द्वारा पहुँच चुकी थी और माँ-बाबूजी लखनऊ जाने को तैयार थे। बाबू जी माँ को वहाँ छोड़ कर लौट आए थे और चार-पाँच दिन बाद मुझे व अजय को माईंजी के पास जाने को कहा । हम दोनों भाई लखनऊ आए थे दो रोज़ रह कर अपने साथ माँ को लेते गए थे। मामाजी उस समय 'नवजीवन' के लिए एक लेखमाला चला रहे थे 22 सितंबर को जो उनका लेख छ्पा था उस अखबार की प्रति हमारे पास सुरक्षित है किसी और अवसर पर उसकी स्कैन कापी प्रकाशित करेंगे।

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शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

प्राप्त कुछ चुनिन्दा महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ

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आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। आपके कमेन्ट के माध्यम से यहाँ पहुंची हूँ। आगरा मेरी ससुराल, और लखनऊ माइका है। न्यू -हैदराबाद में डॉ ओ पी सिंह और सहारा इंडिया वाली लेन में बहुत वर्ष तक रह चुकी हूँ। आपकी पोस्ट्स पर लखनऊ का विस्तार से वर्णन पढ़कर, यादें ताज़ा हो गयीं ।

आभार ।
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आदरणीय विजय माथुर जी,

आपके संस्मरण पढ़ते समय बहुत कुछ सीखने को मिलता है। आपके बताये गए प्रसंग बहुत प्रेरक होते हैं। मन उर्जा एवं स्फूर्ति से भर उठता है। शास्त्री जी पर लिखी कविता बहुत उत्कृष्ट है एवं उनके व्यक्तित्व को बखूबी बयान करती है। यदि आपकी तरह और भी लोग इस प्रकार संस्मरण लिखें तो हम लोगों को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।

यशवंत जी,
आपने बहुत मेहनत से टाइप किया है। आपका कार्य एवं निष्ठां बेहद सराहनीय है ।

आभार।

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आसमान में काला,नीला,पीला धुंआ
आपकी रचना बहुत ही रोचक रहती है !
पढ़ने में बहुत अच्छा लगता है :) 


यादें-संस्मरण अक्सर खट्ट्-मीठे होते हैं पर ये रोचक रहे...

  1. .

    आदरणीय विजय जी,

    इतना बढ़िया लेख आपके सुन्दर और भावुक मन की परिचायक है। विभिन्न ब्लॉग के लेखों पर आपके कमेंट्स में इमानदारी, सच्चाई एवं निर्भीकता दिखती है। बहुत से विषयों पर आपके कमेंट्स में ढेरों जानकारी मिलती है जो अक्सर किताबों में उपलब्ध नहीं होती। सभी विषयों में ख़ास कर आजादी के दीवानों , महापुरुषों और शहीदों के बारे में आपका ज्ञान अद्भुत है। आपके अन्दर राष्ट्र के लिए असीम प्यार दीखता है।

    विजय जी, मैंने अपने जीवन में आप जैसे निष्पक्ष, इमानदार और संवेदनशील व्यक्ति कम ही देखे हैं। आप के ब्लॉग पर बहुत कुछ नया सीखने को मिलता है। आपने जो स्नेह मुझे दिया है, उसके लिए आपकी आभारी हूँ।

    वीना जी मेरी बहुत अच्छी मित्र है , उनकी रचनाओं से बहुत प्रभावित हूँ। आशीष जी एवं वीना जी की नियमित पाठक हूँ। पाखी एवं माधव के ब्लॉग निसंदेह सराहनीय हैं।

    इस सुन्दर लेख के लिए आपका आभार विजय जी।

    नवरात्री की शुभकामनाओं के साथ ,
    दिव्या

    .
  2. आपका सफ़र सतत चलता रहे, सफलता मिलती रहे, शुभकामनाएं.
  3. यही जीवन का फलसफा है...हर मोड़ पर न जाने कितनों से टकराती है...काफी अच्छा लिखते हैं आप.
  4. पहले तो देरी के लिए मुआफी...आपने बहुत अच्छा लिखा है साथ ही हम ब्लॉगर मित्रों का जो मान बढ़ाया है उसके लिए क्या कहूं...इतना कुछ तभी लिखा जा सकता है जब आप खुद किसी के बारे में सोचें और उसकी बातों पर ध्यान दें। ऐसा कहां होता है लोग मिलते हैं फिर आंखों से ओझल भी हो जाते हैं, कौन किसको याद रखता है।
    सबके बारे में जो आपने लिखा है वाकई प्रशंसा के काबिल है। आप जो लिखते है वो ज्ञानवर्धक तो होता ही है, आप इतना बारीकी से अध्ययन भी करते हैं ये भी पता चल गया..यह आपकी खूबी है। आपके लिए और कुछ नहीं कह सकती...शब्द शायद कम पड़ जाएं। दिव्या जी तो खैर लिखती ही अच्छा हैं। बच्चो के ब्लॉग भी छाए ही रहते हैं....बस धन्यवाद


    vijay mathur jee
    sadar namaste
    aapke blog par aane par kuchh nayi rochak aur sargarbhit jankaree milti hai .....lekin mai aapko bahut hee dhanyabad dena chahuga mere blog par aapke aagaman ke liye ..kyoki aap sirf aaye hee nayi balki meri un rachnao ko padhe aur apne comment se mera utsah vardhan kiye jinhe likh kar mai kkhud hee bhool chuka tha ...aage bhee aapke margnirdeshan kee aasha ke sath..vijay


    नमस्कार माथुर साहब, अचानक निगाह पड़ गयी सो सोचा कुछ लिख दूँ जो दिल को छु गया आज भी आपने "साहब" का इस्तेमाल नहीं भूले बदायूं में भी हम लोग शब्बीर साहब, जेम्स साहब, यही कहा करते थे अब तो सचिन खेल रहा है .खैर शुक्रिया लिखा बहुत अच्छा है 

    प्रिय विजय जी ,
    दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये आपके लिए और आपके समस्त परिवार के लिए /
    पुनश्च, सत्य की विजय ही होती है यह ध्रुब सत्य है अतः साहस के साथ अपनी लड़ाई जारी रखे, आपके विजय की कामना करता हूँ /


    आद.विजय जी,
    आप जैसे सच्चे लोगों के रहने से ही ज्योतिष की गरिमा बनी हुई है !


    1. बहुत इमानदारी से और दिलचस्प अंदाज में आपने अपनी ऑटोबायोग्राफी प्रस्तुत की माथुर साहब !
    2. बहुत अच्छी तरह सारी घटनाओं और यादों की माला बना रहे हैं आप...
    3. संदेशपरक ...सुन्दर .सार्थक ब्लॉग .बधाई
    4. संस्मरण बहुत रोचक है। बहुत धन्यवाद|
    5. माथुर साह्ब!
      आपकी कलम जानदार है। आपसे भाषा और साहित्य को काफी आशाएं हैं। सीख लेने वाले संस्मरणो के लिए बधाई।
      सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी


      विजय जी आपका मेरठ का सफर बहुत सारे पहलू उजागर करता है ।
      कितना कुछ आपने अपनी यादों के गुलदस्ते में कितने करीने से सहेज कर रखा है ।


      भाई माथुर जी!
      "डंडा" संत स्वभाव की, यही मुख्य पहचान।
      जो भी मिलता है उन्हें, उसको करते दान॥
      ===========================
      आपके अनुभव दूसरों के लिए मार्ग-दर्शक
      सिद्ध होंगे। ज्ञानवर्धक रचना के लिए साधुवाद!
      सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी


      माथुर जी! शासन-सत्ता का इतिहास तो सुलभ हो जाता है। जन- इतिहास की गवाही जन-संस्मरणों में मिलेती है। आपका कार्य सराहनीय है। शानदार प्रस्तुति के लिए साधुवाद!
      सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी


      कारगिल का अर्थ सेब होता है, यह पहली बार पता चला.
      आपके संस्मरण से कई नई बातों को जानने का अवसर मिल रहा है.


      यह तो एक नायाब संस्मरण बनता जा रहा है। शायद आत्मकथा में तबदील हो जाए।

      कृपया ज़ारी रखें। इन आलेखों का सहज प्रवाह और बीते घटनाक्रम से मिलते संदेश प्रेरक और विचारणीय होते हैं।

      कई लोगों ने बहुत सी निजी बातें सार्वजनिक कीं ... मैं दो का ही केवल नाम लेना चाहूंगा ... हरिवंशराय बच्चन और महात्मा गांधी।
      दोनों की आत्मकथा कालजयी कृतियां हैं।


      माथुर जी! आपको बहुत-बहुत बधाई। दान के विषय में औचित्य एवं अनौचित्य की संक्षित्प किन्तु गर्भित जानकारी दी है। यह विचार जीवन में उतारने वाला है।

      संक्षिप्त में पूरी रामायण एक अलग अंदाज़ और नज़रिए से पढ़कर अत्यंत हर्ष की अनुभूति हुई ।
      न जाने क्यों , मुझे पारंपरिक बातों में एक बनावटीपन सा लगता है । आपकी बातें यथार्थ के करीब लगती हैं । अंतिम पैरा पढ़कर ज्ञान चक्षु और खुल गए ।
      आभार इस शानदार लेख के लिए ।

      रामनवमी की हार्दिक शुभकामनायें माथुर जी ।


      माथुर जी ने महिला दिवस पर जो विचार संप्रेषित किए उनका मैं तहेदिल से समर्थन करता हूँ .हालाँकि बाज़ मरतवा यह भी देखा गया है की वैयक्तिक दांपत्य जीवन में महिला खलनायिकाएँ ओर उनका जीवन साथी पुरुष वेचारा सविट हुआ है .अतएव ज़रूरी यह है की ज़ेंडर भेद को अस्वीकार करने की रौ में हम विश्व महिला दिवस तो आवजर्व करें किंतु हमारा मकसद शोषण विहीन ,वर्ग विहीन ,समतामूलक समाज व्यवस्था की और गतिशील होना चाहिए.

      एक मूर्खतापूर्ण कथा है--
      ----कहां लिखा है कि राम ने वेद-विरुद्ध कार्य किया, जगह जगह विरोधी व असत्य वक्तव्य हैं--
      ---जब राम वेद-विरोधी थे तो उन्होंने वेदिक परिपाटी की यग्य क्यों की
      ---जब उन्होंने वेद के विरुद्ध मन्दोदरी( कहां लिखा है भाई?) व बाली की पत्नी का विवाह कराया तो सीता ने उनके साथ आने से उसी समय इन्कार क्यों नहीं किया...
      --- जब वेदों के अनुसार नियोग प्रथा है , जैसा आपने कहा तो राम वेद-विरोधी कैसे हुए
      ---नियोग प्रथा सिर्फ़ सन्तान हीनता की स्थिति में सन्तान उत्पत्ति के लिये प्रयोग होती थी...विवह के लिये नही...
      सारी कथा हिन्दू-धर्म( जिसके अर्थार्थ समझ्ना सबके बस की बात नही है) के विरुद्ध जहर उगलने के सदियों पुराने षदयन्त्र का भाग है...


      maine aaj pahli baar aapke lekh ko pada bahut accha laga, adbhut laga...... ek baat aur janana chahti hoon ki ye lekh stya tha yaa kalpnik mera kahne ka matlab ye hai ki isme aaye naam sataya the yaa kalpnik... saadar
      उत्तर-



      1. सोनिया जी!

        न तो यह कोई लेख है न काल्पनिक। आपने ध्यान से देखा हो तो स्पष्ट है की वह मेरी पहली पत्नी (यशवन्त की जननी माँ )की जन्म कुंडली का विश्लेषण है। उसे आपने किस प्रकार काल्पनिक मानने की कल्पना की?


        1. आडम्बर दिखावा करने की जरुरत भी नहीं है किसको दिखाना है। बाबूजी के सम्बंध में जानकारी मिली । अच्छी जिन्दगी व्यतीत कर गये और उस अनुसार आपको आचरण करने की ,ईमानदारी से जीवन यापन करने की शिक्षा दे गये । बाबूजी को नमन
        2. गुरूजी प्रणाम ...देर से पोस्ट पर आने की वजह से ...आज ही सही ..आप के पिताजी को मेरी श्रधांजलि सुमन समर्पित है !
        3. बहुत सुंदर.. क्या बात है
        4. बाबु जी को नमन व हार्दिक श्रधांजलि|


        ई मेल द्वारा प्राप्त-

        Arun Roy
        Sep 3 (10 days ago)

        to me
           
        बहुत बहुत धन्यवाद विजय जी कि आपने मेरा मान रख लिया... सादर अरुण


      दूसरे ब्लाग पर टिप्पणियाँ-

      ZEAL said...
      . आदरणीय विजय माथुर जी और पूनम जी मेरे माता-पिता समान हैं और यशवंत जो मुझे "बुआ" कहता है , मेरा प्यारा सा भतीजा है। इस नाते अगम प्रसाद माथुर जी मेरे भी माता-पिता सामान हुए। बहुत अच्छा लग रहा है इतनी बड़ी हस्तियों की संतान कहलाते हुए। .
    6. अल्पना जी , मैं हतप्रभ हूँ ! सपने में भी किसी के लिए नहीं सोचा ...... जबकि कई लोग मुझसे किसी के लिए कुछ कहते हैं , पर मैं न उनके नाम उछलती हूँ , न उससे किसी से संपर्क ख़त्म करती हूँ . मेरे ब्लॉग से कई बार लिंक मिट जाता है तो मैं जाना भूल जाती हूँ , वरना मैंने आपके गीतों की हमेशा सराहना की . खैर - मुझे पता भी नहीं था कि अपने आप ऐसा भी किसी ने कह दिया . ओह !
      ............
      फिर भी मैं इस आलेख को पढ़ने के बाद भी किसी के लिए बुरा नहीं सोच सकती

  5. रश्मि जी,
    आप ने यह बात मेरे लिए कही हो या न हो मैं उस तीसरे को यहाँ नहीं घसीटना चाहती.
    आप ने स्पष्ट किया कि आप ने ऐसा कुछ नहीं कहा तो मैं भी मान लेती हूँ कि नहीं कहा होगा.
    .....
    ज्ञात हो,कि आप ने उस इमेल का आज तक जवाब नहीं दिया जिस पर मैंने अपनी असहमति जताई थी.

    बल्कि यह तो सच है कि उस दिन के बाद आप ने मेरी किसी भी पोस्ट पर ही आना छोड़ दिया.
    तब से आज तक एक भी बार आप नहीं आईं ,न संवाद किया .

    और आज इस बात को डेढ़ साल से अधिक हो गया है.

    इस प्रतिक्रिया को कोई क्या समझेगा?
    जबकि एकदम इस बात से पहले आप नियमित आती थीं .
    ज्ञात हो,आप की या किसी की उपस्थिति -अनुपस्थिति से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.

    लेकिन जब किसी नियमित पाठक का एकदम आना बंद हो जाये ,वह भी एक घटना विशेष के बाद तो संभावनाएँ सच लगने लगती हैं.
    शेष यहाँ कौन वास्तव में कैसा है कोई नहीं जान सकता,हम उतना जान सकते हैं जितना शब्द और उस का ब्लोगिया आचरण उस के बारे में बताते हैं .
    कौन जाने ,कौन क्या-क्या करता है और किस के विरुद्ध !अब तो इस ब्लॉग की दुनिया के लोगों से भी डर लगने लगा है .


    हालांकि डॉ श्याम गुप्ता जी ने भी दूसरे ब्लाग्स पर जम कर मेरे लेखों की धज्जियां उड़ाई हैं उन्होने कहीं यह भी लिखा है कि,"माथुर साहब आप ये क्या बेपर की उड़ा रहे हैं?" लेकिन उन्होने भी कभी उड़ाने या ठिकाने लगाने की धमकी नहीं दी है। किन्तु रश्मी प्रभा जी ने अपनी बेटी की आई डी से,सोनिया बहुखंडी गौड़ द्वारा  -'खड़ी चेतावनी' एवं महान पत्रकार महेंद्र श्रीवास्तव साहब के जरिये उनके परिचितों द्वारा - 'पूरे परिवार को उड़ा दिया जाएगा' सरीखी धमकियाँ बड़ी शान से दी हैं। जैसा आज समाज मे 'धन' और 'धनिकों' का बोलबाला है उसे देखते हुये इन धमकियों पर अमल किया जाना इन बिगड़ैल धनिकों के लिए बाएँ हाथ का खेल ही होगा। लेकिन उनको यह भी नहीं भूलना चाहिए कि एक मुझे और मेरे परिवार को मिटा देने मात्र से  ही वे पूरी दुनिया के शहनशाह नहीं बनने जा रहे   क्योंकि-

    धनवानों ने निर्धनों की छाती पर हमेशा मूसल चलाये हैं। 
    जागी जब जनता तब बड़े बड़ों के सिंहासन डोलाए हैं। ।

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रविवार, 9 सितंबर 2012

उदारता कितनी ?

1965 -67 मे नवी-दसवी कक्षा मे एक विद्वान के विचार जो पढे थे आज भी कंठस्थ हैं कि,"सभी को उदार होना चाहिए,किन्तु उसके साथ-साथ 'पात्र'की अनुकूलता भी होनी चाहिते। "

तब से ही उस पर व्यावहारिक अमल भी करता रहा हूँ। आचार्य हजारी प्रसाद द्विदी जी के लेख मे इस उद्धरण  "अर्जुनस्य द्वै प्रतिज्ञे-न दैन्यम न पलायनम " के साथ 'न अधैर्यम' अपने लिए जोड़ लिया ।  मैंने इसे जब भी कहा 'अधैर्यम' अपनी तरफ से लगा कर कहा। नाक बंद करके कुछ समय तक पानी मे डूबे रहा जा सकता है परंतु मैं पानी को आँखेँ नहीं डुबाने दे सकता। बस इतना तक ही 'धैर्य' मैं रख सकता हूँ।

'Quick and fast decision,but slow and steady action' मेरा अपने लिए बनाया गया सूत्र है मैंने सदैव इसका पालन किया है और सफल रहा हूँ। जब-जब शत्रु ने ललकारा है मैंने भारी नुकसान सह कर भी 'चुप्पी' रखी है। उपरोक्त सूत्रों पर अमल करते हुये ही मैं शत्रु का जवाब देता या उसका मुक़ाबला करता हूँ। चाहे कोई कितना ही 'मूर्ख' कहे या समझे।

'Decided at once,decided for ever and ever' यह मेरा अपने लिए बनाया गया 'स्थाई सूत्र' है। इसका परित्याग मैं नहीं कर सकता भले ही प्राणों का त्याग करना पड़े तो सदैव उसके लिए तत्पर हूँ। 

विश्व साक्षर्ता दिवस पर 08 सितंबर को  कामरेड चतुर्वेदी जी ने जो  यह कहा वही मेरा प्रिय सिद्धान्त है-

Jagadishwar Chaturvedi
जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो - उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो।(स्वामी विवेकानन्द)

 
 लता मंगेशकर जी का यह गीत आगे की बातों को समझने मे सहायक रहेगा । 
विषधर का सवाल -03-09-2012-
 मै देखता हूं कि यहां बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो वैसे तो क्रांति वांति की बात करते हैं, पर शिष्ट भाषा में दी गई टिप्पणी को भी इसलिए प्रकाशित नहीं करते क्योंकि उन्हें डर होता है कि वो कहीं इस परिवार में कमजोर ना पड़ जाएं। खैर उनकी बात वो जानें.."

जिसका जवाब यह है-

आप हवाई जहाज मे चलने वाले धनाढ्य व्यक्ति हैं सो शक्तिशाली तो हुये ही मैं तो साईकिल पर चलने वाला गरीब मजदूर हूँ 'क्रांति' की बात करता हूँ 'वानती' आप करते हैं। और गरीब तो हमेशा ही कमजोर होता है उसमे मुझे कब संदेह था?
 फेसबुक पर इस पर यह टिप्पणी मिली-
Shyam Kali Comrade garib jis din apni takat pahchan jayega to usase jyada dhani koi nahi hoga.
 03-09-2012 को विषधर का सवाल-
आप बडे हैं और वरिष्ठ हैं। अक्सर आप मेरे ब्लाग को पढ़ते भी है। शायद इससे आपको पता चल जाना चाहिए कि मैं सीधी और सपाट बातें करता हूं और अपेक्षा भी यही करता हूं कि आप भी करेंगे। आप कह रहे हैं कि टिप्पणी डिलीट करने का मौका नहीं मिलेगा और मैं समझ गया कि क्यो ? आपके मन मे क्या है ये मैं कैसे समझ सकता हूं। पता नहीं आप मुझे कितना जानते हैं, लेकिन लखनऊ में भी मुझे बहुत सारे लोग बहुत अच्छी तरह जानते हैं। ये तीन पांच ना मैं करता हूं ना ऐसी बातें.... मैने पलायनवादी वैसे तो आपको नहीं कहा था, लेकिन इतनी ही ईमानदारी थी तो कमेंट क्यों नहीं प्रकाशित किया आपने ..आपने तो यहां सिर्फ मेरे अनुरोध को प्रकाशित किया और उसका जो जवाब आपने दिया है, वो उसी तरह का है जैसा पोस्ट है। मैं जानता हूं कि आप इसे प्रकाशित नहीं करेंगे, लेकिन आप तक मेरी बात पहुंच गई। यही बहुत है.. बाकी तो अपनी बात कहने के लिए सभी के पास एक ब्लाग तो है ना...

विषधर को जवाब-
अच्छा हुआ आपने बता दिया कि यहाँ भी आपके जानने वाले हैं नहीं तो कल की धमकी वाले फोन पर भी 'ठग' जी पर ही शक जाता तो यह आपकी कारगुजारी थी। ठीक है आप कराइए मेरे परिवार की हत्या खाली धम्की क्यों देते हैं।
शायद उदारता हेतु 'पात्रता' का चयन करने मे कहीं न कहीं चूक हो गई होगी तभी तो 'ठग' और उसके 'जासूस' ने मुझसे चार-चार कुंडलियों के विश्लेषण हासिल करने के बाद मेरे प्रोफेशन और योग्यता का बेरहम मखौल उड़ाया तथा पर्ले दर्जे की 'एहसान फरामोशी' पेश की। 05 सितंबर को 'ठग' ने जो दावा किया उस पर फेसबुक मे 07 को मैंने यह कहा-
आखिर मे ठग ने कुबूल ही लिया कि,उसकी पोटली मे विषधर थे। लेकिन अब बाहर निकाल दिया का दावा दिग्भ्रमित करने वाला है क्योंकि 05 सितंबर को उस पोटली मे चेनल वाले और गैर चेनल वाले सभी विषधर नतमस्तक थे।
एवं-
 गांवों की आबो-हवा से वाकिफ लोग जानते हैं कि 'गौ' भी अपनी संतान की रक्षा के लिए 'शेर' तक से भिड़ जाती है और वह संतान रक्षा के उपक्रम मे शेर को मार भी देती है। यदि कोई ईमानदार अपनी संतान रक्षा हेतु 'ढाल'बन कर वार अपने ऊपर झेल लेता है तो हाय-तौबा क्यों?'ठग' ने तो अपने बचाव मे अपनी संतान को ढाल बना लिया है।

मुझे नहीं लगता कि 'ठग पार्टी' समझदारी का परिचय देगी इसी लिए 06 तारीख को ही मैंने fb पर लिख दिया था कि,-
 'रोटी खाई घी -शक्कर से ,दुनिया लूटी मक्कर से। 'का अनुगामी ठग जब चौराहे पर खड़ा होकर शोर मचाये -'हाय लुट गया,पिट गया' और लोग उसके आगे-पीछे उसके रुदन मे रुदन मिलाने लगें तब यही समझना पड़ेगा कि इन सब की बुद्धि मस्तिष्क मे नहीं पैर के तलवे मे निवास करती है।

लेकिन इससे पूर्व यह भी घोषणा कर चुका था - ( 04 तारीख को fb मे लिखना पड़ा)-
 बेंगलोर के एक इंजीनियर साहब की मांग पर 'जनहित मे' नामक ब्लाग प्रारम्भ किया गया था और उसमे जन-कल्याण हेतु प्राचीन स्तुतियाँ दी जा रही थी। एक बार अन्ना/रामदेव आंदोलन के पीछे ब्लागर्स/फेसबुकियों के भागने के कारण उसे स्थगित किया था जिसे पुनः ब्लागर्स की मांग पर ही चालू कर दिया था। किन्तु विदेश प्रवासी एहसान फरामोश फेसबुकिए और पूना प्रवासी और उसके जासूस ब्लागर्स द्वारा कुत्सित एवं वीभत्स कृत्यों तथा दुष्प्रचार किए जाने के कारण इन्टरनेट पर उस ब्लाग को प्रतिबंधित कर दिया है। अभी तो प्रवासी फेसबुकिए की निंदा करने के उपरांत तीन ब्लागर्स को जन्म्पत्रियों के विश्लेषण भेज दिये थे। लेकिन अब एहसान फरामोश निकृष्ट ब्लागर्स की धृष्ट हरकतों के कारण किसी भी ब्लागर/फेसबुकिए को कोई ज्योतिषीय परामर्श नहीं दिया जाएगा ।

इस पर टिप्पणी देखें-

 Arvind Vidrohi Muft me kuch mat dijiye ,, jankari lekar swarthi log mazak udaate hai

जासूस ने मुझसे 'ठग' की बुराई और ठग से मेरी बुराई बड़ी बहदुरी से की और इसी लपेटे मे खुद अपने पति पर भी इल्ज़ाम जड़ दिया। जबकि मैं उनसे मिला हूँ और उनको फेयर पाया ।
3 · ·


'ठग' और उसके 'जासूस' ने एहसान फरामोशी के उपरांत यह स्टैंड लिया कि उन लोगों की बातों को सार्वजनिक न किया जाये और इसी बात की धमकी IBN7 मे कार्यरत 'विषधर' ने दी थी। 'अरविंद' जी ने शुद्ध सौ प्रतिशत सही बात कही है उससे इंकार करना घोर बेईमानी होगा।

मेरे लेख ' पिताजी की पुण्य तिथि पर एक स्मरण ' पर गत वर्ष यह टिप्पणी विराजमान है-
बहुत सुंदर.. क्या बात है

और अब यही साहब पूछते हैं-
"पता नहीं आप मुझे कितना जानते हैं, लेकिन लखनऊ में भी मुझे बहुत सारे लोग बहुत अच्छी तरह जानते हैं।"
पुण्य तिथि पर दी गई टिप्पणी मे दिये गए विचार इनके सम्पूर्ण चरित्र,स्वभाव,कार्यशैली,मनोदशा,पारिवारिक संस्कार,सामाजिक सोहबत,दूसरों को बेवकूफ समझने की पृवृति आदि का खुलासा करने के लिए पर्याप्त हैं। टिप्पणियाँ डिलीट करने मे माहिर यह साहब अब यदि डिलीट भी करते हैं तो वह यहाँ भी सुरक्षित कर ली है। 

 
"समझो , मानो -
वह दुश्मन होकर भी दुश्मन नहीं
क्योंकि तुम्हारी पोटली को फाड़ने के उपक्रम में
उसने तुम्हारी पोटली से
कई विषैलों को बेनकाब कर
बाहर कर दिया"

पता नहीं ब्लाग का निजीकरण करने की परिपाटी डालने वाले चेनल अधिकारी या जासूस अभी बेनकाब होकर बाहर हुए या नहीं। परंतु यदि यह 'दुश्मन' का खिताब मुझे दिया गया है तो इसी एहसान को मानते हुये कम से कम अब तो मेरे व मेरे पुत्र के विरुद्ध अभियान नहीं चलना चाहिए था परंतु जब 'एहसान फरामोशी'आदत है तब?

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गुरुवार, 6 सितंबर 2012

कलम और कुदाल मे-"अतीत के झरोखे से"

Monday, 3 September 2012

अतीत के झरोखे से

12 वर्ष का एक 'युग' माना जाता है। यदि हम वर्ष 2000 की बात करें जब सरला बाग,दयाल बाग ,आगरा मे हमारा ज्योतिष कार्यालय था। चारों तरफ समृद्ध लोगों की आबादी थी। राधास्वामी ज़्यादा थे। घोषित रूप से उनके मत मे ज्योतिष का विरोध किया जाता है। लेकिन सभी एक दूसरे से छिपाते हुये हमारे पास अपनी -अपनी समस्याओं के समाधान के लिए आते थे। उन सबमे एक समानता थी कि वे सभी निर्धारित शुल्क से कम देते थे। एक दिन शाम को एक साधारण व्यक्ति पहले कार्यालय से आगे निकल गया था फिर लौट कर पीछे आया और अपने बीमार बेटे के बारे मे ज्योतिषीय जानकारी ली। उसके पास जन्मपत्री न थी अतः प्रश्न कुंडली से काम चलाना पड़ा। उपाय जो बताए उसने सहर्ष अपनाना कुबूला और शुल्क की बाबत पूछा जो बताया उसने चुप-चाप दे दिया। वह आगे बढ़ गया था मुझे लगा शायद इसकी हैसियत न हो फिर भी पूरा शुल्क दे गया और समृद्ध लोग कन्सेशन मांगते हैं,इसका बच्चा बीमार है और यह आगरा अस्पताल से दवा लेने जा रहा है । मैंने उसे आवाज़ देकर बुलाया और वापिस रुपए देकर कहा आप इनको रखें आपको अभी ज़रूरत है। वह व्यक्ति पूछने पर मजदूर हूँ -बोला। लेकिन स्वाभिमानी था वापिस रुपए लेने को राज़ी न था। मैंने समझाया आप पूरी फीस दे चुके और मैं ले चुका हूँ। अब अपनी तरफ से उस बच्चे के लिए दे रहा हूँ आपको नहीं। तब भी उसने मुझे पाँच रुपए सौंपते हुये कहा कि शुगन के रख लीजिये। उसकी बात रखनी पड़ी। आज जब धनाढ्य इन्टरनेट साथियों को ज्योतिषीय समाधान  निशुल्क जान लेने के बाद मुझको अनाड़ी ,अपरिपक्व,की उपाधी देते देखता हूँ और उनके द्वारा अपना चरित्र हनन पढ़ता हूँ तो अनायास वह गरीब मजदूर आँखों के सामने घूम जाता है।

अबसे 20 वर्ष पीछे लौट कर देखते हैं तो एक पंडित जी जो शक्तिशाली राजनेता थे का ज़िक्र करना मुनासिब लगता है। पंडित जी को एक दूसरे पंडित नेता जी ब्लैक मेल कर रहे थे किन्तु दूसरे पर पहले का अगाध विश्वास था। वह उनके विरुद्ध कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते थे। समझाने पर उनको लगता था कि उनके खिलाफ साजिश हो रही है। आगरा शहर से 80 किलोमीटर दक्षिण -पूर्व स्थित बाह नमक कस्बे मे उन्होने ज़िला स्तरीय चुनाव रखे थे। उनके घरेलू मित्रों ने मुझसे अनुरोध किया कि पंडित जी के परिवार को बचाओ दूसरा पंडित उनका घर-परिवार,कारख़ाना और राजनीति सब हथिया लेना चाहता है। खैर दिमाग और मेहनत खर्च करके पिछड़ा वर्ग के एक पहलवान साहब को उनके विरुद्ध चुनाव लड़ने को राज़ी किया। ठीक दो दिन पहले पहलवान साहब मैदान छोड़ गए। पंडित जी के पारिवारिक हितैषी कब मानने वाले थे। उनके एक समय के बिजनेस सहयोगी रहे दलित वर्ग के विश्वस्त को अंडर ग्राउंड राज़ी कर लिया और मुझसे उनका समर्थन करने को कहा जबकि व्यक्तिगत रूप से मैं उनसे घनिष्ठ नहीं था। पंडित जी ने चुनाव से ठीक एक दिन पूर्व मेरे विश्वस्त के माध्यम से अपने घर बुलवाया और कहा कल आपकी बुरी तरह से हार होने वाली है। मैंने जवाब दिया यदि मैं हारता हूँ तो मुझे खुशी होगी और आप हारे तो मुझे पीड़ा होगी। वह बोले आप दिन रात मेरे खिलाफ प्रचार कर रहे हैं साईकिल से 16-16 किलोमीटर गावों मे चल कर जाते हैं और हार जाने पर खुश होंगे फिर इतनी कसरत क्यों की। मैंने कहा इसलिए कि आपकी एक रेपुटेशन है ,इमेज है आपके हारने पर उस पर धक्का लगेगा। मेरे हारने पर मेरी कौन सी इमेज है जो टूटेगी। उनका प्रस्ताव था तब निर्विरोध चुनाव होने दो मैंने कहा तब आप जीत कर भी हारेंगे क्योंकि आपका बेहद नुकसान हो जाएगा और आप हारते हैं तो आपका सब कुछ सुरक्षित रह जाएगा। पंडित जी बोले हमे यह गणित न समझाओ। मैंने कहा आप लोग दीवार तक देखते हैं मैं दीवार के पार देखता हूँ और चला आया था।
अगले दिन वातावरण देख कर पंडित जी ने खुद की जगह दूसरे अपने साथी का नाम प्रस्तावित कर दिया जिसे उन्होने वापिस ले लिया। इस प्रकार दलित वर्ग के प्रतिनिधि निर्विरोध चुन गए। कुछ कारणों से मैं बाद मे दूसरी पार्टी मे चला गया और फिर 10 वर्ष बाद घर बैठ गया । पंडित जी को पता चला मेरे घर आए और बोले एक राजनीति का खिलाड़ी घर बैठा अच्छा नहीं लगता है आप वापिस लौट आईए। आप ही तब सही थे मैं गलत था वह पंडित जी पार्टी से हट गए हैं धोखा दे रहे थे। नौ वर्ष उनको कुर्सी से दूर रहना पड़ गया था ।  आपने सही कहा था कि आप दीवार के पार देखते हैं। और पंडित जी पुनः अपने साथ पुरानी पार्टी मे अपना सहयोगी बना कर ले आए।

1 comment:

सच अतीत से हमें बहुत बड़ा सबक मिलता है ..
 बहुत बढ़िया प्रस्तुति

  05-09-2012 को टिप्पणी
Arvind Vidrohi Muft me kuch mat dijiye ,, jankari lekar swarthi log mazak udaate hai
7 hours ago ·

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बुधवार, 5 सितंबर 2012

स्मृति पटल पर शिक्षक (भाग-2 )

बाजपेयी जी


आज शिक्षक दिवस पर सबसे पहले 'विश्वनाथ जूनियर हाईस्कूल ',तलउआ,बहादुरगंज,शाहजहाँपुर के अपने सेकेंड हेड मास्टर साहब-अचल बिहारी बाजपेयी जी का ज़िक्र करना चाहूँगा। 1962 मे चीन के आक्रमण के वक्त बाबूजी ट्रांसफर पर सिलीगुड़ी मे थे और हम लोग नाना जी के पास। नवंबर मे दाखिला किसी स्कूल मे नहीं मिला तो नानाजी अपने पुराने परिचित इस स्कूल स्थापक के छोटे भाई से मिले जिनके कारण दाखिला हो गया था। 6ठा क्लास आधा रूक्स हायर सेकेन्डरी स्कूल ,बरेली से और फाइनल यहाँ से किया था। सेकेंड हेड मास्टर बाजपेयी जी हिन्दी पढ़ाते थे। कभी-कभी कवितायें सबको याद है अथवा नहीं चेक करने हेतु क्लास मे अंताक्षरी करा देते थे। जिस तरफ मेरी सीट मुकर्रर थी उधर और भी कई लड़के याद रखते थे। अतः अंताक्षरी हेतु उस पीरियड मे बाजपेयी जी संतुलन बनाने हेतु मुझे दूसरे पक्ष मे बैठा देते थे। एक बार अकेले मेरे ही  दम पर वह हारने वाला पक्ष मेरे अपने असली पक्ष से जीत गया था। तब से स्कूल छोडने तक बाजपेयी जी मुझे विशेष महत्व देते रहे। बिलकुल नया होने के बावजूद उन्होने गवर्नमेंट स्कूल मे होने वाले ज़िला वाद-विवाद प्रतियोगिता मे 'पक्ष' मे बोलने हेतु मेरा चयन किया । मुझे तथा विपक्ष मे बोलने वाले को रिक्शा पर लेकर गए थे। 5 मिनट की जगह मैं ढाई मिनट मे बोल गया। लौटते मे वह बोले कोई बात नहीं अगली बार फिर तुमसे ही बुलवाएंगे। और सच मे 1963- 64 की ज़िला वाद-विवाद प्रतियोगिता मे उन्होने मुझे ही पक्ष मे बुलवाया। इस बार मैं साढ़े चार मिनट मे बोल गया। बोल कर सीट पर आते वक्त उन्होने मुझसे धीरे से कहा 'शाबाश' और जब परिणाम घोषित हुआ तो मुझे 'कामायनी' प्रथम पुरस्कार के रूप मे प्राप्त हुई शील्ड एक माह मेरे घर रह कर स्कूल मे रही।
यह तो बाजपेयी जी का वायदा निभाने की बात थी। नहीं तो किसी और छात्र को भी मौका दे सकते थे। उससे भी बड़ी एक और बात उनकी है कि वह अक्सर अचानक 'टेस्ट' लिया करते थे और 7 वी कक्षा मे एक ऐसे ही अचानक के टेस्ट मे 'संस्कृत' मे मुझे कोई अंक नहीं मिला। उन्होने मुझसे कहा तुम्हारे नाना जी से शिकायत करेंगे। नाना जी बाज़ार वगैरह मे हमारे स्कूल के अध्यापकों को देख कर उनको नमस्ते करने के अलावा हम दोनों भाइयों की रिपोर्ट भी पूछते थे कि, कैसा पढ़ रहे हैं?आचरण कैसा है?उसके बाद मिलने पर बाजपेयी जी ने नाना जी से कहा ज़रा 'संस्कृत' पर ज़ोर दीजिये बाकी सब मे यह ठीक है। नाना जी ने उनसे कहा मास्टर साहब हम तो उर्दू,फारसी,अङ्ग्रेज़ी ही पढे हैं कृपया आप ही ध्यान दे लीजिये। आज का युग होता तो वह कहते 'ट्यूशन' लगवाइए। लेकिन उन्होने क्लास मे मुझ पर शिकंजा कस लिया और इस तुर्रे के साथ कि तुम्हारे नाना जी ने हमे अधिकार दे दिया है। यदि उनका दिया टास्क उनके पीरियड मे मैं पूरा जब नहीं कर पाता था तो वह मुझे किताब-कापी समेत अपने दूसरे क्लास मे ले चलते थे और मेरा अगला विषय छूट जाता था। फिर उन्होने ही कुछ सूत्र दिये जिनके बल पर मैं संस्कृत समझ सका और आज बिना संस्कृत पढे ही आज प्रोफेशन मे  'स्तुति' पाठ आराम से कर लेता हूँ।

1964 मे हम लोग भी बाबूजी के पास सिलीगुड़ी आ गए थे। वहाँ 'कृष्ण माया मेमोरियल हाई स्कूल ',आश्रम पाड़ा मे हमने मिड सेशन मे दाखिला लिया था। सभी अध्यापक बहुत अच्छे थे हेड मास्टर साहब अदिवतीय। 
डाक्टर के.एन.ओझा--हमारे हेड मास्टर साः भी द्वितीय विश्व युद्ध में सेना में रहे थे-वारेंट औफिसर के रूप में.उन्होंने बताया था उनके बैच में २० लोग भर्ती हुए थे १९ मारे गए.वह आगरा में C O D में तैनात रहे इसीलिए बच गए थे.निराला की ''वर दे वीणा वादिनी वर दे'' कड़क आवाज़ में सस्वर पाठ उनके ओज को दर्शाता था.पहले दिन कोई छात्र उनकी कसौटी पर खरा नहीं उतरा.दुसरे दिन मेरे साथ एक अन्य को उन्होंने पास किया.तीसरे दिन 3 को.६० छात्रों के बीच सिर्फ हम ५ छात्र ही निराला की कविता के लिए उपयुक्त पाए गये.डाक्टर ओझा ने कई पुस्तकें भी लिखीं थी;जब हम लोगों के स्कूल में लाइब्रेरी का प्रबंध हो गया तो उन्होंने कुछ पुस्तकें भेंट कर दीं.

1967 मे हम लोग एक बार फिर शाहजहाँपुर मे पढे थे ,विलंब से आने के कारण दाखिले मे फिर दिक्कत थी । गांधी फैजाम कालेज के प्राचार्य चौधरी वसी मोहम्मद साहब ने इंटर फर्स्ट ईयर मे मेरे मन मुताबिक विषयों मे दाखिला दे दिया । यहाँ सभी अध्यापक बहुत अच्छे थे सिर्फ कुछ की चर्चा कर रहा हूँ। 
  हमारे जी .ऍफ़ .कालेज में बी .ए .के साथ इंटर की पढ़ाई उस समय होती थी (अब वह केवल डिग्री कालेज है और इंटर सेक्शन इस्लामिया कालेज में चला गया है ).उ .प्र .में चौ .चरण सिंह की संविद सरकार ने अंगरेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया था .लखनऊ से भुआ ने मुझे पत्र लिखा था कि ,"यह सरकार बच्चों को कुबड़डा बनाने पर तुली है ,तुम अंगरेजी जरूर लेना ".मै अंगरेजी में कमजोर था और नहीं लेना चाहता था .तब तक कालेज में सर्कुलर का इन्तजार था ,मैंने किताब नहीं खरीदी थी .किताब की शाहजहांपुर में किल्लत भी थी .प्रो .मोहिनी मोहन सक्सेना ने बरेली से मगाने  का प्रबंध किया था  ;समय बीतने के बाद उन्होंने सब की किताबें चेक करने को कहा था .मैंने उन्ही के रिश्तेदार जो वहां टी .ओ .थे के पुत्र जो मेरे क्लास में था से पुस्तक लेकर सारी रात टेबल लैम्प जला कर कापी में नक़ल उतार ली और अगले दिन कालेज ले गया .जब प्रो .सक्सेना ने मुझ से किताब दिखाने को कहा तो मैंने वही नक़ल दिखा दी .बोले ऐसा क्यों ?मैंने  जवाब दिया चूंकि मुझे अंग्रेजी छोड़ना है ,इसलिए किताब नहीं खरीदी -आपको दिखाना था इसलिए गिरिधर गोपाल की किताब से नक़ल बना ली है .प्रो .साहब इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि जब तुमने अग्रेजी के लिए इतनी मेहनत की है तो मेरी ख़ुशी के लिए तुम अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल के रूप में जरूर लेना ,जिस से मेरा -तुम्हारा संपर्क बना रहे .इस प्रकार मैंने अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल ले लिया .प्रो . सक्सेना बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ,उनसे क्लास में संपर्क बनाये रखने में ख़ुशी ही हुई .

अंगरेजी के एक चैप्टर में पढ़ाते हुए प्रो . सक्सेना ने बड़े मार्मिक ढंग से कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के लेख को समझाया जिसमे उन्होंने (तब वह भारत के शिक्क्षा मंत्र्री थे )ब्रिटिश कौसिल इन इंडिया का उद्घाटन करते हुए कहा था ---यहाँ मै एक साहित्यकार की हैसियत से आया हूँ ,एक राजनीतिग्य की हैसियत से नहीं क्योंकि यदि एक

राजनीतिग्य कहता है ---हाँ तो समझो शायद ,और यदि वह कहे शायद तो समझो नहीं और नहीं तो वह कहता ही नहीं .


हमारे इतिहास के प्रो .माशूक अली साहब नगर पालिका के चेयरमैन रहे छोटे खां सा .के परिवार से थे .उनका लकड़ी का व्यवसाय था वह तब केवल -रिक्शा और कालेज में खाए पान का खर्च मात्र १५० रु .आन्रेरियम लेते थे .हमारे नानाजी के एक भाई स्व .हरीश चन्द्र माथुर के वह सहपाठी रहे थे .जब उन्हें यह बताया तो बहुत खुश हुए और यदा -कदा मुझसे कहते थे अपने नानाजी को मेरा सलाम कह देना .इसी प्रकार बम्बई वाले नानाजी (नानाजी के वह भाई बम्बई में सर्विस काल में रहे थे)भी प्रो .सा .को अपना आदाब कहलाते थे .

 नागरिक -शास्त्र के प्रो .आर .के .इस्लाम सा .तथा अर्थ शास्त्र के प्रो .सा .(नाम अब याद नहीं है )भी अच्छा पढ़ाते थे ,इन दोनों का चयन अलीगढ मुस्लिम यूंनिवर्सिटी  में हो गया था .

इस्लाम सा .ने सर सैय्यद अहमद खां के बारे में बताते हुए उनके पुत्र सैय्यद महमूद जो बड़े वकील थे ,कभी केस हारे नहीं थे का उल्लेख किया था जो बहुत दिलचस्प है .:- पंजाब के किसी राज -परिवार के सदस्य को फांसी की सजा हो गयी थी उसे बचाने के लिए उन्हें महमूद सा . का नाम सुझाया गया था .जब वे लोग उनके पास पहुंचे तब उनके पीने का दौर चल रहा था और ऐसे में वह किसी से मिलते नहीं थे .बड़ी अनुनय -विनय करने पर उन्होंने सिख राज-परिवार के लोगों को बुलाया तथा काफी फटकार लगाई कि अब उनके पास क्यों आये ,अपने वकील से जाकर लड़ें जो अपील भी हार गया ,अब तो फांसी लगने दो .बड़ी खुशामद किये जाने पर उन्होंने कहा उनका कहा सब मानना होगा ,किसी के बहकावे में नहीं आना होगा .जब उनकी सभी शर्तें मान ली गयीं तब उन्होंने जिन्दगी बचाने की गारंटी दी और कोई अपील या केस नहीं किया .


फांसी का दिन आ गया ,घबराए परिवारीजनो से उन्होंने जेल पहुचने को कहा .खुद एन वक्त पर पहुंचे .फांसी का फंदा भी पड़ गया ,रोते लोगों को उन्होंने कहा उसे कुछ नहीं होगा ,इतने में  फंदा खींचने का हुक्म हो गया .फंदा खींच दिया गया उसी क्षण महमूद सा .ने तेज गुप्ती से फांसी का रस्सा काट दिया ,रस्सा गले में पड़ा -२ वह मुलजिम गढ़े में जिन्दा गिर गया .उसे उठाया गया लेकिन महमूद सा . ने कहा एक बार "हैंग "हो चुका दोबारा हैंग नहीं किया जा सकता .महमूद सा . के खिलाफ सरकारी काम में बाधा डालने का मुकदमा चला जिसे वह जीत गए उन्होंने सिद्ध किया कि वकील के नाते उनका काम मवक्किल को बचाना था उन्होंने बचा लिया .सरकारी काम में बाधा नहीं डाली क्योकि फांसी का फदा बाकायदा खींचा गया था .उन्होंने जजमेंट में खामी बताई कि टिळ डेथ नहीं लिखा था इसलिए दोबारा फांसी पर नहीं चढ़ाया जा सकता .वह यह मुकदमा भी जीते.लेकिन उसके बाद से फैसलों में लिखा जाने लगा -"हेंग टिळ डेथ ".इस वाकये ने न्याय  प्रणाली को बदल दिया था जो कि महमूद सा . के दिमाग का खेल था .

मैंने इस श्रंखला मे जिन शिक्षकों का उल्लेख किया है वे सभी कोर्स से हट कर काफी ज्ञानवर्द्धक बातें बताया करते थे जो आज तक व्यावहारिक जीवन मे काम आ रही हैं और उनके बल पर एक से बढ़ कर एक दिग्गजों के हमलों को मैं ध्वस्त करने मे सफल हो जाता हूँ।  



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मंगलवार, 4 सितंबर 2012

स्मृति पटल पर शिक्षक (भाग -1 )


 बरेली के द्रोणाचार्य की करामात 


कल 05 सितंबर को द्वितीय राष्ट्रपति सर्व पल्ली डॉ राधा कृष्णन का जन्म दिवस 'शिक्षक दिवस' के रूप मे मनाया जाएगा। 1962 से यह परंपरा जो नेहरू जी ने शुरू की थी निभाई जा रही है। आज 50 वर्ष बाद भी एक ऐसी घटना ज्यों की त्यों याद है जो शायद कभी भी भूलेगी नहीं। पहले उसी का ज़िक्र करते हैं।
मैं छठी कक्षा मे 'रूक्स हायर सेकेन्डरी स्कूल'(जो अब रवीन्द्र नाथ टैगोर इंटर कालेज है),बरेली मे था और छोटा भाई 'रूक्स प्राइमरी स्कूल' मे। दोनों स्कूल लगभग आधा किलोमीटर दूर थे। हमारे स्कूल मे यह अफवाह पहुंची कि हेड मास्टर साहब ने एक लड़के को मुर्गा बनाया और खूब पीटा वह मर गया। लगभग आधा स्कूल प्राइमरी स्कूल की ओर दौड़ पड़ा ,बीच रास्ते मे घर होने के बावजूद मैं भी सबके साथ ही सीधे चला गया। तब तक स्कूल बंद हो चुका था। सन्नाटा था अतः लौटते मे घर पर होते हुये गया भाई सुरक्षित घर पर मौजूद था।
स्कूल के हेड मास्टर ईशरत अली साहब कुछ मरखने थे ,जब मैं वहाँ 5 वी मे था तो वह हमे हिन्दी पढ़ाते थे। मैं तो रट्टू था लेकिन जो लोग पिछला पाठ याद न रख पाते थे उनकी दोनों हथेलियों पर वह हरी टहनी से वार करते थे। उस घटना क्रम मे किसी लड़के से वह इतना क्रुद्ध हुये थे कि उसे स्कूल गेट के बाहर कान पकड़ कर मुर्गा बनवा कर उसकी पीठ पर काफी इंटे रखवा दिये थे और छड़ी से पीटते रहे थे। उस लड़के के नाक-कान,गले से खून आने लगा और बेहोश हो गया। तब सेकेंड हेड मास्टर रमज़ान अहमद  साहब ने उस लड़के को दूसरे शिक्षकों के जरिये कैंट अस्पताल भिजवा कर हेड मास्टर साहब को लात  -घूंसो से पीटते हुये स्कूल के बाहर खदेड़ दिया उससे पहले स्कूल की छुट्टी का घंटा बजवा दिया था। हेड मास्टर साहब को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और केंटोमेंट बोर्ड ने तत्काल सस्पेंड कर दिया। तत्काल प्रभाव से उस स्कूल मे अवस्थी साहब को हेड मास्टर के रूप मे स्थानांतरित कर दिया और उनके स्थान पर उस स्कूल मे रमज़ान अहमद साहब को प्रोमोशन देकर हेड मास्टर बना दिया। बहुत बाद मे ईशरत अली साहब को डिमोट करके तीसरे स्कूल मे सेकेंड हेड मास्टर बना दिया गया।

आज भी शिक्षकों/शिक्षिकाओं द्वारा विद्यार्थियों के शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं। इसका कारण शिक्षक समुदाय द्वारा 'द्रोणाचार्य' को अपना आदर्श मानना हो सकता है। कुछ लोग खुद को 'द्रोणाचार्य' कहलवाने मे गर्व की अनुभूति करते हैं। हमारे देश को 'द्रोणाचार्य' सरीखे गुरुओं से मुक्त रखने की परमावश्यकता है।

डॉ एल ए खान साहब का निर्णय

19 वर्ष बाद जब मैं मेरठ कालेज,मेरठ मे बी ए थर्ड सेमेस्टर का छात्र था तो भाषण गोष्ठियों   मे भाग लेने के कारण सभी शिक्षकों की नज़रों मे था। ज़्यादातर मे दिक्कत नहीं थी परंतु बांग्ला देश को समर्थन के मुद्दे पर हुई गोष्ठी मे मेरे भाषण से समस्त छात्र और समस्त शिक्षक असहमत थे केवल डॉ एल ए खान साहब ने मेरी सराहना की थी। उसकी रिपोर्ट यह है-

समाज-शास्त्र परिषद् की तरफ से बंगलादेश आन्दोलन पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था.उसमें समस्त छात्रों व शिक्षकों ने बंगलादेश की निर्वासित सरकार को मान्यता देने की मांग का समर्थन किया.सिर्फ एकमात्र वक्ता मैं ही था जिसने बंगलादेश की उस सरकार को मान्यता देने का विरोध किया था और उद्धरण डा.लोहिया की पुस्तक "इतिहास-चक्र "से लिए थे (यह पुस्तक एक गोष्ठी में द्वितीय पुरूस्कार क़े रूप में प्राप्त हुई थी ).मैंने कहा था कि,बंगलादेश हमारे लिए बफर स्टेट नहीं हो सकता और बाद में जिस प्रकार कुछ समय को छोड़ कर बंगलादेश की सरकारों ने हमारे देश क़े साथ व्यवहार किया मैं समझता हूँ कि,मैं गलत नहीं था.परन्तु मेरे बाद क़े सभी वक्ताओं चाहे छात्र थे या शिक्षक मेरे भाषण को उद्धृत करके मेरे विरुद्ध आलोचनात्मक बोले.विभागाध्यक्ष डा.आर .एस.यादव (मेरे भाषण क़े बीच में हाल में प्रविष्ट हुए थे) ने आधा भाषण मेरे वक्तव्य क़े विरुद्ध ही दिया.तत्कालीन छात्र नेता आर.एस.यादव भी दोबारा भाषण देकर मेरे विरुद्ध बोलना चाहते थे पर उन्हें दोबारा अनुमति नहीं मिली थी.गोष्ठी क़े सभापति कामर्स क़े H .O .D .डा.एल .ए.खान ने अपने  भाषण मेरी सराहना करते हुये कहा था 
हम उस छात्र से सहमत हों या असहमत लेकिन मैं उसके साहस की सराहना करता हूँ कि,यह जानते हुये भी सारा माहौल बंगलादेश क़े पक्ष में है ,उसने विपक्ष में बोलने का फैसला किया और उन्होंने मुझसे इस साहस को बनाये रखने की उम्मीद भी ज़ाहिर की थी.

मेरे लिए फख्र की बात थी की सिर्फ मुझे ही अध्यक्षीय भाषण में स्थान मिला था किसी अन्य वक्ता को नहीं.इस गोष्ठी क़े बाद राजेन्द्र सिंह जी ने एक बार जब सतपाल मलिक जी कालेज आये थे मेरी बात उनसे कही तो मलिक जी ने मुझसे कहा कि,वैसे तो तुमने जो कहा था -वह सही नहीं है,लेकिन अपनी बात ज़ोरदार ढंग से रखी ,उसकी उन्हें खुशी है.

प्रो आर के भाटिया और प्रो कैलाश चंद्र गुप्ता 
 मेरठ कालेज मे राजनीति शास्त्र के एक प्रो. एस एस मित्तल साहब  कम्युनिस्ट  थे, एक बार उन्होंने" गांधीवाद और साम्यवाद " विषय पर अपने विचार व्यक्त किये थे.उनके भाषण क़े बाद मैंने भी बोलने की इच्छा व्यक्त की ,मुझे ५ मि.बोलने की अनुमति मिल गई थी किन्तु राजेन्द्र सिंह यादव छात्र -नेता ने भी अपना नाम पेश कर दिया तो राज शास्त्र परिषद के इंचार्ज  प्रो.गुप्ता ने कहा कि फिर सभी छात्रों  हेतु अलग से एक गोष्ठी रखेंगे.१० अप्रैल १९७१ से हमारे फोर्थ सेमेस्टर की परीक्षाएं थीं,इसलिए मैंने नाम नहीं दिया था.प्रो.आर.क़े.भाटिया ने अपनी ओर से मेरा नाम गोष्ठी क़े लिये शामिल कर लिया था,वह मुझे ४ ता.को मिल पाये एवं गोष्ठी ६ को थी.अतः मैंने उनसे भाग लेने में असमर्थता व्यक्त की.वह बोले कि,वह कालेज छोड़ रहे हैं इसलिए मैं उनके सामने इस गोष्ठी में ज़रूर भाग लूं.वस्तुतः उनका आई.ए.एस.में सिलेक्शन हो गया था.वह काफी कुशाग्र थे.लखनऊ विश्विद्यालय में प्रथम आने पर उन्हें मेरठ-कालेज में प्रवक्ता पद स्वतः प्राप्त हो गया था.उनकी इज्ज़त की खातिर मैंने लस्टम-पस्टम तैयारी की.विषय था "भारत में साम्यवाद की संभावनाएं"और यह प्रो. गुप्ता क़े वायदे अनुसार हो रही गोष्ठी थी. अध्यक्षता प्राचार्य डा. परमात्मा शरण सा :को करनी थी. वह कांग्रेस (ओ )में सक्रिय थे उस दिन उसी समय उसकी भी बैठक लग गई.अतः वह वहां चले गये,अध्यक्षता की-प्रो. मित्तल ने.मैंने विपक्ष में तैयारी की थीऔर उसी अनुसार बोला भी.मेरा पहला वाक्य था-आज साम्यवाद की काली- काली घटायें छाई हुई हैं.मेरा मुंह तो आडियेंस की तरफ था लेकिन साथियों ने बताया कि,प्रो. मित्तल काफी गुस्से में भर गये थे. मुझे  चार पुस्तकें  इसी गोष्ठी में द्वितीय  पुरूस्कार क़े रूप में प्राप्त हुई थीं.प्रथम पुरस्कार प्रमोद सिंह चौहान को "दास कैपिटल"मिली थी.वह मेरे ही सेक्शन में थाऔर मैंने भी यूनियन में एम.पी. हेतु अपना वोट उसे ही दिया था.बाद में प्रो. भाटिया ने बताया था कि,उन्होंने तथा प्रो. गुप्ता ने मुझे ९-९ अंक दिये थे,प्रो. मित्तल ने शून्य दिया अन्यथा प्रथम पुरुस्कार मुझे मिल जाता क्योंकि प्रमोद को प्रो. भाटिया तथा प्रो. गुप्ता ने ५-५ अंक व प्रो. मित्तल ने पूरे क़े पूरे १० अंक दिये थे.
 प्रो.कैलाश चन्द्र गुप्ता द्वारा वर्णन की एक बात का ज़िक्र किये बगैर वृतांत समाप्त नहीं किया जा सकता.वह स्वंय बनिक समाज क़े होते हुए भी बनियों की मनोदशा पर बहुधा एक कहानी दोहरा देते थे.उन्होंने सुनाया था कि,एक गाँव में एक बनिए ने शौकिया मूंछें रख लीं थीं जो उसी गाँव क़े एक ठाकुर सा :को नागवार लगा.ठाकुर सा :ने बनिए को धमकाया तो वह नहीं माना;फिर उन्होंने बनिए को दस रु.का नोट देकर मूंछें नीची रखने को कहा तो बनिए ने अगले दिन से ऐसा करने का वायदा कर दिया. ठाकुर सा :प्रसन्न होकर चले गये.बनिया रोज एक तरफ की मूंछ नीची और एक तरफ की ऊँची रखने लगा. जब एक रोज दोबारा ठाकुर सा :उधार से गुजरे तो बनिए की एक मूंछ ऊँची देख कर भड़क गये.बोले तुम्हें दस रु. किस बात क़े दिये थे?बनिए ने सहज जवाब दिया सा :इतने में सिर्फ एक ओर की मूंछें नीची की जा सकतीं थीं सो वह मैं कर रहा हूँ.ठाकुर सा :ने तुरन्त एक और दस का नोट देकर कहा अब से दोनों मूंछें नीची रखना. बनिए ने फिर दोनों तरफ की मूंछें नीची कर लीं. प्रो. गुप्ता यह कहानी सुना कर जोरदार ठहाका लगते थे.




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