शनिवार, 24 नवंबर 2012

श्रद्धांजली उसे जो 12 घंटे ही जीवित रहा








आज तीस वर्षों मे पहली बार उसे श्रद्धांजली देने हेतु 07 विशेष आहुतियों से हवन किया। मेरी श्रीमती जी (पूनम) का कहना था कि जब हम परिवार के निकटतम दिवंगत सदस्यों यथा-बाबूजी,बउआ,शालिनी हेतु हवन करते हैं तो हमे उस अनाम संतान हेतु भी हवन करना ही चाहिए।  क्योंकि चाहे वह  12 घंटे ही जीवित रहा हो, था तो परिवार-खानदान का ही सदस्य। बात ठीक थी तो हमने 24 नवंबर 1982 की प्रातः 04 बजे जन्मे और उसी साँय 04 बजे दिवंगत बड़े पुत्र को पहली बार इस प्रकार स्मरण किया।

वह आत्मा जिसका संबंध हमसे रहा है अब चाहे जहां हो जिस अवस्था मे हो उसकी शांति व सद्गति हेतु हवन द्वारा दी आहूतियाँ तत्काल उस तक हमारी श्रद्धा को वायु के माध्यम से पहुंचा देती हैं।

उसके जन्म से पूर्व हमारी बउआ ने शालिनी की इच्छा के अनुरूप उनको उनकी माँ के पास टूंडला भेज दिया था। 24 नवंबर 1982 को प्रातः सात बजे उसके नानाजी आगरा आए और उसके जन्म तथा अस्वस्थता की सूचना दी। तत्काल उनके साथ बउआ व मैं टूंडला गए वहाँ के प्रसिद्ध चाईल्ड स्पेशलिस्ट को दिखाया। उन्होने चिंता न होने की बात कही थी। तीन बजे तक हम लोग वहाँ थे फिर आगरा लौट आए थे। शाम सात बजे पार्सल बाबू शरद मोहन माथुर यह संदेश लेकर आए कि "बच्चे की डेथ हो गई है"। पहले उनकी माता श्री कहती थीं कि शरद खुशखबरी लेकर ही हमारे घर आएगा। राजा-की-मंडी पर रोजाना ड्यूटी करने आने के बावजूद वह कभी अपनी बहन शालिनी से मिलने हेतु भी  इससे पहले कभी  नहीं आए थे।

रात मे मैं उनके साथ चला गया था। बउआ व बाबूजी को धक्का लगा था और वे सफर की स्थिति मे न थे। अगले दिन 25 तारीख को एक पंखे पर उसके पार्थिव शरीर को रख कर टूंडला मे ही दफना दिया। चूंकि मैं ही उसे अपने हाथों ले कर गया था इस पर मेरे माता-पिता का दृष्टिकोण था कि उन लोगों को मेरे द्वारा नहीं भिजवाना चाहिए था। जब लौट कर आ गए थे तब किसी प्रकार हिम्मत करके बउआ व बाबूजी भी पहुंचे । बाबूजी ने उसे बिलकुल भी न देखा था जिसका उन्हे मलाल रहा । बउआ ने तो गोद मे लिया भी था। 

कुछ कारणों से उस बच्चे की जन्मपत्री का विश्लेषण अभी नहीं दे रहे हैं ,फिर कभी मौका लगा तब देंगे। लेकिन एक स्वप्न का ज़िक्र करना अभी ही मुनासिब समझता हूँ। उसके जन्म से लगभग दो माह पूर्व मैंने स्वप्न मे उस बच्चे को सफ़ेद कफन मे लिपटे देखा था। बउआ को बताया तो उन्होने कह दिया कि स्वप्न मे मुर्दा देखना शुभ होता है-स्वप्न शास्त्र का ऐसा ही दृष्टिकोण है भी। किन्तु मैंने तो जन्म से पूर्व बच्चे की स्थिति देखी थी और अक्सर बहुत बातों का मुझे पूर्वाभास होता रहा है अतः मुझे कुछ-कुछ खटका भी था जो सही ही निकला भी।

पहले शालिनी को मानसिक वेदना के भय  से उसका स्मरण नहीं किया फिर इसलिए कि,उसके छोटे भाई यशवन्त को जिसने उसे देखा भी नहीं है कोई वेदना न हो। परंतु अब यह सोच कर पूनम का सुझाव स्वीकार कर लिया कि आने वाले कुछ वर्षों बाद जब यशवन्त हमे श्रद्धांजली देना चाहे  तब अपने बड़े भाई को भी स्मरण मे रख सके अतः अभी अपने समय से ही उस अनाम  संतान को श्रद्धांजली देना प्रारम्भ कर दिया है। 

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बुधवार, 14 नवंबर 2012

जब मैं खुद ज्योतिष विरोधी था

बाबू जी ने भुआ के कहने पर उनके किसी जानकार को हम सब कि,जन्मपत्रियाँ दिखाई होंगी। उन सज्जन ने मेरी जन्मपत्री देख कर कहा था कि यह बालक अपने पिता को 11 वर्ष की अवस्था मे गद्दी पर बैठा देगा। जब मैं 11वे वर्ष मे चल रहा था चीनी आक्रमण के दौरान  नवंबर 1962 मे बाबूजी का तबादला नान फेमिली स्टेशन-सिलीगुड़ी हो गया था। परिवार दो स्थानों पर रहने को बाध्य था अतः उस समय से मेरे मन मे ज्योतिष और ज्योतिषियों के प्रति काफी 'कटु' नफरत थी। बड़ों के साथ-साथ मंदिर जाना मजबूरी थी परंतु मन मे मुझे वह 'ढोंग' नापसंद था। इसका एक कारण तो पाँच वर्ष की अवस्था मे लखनऊ के अलीगंज मंदिर मे भीड़-भड़क्का के बीच कुचलते-कुचलते बचने की घटना थी और दूसरे मूर्तियों के दलाल -पंडितों का दुर्व्यवहार।वृन्दावन के बाँके बिहारी मंदिर से दर्शन करके लौटते ही बाबूजी का तबादला सिलीगुड़ी होने की सूचना मिली थी। यह भी मंदिरों के 'भगवानवाद' पर अविश्वास का प्रबल कारण था। 
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जून 1975 मे एमर्जेंसी के दौरान मेरठ की नौकरी छूटने के बाद सितंबर 1975 मे  आगरा मे होटल मुगल मे दूसरी नौकरी मिल गई थी। 14 सितंबर को लिखित 'टेस्ट' हुआ था जिसमे 20 प्रतिभागी शामिल हुये थे और उनमे से हम चार लोगों का 20 सितंबर को साक्षात्कार हुआ था। साक्षात्कार मे मेरे अतिरिक्त सुदीप्तों मित्रा,विनोद श्रीवास्तव और कोई सक्सेना साहब शामिल थे। मेरे और मित्रा के नियुक्त हो जाने के बाद विनोद श्रीवास्तव यूं ही हम लोगों से मिलने आते रहते थे। अतः उन से हमदर्दी हो गई थी। मेन कंट्रेक्टर लूथरा साहब ने अपने आफिस के लिए विश्वस्त लेखा सहायक बताने को मुझसे कहा और मैंने विनोद श्रीवास्तव का नाम सुझा दिया और वह वहाँ नियुक्त हो गए। इस प्रकार प्रतिदिन अनेकों बार हम लोग परस्पर संपर्क मे रहते थे।


लूथरा साहब के एक विश्वस्त सुपरवाईजर थे-अमर सिंह जी जो बार्डर सिक्योरिटी फोर्स के रिटायर्ड़ सब इंस्पेक्टर थे। वह हस्तरेखा एवं ज्योतिष मे पारंगत थे। विनोद उनसे सलाह मशविरा करते रहते थे। चूंकि मैं तब ज्योतिष का घोर विरोधी था अतः मैं विनोद की इस बात के लिए कड़ी आलोचना करता था। एक दिन सुदीप्तों और विनोद ने ज़बरदस्ती मेरा हाथ अमर सिंह जी को देखने का आग्रह किया जो कुछ उन्होने बताया पिछला सही था । अगले के बारे मे उन्होने कहा कि अधिक से अधिक  कुल 15 वर्ष नौकरी करोगे बाकी 'दिमाग से खाओगे'। 26 वर्ष की उम्र मे अपने मकान मे पहुँच जाओगे और 43 वर्ष की उम्र मे उसके मालिक बन जाओगे 48 वर्ष की उम्र मे 'राजदूत स्तर' का दर्जा मिलेगा।उस समय मुझे रु 275/-मासिक वेतन मिलता था बचत कुछ न थी ,रिश्वत/कमीशन लेता न था मकान कहाँ से बनेगा  मुझे यह सब  हास्यास्पद लगा था और मैंने अपना ऐतराज भी उनको जता दिया था,जिस पर हँसते हुये उन्होने कहा था कि आज तुम मुझ पर हंस रहे हो आने वाले समय मे तुम खुद ही सबको उनका भविष्य समझाओगे। प्रोजेक्ट पूर्ण होने पर कंट्रेक्टर के साथ अमर सिंह जी दिल्ली चले गए। लूथरा साहब ने 'अमर सिंह पामिस्ट एंड एस्ट्रोलाजर' नाम से उनका आफिस खुलवा दिया और अपना परामर्शदाता बना कर अपने निवास पर ही उनको रहने का स्थान प्रदान कर दिया। 

 
सुदीपतो मित्रा कहीं से कुछ ज्योतिष की किताबें लेकर आए और मुझे पढ़ने को दी ,चूंकि किताबें पढ़ने का तो मैं शौकीन था हीं सबको पढ़ा एवं कुछ खास-खास बातों को नकल उतार कर अपने पास लिपिबद्ध कर लिया। बाद मे हरीश छाबरा ने भी कुछ हस्तरेखा व अंक शास्त्र की पुस्तकें पढ़ने को दी उनसे भी कुछ-कुछ लिख कर रख लिया। प्रकट मे ज्योतिष का विरोध जारी रखते हुये अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकालता रहता था। 1970 मे मेरठ मे  साईकिल से मेरा एक्सीडेंट मेरी ही गलती से हुआ था किन्तु चोट ज़्यादा मोटर साईकिल सवार को लगी थी। नवभारत टाईम्स मे रतन लाल शास्त्री'रतनाम्बर' ने उस दिन के भविष्य फल मे बाबूजी को आर्थिक हानी बताई थी और मेरा ठीक था। गलती होते हुये भी मुझे कम चोट लगी थी। साईकिल टूटी थी और आटा सड़क पर आधा बिखर गया था। अर्थात बाबूजी को आर्थिक हानी तो हुई ही थी इससे इंकार नहीं किया जा सकता था। किन्तु ऊपर से मैंने ज्योतिष का विरोध जारी रखते हुये अब इसके निष्कर्षों पर निगाह रखनी शुरू कर दी थी। अतः 1977 मे चुनावों की घोषणा होते ही मैंने मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने की घोषणा करके अपने निष्कर्ष को सार्वजनिक कर दिया था। मेरा खूब मखौल उड़ाया गया जो लोग यह मानते भी थे कि इन्दिरा जी सत्ता मे न आ सकेंगी उनका आंकलन बाबू जगजीवन राम के प्रधानमंत्री बनने का था। आगरा से सेठ अचल सिंह के हारने  पर राय बरेली से इन्दिरा जी के हारने की भी घोषणा मैंने कर रखी थी। सभी बातें हास्यास्पद थीं जो कि चुनावों के बाद मेरे आंकलन को सही सिद्ध कर गई।
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1972 से 75 तक तीन वर्षों मे रु 3000/- मेरठ मे वेतन से बचा कर उसी फर्म मे एफ डी कर रखे थे। सेवा समाप्ती के बाद वे रिफ़ंड नहीं भेज रहे थे। बाबूजी के एक सहकर्मी आगरा मे 'कंचन डेरी' नाम से व्यवसाय करते थे उन्होने सलाह दी कि उनको लीगल नोटिस भेज दो । अपने मित्र वकील साहब से उनका लेटर हेड लाकर उन्होने दिया और उस पर मैंने सुदीप्तों मित्रा से अपनी भाषा टाईपराईटर द्वारा  लिखवाकर रेजिस्टर्ड डाक से भेज दिया। इधर उसी वर्ष   1976 मे हमारे एक साथी आवास-विकास का मकान के लिए फार्म भर रहे थे मुझ पर भी फार्म भरने का दबाव बनाया। मैंने फार्म तो भर दिया परंतु लीगल नोटिस के जवाब मे वहाँ से दो चेक दिल्ली बैंक पर बना कर वहाँ से भेजे गए थे जिंनका कैश मिलने पर ही ड्राफ्ट बनवा सकता था। इत्तिफ़ाक से 25 मार्च 1977 को जब मोरारजी देसाई दिल्ली के रामलीला मैदान मे  नई सरकार की सभा कर रहे थे मैं आगरा कैंट सेंट्रल बैंक से तीन हज़ार का ड्राफ्ट हाउसिंग बोर्ड के नाम बनवा रहा था।

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 11 माह बाद लखनऊ से मुझे सूचना मिली कि पहली किश्त जमा कर दूँ तो ठीक वरना एलाटमेंट केनसिल हो जाएगा। तब तक वेतन बढ़ कर रु 500/- हो चुका था अतः रु 290/- की मासिक किश्त भरने की दिक्कत न हुई। 1978 मे जब मुझे मकान का पज़ेशन मिला उम्र 26 वर्ष हो गई थी। तब एस्ट्रोलाजर अमर सिंह जी की बात सच साबित होने का  यह प्रमाण था। ठेकेदार के किसी काम से जब वह होटल मुगल आए थे तब उनसे मिल कर मैंने उनकी बात प्रमाणित होने की सूचना दे दी थी। 15 वर्षों की किश्तें पूरी होने के बाद रिश्वत न देने के कारण रेजिस्ट्रेशन मे व्यवधान रहा और अंततः राज्यपाल मोतीलाल बोरा जी से शिकायत करने के बाद ही 1994 मे 42 वर्ष उम्र पूरी करने के बाद ही मेरे नाम रेजिस्ट्रेशन हो सका जिससे अमर सिंह जी के आंकलन पूरी तरह सही सिद्ध हुये।

इसके बाद मैंने ज्योतिष अध्ययन पूरी तल्लीनता से किया लेकिन अब  छिट्ट-पुट्ट बातें विश्वस्त लोगों को बताने भी लगा था। सफलता से इस क्षेत्र मे आगे बढ्ने का उत्साह भी बंढ़ता चला गया। नौकरी के साथ-साथ लोगों को निशुल्क परामर्श देना भी शुरू कर दिया और सन2000 ई .मे नौकरी बिलकुल छोड़ कर 'ज्योतिष' को ही आजीविका बना लिया। ईमानदारी पर चलने और ढोंग-पाखंड का प्रबल विरोध करने के कारण आर्थिक लाभ तो न हुआ। किन्तु मान-सम्मान ज़रूर बढ़ा। इसी कारण पूना प्रवासी कुछ चिढ़ोकरे-एहसान फरामोश ब्लागर्स ने मेरे ज्योतिष ज्ञान को लक्ष्य करके 'ज्योतिष एक मीठा जहर' सरीखे आलेख भी IBN7 के नुमाईन्दे से लिखवाये।  

दूसरे ब्लाग पर मैंने ज्योतिष संबंधी कई आलेख दिये हैं और दुष्प्रचार का माकूल जवाब भी दिया है। ज्योतिष के नाम पर आडंबर का मैंने सख्त प्रतिवाद किया है।

http://krantiswar.blogspot.com

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बुधवार, 7 नवंबर 2012

कारपोरेट ट्रेड यूनियनिज़्म का खेल/शिकार

"अपने आर्थिक हितों के लिए बनाए गए स्वेच्छिक संघों को श्रम संघ कहते हैं । " यह है ट्रेड यूनियन्स की सर्वमान्य परिभाषा।
15 मई 1972 से 'सारू स्मेल्टिंग प्रा.लि.',मेरठ मे मैंने अकाउंट्स विभाग मे कार्य प्रारम्भ किया था। 11 माह बाद दो और लोगों के साथ मुझसे भी रिज़ाईन करने को कहा गया था,आश्वासन यह था कि दो दिन बाद फिर से नया एप्वाईंट मेंट लेटर मिल जाएगा। उन दो साथियों की सोर्स तब भी मौजूद थी जबकि मुझे जाब दिलवाने वाले फेकटरी इंस्पेक्टर महेश चंद्र माथुर  साहब स्थानांतरित हो चुके थे। मैंने यह सोच कर कि नौकरी यों भी जानी  ही है तो रिज़ाईन क्यों करूँ जब चाहें मेनेजमेंट हटा ही देगा रिज़ाईन करने से इंकार कर दिया। दो दिन के अंतराल दिखा कर उन दोनों को नया एप्वाईंट मेंट लेटर दे दिया गया जबकि कार्य लगातार करते रहे। कुछ दिन बाद फेकटरी मेनेजर बृजेन्द्र कुमार अखोरी साहब द्वारा हस्ताक्षरित 'शो काज नोटिस' मुझे दिया गया।

पूर्व परसोनल आफ़ीसर डॉ मिश्री लाल झा साहब (जो मेरठ यूनिवर्सिटी मे ए आर हो गए थे ) को मैंने वह पत्र दिखाया जिसका उन्होने उत्तर डिक्टेट कर दिया और हिदायत दी कि लिख कर मैं उसे पूर्व फेकटरी मेनेजर जैन साहब को(जो दूसरी फेकटरी मे चले गए थे) दिखा लूँ। जैन साहब ने झा साहब के लिखाये उत्तर को सही बता कर जमा करने को कह दिया। उत्तर पढ़ते ही अखोरी साहब खुद मेरी सीट पर चल कर आए और अपने साथ गैलरी मे ले जाकर बोले मुझसे क्यों लड़ते हो?मैं भी तो कायस्थ हूँ। मैंने कहा साहब तो आपने फिर यह लेटर मुझे क्यों दिया था?उत्तर देना मेरा फर्ज़ था। वह बोले लगता है तुम उस गधे (यह उन्होने झा साहब के लिए कहा था)के पास चले गए वह पंडित दोनों कायस्थों को लड़ाना चाहता है। खैर अब इसकी कापी जो रिसीव कराई है उसे फाड़ दो ओरिजनल भी फाड़ देते हैं। मैंने उनसे कहा मैं कोई कागज नहीं फाड़ सकता आप अपने लेवल पर उसे रिजेक्ट कर सकते हैं। उन्होने कहा कि ठीक है हम कोई एक्शन नहीं लेंगे तुम भी अब चुप रहना।

बात आई गई हो गई। 'सारू मजदूर संघ 'के कोषाध्यक्ष आनंद स्वरूप गुप्ता जी मुझसे बोले जब तुम अकेले अपने लिए लड़ सकते हो तो यूनियन मे शामिल होकर सबके भले के लिए काम करो और इस प्रकार ट्रेड यूनियन मे मेरा पिछली तारीख से प्रवेश हो गया। बाद मे कार्यकारिणी मे भी मैं रहा। किन्तु प्रेसीडेंट सहदेव शर्मा जी को मिला कर जून 1975 मे एमर्जेंसी लागू होने पर मेनेजमेंट ने मुझे बर्खास्त कर दिया।

पहले वहाँ 'मेटल वर्कर्स यूनियन'सक्रिय थी जिसका नेतृत्व एस पी सहगल साहब के पास था,वह जसवंत शुगर मिल के कर्मचारी और यूनियन के महामंत्री रहे थे। किन्तु एक अन स्किल्ड वर्कर ओ पी शर्मा साहब को मेनेजमेंट ने आगे करके 'सारू मजदूर संघ' की स्थापना करा दी थी जो शुरू मे एक पपेट यूनियन थी। फिर सहगल साहब के निर्देश पर सभी कर्मचारी इसी मे प्रवेश कर गए थे और अधिकार कर लिया था ,अंततः नियंत्रण भी सहगल साहब के हाथों मे आ गया था। एस डी शर्मा जी भी ओ पी शर्मा जी की राह पर चल निकले थे और पहला शिकार मुझे बनाया गया था। मेरे हटने के कुछ वर्ष बाद यूनियन दो फाड़ होकर भंग हो गई थी। 

सवा तीन वर्ष के अनुभव के आधार पर निर्माणाधीन 'होटल मोगूल ओबेराय',आगरा मे मुझे 22 सितंबर,1975 से  जाब तो मिल गया परंतु बिना एक्सपीरिएन्स सर्टिफिकेट के वेतन कम मिला। बाद मे चालू होने पर यह 'होटल मुगल शेरेटन'हो गया और मेनेजमेंट को 'स्टैंडिंग आर्डर्स' मे 'होटल एंड रेस्टोरेन्ट वर्कर्स यूनियन' की ओर से दाखिल आपत्तियों से निपटना था। अतः कुछ सुपरवाईजर्सको आगे करके मेनेजमेंट ने एक 'स्टाफ फेल्फेयर कमेटी' का गठन कराने की पहल की। अकाउंट्स विभाग के प्रतिनिधि के रूप मे सुदीपतो मित्रा ने मेरा नाम लिख कर एक कागज पर हस्ताक्षर शुरू कराये थे और तीन हस्ताक्षर हुआ वह कागज जैसे ही मेरे समक्ष आया मैंने उसी पर लिख दिया कि,हम सब सुदीपतो मित्रा को अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। शेष 30-35 लोगों ने मेरे कथन का समर्थन कर दिया। बाकी विभागों से सर्व सम्मत एक-एक नाम पहुंचे थे। मित्रा का तर्क था कि बहुमत ने विजय माथुर का समर्थन किया है अतः वही निर्वाचित माना जाए और मेरा तर्क था कि चूंकि मैंने सुदीप्तों मित्रा के लिए समर्थन मांगा है अतः वह निर्वाचित हो चुके हैं -शेर की सवारी कर चुके हैं अब उतर नहीं सकते। पर्सोनेल मेनेजर को मेरा तर्क स्वीकार करना पड़ा। एक तरफ जेनरल मेनेजर की अध्यक्षता वाली यह स्टाफ वेल्फेयर कमेटी कर्मचारियों के हितों की बात उठाती रही दूसरी तरफ स्टाफ के इन कुल  11 सदस्यों ने मेनेजमेंट की शह  पर 'होटल मुगल कर्मचारी संघ' नामक यूनियन का गठन प्रारम्भ कर दिया। समस्या सदयस्ता की थी कुछ सुपरवाईजर्स ही इसके सदस्य बने थे। मेरठ मे सारू स्मेल्टिंग के कटु अनुभव के कारण मैं दिलचस्पी नहीं ले रहा था और बाकी स्टाफ मेरी गैर हाज़िरी वाली किसी भी यूनियन मे शामिल नहीं हो रहा था।

सुदीप्तों मित्रा का बैंक आफ बरोदा मे DRO के रूप मे सिलेक्शन हो गया। होटल मुगल कर्मचारी संघ का महामंत्री पद रिक्त हो गया। प्रेसीडेंट अशोक भल्ला साहब और ज्वाईंट सेक्रेटरी योगेन्द्र कुमार सिक्का ने कमेटी की बैठक मे महामंत्री पद पर मेरे चुनाव की घोषणा कर दी जबकि हकीकत मे मैं तो साधारण सदस्य भी न था। सार्वजनिक घोषणा हो चुकने के बाद  मेरा इंनकार 'पलायन' हो जाता  अतः 'गले पड़े का ढ़ोल बजाना' मेरी मजबूरी हो गई। एक सप्ताह मे सदस्यता 250 की संख्या पार कर गई। यूनियन के रेजिस्ट्रेशन हेतु जो इंस्पेक्टर जैन साहब कानपुर से आए थे उनसे मैंने रिटायर्ड  'डिप्टी चीफ इंस्पेक्टर आफ फेकटरीज़' श्री महेश चंद्र माथुर का हवाला देते हुये बताया कि वह हमारे नानाजी के फुफेरे भाई हैं। जैन साहब उनके आधीन काम कर चुके थे उन्होने बगैर कुछ चेक किए ही यूनियन रेजिस्टर्ड करने की सिफ़ारिश कर दी।

जेनेरल मेनेजर सरदार चरण जीत सिंह पेंटल ओबेराय ग्रुप मे यूनियन दो फाड़ करने मे कामयाब रहे थे उनको पर्सोनेल मेनेजर हरी मोहन झा साहब ज़्यादातर मेनेजर्स को अपने साथ लामबंद करके तथा स्टाफ फेल्फेयर कमेटी (एवं यूनियन)के सदस्यों को पोट-पाट कर अपने पाले मे करते हुये झुका लेते थे। झा साहब खुद को रिंग मास्टर कहते थे। मेरे यूनियन का महामंत्री बनने पर भी  उन्होने पुराना खेल जारी रखना चाहा जो न चल सका। मैंने यूनियन को पूरी तरह कर्मचारी हितों के साथ जोड़ दिया और मेनेजमेंट की गुटबाजी का मोहरा न बनने दिया। झा साहब ने मुझे चेतावनी  देने के तौर पर अपना पुराना किस्सा सुनाया था जो इस प्रकार है ---

झा साहब डॉ जगन्नाथ मिश्रा एवं ललित नारायण मिश्रा जी के भतीज दामाद थे और इसी योग्यता के आधार पर कालेज से मात्र बी ए करने बाद जमशेदपुर मे टाटा के यहाँ पर्सोनेल आफ़ीसर बन गए थे। यूनियन का बुजुर्ग घाघ महामंत्री हर मेनेजर को काबू रखता था। इनमे नया जोश था इनहोने एक दिन उसे धक्का देकर अपने आफिस से हटा दिया वह चला भी गया। जेनेरल मेनेजर ने इनको बुला कर हवाई टिकट पकड़ा कर प्रमोशन पर कलकत्ता रवाना कर दिया और हिदायत दी कि सामान भूल जाओ वहाँ कंपनी बंदोबस्त कर देगी ।जब स्टाफ को एकत्र कर वह मजदूर नेता पहुंचा तो जी एम ने उसे झूठ कह दिया कि झा को बर्खास्त करके हटा दिया है अतः वह भाग गया।

मैंने झा  साहब की कहानी सुन कर कोई जवाब नहीं दिया लेकिन मन मे दृढ़ निश्चय कर लिया कि चाहे जो हो उनके आगे झुकना नहीं है। बदली परिस्थितियों मे जेनेरल मेनेजर मीटिंग मे मेरे द्वारा प्रस्तुत सुझावों को तत्काल मंजूर करने लगे जिससे झा साहब को झटका लगा और स्टाफ के समक्ष मेरी साख और बढ़ गई। भल्ला साहब एवं सिक्का जी तो पहले ही पंजाबी होने के कारण पेंटल साहब के प्रति सौम्य थे किन्तु झा साहब की किलेबंदी मे फंस जाते थे जो अब नहीं होने से प्रसन्न थे। 03-04-1978 के दिनांक से यूनियन रेजिस्टर्ड होने का पत्र आने पर मेनेजमेंट ने यूनियन को मान्यता भी दे दी। जो चार्टर् आफ डिमांड सुदीप्तों मित्रा पेश कर गए थे उसमे झा साहब रद्दो-बदल करवा कर विवाद खड़ा करना चाहते थे मैंने दृढ़ता पूर्वक किसी भी बदलाव से इंकार कर दिया।झा  साहब ने तब मेंडेट न होने का दांव चल दिया।  हमने यूनियन के चुनाव घोषित कर दिये। भल्ला साहब पर जी एम के पिट्ठू का ठप्पा होने से मैंने उनका समर्थन न करके पी बी सिंह का समर्थन किया। सिंह साहब को झा साहब ने कालांतर मे तोड़ लिया,किन्तु मैं पहले ही जिन दीपक भाटिया साहब को नया ज्वाईंट सेक्रेटरी बनवा चुका था वह मेरे बहुत काम आए। दीपक भाटिया जी पहले जया भादुरी जी के पी ए थे और शादी के बाद अमिताभ जी से कह कर उनका एडीशनल  पी ए जया जी उनको बनवा दिया था। पेंटल साहब से अमिताभ जी ने आगरा मे दीपक भाटिया को  नौकरी देने की सिफ़ारिश की थी और वह पेंटल साहब के मुंह लगे थे। हालांकि उनको ज्वाईंट सेक्रेटरी बनवाने पर लोगों को ताज्जुब भी हुआ था कि मैंने ऐसा क्यों किया। झा साहब की चाल बाजियों को पेंटल साहब तक वह पहुंचा देते थे और पेंटल साहब मुझे समर्थन देकर मेनेजमेंट की गुटबाजी मे झा साहब को झकझोर देते थे। 11-09-1978 को जो सम्झौता हुआ उसमे झा साहब की एक भी दाल न गली। 

झा साहब ने पी बी सिंह को भड़का कर यूनियन मे विवाद खड़ा करना चाहा लेकिन मैंने मध्यावधी चुनाव करा दिये। खुद मैंने चुनाव नहीं लड़ा और दीपक सरकार को समर्थन देकर खड़ा करा दिया। झा साहब के इशारे पर मुकेश भटनागर उनके विरोध मे खड़ा हो गया। प्रेसीडेंट का निर्वाचन निर्विरोध करा दिया और भटनागर साहब मेरा समर्थन न होने के कारण हार गए। जी एम पेंटल साहब और पर्सोनेल मेनेजर झा साहब अन्यत्र स्थानांतरित हो गए। नए पर्सोनेल मेनेजर हेमंत कुमार जी ने मुझे एक नई यूनियन खड़ी करने के लिए अनेक प्रलोभन दिखाये किन्तु मैंने कर्मचारी विरोधी कोई भी कदम उठा कर निजी लाभ लेना मंजूर नहीं किया। बाद मे अप्रैल 1984 मे सस्पेंड करके 19-01-1985 से मेरी सेवाएँ समाप्त कर दी गई ,इसी प्रकार होटल मौर्य शेरेटन ,दिल्ली मे यूनियन सेक्रेटरी बी सी गोस्वामी  के कर्मचारी हितैषी होने के कारण सेवाएँ समाप्त कर दी गई थीं। 


आज दिनांक 07-11-2012 के हिंदुस्तान लखनऊ मे नारायण मूर्ती साहब के केजरीवाल संबन्धित खुलासे के बाद कारपोरेट घरानों का यह पुराना खेल याद आ गया कि किस प्रकार कर्मचारियों मे अपने नुमाईन्दे फिट करके कारपोरेट कंपनियाँ मजदूर आंदोलनों को छिन्न-भिन्न करने हेतु कर्मठ कर्मचारी नेताओं को बर्खास्त कर देते हैं। ये कारपोरेट घराने जनता के बीच जन-हितैषी नेताओं की छ्वी धूमिल करने हेतु हज़ारे/केजरीवाल/रामदेव जैसे लोगों को फ़ाईनेन्स करके फर्जी नेता बना कर खड़ा कर देते हैं। मजदूर आंदोलनों की भांति ही जन-आंदोलन भी ध्येय से इन लोगों के कारण भटक जाते हैं और जनता का शोषण बदस्तूर चलता-बढ़ता रहता है।



हिंदुस्तान,लखनऊ,07-11-2012,पृष्ठ 14

  • Danda Lakhnavi दोहों के आगे दोहे
    ===========
    पद-परमिट-कोटा तथा, टिकट-भवन-भूखंड।
    आदि सुखों का देवता, पूज्य......पार्टी-फ़ंड॥
    ===========

    सद्भावी- डॉ० डंडा लखनवी

    आपका कथन सत्य है....प्राय: ऐसा होता है ...
  • Vijai RajBali Mathur डॉ Danda Lakhnavi साहब बहुत-बहुत धन्यवाद ,पीड़ा समझने हेतु।
     (फेसबुक 'जनहित' ग्रुप मे प्राप्त टिप्पणी और उसका जवाब)

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