सोमवार, 30 मार्च 2015

स्थापित मान्यताओं पर आधारित 'राम राज्य' एक उत्तम कलात्मक फिल्म --- विजय राजबली माथुर



 (फिल्म-सौजन्य से डॉ सुधाकर अदीब साहब )

72 वर्ष पूर्व 1943  में प्रदशित फिल्म 'राम राज्य ' की पट कथा कानू देसाई साहब ने महर्षि वाल्मीकि की रामायण के आधार पर लिखी है। इसका निर्देशन विजय भट्ट साहब ने किया है और संगीत शंकर राव साहब का है। राम के आदर्श चरित्र को सजीव किया है प्रेम अदीब साहब (  डॉ सुधाकर अदीब जी के पितामह ) ने एवं सीता के त्यागमय जीवन को साकार किया है शोभना समर्थ जी ने। 

गीत-संगीत और कलाकारों का अभिनय चित्ताकर्षक व मनोरम है। आम जन-मानस में राम व सीता की जो छवी है उस  कसौटी पर फिल्म पूरी तरह से अपने उद्देश्य को प्रस्तुत करने में सफल रही है। सीता-वनवास एक धोबी की आशंका पर ही इस फिल्म में भी दिखाया गया है। इन दृश्यों को चरितार्थ करने में प्रेम अदीब साहब व शोभना समर्थ जी का अभिनय वास्तविक ही लगता है। लव-कुश एवं वाल्मीकि के चरित्र भी लोक-मान्यताओं के अनुरूप ही हैं। फिल्म के अंतिम भाग में राम के अश्व मेध यज्ञ के दृश्य का वह भाग आज के संदर्भ में भी काफी कुछ सही प्रतीत होता है जिसमें लव-कुश के मुख से वाल्मीकि को यह बताते हुये दिखाया गया है कि अयोध्या के नगरीय जीवन और जनता से उनके वन का जीवन और वनवासी उत्तम हैं। लेकिन आज नगरों की भूख शांत करने के लिए वनों का दोहन व वनवासियों का शोषण किया जा रहा है । आज फिर से लोक जीवन के हिमायती लव-कुश की परंपरा को प्रश्रय देने की महती आवश्यकता है। 

इस फिल्म में यद्यपि लोक प्रचलित मान्यतों के आधार पर ही प्रदर्शन है किन्तु मैंने अपने कई लेखों के माध्यम से राम-वनवास तथा सीता-वनवास के राजनीतिक,कूटनीतिक कारणों का उल्लेख किया है उनमें से कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं। :---------------

*अयोध्या लौटकर राम द्वारा  भारी प्रशासनिक फेरबदल करते हुए पुराने प्रधानमंत्री वशिष्ठ ,विदेश मंत्री सुमंत आदि जो काफी कुशल और योग्य थे और जिनका जनता में काफी सम्मान था अपने अपने पदों से हटा दिया गया.इनके स्थान पर भरत को प्रधान मंत्री,शत्रुहन को विदेश मंत्री,लक्ष्मण को रक्षा मंत्री और हनुमान को प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया.ये सभी योग्य होते हुए भी राम के प्रति व्यक्तिगत रूप से वफादार थे इसलिए राम शासन में निरंतर निरंकुश होते चले गए.अब एक बार फिर अपदस्थ वशिष्ठ आदि गणमान्य नेताओं ने वाल्मीकि के नेतृत्व में योजनाबद्ध तरीके से सीता को निष्कासित करा दिया जो कि उस समय   गर्भिणी थीं और जिन्होंने बाद में वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय ले कर लव और कुश नामक दो जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया.राम के ही दोनों बालक राजसी वैभव से दूर उन्मुक्त वातावरण में पले,बढे और प्रशिक्षित हुए.वाल्मीकि ने लव एवं कुश को लोकतांत्रिक शासन की दीक्षा प्रदान की और उनकी भावनाओं को जनवादी धारा  में मोड़ दिया.राम के असंतुष्ट विदेश मंत्री शत्रुहन लव और कुश से सहानुभूति रखते थे और वह यदा कदा वाल्मीकि के आश्रम में उन से बिना किसी परिचय को बताये मिलते रहते थे.वाल्मीकि,वशिष्ठ आदि के परामर्श पर शत्रुहन ने पद त्याग करने की इच्छा को दबा दिया और राम को अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति से अनभिज्ञ रखा.इसी लिए राम ने जब अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया तो उन्हें लव-कुश के नेतृत्व में भारी जन आक्रोश का सामना करना पडा और युद्ध में भीषण पराजय के बाद जब राम,भारत और शत्रुहन बंदी बनाये जा कर सीता के सम्मुख पेश किये गए तो सीता को जहाँ साम्राज्यवादी -विस्तारवादी राम की पराजय की तथा लव-कुश द्वारा नीत लोकतांत्रिक शक्तियों की जीत पर खुशी हुई वहीं मानसिक विषाद भी कि,जब राम को स्वयं विस्तारवादी के रूप में देखा.वाल्मीकि,वशिष्ठ आदि के हस्तक्षेप से लव-कुश ने राम आदि को मुक्त कर दिया.यद्यपि शासन के पदों पर राम आदि बने रहे तथापि देश का का आंतरिक प्रशासन लव और कुश के नेतृत्व में पुनः लोकतांत्रिक पद्धति पर चल निकला और इस प्रकार राम की छाप जन-नायक के रूप में बनी रही और आज भी उन्हें इसी रूप में जाना जाता है.
http://krantiswar.blogspot.in/2011/04/blog-post_12.html 
** सीता -संक्षिप्त परिचय जैसा कि 'रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना' में पहले ही उल्लेख हो चुका है-राम के आविर्भाव के समय भारत-भू छोटे -छोटे राज्यों में विभक्त होकर परस्पर संघर्ष शील शासकों का अखाड़ा बनी हुयी थी.दूसरी और रावण के नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियां भारत को दबोचने के प्रयास में संलग्न थीं.अवकाश प्राप्त शासक मुनि विश्वमित्र जी जो महान वैज्ञानिक भी थे और जो अपनी प्रयोग शाला में 'त्रिशंकू' नामक कृत्रिम उपग्रह (सेटेलाईट)को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित कर चुके थे जो कि आज भी अपनी कक्षा (ऑर्बिट) में ज्यों का त्यों परिक्रमा कर रहा है जिससे हम 'त्रिशंकू तारा' के नाम से परिचित हैं. विश्वमित्र जी केवल ब्रह्माण्ड (खगोल) विशेषज्ञ ही नहीं थे वह जीव-विज्ञानी भी थे.उनकी प्रयोगशाला में गोरैया चिड़िया -चिरौंटा तथा नारियल वृक्ष का कृत्रिम रूप से सृजन करके इस धरती पर सफल परीक्षण किया जा चुका था .ऐसे ब्रह्मर्षि विश्वमित्र ने विद्वान का वीर्य और विदुषी का रज (ऋषियों का रक्त)लेकर परखनली (टेस्ट ट्यूब) के माध्यम से एक कन्या को अपनी प्रयोगशाला में उत्पन्न किया जोकि,'सीता'नाम से जनक की दत्तक पुत्री बनवा दी गयीं. वीरांगना-विदुषी सीता जनक जो एक सफल वैज्ञानिक भी थे सीता को भी उतना ही वैज्ञानिक और वीर बनाना चाहते थे और इस उद्देश्य में पूर्ण सफल भी रहे.सीता ने यथोचित रूप से सम्पूर्ण शिक्षा ग्रहण की तथा उसे आत्मसात भी किया.उनके वयस्क होने पर मैग्नेटिक मिसाईल (शिव-धनुष) की मैग्नेटिक चाभी एक अंगूठी में मड़वा कर उन्हें दे दी गयी जिसे उन्होंने ऋषियों की योजनानुसार पुष्पवाटिका में विश्वमित्र के शिष्य के रूप में पधारे दशरथ-पुत्र राम को सप्रेम -भेंट कर दिया और जिसके प्रयोग से राम ने उस मैग्नेटिक मिसाईल उर्फ़ शिव-धनुष को उठा कर नष्ट (डिफ्यूज ) कर दिया ,जिससे कि इस भारत की धरती पर उसके युद्धक प्रयोग से होने वाले विनाश से बचा जा सका.इस प्रकार हुआ सीता और राम का विवाह उत्तरी भारत के दो दुश्मनों को सगी रिश्तेदारी में बदल कर जनता के लिए वरदान के रूप में आया क्योंकि अब संघर्ष प्रेम में बदल दिया गया था. दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ सीता सीता एक योग्य पुत्री,पत्नी,भाभी आदि होने के साथ-साथ जबरदस्त कूट्नीतिग्य भी थीं.इसलिए जब राष्ट्र -हित में राम-वनवास हुआ तो वह भी राम के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चल दीं.वस्तुतः साम्राज्यवाद को अस्त्र-शस्त्र की ताकत से नहीं कूट-नीति के कमाल से परास्त किया जा सकता था और यही कार्य सीता ने किया.सीता वन में रह कर आमजनों के बीच घुल मिल कर तथ्यों का पता लगातीं थीं और राम के साथ मिल कर आगे की नीति निर्धारित करने में पूर्ण सहयोग देतीं थीं.रावण के बाणिज्य-दूतों (खर-दूषण ) द्वारा खुफिया जानकारियाँ हासिल करने के प्रयासों के कारण सीता जी ने उनका संहार करवाया.रावण की बहन-सम प्रिय जासूस स्वर्ण-नखा (जिसे विकृत रूप में सूपनखा कहा जाता है ) को अपमानित करवाने में सीता जी की ही उक्ति काम कर रही थी .इसी घटना को सूपनखा की नाक काटना एक मुहावरे के रूप में कहा जाता है.स्वर्ण-नखा का अपमान करने का उद्देश्य रावण को सामने लाना और बदले की कारवाई के लिए उकसाना था जिसमें सीता जी सफल रहीं.रावण अपने गुप्तचर मुखिया मारीची पर बहुत नाज करता था और मान-सम्मान भी देता था इसी लिए उसे रावण का मामा कहा जाता है.मारीची और रावण दोनों वेश बदल कर यह पता लगाने आये कि,राम कौन हैं ,उनका उद्देश्य क्या है?वह वनवास में हैं तो रावण के गुप्तचरों का संहार क्यों कर रहे हैं ?वह वन में क्या कर रहे हैं?. राम और सीता ने रावण के सामने आने पर एक गंभीर व्यूह -रचना की और उसमें रावण को फंसना ही पडा.वेश बदले रावण के ख़ुफ़िया -मुखिया मारीची को काफी दूर दौड़ा कर और रावण की पहुँच से बाहर हो जाने पर मार डाला और लक्ष्मण को भी वहीं सीता जी द्वारा भेज दिया गया.निराश और हताश रावण ने राम को अपने सामने लाने हेतु छल से सीता को अपने साथ लंका ले जाने का उपक्रम किया लेकिन वह अनभिग्य था कि,यही तो राम खुद चाहते थे कि वह सीता को लंका ले जाए तो सीता वहां से अपने वायरलेस (जो उनकी अंगूठी में फिट था) से लंका की गोपनीय जानकारियाँ जुटा -जुटा कर राम को भेजती रहें. सीता जी ने रावण को गुमराह करने एवं राम को गमन-मार्ग का संकेत देने हेतु प्रतीक रूप में कुछ गहने विमान से गिरा दिए थे.बाली के अवकाश प्राप्त एयर मार्शल जटायु ने रावण के विमान पर इसलिए प्रहार करना चाहा होगा कि वह किस महिला को बगैर किसी सूचना के अपने साथ ले जा रहा है.चूंकि वह रावण के मित्र बाली की वायु सेना से सम्बंधित था अतः रावण ने केवल उसके विमान को क्षति पहुंचाई और उसे घायलावस्था में छोड़ कर चला गया.जटायु से सम्पूर्ण वृत्तांत सुन कर राम ने सुग्रीव से मित्रता कर ली और उद्भट विद्वान एवं उपेक्षित वायु-सेना अधिकारी हनुमान को पूर्ण मान -सम्मान दिया.दोनों ने राम को सहायता एवं समर्थन का ठोस आश्वासन दिया जिसे समय के साथ -साथ पूर्ण भी किया.राम ने भी रावण के सन्धि- मित्र बाली का संहार कर सुग्रीव को सत्तासीन करा दिया. हनुमान अब प्रधान वायु सेनापति (चीफ एयर मार्शल) बना दिए गए जो कि कूटनीति के भी विशेषज्ञ थे. सीता द्वारा भेजी लंका की गुप्त सूचनाओं के आधार पर राम ने हनुमान को पूर्ण विशवास में लेकर लंका के गुप्त मिशन पर भेजा.हनुमान जी ने लंका की सीमा में प्रवेश अपने विमान को इतना नीचे उड़ा कर किया जिससे वह समुद्र में लगे राडार 'सुरसा'कीपकड़ से बचे रहे ,इतना ही नहीं उन्होंने 'सुरसा'राडार को नष्ट भी कर दिया जिससे आने वाले समय में हमलावर विमानों की खबर तक रावण को न मिल सके. लंका में प्रवेश करके हनुमान जी ने सबसे पहले सीता जी से भेंट की तथा गोपनीय सूचनाओं का आदान-प्रदान किया और सीता जी के परामर्श पर रावण के सबसे छोटे भाई विभीषण जो उससे असंतुष्ट था ही से संपर्क साधा और राम की तरफ से उसे पूर्ण सहायता तथा समर्थन का ठोस आश्वासन भी प्रदान कर दिया.अपने उद्देश्य में सफल होकर उन्होंने सीता जी को सम्पूर्ण वृत्तांत की सूचना दे दी.सीता जी से अनुमति लेकर हनुमान जी ने रावण के कोषागारों एवं शस्त्रागारों पर अग्नि-बमों (नेपाम बम) की वर्षा कर डाली.खजाना और हथियार नष्ट कर के गूढ़ कूटनीति के तहत और सीता जी के आशीर्वाद से उन्होंने अपने को रावण की सेना द्वारा गिरफ्तार करा लिया और दरबार में रावण के समक्ष पेश होने पर खुद को शांति-दूत बताया जिसका विभीषण ने भी समर्थन किया और उन्हें अंतरष्ट्रीय कूटनीति के तहत छोड़ने का प्रस्ताव रखा.अंततः रावण को मानना ही पडा. परन्तु लौटते हुए हनुमान के विमान की पूँछ पर संघातक प्रहार भी करवा दिया.हनुमान जी तो साथ लाये गए स्टैंड बाई छोटे विमान से वापिस लौट आये और बदली हुयी परिस्थितियों में सीता जी से उनकी अंगूठी में जडित वायरलेस भी वापिस लेते गए. विभीषण ने शांति-दूत हनुमान के विमान पर प्रहार को मुद्दा बना कर रावण के विदेश मंत्री पद को त्याग दिया और खुल कर राम के साथ आ गया.सीता जी का लंका प्रवास सफल रहा -अब रावण की फ़ौज और खजाना दोनों खोखले हो चुके थे,उसका भाई अपने समर्थकों के साथ उसके विरुद्ध राम के साथ आ चुका था.अब लंका पर राम का आक्रमण एक औपचारिकता मात्र रह गया था फिर भी शांति के अंतिम प्रयास के रूप में रावण के मित्र बाली के पुत्र अंगद को दूत बना कर भेजा गया. रावण ने समपर्ण की अपेक्षा वीर-गति प्राप्त करना उपयुक्त समझा और युद्ध में तय पराजय का वरण किया. इस प्रकार महान कूटनीतिज्ञ सीता जी के कमाल की सूझ-बूझ ने राम को साम्राज्यवादी रावण के गढ़ में ही उसे परास्त करने का मार्ग प्रशस्त किया. आज फिर आवश्यकता है एक और सीता एवं एक और राम की जो साम्राज्यवाद के जाल को काट कर विश्व की कोटि-कोटि जनता को शोषण तथा उत्पीडन से मुक्त करा सकें.जब तक राम की वीर गाथा रहेगी सीता जी की कूटनीति को भुलाया नहीं जा सकेगा.
http://krantiswar.blogspot.in/2011/04/blog-post_30.html

*** विद्रोह या क्रांति कोई ऐसी चीज़ नहीं होती जिसका विस्फोट एकाएक होता हो,बल्कि इसके अनन्तर अन्तर क़े तनाव को बल मिलता रहता है और जब यह अन्तर असह्य हो जाता है तभी इसका विस्फोट हो जाता है.अयोध्यापति राम क़े विरुद्ध सीता का विद्रोह ऐसी ही एक घटना थी.परन्तु पुरुष-प्रधान समाज ने इतनी बड़ी घटना को क्षुद्र रूप में इस प्रकार प्रचारित किया कि,एक धोबी क़े आक्षेप करने पर राम ने लोक-लाज की मर्यादा की रक्षा क़े लिये महारानी सीता को निकाल दिया.कितना बड़ा उपहास है यह वीरांगना सीता का जिन्होंने राम क़े वेद-विपरीत अधिनायकवाद का कडा प्रतिवाद किया और उनके राज-पाट को ठुकरा कर वन में लव और कुश दो वीर जुड़वां बेटों को जन्म दिया.सीता निष्कासन की दन्त-कथायें नारी-वर्ग और साथ ही समाज में पिछड़े वर्ग की उपेक्षा को दर्शाती हैं जो दन्त-कथा गढ़ने वाले काल की दुर्दशा का ही परिचय है.जबकि वास्तविकता यह थी कि,साम्राज्यवादी रावण क़े अवसान क़े बाद राम अयोद्ध्या क़े शासक क़े रूप में नहीं विश्वपति क़े रूप में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे.सत्ता सम्हालते ही राम ने उस समय प्रचलित वेदोक्त-परिपाटी का त्याग कर ऋषियों को मंत्री मण्डल से अपदस्थ कर दिया था.वशिष्ठ मुनि को हटा कर अपने आज्ञाकारी भ्राता भरत को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया.विदेशमंत्री पद पर सुमन्त को हटा कर शत्रुहन को नियुक्त कर दिया और रक्षामंत्री अपने सेवक-सम भाई लक्ष्मण को नियुक्त कर दिया था.राम क़े छोटे भाई जानते हुये भी गलत बात का राम से विरोध करने का साहस नहीं कर पाते थे और अपदस्थ मंत्री अर्थात ऋषीवृन्द कुछ कहते तो राम को खड़यन्त्र की बू आने लगती थी.महारानी सीता कुछ कहतीं तो उन्हें चुप करा देते थे.राम को अपने विरुद्ध कुछ भी सुनने की बर्दाश्त नहीं रह गई थी.उन्होंने कूटनीति का प्रयोग करते हुये पहले ही बाली की विधवा तारामणि से सुग्रीव क़े साथ विवाह करा दिया था जिससे कि,भविष्य में तारा अपने पुत्र अंगद क़े साथ सुग्रीव क़े विरुद्ध बगावत न कर सके.इसी प्रकार रावण की विधवा मंदोदरी का विवाह विभीषण क़े साथ करा दिया था कि,भविष्य में वह भी विभीषण क़े विरुद्ध बगावत न कर सके.राम ने तारा और मंदोदरी क़े ये विवाह वेदों में उल्लिखित "नियोग"विधान क़े अंतर्गत ही कराये थे अतः ये विधी-सम्मत और मान्य थे."नियोग विधान"पर सत्यार्थ-प्रकाश क़े चौथे सम्मुल्लास में महर्षि दयानंद ने विस्तार से प्रकाश डाला है और पुष्टि की है कि,विधवा को दे-वर अर्थात दूसरा वर नियुक्त करने का अधिकार वेदों ने दिया है.सुग्रीव और विभीषण राम क़े एहसानों तले दबे हुये थे वे उनके आधीन कर-दाता राज्य थे और इस प्रकार उनके विरुद्ध संभावित बगावत को राम ने पहले ही समाप्त कर दिया था.इसलिए राम निष्कंटक राज्य चलाना चाहते थे. महारानी सीता जो ज्ञान-विज्ञान व पराक्रम तथा बुद्धि में किसी भी प्रकार राम से कम न थीं उनकी हाँ में हाँ नहीं मिला सकती थीं.जब उन्होंने देखा कि राम उनके विरोध की परवाह नहीं करते हैं तो उन्होंने ऋषीवृन्द की पूर्ण सहमति एवं सहयोग से राम-राज्य को ठुकराना ही उचित समझा.राम क़े अधिनायकवाद से विद्रोह कर सीता ने वाल्मीकि मुनि क़े आश्रम में शरण ली वहीं लव-कुश को जन्म दिया और उन्हें वाल्मीकि क़े शिष्यत्व में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया.राम क़े भ्राता और विदेशमंत्री शत्रुहन यह सब जानते थे परन्तु उन्होंने अपनी भाभी व भतीजों क़े सम्बन्ध में राजा राम को बताना उचित न समझा क्योंकि वे सब भाई भी राम की कार्य-शैली से दुखी थे परन्तु मुंह खोलना नहीं चाहते थे.ऋषि-मुनियों का भी महारानी सीता को समर्थन प्राप्त था.लव और कुश को महर्षि वाल्मीकि ने लोकतांत्रिक राज-प्रणाली में पारंगत किया था और अधिनायकवाद क़े विरुद्ध लैस किया था. इसलिए जब राम ने अश्वमेध्य यज्ञ को विकृत रूप में चक्रवर्ती सम्राट बनने हेतु सम्पन्न कराना चाहा तो सीता-माता क़े संकेत पर लव और कुश नामक नन्हें वीर बालकों ने राम क़े यज्ञ अश्व को पकड़ लिया. राम की सेना का मुकाबला करने क़े लिये लव-कुश ने अपने नेतृत्व में बाल-सेना को सबसे आगे रखा ,उनके पीछे महिलाओं की सैन्य-टुकड़ी थी और सबसे पीछे चुनिन्दा पुरुषों की टुकड़ी थी. राम की सेना बालकों और महिलाओं पर आक्रमण करे ऐसा आदेश तो रक्षामंत्री लक्ष्मण भी नहीं दे सकते थे,फलतः बिना युद्ध लड़े ही उन्होंने आत्म-समर्पण कर दिया और इस प्रकार लव-कुश विजयी हुये एवं राम को पराजय स्वीकार करनी पडी.  जब महर्षि वाल्मीकि ने लव-कुश का सम्पूर्ण परिचय दिया तो राम भविष्य में वेद -सम्मत लोकतांत्रिक पद्धति से शासन चलाने पर सहमत हो गये तथा लव-कुश को अपने साथ ही ले गये.परन्तु सीता ने विद्रोह क़े पश्चात पुनः राम क़े साथ लौट चलने का आग्रह स्वीकार करना उपयुक्त न समझा क्योंकि वह पति की पराजय भी न चाहतीं थीं.अतः उन्होंने भूमिगत परमाणु विस्फोट क़े जरिये स्वंय की इह-लीला ही समाप्त कर दी.सीता वीरांगना थीं उन्हें राजा राम ने निष्कासित नहीं किया था उन्होंने वेद-शास्त्रों की रक्षा हेतु स्वंय ही विद्रोह किया था जिसका उद्देश्य मानव-मात्र का कल्याण था.अन्ततः राम ने भी सीता क़े दृष्टिकोण को ही सत्य माना और स्वीकार तथा अंगीकार किया.अतः सीता का विद्रोह सार्थक और सफल रहा जिसने राम की मर्यादा की ही रक्षा की

http://krantiswar.blogspot.in/2011/02/blog-post_19.html

Link to this post-



रविवार, 29 मार्च 2015

ज्योतिष पर अविश्वास से विश्वास करने तक का सफर --- विजय राजबली माथुर

बाबू जी ने भुआ के कहने पर उनके किसी जानकार को हम सब कि,जन्मपत्रियाँ दिखाई होंगी। उन सज्जन ने मेरी जन्मपत्री देख कर कहा था कि यह बालक अपने पिता को 11 वर्ष की अवस्था मे गद्दी पर बैठा देगा। जब मैं 11वे वर्ष मे चल रहा था चीनी आक्रमण के दौरान  नवंबर 1962 मे बाबूजी का तबादला नान फेमिली स्टेशन-सिलीगुड़ी हो गया था। परिवार दो स्थानों पर रहने को बाध्य था अतः उस समय से मेरे मन मे ज्योतिष और ज्योतिषियों के प्रति काफी 'कटु' नफरत थी। बड़ों के साथ-साथ मंदिर जाना मजबूरी थी परंतु मन मे मुझे वह 'ढोंग' नापसंद था। इसका एक कारण तो पाँच वर्ष की अवस्था मे लखनऊ के अलीगंज मंदिर मे भीड़-भड़क्का के बीच कुचलते-कुचलते बचने की घटना थी और दूसरे मूर्तियों के दलाल -पंडितों का दुर्व्यवहार।वृन्दावन के बाँके बिहारी मंदिर से दर्शन करके लौटते ही बाबूजी का तबादला सिलीगुड़ी होने की सूचना मिली थी। यह भी मंदिरों के 'भगवानवाद' पर अविश्वास का प्रबल कारण था।
http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/09/blog-post_10.html


जून 1975 मे एमर्जेंसी के दौरान मेरठ की नौकरी छूटने के बाद सितंबर 1975 मे  आगरा मे होटल मुगल मे दूसरी नौकरी मिल गई थी। 14 सितंबर को लिखित 'टेस्ट' हुआ था जिसमे 20 प्रतिभागी शामिल हुये थे और उनमे से हम चार लोगों का 20 सितंबर को साक्षात्कार हुआ था। साक्षात्कार मे मेरे अतिरिक्त सुदीप्तों मित्रा,विनोद श्रीवास्तव और कोई सक्सेना साहब शामिल थे। मेरे और मित्रा के नियुक्त हो जाने के बाद विनोद श्रीवास्तव यूं ही हम लोगों से मिलने आते रहते थे। अतः उन से हमदर्दी हो गई थी। मेन कंट्रेक्टर लूथरा साहब ने अपने आफिस के लिए विश्वस्त लेखा सहायक बताने को मुझसे कहा और मैंने विनोद श्रीवास्तव का नाम सुझा दिया और वह वहाँ नियुक्त हो गए। इस प्रकार प्रतिदिन अनेकों बार हम लोग परस्पर संपर्क मे रहते थे।


लूथरा साहब के एक विश्वस्त सुपरवाईजर थे-अमर सिंह जी जो बार्डर सिक्योरिटी फोर्स के रिटायर्ड़ सब इंस्पेक्टर थे। वह हस्तरेखा एवं ज्योतिष मे पारंगत थे। विनोद उनसे सलाह मशविरा करते रहते थे। चूंकि मैं तब ज्योतिष का घोर विरोधी था अतः मैं विनोद की इस बात के लिए कड़ी आलोचना करता था। एक दिन सुदीप्तों और विनोद ने ज़बरदस्ती मेरा हाथ अमर सिंह जी को देखने का आग्रह किया जो कुछ उन्होने बताया पिछला सही था । अगले के बारे मे उन्होने कहा कि अधिक से अधिक  कुल 15 वर्ष नौकरी करोगे बाकी 'दिमाग से खाओगे'। 26 वर्ष की उम्र मे अपने मकान मे पहुँच जाओगे और 43 वर्ष की उम्र मे उसके मालिक बन जाओगे 48 वर्ष की उम्र मे 'राजदूत स्तर' का दर्जा मिलेगा।उस समय मुझे रु 275/-मासिक वेतन मिलता था बचत कुछ न थी ,रिश्वत/कमीशन लेता न था मकान कहाँ से बनेगा  मुझे यह सब  हास्यास्पद लगा था और मैंने अपना ऐतराज भी उनको जता दिया था,जिस पर हँसते हुये उन्होने कहा था कि आज तुम मुझ पर हंस रहे हो आने वाले समय मे तुम खुद ही सबको उनका भविष्य समझाओगे। प्रोजेक्ट पूर्ण होने पर कंट्रेक्टर के साथ अमर सिंह जी दिल्ली चले गए। लूथरा साहब ने 'अमर सिंह पामिस्ट एंड एस्ट्रोलाजर' नाम से उनका आफिस खुलवा दिया और अपना परामर्शदाता बना कर अपने निवास पर ही उनको रहने का स्थान प्रदान कर दिया।

सुदीपतो मित्रा कहीं से कुछ ज्योतिष की किताबें लेकर आए और मुझे पढ़ने को दी ,चूंकि किताबें पढ़ने का तो मैं शौकीन था हीं सबको पढ़ा एवं कुछ खास-खास बातों को नकल उतार कर अपने पास लिपिबद्ध कर लिया। बाद मे हरीश छाबरा ने भी कुछ हस्तरेखा व अंक शास्त्र की पुस्तकें पढ़ने को दीं उनसे भी कुछ-कुछ लिख कर रख लिया। प्रकट मे ज्योतिष का विरोध जारी रखते हुये अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकलता रहता था। 1970 मे मेरठ मे  साईकिल से मेरा एक्सीडेंट मेरी ही गलती से हुआ था किन्तु चोट ज़्यादा मोटर साईकिल सवार को लगी थी। नवभारत टाईम्स मे रत्न लाल शास्त्री'रतनामबर' ने उस दिन के भविष्य फल मे बाबूजी को आर्थिक हानी बताई थी और मेरा ठीक था। गलती होते हुये भी मुझे कम चोट लगी थी। साईकिल टूटी थी और आटा सड़क पर आधा बिखर गया था। अर्थात बाबूजी को आर्थिक हानि  तो हुई ही थी इससे इंकार नहीं किया जा सकता था। किन्तु ऊपर से मैंने ज्योतिष का विरोध जारी रखते हुये अब इसके निष्कर्षों पर निगाह रखनी शुरू कर दी थी। अतः 1977 मे चुनावों की घोषणा होते ही मैंने मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने की घोषणा करके अपने निष्कर्ष को सार्वजनिक कर दिया था। मेरा खूब मखौल उड़ाया गया जो लोग यह मानते भी थे कि इन्दिरा जी सत्ता मे न आ सकेंगी उनका आंकलन बाबू जगजीवन राम के प्रधानमंत्री बनने का था। आगरा से सेठ अचल सिंह के हारने  पर राय बरेली से इन्दिरा जी के हारने की भी घोषणा मैंने कर रखी थी। सभी बातें हास्यास्पद थीं जो कि चुनावों के बाद मेरे आंकलन को सही सिद्ध कर गई।
http://vidrohiswar.blogspot.in/2011/04/blog-post.html
--
1972 से 75 तक तीन वर्षों मे रु 3000/- मेरठ मे वेतन से बचा कर उसी फर्म मे एफ डी कर रखे थे। सेवा समाप्ती के बाद वे रिफ़ंड नहीं भेज रहे थे। बाबूजी के एक सहकर्मी आगरा मे 'कंचन डेरी' नाम से व्यवसाय करते थे उन्होने सलाह दी कि उनको लीगल नोटिस भेज दो । अपने मित्र वकील साहब से उनका लेटर हेड लाकर उन्होने दिया और उस पर मैंने सुदीप्तों मित्रा से अपनी भाषा लिखवाकर रेजिस्टर्ड डाक से भेज दिया। इधर उसी वर्ष   1976 मे हमारे एक साथी आवास-विकास का मकान के लिए फार्म भर रहे थे मुझ पर भी फार्म भरने का दबाव बनाया। मैंने फार्म तो भर दिया परंतु लीगल नोटिस के जवाब मे वहाँ से दो चेक दिल्ली बैंक पर बना कर वहाँ से भेजे गए थे जिंनका कैश मिलने पर ही ड्राफ्ट बनवा सकता था। इत्तिफ़ाक से 25 मार्च 1977 को जब मोरारजी देसाई दिल्ली के रामलीला मैदान में नई सरकार की  स्थापना के बाद सभा कर रहे थे मैं आगरा कैंट सेंट्रल बैंक से तीन हज़ार का ड्राफ्ट हाउसिंग बोर्ड के नाम बनवा रहा था।

http://vidrohiswar.blogspot.in/2011/04/blog-post_27.html

 11 माह बाद लखनऊ से मुझे सूचना मिली कि पहली किश्त जमा कर दूँ तो ठीक वरना एलाटमेंट केनसिल हो जाएगा। तब तक वेतन बढ़ कर रु 500/- हो चुका था अतः रु 290/- की मासिक किश्त भरने की दिक्कत न हुई। 1978 मे जब मुझे मकान का पज़ेशन मिला उम्र 26 वर्ष हो गई थी। तब एस्ट्रोलाजर अमर सिंह जी की बात सच साबित होने का  यह प्रमाण था। ठेकेदार के किसी काम से जब वह होटल मुगल आए थे तब उनसे मिल कर मैंने उनकी बात प्रमाणित होने की सूचना दे दी थी। 15 वर्षों की किश्तें पूरी होने के बाद रिश्वत न देने के कारण रेजिस्ट्रेशन मे व्यवधान रहा और अंततः राज्यपाल मोतीलाल बोरा जी से शिकायत करने के बाद ही 1994 मे 42 वर्ष उम्र पूरी करने के बाद ही मेरे नाम रेजिस्ट्रेशन हो सका जिससे अमर सिंह जी के आंकलन पूरी तरह सही सिद्ध हुये।

इसके बाद मैंने ज्योतिष अध्ययन पूरी तल्लीनता से किया लेकिन अब  छिट्ट-पुट्ट बातें विश्वस्त लोगों को बताने भी लगा था। सफलता से इस क्षेत्र मे आगे बढ्ने का उत्साह भी बंनता चला गया। नौकरी के साथ-साथ लोगों को निशुल्क परामर्श देना भी शुरू कर दिया और सन2000 ई .मे नौकरी बिलकुल छोड़ कर 'ज्योतिष' को ही आजीविका बना लिया। ईमानदारी पर चलने और ढोंग-पाखंड का प्रबल विरोध करने के कारण आर्थिक लाभ तो न हुआ। किन्तु मान-सम्मान ज़रूर बढ़ा। इसी कारण पूना प्रवासी कुछ चिढ़ोकरे-एहसान फरामोश ब्लागर्स ने मेरे ज्योतिष ज्ञान को लक्ष्य करके 'ज्योतिष एक मीठा जहर' सरीखे आलेख भी IBN7 के नुमाईन्दे से लिखवाये।

हमारे वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेताओं ने भी खुद को एथीस्ट कहते हुये भी मुझसे ज्योतिषीय परामर्श लिए हैं लेकिन तुर्रा यह कि वे भी मेरी सिर्फ आलोचना ही नहीं करते हैं बल्कि मुझे नुकसान पहुंचाने का हर संभव प्रयत्न  करते रहते हैं। यही हाल सभी रिशतेदारों का है चाहे वे माता-पिता की पुत्री व अलीगढ़ के मूल निवासी  दामाद हों तथा  उनके उकसाये हुये  सीतापुर के मूल निवासी कुक्कू एवं  शरद मोहन । इसी कड़ी में आरा व देवघर निवासी वे लोग भी जुड़ गए हैं जिनके परिवारी लोगों की जन्मपत्रियों के विश्लेषण किए हैं। ये सब लोग न तो इतनी शर्म रखते हैं कि अपना काम जिससे करवाया है कम से कम उसका एहसान न भी मानें तो उसका नुकसान तो न करें। बल्कि वे लोग मेरे पुत्र व पत्नी को भी नुकसान पहुंचाने की कोशिशों में लगे रहते हैं। परंतु जैसा कि नवंबर 2013 में  SGPGI,लखनऊ में देवघर वाले महाशय ने रोग शैय्या से कहा था कि आप खुद तो अपना बचाव अपने ज्योतिषीय ज्ञान से कर ही लेंगे! वस्तुतः उनका कथन सत्य ही है। किन्तु वह व उनकी पत्नी खुद ही अपने भतीजे व भतीजी के विरुद्ध अपनी एक भाभी से मिल कर ऐसे अभियान में शामिल रहे हैं । उनकी एक भतीजी जो मेरी श्रीमती जी हैं से उनकी पत्नि ने तब कहा भी  था कि वे अपने भाई-भाभी व भतीजियों का ख्याल न करें अर्थात उनका अहित होने दें। तिस पर भी खूबी यह रही कि आगाह किए जाने के बावजूद  श्रीमतीजी के भाई-भाभी अपनी उन चाचियों के अनुगामी बने रह कर हाल ही में अपना शारीरिक,मानसिक,आर्थिक ज़बरदस्त नुकसान करा चुके हैं लेकिन उनसे सावधान रहने को तैयार नहीं हैं।जहां तक हमारा प्रश्न है हम एक हद से ज़्यादा नुकसान झेलने की स्थिति में नहीं होते हैं और अपने को ऐसे लोगों से अलग-थलग कर लेते हैं चाहे वे किसी भी क्षेत्र के हों। मेरी श्रीमती जी तथा पुत्र को भी 'ज्योतिष' का प्रारम्भिक ज्ञान तो है ही बाकी पुस्तकाध्यन से विकसित कर सकते हैं। हमें अपने बारे में अच्छा सोचने व अच्छा करने का नैतिक हक है चाहे जो कोई जो सोचे व करे। 

Link to this post-



शुक्रवार, 27 मार्च 2015

नानाजी : डॉ राधे मोहन लाल माथुर साहब का स्मरण आज क्यों? --- विजय राजबली माथुर

**********************************************************************************
नानाजी की पुण्य तिथि - 27 मार्च पर स्मरण- श्रद्धांजली :
( बाएँ से नानाजी के भाई एवं  नानाजी - डॉ राधे मोहन लाल माथुर )
( बाएँ से मामाजी -डॉ कृपा शंकर माथुर, पूर्व विभाध्यक्ष एनथ्रोपालोजी, लखनऊ विश्व विद्यालय एवं नानीजी )

हमारे नानाजी को यह संसार छोड़े हुये आज 36 वर्ष पूर्ण हो गए हैं यों तो उनके संबंध में विचार इसी ब्लाग में अलग-अलग कई बार आ  भी चुके  हैं  किन्तु पुनः कुछ खास-खास बातों का  एक साथ उल्लेख करना उचित प्रतीत हो रहा है। नानाजी वैसे तो मुरादाबाद के थे किन्तु उनके पिताजी श्याम सुंदर लाल माथुर साहब नौकरी के सिलसिले में शाहजहाँपुर आ गए थे अतः उनके बाद नानाजी ने अपने दो अन्य भाइयों की भांति भारद्वाज कालोनी, शाहजहाँपुर में मकान बना लिया था जो अगल-बगल ही हैं। चित्र में नानाजी के चौथे  भाई हैं उनका मकान ठीक नानाजी के बाद है और उनसे मिला हुआ उनके सबसे छोटे भाई का है। उनके दो भाई इन लोगों के साथ ही रहते थे। बचपन में दो बार नानाजी के यहाँ रह कर पढ़ना पड़ा है पहली बार 1962 - 64 में तब जब बाबूजी का ट्रांसफर नान फेमिली स्टेशन- सिलीगुड़ी हो गया था और दूसरी बार 1967 -68 में जब सिलीगुड़ी से लौटना तय हो गया था लेकिन स्टेशन घोषित नहीं हुआ था। इससे भी छुटपन में लखनऊ से शाहजहाँपुर नानाजी के पास जाते ही रहते थे।

*जब हम लोग लखनऊ में हुसैन गंज में थे 1957 में  बाबूजी का वोट न्यू हैदराबाद में पड़ना था वहाँ नानाजी/मामाजी के घर गए थे । उनके घर के सामने ही वोट पड़े थे तब हर उम्मीदवार का अलग-अलग बाक्स होता था, जिसके बाक्स से मतपत्र निकलते  उसके नाम गिने जाते थे। नानाजी की भी  ड्यूटी लगी थी । शाम को लौट कर नानाजी ने बाबूजी को बताया था और मुझे आज भी याद है- दो बैलों की जोड़ी वाले बाक्स में कुछ मतपत्र ऊपर फंसे दीख रहे थे जिनको नानाजी ने बाक्स के भीतर करना चाहा तो उनके साथ के दूसरे महोदय ने उनसे कहा ऐसा न करो और उन्होने बाहर फंसे सारे मतपत्र खींच कर 'लाल' रंग के  हंसिया-बाली वाले बाक्स में डाल दिये - निश्चय ही वह कर्मचारी कम्युनिस्ट पार्टी की ओर झुकाव रखते होंगे। आज जब पुड्डीचेरी में भाकपा का 22 वां राष्ट्रीय अधिवेन्शन चल रहा है नानाजी की पुण्यतिथि पर यह घटना याद आ रही है।
*चूंकि नवंबर 1962 में बाबूजी के सिलीगुड़ी जाने पर किसी भी स्कूल में शाहजहाँपुर में हम लोगों का दाखिला नहीं हो रहा था नानाजी ने कभी उनके पिताजी के जमाने में उनके घर खाना बनाने वाली मिश्राईंन के बड़े सुपुत्र (जो वाराणासी में उच्चाधिकारी थे ) द्वारा खोले गए विश्वनाथ जूनियर हाई-स्कूल के लिए उनके ही छोटे भाई जो तब कपड़ों की दुकान चलाते थे से बात की जिनहोने तुरंत अपने स्कूल मेनेजर  - काशीनाथ वैद्य जी को हम दोनों भाइयों को दाखिला दिलाने के लिए कहा जिनहोने प्राचार्य शर्मा जी (जो सरदार पटेल हिन्दू इंटर कालेज के रिटायर्ड़ प्रिंसिपल थे ) से कह दिया। उस वक्त तक लोग-बाग पुराने सम्बन्धों की भारी कद्र करते थे जिस कारण हम लोगों का एक वर्ष खराब होने से बच सका।
*इसी प्रकार सितंबर 1967 में भी सत्र चालू हो चुकने के कारण हम भाई-बहन का दाखिला करने में दिक्कत आ रही थी। नानाजी के इन चौथे  भाई के एक मित्र थे तिनकू  लाल वर्मा जी जो 'आर्य कन्या पाठशाला', के मेनेजर थे जिनसे नाना जी ने बात करके बहन को वहाँ दाखिल करा दिया। लेकिन छोटे भाई को नौवें में तथा मुझे इंटर पार्ट वन में प्रवेश लेना था जिस कारण दिक्कत थी। सरदार पटेल कालेज के वाईस प्रिंसिपल एक माथुर साहब के होते हुये भी प्रिंसिपल टंडन जी ने स्पष्ट इंकार कर दिया था।
 नानाजी ने अंततः गांधी फैजाम कालेज के प्रिंसिपल चौधरी मोहम्मद वसी साहब से संपर्क किया और उन्होने बिना किसी जान-पहचान के भी मुझे मेरे पसंद के विषयों के साथ दाखिला दे दिया। नानाजी के तीसरे भाई जिनको हम लोग बंबई वाले नानाजी कहते थे के एक सह-पाठी माशूक अली साहब जो  नगर पालिका के पूर्व चेयरमेन छोटे खाँ साहब के  खानदानी थे और हमें इतिहास पढ़ाते थे अक्सर बंबई वाले नानाजी को सलाम बोलने को कहते थे उसी प्रकार वह भी प्रोफेसर साहब को सलाम बोलने को कहते थे। 
छोटे भाई का दाखिला चौक स्थित मिशन स्कूल में  नाना जी ने करा दिया था - यह वही स्कूल था जिसमें क्रांतिकारी राम प्रसाद 'बिस्मिल' जी भी पढे थे ।  
* नानाजी टाउन हाल में होने वाले हर दल के नेता का भाषण सुनने जाते रहते थे मुझे भी ले जाते थे। डॉ राम मनोहर लोहिया, कामरेड एस एम बनर्जी, शेख अब्दुल्ला, सुचेता कृपलानी आदि को पहले चरण में 1964 तक 12 वर्ष की अवस्था में सुन चुके थे; नानाजी के पास उपलब्ध सत्यार्थ प्रकाश, महाभारत, गीता आदि पढ़ चुके थे। रामचरित मानस तो लखनऊ में ही नौ वर्ष की अवस्था तक माँ ने पढ़ने को दी थी । दूसरे चरण में 15 वर्ष  की अवस्था में संत श्याम जी पाराशर  के प्रवचन सुनने नाना जी के साथ गए हैं और उनकी पुस्तकों का अवलोकन किया है। 
* 1973 में मेरठ में प्रथम जाब करते हुये भी एल आई सी की एक परीक्षा देने लखनऊ  मामाजी के पास आया था और लौटते में शाहजहाँपुर होकर नानाजी से मिलने गया था ।  यूनिवर्सिटी की बादशाहबाग कालोनी से आई टी कालेज तक मामाजी व माईंजी भी पैदल ही  मुझे बस तक छोडने आए थे। उस वक्त सिटी बस में चारबाग तक के कुल पचास पैसे लगे थे। लखनऊ मेल रात को साढ़े बारह बजे  पहुंचता था और पटरी के सहारे ही चल कर मैं नानाजी के घर एक बजे पहुँच पाया था। नानाजी ने मेरी आवाज़ सुन कर दरवाजा खोल दिया था किन्तु बगल वाले घर से बंबई वाले नाना जी ने पूंछा कि आधी रात को दरवाजा क्यों खोल दिया? तब नानाजी ने तत्काल मेरा घर का नाम लेकर कहा कि मुझे लेने आया है। अतः मैं फिर वाकई नाना जी को अपने साथ मेरठ ले गया था जबकि माँ को ताज्जुब हुआ क्योंकि पहले से उनको पता न था तब फोन का ज़माना नहीं था। सीधी गाड़ी भी तब न थी- बरेली व हापुड़ में पेसेंजर ट्रेन  बदलते हुये मेरठ सिटी फिर वहाँ से कैंट स्थित मिलेटरी क्वार्टर पहुंचे थे। क्वार्टर के सामने ही लाईन पार करते ही वह फैक्टरी थी जिसमें मैं जाब करता था। घर के इतने नजदीक ड्यूटी करते मुझे देख कर नानाजी को अत्यधिक प्रसन्नता हुई थी।
* 1974 में नानाजी के( चित्र में साथ वाले ) भाई की दूसरी बेटी -कमल मौसी की शादी में भाग लेने शाहजहाँपुर नानाजी के पास गया था । उसके बाद मेरा शाहजहाँपुर जाना नहीं हुआ है और नानाजी भी फिर न ही मेरठ न ही आगरा पहुँच पाये थे। 
* 1977 में मामाजी के असामयिक निधन के बाद जब लखनऊ आए थे तब ही वह नानाजी से भी अंतिम भेंट थी। क्योंकि मामाजी (उनसे भी पूर्व मौसी भी नहीं रही थीं ) के बाद नानाजी अत्यधिक बीमार रहने लगे थे व काफी कमजोर हो गए थे। वह मोतियाबिंद का आपरेशन कराना चाहते थे मैंने भी और मौसेरे भाई तथा माईंजी ने भी उनको आपरेशन न कराने को कहा था। किन्तु नाना जी ने अक्तूबर 1978 में शाहजहाँपुर में आँखों का आपरेशन करा ही लिया था। तबसे निरंतर उनकी तबीयत बिगड़ती गई। 27 मार्च 1979 को उन्होने यह संसार छोड़ दिया। माँ-बाबूजी ही शाहजहाँपुर जा सके। मैं व भाई इसलिए न जा सके क्योंकि छोटी बहन आई हुई थीं व भांजी कुछ महीनों की ही थी । अतः बहन-भांजी के साथ हम भाइयों को आगरा में ही रहना पड़ा था। माँ ने बताया था कि नानाजी की अधिकांश किताबें देख-रेख के आभाव में दीमक ने खराब कर दी थीं। लखनऊ से पहुंची माईंजी को वे किताबें फेंकनी पड़ गईं थीं। माँ को माईंजी से उस दशा की किताबें मांगना उचित नहीं लगा था वरना वह मेरे किताबों के शौक के चलते मांग लातीं। 

* हालांकि अखबार व किताबें तो हमें बाबूजी भी लाकर देते रहते थे लेकिन नानाजी के पास उपलब्ध साहित्य के अध्यन  ने भी मेरे लेखन व विचार-धारा को प्रभावित किया है। माँ तो अक्सर यही कहती थीं कि यह ननसाल पर गया है।

Link to this post-



शुक्रवार, 20 मार्च 2015

'नेकी न कर ,दूरियाँ बढ़ा' --- विजय राजबली माथुर



 30-10-12 का नोट :
नेकी कर और दरिया मे बहा' -यह कहावत बचपन से सुनते आए हैं और अब तक इसके मतलब यह समझते थे कि,किसी की मदद करके उसे भूल जाओ एवं उससे बदले मे मदद की उम्मीद मत करो। लेकिन अब हकीकत मे किसी की मदद करने का मतलब हो गया है-तौहीन का सामना करना और नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना। केवल फेसबुक और ब्लाग जगत मे ही नहीं परिचितों और रिशतेदारों से भी।
किसी को नेत्र आपरेशन से बचाव हेतु 'केलकेरिया फ्लोर'6 X का 4 tds स
ेवन करने का सुझाव दिया ,किसी चिकित्सक से पूछ कर 'मुलेठी'और 'निर्मल सुपारी' पार्सल से भिजवाई किन्तु उस मरीज ने इंनका उपयोग नहीं किया। एक सरकारी अफसर की पत्नी होने के कारण अस्पताल मे आपरेशन कराना 'स्टैंडर्ड' जो था । आपरेशन मे जो तकलीफ और खर्चा हुआ उसी से तो समाज मे बड़े आदमी होने का आभास जो दिलाया जा सकता था।
आज के युग मे 'नेकी न कर ,दूरियाँ बढ़ा' कहावत गढ़ कर उस पर अमल करने की ज़रूरत महसूस होती है।
30 अक्तूबर 2012 को यह नोट लिखा था उसके बाद 25 जनवरी 2015 को निम्न संदर्भित पोस्ट के माध्यम से उसका और खुलासा करना पड़ा था। 
http://vidrohiswar.blogspot.in/2015/01/blog-post_25.html
परंतु इस रिश्तेदार के रिश्तेदारों के माध्यम से  समझाने की तमाम कोशिशों के बावजूद बचाव को न प्रस्तुत हुये। एक बीमारी के इलाज को कई बीमारियों तक बढ़ाने में उनकी जिन चाचियो/चचिया सासों का योगदान रहा उनके ही चंगुल में फंसे चल कर स्वास्थ्य व धन की काफी बरबादी कर ली फिर भी ठोकर खा कर भी सुधार की कोई संभावना नहीं दिखाई देती है। प्रत्येक को अपनी व अपने परिवार के हितों की रक्षा प्राथमिकता के आधार पर करनी चाहिए और यही सलाह इन लोगों को 1996 से सार्वजनिक रूप से देते आए हैं। लेकिन चूंकि इनके चचेरे भाइयों को अपने घर इसलिए नहीं पहुँचने दिया कि उनकी माताओं की भूमिका घातक रही है। अतः इन लोगों ने अपनी मदद हेतु भी अपने घर हम लोगों को नहीं पहुँचने दिया।
हमें तो विपरीत परिस्थितियों से जूझना ही पड़ता है अतः किसी भी प्रकार के प्रतिरोध का सामना करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहते हैं। परंतु इन लोगों के व्यवहार से  सीख यह मिलती है कि आज के जमाने में किसी के भले के लिए सोचना व आगाह करना गुनाह है और उससे बचना चाहिए।

Link to this post-



+Get Now!