शुक्रवार, 30 मार्च 2012

आगरा/1994 -95 / (भाग-5 )

हमारी बउआ को बाँके बिहारी मंदिर,वृन्दावन पर अत्यधिक आस्था व विश्वास था। हालांकि 1962 मे उन्होने बाबूजी को अपने पास से (नानाजी -मामाजी से मिले पैसे) देकर वृन्दावन जाने को कहा था और एक हफ्ते मे वहाँ से लौटते मे घर के करीब पहुँचते -पहुँचते बाबू जी के दफ्तर के किसी साथी ने रिक्शा रुकवा कर  सूचना दी कि बाबूजी का ट्रांसफर सिलीगुड़ी हो गया है। आफिस पहुँचते ही उन्हें रिलीव कर दिया जाएगा। पाँच वर्ष वहाँ रहने के दौरान ही ईस्टर्न कमांड अलग बन गया और वापिस सेंट्रल कमांड मे ट्रांसफर मुश्किल था। कानपुर से निर्वाचित भाकपा समर्थित निर्दलीय सांसद कामरेड एस एम बेनर्जी के अथक प्रयासों से मूल रूप से सेंट्रल कमांड से गए लोग वापिस आ सके थे तब बाबूजी मेरठ आए थे।

1984 अप्रैल मे जब यशवन्त लगभग साढ़े चार माह का था बउआ की इच्छा पर हम लोग वृन्दावन -बाँके बिहारी मंदिर गए थे। वहाँ बाबूजी ने रु 10/- देकर यशवन्त को गोसाईञ्जी के माध्यम से मुख्य मूर्ती के द्वार पर मत्था टेकने भेज दिया था। लौट के आने के दो दिन के अंदर मुझे फर्जी इल्जाम लगा कर होटल मुगल से सस्पेंड कर दिया गया था -यूनियन प्रेसीडेंट को मेनेजमेंट ने पहले ही अपनी ओर मिला लिया होगा।

अतः जब बीमारी चलते के बीच ही शालिनी ने वृन्दावन-बाँके बिहारी मंदिर जाने की इच्छा व्यक्त की तो मै जाने का इच्छुक नहीं था। परंतु शालिनी ने बउआ से समर्थन करा दिया तो अनिच्छापूर्वक इतवार को जाने का फैसला करना पड़ा। इस खातिर शनिवार 11 जून को हेयर कटिंग भी कराना पड़ा। 12 जून इतवार को सुबह 08 बजे वाली पेसेंजर ट्रेन से मथुरा जाकर वहाँ से टेम्पो के माध्यम से वृन्दावन गए। अक्सर बस से लौट लेते थे किन्तु शालिनी ने इसलिए ट्रेन से लौटने पर ज़ोर दिया कि कुछ देर राजा-की-मंडी क्वार्टर पर अपनी माँ से मिल लेंगी और वह सुबह ही शरद मोहन को कह चुकी थीं। कोई एक्स्प्रेस ट्रेन पकड़ कर चले तो किन्तु जेनरल कोच मे जगह न थी। मै और यशवन्त तो खड़े-खड़े ही आए किन्तु शालिनी खड़े न रह पाने के कारण फर्श पर बैठ कर आईं ,किसी ने सीट पर थोड़ी भी जगह बैठने को न दी।

तीन बजे के करीब राजा -की -मंडी क्वार्टर पर पहुंचे। संगीता ने दाल-चावल बना कर रखे थे। मैंने और यशवन्त ने वह खाना नहीं खाया और केवल चाय ही पी। किन्तु शालिनी ने अपनी माँ के कहने पर वह रखा हुआ ठंडा  दाल-चावल खा लिया। वहाँ से चलते-चलते ही उन्हें बुखार चढ़ गया था। 13 और 14 तारीख को मै ड्यूटी नहीं गया किन्तु 15 तारीख को शालिनी ने कहा कि कब तक छुट्टी हो पाएगी अतः मै ड्यूटी चला जाऊ । 16 तारीख,गुरुवार  को फिर मै ड्यूटी नहीं गया। दोपहर मे यशवन्त ने ब्रेड खाने से मना कर दिया तो शालिनी ने कहा वह परांठा नहीं बनाएँगी मुझे बना कर देने को कहा। मैंने यशवन्त को पराँठे खिला दिये तो वह संतुष्ट थीं और उसके खाने के बीच ही सो गई। सोते ही सोते उनका प्राणान्त हो गया था एक परिचित डॉ को बुलवाया तो वह बोले अब दम है ही नहीं अस्पताल ले जाना बेकार है।

अगल-बगल के लोगों की भी यही राय थी। उन लोगों ने राजा-की -मंडी सूचना देने को कहा। यशवन्त भी मेरे साथ मोपेड़ पर गया और घर पर बाबूजी व बउआ अकेले ही रह गए। उनके यहाँ सूचना देने के बाद अजय और डॉ शोभा को टेलीग्राम किए। शरद मोहन उस दिन गाजियाबाद जाने हेतु दिल्ली की ट्रेन से जा रहे थे,उनके ताउजी-बनवारी लाल साहब ने स्टेशन मास्टर से कह कर अगले स्टेशन जहां गाड़ी का स्टापेज था उन्हें वापिस आगरा लौटने का एनाउंसमेंट करवा दिया था। दिल्ली से आती ट्रेन को वहाँ के स्टेशन मास्टर ने रुकवा रखा था और उनसे मिल कर वह वापिस लौट लिए। जब वह घर पहुंचे तब उनकी माँ और पत्नी उनके साथ काफी रात मे हमारे घर आए और थोड़ी देर रुक कर सुबह आने को कह कर चले गए।


17 तारीख ,शुक्रवार की सुबह अर्जुन नगर रानी मौसी के यहाँ कहने गए तो भी यशवन्त मेरे साथ ही गया। उन्होने अपने भांजे नवीन जो यूनीवर्सिटी मे जाब करता था से भी बताने को कहा बाद मे वह उसी के साथ स्कूटर से आई थीं।कमला नगर मे ही रहने वाले आर सी माथुर एवं आर पी माथुर साहब के घर भी सूचना देने यशवन्त मेरे साथ-साथ गया था। 17 तारीख को सुबह वह उनकी माँ,पत्नी,ताउजी और उनके स्टाफ के आठ-दस लोग भी आ गए थे। कालोनी के कुछ लोग ,डॉ रामनाथ भी घाट तक गए थे। यशवन्त तो हर पल मेरे ही साथ था वह भी घाट जाना चाह रहा था तो बाबूजी ने चलने को कह दिया और उसे भी ले चले। बउआ नहीं चाह रही थीं कि साढ़े दस वर्ष का बच्चा घाट जाकर सब देखे। घाट तक तो यशवन्त शांत शांत रहा परंतु फिर वहाँ फूट-फूट कर जो रोया सो कई दिनों तक रोता ही रहा।घर लौट कर शरद मोहन ने यशवन्त से कहा था कि हम कल फिर आएंगे और आते रहेंगे जबकि आए फिर 06 वर्ष बाद सन2000मे।  बउआ का दृष्टिकोण था कि रोने से सदमा नहीं लगेगा अतः रोना ठीक है। बहर हाल किसी प्रकार उसे उसे समझा कर सम्हाल लिया।

17 जून की शाम को मुज्जफर नगर से आए कृष्ण मोहन उर्फ 'कूकू'उनकी पत्नी मधू अर्थात कमलेश बाबू की भतीजी और झांसी से आए सीमा और उनके पति योगेन्द्र हमारे घर आए। सब के बच्चे राजा-की-मंडी क्वार्टर पर थे। उन लोगों के सामने ही फरीदाबाद से अजय उनकी पत्नी और पुत्री अनुमिता भी पहुँच गए। सीमा लौटते समय यशवन्त को मौसी होने के नाते समझा रही थीं कि अब से पापा को ही मम्मी भी समझना और उनका व अपना ख्याल रखना । कुक्कू और मधू तो योगेन्द्र के साथ गेट से बाहर निकल चुके थे। योगेन्द्र बड़ी ज़ोर से  चिल्ला कर बोले सीमा जल्दी चलो देर हो रही है अतः हड्बड़ा कर सीमा को भागना पड़ा।

झांसी मे शायद कमलेश बाबू को टेलीग्राम नहीं मिला होगा। उनके पिताजी सरदार बिहारी माथुर साहब बाबूजी का पत्र मिलने के बाद जब आए तो उन्होने पूंछा कि विपिन नहीं आए क्या?विपिन उनका घर का नाम है। बाबूजी ने कहा छुट्टी नहीं मिली होगी इसलिए नहीं आ पाये होंगे। अलीगढ़ लौट कर उन्होने किसी प्रकार टेलीफोन पर उन्हें आगरा जाने को कहा। डॉ शोभा और उनके पति तब आए और दो दिन रुक कर लौट गए। डॉ शोभा ने शायद बउआ से यशवन्त को हस्तगत करने की बात की होगी। बउआ व बाबूजी ने मुझे कुछ नहीं बताया परंतु अजय को उनका दृष्टिकोण बताया होगा। अजय की श्रीमतीजी ने बउआ को मना किया कि वह डॉ शोभा के सुपुर्द बच्चे को न करें। मुझे इन सब बातों का पता बउआ ने जब दिया तब उसके हफ्ते भर के अंदर बाबूजी और उसके बारह दिन बाद बउआ भी न रहीं।

क्रमशः ..... 

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मंगलवार, 27 मार्च 2012

आगरा/1994 -95 / (भाग-4 )

उस वक्त सपा,आगरा के नगर अध्यक्ष कर्तार सिंह भारतीय,एडवोकेट थे। बालूगंज स्थित उनके निवास का उनका वकालतखाना (वकालत का कार्यालय) ही सपा का नगर कार्यालय था। उस वक्त के नगर महामंत्री अख्तर हुसैन रिजवी साहब ने मुझ से कहा था कि कभी-कभी वहाँ भी आ जाया करूँ ,वैसे उनसे तो न्यू आगरा मे मजार स्थित उनके निवास पर मिल लेता था। एक दिन भारतीय जी के आफिस से किसी और को कोई पत्र लेकर मेरे साथ मोपेड़ पर रिजवी साहब ने ही रवी प्रकाश अगरवाल जी के पास भेजा था तभी परिचय होने पर उन्होने यह आफ़र किया था क्योंकि वह और मै दोनों ही कमला नगर कालोनी मे थे अतः घर के नजदीक जाब का प्रलोभन भी दिखाया था। उनके पिताजी उस समय फीरोजाबाद आर्यसमाज के प्रधान थे। रवी प्रकाश जी ने अपना व्यापार वहाँ से आगरा शिफ्ट किया था,उनका कहना था कम्युनिस्ट लोग मेहनती और ईमानदार होते हैं इसलिए उन्होने मुझे आफ़र किया था वरना वह बिना किसी मजबूत सिफ़ारिश के कोई कर्मचारी नहीं रखते हैं। बावजूद इसके कि हींग-की-मंडी की दुकानों मे संतोषजनक स्थिति न थी मैंने पार्टी नेता की नौकरी करना उचित न समझा ।

मेरे सपा मे होने के बावजूद कामरेड राम स्वरूप दीक्षित (जो अब आगरा मे भाकपा के जिला मंत्री हैं और 1992 मे बनने को तैयार न थे )अक्सर मुझ से मिलने घर पर आ जाते थे और मै भी उनके घर पर उनसे मिलता रहता था। हालांकि आगरा पूर्वी विधानसभा क्षेत्र के सपा के अध्यक्ष शिव नारायण सिंह कुशवाहा पहले मेरे साथ भाकपा मे ही थे उनकी सब्जी की दुकान पर न्यू आगरा मे उनसे भी मुलाक़ात होती रहती थी वह रिजवी साहब के बड़े भगत थे।

 छीपीटोला मे किसी जैन व्यापारी को राजस्थान पुलिस उसके घर से सीढ़ी लगा कर ऊपर चढ़ कर उठा ले गई थी। रिजवी साहब,शिव नारायण कुशवाहा  और भी  मै भारतीय जी के आफिस मे थे बाद मे रवी प्रकाश अग्रवाल साहब आए और बताया कि छीपीटोला चौराहे पर भाजपा ने जाम लगा दिया है और उनके विरोध मे कांग्रेस भी साथ दे रही है अतः हम लोग भी वहाँ चलें जिससे वह आंदोलन सपा सरकार विरोधी न हो सके। भारतीय जी ने और भी कार्यकर्ताओ को बुलवा लिया और चौराहे का आंदोलन सर्वदलीय हो गया। जनता की मांग राजस्थान पुलिस के विरुद्ध कार्यवाही की थी। IAS और IPS अफसर जब नेताओ को समझाने मे विफल रहे और व्यापारी नेता एवं भाजपा के राज कुमार सामा प्रदर्शन पर अडिग रहे तो सपा के व्यापारी नेता रवी प्रकाश अग्रवाल ने भी वही स्टैंड अपना लिया जिससे कि बाजी भाजपा के हाथ मे न चली जाये। एडवोकेट भारतीय जी की सलाह पर ए डी एम ,सिटी PCS अधिकारी बाबा हर देव सिंह (अब रालोद के प्रदेशाध्यक्ष) ने कमान सम्हाल ली ,एक ओर तो उन्होने मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी से वायरलेस पर संपर्क साधा दूसरी ओर भाजपा,सपा,कांग्रेस आदि विभिन्न पार्टियों के नेताओ से और अंत मे सब को मुख्यमंत्री से हुये फैसले की जानकारी देकर धरना-जाम आधे घंटे मे समाप्त करा दिया। बाद मे सपा के सभी लोग भारतीय जी के कार्यालय लौट आए जहां सेल्स टैक्स समाप्त कराने की घोषणा मुख्यमंत्री मुलायम सिंह द्वारा शीघ्र ही किए जाने की उन्होने सूचना दी। भाजपा के व्यापारियों की यह मुख्य मांग थी किन्तु अपने शासन मे उन्होने पूरी न की थी। इसका श्रेय भी आगरा मे रवी प्रकाश जी को मिला। 

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रविवार, 25 मार्च 2012

आगरा/1994 -95 / (भाग-3 )

भाकपा छोड़ कर सपा मे शामिल होना हींग की मंडी के दुकानदारो को अच्छा नहीं लगा क्योंकि वे सभी भाजपा के समर्थक थे और सपा को मुस्लिम समर्थक मानते थे ,भाकपा से उन्हे दिक्कत न थी क्योंकि रूस से व्यापार करने के कारण कम्युनिस्टो के वे संपर्क मे थे। मेरा होटल मुगल का केस जो मै मिश्रा जी की सलाह पर कामरेड जगदीश को सौंप (कामरेड हरीश आहूजा के भाकपा छोडने के बाद ) चुका था। चूंकि शालिनी की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी कभी फायदा दीखता था और कभी परेशानी हो जाती थी। मै दोबारा लखनऊ या बाराबंकी जाकर कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह अथवा कामरेड मित्र सेन यादव से न मिल सका अन्यथा उनके द्वारा मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी से लेबर कोर्ट मे कहला कर फैसला अपने पक्ष मे कराने को कहता। परंतु इसी भय से मिश्रा जी ने कामरेड जगदीश से कह कर लेबर कोर्ट के पीठासीन अधिकारी (जो रिटायर्ड IAS होते हैं )को कहला दिया कि वह मेरे श्रमिक प्रतिनिधि नही हैं। मुगल मेनेजमेंट से मिल कर इन लोगों ने यह जजमेंट लिखवा लिया कि "Petitioner is no more interested" और इस प्रकार होटल मुगल एक्स पार्टी केस जीत गया। थोड़े दिनो बाद  वह पीठासीन अधिकारी मेरठ स्थानांतरित हो गए उनके पुत्र को कोई गंभीर बीमारी भी ग्रस्त कर गई किन्तु मेरे केस को तो वह बिगाड़ ही गए। इन सब बातो का पता भी तुरंत न चल सका जो हाई कोर्ट मे अपील करता और न ही तब यह सोचने की फुर्सत थी। जैसे तैसे घर और दुकानों की नौकरी चलाना था। सपा मे पूर्ण सक्रिय भी न हो सका।

शायद बीमारी की वजह से ही शालिनी को इस वर्ष गर्मी ज्यादा सता रही थी। रसोई की खिड़की के शीशे तोड़ कर उनके स्थान पर जाली लगा दी थी 08 मई को । इससे पहले दिन सुबह शालिनी अपनी भाभी से मिलने गई थीं उनकी माँ और भाई को कहीं ज्यादा दिनो के लिए जाना था सीमा को छोडने को योगेन्द्र ने मना कर दिया था। शालिनी की माँ ने बड़ी ही बेशर्मी से मुझसे शालिनी को उनकी गैर हाजिरी मे छोडने को कहा जबकि वह एक बार भी शालिनी को देखने नहीं आई थी और न ही शरद आए थे। मैंने भी दो टूक कह दिया आप लोग शालिनी की बीमारी मे देखने भी नहीं आए,पहले मेरे द्वारा मदद करने पर मुझे आपने व आपके जेठ ने बेवकूफ करार दिया अतः  अब मै यहाँ शालिनी को  नही रहने दूंगा। तब बनवारी लाल भी कुछ दिनो के लिए प्रताप गढ़ गए थे शायद अपना सामान वहाँ से लाने को। खरी बात बुरी लाग्ने के कारण वह उठ कर बच्चो के साथ टी वी देखने चली गई। संगीता ने स्वीकार किया कि मेरा तर्क गलत नही था और अपनी मजबूरी शालिनी से बता कर कहा कि विजय बाबू को दूसरे-तीसरे दिन भेज कर हाल-चाल ले लें। अब मुझे भाकपा कार्यालय राजा-की-मंडी नही जाना होता था लिहाजा खास तौर पर वहीं आना होता। उनही के सामने शालिनी ने वायदा कर दिया और उनकी बीमारी के मद्दे नजर इस बात को अस्वीकार न कर सका। चूंकि अक्सर दुकानों से जल्दी उठ जाता था इसलिए काम अधिक होने पर कभी -कभी देर तक रुकना भी पड़ता था। जिस दिन शालिनी ने क्वार्टर होकर आने को कहा उसी दिन देर भी हो गई। पहले न जाने का विचार किया परंतु यह सोच कर कि शालिनी यह मतलब न निकाले कि मैंने वहाँ  जाने से बचने हेतु दुकानों पर ज्यादा समय लगा दिया,अंततः चला गया। दोनों लडकियाँ सो चुकी थीं।संगीता ने दरवाजा बाहर के कमरे की लाइट जलाए बगैर खोला था क्योंकि साड़ी के बगैर थीं। सीधे अंदर के बारामदे मे ले गई और चारपाई पर बैठा कर रसोई मे चाय बनाने लगीं यह कहने के बावजूद कि अब चाय का समय नही है।चाय लेकर जब आई तो सामने के वस्त्र भी खुल कर सिर्फ लटके थे तर्क था गर्मी बेहद है बिना कूलर के रहना मुश्किल है। मैंने कहा कि इसी कारण मै आपके यहाँ नहीं आना चाहता हूँ आपको सबके सामने गर्मी नहीं लगती सिर्फ अकेले मे लगती है। जवाब की जगह सिर्फ हँसती रहीं। चलने के समय बाहर के कमरे मे भी वैसे ही आई और बोलीं कि आप बाहर से बंद कर देंगे तब अंदर से सांकल कुंडी लगा लेंगे। घर पर जब शालिनी को बताया तो उन्होने सुन कर कोई प्रतिक्रिया न दी।इतवार के दिन दुकाने बंद रहती थीं अतः खुद शालिनी ने वहाँ चलने को कहा,मै पहुंचा कर घर वापिस लौट आया तो बउआ को भी आश्चर्य था कि तेज गर्मी मे क्यों भागा-दोड़ी की वहीं क्यों नही रुका,अब उनसे क्या कहता ?तीन बजे तक आने को शालिनी ने कहा था कि कम से कम शाम की चाय यहाँ पी लें अन्यथा उनकी भाभी को बुरा लगेगा। सवा तीन के करीब जब पहुंचे तो सब बच्चे अंदर सो रहे थे शालिनी ने दरवाजा खोला था वह और संगीता अंदर के बारामदे मे थे। संगीता पोशाक मे केवल पेटीकोट पहने थीं मैंने शालिनी से पूछा तुम्हारे लिए गर्मी नहीं है । उनका जवाब था गर्मी है लेकिन संगीता (उन्होने भाभी जी शब्द नहीं बोला )को पसंद है अकेले होने पर ऐसे रह लेती हैं सब के सामने तो मजबूरी है ।संगीता बोलीं जब योगेन्द्र बाबू झांसी (शायद किसी बच्चे के जन्म के समय जब सीमा अस्पताल मे थीं )ले गए थे तब वह तो ऐसे मौके तलाशते थे जब कपड़े बदलने हों और पूरा आनंद लेते थे,लेकिन आपको बुरा लगता है। नियम और मर्यादा के विरुद्ध हर बात मुझे बुरी ही लगती है,मैंने भी स्पष्ट कर दिया अतः  चाय के बाद संगीता ने वस्त्र धारण करके बच्चो को जगा कर नाश्ता कराया।

भाकपा से भले ही अलग हो गए थे और सपा मे सक्रिय भी ज्यादा न थे परंतु भाकपा जिला मंत्री के आग्रह पर उनकी फेकटरी मे उनसे मिलते रहते थे। उन्होने बताया कि मेरे हटने के बाद उन्हे ज्यादा परेशान किया जा रहा है और उनका पद पर टिके रहना असंभव होता जा रहा है। सरदार रणजीत सिंह जी के घर पर भी मिल लेते थे उन्होने भी भाकपा छोड़ दी थी वह बहुत खिन्न थे मिश्रा जी और जगदीश जी के व्यवहार से। वह भी मानते थे कि हरीश आहूजा साहब ने इनही दोनों के व्यवहार से खिन्न होकर भाकपा को अलविदा कहा था। सपा नेता रवी प्रकाश अग्रवाल जो शिव पाल सिंह जी के सहपाठी होने के कारण तब प्रभावशाली थे चाहते थे कि मै दो-तीन घंटे का पार्ट टाईम जाब तो बाहर कर लूँ लेकिन उनके यहाँ कुल रु 1200/- मे फूल टाईम ज्वाइन कर लूँ। यह बिलकुल असंभव था कि अपनी आमदनी को घटा लिया जाये हालांकि वह सपा मे कोई उच्च पद दिलाने बात कह रहे थे। उस उच्च पद से मुझे तो कमाई करनी नहीं थी सो मै पदों के लालच के फेर मे नहीं फंसा। 

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शुक्रवार, 23 मार्च 2012

आगरा/1994 -95 / (भाग-2 )

मार्च के महीने मे दुकानों मे अकाउंट्स का काम ज्यादा होता था अतः मै काफी समय से इसी बहाने राजा-की-मंडी क्वार्टर पर नही गया हालांकि पार्टी आफिस बराबर जाता रहा था। होली पर भी नही गया था बावजूद शालिनी के कहने के।तब  संगीता ने चिट्ठी भेज कर अपनी सास की तरफ से शालिनी से मिलने आने को कहा था। लिहाजा एक रोज सुबह छोड़ गया था और शाम को लेने गया था और उस रोज पार्टी आफिस की छुट्टी करनी पड़ी। चाय के बाद संगीता और शालिनी अंदर के बारामदे मे बाते कर रही थी मुझे भी वहाँ बुलवा लिया। संगीता ने अक्तूबर की बात अब शालिनी को बताई होगी अतः शालिनी बोली कि भाभी जी आपसे होली खेलना चाहती थी आप आए नहीं। अब आज उन्हे पावडर लगा कर होली मना दे।संगीता ने पावडर का डिब्बा शालिनी को पकड़ा कर अपना सीना खोल लिया और शालिनी ने पावडर छिड़क कर मुझसे रगड़ देने को कहा। मेरे यह कहने पर कि जरूरत पर दवा लगाने और पावडर लगाने मे फर्क है - शालिनी ने खुद ही उनके पावडर छिड़क दिया। शालिनी ने बताया कि नौ जनवरी को संगीता जान-बूझ कर वैसा ब्लाउज पहन कर आई थी अगर आप ड्यूटी न चले गए होते तो ऊपर आनंद लेती।

हालांकि पार्टी आफिस जाकर जिला मंत्री कामरेड नेमीचन्द को मै पूर्ण सहायता करता था किन्तु रमेश मिश्रा जी उन्हे परेशान करने का कोई मौका नही चूकते थे। किशन बाबू श्रीवास्तव और एस कुमार के साथ हादसे हो चुके थे। कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह,MLC का एक पोस्ट कार्ड मिला जिसमे उन्होने 11 अप्रैल 1994 को रविन्द्रालय,लखनऊ मे 'उत्तर  प्रदेश भाकपा के समाजवादी पार्टी मे विलय सम्मेलन' मे शामिल होने को बुलाया था। मै नौ तारीख को चल कर 10 तारीख को लखनऊ आ गया और मीरा जीजी के घर पहुंचा क्योंकि माधुरी जीजी तब तक आफिस जा चुकी थी। दोनों के घर देने के लिए मिठाई लेने हलवाई की दुकान पर जैसे ही बढ़ा एकदम से मधु मक्खियों का एक झुंड आकर सिर पर चिपक गया जैसे -तैसे एक-एक मधु मक्खी को हटाया ,पूरा सिर और मुंह सूज गया था। माधुरी जीजी के एक बेटे को लेकर एक होम्योपैथी डॉ को दिखाया जिनहोने दवा दी और उससे लाभ हुआ। दिन मे सो गया जबकि सोने की आदत न थी। शाम को A-15,दारुल शफा मे कामरेड रामचन्द्र बख्श सिंह जी से मिलने गया वह बेहद खुश हुये कि आगरा से मै पहुंचा था। मेरे साथ महेंद्र जीजाजी भी गए थे उनको उनकी मदद चाहिए थी। रु 100/- के गबन के इल्जाम मे वह सस्पेंड हो चुके थे और बहाल होने के बाद भी अब उनका प्रमोशन प्रभावित हो रहा था। कामरेड रामचन्द्र जी ने न केवल आश्वासन दिया बल्कि अपनी ओर से उनकी पूरी पूरी मदद भी की जैसा कि खुद उन्होने स्वीकार किया था इस पत्र द्वारा-
(हालांकि तीन वर्ष बाद उन्होने रिश्ता भी तोड़ लिया था )

अगले दिन 11 अप्रैल को मै मय सामान के रविन्दरालय के लिए बस से जा रहा था परंतु महेंद्र जीजाजी बोले आफिस जाते मे तुम्हें रास्ते मे छोड़ देंगे और उन्होने रविन्दरालय के गेट पर मुझे छोड़ दिया। कामरेड मित्रसेन यादव जी ने मुझसे कहा जिस प्रकार भाकपा मे काम कर रहे थे उसी प्रकार अब सपा मे करना। मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी ने भाकपा से आए प्रत्येक पदाधिकारी को मंच पर बुला कर सम्मानित किया था जबकि पदाधिकारियों ने उन्हे । आगरा भाकपा के कोषाध्यक्ष की हैसियत से मंच पर मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी ने मुझ से भी हाथ मिलाया था।

'अमर उजाला',आगरा के प्रथम पृष्ठ पर छपी खबरों मे मेरा भी नाम था। तब शरद मोहन ने व्यंग्योक्ति भी की थी कि अभी तक मिश्रा जी का नाम प्रथम पृष्ठ पर नही छपा  था जबकि विजय बाबू का आ गया है। जलने-चिढ़ने वालो की कमी कभी नही होती है। जब नजीर बसंत मेला 1990 मे दूरदर्शन पर मिश्रा जी के साथ मेरा फोटो प्रदर्शित हो गया था तब भी ज़्यादातर लोग चिढ़ गए थे। पुराने कामरेड्स ने मिश्रा जी से आपत्ति भी की थी कि कामरेड माथुर को टी वी पर दिखा दिया उन्हे क्यों छोड़ दिया। वस्तुतः मिश्रा जी को खुद पता न था कि हम लोग टी वी पर प्रदर्शित हो जाएँगे चूंकि वह आगे अकेले बैठे थे उन्होने मुझे आगे बुला लिया था जबकि बाकी लोग पीछे ही बैठे रहे थे और टी वी पर न आ सके। 

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बुधवार, 21 मार्च 2012

आगरा/1994 -95 /भाग-1

डॉ विनय आहूजा को हाल बता कर दवा लिखवा लेते थे। 7-8 दिन पीछे वह शालिनी को भी बुलवा लेते थे। मै दवा सौंप कर दिन मे दुकानों पर थोड़ा-थोड़ा काम निबटाने चला जाता था। सभी दूकानदारों की तरफ से पूर्ण सहयोग रहा। एक दिन भाकपा,आगरा के  सहायक जिला मंत्री कामरेड दीवान सिंह भी घर पर शालिनी को देखने आए थे उनके सामने भी शालिनी ने दवा फेंक दी थी तो वह बोले थे कि भाभी जी आप ठीक क्यों नहीं होना चाहतीं?ठीक से दवा करें डॉ विनय एक्सपर्ट हैं और उनकी दवाएं काफी फायदा करती हैं आप दवा खाती नहीं इसी लिए अभी तक लाभ नही हुआ। शायद उनके कहने का कुछ असर हुआ और 4-5 रोज मे शालिनी को काफी लाभ भी हुआ । 07 जनवरी  1994 को यशवन्त को स्कूल छोड़ कर डॉ विनय के पास शालिनी को दिखाने ले गए थे वह भी इलाज से संतुष्ट हुये। लौटते मे शालिनी ने कहा कि अब हम दवा ठीक से ले रहे हैं जल्दी ही बिलकुल ठीक हो जाएँगे मम्मी के यहाँ से कोई देखने नहीं आया है हमे उनके पास ले चलो ताकि कहें कि एक बार तो देख जाओ सब कहते हैं पीहर वाले कैसे हैं?उस समय उनकी ख़्वाहिश को देखते हुये न चाहते हुये भी राजा-की -मंडी क्वार्टर पर ले गए।

शालिनी ने अपनी माँ से शिकवा किया कि देखने भी क्यों नहीं आई उन्होने झूठ कह दिया कि चिट्ठी भेजी थी। क्या एक माँ शहर मे मौजूद होते हुये अपनी बीमार बेटी को देखने न जाकर सिर्फ चिट्ठी भेज कर तसल्ली रख सकती है ?सरोजनी देवी माथुर का तो यही अजूबा था। संगीता ने फिर बचाव का रास्ता अख़्तियार करते हुये कहा कि मम्मी जी की तो वही बताएं किन्तु यदि विजय बाबू आकर ले जाएँ तो मै परसों आपको देखने आ जाऊँगी। अब प्रश्न यह था कि यदि मै बुलाकर लाता हूँ तो अपने आप देखने आने की बात कहाँ रहती है?शालिनी ने सुझाव दिया कि ड्यूटी जाते वक्त मै संगीता को क्वार्टर से साथ लेकर कमला नगर मार्केट मे छोड़ दूँ और फिर ड्यूटी निकल जाऊ इधर से वह रिक्शा करके लौट जाएंगी। 09 जनवरी को जब वहाँ पहुंचे तो संगीता को बुखार आ रहा है ऐसा कथन था उनकी सास साहिबा का । किन्तु संगीता ने कहा कि वह एकबार पहले अपना वचन पूरा नहीं कर पाई थीं ,बुखार कोई समस्या नहीं है शालिनी रानी को देखने जरूर जाएंगे। कपड़े बदल कर शाल ओढ़ कर और छोटी बेटी को साथ लेकर वह मोपेड़ पर कमला नगर आई परंतु मेन मार्केट तक न लाकर मैंने उन्हे कालोनी की शुरुआत  मे छोड़ दिया और खुद ड्यूटी चला गया।

मै जल्दी ही लौटता था फिर भी तब तक संगीता को मौजूद देख कर आश्चर्य  हुआ। क्योंकि जाहिरा तौर पर वह मेरे गैर हाजिरी मे आई थी और उन्हे लौट चूकना था, किन्तु  बउआ -बाबूजी ने कहा कि शाम को मुझ से मिल कर ही वह लौटें इसलिए रुकी रहीं । शाम को फिर शालिनी ने खुद ही पकौड़ी और चाय बनाई,ऊपर के अपने कमरे मे उन्हें सोफ़े पर बैठा कर पिलाई। दोनों के बच्चे नीचे खेलते खाते रहे। शालिनी ने इशारे से मुझे छत पर बुला कर कहा कि कुछ खास नोट किया। मुझे मतलब समझ नहीं आया तो उन्होने स्पष्ट किया कि जो ब्लाउज संगीता ने दुबे टेलर्स ,कमला नगर मे सिलवाया था वही पहन कर आई हैं जो उन लड़कियों ने बेहद टाइट सिल दिया है।केवल एक ही हुक लग पा रहा है और बाकी खुला है । शाल ओढ़ने से मुझे कैसे पता चलता?अतः शालिनी बोली अभी तमाशा दिखवाते हैं । वह नीचे से थोड़ी पकौड़ी  और सेंक लाई  और मुझसे कहा कि गरम-गरम अपने हाथ से भाभी जी को एक पकौड़ी तो खिला देते। वह नखरे दिखाती हुई पीछे झुकती गई जिससे कि सामने से शाल खिसकता रहा और अंततः शालिनी की कोहनी लगने  से लुढ़क गया। सामने तस्वीर साफ थी ब्लाउज तो टाइट था जिस कारण हुक नहीं लग पाये किन्तु ब्रा न पहनने का कारण क्या था यह स्पष्ट न था।सबसे बड़ी बात यह कि ऐसे कपड़े पहन कर आना ही क्यो हुआ ? शालिनी ने बताया कि वह उन्हे दुबे टेलर्स की लड़कियो की बेवकूफी दिखाना चाहती थी इसलिए पहन कर आई थी। लेकिन फिर शालिनी ने बाद मे केवल बता देने के बजाए मुझे सीन क्यो दिखाया ?शक-शुबहा होने की बाते थी।

तय प्रोग्राम से उन्हे रिक्शा से लौटना था अतः बाजार तक यशवन्त को रिक्शा पर बैठाने भेज दिया था। काफी देर तक वह नहीं लौटा तो शक हुआ कि कहीं बिना बताए उसे तो नहीं ले गई हैं। अतः बाजार मे देखने गया तीनों जन टहल रहे थे। यशवन्त ने कहा कि माइंजी को रिक्शा नहीं मिल रहा है। सबको फिर घर लौटा कर लाये और मोपेड़ से बैठा कर पहुंचाया। किन्तु इस वक्त मै क्वार्टर तक नहीं गया और संगीता तथा उनकी बिटिया को रेलवे ओवर ब्रिज पर सीढ़ियों के पास छोड़ दिया। जब वे लोग नीचे उतर गए तो पुल से ही मोपेड़ बैक करके मै वापिस आ गया । हालांकि संगीता घर तक चलने को कह रही थीं परंतु मैंने न जाना ही मुनासिब समझा। बउआ-बाबूजी को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि संगीता कोई खुद शालिनी को देखने नहीं आई थी बल्कि शालिनी उनको न्यौत कर आई थी और मुझसे बुलवाया तथा पहुंचवाया था। कहने को संगीता 16 जनवरी अपनी शादी की सालगिरह का बुलावा भी दे गई थीं।

इत्तिफ़ाक से 16 तारीख को हमारी पार्टी की एक बैठक भी पड़ गई।लिहाजा यशवन्त और शालिनी को क्वार्टर पर छोडते हुये मै सीधे पार्टी कार्यालय निकल गया। बैठक की समाप्ती के बाद ही उधर आया। शरद तो सुबह से ही अपनी ड्यूटी पर थे। उनकी माता और सब बच्चे भोजन कर चुके थे। मैंने वहाँ भोजन न करने की बात कही थी परंतु शालिनी और संगीता ने मेरे इंतजार मे भोजन नहीं किया था। न चाहते हुये मजबूरी मे वहाँ भोजन करना ही पड़ा। बारामदे मे भोजन करते हुये शालिनी ने कहा कि आप भाभी जी से चिढ़ते हैं फिर भी आपके इंतजार मे वह अब तक भूखी रह गई। जवाब मे मैंने कहा मै कभी भी किसी से भी नहीं चिढ़ता हूँ लेकिन सही-गलत के आधार पर अलग-अलग बातों का समर्थन या विरोध करता हूँ। फैसलों मे व्यक्तिगत चाहत या नफरत से प्रभावित नहीं होता हूँ। प्रत्येक कदम एक निश्चित मर्यादा के तहत ही उठाता हूँ। संगीता ने कहा कि आज उनकी शादी की सालगिरह है और उनके पति आज भी डबल ड्यूटी करेंगे क्या मै उसका समर्थन करूंगा। किसी के घरेलू मामलों मे कोई भी प्रतिक्रिया देने से मैंने इंकार किया।

हालांकि डॉ विनय आहूजा के इलाज से काफी लाभ हुआ था परंतु शालिनी की माता ने कहा की एक बार राजा-की-मंडी स्थित डॉ रमेश चंद्र उप्रेती को भी दिखा लें। हमारे बउआ-बाबूजी ने कहा कि उन लोगों की तसल्ली के लिए दिखा दो। एक दिन यशवन्त के स्कूल जाने के बाद मोपेड़ से शालिनी को पहले क्वार्टर ले गए जहां से शालिनी की माता  ने उनकी छोटी भतीजी को साथ भेज दिया। डॉ उप्रेती ने चेक अप के बाद साफ बताया कि आँतें सूज कर लटक गई हैं। एक साल इलाज करना पड़ेगा यदि लाभ न हुआ तो आपरेशन कराना होगा। उन्होने दवाएं दी और कडा परहेज बताया कि चाय न पीये बहुत मन हो तो दिन मे केवल एक कप ही ले।  तली-भुनी चीजे न खाये ,मैदा के बने पदार्थ बिलकुल न ले। क्वार्टर पर शालिनी को पहुंचा कर मै थोड़ी देर के लिए पार्टी कार्यालय चला गया जब लौटा तो देखता हूँ कि शालिनी की माता  ने बाजार की बनी मैदा की मठरी उनके हाथ मे पकड़ा रखी थी और एक ग्लास चाय पीने को दी हुई थी। मैंने पूछा कि आप कैसी माँ हैं जो  आपके ही बताए डॉ ने परहेज कहा है उसके खिलाफ अपनी ही बेटी का बिगाड़ करने पर आमादा हैं?उनका जवाब था आप कडा परहेज कराएंगे इसलिए अभी दे दिया फिर कहाँ खा पाएगी? मैंने शालिनी के हाथ से वह मठरी लेकर उनकी भतीजी को दे दी जिसने बताया कि भुआ तो दो मठरी अभी-अभी खा भी चुकी हैं। चाय भी मैंने पूरी न पीने दी और तुरंत लेकर  घर लौट आया।

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रविवार, 18 मार्च 2012

आगरा/1992-93/भाग-10

क्रमशः .....

बताने के बावजूद और इस बात के मालूम चलने के बाद भी कि भाई -दोज़ के दिन वहीं का खाना खाकर शालिनी बीमार हुई थीं वहाँ से किसी ने भी देखने आने की जरूरत महसूस नहीं की,जबकि मै शालिनी ही की वजह से उन लोगों का हाल-चाल लेने जाता और मदद करता था वर्ना उन लोगों का व्यवहार ऐसा न था कि उन पर तरस खाया जा सके। सभी दुकानों पर थोड़ा- थोड़ा काम निबटा कर जल्दी घर पहुँच जाता था और भाकपा कार्यालय जाना स्थगित कर रखा था। सुबह मै मदद कर देता था शाम को बाबूजी की मदद से बउआ खाना बना लेती थीं।



उपरोक्त पोस्ट कार्ड कामरेड डॉ  जितेंद्र रघुवंशी(विदेशी भाषा विभाग के अध्यक्ष और रूसी भाषा के विद्वान,आगरा विश्वविद्यालय ,आगरा IPTA के राष्ट्रीय महामंत्री हैं ) द्वारा मुझे मीटिंग मे शामिल होने हेतु भेजने का कारण ही यह था कि मै घरेलू कारणो से जिला मंत्री को सहयोग कर पाने मे असमर्थ था। 'डंकल'प्रस्ताव देश की कृषि और अर्थ व्यवस्था को चौपट करने वाले थे उनके विरोध मे व्यापक जन-संघर्ष छेड़ना था। मै घरेलू संघर्ष मे उलझा हुआ था फिर भी 03 दिसंबर 1993 की बैठक मे शामिल हुआ। बीच मे जब डॉ रामनाथ का इलाज चल रहा था और उन्होने शालिनी को ग्लूकोज चढ़वाने का सुझाव दिया था और बउआ ने कहा कि ग्लूकोज चढ़वाने की देखभाल करने मे वह असमर्थ हैं कारण कि वह खुद ही अस्वस्थ थीं। मैंने राजा-की -मंडी क्वार्टर जाकर शालिनी की माँ से  कहा कि वह ग्लूकोज चढ़वाने भर तक देख लें तो वहाँ ले आयें। शालिनी की माता ने स्पष्ट इंकार कर दिया कि वह कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेंगी। मै मौके-बे-मौके उन लोगों की मदद करता रहा था उसके बावजूद शालिनी की माँ (जिनके हाथ का खाना खा कर ही वह बीमार हुई थीं)का इंकार चुभने वाली बात थी। मौके की नजाकत को भाँपते हुये संगीता ने कहा कि वह अपनी नन्द की देख-भाल कर लेंगी मै वहाँ पहुंचा दू। यह सोच कर कि वैसे भी भार तो उनही पर पड़ना था और वह खुद कह रही हैं मैंने शालिनी को शाम को वहाँ यशवंत के साथ पहुंचा दिया था और अगले दिन सुबह नौ बजे डॉ रामनाथ को लेकर वहाँ ग्लूकोज के साथ गया था। रात ही रात मे शालिनी की माँ, ताऊ और भाई मे कोई साठ-गांठ हुई होगी जिसका भान संगीता तक को न था। शालिनी की माँ और ताऊ (शरद तो ड्यूटी पर थे)ने अपने घर शालिनी को ग्लूकोज चढ़वाने से मना कर दिया। उन जेठ-भौजाई का कथन था हमने शादी कर दी अब हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है अपने घर ले जाकर ग्लूकोज चढ़वाओ । संगीता ने बीच मे हस्तक्षेप करते हुये कहा कि उन्होने ज़िम्मेदारी ली थी और वह उसे पूरा करेंगी। उनकी सास ने घुड़कते हुये कहा तुमने अपने पति से पूछे बगैर ज़िम्मेदारी ली थी जिसे तुम पूरा नहीं कर सकतीं। मैंने जब यह कहा कि तब आप लोग हमसे मदद क्यों लेते थे तो शालिनी की माँ और ताऊ समवेत स्वर मे बोले कि तुम (अर्थात मै विजय ) मूर्ख था जो उनकी मदद करता था। शालिनी ने अपने कानों से और अपनी आँखों के सामने जब अपनी माँ और ताऊ के प्रेम-वचन सुन लिए तो अवाक रह गई और उनको भी ठेस लगी कि वह नाहक ही मुझे अपने पीहरियों की मदद के लिए भेजती थीं।

शालिनी और यशवन्त को रिक्शा पर बैठा कर मै मोपेड़ से डॉ रामनाथ को लेकर चल रहा था ,मोपेड़ स्टार्ट हो चुकी थी शालिनी की माँ ने संगीता के कान मे कुछ फुसफुसाया और संगीता ने डॉ रामनाथ को आवाज दी -डॉ साहब। पल भर बात सुनने को कह कर डॉ रामनाथ उन लोगों से बात करने चले गए मै इंतजार करता रहा ,पेट्रोल फूंकता रहा रिक्शा वाला आगे बढ़ गया था अतः मैंने पीछे लौट कर डॉ रामनाथ को जल्दी चलने को कहा परंतु रिक्शा दीख नही रहा था। हरी पर्वत की तरफ बढ्ने के बावजूद हम पीछे लौट कर सेंट जोन्स कालेज वाले रूट पर आए तब बहुत आगे रिक्शा जाता दिखाई दिया। शालिनी के पास रुपए भी न थे ,यशवन्त उन्हे सम्हाल भी न सकता था। घर आकर ग्लूकोज चढ़वाया और मैंने ड्यूटी की छुट्टी कर दी।

डॉ रामनाथ ने संगीता का नाम लेकर कहा कि वह कह रही थीं कि शालिनी को टी बी हो गई है। मैंने उनसे पूछा आपकी मेडिकल राय क्या है? उनका जवाब था उन लोगों की संतुष्टि के लिए चेक करा लो। मैंने कामरेड डॉ विनय आहूजा (जो मुझे कम्युनिस्ट आंदोलन मे शामिल करने वाले कामरेड हरीश आहूजा,एडवोकेट के पुत्र थे),टी बी स्पेशलिस्ट को दिखाया। कंपाउंडर को फीस के रु 30/- मै जमा करके अपने नंबर का इंजार कर रहा था। डॉ विनय की निगाह मुझ पर पड़ गई और उन्होने तुरंत शालिनी को बुलवा लिया और मुझ से पूछा कि कंपाउंडर को फीस तो नही दी। मै चुप रहा तो कंपाउंडर को बुला कर पूछा। पहले मुझे रु 30/- वापिस दिलाये फिर हाल पूछ कर चेक किया और एक एक्सरे तथा कुछ चेक अप कराने को कहा।



इन रिपोर्टों तथा एक्सरे मे भी टी बी की पुष्टि नहीं हुई। डॉ विनय ने कुछ रिमार्क अपने प्रिस्क्रिप्शन पर दिया था जिस कारण मुझ से एक्सरे और लेबॉरेटरी वालों ने निर्धारित से कम रकम ली। डॉ वाला कमीशन डॉ विनय को न देकर मुझसे रुपए कम लिए गए। डॉ विनय जब 1988 मे सरोजनी नायडू मेडिकल कालेज,आगरा मे हाउस जाब कर रहे थे और चिकित्सक नेता थे तब बउआ के इलाज मे भी मदद करते रहे थे। आर्थोपेडिक विभाग द्वारा प्रेसक्रिब्ड दवाएं देख कर अपने पास से सेंपिल की बाबूजी को दे जाते थे। 1992 मे जब ऋषिराज की शादी मे जाने से पहले अपने होटल के केस के सिलसिले मे कामरेड हरीश आहूजा साहब से मिलने उनके घर गए थे तो उनके बड़े पुत्र कामरेड विजय आहूजा,एडवोकेट ने डॉ विनय की पत्नी जो आई स्पेशलिस्ट हैं से यशवन्त को दिखवाकर दवाएं लिखवा दी थीं। आज तो डॉ विनय का ट्रांस यमुना कालोनी मे एक बड़ा टी बी नरसिंग  होम है तब रामबाग चौराहे पर उनका क्लीनिक था।

डॉ विनय ने थायराड का चेक अप कराने को कहा था जब टी बी न होने की पुष्टि हो चुकी थी। परंतु शालिनी उसके लिए तैयार न हुई। लंबी बीमारी मे भी शालिनी को देखने न  तो शरद मोहन न ही कोई दूसरा  उनके परिवार का  सदस्य देखने आया किन्तु उसी दौरान शरद मोहन अपनी मौसेरी बहन चंचला उर्फ मिक्की  (जिन्हे गोद मे उठा कर टूंडला मे नाचते थे )  को लेकर स्वामी बाग स्थित उनकी भाभी के भाई के घर गए थे और खाना खा कर आए थे । 

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गुरुवार, 15 मार्च 2012

आगरा/1992-93/भाग-9

हालांकि शालिनी के साथ तो राजा-की -मंडी क्वार्टर पर जाते ही थे परंतु अकेले न जाने से उनकी माता और भाभी का सवाल था कि क्या कुछ बुरा लगा जो रोज पास मे आकर भी घर नहीं आते। मै चाहता था कि सच्चाई सामने ला  दी जाये परंतु शालिनी का आग्रह था कि बात को मन मे ही रखू वरना संगीता को मुसीबत का सामना करना पड़ेगा सो चुप ही रहा । बस कभी-कभी लौटते मे चला जाता था। एक बार किसी कारण से मार्केट जल्दी बंद हो गया और भाकपा कार्यालय मे उस वक्त से जिला मंत्री के आने मे काफी देर थी। लिहाजा रेलवे क्वार्टर चला गया। शरद के बनवारी लाल ताउजी वहाँ आए हुये थे और बीमार थे,शरद और उनकी माँ अमरोहा गए हुये थे। संगीता ने अपने तइया सुसर हेतु फल लाने को रुपए दिये ,मैंने ला दिये। मेरे जाने से उन्हें राहत हुई क्योंकि ठेले वाला वे फल लाता नहीं था और उनकी बेटियाँ छोटी थीं जिन्हे बीमार के ऊपर छोड़ कर वह खुद जा नही सकती थी। संगीता के यह कहने पर कि जब तक मम्मी जी वापिस नहीं आ जाती हैं दो-तीन दिन आप लगातार रोज आ जाएँ ताउजी भी है और बीमार हैं आप को कोई शिकायत नहीं मिलेगी ,यह भी आभास हुआ कि वह मेरे वहाँ न जाने के कारण को अपनी हरकत समझती थी। बहरहाल लगातार रोज एक ट्रिप लगा लिया। वे लोग अमरोहा मे किसी बीमार को ही देखने गए थे ज्यादा रुक गए।

मै ड्यूटी जाते हुये उधर गया था और बनवारी लाल ठीक हो चुके थे ,स्टेशन पर घूमने गए हुये थे। मै वापिस लौटने ही वाला था कि वह तमाम  रिश्तेदार लोगों को जिनकी गाड़ी लेट थी और प्लेटफार्म पर इ न्त्जार कर रहे थे चाय पिलाने की बात कह कर घर ले आए। संगीता जो साफ-सफाई अभियान चला रही थीं एकदम हड्बड़ा गई। जल्दी-जल्दी बिना नहाये ही कपड़े बदले और बड़ी बेटी से मुझे अंदर बुलवा कर सौ का नोट देकर बोलीं आज घर पर कुछ नहीं है ,कुछ मिठाई और नमकीन ला दे,आप न आए होते या जा चुके होते तो बड़ी मुसीबत होती ,खुद ही जाना पड़ता,मेहमानों को घर पर छोड़ कर जाना भी गलत होता। इस बात का जिक्र संगीता ने खुद भी शालिनी के सामने बाद मे किया था। तब मैंने कहा था कि फिर आप ऐसा क्यों करती हैं जो मुझे  बार-बार न आने का फैसला करना पड़ता है। उनका जवाब था योगेन्द्र बाबू ने (सीमा के पति ) कभी कोई एतराज नहीं किया बल्कि वह तो ऐसे मे और खुश हो जाते हैं उसी रौ मे आपके सामने भी वैसा हो जाता है ।(अक्तूबर मे रामपुर मे शरद की मौसी के यहाँ शादी थी ,निमंत्रण हमारे पास भी आया था। शरद और उनकी माँ शादी मे गए थे और बनवारी लाल वही थे। फिर भी शालिनी से चक्कर लगाने को कहा गया था। एक रोज शालिनी को सुबह छोड़ कर शाम को वापिस ले आए थे। बनवारी लाल बाहर के कमरे मे रहते थे उन्हे शायद आपत्ति थी या और कोई कारण रहा होगा कि संगीता ने कहा आँगन वाले रास्ते से आ जाया करे। रोज शालिनी का जाना संभव न था अतः पार्टी कार्यालय से लौटते मे थोड़ी देर को हो आता था। )


लेकिन एक दिन लौटते मे जब संगीता दरवाजे तक छोडने आ रही थी तो बोली कि आपने उस दिन शालिनी रानी के सामने क्यो कहा कि "आप ऐसा क्यो करती है",क्या आपको आनंद नही आता ? मेरे इस जवाब पर कि मै आनंद के वास्ते नही आप लोगो के कहने पर आ जाता हू वह भी अनिछापूर्वक। निश्चय ही इस जवाब की न उम्मीद संगीता को थी न ही अच्छा लगा जो चेहरे से साफ था। तब बोली कि मुझे तो आनंद आता है आप मुझे मदद नही कर सकते।मैंने भी स्पष्ट कर दिया इस प्रकार की मदद मै नही कर सकता केवल योगेन्द्र ही कर सकते हैं।किन्तु दरवाजे तक आते-आते संगीता ने किस प्रकार तिकड़म से हुक ढीले कर लिए थे कि,बजाए दरवाजा खोलने के बदन खोल डाला और कहा आपकी मर्जी दरवाजा खोल कर चले जाएँ या सहला दें तो मै खुद बाद मे खोल दूँगी। उस स्थिति मे दरवाजा खोलने के बजाए ख़्वाहिश पूरा करना मजबूरी थी। परंतु अगले दिन से फिर वहाँ नही गया।

इस बार दीपावली की दोज़ पर जब नवंबर मे  शालिनी शरद मोहन को टीका करने पहुंची तो बेहद आश्चर्य मे पड़ गई जो उन्हे शरद,संगीता उनकी दोनों बेटियाँ नहीं मिले वे लोग मुज्जफर नगर गए हुये थे। घर पर उनकी माँ,ताउजी,ममेरे भाई आर ए एन माथुर,उनकी पत्नी तथा बेटी लवलीन ही मिले। पहली बार शालिनी को उनके बनवारी ताऊ जी ने स्टील का एक बड़ा टिफ़िन केरियर टीका कराई के रूप मे दिया। ईस्टर्न ट्रेडर्स से मुझे भी इस बार स्टील का एक छोटा टिफ़िन केरियार दीपावली गिफ्ट के रूप मे मिला था। मेक्सवेल और रेकसन दुकानों से जूते की जोड़ियाँ भी इस दीपावली पर मिली थीं। लोहा और चमड़ा शनि के पदार्थ इस दीपावली के गिफ्ट थे और किसी भी त्यौहार पर शालिनी का सामना अपनी माँ से पहली बार बगैर किसी सगी भाभी की उपस्थिती के था। वहाँ से भोजन करके आने के बाद उसी रात से शालिनी को जो बुखार चढ़ा वह मृत्यु पर्यंत ठीक न हुआ।

शालिनी की  ममेरी भतीजी लवलीन को हाथ देखने का शौक था उसने मुझसे 'हस्त रेखा' की पुस्तकें पढ़ने को मांगी थीं ,मैंने देने का वादा कर दिया था परंतु शालिनी की माँ ने उनसे कहा था कि विजय बाबू को मना कर दो कि लवलीन को अपनी किताबे न दें। ताज्जुब की बात थी कि जिस लड़की के पिता को पाँच वर्ष की उम्र से बतौर भुआ पाला हो उसी की पुत्री को ज्ञान से वंचित करना चाहती थीं उसकी फुफेरी दादी। शालिनी ने मेरे सामने ही लवलीन को हाथ दिखाया था जिसने उनसे कहा था -"भुआ आपकी उम्र 35 वर्ष ही है"। शालिनी ने जवाब मे कहा था तो अब कुछ महीने ही मरने मे बाकी हैं। मैंने समझाया था कि अपनी भतीजी की बात पर ध्यान न देना और निश्चिंत रहना। अगले दिन दो किताबे हस्त रेखा की मै लवलीन को दे आया था और शालिनी की माँ को बता दिया था कि वहाँ से जाते ही उन्हे तेज बुखार हो गया है।

इन किताबों से लवलीन को ज्ञान-वृद्धि मे जो लाभ हुआ  उसका वर्णन उन्हे लौटाने के बाद इस पत्र मे किया था-


  निश्चय ही शरद की माँ अपने ही भतीजे की पुत्री को ज्ञान से वंचित रखना चाहती थी और चूंकि मै उनसे असंतुष्ट था इसलिए भी और दूसरों का अधिकाधिक कल्याण करने की बेवकूफी से ग्रसित हूँ इसलिए भी अपने पास की दोनों ही पुस्तके उस होनहार लड़की को पढ़ने को सौंप दी थी। 

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मंगलवार, 13 मार्च 2012

आगरा/1992-93/भाग-8

आना-जाना ,नौ घंटे जाब करना और फिर पार्टी आफिस मे जिला मंत्री जी को सहयोग करना इन सब मे काफी समय लगता था एवं शालिनी को भी साइकिल पर जाना-आना पड़ता था,अतः उनके अपने आठ हजार रुपए से एक मोपेड़ लेने का ज़ोर था। ये रुपए उनके बचपन मे उनके सबसे बड़े निसंतान ताउजी द्वारा पोस्ट आफिस मे जमा कराये एक हजार रुपए से बढ़ कर इतने हुये थे। रक्षा बंधन 02 अगस्त को मोपेड़ लेना तय हुआ। इत्तिफ़ाक से इसी दिन डॉ शोभा फरीदाबाद मे अजय को राखी बांध कर वहाँ से आगरा पहुंची। वह पी एच डी के बाद B Ed की परीक्षा देने फरीदाबाद गई थीं। अजय रोजाना परीक्षा केंद्र पर पहुंचाने -बुलाने अपने स्कूटर से जाते थे। उस सुबह 07 बजे ट्रेन पर बैठा गए थे जो राजा-की-मंडी पर 12 बजे पहुंची। मै,शालिनी और यशवन्त उन्हे स्टेशन पर रिसीव करने पहुंचे थे। कमलानगर से साइकिल पर गए थे ,क्वार्टर पर उन्होने शरद मोहन को राखी बांध दी थी लेकिन उनके घर उस रोज रुके नहीं। रेल से उतरते मे डॉ शोभा के हाथ मे टिकट था परंतु पता नहीं कैसे उसे प्लेटफार्म पर गिरा दिया और उसी पर पैर भी रख दिया और उसे खोजने लगीं। सारा पर्स ,अटेची सब चेक कर लिया टिकट पर नजर न पड़ी। शालिनी के यह कहने पर कि वह शरद का नाम लेकर बाहर निकलवा देंगी डॉ शोभा तमक गई कि वह पेनल्टी भी पे कर देंगी लेकिन एहसान न लेंगी। काफी कहने पर भी जगह से टस से मस न हो रही थीं। मैंने कहा कि उस जगह से हटो तो देखें कहीं वहीं न हो तब बड़ी मुश्किल से पैर हटाया जिसके नीचे टिकट दबा पड़ा था। तब कहीं जाकर हम लोग स्टेशन से बाहर निकले और घर पहुंचे। बउआ-बाबूजी इंतजार कर रहे थे।

अजय के सहपाठी के एक भाई जिसे होटल मुगल मे मैंने जाब दिलाया था जो अब लेम्को मे आडीटर था और कृष्णा आटोमोबाइल्स मे पार्ट टाइम भी करता था शाम को अपने स्कूटर से मुझे एजेंसी पर ले गया और मैंने एक हीरो मेजेस्टिक लगभग रु 9500/- मे खरीद ली । उसी पर बैठ कर घर पहुंचा तो डॉ शोभा का चेहरा फक पीला पड़ गया। हालांकि कमलेश बाबू के पास भी पहले से ही स्कूटर था और अजय के पास भी मैंने तो मोपेड़ ही ली थी और कभी भी छोटे बहन- भाई के पास होने पर मुझे बुरा नहीं लगा परंतु डॉ शोभा ने बउआ के कहने पर लाई गई बर्फी को छूआ  तक नहीं ,यह कह कर टाल दिया कि कल लेंगे। अगले दिन जब कहा अपनी मिठाई तो खा लो तो घुर्रा पड़ीं कि हम चलते वक्त मीठा नहीं खा सकते। यह मेरे द्वारा  गंभीर गलती रही कि मैने डॉ शोभा को छोटी बहन के नाते कभी गलत माना ही नहीं और ये लोग हमे सपरिवार छति पहुंचाते ही रहे।

अब मोपेड़ आ जाने के बाद शालिनी यशवन्त के स्कूल जाने के बाद बउआ-बाबूजी का खाना रख कर राजा-की -मंडी क्वार्टर पर यदा-कदा मिलने चली जाती थीं और घंटे-डेढ़ घंटे बैठ कर वापिस आ जाती थी उसके बाद मै हींग-कि-मंडी जाब करने चला जाता था। कभी-कभी यशवन्त की छुट्टी होने पर सुबह वहाँ उसके साथ रुक जाती थी और मै जाब के बाद पार्टी कार्यालय होते हुये रात को उन लोगों को अपने साथ लेता आता था। एक आध बार ऐसा भी हुआ कि जब स्कूल दिवस मे थोड़ी देर को मिलने गई तो उसी बीच उनकी छोटी भतीजी जिसे रोजाना रिक्शा से या पैदल लेने संगीता जाती थीं को मोपेड़ पर ले जाने को शालिनी ने कहा। जाते समय तो वन सीटर पर दिक्कत नहीं थी परंतु लौटते समय बस्ते के साथ उनकी भतीजी के बैठने से जगह तंग हो जाती थी और संगीता कस कर बैठती थीं जिससे चलाने मे मुझे दिक्कत होती थी। हालांकि यशवन्त और शालिनी के बैठने पर दिक्कत नहीं होती थी वे लोग ठीक से बैठते थे। एक बार जब शालिनी की माता उनके भाई के साथ मुज्जफर नगर गई हुई थीं सुबह हाल पता करते हुये जाने को शालिनी ने कहा था और मै ड्यूटी के लिए चलने लगा तो संगीता बोली कि अभी तो बाजार खुलने मे समय है आप आधा घंटा और रुक जाएँ तो नहा कर स्कूल तक आपके साथ चले चलती हूँ। वक्त तो वाकई था परंतु मै रुकना नहीं चाह रहा था फिर भी रुक गया। संगीता बाल्टी मे पानी लेकर कमरे के सामने बारामदे मे नहाने लगी जबकि आँगन के बाद सामने ही गुसलखाना था।तसल्ली से नहाना,बदन पोंछना,कपड़े बदलना और फिर बाल काढ़ने के बाद संगीता मोपेड़ से स्कूल गई। उनकी बेटी गेट पर ही अंदर खड़ी थी। संगीता के कहे मुताबिक मुझे छोड़ कर ड्यूटी चले जाना था किन्तु वह बच्ची बोली कि,फूफाजी घर तक छोड़ दीजिये। लिहाजा फिर उन दोनों को बैठा कर क्वार्टर पर छोडना ही पड़ा।

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शनिवार, 10 मार्च 2012

आगरा/1992-93/भाग-7

बढ़ती मंहगाई का मुक़ाबला करने का एक ही तरीका था कि और अतिरिक्त पार्ट टाईम जाब पकड़ा जाये और यही करना पड़ा। स्टेट बैंक के एक कर्मचारी से कुछ प्रगाढ़ता हो गई थी वह मुझसे ज्योतिषीय सलाह ले लेते थे। मैंने उनसे अपने परिचय के आधार पर किसी दुकान पर पार्ट टाईम दिलाने को कहा था। उन्होने 'ईस्टर्न शूज'के मोहन लाल भागवानी जी से कहा जिनकी दुकान शंकर लाल जी की 'मेक्सवेल ट्रेडर्स' के सामने ही थी। उन्होने डेढ घंटे सुबह और डेढ़ घंटे शाम को कुल तीन घंटों के वास्ते रु 1200/- मजदूरी प्रदान की। अब कुल नौ घंटों का जाब था और राजा-कि-मंडी भाकपा कार्यालय भी जाता ही था। नए जिला मंत्री को पूरा सहयोग देना मेरे लिए जरूरी था। इन परिस्थितियों मे अब सिटी स्टेशन जाकर वहाँ का हाल-चाल पता करने जाना  मेरे लिए संभव न था।  अतः कभी कभार रविवार को शालिनी यशवन्त को लेकर मेरे साथ साईकिल पर वहाँ जाती थीं। ऐसे ही एक बार जाने पर पता चला कि शरद मोहन राजा-कि-मंडी पर ही क्वार्टर एलाट कराना चाहते हैं। वहाँ क्वार्टर मिलने पर बदलने मे मै उन लोगों की मदद करूँ ऐसी ख़्वाहिश जाहिर की गई।

हालांकि कभी भी उन लोगों से हमे किसी प्रकार की कोई मदद नहीं प्राप्त हुई थी और आगे भी किसी प्रकार की उम्मीद करना व्यर्थ था फिर भी निस्स्वार्थ मदद करने का हम लोगों का स्वभाव होने के कारण मदद कर देता था जिसे शायद और लोगों की तरह वे लोग भी हमारी कमजोरी के रूप मे ही लेते थे। अंदाज से जो तारीख बताई गई थी उस दिन शालिनी और यशवन्त को सिटी स्टेशन छोड़ कर मै दुकानों पर गया था और शाम के तीनों पार्ट टाईम छोड़ कर जल्दी लौट रहा था कि घटिया आजम खा चौराहे पर शालिनी अपनी भाभी संगीता और यशवन्त के साथ रिक्शा पर सिटी से राजा-कि-मंडी जाती हुई मिली। उन लोगों ने बताया कि मै राजा-कि-मंडी के क्वार्टर पर ही चलूँ। वहाँ शरद के बनवारी लाल ताऊ जी ही अकेले थे। शालिनी और यशवन्त तथा मै भी वहाँ रुक गए एवं संगीता फिर सिटी के क्वार्टर पर लौट गई। बाद मे ट्रक पर सामान के साथ संगीता,उनकी बेटियाँ और सास पोर्टरों के साथ पहुंचे। हमेशा की तरह शरद मोहन तो ड्यूटी मे मशगूल थे,ऊपरी धंधे का जो सवाल था,छुट्टी कैसे लेते?मौसम गर्मी का था फिर भी सब की थकान उतारने हेतु चाय और रस्क एक दुकान से मैंने ला दिये जिसका भुगतान मुझे शालिनी की माताजी दे रही थीं परंतु मैंने इस बार कोई भुगतान नहीं लिया। चंडीगढ़ मे पी जी आई की केंटीन के बाद यह दूसरा मौका था जब मैंने अपनी तरफ से खाना या चाय का भुगतान किया था वर्ना मुझे तुरंत पेमेंट दे दिया जाता था।

चूंकि मै रोजाना सुंदर होटल , राजा-कि-मंडी स्थित भाकपा कार्यालय  जाता था अतः क्वार्टर नजदीक होने के कारण मुझसे यह अनुरोध किया गया कि लौटते मे कभी-कभी हाल-चाल लेता जाऊँ। वस्तुतः उद्देश्य यह था कि जब कभी शरद मोहन अपनी माँ को लेकर मुज्जफर नगर जाएँ तो शालिनी एक -दो राउंड वहाँ के चक्कर लगा जाएँ ऐसी सूचना दी जा सके। इसी क्रम मे गर्मियों की छुट्टियों के दौरान वे लोग गए तब रविवार को शालिनी को लेकर वहाँ गए। यह क्वार्टर काफी बड़ा था और तीन कमरे थे। खाने के बाद दोपहर मे टी वी देख कर जब सब बच्चे एक कमरे मे सो गए तब दूसरे कमरे मे बाकी लोग बाते करते रहे।





 इनही बातों के बीच ऋषि राज की शादी की बात उठने पर (ऋषि की सुसराल के एक चचिया सुसर शरद के फूफाजी थे) शालिनी ने संगीता से  कहा तब आपको जो सलवार-सूट लखनऊ  से लाकर दिया था वह पहन कर इनको अभी तक दिखाया ही नहीं है,आज पहन कर दिखा दीजिये। शायद पहले से तय रहा हो या आदत के मुताबिक संगीता तुरंत अंदर के तीसरे कमरे मे जाकर वह झीना गुलाबी चिक़ेंन का सलवार-कुर्ता पहन कर आ गई। शालिनी के टोकने पर संगीता का जवाब था कि आपने इसके साथ दुपट्टा दिया ही नहीं था इसलिए नहीं डाला और शायद चूंकि बटन भी नहीं दिये थे इसी लिए नहीं लगे थे । शालिनी ने भी बिना चूके कह दिया कि ब्रा  भी तो नहीं दिया था तो वह क्यों पहना। पल भर भी गवाए बिना संगीता ने कुर्ता उतार कर ब्रा हटा दिया और पाँच-सात मिनट बाद  उसके बगैर ही पहन लिया। शाम की चाय के बाद शालिनी के कहने पर संगीता ने फिर सलवार-सूट के स्थान पर अपने कपड़े धारण करने हेतु वहीं लेकर आ गई जहां हम लोग बैठे थे और बड़े आराम से बिना किसी झिझक के बदलाव किया । नन्द -भौजाई का व्यवहार था तो चौंकाने वाला ही परंतु उस ओर गहराई से कभी न सोचा और जैसा शालिनी बताती रहीं कि संगीता को प्रदर्शन मे आनंद आता है और मौका कभी-कभी ही मिलता है इसलिए उनको कह देते हैं -शालिनी से भी गहराई से तर्क-वितर्क नहीं किया। 

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मंगलवार, 6 मार्च 2012

2012 के चुनाव मे सक्रियता

आगरा 1992/93-भाग 7,8,9,10 और 1994/95 भाग-1 की किश्ते ड्राफ्ट मे सेव होने के बावजूद उन्हे रोके रख कर  लगातार तीसरी बार विशिष्ट लेख देने का कारण हाल मे सम्पन्न उत्तर प्रदेश के चुनावो मे सक्रिय रहने के कारण प्राप्त कुछ विशेष अनुभव हैं। 'क्रांतिस्वर' मे तो बीच-बीच मे इस संबंध मे उल्लेख किया था किन्तु इस ब्लाग पर प्रकाशन रोक रखा था। आज जब चुनाव परिणाम करीब-करीब घोषित हो गए हैं और मलीहाबाद (सु ) सीट जहां से हमारी पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी ने चुनाव लड़ा था सपा का प्रत्याशी चुनाव जीत चुका है,कुछ बातो  का उल्लेख करना नितांत आवश्यक प्रतीत होता है।

1989 मे दयाल बाग (आगरा ) से भाकपा के जिलामंत्री कामरेड रमेश मिश्रा ने कामरेड ओम प्रकाश को निर्दलीय चुनाव इस लिए लड़ा दिया था कि प्रदेश स्तर पर पार्टी का समझौता जनता दल से था और आगरा मे पार्टी उससे संतुष्ट न थी। प्रदेश सचिव कामरेड जगदीश नारायण त्रिपाठी को वस्तु-स्थिति अवगत थी और उन्होने आगरा के जिला मंत्री को लाईन क्लीयर दे दिया था। इसी प्रकार 1991 मे भी वही प्रत्याशी पुनः चुनाव लड़ना चाहते थे किन्तु प्रदेश नेतृत्व ने उन्हे दयालबाग के स्थान पर आगरा केंट से चुनाव लड़ने को कहा जबकि दयालबाग मे उनकी स्थिति पहले मजबूत रही थी। दयालबाग मे तब सांसद हेतु भाजपा को वोट मिले थे जबकि विधायक हेतु  भाकपा को। जनता दल के विजय सिंह राणा इसलिए जीत गए थे कि भाजपा के वोट भाकपा मे चले आए थे। केंट मे पार्टी की और प्रत्याशी की स्थिति मजबूत न थी। प्रत्याशी को चुनाव चिन्ह भी आबंटित न हो सका था। जिला मंत्री कामरेड रमेश मिश्रा के आदेश पर मै लखनऊ आया था और त्रिपाठी जी के मैनपुरी के दौरे पर होने के कारण तत्कालीन सहायक राज्य सचिव (अब वरिष्ठ नेता ) कामरेड अशोक मिश्रा जी को जिला मंत्री जी का पत्र सौंपा था। अशोक मिश्रा जी ने आगरा केंट से कामरेड ओम प्रकाश को भाकपा का अधिकृत प्रत्याशी घोषित करते हुये एलाट किए गए चिन्ह पर भाकपा के पक्ष मे वोट देने की अपील का पत्र मेरे माध्यम से भिजवा दिया था। 1989 मे निर्दलीय और 1991 मे अधिकृत पार्टी प्रत्याशी के प्रचार मे आगरा भाकपा जिला मंत्री के निर्देशन मे पूरी तरह सक्रिय रही थी।पार्टी की विभिन्न कमेटिया और कामरेड्स पूरी क्षमता से पार्टी प्रत्याशी के साथ लगे रहे थे।

2012 के चुनावो मे भाकपा ने लखनऊ से एकमात्र मलीहाबाद (सु ) सीट से कामरेड महेंद्र रावत को खड़ा किया था जो पहले बख्शी का तालाब से निर्दलीय चुनाव लड़ते रहे थे ,वह इस बार भी वहीं से पार्टी का टिकट चाहते थे किन्तु पार्टी के निर्देश पर उन्होने मलीहाबाद (सु ) से नामांकन किया। पार्टी का अधिकृत चुनाव चिन्ह -हंसिया और बाली भी उन्हे एलाट था। किन्तु उन्हे अपना पूरा प्रचार अभियान एक निर्दलीय के तौर पर खुद ही संचालित करना पड़ा। जिला पार्टी के कुछ लोग व्यक्तिगत रूप से कामरेड महेंद्र रावत के साथ जरूर थे लेकिन पार्टी स्तर पर किसी कमेटी का निर्देशन या सहयोग उनके साथ नही रहा।कुछ वरिष्ठ कार्यकारिणी सदस्यो का दृष्टिकोण था कि कामरेड महेंद्र रावत को पार्टी के एक पूर्व बागी सदस्य को हराने के लिए खड़ा किया है । उन लोगो ने प्रचार मे भी  यही कहा ।  चुनाव परिणाम भी इसी प्रकार के आए। जिन बागी साहब को हराने का लक्ष्य रखा था वह 2215 वोट से हार भी गए।

चूंकि कामरेड महेंद्र रावत पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी रहे इसलिए उनकी जरूरत के मुताबिक जो सहयोग उन्होने मुझसे मांगा मैंने अपनी क्षमता के अनुसार प्रदान किया। अपने ब्लाग मे ,फेसबुक नोट्स के द्वारा भी उनके संदेश का प्रसार किया। उनके साथ व्यक्तिगत रूप से प्रचार मे भी गया। जिले मे मुझसे वरिष्ठ कुछ लोगो को मेरे द्वारा उन्हे सहयोग करना रास न आया। उन लोगो द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से इसकी अभिव्यक्ति भी हो गई। मुझे हैरानी इस बात की है कि आगरा मे प्रदेश नेतृत्व पर अपनी बात समझा कर वह जिलामंत्री चुनाव लड़वाते थे और पूरी पार्टी को सक्रिय करते थे जबकि लखनऊ मे प्रदेश नेतृत्व द्वारा अधिकृत रूप से खड़े किए गए प्रत्याशी को पार्टी स्तर पर सहयोग नहीं दिया गया।

भाकपा ने जब संसदीय लोकतन्त्र को अपनाया है और केरल मे चुनाव से ही सबसे पहले सरकार भी बनाई है बाद मे सी पी एम के साथ कई प्रदेशो मे सरकार मे रही है तो लखनऊ मे इस बार आत्मघाती कदम क्यो उठाया गया ?मेरे समझ के मुताबिक नैतिक मूल्यो का पालन न करना ही इसका कारण है। जब पार्टी ने एक प्रत्याशी को खड़ा किया है तो पूरी पार्टी को पूरी क्षमता से उसे जिताने का प्रयास करना चाहिए था जो न करना अनैतिक कृत्य माना जाना चाहिए। शायद यही वजह है कि पार्टी आज तक जनता को अपने पक्ष मे खड़ा नहीं कर पाई है। किन्तु अब जब इसी माह की 27 से 31 तारीख तक पटना मे 21 वी पार्टी कान्फरेंस होने जा रही है केन्द्रीय  नेतृत्व को ठोस निर्णय लेकर जन बल को अपने पक्ष मे खड़ा करने का प्रयास करना चाहिए। 'मनसा-वाचा-कर्मणा ' मुट्ठी भर लोग भी संगठित होकर सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते है ऐसा कहना है स्वामी विवेका नन्द का। तो क्यो नहीं एक संगठित राष्ट्रीय पार्टी सफलता प्राप्त कर सकती। 

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