शनिवार, 29 जनवरी 2011

क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष(८)

महेश नानाजी -


हमारे नानाजी क़े पांच फुफेरे भाईयों में चौथे नं.क़े थे महेश नानाजी .उनसे छोटे भाई श्री नारायण स्वरूप माथुर ,सीनियर पब्लिक प्रौसिक्यूटर ने जार्ज फर्नाडीज क़े विरुद्ध चले बड़ौदा डायना माईट केस में सरकार का पक्ष रखा था.वह हमारे बाबूजी क़े साथ लखनऊ में कामर्स पढ़ चुके थे.इसलिए जब भी महेश नानाजी क़े घर मिलते थे तो बाबूजी से मित्रवत ही व्यवहार करते थे ,हालाँकि रिश्ते में बड़े हो गये थे.महेश नानाजी और नानीजी भी बउआ और बाबूजी को मान देते थे. एक बार बउआ दोपहर में अजय क़े साथ उनके घर गईं थीं.मंजू मौसी हमारी बउआ  को हाथ जोड़ कर नमस्ते करके अन्दर चली गईं तो नानीजी ने उन्हें आवाज़ देकर बुलाया और कहा कि, तुमने इन्हें पहचाना नहीं.मंजू मौसी ने तत्काल बउआ से जीजी नमस्ते कह कर  पुनः अभिवादन किया इतना महत्त्वपूर्ण जोर  रिश्तों पर उनका था.एक बार शाहजहांपुर में जब हम लोग नानाजी क़े पास तब थे जब बाबूजी सिलीगुड़ी में थे.महेश नानाजी रोज़ा फैक्टरी का इंस्पेक्शन करके जल्दी लौट आये थे और अगले दिन फिर उन्हें रोजा जाना था अतः रात में रुक रहे थे.टाउनहाल में कोई सर्कस लगा था.छोटे नानाजी क़े बच्चों को दिखाने ले जा रहे थे,बउआ से कहा हम तीनों को उनके साथ भेज देने को .बउआ ने नानाजी क़े बाजार में उस वक्त होने का बहाना बनाया तो महेश नानाजी ने तपाक से कहा-क्या हम इन बच्चों क़े नानाजी नहीं हैं?क्या तुम्हारे चाचा नहीं हैं?.जब हम ले जा रहे हैं तो दादा क्यों ऐतराज करेंगें?बउआ को हम लोगों को महेश नानाजी क़े साथ भेजना ही पड़ा.


नानाजी की एक भुआ जो एक और रिश्ते में उनकी साली की पुत्री  अर्थात बउआ की मौसेरी बहन थीं,मेरठ में ही बाउनड्री रोड पर रहती थीं.रोजाना कालेज जाते-आते में उनका मकान हमारे रास्ते में पड़ता था.परन्तु हमारे माता-पिता को लगता था कि,वे बहुत बड़े लोग हैं.मौसाजी स्व.कुंवर बिहारी माथुर ,I .A .& A .S .वहीं मेरठ में डिप्टी कंट्रोलर आफ डिफेन्स एकाउंट्स क़े पद से रिटायर्ड हुए थे.महेश नानाजी ने बउआ को समझाया कि, इतने सगे रिश्ते क़े बाद उनसे क्यों नहीं मिलती वे बहुत अच्छे लीग हैं जरूर जाओ .ट्रायल क़े लिये मुझे भेजा गया. मैं बात-व्यवहार पर ही ध्यान देता हूँ और खाने-नाश्ते से मुझे कोई ताल्लुक नहीं रहता है.मुझे मौसी-मौसाजी और उनके सभी बच्चों का व्यवहार बेहद अच्छा लगा.तब पहले बउआ फिर बाद में बाबूजी भी मेरे साथ उनके घर गये और उन लोगों का व्यवहार पसन्द आया. सिर्फ महेश नानाजी की प्रेरणा से यह संपर्क कायम हुआ अन्यथा हमारे माता-पिता तो संकोच में ही रह जाते.बाद में सीता मौसी वेस्ट-एन्ड रोड पर शिफ्ट हो गईं ,वहां भी आना -जाना होता रहा.उनके एक बेटे की शादी में भी हम लोग गये थे.उस शादी में डा.पी.डी.पी.माथुर (जो बाद में उ.प्र.क़े डी .जी.हेल्थ भी बने),एडीशनल सिविल सर्जन ,मेरठ भी शामिल हुए थे जो रिश्ते में मुझ से छैह पीढी छोटे थे.उम्र में वह बड़े थे और मुझे भाई सा :संबोधित करते थे.वस्तुतः उनकी दादी जी रिश्ते में हमारी भतीजी (राय राजेश्वर बली की बहन)थीं.मामाजी(सीता मौसी क़े भाई)इन डा.सा :क़े मित्र एवं सह-विद्यार्थी थे.जब सीता मौसी साकेत-कालोनी में शिफ्ट हो गईं तो मैंने उन्हें अपने रूडकी-रोड वाले क्वार्टर पर आमंत्रित कर दिया ;माता-पिता को घबराहट हुई कि इतनी ऊँची पोस्ट पर रहे अतिथियों का सत्कार करने लायक कोई बंदोबस्त ही न था.मौसा जी ने यह कहा था तुम आकर ले जाओगे तो हम चले चलेंगें,वह फालिज से ठीक हुये थे और ज्यादा ढूंढ-धाड़ करने में असमर्थ थे.दिये गये समय शाम क़े ५ बजे से ५ मि.पहले मैं पहुँच गया था.वह प्रसन्न हुये कि मैंने समय का ध्यान रखा.उनका कहना था आज-कल क़े लड़के समय-पाबन्द नहीं हैं.उन्हें तब जितनी (५००० रु.)पेंशन मिलती थी उतना कुल वेतन महेश नानाजी को मिलता था लेकिन रिश्ता और मेल प्रगाढ़ था.


 महेश नानाजी ने अपने बड़े बेटे (विजय मामाजी)की शादी में लडकी वालों का भी खर्च अपने ऊपर ले लिया था क्योंकि उन माईंजी क़े पिताजी नहीं थे और उनके चाचा  तथा माँ को शादी करनी थी.बारात में १०० से अधिक कारें थीं ,मेरठ क्षेत्र क़े लगभग सभी उद्योगपतियों का प्रतिनिधित्व  था.भोजन-व्यवस्था R .S .Bros .को सौंपी थी,जिनका कचहरी में मेरठ कालेज क़े सामने रेस्टोरेंट था.(आर.एस.माथुर सा :क़े छोटे भाई का पौत्र अतुल मेरे साथ १९८१ में कारगिल में पोस्टेड रहा था).भोजन -फलहारी,शाकाहारी तथा मांसाहारी तीन प्रकार का तीन अलग-अलग दिशाओं में रखा गया था.हमारे नानाजी शाहजहांपुर से शादी में भाग लेने आये थे परन्तु हमारे घर उतरे थे ,मेरे साथ उनसे मिलने साईकिलों पर गये थे.महेश नानाजी ने उनसे कहा पहले आप हमारे घर रहें फिर शादी क़े बाद वहां(हमारे यहाँ)जा सकते हैं. नानाजी ने वैसा ही किया.रिसेप्शन में महेश नानाजी ने भोजन क़े बजाये मिठाई ,चाट,छौंकी हुई हरी मटर ,आलू-टिक्की आदि-आदि का प्रबंध किया था और अपना प्रोग्राम अग्रिम नानाजी को बता दिया था.नानाजी ने कहा कि उनको यह सब पसन्द नहीं है,उनके अनुसार बिना पूरी-कचौरी की यह कैसी दावत हुई?महेश नानाजी ने आश्वस्त किया कि, उन्हें घर में भोजन बनवाकर करवा देंगें.रिसेप्शन वाले दिन नानीजी (एन.एस.माथुर,एस.पी.पी.सा :की पत्नी) ने स्वंय अपने हाथ से भोजन बना कर नानाजी को परोसा था.


मुझे आज भी अच्छे तरीके से याद है कि (मेरी ५ -६ वर्ष की उम्र में) हजरतगंज ,लखनऊ क़े नानाजी क़े फूफाजी क़े घर हमारे माता-पिता भी अक्सर जाया करते थे.तब वहां सिर्फ एन.एस.नानाजी तब पी.पी.पोस्टेड थे.महेश नानाजी से तो शाहजहाँपुर में मुलाकात होती थी,फिर बरेली प्रवास में आना-जाना हुआ और मेरठ में काफी घनिष्ठता हो गई थी.इसी कारण खुद को नौकरी दिलाने का उनसे आग्रह किया था ,जिसे उन्होंने पूरा भी किया.कैसे?................................................अगली बार .....


[बउआ=अपनी माँ को हमलोग बउआ कहते थे,माँईंजी=मामी]  



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शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष(७)

पिछले तीन वर्षों में इन्टर और बी.ए.करने क़े दौरान कॉलेजेस का विवरण तो आ गया परन्तु अन्य बातें पीछे छूट गईं.इसलिए अब उन पर भी विचार कर लेते हैं. १९६९ में मई या जून क़े माह में लता मौसी(बउआ की चचेरी बहन)की शादी में शाहजहांपुर जाना हुआ.बाबूजी नहीं गये थे बाकी सभी जन गये थे.शादियों में चिकना-तला खाना ज्यादा चलता है जो मुझे पसन्द नहीं है.इसलिए मैं कोई सादी सब्जी मिले तभी लेता हूँ वर्ना दही -सोंठ से हल्का खाना ले लेता हूँ.बारात वाले दिन जब मैंने सिर्फ भिन्डी की सब्जी,दही- सोंठ ही लिया तो मामाजी मुझे आलू की सब्जी परोसने लगे,मैंने मना कर दिया तो उन्हें काफी आश्चर्य हुआ और बउआ से बोले कि विजय आलू नहीं खाता है?मामाजी तो जल्दी ही लखनऊ लौट गये,बाद में माईजी मौसी और उनके साथ आये बच्चों तथा हम लोगों को लखनऊ अपने साथ ले आईं.अजय वहां से हापुड़ होते हुए मेरठ लौट गया था.बादशाह बाग कालोनी ,यूनीवर्सिटी क़े बंगले में मामाजी क़े घर हफ्ता भर रहे.मौसी की वजह से एक बार फिर बनार्सीबाग चिड़ियाघर माईंजी सब को ले गई. उनके घर सुबह नौ बजे नाश्ता,दोपहर एक बजे खाना,रात को आठ बजे खाना सब निश्चित समय पर ही चलता था.लखनऊ मेल से हम सब लौटे.मौसी सीधे दिल्ली गईं और हम लोग हापुड़ उतर  कर पेसेंजर से मेरठ गये. इसी लखनऊ प्रवास में मामाजी ने बउआ से कहा था कि,हिस्ट्री पढ़ कर कम्युनल दिमाग हो जाता है अतः जीजाजी से कह कर विजय से छुडवा दो.उन्होंने विकल्प में सोशियोलोजी लेने को कहा था और यह भी कहा था कि,एम.ए.उनके पास आ कर एन्थ्रोपोलोजी  से कर लूं अपने यहाँ ही सर्विस दिला देंगें.परन्तु बाद में मैंने बी.ए. करके ही पढ़ाई छोड़ दी थी.

पढ़ाई छोड़ कर सर्विस की तलाश में ५०० रु. तक जब खर्च हो गये तो वह भी मैंने बन्द कर दिया.नानाजी क़े एक फुफेरे भाई श्री महेश चन्द्र माथुर उस समय मेरठ में इन्स्पेक्टर आफ फैक्टरीज ,इंचार्ज मेरठ रीजन,मेरठ थे मैंने उनका सहारा लेने की बात कही तो बाबूजी सिफारिश करने क़े लिये तैयार न थे.

महेश नानाजी क़े बारे में-

जब हम लोग १९६१-६२ में बरेली में थे तब भी महेश नानाजी वहीं पर थे.उनके घर हम लोग जाते थे.उनको व नानीजी को रिश्तेदारी खूब आती थी.एक बार नानाजी ने बाबूजी की साईकिल रस्सी से बांध कर कार की छत पर रख ली और हम सब को छोड़ने सिविल लाईन्स से गोला बाजार आये थे.थापर नगर मेरठ में भी हम लोग उनके घर आते जाते रहते थे.अतः मैंने स्वंय उनसे मुझे कोई नौकरी दिलाने को कहा था.उन्होंने शर्त लगा दी पहले एक महीना हमारे घर दो-दो-दिन पीछे मिलने आते रहो तभी नौकरी मिलेगी.हमने जब उनकी शर्त पूरी कर दी तो एक माह बाद उन्होंने कहा अब एक बार अपने बउआ -बाबूजी को साथ लेकर आओ.मेरे माता-पिता से उन्होंने कहा यह लड़का नौकरी कर लेगा ,लेकिन तुम लोग यह बताओ कि यह तो नहीं कहोगे इसे नौकरी क्यों दिलाई,बहुत से मा-बाप बाद में लड़ने आ जाते हैं .उनकी सहमति मिलने क़े बाद उन्होंने एक निश्चित दिन मुझसे आने को कहा इस बाबत बाद में.अभी कुछ उनके सम्बन्ध में ही........(अगले अंक में)

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शनिवार, 8 जनवरी 2011

क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष(६)

बेरोजगारी क़े दौरान संघर्ष की बाबत ज़िक्र करने से पहले मेरठ कालेज में देखी,सुनी ,समझी और अनुभव की कुछ बातों का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा.मेरे विषय -राजनीति-शास्त्र,समाज-शास्त्र और अर्थ-शास्त्र थे.मैं इतिहास का विद्यार्थी था ,उसमें बेहद दिलचस्पी भी थी.परन्तु १९ ६९ में लखनऊ में मामाजी ने बउआ से कहा विजय को हिस्ट्री न दिलाएं यह जीजाजी से कह देना.मैंने स्वतः ही इतिहास छोड़ कर मामाजी की इच्छा का विषय सोशियोलोजी ले लिया था.इसके एच.ओ.डी.प्रो.डा.आर.एस.यादव तथा प्रो.हुसैना बेगम (जैसा सुना था)एक -दूसरे से विवाह धर्म क़े आड़े पड़ने पर नहीं कर सके थे. हमें तो प्रो.बेगम पढ़ातीं थीं बहुत अच्छे ढंग से.वह कांग्रेस (आर)में सक्रिय थीं.बाद में उन्होंने विधायक का असफल चुनाव भी लड़ा था.प्रो.एम.एस.रघुवंशी भी अच्छा पढ़ाते थे.एक चौ.सा :भी थे.सोशियोलोजी की कक्षा में राजनीतिक खिंचाई करते रहते थे.चौ.चरण सिंह को भी क्रिटीसाइज़  करते थे,कुछ छात्रों से तकरार भी इस पर उनकी होती थी.एक मेजर की विडो और इकोनामिक्स की प्रो.आशा चौधरी को रेस्टोरेंट में ले जाकर वह आवभगत करते थे;जबकि खुद समर्थक छात्रों की साईकिल क़े डंडे पर बैठ कर ढाबे पर उनके खर्च से चाय पीते थे.

अर्थ-शास्त्र में प्रो.ए. एस. गर्ग तथा प्रो. एम. पी. सिंह अच्छा पढ़ाते थे.गर्ग सा :की पत्नी प्रो एस. क़े.गर्ग रघुनाथ गर्ल्स डिग्री कालेज में इकोनामिक्स की एच. ओ. डी .थीं उनसे टकराव क़े कारण प्रो. आशा चौ.ने वहां की अपेक्षा  मेरठ कालेज को पसन्द किया था.वह बिलकुल अच्छा नहीं पढ़ातीं थीं.परन्तु उनकी कक्षा में उपस्थिति अधिक रहती थी.कक्षा छोड़ने की प्रवृत्ति  न होने क़े कारण उनकी बेकार की बातों को भी सुनना पड़ता था.डा.गर्ग इकोनामिक्स को राजनीति का मूल बताते थे और सामाजिक   समीकरणों को सुन्दर ढंग से समझाते थे.वह छात्र कैप्टन रमेश शर्मा (जिनके पिताजी मेरठ कालेज क़े प्रिंसीपल रहे थे)का भी आदर करते थे.


पोलिटिकल साईंस में प्रो.कैलाश चन्द्र गुप्ता और प्रो. आर.क़े.भाटिया क़े अलावा एक प्रो.शर्माजी भी बहुत अच्छा पढ़ाते थे.उनकी पत्नी भी हमारी कक्षा की छात्रा थीं.बेटे-बेटियों की शादी करके फुर्सत से अपनी छूटी पढ़ाई पूरी कर रहीं थीं.पति अध्यापक और पत्नी विद्यार्थी होतीं थीं.उनको सभी छात्रों का पूर्ण सम्मान प्राप्त था.सब लोग उन्हें अध्यापक की पत्नी ही मानते थे.कहा जाता था शर्माजी पी.एच.डी.हेतु विदेश गये थे,नयी शादी हुई थी.उनके किसी साथी ने ईर्ष्यावश तार भेज दिया कि उनकी पत्नी नहीं रहीं.वह पढ़ाई छोड़ कर लौट आये ,मानसिक आघात लगा.पढ़ाई और अध्यापन में व्यवधान आया.तभी उनकी पत्नी की भी पढ़ाई अधूरी छूट गई थी.प्रो.शर्मा हमें १९७१ में बताया करते थे कि जब ३० वर्ष पूर्व वह केंद्रीय वित्त-मंत्रालय में अधिकारी थे,तब वहां एक भी ईमानदार अधिकारी न था,जिस कारण उन्हें वह वैभवशाली नौकरी छोड़ कर अध्यापन को अपनाना पड़ा.
हमारी समाज-शास्त्र की कक्षा में उर्मिल खुराना नामक एक छात्रा शायद किसी बड़े अधिकारी की पुत्री होगी अक्सर ही तड़क-भड़क पोशाकों में आती थी.अर्थ-शास्त्र में उसका सेक्शन दूसरा था.उस सेक्शन क़े उन साथियों ने जो समाज-शास्त्र में हमारे साथ थे बताया था कि एक दिन उस छात्रा का टाईट स्लाइस क्लास में फट गया था. हास्टल क़े एक लड़के ने अपने कमरे से बड़ा तौलिया लाकर दिया जिसे लपेट कर रिक्शा पर बैठ कर वह घर गई और आधे घंटे क़े भीतर उसी रिक्शा द्वारा कपडे बदल कर बाकी क्लासेज अटेंड करने लौट आई.पूरे कालेज में यह चर्चा कई दिनों रही.


हमारी तीनों विषयों की कक्षाओं क़े एक साथी थे जय किशन  जैन,जिनसे सम्बन्ध सदैव मधुर रहे.४ थे सेमेस्टर में परीक्षाओं से डेढ़ माह पूर्व उन्होंने निवेदन किया कि उम्र में उनसे छै माह छोटी भतीजी उनसे ठीक से नहीं पढ़ रही है,दो बार फेल होकर तीसरी बार हाईस्कूल का इम्तिहान देगी और उसकी एंगेजमेंट हो चुकी है ,अतः उत्तीर्ण होना भी जरूरी है,मैं उसे ट्यूशन पढ़ा दूं.मेरे मना करने पर भी वह नहीं माने और मुझे बाध्य होकर अपनी पढ़ाई में कटौती कर क़े भी उनकी बिगडैल भतीजी को पढ़ाना ही पड़ा.शर्त क़े मुताबिक मैंने सिर्फ एक माह ही पढाया था.जय किशन क़े भाई साहब ने एक महीने का पारिश्रमिक ३० रु.देना स्वीकार किया था परन्तु बाद में कुल ३५ रु. दिये थे. इस बार वह सेकिंड डिवीजन में उत्तीर्ण हो गई.

एक पूरे सेमेस्टर में मेरा एक पूरा घंटा खाली पड़ता था.इसमें मैं लाईब्रेरी में बैठ कर वे पुस्तकें जो कोई नहीं पढता था लेकर पढ़ा करता था.जैसे हिन्दी सेवी संसार,धर्म और विज्ञान ,आचार्य काका कालेकर आदि की पुस्तकें.धर्म और विज्ञान महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती क़े प्रवचनों का संग्रह है.रोज आलमारी से निकालते-रखते परेशान होकर लाईब्रेरी सहायक सा :ने उस मोटे ग्रन्थ को अपनी कुर्सी क़े नीचे रख लिया था.वह मेरी शक्ल देखते ही मुझे धर्म और विज्ञान पकड़ा देते थे.आज जो मैं धार्मिक लेख लिख पाता हूँ उसमें इस अध्ययन का व्यापक योगदान है.अखबारों में सम्पादकीय पृष्ठ खाली पड़े मिल जाते थे,वही मुझे पढने भी होते थे.बाकी लोगों को तो खेल तथा मनोरंजन से वास्ता था.

प्रो.कैलाश चन्द्र गुप्ता द्वारा वर्णन की एक बात का ज़िक्र किये बगैर मेरठ कालेज का वृतांत समाप्त नहीं किया जा सकता.वह स्वंय बनिक समाज क़े होते हुए भी बनियों की मनोदशा पर बहुधा एक कहानी दोहरा देते थे.उन्होंने सुनाया था कि,एक गाँव में एक बनिए ने शौकिया मूंछें रख लीं थीं जो उसी गाँव क़े एक ठाकुर सा :को नागवार लगा.ठाकुर सा :ने बनिए को धमकाया तो वह नहीं माना;फिर उन्होंने बनिए को दस रु.का नोट देकर मूंछें नीची रखने को कहा तो बनिए ने अगले दिन से ऐसा करने का वायदा कर दिया. ठाकुर सा :प्रसन्न होकर चले गये.बनिया रोज एक तरफ की मूंछ नीची और एक तरफ की ऊँची रखने लगा. जब एक रोज दोबारा ठाकुर सा :उधार से गुजरे तो बनिए की एक मूंछ ऊँची देख कर भड़क गये.बोले तुम्हें दस रु. किस बात क़े दिये थे?बनिए ने सहज जवाब दिया सा :इतने में सिर्फ एक ओर की मूंछें नीची की जा सकतीं थीं सो वह मैं कर रहा हूँ.ठाकुर सा :ने तुरन्त एक और दस का नोट देकर कहा अब से दोनों मूंछें नीची रखना. बनिए ने फिर दोनों तरफ की मूंछें नीची कर लीं. प्रो. गुप्ता यह कहानी सुनकर जोरदार ठहाका लगते थे.

आगे अगले अंक में......


सम्पादन समन्वय-यशवन्त माथुर 

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गुरुवार, 6 जनवरी 2011

क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष(५)

चूंकि राजनीति में मेरी शुरू से ही दिलचस्पी रही है,इसलिए राज-शास्त्र परिषद् की ज्यादातर गोष्ठियों में मैंने भाग लिया.समाज-शास्त्र परिषद् की जिस गोष्ठी का ज़िक्र पहले किया है -वह भी राजनीतिक विषय पर ही थी.राजशास्त्र परिषद् की एक गोष्ठी में एक बार एम.एस.सी.(फिजिक्स)की एक छात्रा ने बहुत तार्किक ढंग से भाग लिया था.प्रो.क़े.सी.गुप्ता का मत था कि,यदि यह गोष्ठी प्रतियोगी होती तो वह निश्चित ही प्रथम पुरस्कार प्राप्त करती.राजनीती क़े विषय पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों क़े लिये यह दृष्टांत आँखें खोलने वाला है.प्रो.मित्तल कम्युनिस्ट  थे,उन्होंने" गांधीवाद और साम्यवाद " विषय पर अपने विचार व्यक्त किये थे.उनके भाषण क़े बाद मैंने भी बोलने की इच्छा व्यक्त की ,मुझे ५ मि.बोलने की अनुमति मिल गई थी किन्तु राजेन्द्र सिंह यादव छात्र -नेता ने भी अपना नाम पेश कर दिया तो प्रो.गुप्ता ने कहा कि फिर सभी छात्रों  हेतु अलग से एक गोष्ठी रखेंगे.१० अप्रैल १९७१ से हमारे फोर्थ सेमेस्टर की परीक्षाएं थीं,इसलिए मैंने नाम नहीं दिया था.प्रो.आर.क़े.भाटिया ने अपनी ओर से मेरा नाम गोष्ठी क़े लिये शामिल कर लिया था,वह मुझे ४ ता.को मिल पाये एवं गोष्ठी ६ को थी.अतः मैंने उनसे भाग लेने में असमर्थता व्यक्त की.वह बोले कि,वह कालेज छोड़ रहे हैं इसलिए मैं उनके सामने इस गोष्ठी में ज़रूर भाग लूं.वस्तुतः उनका आई.ए.एस.में सिलेक्शन हो गया था.वह काफी कुशाग्र थे.लखनऊ विश्विद्यालय में प्रथम आने पर उन्हें मेरठ-कालेज में प्रवक्ता पद स्वतः प्राप्त हो गया था.उनकी इज्ज़त की खातिर मैंने लस्टम-पस्टम तैयारी की.विषय था "भारत में साम्यवाद की संभावनाएं"और यह प्रो. गुप्ता क़े वायदे अनुसार हो रही गोष्ठी थी. अध्यक्षता प्राचार्य डा. परमात्मा शरण सा :को करनी थी. वह कांग्रेस (ओ )में सक्रिय थे उस दिन उसी समय उसकी भी बैठक लग गई.अतः वह वहां चले गये,अध्यक्षता की-प्रो. मित्तल ने.मैंने विपक्ष में तैयारी की थीऔर उसी अनुसार बोला भी.मेरा पहला वाक्य था-आज साम्यवाद की काली- काली घटायें छाई हुई हैं.मेरा मुंह तो आडियेंस की तरफ था लेकिन साथियों ने बताया कि,प्रो. मित्तल काफी गुस्से में भर गये थे.नीचे जो चार पुस्तकें आप देख रहे हैं ,वे मुझे इसी गोष्ठी में द्वितीय  पुरूस्कार क़े रूप में प्राप्त हुई थीं.प्रथम पुरस्कार प्रमोद सिंह चौहान को "दास कैपिटल"मिली थी.वह मेरे ही सेक्शन में थाऔर मैंने भी यूनियन में एम.पी. हेतु अपना वोट उसे ही दिया था.बाद में प्रो. भाटिया ने बताया था कि,उन्होंने तथा प्रो. गुप्ता ने मुझे ९-९ अंक दिये थे,प्रो. मित्तल ने शून्य दिया अन्यथा प्रथम पुरुस्कार मुझे मिल जाता क्योंकि प्रमोद को प्रो. भाटिया तथा प्रो. गुप्ता ने ५-५ अंक व प्रो. मित्तल ने पूरे क़े पूरे १० अंक दिये थे.







(कामायनी शाहजहांपुर में मिली थी)

कालांतर में (१९८६)मुझे कम्युनिस्ट आन्दोलन में सक्रिय रूप से शामिल होना पड़ा. १५ वर्षों में कितना अन्तर हो गया था.मैन इज दी प्रोडक्ट आफ हिज एन्वायरन्मेंट तो मैं कैसे बच सकता था.बहरहाल मेरठ विश्वविद्यालय में हम लोगों को एक एडीशनल आप्शनल सब्जेक्ट पढना होता था जो अपनी फैकल्टी का न हो.प्रथम सेमेस्टर में "धर्म और संस्कृति"सब क़े लिये अनिवार्य था. सेकिंड सेमेस्टर में मैंने "एवरी डे केमिस्ट्री"ले ली थी. आर्ट्स व कामर्स क़े ज्यादातर विद्यार्थी हाजिरी लगा कर भाग जाते थे,इसलिए पीछे बैठते थे. मेरे जैसे ४ -५ क्षात्र नियमित रूप से पहली रो में बैठते थे. पहले ही दिन प्रो. तारा चन्द्र माथुर ने प्रश्न उठा दिया -व्हाट इज साईंस?जब कोई नहीं बोला तो मैंने उनसे हिन्दी में जवाब देने की अनुमति लेकर बताया-"किसी भी विषय क़े नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध अध्ययन को विज्ञान कहते हैं."वह बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि हिन्दी में उन्हें भी इतना नहीं पता था वैसे बिलकुल ठीक जवाब है. आज जब लोग मेरे ज्योतिष -विज्ञान कहने पर बिदकते हैं,तब प्रो. तारा चन्द्र माथुर का वह वक्तव्य बहुत याद आता है.
तीसरे और चौथे सेमेस्टर में "कार्यालय पद्धति" ले लिया ताकि हिन्दी पढ़ कर छुट्टी मिल जाये.इसके एक प्रो. विष्णु शरण इंदु का आज भी ध्यान है क्योंकि वह बहुत अच्छा पढ़ाते थे.प्रो.रघुवीर शरण मित्र लिखित "भूमिजा" वह काफी तन्मयता से पढ़ाते थे.मेरा लेख" सीता का विदोह " उसी पढ़ाई पर आधारित है.(रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना जिसकी किश्तें क्रान्ति स्वर पर निकल रही हैं सर्व प्रथम सूक्ष्म रूप में मेरठ कॉलेज की मैगजीन में ही छपा था.)प्रो. इंदु एक रोज परिवार में महिलाओं की भूमिका पर बताने लगे उन्होंने अपने एक साथी प्रो. सा :क़े घर का वाकया बगैर उनका नाम बताये सुनाया.जब वह तथा ४-५ प्रो. लोग उनके घर बिन बुलाये पहुँच गये क्योंकि,वह किसी को बुलाते ही नहीं थे न कहीं जाते थे. उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए.प्रो. इंदु ने बताया कि, वे सब यह सुन कर हैरान रह गये कि उन प्रो. सा :क़े बच्चे चावल क़े माड़ क़े लिये झगड़ रहे थे. प्रो. सा :ने उस कमरे में जाकर अपनी पत्नी को कहा -मेरे साथियों क़े बीच आज बहुत बड़ी जलालत हो गई. उनकी पत्नी ने कहा कुछ नहीं हुआ आप जाईये मैं आकर सँभाल लेती हूँ. आधे घंटे बाद वह ६ कप माड़ लेकर आईं उनमे काजू-बादाम जैसे मेवे पड़े हुये थे. प्रो. इंदु ने कहा कि, वे सब साथी प्रो. झेंप गये और बोले भाभी जी इतना अच्छा माड़ बनाती हैं तभी बच्चे झगड़ रहे थे. उनका यह सब बताने का आशय था किसी भी घर की इज्जत उस घर की महिला क़े हाथों में है.

हमारे मेरठ कालेज क़े कन्वोकेशन में राज्यपाल डा. बी. गोपाला रेड्डी आये थे. राजेन्द्र कुमार अटल क़े नेतृत्व में छात्रों  ने गाउन का विरोध किया. मैं भी गाउन क़े पछ में नहीं था. बाद में उसे आप्शनल बना दिया गया. बिना गाउन क़े मैंने भी डिग्री हासिल की.मेरे सामने ही पोलिटिकल साईंस एसोसियेशन की नेशनल कान्फरेन्स भी हमारे कालेज में हुई थी. प्रो.हालू दस्तूर आदि तमाम विद्वान् तो आये ही थे,संगठन कांग्रेस क़े( पूर्व उप-प्रधान मंत्री )मोरारजी देसाई तथा कांग्रेस (आर.)क़े केशव देव मालवीय भी आये थे. दोनों में नोक-झोंक भी चली थी. मालवीय क़े भाषण क़े दौरान मोरारजी ने "हाँ पीपुल्स डेमोक्रेसी" शब्द से टोका-टाकी भी की थी.

कुल मिला कर मेरठ कालेज में पढ़ाई क़े दौरान काफी अनुभव भी हुए.चौ.चरण सिंह जो इसी कालेज से पढ़े थे देश क़े प्रधान मंत्री भी बने.उ.प्र.क़े मुख्य मंत्री भी वह हुए.यहीं क़े सत पाल मलिक भी केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं.मैं फख्र कर सकता हूँ कि, मैं भी इसी कालेज का क्षात्र रहा हूँ. मैंने आगे न पढने का निर्णय किया था. नौकरी मिलना भी आसान न था. बेरोजगारी क़े दौरान ......अगली कड़ी में.

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