बुधवार, 30 नवंबर 2011

आगरा/1990-91(भाग-10)

काफी दिनों बाद एक बार फिर शालिनी वहाँ सुबह गई क्योंकि फिर स्कूल खुलने वाले थे। लौटते मे मुझे बुलाने जाना ही था,सुबह सीधे ड्यूटी चला गया था। चाय के बाद आँगन मे बैठना हुआ क्योंकि दिन बड़े थे उजाला था अतः लौटने मे थोड़ी देर होने पर भी दिक्कत न थी। शालिनी की माता थी परंतु वह बच्चों के साथ टी वी ही देखती थी। संगीता ने बताया कि उन्हे नेटरम मूर से तीन दिनों मे ही लाभ हो गया था परंतु मेरे बताने के मुताबिक 10 दिनो तक खा और लगा ली थी। वह बची हुई दवा मुझे देना चाहती थी। मैंने कहा कि सम्हाल कर रखे किसी को भी किसी कीड़े-मकोड़े के काटने पर देने के साथ-साथ यह लू -sunstrok की भी अचूक दवा है। खैर फिर नेटरम मुर्यार्टिकम अपने पास ही रखी,दवा की कीमत तो तुरंत भुगतान कर चुकी थी। चूंकि संगीता ने ही फिर पुरानी बात उठाई थी तो शालिनी ने भी बिना चूके कह दिया कि इन्हें दवा आपसे  लगवाने मे आनंद आया और आपने फिर दोबारा आकर लगाई ही नहीं। संगीता क्यों चूकती फटाफट कह दिया आप भेजती तभी तो आते। काफी पुरानी बात जो ध्यान से भी हट चुकी थी संगीता ने याद दिलाते हुये कहा कि जब कविता ने ऊपर से ही इंनका हाथ मेरे सीने पर फिरवा दिया था तो आपने कविता से एतराज किया था अब खुद आपने ही फिरवा दिया फिर रोक दिया होगा। शालिनी ने कहा न रोका न भेजा ,आप चाहती थी तो भेजने को कहा होता।

कविता ,संगीता की बड़ी बहन थी और अपने पति राकेश के साथ सिटी के क्वार्टर पर आई थी तब हम लोग वहाँ पहले से मौजूद थे। राकेश को कोई काम होगा वह अपना हाथ मुझे दिखा कर चाय पीने के बाद चले गए थे। बाद मे कविता ने भी अपना हाथ दिखाया था और संगीता को भी हाथ दिखवाने को कहा था। आम तौर पर मै किसी का भी हाथ दूर से ही देखता हूँ। परंतु कविता ने अपने हाथ की कुछ लकीरों के बारे मे पूछते हुये मेरा हाथ जबर्दस्ती अपने हाथ पर रख कर बताया था और इस क्रम मे खुद ही मेरे हाथ को इस प्रकार घुमाया कि उनके सीने को छू गया तब संगीता ठठा कर हंस दी थी । इस हंसी के बदले मे ही कविता ने मेरा हाथ तुरंत संगीता के सीने पर फिरा दिया था ,उसी का जिक्र अब संगीता ने किया था।

कविता के दो पुत्रियाँ थी और वह बेटा चाहती थी ,मेरे यह कहने पर कि योग है तो बोली थी कि फिर प्रयास करेंगे और इसी बात की खुशी मे मेरा हाथ अपने सीने तक ले गई थी और संगीता के हंसने पर उसके सीने पर फिरा दिया था। शालिनी ने तब संगीता पर हाथ फिराने का कविता से विरोध किया था। बाद मे कविता के पुत्र भी उत्पन्न हुआ। कविता के एक जेठ विश्वपति माथुर आगरा मे ही ट्रांस यमुना कालोनी मे रहते थे। उनसे भी परिचय इनही लोगों के माध्यम से हुआ था। वह हाईडिल मे जूनियर इंजीनियर थे और उनका स्वभाव बेहद अच्छा था। वह हर एक की मदद करने को हमेशा तत्पर रहते थे। उनसे हमारा मेल हो गया था और हम उनके घर भी चले जाते थे। एक बार कविता उनके घर आई हुई थी ,राकेश नहीं आए थे। संगीता ने मुझे उनके घर जाकर कविता को संगीता के सिटी के क्वार्टर पर लाने को शालिनी से कहा था। वी पी माथुर साहब के घर जाने मे एतराज था ही नहीं। किसी कारण से कविता उस दिन नहीं आई लेकिन उनके सामने ही विश्वपति जी ने उनकी शादी का एक किस्सा सुनाया। उन्होने बताया था कि,राकेश की शादी मे उन्होने अपने एक-दो साथियों के साथ मिल कर मजाक करने की योजना बनाई थी और एन फेरों से पहले राकेश से कहला दिया था कि कलर्ड टी वी मिलने पर ही फेरे हो सकेंगे। वे लोग एकदम परेशान हो गए ,और हैरान भी क्योंकि माथुर कायस्थों मे दहेज का रिवाज-चलन है ही नहीं। कविता के घर के लोग समझा कर हार गए तो कविता के भाई बोले बारात लौटा दो। तब संगीता मैदान मे आई और विश्वपति जी तथा अपने होने वाले जीजा राकेश से सीधे बात करने पहुँच गई कि उनकी मांग संभव नहीं भाई साहब नाराज हैं और बारात लौटाने को कह रहे हैं। विश्वपति जी ने संगीता से कहा कि तुम आ गई हो तो बिना टी वी के शादी करवा देंगे वरना बारात लौटा ही ले जाते। उन्होने संगीता से डांस करने की शर्त रखी । संगीता ने फेरे पड़ने के बाद डांस दिखाना कबूल किया और सच मे वादा पूरा भी किया। विश्वपतिजी ने कहा कि संगीता ने कविता की शादी करा दी। कविता ने हंस कर उनकी बात का समर्थन कर दिया।

शालिनी को यह बात घर आकर बताई थी जो उन्हे याद भी थी। अपनी आदत पुरानी बातो  को याद कर समय पर दोहराने की न होने पर भी पता नहीं कैसे शालिनी ने कहा कि विश्वपति भाई साहब ने कविता की शादी की जो कहानी सुनाई थी वह भी जरा इन्हे सुना दीजिये। मैंने कहा खुद ही बता दो तो बोली आपने सीधे उनसे सुना है ज्यादा ठीक से बता सकते हैं इसलिए इसे आप ही बताएं। संगीता भी मुस्कराते हुये बोली हाँ क्या कहानी थी आप ही बता दीजिये। मैंने पूरा विवरण सुना दिया तो हँसते-हँसते ,लॉट-पोट होते हुये संगीता ने कहा क्या बुरा काम किया ,मजाक ही सही मम्मी और भाई साहब तो उस वक्त बहौत परेशान थे ,चुटकियों मे हल तो निकाल लिया। शालिनी ने पहले कभी टूंडला मे होली की रंग-पाशी पर संगीता द्वारा श्वसुर और जेठ के समक्ष किए गए 'मै तो नाचूँगी,मै तो नाचूँगी' गाना गाते हुये डांस का जिक्र भी सुना दिया और कहा आपको डांस वगैरह पसंद नहीं है ,नहीं तो कभी देखते। संगीता बोली पसंद न हो तो भी मै डांस दिखा दूँगी,जब कभी मम्मी जी अगली बार कहीं जाएँ तो आप (शालिनी से) इशारा कर दीजिएगा।

मुझे उस समय यह सब बड़ा अजीब लगा और बेहद खोज-बीन के बाद भी इस सबका रहस्य न समझ सका। तब से अब तक के तमाम घटनाक्रमों  को मई 2011 मे कमलेश बाबू द्वारा कुक्कू के श्वसुर को अपना कज़िन बताने के बाद तुलना करने पर सारा का सारा रहस्य एक पल मे उजागर हो गया और उनके  तथा उनकी  छोटी बेटी के द्वारा  फेसबुक मे फेक आई डी बना कर टटोल-खकोल करने से उसकी पुष्टि भी हो गई।  लेकिन  उसका जिक्र अपने समय पर ही।

1991 की गर्मियों मे ही बड़े ताउजी के निधन का 'टेलीग्राम' अचानक आया ,वह पूर्ण स्वस्थ थे। एकाएक बाबू जी का जाना संभव नहीं था। बिना रिज़र्वेशन के मै 'गंगा-जमुना' एक्स्प्रेस से गया , टिकट तो मैंने लिया ही था परंतु शरद मोहन ने जेनरल कोच मे  आसानी से  बैठवा दिया था । इत्तिफ़ाक से उस दिन फैजाबाद होकर जाने का टर्न था तो सीधे 'दरियाबाद' स्टेशन पर ही उतरा था। ताईजी समेत सभी ने परिचय देने पर पहचाना परंतु गाँव के एक सज्जन ने देखते ही उन लोगों से पूछा कि क्या यह 'दुलारे भैया' का बेटा है? मैंने पूछा बिना देखे आपने कैसे पहचाना तो उनका उत्तर था तुम्हारी शक्ल उनसे मिलती है न पहचानने का क्या सवाल?

ताउजी रात मे बिना लालटेन लिए उठ गए थे और अंदाज मे गलती होने से बाथरूम की तरफ जाने की बजाए कुएं मे गिर पड़े थे ,ब्रेन हेमरेज से तत्काल उनकी मौत हो गई थी। रात मे ही उन्हें कुएं से निकाल लिया गया था। मै तो औपचारिक रूप से शोक प्रगट करने गया था,दकियानूस वाद  मानता न था अतः तेरहवी  तक रुकने का प्रश्न ही नहीं था। दो दिन के लिए दुकानों से गैर-हाजिर था। रायपुर से सुरेश भाई साहब रोजाना वहाँ नहाने आते थे इन लोगों ने मुझे भी उन्हीं के साथ बाहर के कुएं पर नहाने भेजा और नहाते ही भुने चने खाने को दिये। अगले दिन भी यही प्रक्रिया रही।



मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ कि इस शोक के माहौल मे भी ताईजी ने 1988 मे बाबूजी के नाम भेजे इस पत्र का जिक्र किया (मुझे यह पत्र बाबूजी के कागजात से उनके निधन के बाद मिला है) जिसमे उन्होने बाबूजी से वहाँ आकर 'चकबंदी' के माध्यम से अपना खेती का हिस्सा लेने की बात कही थी। मैंने तो यह कह कर पल्ला झाड लिया कि ये सब आप बड़े लोगों के बीच की बातें हैं। मैं आप का संदेश बाबूजी को दे दूंगा।

अगले दिन ताईजी ने लखनऊ मे माधुरी जीजी से मिलते जाने को कहा हालांकि उनके एक बेटा और एक बेटी दरियाबाद मेरे पहुँचने के बाद ही आ गए थे। नरेश मेरे साथ लखनऊ आए ,वैसे तब वह लखनऊ ही रहते थे। रात को अवध एक्स्प्रेस से मै आगरा रवाना हो गया।

जिस प्रकार चंद्र शेखर जी ने भाजपा और कांग्रेस से मिल कर वी पी सिंह की सरकार गिरवा दी थी उसी प्रकार उनकी सरकार को राजीव गांधी के वक्तव्य-"हरियाणा पुलिस के दो कांस्टेबल मेरी जासूसी करते हैं" ने गिरवा दिया था और मध्यावधि चुनाव चल रहे थे कि इस प्रचार के दौरान ही राजीव गांधी की निर्मम हत्या भी लिट्टे विद्रोहियों ने कर दी जिन्हें खुद राजीव गांधी और उनकी माँ इंदिरा गांधी ने प्रश्रय दिया था। 

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सोमवार, 28 नवंबर 2011

आगरा/1991 -92 (भाग-9 )

गर्मियों की छुट्टी मे अक्सर शरद की माँ कुक्कू के पास कुछ दिन ज्यादा रहने को चली जाती थीं और शालिनी से कह जाती थीं कि जल्दी-जल्दी उनके क्वार्टर पर जाकर हाल-चाल लेती रहें। शालिनी सुबह ही रात की भी सब्जी बना कर फ्रिज मे रख देती थीं और यशवन्त को लेकर मेरे ड्यूटी जाने के वक्त वहाँ रुक जाती थीं। मै सुबह तो सीधे ड्यूटी निकल जाता था परंतु इन दोनों को लेने शाम को वहाँ थोड़ी देर रुकना ही होता था। बच्चे तो हमेशा टी वी पर ही बैठे रहते थे ,मुझे टी वी का शौक न था अतः शाम के वक्त आँगन मे बैठना पसंद करता था।

मुझे हमेशा ही अखबारों का बेहद शौक रहा है और यदि कोई राजनीतिक खबर विशेष हो तो अखबार मांग भी लेता था। होटल मुगल मे तो फ़ाईनेंशियल कंट्रोलर विनीत सक्सेना साहब ने कई अखबार मुझे घर लाने हेतु दिलवाने प्रारम्भ कर दिये थे जो उनके कंपनी छोडने के बाद भी बहौत दिनों तक मिलते रहे थे। दुकान पर सेठ जी से भी मै 'पंजाब केसरी' मांग लिया करता था और अक्सर एक लेख की चाह पर भी वह पूरा अखबार ही सौंप देते थे। डोडा डसकर साहब एक श्रंखला-'रूसियों का साम्यवाद से जी भर गया' लेखों की चला रहे थे। वैसे काफी अखबार मै ला चुका था जो घर पर सम्हाल कर रखे हुये थे। उन्ही मे से एक मे कहीं पंजाब की स्थानीय खबरों मे एक अजीब समाचार छपा था उसकी कटिंग काट कर शालिनी चुप-चाप सुबह ले आई होंगी।

उस बार शाम को जब मै आया और मेरी वजह से शालिनी और संगीता भी आँगन मे आ गए तो थोड़ी देर बाद शालिनी ने वह कटिंग निकाली  और बोली कि उस दिन भाभी जी ने आपको उस दिन की मजेदार खबर सुनाई थी आज आप यह पुरानी खबर उन्हे सुना दे उन्हे खूब मजा आयेगा। पहले मैंने कहा कि उस कटिंग को भाभी जी को दे दो वही खुद पढ़ लेंगी। परंतु शालिनी को तो अपनी उस भाभी से बदला निकालना था जिसका वह हमेशा ही बचाव करती थीं। वह अड़ गई कि भाभी जी को जो मजा सुनने मे आयेगा वह पढ़ने मे नहीं आयेगा। फिर मैंने सुझाव दिया कि सुनने मे नहीं तो सुनाने मे तो भाभी जी को मजा आता ही है ,अतः उन्हे सुनाने को दे दो ,अंततः शालिनी ने वह कटिंग संगीता को पकड़ा दी । उसमे एक नव-विवाहिता द्वारा सुहाग रात के बाद उसी रात खेतों मे एक बच्चे को जन्म देने की खबर थी जिसे बाद मे उसके पति ने तक्रार के बाद स्वीकार कर लिया था। इस खबर को खूब हँसते हुये संगीता पढ़ रही थीं और उनके पेट मे खूब बल पड़ रहे थे। हंसने और हंसी से पेट फूलने का नतीजा यह हुआ कि,संगीता के सभी वस्त्रों के हुक खुल कर ऊपरी वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गए और पेट के तनाव के कारण उन्हे नारा भी खोलना पड़ा । जान-बूझ कर या लापरवाही के कारण संगीता द्वारा एक हाथ से नारा खोलने पर दूसरे हाथ से चुन्नटें खुल कर बिखर गई। चुन्नटों को सम्हालने के चक्कर मे दूसरे हाथ से नारा भी फिसल गया और फिर नीचे निर्वस्त्र,ऊपर तो कहने को वस्त्र फिर भी बांहों पर  टंगे ही थे । एक बार तो संगीता सन्नाटे मे आ गई परंतु तुरंत सम्हल कर मुस्कराते हुये सब वस्त्र फिर ढंग से कर लिए। इसके  बाद संगीता बेहद प्रसन्न नजर आती रहीं। चाय के बाद हम लोग घर आ गए ।

घर पर इतमीनान से बैठने पर मैंने उस घटनाक्रम का कारण पूछा तो शालिनी का जवाब था कि जब संगीता (उन्होने भाभी जी शब्द नही बोला ) जरूरत से ज्यादा बेशर्म हैं आपको उस दिन वह खबर सुना रही थीं तो मैंने उन्हे आप से सुनवाना चाहा था। लेकिन यह भी ठीक रहा कि आपने उन्हे ही सुनाने को कहा और उनकी पूरी फिल्म सामने आ गई। चार या पाँच दिन बाद फिर शालिनी वहाँ गई और शाम को लौटते समय जब मै बुलाने गया तो उन्होने संगीता से पूछा कि उस दिन आपको बुरा तो नहीं लगा था क्योंकि आपको शर्मिंदगी उठानी पड़ गई। संगीता का जवाब फिर हैरत-अंगेज़ ही था कि किस बात  की शर्मिंदगी? आपने जो मज़ाक किया था वह बुरा मानने की बात क्या है? इस पर शालिनी ने संगीता से फिर कहा कि दिन मे आपने जो बात मुझसे कही थी तो वह भी बता दीजिये। काफी प्रसन्नतापूर्वक संगीता ने उस बात को दोहराते हुये बताया कि उन्होने कहा था कि आपने खुद देखा था विजय बाबू कुछ भी नहीं बोले इस जगह योगेन्द्र बाबू होते तो वह तो चिपट जाते। इस संभावना का कारण भी संगीता ने स्पष्ट किया कि एक बार जब वह योगेन्द्र को टी वी खरीदवाने उनके साथ रिक्शा पर साथ गई थी तो जाते-आते योगेन्द्र उनके (संगीता के) कूल्हो को थपथपाते मजा लेते गए थे। शालिनी ने बीच मे टोंक कर कहा कि आपको भी तो मजा आता रहा था,इस पर संगीता हंस दी।

जब घर पर मैंने शालिनी से पूछा कि अब क्या वह अपनी भाभी के खिलाफ हो गई हैं जो उनको बेनकाब करती जा रही है। शालिनी का उत्तर था वह बेहद गलत हैं इसका उतना अंदाजा शुरू मे किसी को नहीं था उनही के कारण मम्मी को यहा ज्यादा रुकना पड़ता है,15 दिन को गई तो मुझको  जल्दी-जल्दी चक्कर लगते रहने को कह गई है। लाईन मेन चारपाई बुनने आया था उसके पैंट की चेन खराब होगी मम्मी के सामने ही मुस्करा-मुस्करा कर वह कहती रहीं कि संतोष की चेन  खुली हुई है। उन्हे मर्दो से ही बात-चीत करने मे आनंद आता है इसी लिए आपके सामने भी खुलासा किया वैसे भी आपको बहौत कुछ पता था ही।

इसी पखवाड़े मे एक बार और शालिनी का वहाँ का ट्रिप लगा धूप और गर्मी से बचने हेतु वह घर से जल्दी चली थी लेकिन दुकान 11 बजे से पहले नही खुलती थी अतः मुझे सुबह भी एक घंटा रुकना ही पड़ा। चाय के बाद जब बच्चे टी वी पर जम गए और आँगन मे धूप थी अतः यह कहकर कि आपको टी वी से डिसटरबेन्स होता है संगीता हम लोगो को बारामदे मे ले आई। थोड़ी देर बाद संगीता इशारे से  कहती है कि उनके यहाँ (एक स्तन पर हाथ रख कर) सूजन हो गई है कोई दवा हो तो बता दीजिये और शाम को लौटते मे लेते आयेगा। शालिनी ने कहा कि पिछली बार निपिल कटे होने पर आपने बिना देखे दवा (SULPHOR 30) ला दी उससे फायदा भी हो गया लेकिन यह तरीका  गलत और रिसकी है पहले आपको देखना चाहिए तभी दवा का फैसला करना चाहिए। वस्तुतः वह निपिलों का कटना खुश्की के कारण था और उसमे सल्फर ही अचूक दवा होती है इसलिए ला दी थी।  उन्होने संगीता को दिखाने का इशारा किया वह तो जैसे उधार खा कर बैठी इसी बात का इंतजार कर रही थी । पलक झपकते ही दोनों खोल कर रख दिये। मै तो देखते ही समझ गया था कि यह चींटी के काटने की सूजन है किन्तु शालिनी ने मेरा हाथ पकड़ कर सूजे स्थान पर रख कर कहा दबा कर देखिये दर्द है या नहीं। दबाने पर दर्द होना लाजिमी ही था। फिर दूसरे पर उन्होने ही हाथ रख कर कहा और इसमे ,उसमे दर्द का प्रश्न कहाँ था बल्कि पहले वाला दर्द भी दूर हो गया और संगीता हंस दी। शाम को लौटते मे मै NATRUM MUR 6 X(किसी भी जहरीले कीड़े के काटने पर इस बायोकेमिक दवा से अचूक लाभ होता है) लेता आया और चार-चार गोलिया दिन मे तीन बार या 10-10-10 मिनट पीछे खाने को कहा। एक गोली पीस कर उसी चूर्ण को सूजन वाले स्थान पर लगाने को कहा। शालिनी ने तपाक से कहा कि सूजन पर एक बार लगा कर समझाते जाइए कैसे लगाना है। हा बता जाइए कह कर संगीता ने भी उसी तपाक से दोनों खोल डाले। जब मै चिकित्सक के नाते संगीता के पैर पर पट्टी बांध सकता था तो उसी चिकित्सक के नाते दवा की एक गोली अंगूठे से दबा कर पीस ली और सूजन वाले भाग तथा उसके इधर-उधर मल दी। शालिनी बोली सूजन के कारण संगीता (मुंह पर भी भाभी न कह कर)को दर्द हो गया जरा दूसरे को सहला दे जिससे आराम मिल जाये और अपने हाथ से मेरा हाथ दूसरी ओर रख दिया,आदतन संगीता को राहत मिलनी ही थी। घर आकर शालिनी ने कहा कि अब संगीता को ऐसे ही मजा चखाना पड़ेगा बहौत उछलती हैं। ......यह समय जहां राजनीतिक हलचलों का था वहीं इस प्रकार की बेवकूफी भरी हलचलों का भी। 

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शनिवार, 26 नवंबर 2011

आगरा /1990-91 (भाग-8 )

इन दिनों विहिप आदि का रामजन्मभूमि आंदोलन भी ज़ोरों पर था। शिला पूजन आदि के नाम पर धन बटोरा जा रहा था विद्वेष भड़काया जा रहा था। 'मंटोला' क्षेत्र मे पी ए सी के माध्यम से तत्कालीन एस एस पी कर्मजीत सिंह घरों से निवासियों को खदेड़ने मे कामयाब रहे थे। वह कल्याण सिंह के चहेते थे बाद मे मायावती के चहेते बन कर डी जी पी बने। हमारी पार्टी भाकपा 'सांप्रदायिकता विरोधी' अभियान चलाती रहती थी ,अक्सर जिला मंत्री मिश्रा जी मुझ से भी विचार व्यक्त करने को कहते थे। मै संत कबीर के दोहों के माध्यम से अपनी बात सिद्ध करता था जो उन्हें तब पसंद आता था और वह भी कभी-कभी ऐसा ही करते थे।

इन्ही वर्षों के लगभग 'पनवारी' नामक गाँव मे एक दलित को घोड़ी पर चढ़ कर बारात निकालने से रोकने हेतु जातीय संघर्ष भी हुआ था। (सन ठीक से याद नहीं है)। कमलानगर मे भी कर्फ़्यू लागू था। बउआ -बाबूजी उस समय फरीदाबाद मे अजय के पास थे। एक दिन शरद की बड़ी बेटी मेरे साथ साइकिल पर बैठ कर आ गई थी। सुबह शालिनी ने ही सिटी पर मिलते आने को कहा था। दिन मे उन्हें बुखार चढ़ गया था ,शाम को खाना बनाने का विचार नहीं था परंतु भतीजी के अचानक आ जाने पर बनाना पड़ा हालांकि वह 4या 5 वर्ष की ही रही होगी। जब कर्फ़्यू लगा उस समय वह हमारे घर थी। दो दिन के बाद पहुंचाने का वादा कर्फ़्यू ने पूरा नहीं होने दिया। शरद के एक मौसेरे भाई आशुतोष मेडिकल कालेज मे शायद तब हाउस जाब कर रहे थे ,एक दोपहर आकर अपने स्कूटर से शरद की बेटी को ले गए । डॉ होने के नाते वह बिना पास के आ-जा सकते थे। अपने हास्टल से सिटी क्वार्टर पहुंचे उन लोगों का हाल-चाल लेने तो उनकी भाभी संगीता ने अपनी बेटी को ले आने को उनसे कहा था।

कर्फ़्यू समाप्त होने के काफी बाद एक दिन राज कुमार शर्मा जी (सप्तदिवा वाले विजय जी के बड़े भाई) एक और सज्जन के साथ यों ही मिलने चले आए थे। वह हमारी विचार -धारा से परिचित थे फिर भी बोले कि परंपरा तोड़ कर दलितों को बारात नहीं निकालनी चाहिए थी। पढे-लिखे सहायक अभियंता जी साईन्स साईड के थे फिर भी अवैज्ञानिक बातों के जरिये पोंगावाद का समर्थन कर रहे थे। वस्तुतः अमीर लोग गरीबों को ऊपर उठते नहीं देख सकते बल्कि उन्हें कुचले रखना चाहते हैं इसीलिए जातिवाद का समर्थन करते हैं।

लगभग यही धारणा शरद और उनकी माँ की भी थी। घर मे भी उनके यहाँ दकियानूस वाद  ही हावी था। संगीता को फिर रेलवे अस्पताल मे इलाज नहीं कराया जबकि फ्री होता। मेडीकल कालेज मे फेफड़ों की टी बी बताया गया और फेफड़ों से इंजेक्शन के जरिये पानी निकाला जाता था। एक दिन शालिनी सुबह मेरे साथ ड्यूटी जाने के समय यशवन्त को लेकर चलीं और सिटी क्वार्टर पर रुक गई। शाम को उन्हे लेने गया तो पता चला कि शरद टाईम न होने के नाम पर अपनी पत्नी को मेडीकल कालेज ड्यू टाईम पर नही ले गए थे। अतः उन लोगों ने शालिनी से कहा था कि अगले दिन ड्यूटी जाने से पहले मै संगीता को उनकी सास के साथ मेडीकल कालेज ले चलूँ और फेफड़ों से पानी निकाले  जाने के बाद अपनी ड्यूटी चला जाऊ और वे लोग अपने घर लौट आएंगे। मन  मे बुरा तो यह लगा कि जब संगीता के कहने पर डॉ रामनाथ को बुला लाया था तो झांसी से योगेन्द्र को बुला कर रेलवे अस्पताल भेज दिया था और मेरा समय बेवजह खराब करा दिया था तो अब मै साथ चलने से इंकार कर दूँ ।फेफड़ों मे भरा पानी पीठ की किसी नस से सीरिञ्ज द्वारा खींच कर निकाला जाता था।

 परंतु सब को मदद करने की आदत के कारण हामी भर दी और वादा भी निभाया।अतीत मे अजय की शादी और यशवन्त के जन्मदिन कार्यक्रम मे छोले -भटूरे बनाने का  शालिनी से  वायदा करके भी संगीता ने पूरा नहीं किया था। तब भी शालिनी की तमन्ना रहती थी कि मै उनकी भाभी को मदद कर दूँ। कभी तो शालिनी संगीता के असंगत व्यवहार पर उनमे बचपना होने की बात कह देती थीं जबकि उस समय खुद संगीता दो बच्चियों की माँ थीं। कभी -कभी खुद शालिनी को ही संगीता का व्यवहार पीड़ा पहुंचाता था। यो ही एक बार दिन मे यशवन्त को लेकर वह सिटी के क्वार्टर पर रुक गई थीं। शाम को दुकान से लौटते मे मै बुलाने गया था।चाय देने के बाद संगीता ने पूछा कि आपने मजेदार खबर सुनी है?उन लोगों के यहाँ 'अमर उजाला' आता था जो क्रिमिनल खबरें ज्यादा छापता था। दुकान पर 'पंजाब केसरी' आता था वहीं पढ़ लेता था ,घर पर नहीं लेता था। बाकी अखबार पार्टी (भाकपा)आफिस पर पढ़ लेता था। उस दिन पार्टी आफिस न जाकर वहाँ मौजूद था लिहाजा मै उस समाचार से बेखबर था। फिर खुद ही संगीता ने अखबार से वह खबर पढ़ कर सुनाई -दिल्ली मे आमने -सामने रहने वाले दो दम्पतियों के रोमांस की खबर को चटक ढंग से छापा गया था। एक परिवार का पुरुष दूसरे परिवार की महिला को लेकर नैनीताल मे गुलछर्रे उड़ाने गया था ,वह महिला अपने पति को झूठ बोल कर पीहर जाने के नाम पर पडौसी के संग गई थी। उसके पति ने सोचा कि पड़ौसन अकेली है उसका पति भी नहीं है वह उसे लेकर नैनीताल पहुँच गया। दोनों अलग-अलग होटलों मे ठहर कर एक -दूसरे की बीबियों के साथ मौज-मस्ती करते रहे। एक शाम दोनों अपनी-अपनी पड़ौसनो के साथ  विपरीत दिशा से घूमते हुये आमने-सामने आ गए और एक-दूसरे का कालर पकड़ कर मार-धाड़ करने लगे। भीड़ मे लोगो  ने उन्हें छुड़ा कर अपनी-अपनी बीबियों के साथ चुप-चाप चले जाने को कहा और चेतावनी दी कि यदि लड़े तो पुलिस को सौंप दिया जाएगा। इस खबर को जिस खुशी और मस्ती से संगीता ने पढ़ा था शालिनी को बुरा लगा होगा ,वहाँ तो चुप रहीं घर आकर मुझसे बोलीं दिन मे उन्हें बताया तो ठीक था परंतु उस खबर को मुझे इस अंदाज मे क्यों सुना रहीं थीं क्या वह मेरी पत्नी थीं। मैंने उन्हें जवाब दिया तुम्ही  समझो अपनी भाभी की बड़ी तरफदारी करती हो वह क्या हैं?उनमे बचपना है?या आवारगी?

'पनवारी कांड 'के कर्फ़्यू के दौरान ही गुरुशरण भाई साहब की बेटी की शादी भी पड़ी। लड़के वालों के बारात लाने से इंकार करने के कारण उन्होने दिल्ली जाकर शादी की  थी। शामिल न हो सके थे। अतः जब उनकी बेटी पीहर आई तो उन्होने सूचित किया कि शैली आई है। हम लोगों ने उनके घर जाकर अपनी हैसियत के अनुसार शैली को रु 21/- भेंट कर दिये।

हमने कभी बदले की आकांक्षा नहीं रखी और अपनी तरफ से सदा संबंध मधुर बनाए रखने का प्रयास किया जिसे मेरी कमजोरी समझा गया।


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सोमवार, 21 नवंबर 2011

आगरा/ 1990-91 ( विशेष राजनीतिक)

इसी काल मे भाकपा के जिला मंत्री रमेश मिश्रा जी के रमेश कटारा (जो अब पार्टी से बाहर हैं) के नियंत्रण मे आने की बात सामने आई। उनके निकटतम और घनिश्ठ्तम साथी आ -आ कर मुझ से कहते थे कि पार्टी और मिश्रा जी के परिवार को बचाओ। मैंने एक बार सीधे-सीधे मिश्रा जी से बात की तो पाया कि कटारा सहाब का जादू उनके सिर चढ़ कर बोल रहा था और कुछ फायदा कटारा के खिलाफ बोलने का नहीं होने वाला था। कटारा के मुद्दे पर ही मिश्रा जी को बड़ा भाई मानने वाले आनंद स्वरूप  शर्मा जी पहले 'लँगड़े की चौकी के शाखा मंत्री का पद' फिर बाद मे पार्टी ही छोड़ गए। एक एक कर लोग निष्क्रिय होते गए या पार्टी छोडते गए परंतु मिश्रा जी का कटारा प्रेम बढ़ता गया। अंदर ही अंदर एक काफी बड़ा वर्ग मिश्रा जी का विरोधी होता चला जा रहा था लेकिन मिश्रा जी इन सभी को पार्टी विरोधी घोषित करते जा रहे थे।

नानक चंद भारतीय भाकपा और नौ जवान सभा छोड़ कर बसपा मे चले गए। पार्षद शिव नारायण सिंह कुशवाहा भी भाकपा तथा नौ जवान सभा छोड़ कर समाजवादी पार्टी मे शामिल हो गए। पार्टी की शक्ति निरंतर कमजोर होती जा रही थी और रमेश मिश्रा जी कटारा के प्रेम मे मस्त थे। मेरी सहानुभूति कटारा विरोधियों के साथ थी परंतु कार्य मिश्रा जी के अनुसार करने की मजबूरी भी थी। कोशाध्यक्ष पद पार्टी का था मिश्रा जी की निजी फेकटरी का नहीं। कटारा साहब मुझे दबाने या धमकाने के फेर मे नहीं पड़े जबकि दूसरे लोगों के साथ ऐसी ज़ोर-आजमाईश करते रहते थे। डॉ  राम गोपाल सिंह चौहान और हफीज साहब भी कटारा से खुश नहीं थे यदि वे दबाव बनाते तो शायद मिश्रा जी उनकी बात मान सकते थे या शायद नहीं मानते तो इसी भय से उन लोगों ने कुछ कहा नहीं।

कटारा के प्रभाव मे मिश्रा जी के आने के बाद और अपनी बीमारी से पहले डॉ चौहान को प्रेक्टिल अनुभव हो चुका था कि कटारा को शिकस्त केवल मै ही दे सकता था। डॉ जवाहर सिंह धाकरे की पत्नी जो बहौत दिनों से महिला शाखा की मंत्री थीं अपने स्थान पर अपनी भतीजी श्रीमती मंजू सिंह को बनाने पर राजी थीं। कटारा की यह चाल थी कि अपनी भतीजी के पक्ष मे श्रीमती कमला धाकरे को हट जाने दो फिर वरिष्ठ शिक्षक नेता की हैसियत से कनिष्ठ शिक्षिका मंजू सिंह को अपने अनुकूल चलवाते रहेंगे। मिश्रा जी तो ब्लाईंड सपोर्ट कटारा की कर रहे थे उन्होने डॉ चौहान को महिला शाखा मे पर्यवेक्षक के रूप मे भेज कर श्रीमती मंजू सिंह को शाखा मंत्री चुनवाने का दायित्व सौंपा था। मिश्रा जी के भक्त किन्तु कटारा के प्रबल विरोधी कामरेड्स ने मुझसे अपेक्षा की कि कटारा की योजना को ध्वस्त कर दूँ। विकट स्थिति थी न तो मै मिश्रा जी को नाराज करना चाहता था न ही डॉ चौहान को  और न ही कटारा की योजना को सफल होने देना चाहता था और न ही डॉ धाकरे को यह एहसास होने देना चाहता था कि उनकी पत्नी की भतीजी को मैंने शाखा मंत्री नहीं बनने दिया।

हालांकि शालिनी भाकपा की महिला शाखा की सदस्य थीं किन्तु मैंने उन्हें सलाह दी थी कि वह बैठकों मे तटस्थ रुख ही रखें। सबसे पहले उस शाखा की सहायक मंत्री श्रीमती मंजू श्रीवास्तव (जो किशन बाबू श्रीवास्तव साहब की पत्नी थीं )को राजी किया कि वह सरला जी के स्थान पर उनकी भतीजी श्रीमती मंजू सिंह के विरुद्ध अपना नाम प्रस्तावित होने पर पीछे न हटें और मुक़ाबले मे डटी रहें। उसके बाद मिश्रा जी की सबसे विश्वस्त कामरेड को सारी परिस्थिति समझा कर उनसे महिला शाखा का मंत्री बनने का निवेदन किया और उनके इंकार करने पर   मंजू श्रीवास्तव जी का नाम प्रस्तावित करने का अनुरोध किया जिसे उन्होने न केवल स्वीकार कर लिया बल्कि रिक्शा से बाकी महिलाओं के घर-घर जाकर उन्हें कमला जी द्वारा प्रस्तावित मंजू सिंह के विरुद्ध मंजू श्रीवास्तव का समर्थन करने पर राज़ी किया।

बैठक मे कामरेड कमला  धाकरे ने खुद हटने और अपने स्थान पर अपनी भतीजी कामरेड मंजू सिंह का नाम प्रस्तावित किया जिसका किसी ने भी समर्थन नहीं किया और मिश्रा जी की विश्वस्त  कामरेड ने कामरेड मंजू श्रीवास्तव का नाम प्रस्तावित कर दिया जिसका (कमला  जी और मंजू सिंह के अतिरिक्त ) सभी ने ताली बजा कर स्वागत किया । बाद मे कमला  जी ने भी अपनी स्वीकृति दे दी और इस प्रकार अपने पहले ही शक्ति परीक्षण मे कटारा साहब मुंह की खा गए। डॉ चौहान की उपस्थिती मे हुये इस चुनाव की औपचारिक पर्यवेक्षक रिपोर्ट के अतिरिक्त मौखिक रूप से सारा विवरण उन्होने मिश्रा जी को दिया तो मिश्रा जी हैरान रह गए कि डॉ चौहान की मौजूदगी के बावजूद एक ठाकुर कामरेड को रिजेक्ट कर दिया गया। मिश्रा जी ने डॉ चौहान से पूछा कि आपने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया तो वह बोले वहाँ मतभेद होता तभी तो हस्तक्षेप की नौबत आती ,कमला  जी ने भी तो खुद ही मंजू सिंह के स्थान पर मंजू श्रीवास्तव को स्वीकार कर लिया था तो बतौर पर्यवेक्षक वह क्या कर सकते थे?मिश्रा जी ने कहा डॉ साहब यह आपकी पहली हार है,पड़ताल कीजिये कि क्यों आप मिशन मे कामयाब नहीं हुये?उन्होने कहा जांच तो करेंगे ही और उन्होने अपने तरीके से जांच मे सच्चाई का पता भी निकाल लिया ,किन्तु मिश्रा जी को कहते रहे कुछ पता नहीं चल पा रहा है,उन्होने तभी मन मे तय कर लिया था कि मिश्रा जी को कटारा के चंगुल से यह (विजय माथुर)ही निकाल पाएगा और इसी लिए अपनी बीमारी के दौरान ही उन्होने अपना चार्ज मुझे दिलवाकर अपने स्थान पर कोशाध्यक्ष बनवा दिया था और निश्चिंत हो गए थे। जैसा कि मिश्रा जी ने बताया था कि उन्हें अपना नाम तक लिखना नहीं आता था यह डॉ चौहान ही थे जिनहोने उन्हें पार्टी मे भी बढ़ाया और पढ़ाया उनको खुद का नाम लिखना भी सिखाया। शायद इसी गुरु धर्म के निर्वाह मे वह मिश्रा जी का खुल कर विरोध या आलोचना नहीं करना चाहते होंगे और असंतुष्ट होने के कारण उन्हें खुशी ही हुई होगी कि मैंने डिप्लोमेटिक तरीके से कटारा का तिलस्म तोड़ दिया और मिश्रा जी पर आंच भी न आने दी ।हकीकत पता चलने पर डॉ धाकरे और उनकी पत्नी कमला  जी भी खुश थीं कि मैंने उनकी भतीजी श्रीमती मंजू सिंह को एक गलत आदमी के चंगुल मे फँसने से बचाने हेतु उनका विरोध करवाया था। धाकरे दंपति का मुझे आशीर्वाद भी इस घटना के बाद हासिल हो गया और आगे उन दोनों ने मुझे ब्लाईंड सपोर्ट भी किया जिसका वर्णन अपने उपयुक्त समय पर होगा ।  

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गुरुवार, 17 नवंबर 2011

आगरा /1990-91 (भाग- 7 )

गोविंद बिहारी मौसा जी (बउआ की फुफेरी बहन रानी मौसी के पति) जो कमलेश बाबू के चाचा के मित्र होने के कारण उनके चाचा भी हुये अपनी भतीजी की शादी शरद मोहन,पार्सल बाबू से करवाना चाहते थे। वह और मौसी स्कूटर पर बैठ कर टूंडला भी गए थे। परंतु शरद की माता जी ने उन दोनों को हमारे रिश्ते को ध्यान मे रखते हुये रु 11/-11/-देकर बिदा कर दिया था और शरद की शादी अलवर की काली पप्पी  अर्थात संगीता से कर दी। वह मुझ से तब से विशेष चिढ़ गए थे। उन्होने यह नहीं सोचा कि मै किस हैसियत से उन लोगों को बाध्य कर सकता था। 1990-91 मे आर एस एस की हलचलें तथा जार्ज बुश का तांडव बढ्ने का उनके दिमाग पर पूरा-पूरा असर था। उन्होने मुझे सद्दाम हुसैन कहना शुरू कर दिया था। अतः मैंने भी उनके घर जाना कम कर दिया था।

संगीता ने बाद मे बताया था कि जहां उनकी भतीजी की शादी हुई थी वहाँ से तलाक भी हो गया था। वह लड़का संगीता के पीहर वालों मे था। रानी मौसी की बड़ी भतीजी की एक नन्द की शादी शरद के मौसेरे भाई से हुई थी,उसका भी तलाक हो गया था। गोविंद बिहारी मौसाजी अपनी बड़ी साली को इंदिरा गांधी कह कर मज़ाक उड़ाने लगे थे। जबकि सीता मौसी का व्यवहार तो रानी मौसी से बहौत ज्यादा अच्छा था। इसलिए कई बार दोनों का घर अगल-बगल होते हुये भी केवल सीता मौसी के घर से लौट आते थे और रानी मौसी के घर नहीं जाते थे।

तारीख तो अब ठीक से ध्यान नहीं परंतु इन्हीं दिनों सेठ जी ने भी अपने 'भरतपुर हाउस'मे बने नए मकान का गृह प्रवेश किया था। मुझे सुबह आठ बजे से वहाँ बुला लिया था दूसरे कर्मचारियों के साथ ही। उनकी पूजा समाप्त होने के बाद उनके कहने पर मैंने भी लोगों को प्रशाद के दोने उठा-उठा कर दिये थे। गर्मी का मौसम था। एक ग्लास पानी को भी उनके यहाँ किसी ने नहीं पूंछा। न ही प्रशाद लेने को किसी ने कहा ,वैसे भी मुझे ढ़ोंगी प्रशाद मे दिलचस्पी नहीं थी,उल्लेख तो उनका शिष्टाचार जतलाने हेतु किया है। जब दोपहर  मे भोजन प्रारम्भ हुआ तो मै चुप-चाप घर चला आया,मुझ से तो उन्होने भोजन का न पहले जिक्र किया था न उस दिन जबकि सुबह से बुला लिया था। बाद मे दुकान पर बोले कि,बिना खाना खाये क्यों चले आए? मैंने भी स्पष्ट कह दिया आपने खाने को कब कहा था? दूसरे कर्मचारी कह रहे थे कि खाने को तो उनसे भी नहीं कहा था पर वे खा आए। सबकी बात मै नहीं जानता परंतु मै कभी भी दूसरों के घर खाना-नाश्ता के फेर मे नहीं पड़ता। यदि मुझे विशेष तौर पर कहा जाता है तभी गौर करता हूँ वरना नही।काम की जानकारी होने और मजबूत पकड़ के कारण दुकान पर तो मै अपने हिसाब से काम कर लेता था और उसी समय मे कटौती करके भाकपा की गतिविधियों मे भाग ले लेता था और वह चुप रह जाते थे,परंतु अब घर पर मौका था कि वह अमीरी-गरीबी के भेद को स्पष्ट करते सो उन्होने कर दिखाया।

क्रमशः.....


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सोमवार, 14 नवंबर 2011

लखनऊ के अपने मकान मे दो वर्ष

आज ही की  तारीख मे गत वर्ष अपने लखनऊ आने का विवरण दिया था। पहले इस वर्ष इस विषय पर कुछ लिखने का विचार नहीं था ,हालांकि ऐसा कुछ भी विशेष कारण इसका नहीं था। यों तो हम लोग जिस प्रकार अपने लोगों के जन्मदिन पर केवल हवन करते हैं उसी प्रकार आज भी केवल हवन ही किया था ,किन्तु 'वास्तु शास्त्र' के मुताबिक कुछ विशेष सामाग्री और लेकर विशेष मंत्रों से अतिरिक्त आहुतियाँ और दे दी।

ब्लाग जगत मे पिछले कई पोस्ट मे नव-वर्ष आदि के अवसर पर जिन ब्लागर्स की तारीफ मे दो शब्द भी लिखे थे उनके प्रोफाईल खंगाल कर हमारी छोटी भांजी साहिबा ने अपने पिताश्री के बी माथुर साहब के माध्यम से उन्हें मेरे विरुद्ध करने का प्रयास किया। फिर 'अन्ना' का कारपोरेट घरानों का हितैषी आंदोलन चलने पर तमाम ब्लागर्स ने उसका अंध समर्थन किया। इस कारण मुझे कई ब्लाग्स अनफालों भी करने पड़े और कई को फेसबुक मे ब्लाक भी किया। कुछ पर 'अन्ना' के विरोध मे टिप्पणिया खुल कर दी और अधिकांश पर मौन रखा। हम-संम विचार धारा के ब्लागर्स ने अन्ना-विरोधी लेख प्रकाशित किए उन पर खुल कर समर्थन किया और उनमे से कुछ को अपने 'कलम और कुदाल' पर साभार  पुनर्प्रकाशित भी किया। जहां अन्ना/रामदेव की कीचड़ मे फंस कर अधिकांश ब्लागर्स अपना आपा खो बैठे थे और अन्ना विरोधियों को 'बकवास','वाहियात' जैसी उपाधियों से विभूषित कर रहे थे। उनके बीच मे उनके समर्थक होते हुये भी 'कीचड़ मे कमल' अथवा 'काँटों के बीच गुलाब' के रूप मे डॉ टी एस दराल साहब, मनोज कुमार जी एवं सलिल वर्मा जी का नाम आदर सहित लिया जा सकता है। इन तीनों का नाम पहले भी ससम्मान आया है इनके साथ और जो नाम प्रशंसा पाये थे वे सब अन्ना की अंध आंधी मे उड़ गए हैं।

पिछले वर्ष से अब तक (अप्रैल से नवंबर के मध्य) कुछ ब्लागर्स से व्यक्तिगत मुलाकातें भी सम्भव हुई जिनमे स्थानीय के अतिरिक्त दूसरे नगरों और विदेश से पधारे सज्जन भी थे। सभी मुलाकातें बेहद अच्छी रहीं  हैं। तीन साहित्यिक गोष्ठियों मे भी बुलावा मिला और हम तीनों मे ही उपस्थित हुये तथा  ज्ञानार्जन किया। AISF के प्लेटिनम जुबली समारोह मे एक कार्यकर्ता की हैसियत से भाग लिया। प्रगतिशील लेखक संघ के भी 75 वर्ष सम्पन्न होने के कार्यक्रम मे एक श्रोता की हैसियत से उपस्थित रहा और तमाम जानकारी हासिल कीं। भाकपा के आंदोलनों मे से कुछ मे एक कार्यकर्ता के नाते  सक्रिय रूप से शामिल हुआ। और इस प्रकार राजनीति एवं साहित्यिक गतिविधियों  मे पूरी तरह संतुष्टि प्राप्त हुई जबकि ब्लाग जगत का अनुभव अच्छा नहीं रहा। और अच्छा नहीं रहा व्यक्तिगत रिश्तेदारियों का कटु अनुभव। छोटी बहन डॉ शोभा और बहनोई माननीय कमलेश बिहारी माथुर साहब के पोल-पट्टों का खुलासा तथा उनकी के एम एवं शरद मोहन माथुर (पार्सल बाबू) के साथ घनिष्ठता का उजागर होना जहां धक्का लगने वाली बात थी वहीं इससे और आगे उनके द्वारा क्षति पहुंचाए जाने की कोशिश को ब्रेक भी लग सकता है जो हमारे लिए लाभदायक स्थिति ही होगी। हालांकि अभी तो छल-छ्द्म इनके चल ही रहे हैं। इनके रिशतेदारों तथा मित्रों को फेसबुक पर ब्लाक कर देने के कारण इन्हों ने kb mathur नाम से दूसरी आई डी बना कर हम लोगों का फेसबुक अकाउंट खँगालने का प्रबंध किया था जिसे भी ब्लाक कर देने के कारण अब यह और कोई तिकड़म भिढ़ाएंगे।  इनके रवैये के कारण ही 1990-91 और आगे -पीछे की वे बातें जो पहले ब्लाग मे देने का विचार नहीं था,देनी पड रही हैं।बात बेहद साफ है जब बहन-बहनोई की कारगुजारियाँ प्रकाश मे लानी पड़ी तो उन लोगों को क्यों छोड़ा जाये जिनके इशारे पर इन लोगों ने हमे मिल कर मारने की चाले चलीं।

पिछले वर्ष के लेख के बाद बाबूजी के फुफेरे भाई के पुत्रों -पुत्री से संपर्क हुआ था। इनमे से कमल दादा ने डॉ शोभा को 'टेढ़ी' बताया था उनका निधन मार्च 2011 मे हो गया। उनके शांति हवन मे मिली शैल जीजी ने भी डॉ शोभा को 'चिढ़ोकारी' बताया था उनका भी निधन अगस्त  2011 मे हो गया । यहाँ आने के बाद हमने सभी रिशतेदारों से संपर्क रखना चाहा था लेकिन ज़्यादातर के  अमीर होने के कारण निर्वाह नहीं हो सका ,अब हमने ऐसे संपर्क न करने का ही फैसला किया है। 'एकला चलो' वाला  जो सिद्धान्त पहले से ही प्रिय था उसी पर आगे चलने का पक्का फैसला किया है। यही इस एक वर्ष की उपलब्धि है। 

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बुधवार, 9 नवंबर 2011

आगरा /1990-91 (भाग-6 )

इसी प्रकार एक बार शाम के समय दुकान से लौटते मे सिटी स्टेशन गए थे चूंकि काफी दिनों से वहाँ की कोई खबर नहीं थी। तब मोबाईल/फोन नहीं थे। शालिनी अक्सर सुबह ही कह देती थीं कि पार्टी आफिस जाने से पहले उनके भाई के घर का हाल-चाल पता करता जाऊ । ऐसे ही उस दिन भी कहा था और वहाँ पहुँचने पर पाया कि फिर संगीता दर्द से पीड़ित थीं। उन्होने अपनी सास और दोनों बेटियों की मौजूदगी मे ही कहा कि आप अपने मित्र डॉ (चिकित्सक) रामनाथ  को बुला लाइये उनका ही इलाज करते हैं। उन्होने प्रत्यक्ष रूप से कहा कि शरद तो डबल ड्यूटी कर सकते हैं ,घर नहीं देख सकते। (चूंकि ड्यूटी पर अतिरिक्त कमाई होती थी इस वजह से पार्सल बाबू स्टेशन छोडना ही न चाहते थे)। हालांकि उनकी सास को अच्छा  नहीं लगा था परंतु फिर भी फर्ज के नाते मैंने उनसे पूंछा कि यदि आप कहेंगी तभी हम उन डॉ साहब को लाएँगे अन्यथा नहीं। उन्होने डिप्लोमेटिक जवाब दिया कि जब संगीता उनको कह रही हैं तो उन्हें ही बुला दीजिये ,शरद को तो अभी समय नहीं है जो दिखाने ले जाये।

मेरे मित्र डॉ साहब चिकित्सक,पंडित,ज्योतिषी,शेयर ब्रोकर सभी थे उन्हें उनके क्लीनिक या घर पर पकड़ने का मतलब तमाम वक्त इंजार मे गुज़ारना होता था। अतः मै उस दिन अपनी पार्टी भाकपा के कार्यालय नहीं जा कर घर आया और शालिनी को सारा वृतांत बता दिया कि तुम्हारी माँ ने सीधा जवाब नहीं दिया  है जबकि तुम्हारी भाभी ने स्पष्ट कहा है। शालिनी ने तो डॉ को लेते जाने को कह ही दिया मेरे माता-पिता ने भी उनका समर्थन कर दिया। रात के साढ़े-नौ बजे डॉ साहब अपने क्लीनिक पर पधारे ऊपर ही उनका घर भी था। उनके क्लीनिक पर अपनी साइकिल छोड़ कर उनके स्कूटर पर बैठ कर उनके साथ सिटी स्टेशन के क्वार्टर पहुंचा ।
आव-भगत मे तेज शालिनी की माता जी तो फटा-फट चाय -नाश्ता डॉ साहब के लिए बनाने उठ गई। डॉ साहब ने नब्ज,स्टेथोस्केप से चेक करने के बाद संगीता का  पेट पेड़ू तक  चेक(नारा खुलवा कर) करके तात्कालिक रूप से खाने हेतु कुछ दवाएं लिख दी और सीने का एक्सरे कराकर दिखाने को कहा और उसी के बाद इलाज शुरू करने को कहा। डॉ साहब के सामने ही तय हुआ जिसमे शालिनी की माता जी ने भी हाँ मे हाँ मिलाई थी कि अगले दिन मै सुबह अपनी ड्यूटी जाने से पहले वहाँ आकर संगीता और उनकी सास को एक्सरे हेतु ले चलूँ।

मै जब अपने दिये समय पर पहुंचा  तो पता चला कि झांसी से सीमा के पति योगेन्द्र चंद्र आकर संगीता को रेलवे अस्पताल चेक कराने ले गए हैं। तब तक दुकानें खुलने का वक्त नहीं हुआ था लिहाजा वहीं कुछ देर और  रुकना पड़ा। शाम को लौट कर मैंने शालिनी से यह दास्तान बताई तो उन्होने कहा मिलने पर पता करके बताएँगे कि रात-रात मे प्रोग्राम कैसे बदला और झांसी से योगेन्द्र रातों-रात चल कर सुबह-सुबह कैसे पहुँच गए। यदि ऐसे करना था तो मुझे क्यो कहा गया था?

बहर-हाल रेलवे डॉ ने भी एक्सरे कराने को कहा था। शरद ने अपने राजा-की-मंडी स्टेशन के पास एक एक्सरे क्लीनिक पर अपनी माँ और पत्नी को भेज कर एक्सरे करवाया था जिसे रेलवे डॉ ने रिजेक्ट करके दूसरा एक्सरे करवाने को कहा था। शरद को तो वक्त ही न था लिहाजा पुनः एक्सरे टलता रहा। काफी दिन हो गए थे मै उधर जाना नहीं चाहता था। एक रोज शालिनी फिर बेहद अनुरोध के साथ बोलीं कि आज जाते मे जरा देर को खड़े-खड़े ही हाल पता कर लें। लिहाजा मै सिटी क्वार्टर के रास्ते से ही गया। वहाँ देखा कि संगीता और उनकी सास घर मे ताला लगा कर क्वार्टर के बाहर खड़ी हैं,लड़कियां स्कूल मे थीं। कारण यह बताया कि शरद ने सिटी स्टेशन के फोन के जरिये संदेश भेजा था तैयार रहना आकर एक्सरे क्लीनिक चलेंगे। घंटे भर से खड़े हैं इन्तजार कर रहे हैं कहीं कोई संदेश,कोई खबर नहीं है। संगीता बोलीं आप किसी दूसरे एक्सरे क्लीनिक को जानते हों तो वहाँ ले चले वहीं एक्सरे  करा लेते हैं,उनकी सास साहिबा बोलीं कि अरे पहले चाय तो पिला दो फिर चलना। मैंने कहा अगर चलना है तो ताला न खोलें और किसी तकल्लुफ मे न पड़ें तुरंत चलें क्योंकि मेरा भी ड्यूटी पहुँचने का समय हो रहा है।

खैर फिर वे लोग सीधे रिक्शे के जरिये चले मैंने एस एन मेडिकल कालेज के पीछे स्थित एक एक्सरे क्लीनिक पर पहुंचा दिया। शालिनी की माता जी बोलीं थोड़ी और देर कर लीजिये एक्सरे हो जाये तब आप ड्यूटी निकल जाएँ हम लोग घर चले जाएँगे। राजा-की-मंडी स्टेशन के पास उनसे रु 75/-चार्ज हुये थे जबकि यहाँ रु 60/- ही लगे। मंहगे क्लीनिक के एक्सरे मे पिन आने से तस्वीर साफ नहीं थी वहाँ के टेकनीशियन ने कुछ बताया नहीं था। इस सस्ते किन्तु मेडिकल कालेज के बगल वाले क्लीनिक का टेकनीशियन चतुर था। उसने ब्लाउज के हुक तो खुलवाए ही,पिन भी हटवाए तथा गले की चेन भी उतार देने को कहा। पिन तो संगीता ने रुमाल मे लपेट लिए थे चेन मुझे संभालने को पकड़ा दी क्योंकि उनकी सास तो उनके साथ ही थीं। एक्सरे हो जाने के बाद चेन सौंप कर मै ड्यूटी के लिए चला गया हालांकि देर हो चुकी थी और सेठ जी कुछ कहने की स्थिति मे नहीं थे। एक्सरे प्रिंट शाम को मिलना था उन लोगों ने कहा लौटते मे मै लाकर उनके घर दे दूँ ।

मैंने शाम को एक्सरे प्रिंट और रिपोर्ट सौंप दी। सुबह घर के बाहर से लौट गया था अतः चाय पिलाई । मै इस दिन फिर भाकपा कार्यालय नहीं पहुँच पाया। शालिनी से इस नाटक को बता कर पूंछा कि योगेन्द्र चंद्र को झांसी से बुला कर रेलवे अस्पताल मे दिखाना,एक्सरे कराना दोबारा कराने मे तुम्हारे भाई द्वारा टाल-मटोल करना फिर आखिर मे मेरी  ही मदद लेना कौन सी थ्योरी है?इसका जवाब न शालिनी दे सकती थीं न दिया।

क्रमशः....


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रविवार, 6 नवंबर 2011

आगरा/1990-91(भाग-5 )

यह जानते हुये भी कि मै शालिनी के पीहर वालों के व्यवहार और रवैये से खुश नहीं था उनका अक्सर आग्रह होता था कि मै जाते या आते मे थोड़ी देर रुक कर सिटी स्टेशन पर उनकी माँ,भतीजियों ,भाई-भाभी का हाल-चाल पता करता आऊ क्योंकि यदि कोई खास बात हो तो वह भी वहाँ जा कर देख सकें। उनके यहाँ जब एलोपैथी दवा से लाभ नहीं होता था तो मुझ से पूंछ कर होम्योपैथी दवा लेकर इलाज करते थे। एक रोज शाम को हींग की मंडी से लौटते मे जब वहाँ पहुंचे तो नजारा अजीब था। शालिनी की भाभी संगीता ने सेवई बनाने की मशीन आलमारी साफ करते मे अपने पैर पर गिरा ली होगी जिस वजह से पैर से खून बह रहा था और उनकी सास साहिबा एक एलोपैथी दवा का लोशन दूर से उनके पैरों पर फेंकते हुये शीशी आधी खाली कर चुकी थीं और खून बहता जा रहा था। सास कैसे बहू के पैर पर पट्टी बांधे?यह समस्या थी। मैंने कहा बेनडेज,मुझे दे मै पट्टी बांध देता हूँ तो शालिनी की माता जी का तर्क था आप दामाद होकर कैसे सलहज के पैर पर पट्टी बांधेंगे जबकि दामाद के पैर छूए जाते हैं। मैंने जवाब दिया कि मैंने आयुर्वेद रत्न किया है और वैद्य के रूप मे रेजिस्टर्ड हूँ अतः एक चिकित्सक के नाते पैर पर पट्टी बांध देता हूँ और इलाज करना चरण-स्पर्श नहीं है। बड़ी मुश्किल से उन्होने दवा और पट्टी मुझे दी। एक फाहा बना कर वह लोशन लगा कर कस कर पैर मे पट्टी बांधने से खून बहना तुरंत रुक गया। फर्स्ट एड मे भी उन लोगों का व्यवहार रिश्तों की रस्मों मे उलझा था जबकि कुल मिला कर मेरे साथ व्यवहार कभी अच्छा नहीं था। मैंने घर पर आकर बउआ-बाबूजी से बताया तो उन्हे भी ताज्जुब हुआ कि ऐसे मामलों मे सास-बहू या दामाद नहीं देखा जाता कैसे हैं वे लोग ?मेरे द्वारा शालिनी की भाभी के पैर मे पट्टी बांध देने पर मेरे माता-पिता ने कोई एतराज नहीं किया। लेकिन मैंने शालिनी से कह दिया था कि उनकी माँ-भाभी इसके बावजूद एहसान फरामोशी की आदत से बाज नहीं आने वाले।

एक बार फिर अचानक शाम के समय दुकान से लौटते मे सिटी स्टेशन के क्वार्टर गए थे ,सुबह ही शालिनी ने विशेष आग्रह किया था बहौत दिनों से वहाँ का हाल नहीं मिला है ,पता करते आयें। उनके भाई और माँ मुजफ्फरनगर  गए हुये थे कूकू के पास( जिसकी खबर हम लोगों को नहीं थी) और घर पर दोनों छोटी-छोटी लड़कियां थी। घर मे अंधेरा था और संगीता दर्द से कराह रही थी। मेरे कहने पर शरद की बड़ी बेटी ने बल्ब जलाया ,हाल पूंछ कर मै रावत पाड़ा गया और डाबर की सरबाईना एक स्ट्रिप लाकर दे दी। एक गोली अपने सामने ही खिलवा दी। 15 मिनट मे दर्द कम हो गया और उठ कर संगीता ने तुरंत दवा की कीमत का भुगतान मुझे कर दिया। अगले दिन यशवन्त की स्कूल से छुट्टी करवाकर शालिनी मेरे दुकान जाते समय अपनी भाभी के पास गई और शाम को लौटते मे मै दोनों को अपने साथ वापिस ले आया। हालांकि शालिनी के दिन मे जाने पर बउआ को शाम का खाना बनाना पड़ जाता था  तब भी मदद करने जाने से कभी नहीं रोका।

क्रमशः ..... 

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गुरुवार, 3 नवंबर 2011

आगरा/1990-91(भाग-4 )'सप्तदिवा' मे लेखन और सिद्धान्त निष्ठा

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http://vijaimathur.blogspot.com/2011/02/blog-post_27.html

हमारे होटल मुगल के सहकर्मी श्री हरीश छाबरा ने ( जिंनका जिक्र पूर्व मे किया जा चुका है के सहपाठी रहे) डॉ राम नाथ शर्मा ,आर एम पी से परिचय कराया था। उनके पिताजी -काली चरण वैद्य जी आगरा के काफी मशहूर   वैद्य थे । एक जमाने मे स्टेशन पर रिक्शा वाले से उनका नाम लेने पर वह उनके घर लेंन  गौ शाला पहुंचा देता था। वैद्य जी टाईफ़ाईड-मोतीझला के विशेज्ञ थे। एक बार मै बउआ का हाल बता कर दवा लाया था और उनकी फीस रु 2/- दे आया था। अगले दिन फिर दवा लेने जाने पर उन्होने पहचानते हुये कहा कि तुम तो बलुआ (डॉ का घर का नाम) के दोस्त हो ,तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई जो मुझे पैसे दे गए पहले अपने दिये ये रु 2/-सम्हालो फिर माँ का हाल बताओ। फायदा होने तक उन्होने पूरी दवा मुफ्त दी।

डॉ भी घर आने-जाने की फीस नहीं लेते थे केवल दी गई दवा की कीमत लेते थे। 1981 मे टूंडला बतौर पंडित उन्होने ही शादी कारवाई थी। घर से सूट-बूट पहन कर बाराती बन कर गए थे ,फेरों के वक्त कोट उतार कर पंडित की भूमिका अदा करा दी फिर उसके बाद बाराती बन गए थे। यदि वह क्लीनिक मे उपलब्ध हुये तो घंटों उनसे इधर-उधर की बातें होती रहती थीं। ज्योतिषीय सलाह भी वह हमे मुफ्त ही प्रदान करते थे।

ऐसे डॉ राम नाथ (03-11-1951) के पड़ौसी और बचपन के मित्र थे श्री विजय शर्मा(डॉ से लगभग दो वर्ष छोटे) जो संजय गांधी की यूथ कांग्रेस के नेता रहे और जनता सरकार बनने पर जनता पार्टी मे शामिल हो गए। उनके बड़े भाई राज कुमार शर्मा जी जल निगम मे सहायक अभियंता थे और उन्होने अपनी दो नंबर की कमाई को एक मे बदलने हेतु छोटे भाई से एक अखबार 'सप्तदिवा-साप्ताहिक'चलवा दिया था । वह खुद सरकारी नौकरी मे होने के कारण कबीर उपनाम से 'कलम कबीर की' व्यंग्य कालम लिखते थे। उन्हें मेरे विचार पसंद आए अतः अपने भाई विजय से मुझे अपने साथ जोड़ने को कहा। पहली बार लेन-गौ शाला से निकलते अखबार मे मै मात्र लेखक था। एक शख्स खुद को 'सरिता' का पूर्व उप-संपादक बता कर उनके अखबार मे इतना गहरा घुसा कि उन्हीं के घर पर भी डेरा डाल लिया।उसने 'श्रमजीवी पत्रकार समिति'का गठन करवाया और उस समिति को मालिक बनवा दिया। विजय जी ने उसे प्रबंध संपादक बना दिया था। मैंने उसकी गतिविधियों से उन्हें सावधान रहने को कहा था परंतु उन्होने उपेक्षा कर दी। किन्तु बाद मे उन दोनों मे मतभेद हो गए ,वह शख्स अपनी पत्नी को उन्हीं के घर छोड़ कर खुद छीपी-टोला मे अपने रिश्तेदार के घर रहने लगा। मैंने उन्हें दोबारा चेताया कि उन जनाब की श्रीमती जी दिल्ली के मिरांडा हाऊस की स्टूडेंट रही हैं ,अकेले उन्हे घर पर रखेंगे तो परेशानी मे फंस जाएँगे। उनका सवाल था कि कैसे हटाएँ? मैंने उन्हें सुझाव दिया कि श्रीमती जैन को कहें कि अपने पति को या तो बुलाएँ या उनके पास ही जाएँ । इतना सवाल उठते ही वह शर्मा जी का घर छोड़ गई। बाद मे उनकी उस चालाक शख्स से कोर्ट मे मुकद्म्मेबाजी भी चली और अखबार बंद हो गया।

मुकद्म्मा जीत कर उन्होने दूसरी बार अखबार गांधी नगर से प्रकाशित करना शुरू किया और इस बार उन्हें एक और ठग मिल गया जिसे उन्होने प्रबंध संपादक बना दिया। राज कुमार जी ने कमला नगर मे -शालीमार एंक्लेव मे-एक मकान लिया और उसमे सुधार कार्य करने का दायित्व भी उन ठग साहब को सौंप दिया। मैंने विजय जी को फिर आगाह किया परंतु उनका जवाब था कि वह भाई साहब का मुंह लगा है हम कुछ नहीं कर सकते। उस ठग ने जब राज कुमार जी का काफी पैसा साफ कर दिया तब उनकी आँखें खुलीं और उसे हटा दिया। इस प्रकार दूसरी बार फिर उन्हें अखबार बंद करना पड़ा।

तीसरी बार विजय जी ने अपने घर के निचले हिस्से मे प्रेस डालकर खुद अपने नियंत्रण मे अखबार निकालना शुरू किया ,उनके भाई साहब ने हाथ खींच लिया तो उन्होने अपनी मित्र-मंडली को अपना फाइनेंसर बना लिया।
दूसरी बार की तरह इस बार भी डॉ राम नाथ के साथ-साथ मुझे भी सह-संपादक बनाए रखा। इस बार डॉ राम नाथ के मेरे पिताजी से कहलाने के कारण मुझे भी उस समिति का एक शेयर रु 100/- का लेना पड़ा। अब व्यंग्य लेखक उनके भाई के स्थान पर एस एन मेडिकल कालेज के एक्सरे टेकनीशियन डॉ राकेश कुमार सिंह थे जिंनका संबंध 'जलेस' से था।

तीनों बार के प्रकाशन मे विजय जी ने मेरे एक साथ कई-कई लेख एक ही अंक मे निकाले थे। यहाँ तक कि कई लेख मुझे दूसरे रिशतेदारों के नाम डाल कर भी देने पड़े थे। डॉ राकेश केवल व्यंग्य कहानिया ही देते थे,बाकी समाचार और लेख मै ही लिखता था। कई बार मैंने भाकपा के मुख-पत्र 'मुक्ति संघर्ष' से अपने पसंदीदा लेख दिये उन्हें भी उन्होने छाप दिया। लेकिन 1991 आते -आते आर एस एस का आतंक इतना तीव्र हो गया था कि उसने समस्त सहिष्णुता समाप्त कर दी थी। समाज का वातावरण विषाक्त हो रहा था। वैमनस्य का बोल-बाला हो गया था। उनके फाइनेंसर अधिकांश संघी/भाजपाई थे उन्हें मेरे लेखों पर एतराज होने लगा। मेरे कई लेखों मे विजय जी ने मुझ से संशोधन करने को कहा जिससे फाइनेंसर्स का एतराज दूर हो सके। मैंने एक शब्द का भी संशोधन करना मंजूर नहीं किया। उनका तर्क था कि आखिर जो पैसा लगा रहा है वह अपने खिलाफ कैसे आपके लेखन को सह ले?मेरा तर्क था कि आप मेरे लेख मुझे वापिस कर दें और फाइनेंसर्स की दी नोटों की गड्डियाँ मशीन के सामने रख दें तो क्या आपके लेख छ्प सकते हैं?मै किसी दूसरे की संतुष्टि हेतु अपना ईमान क्यों गवाऊ?

अंततः उन्हें मेरे लेख वापिस करने पड़े और विषय-वस्तु के आभाव मे उन्हे अखबार भी बंद करना पड़ा और अपने उसी पुराने प्रतिद्वंदी के हाथों बेच देना पड़ा। उन्हें भी एक दाल मिल मे नौकरी करनी पड़ी। एक प्रकार से संपर्क टूट बराबर गया। यदा-कदा रास्ते मे मुलाक़ात हो जाया करती थी। आजकल 1991 जैसे हालात 'अन्ना','रामदेव','आडवाणी','कांग्रेस के मनमोहन गुट'ने बना कर रख दिये है;ईराक का इतिहास लीबिया मे दोहराया जा चुका है। अतः मैंने अपने उन अप्रकाशित लेखों को 'क्रांतिस्वर' पर प्रकाशित करने का सिलसिला चला रखा है। 

डॉ सुब्रहमनियम स्वामी चाहते क्या हैं?http://krantiswar.blogspot.com/2011/09/blog-post_25.html

यदि मै प्रधानमंत्री होता?http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/blog-post_21.html

 खाड़ी युद्ध का भारत पर भावी परिणाम 1991 का  अप्रकाशित लेख http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/1991-1.htm

उपरोक्त तीनों लेख दे चुका हू और 'सद्दाम हुसैन','जार्ज बुश' आदि कुछ लेख क्रमशः देने हैं। इनमे से डॉ सुब्रहमनियम स्वामी वाले लेख को तो श्री शेष नारायण सिंह जी ने 'भड़ास' ब्लाग पर तथा श्री अमलेन्दू उपाध्याय जी ने 'हस्तक्षेप .काम ' पर भी प्रकाशित किया था। वैसे अधिकांश मस्त-मौला टाईप के लोगों को ये पसंद नहीं आए हैं और आ भी नहीं सकते थे क्योंकि उन्हें 'सत्य' जानने मे कोई दिलचस्पी नहीं होती है। मैंने इन विचारों को भविष्य मे वर्तमान काल का इतिहास लिखने वालों की सहूलियत के ख्याल से इन्हें देना उचित समझा है। 

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