गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

हर जुल्म ओ सितम की टक्कर में ,सदा संघर्ष हमारा सहारा है

सब समय करे नर क्या करे ,समय बड़ा बलवान .
समय सब पर असर करे ,क्या पशु -परिंदा क्या इंसान ..

किसी दूरदर्शी कवि ने बिलकुल ही ठीक यह कहा है .कभी -कभी हम चाह कर भी वह नहीं कर पाते जो हम करना चाहते हैं .समय कुछ और ही करा देता है .दरअसल मै मोडरेशन क़े खिलाफ था और हूँ ,लेकिन खुद अपने दोनों ब्लाग्स पर मोडरेशन लगाने पर बाध्य हुआ हूँ .माओत्सेतुंग  का कहना है कि ,दस कदम आगे बढ़ कर आठ कदम पीछे लौटना पीछे हटना नहीं कहलाता .युद्ध शास्त्र (milatary -science ) क़े नियमों में भी रण-नीति क़े तहत अपनी फौजों को पीछे हटने का आदेश देना पड़ जाता है .एक वयोवृद्ध इंजीनियर सा : क़े सानिध्य से कुछ ब्लोगर्स  में जो जूतम -पैजार चली और उनके ब्लाग्स पर जो गन्दगी फ़ैली ,वैसे ही हादसे से बचने क़े लिए मोडरेशन लागू करना ही एकमात्र उपाय बचता था .हमारा यह ब्लॉग तो अपने संघर्षों का इतिहास ही है .उस पर ढोंग -पाखण्ड भरा पूरा का पूरा एक लेख टिप्पणी कालम में किन्ही बेनामी सा :ने चस्पा कर दिया ,वहां से हटा दिया तो दूसरे ब्लाग क्रांति -स्वर पर वह लेख लगा दिया गया .इसलिए मजबूरन मोडरेशन का ही सहारा लेना पड़ा ;आखिर ब्लाग पर गन्दगी फ़ैलाने और बे -वजह क़े झगडे में उलझने से तो यही बेहतर जो है .

आखिर ३१ वर्ष अपने मकान में रहने और आगरा में उसे बेच कर लखनऊ आने पर सवा माह किराये क़े घर में जो रहे थे उससे निजात मिले एक वर्ष बीतने को है .हालाँकि पूरा समय संघर्षों भरा रहा है और संघर्ष जारी है -दरअसल संघर्ष ही जीवन है .मानव क़े विकास की कहानी प्रकृती क़े साथ उसके संघर्षों की कहानी है .जहाँ प्रकृती ने राह दी वहां वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृती की विषमताओं ने रोका वहीँ रुक गया .परन्तु हमारा संघर्ष प्रकृती क़े साथ नहीं है .शोषण -वादी ,उत्पीडन कारी शक्तियां जो हमें धौंस -दबाव में लेना चाहती हैं ;हम उनके आगे झुकने को तैयार नहीं हैं ---संघर्ष इसी बात पर है .

आगरा में एक इं. सा :हमारे क्लाइंट रहे थे ,उनकी बेटा पाने की मनोकामना  बेटा पाने की मनोकामना हमारे बताये उपायों द्वारा पूरी हुयी थी .उनको ढोंगियों -पाखंडियों क़े चंगुल से हमने केवल बचाया ही नहीं उन्हें तमाम ज्योतिषीय सूत्र भी दिए .वह भी चाहते थे की मै लखनऊ में शिफ्ट कर लूँ और उन पर और  भरोसा कर लिया -यही सब से बड़ी गलती रही .उन्होंने जितने मकान दिखाए सौ  प्रतिशत वास्तु -दोष वाले थे (जबकि उनको वास्तु का पूरा ज्ञान स्वंय मैंने प्राप्त करा दिया है );आगरा का मकान मै २३ सितम्बर ०९ को बेच चुका था .एन वक्त पर धोखा मिला -उस व्यक्ति से जो खुद किराये हेतु मकान लेता था तो फोन पर भी मुझ से राय लेता था -ऐसे व्यक्ति को भस्मासुर नहीं तो और क्या कहा जाए .उन्होंने जिस मकान क़े लिए एडवांस दिला दिया था वह केवल वास्तु -दोष वाला ही नहीं डिस्प्यूटेड भी था .जैसे -तैसे एक कमरे का मकान तीसरी मंजिल पर लेकर सारा सामान तितर -बितर ,इधर -उधर रख कर किसी तरह सवा महीना गुजारा और लगभग एक वर्ष पूर्व इस वर्तमान मकान में रजिस्ट्री करवाकर आ गए ;लेकिन उन ई .महोदय ने अपनी तिकड़म से यहाँ भी चक्रव्यूह खड़ा कर दिया है .वह इतना भी नहीं समझ रहे हैं की जो व्यक्ति दूसरों की समस्याओं का समाधान कराता है ,उनका खुद का भी गहरा तजुर्बा है -मुझसे लाभ उठाने का फिर भी परेशान करने पर आमादा हैं (किन्ही पुलिस -संपर्कों क़े कारण ).उन्हें यह भी नहीं पता की मै डी.एस .पी .(विजीलेंस )तथा कुछ एक  इंस्पेकटर  क़े साथ काम कर चुका हूँ ;सब बातें समझता हूँ और मुकाबला करने क़े तरीकों से भी वाकिफ हूँ सिर्फ ईमानदारी ,इंसानियत ,और शराफत क़े दायरे से बाहर न जा पाने क़े कारण नुक्सान उठता हूँ .लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं -विजय, को विजय न मिले .अब तक क़े सभी संघर्षों में हमारे विपक्षियों  ने सदा ही मुहं  की खाई है .

 हमारे अपने घनिष्टतम और निकटतम रिश्तेदारों ने ब्लाग जगत में भी हमें परेशान करने वाले ब्लागर्स तैयार कर दिए हैं .एक ने काठ की हांडी चढ़ा ली है अब दुबारा वह भी नहीं चढ़ सकती .बल्कि ऐसे ब्लागर की अपने ही वर्ग में खूब छीछालेदर हो चुकी है .भस्मासुर ई .सा :और दूसरे ई .सा :से गाईडेड ब्लागर्स क्या और कितना सफल हो पाते हैं या इस बार भी विजय ,विजय को ही मिलनी है .
              लखनऊ आने की साथार्कता ---सत्य और न्याय को मिली जीत

भस्मासुर ई . सा :ने जिन ई . सा :को मुझसे मकान का एडवांस दिलाया था उन्होंने अपने दोस्त क़े दामाद को दोखा देकर मकान कानूनी तौर पर अपना बनाया था ;लेकिन वास्तविक कब्ज़ा उसके मालिक क़े ही पास था .वह असली मालिक को हटा नहीं पा रहे थे मुझे बेच कर उससे लड़ाना चाहते थे .लेकिन एक ज्योतिषी क़े नाते ,मैंने उस व्यक्ति को वास्तु दोषों का निराकरण करने ,पूजा में ढोंग -पाखण्ड को हटाने तथा वैज्ञानिक विधि से पूजा करने का परामर्श दिया .उसने उन पर अमल किया और कल  दि.२७ .१० .१०को १२ .४५ पर उसने फोन करके सूचित किया कि ,वह कानूनी मुकदमा भी जीत गया है .वह व्यक्ति पूर्व ज्वाइंट सेल्स टैक्स कमिश्नर का बेटा है .उसका अच्छा  -खासा व्यापार था .एक एक्सीडेंट होने क़े बाद उसका मुनीम बैंक मनेजर से मिल कर उसके नाम पर दस लाख रु .कर्ज़ लेकर भाग गया था .इस मजबूरी का फायदा उठा कर ई . सा :ने बैंक से उसके मकान क़े कागज़ नीलामी में ले लिए थे जिन्हें दिखा कर भस्मासुर ई . सा :ने मुझे उस मकान मालिक से भिडाने का षड्यंत्र किया था .हो गया उलटा ----मेरी ज्योतिषीय सलाह से वह मकान मालिक कानूनन भी मालिक मकान मान लिया गया .उसकी जीत को मै लखनऊ आने पर अपनी पहली ज्योतिषीय सफलता मान सकता हूँ और मान सकता हूँ कि भस्मासुर का षड्यंत्र भी शीघ्र ही विफल होगा .

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रविवार, 24 अक्तूबर 2010

शाहजहांपुर द्वितीय चरण (तृतीय और अंतिम भाग )

(नाना जी और नानी जी )
नानाजी के साथ पहले भी जब रहे थे तो ऎसी सभाओं में उनके साथ जाते रहे थे .डा . राम मनोहर लोहिया के निधन की सूचना पर भी नानाजी को उदास पाया था .६४ से पहले टाउन -हाल की एक सभा में लोहिया जी ने कहा था जिस प्रकार कूड़ा रोज़ आएगा यह जानते हुए भी सफाई की जाती है उसी प्रकार ख़राब सरकार को अपने वोट से हटा दो ,वह भी ख़राब काम करे फिर उसे भी हटा देना -बदलाव तो करो .सच में उनकी बात पर १९६७ के चुनावों में जनता ने उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया कर दिया था .बबूए मामाजी (ना.श .माथुर )ने अप्रैल १९६८ में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपे राजनीतिक लेख मुझे पढने को दिए थे ."हमारा संविधान कैंची और गोंद की करामात "-यह पहला लेख डा .सम्पूर्णानन्द का था .श्री राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह ,डा .गड़पति चन्द्र गुप्त  के     लेख आज भी मेरे पास नक़ल करके लिखे हुए हैं .श्री आनंद नारायण मुल्ला का भी संविधान पर लेख बहुत सटीक था .

इन से छोटे वाले राजन मामाजी (श्री राजेन्द्र शंकर माथुर )मुझे जासूसी उपन्यास पढने को देते थे जिससे मुझमे खोजी प्रवृती घर कर गई .वह तथा उनकी छोटी बहन -रंजना मौसी अपने साथ खेल में भी शामिल करते थे .यह सब ४२ वर्ष पूर्व की बातें हैं ;अब सब बदल चुके हैं .अब सब रिश्ते चाहे जितने नजदीकी हों पैसे की गरीबी -अमीरी से तुलते हैं .

 इन सब के बावजूद निर्मला माईजी (स्व .क्र .मु .लाल माथुर की पत्नी )जनवरी २००६ में बबूए मामाजी के बेटे की शादी में जब मथुरा में मिलीं थीं तो चिर -परिचित अंदाज़ में ही मिलीं और हमें शाहजहांपुर आने को भी कहा .उन्होंने कहा की पूनम और यशवंत को भी तो दिखा दो बचपन में जिस ननसाल में रहे थे .पत्नी और મેરી  भी इच्छा तो वहां जाने -देखने की है .अब लखनऊ से ट्रेन से जाना -आना भी सुगम है .परन्तु समस्या यह है की हमारी  माँईजी यहीं लखनऊ में होते हुए भी हमारे संपर्क में नहीं हैं .फिर बउआ  के दो चचेरे भाइयों को छोड़ कर (जो सब एक ही कालोनी में रहते हैं ),उनके दिवंगत फुफेरे भाई के घर जाएँ तभी शाहजहांपुर रुक सकते हैं (हमारे फुफेरे भाई भी हमारी ही कालोनी में यहाँ रहते हैं पर वे अंमीर लोग हैं अत्याधुनिक हैं हमसे संपर्क नहीं रखते ;दूसरी तरफ न मा ही न उनके फुफेरे भाई ही जीवित हैं -तब भी मा की फुफेरी भाभी  पुराने रिश्ते मान रही हैं ---यही है  पहले के और अब के विकसित भारत का सच ) .मा के चचेरे भाई  इ .और डा .हैं बड़े रुतबे वाले लोग हैं ;जब लोग न माने तब जगहों से क्या होता है ?जगहें तो कहीं रुके बगैर भी दूर से भी दिखाई जा सकती हैं .२००६ में ही जूलाई में छोटी भांजी की शादी में कानपूर में रंजना मौसी मिली थीं ,घर उनका वहीँ है एक बार भी अपने यहाँ आने को नहीं कहा -बचपन में लूडो ,कैरम साथ खेलती थीं .

(रंजना मौसी और उनके भाई सपरिवार )
गर्मियों में रिजल्ट आने के बाद हम लोगों को मेरठ जाना था .सिलीगुड़ी से बाबूजी का ट्रान्सफर मेरठ हुआ था और वह वहां पहुँच चुके थे .सिलीगुड़ी में हमारे कोर्स की बहुत सी अच्छी -२ किताबों को रद्दी में बेच कर ही कुछ खास -२ को वह साथ ले जा सके थे .अकेले जितना सामान ला सकते थे उतना ही लाना था .और क्या सामान छोड़ा   उससे मुझे फर्क नहीं था अच्छी किताबें छूटने का मलाल था ,बाबूजी की भी अपनी मजबूरी थी .


एक नहीं दो -दो बार नानाजी ने हम लोगों के लिए जितना किया न वह उनका फ़र्ज़ था न मजबूरी .नानीजी का निधन तो बउआ  की शादी से पूर्व ही हो चुका था .माँ से ज्यादा ममत्व हम लोगों को अपने नानाजी से मिला .बचपन में मामाजी भी बहुत मानते थे (उनका निधन नानाजी से पूर्व ही हो गया था १९७७ में );मेरे सारे बचपन के फोटो मामाजी के ही खींचे हुए हैं .ब्लाग के कवर फोटो में मै उन्ही की गोद में हूँ .


 हमारे मामाजी को हमारे बाबाजी बहुत मानते थे और उनसे मेरे लिए नाम बताने को कहा था .मामाजी ने बउआ से सलाह कर बाबाजी को "विजय "नाम बताया था जिसे बाबाजी ने सहर्ष स्वीकृती दी थी
 

 (मामा जी-माँइंजी की शादी का कार्ड )

अपने विवाह से पूर्व माँइंजी भी लखनऊ (न्यू हैदराबाद )में बउआ के पास से अपने छोटे भाई -बहनों द्वारा मुझे मँगा लेती थीं और दिन -दिन भर अपने पास रखतीं थीं .उस समय तक रिश्तों में धन आड़े नहीं आया था . .

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शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

शाहजहांपुर द्वितीय चरण (द्वितीय भाग )

(स्व .हर मुरारी लाल ,स्व.के .एम् .लाल और स्व .सावित्री देवी माथुर )

इस बार चूँकि सिलीगुड़ी से हाई स्कूल पास करके आया था और एक डिग्री कालेज से इंटर कर रहा था तो बउआ के सभी रिश्तेदारों ने अखबारों में छपी राजनीतिक ख़बरों पर चर्चा में मुझे भी शामिल करना शुरू कर दिया था .वैसे नेशनल हेराल्ड तो पहले भी जब ६ठी,७वीं  में पढता था देख लेता था और अंग्रेजी में कमजोर तो था ही इसलिए वह सिर्फ बच्चे का खेल समझ लिया जाता था .नानाजी के बाद वाले उनके भाई (बड़े नानाजी उन्हें कहते थे क्योकि मा के बड़े चचा थे ) डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में सर्विस करते थे और कांग्रेसी झुकाव के थे इसलिए नेशनल हेराल्ड लेते थे ,नानाजी समेत उनके बाकी भाई जनसंघी झुकाव के थे .मामा जी तो बरेली और फिर लखनऊ में भी आर .एस .एस .में सक्रिय रहे थे .लखनऊ में संघ की  बैठक में मामाजी के घर पं .दीन दयाल उपाध्याय भी ठाकुर गंज में आये होंगे ,इसलिए मुगलसराय यार्ड में जब वह मृत पाए गए तो नानाजी को काफी धक्का लगा महसूस किया था .बउआ  के फूफा जी (स्व .हरमुरारी लाल माथुर ) भी कट्टर संघी विचार धरा के थे और वह तमाम पुराने सीक्रेट्स मुझे बताया करते थे .बउआ या नानाजी कोई भी उनसे मना  नहीं करते थे .नानाजी को ताज्जुब भी था कि उनके छोटे बहनोई ने ये तमाम राज उन लोगों को पहले क्यों नहीं बताये .एक बार पूछने पर उन्होंने  नानाजी को उत्तर दिया था कि पहले आप और हम सभी सरकारी कर्मचारी थे इसलिए कभी चर्चा नहीं उठी --- इस लड़के में कुछ झलक राजनीति की दिखी तो इसे सब बातें अब बता देते हैं .बउआ के फुफेरे भाई स्व .कृष्ण मुरारी लाल माथुर जिन्होंने चौ .चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल के नेता सरदार दर्शन सिंह के साथ वकालत शुरू की थी ,बाद में शाहजहांपुर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी रहे थे .वह भी मुझसे राजनीतिक चर्चाएँ किया करते थे .

(श्री नारायण शंकर माथुर ,बेटों के साथ )
नानाजी के एक भतीजे श्री नारायण शंकर माथुर तब आर्डिनेंस फैक्टरी ,शाहजहांपुर में ओवरसियर थे .वह फैक्टरी मंदिर की गतिविधियों में बढ़ -चढ़ कर भाग लेते थे .नानाजी को वहां बुलाते थे .नानाजी मुझे चलने को कहते थे तो मै भी साथ जाता था ,परन्तु अजय साथ नहीं जाते थे .संत श्यामजी पराशर के प्रवचन राज्नीतियुक्त होते थे ,उनमे मेरी गहरी दिलचस्पी थी .नानाजी ने उनकी लिखी पुस्तकें -"रामायण का ऐतिहासिक महत्त्व ","योगिराज श्री कृष्ण ","अपराधी कौन "आदि खरीद ली थीं .मैंने सभी पुस्तकें ध्यान से पढी थीं .अपने ब्लाग पर आज -कल लिखे विचार उन पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर हैं .अफ़सोस  यह है की वे पुस्तकें नानाजी के देहावसान के बाद (दीमक द्वारा खराब करने के कारण )माईंजी  द्वारा फेंक दी गयीं.मांगने की आदत न होने के कारण मैंने नानाजी से पहले और तब बउआ ने माईं जी से मांगी नहीं थीं वर्ना मेरे जैसे बुक -वार्म के मतलब की खराब दशा की किताबें भी थीं .नानाजी के ही पास महाभारत ,गीता और सत्यार्थ -प्रकाश भी पढ़े थे .तब का ही जो ध्यान में बचा है उसका उपयोग समय -२ पर लेखन में करता रहा हूँ अब भी कर रहा हूँ .संत श्यामजी पराशर केवल राम मंदिरों के प्रांगड़ में ही प्रवचन देते थे जिसकी समाप्ति इन शब्दों के साथ होती थी :-
love without marriage has no sens
Marriage without love has no fragrence .
 और कहते थे यह अंगरेजी पढ़े लिखे लोगों के लिए है और इसका तर्जुमा नहीं करूँगा .लेकिन मैंने इसका हिंदी अनुवाद इस प्रकार किया है :-
                 विवाह रहित प्रेम बुद्धिहीन है -
                प्रेम रहित विवाह गंधहीन है .
संत पराशर के अनुसार राम -सीता विवाह आदर्श प्रेम -विवाह था 


राजनीतिक  सभाओं में 
टाउन हाल में होने वाली किसी भी राजनीतिक दल की सभा को सुनने नानाजी जाते थे और हर बार मै उनके साथ रहता था जबकि भाई को दिलचस्पी नहीं थी ,बहन छोटी भी थी और नानाजी लड़का -लड़की का भेद भी मानते थे ,इसलिए बउआ और मौसी को प्राईमरी  से अधिक नहीं पढाया था जबकि मामाजी ने एम् .ए .भी किया और लखनऊ यूनिवर्सिटी में एन्थ्रापालोजी के एच .ओ .ड़ी . मृत्यु पर्यंत रहे .

जनसंघी मंत्री परमेश्वर पांडे ,संसोपाई मंत्री प्रभु दयाल सिंह मजदूर नेता एस .एम् .बनर्जी 
काश्मीर के पूर्व प्रधान मंत्री और फिर मुख्य मंत्री रहे शेख अब्द्दुल्ला की अलग -२ सभाएं अलग -२ समय पर हुईं और नानाजी के साथ सभी को सुनने का मौका मिला जो सुना कुछ न कुछ दिमाग में अटका जरूर रहा .
 हालाँकि इस बार आठ या नौ माह ही शाहजहांपुर में रहे परन्तु अभी कुछ बातें और याद -दाश्त में हैं जो अगले अंक में होंगी ................

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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

शाहजहांपुर द्वितीय चरण (प्रथम भाग )

शाम तक हम लोग शाहजहांपुर पहुंच गए थे .लखनऊ छोटी लाईन के उस देवदूत समान कुली ने समान इस प्रकार रखवा दिया था कि ,शाहजहापुर में कुली को कोई दिक्कत नहीं हुई .स्टेशन के पास ही नानाजी का घर था ,आधे घंटे के भीतर हम लोग वहां पहुँच गए .सितम्बर का महीना था और बाबूजी का वहां का ट्रान्सफर आर्डर नहीं था लिहाजा हम तीनो बहन भाइयों के दाखिले में एक बार फिर दिक्कत थी.सिलीगुड़ी जाने से पहले जिस स्कूल में पढ़े थे वह आठवीं तक ही था .नानाजी ने अपने परिचित माथुर साहब जो सरदार पटेल हिन्दू इंटर कालेज के वाईस प्रिंसिपल थे ,से बात की थी .लेकिन अगले दिन वह प्रिंसिपल टंडन जी के पास पहुंचा कर अपने कर्त्तव्य की इति श्री कर लिए .टंडन जी ने बिना ट्रान्सफर आर्डर के दाखिले से इनकार कर दिया ;वही  समस्या आर्डिनेंस फेक्टरी के कालेज में थी .किसी की सलाह पर नानाजी गांधी फेजाम कालेज के प्रिंसिपल चौधरी मोहम्मद वसी से मिले .वसी साहब ने मधुर शब्दों में नानाजी का अभिवादन करके कहा कालेज आप ही का है आप शौक से दाखिला करा दीजिये .इस प्रकार मेरा इंटर फर्स्ट इयर में दाखिला हो गया .अजय का मिशन हाई स्कूल (जिसमे कभी क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल भी पढ़े थे )और शोभा का दाखिला आर्य कन्या पाठशाला में हो गया .
  
 हमारे जी .ऍफ़ .कालेज में बी .ए .के साथ इंटर की पढ़ाई उस समय होती थी (अब वह केवल डिग्री कालेज है और इंटर सेक्शन इस्लामिया कालेज में चला गया है ).उ .प्र .में चौ .चरण सिंह की संविद सरकार ने अंगरेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया था .लखनऊ से भुआ ने मुझे पत्र लिखा था कि ,"यह सरकार बच्चों को कुबड़डा बनाने पर तुली है ,तुम अंगरेजी जरूर लेना ".मै अंगरेजी में कमजोर था और नहीं लेना चाहता था .तब तक कालेज में सर्कुलर का इन्तजार था ,मैंने किताब नहीं खरीदी थी .किताब की शाहजहांपुर में किल्लत भी थी .प्रो .मोहिनी मोहन सक्सेना ने बरेली से मगाने  का प्रबंध किया था  ;समय बीतने के बाद उन्होंने सब की किताबें चेक करने को कहा था .मैंने उन्ही के रिश्तेदार जो वहां टी .ओ .थे के पुत्र जो मेरे क्लास में था से पुस्तक लेकर सारी रात टेबल लैम्प जला कर कापी में नक़ल उतार ली और अगले दिन कालेज ले गया .जब प्रो .सक्सेना ने मुझ से किताब दिखाने को कहा तो मैंने वही नक़ल दिखा दी .बोले ऐसा क्यों ?मैंने  जवाब दिया चूंकि मुझे अंग्रेजी छोड़ना है ,इसलिए किताब नहीं खरीदी -आपको दिखाना था इसलिए गिरिधर गोपाल की किताब से नक़ल बना ली है .प्रो .साहब इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि जब तुमने अग्रेजी के लिए इतनी मेहनत की है तो मेरी ख़ुशी के लिए तुम अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल के रूप में जरूर लेना ,जिस से मेरा -तुम्हारा संपर्क बना रहे .इस प्रकार मैंने अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल ले लिया .प्रो . सक्सेना बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ,उनसे क्लास में संपर्क बनाये रखने में ख़ुशी ही हुई .

अंगरेजी के एक चैप्टर में पढ़ाते हुए प्रो . सक्सेना ने बड़े मार्मिक ढंग से कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के लेख को समझाया जिसमे उन्होंने (तब वह भारत के शिक्क्षा मंत्र्री थे )ब्रिटिश कौसिल इन इंडिया का उद्घाटन करते हुए कहा था ---यहाँ मै एक साहित्यकार की हैसियत से आया हूँ ,एक राजनीतिग्य की हैसियत से नहीं क्योंकि यदि एक
राजनीतिग्य कहता है ---हाँ तो समझो शायद ,और यदि वह कहे शायद तो समझो नहीं और नहीं तो वह कहता ही नहीं .

हमारे इतिहास के प्रो .माशूक अली साहब नगर पालिका के चेयरमैन रहे छोटे खां सा .के परिवार से थे .उनका लकड़ी का व्यवसाय था वह तब केवल -रिक्शा और कालेज में खाए पान का खर्च मात्र १५० रु .आन्रेरियम लेते थे .हमारे नानाजी के एक भाई स्व .हरीश चन्द्र माथुर के वह सहपाठी रहे थे .जब उन्हें यह बताया तो बहुत खुश हुए और यदा -कदा मुझसे कहते थे अपने नानाजी को मेरा सलाम कह देना .इसी प्रकार बम्बई वाले नानाजी (नानाजी के वह भाई बम्बई में सर्विस काल में रहे थे)भी प्रो .सा .को अपना आदाब कहलाते थे .
नागरिक -शास्त्र के प्रो .आर .के .इस्लाम सा .तथा अर्थ शास्त्र के प्रो .सा .(नाम अब याद नहीं है )भी अच्छा पढ़ाते थे ,इन दोनों का चयन अलीगढ मुस्लिम यूंनिवर्सिटी  में हो गया था .

इस्लाम सा .ने सर सैय्यद अहमद खां के बारे में बताते हुए उनके पुत्र सैय्यद महमूद जो बड़े वकील थे ,कभी केस हारे नहीं थे का उल्लेख किया था जो बहुत दिलचस्प है .:- पंजाब के किसी राज -परिवार के सदस्य को फांसी की सजा हो गयी थी उसे बचाने के लिए उन्हें महमूद सा . का नाम सुझाया गया था .जब वे लोग उनके पास पहुंचे तब उनके पीने का दौर चल रहा था और ऐसे में वह किसी से मिलते नहीं थे .बड़ी अनुनय -विनय करने पर उन्होंने सिख राज-परिवार के लोगों को बुलाया तथा काफी फटकार लगाई कि अब उनके पास क्यों आये ,अपने वकील से जाकर लड़ें जो अपील भी हार गया ,अब तो फांसी लगने दो .बड़ी खुशामद किये जाने पर उन्होंने कहा उनका कहा सब मानना होगा ,किसी के बहकावे में नहीं आना होगा .जब उनकी सभी शर्तें मान ली गयीं तब उन्होंने जिन्दगी बचाने की गारंटी दी और कोई अपील या केस नहीं किया .

फांसी का दिन आ गया ,घबराए परिवारीजनो से उन्होंने जेल पहुचने को कहा .खुद एन वक्त पर पहुंचे .फांसी का फंदा भी पड़ गया ,रोते लोगों को उन्होंने कहा उसे कुछ नहीं होगा ,इतने में  फंदा खींचने का हुक्म हो गया .फंदा खींच दिया गया उसी क्षण महमूद सा .ने तेज गुप्ती से फांसी का रस्सा काट दिया ,रस्सा गले में पड़ा -२ वह मुलजिम गढ़े में जिन्दा गिर गया .उसे उठाया गया लेकिन महमूद सा . ने कहा एक बार "हैंग "हो चुका दोबारा हैंग नहीं किया जा सकता .महमूद सा . के खिलाफ सरकारी काम में बाधा डालने का मुकदमा चला जिसे वह जीत गए उन्होंने सिद्ध किया कि वकील के नाते उनका काम मवक्किल को बचाना था उन्होंने बचा लिया .सरकारी काम में बाधा नहीं डाली क्योकि फांसी का फदा बाकायदा खींचा गया था .उन्होंने जजमेंट में खामी बताई कि टिळ डेथ नहीं लिखा था इसलिए दोबारा फांसी पर नहीं चढ़ाया जा सकता .वह यह मुकदमा भी जीते.लेकिन उसके बाद से फैसलों में लिखा जाने लगा -"हेंग टिळ डेथ ".इस वाकये ने न्याय  प्रणाली को बदल दिया था जो कि महमूद सा . के दिमाग का खेल था .
प्रांतीय शिक्षा दल के इंस्ट्रक्टर गफूर सा .भी अच्छे व्यवहार के धनी थे .हमारी एक मौसी (बऊआ की चचेरी बहन ,अब दिवंगत ) जो मुझ से ४ वर्ष बड़ी थीं और बी .ए .फाइनल में थीं को फीस में १० रु .कम पड़ गए थे ,एक्जाम चल रहे थे .गफूर सा .ने अपनी जेब से १० रु . देकर मदद की .मौसी की अगले दिन परीक्षा नहीं थी ,मुझे रु .देकर गफूर सा .को वापिस करने को कहा और निर्देश दिया कि लता दीदी बताना ,मौसी नहीं ,उनके हुक्म का वैसे ही पालन किया परन्तु मा की बहन को अपनी बहन बताना अजीब लगा .

एक बार नानाजी छोटे भाई को ३ - ४ रोज से साईकल चलाना सिखा रहे थे .कैंची पर उसे चलाना आ गया था .कालोनी के एक वयोवृद्ध सज्जन श्री श्रीराम जिन्हें नानाजी समेत सभी लोग आदर से बाबूजी कहते थे ,मुझसे बोले छोटा भाई तुम से पहले साईकल सीख जायेगा .उन्होंने कहा कि तुम्हारे नानाजी तो अजय को अभी और कई दिन कैंची चलवाएंगे तुम दूसरी साईकल लेकर आओ और मेरे तरीके से चलाओ आज और अभी सीख जाओगे .मैंने बउआ से पूंछ कर अपने बाबूजी वाली पुरानी साईकल उठाई और बाबू श्रीराम के फार्मूले से रेलवे ओवर ब्रिज तक साईकल पैदल ले गया और ढलान की ओर रुक कर गद्दी पर बैठ कर हैंडल साध लिए .३ -४ बार में संतुलन कायम हो गया .कई बार पुल के दोनों ओर ढलान पर ठीक से साईकल चला ले पाने पर मै गद्दी पर बैठ कर ही घर आया .नानाजी परेशान  थे कि कहीं मै हड्डी -पसली न तुडवा कर लौटूं श्रीराम उन्हें संतुष्ट कर रहे थे और मुझे देख कर नानाजी से बोले देखिये डा . सा .मेरी शिक्क्षा सफल रही .बहरहाल तगड़ा जोखिम लेकर मै एक -डेढ़ घंटे में ही साईकल चलाना तब सीख गया था आज कहीं भी किसी भी ब्रिज पर चढ़ते -उतरते साईकल क्या कोई भी वाहन चलाना काफी जोखिम भरा काम हो गया है .आज लोग काफी लापरवाह  और स्वार्थी हो गए हैं ---यह भी विकास की ही एक कड़ी है .l


अगली किश्त में जारी ..................

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मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

भावुक बिलकुल नहीं हूँ मै .........

 सिलीगुड़ी से चल कर लखनऊ होते हुए शाहजहांपुर एक बार फिर गए वहां का वर्णन होने से पूर्व पुनः लखनऊ लौट कर आये एक वर्ष पूर्ण होने का लेखा -जोखा प्रस्तुत कर दिया था .उस पर दिव्या  जी, वीना जी , वंदना दुबे अवस्थी जी ,के .के . यादव जी के विचार पढे ---सबों को धन्यवाद .
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 के .के .यादव जी ने मेरे लिखने की तारीफ की है परन्तु उनके अपने खोज पूर्ण लेखन की जितनी प्रशंसा की जाये कम है .वीना जी ने लिखा है कि मै बारीकी से अध्धयन करता हूँ शतशः सही है .वंदना जी के उत्साह वर्धन के लिए उनका आभारी हूँ .दिव्या जी ने मुझे निष्पक्ष और ईमानदार लेखक बताया है -प्रयास तो मेरा यही होता है परन्तु उन्होंने साथ ही साथ मुझे भावुक भी कहा है .वह चिकित्सक हैं शायद उनका आंकलन ऐसा हो परन्तु मै समझता हूँ कि भावुकता के साथ ईमानदारी और निष्पक्षता का निर्वाह नहीं हो सकता.मै बिलकुल भी भावुक नहीं हूँ ,किसी भी दृष्टिकोण से नहीं .भावावेष में भटकना मेरा स्वाभाव नहीं है .यदि मै भावुकता में बहता तो संघर्षों में कहीं भी नहीं टिक पाता .१३ -१४ वर्ष कि उम्र में पढ़ा था कि उदारता  एक मानवीय गुण है,सभी को उदार होना चाहिए किन्तु उसके साथ -२ पात्र की अनुकूलता भी होनी चाहिए .तब से आज ४४ वर्ष बाद भी मै उसी सीख पर अमल कर रहा हूँ .पढ़ाई मैंने केवल डिग्री बटोरने के लिए नहीं की बल्कि जो पढ़ा उस पर क्षमतानुसार अमल करने का भी प्रयास करता रहता हूँ .डा .राजेंद्र प्रसाद की यह सीख कि जो पुरानी बातें हानिकारक न हों उनका विरोध नहीं करना चाहिए -भी मुझे भाती है .
  जब कोई व्यक्ति हमारी उदारता को कमजोरी समझने लगता है तो उसके प्रति उदारता का परित्याग कर देता हूँ .कोई भी भावुक व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता.भावुकता अपना कर मै कोई नुकसान नहीं उठा सकता.ईमानदारी के कारण जो नुकसान हुए उन्हें सहर्ष झेल लिया /सकता हूँ .पिछले वर्ष जब आगरा का मकान बेचने का निर्णय लिया तो पूनम ने कई भावनात्मक मुद्दों का हवाला देकर उसे न बेचने की बात कही थी .मेरा तर्क था कि घर परिवार के सदस्यों से बनता है न कि ईंट ,गारा ,सीमेंट ,लोहा या कंक्रीट से बना ढांचा होता है.यह तर्क उन्हों ने स्वीकार किया और आज हमारे परिवार के सभी सदस्य हमारे साथ यहाँ लखनऊ में हैं तो पूरा घर साथ है .रही बात लोगों के साथ संबंधों की तो आज -कल फोन आदि के माध्यम से सतत संपर्क बनाये रक्खा जा सकता है और उसी ज़रिये अपने तमाम कार्य वहां के लोगों की मदद लेकर लखनऊ बैठे -२ ही संम्पन्न हो गए .
 मै निष्पक्षता  और ईमानदारी को ही तरजीह देता हूँ और भावुकता से मेरा दूर -२ तक  लेना -देना नहीं है .किसी पढ़ कर अनावश्यक भ्रम न हो,इसलिए आगे बढ़ने से पूर्व स्पष्ट करना अपना कर्त्तव्य समझा .अब आगे शाहजहांपुर में ...........अगली पोस्ट में ......

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शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

भस्मासुरों से टकराव और पत्रकारिता ------ विजय राजबली माथुर

(आज लखनऊ वापिस लौटे हुए एक  वर्ष पूर्ण हो चुका है और यहाँ की धरती पर उतरते ही भस्मासुरों से संघर्ष प्रारंभ हो गया जो अब भी जारी है . ये एहसान फरामोश लोग हैं और इनका उल्लेख मात्र सूचनात्मक है वर्णन तो क्रमानुसार ही होगा).
लखनऊ से सम्बंधित दो ब्लोगर्स -१.श्रीमती (डाक्टर )दिव्या श्रीवास्तव २.श्रीमती वीणा श्रीवास्तव से परिचय और विशेष कर मुंबई से सम्बंधित आचार्य संस्कृत आर्य से संपर्क ब्लॉग लेखन की विशिष्ट उपलब्धि  कहे जा सकते हैं .पोर्ट ब्लेयर  की पाखी और दिल्ली के माधव जैसे छोटे -२ बच्चों ने जब खुद आकर मेरे ब्लॉग पर दस्तक दी तो उनसे परिचय हो कर जी खुश हो गया .यह सब लखनऊ आगमन पर ही संभव हुआ है .

"क्रांति स्वर'' और "विद्रोही स्वर'' दो अख़बार निकालने की तमन्ना थी,अब ये ब्लॉग के रूप में आप के समक्ष है. 
हमने ब्लॉग लेखन ''स्वान्तः सुखाय  और सर्व जन हिताय'' प्रारंभ किया है.यदि हमारे विचारों -सुझावों से कुछ थोड़े से लोग भी लाभ उठा सकें तो हमारा प्रयास सार्थक है .सार्थकता टिप्पणियों और उनकी संख्या पर निर्भर नहीं है.न तो विपरीत टिप्पणियों से हम हतोत्साहित होंगे न ही प्रशंसक टिप्पणियों  से खुश होंगे .हमने जो ज्ञान अर्जित किया है;वह कोई कंजूस का धन नहीं है जो उसे छिपा कर रखा  जाये .हमारा ज्ञान किसी गुरु की अनुकंपा पर भी प्राप्त नहीं हुआ है बल्कि यह संघर्षों द्वारा उपार्जित ज्ञान है.१७८९ ई. की फ़्रांसीसी राज्य क्रांति के प्रणेता जीन जेक रूसो से एक बार जब पूछा गया कि आपने किस विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की है तो उनका उत्तर था -''I  have studied  in the  university  of difficulties ''   आज हम स्वतंत्रता ,समता और भ्रातृत्व  वाले जिस लोकतंत्र में हैं वह रूसो के विचारों से ही सामने आया है .
 हमारा देश ११ या १२ सौ  वर्षों की गुलामी के बाद अभी ६३ वर्ष पूर्व ही आज़ाद हुआ है और अभी भी लोगों की गुलामी वाली मानसिकता बरकरार है.लोग गुलामी के प्रतीकों से उसी प्रकार चिपके हुए हैं जिस प्रकार बंदरिया अपने मरे बच्चे की खाल को चिपकाये घूमती है.क्रान्तिस्वर में सामजिक,राजनीतिक,धार्मिक,आध्यात्मिक और ज्योतिष संबंधी जानकारी  आप लोगों के बीच बांटने की कोशिश कर रहे हैं.विद्रोही स्वर में संघर्षों की कहानी है.

अन्य ब्लॉगर्स से संपर्क कराने में सर्वप्रथम भूमिका सुरेन्द्र सिंह भाम्बू जी के Aggrigator ''लक्ष्य''की है.उसके बाद जो ब्लॉगर्स हमारे संपर्क में आये उनके विचारों से अवगत होने के अवसर मिल रहे हैं.संकृत आर्य जी के माध्यम से छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता छोड़कर ब्लौगर  बने साहब के विचारों से भी संपर्क हुआ.कुछ ब्लॉगर्स दूसरों पर व्यक्तिगत आक्षेप करते हैं जो अनुचित है.किन्तु कुछ लोगों की आदत विरोध के लिए विरोध करना ही है वैसी टिप्पणियाँ भी हमें सन्मार्ग से विचलित  नहीं कर सकतीं,अतः उनका भी स्वागत है.


डा.दिव्या की दिव्य शक्ति
quick and fast decision but slow and steady action का अनुगामी होने के कारण मैंने उपरोक्त अनुच्छेद तक लिख-लिखवा कर इस पोस्ट को सेव करा रखा था,इसी बीच बैंकाक में प्रवास कर रही डा.दिव्या श्रीवास्तव ''ZEAL" का एक पूरा पोस्ट मेरे पुत्र यशवंत पर आ गया जिस में हम दोनों का भी उल्लेख है.पढ़ कर ऐसा लगा कि डा.दिव्या के पास कोई दिव्य दृष्टि व शक्ति अवश्य ही है जो उन्होंने पूर्वानुमान के आधार पर पहल कर दी.डा.दिव्या ''क्रन्तिस्वर'' पर जब पहली बार आयीं तो तुरंत Follower भी बन गयीं उस के बाद उन्होंने तो तुरंत ''विद्रोहीस्वर'' तथा यशवंत के ब्लौग ''जो मेरा मन कहे''को भी follow  कर लिया.उनके पोस्ट्स में कुछ न कुछ ऐसा तथ्य होता ही है कि उस पर अपने विचार भी देने होते हैं.कभी कभी उन पर अनर्गल टिप्पणियाँ देख कर जो लोग न समझ कर या जान बूझ कर वैसा कर रहे होते हैं उन्हें स्पष्ट करने हेतु भी पुनः पुनः विचार देने पड़े हैं.मात्र इतने भर पर ही डा.दिव्या ने हमलोगों को जो मान सम्मान दिया है उसे बनाए रखने का पूरा प्रयास हम करेंगे.डा.दिव्या से बहुत ज्ञान वृद्धि हमारी भी हुई है.हम उनके सम्पूर्ण परिवार के उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं.


श्रीमती वीना श्रीवास्तव
हमारे ही दरियाबाद की वीना जी जो लखनऊ में ही रही हैं की भी यशवंत पर विशेष कृपा रही है.उन्होंने न केवल यशवंत के बल्कि मेरे भी ब्लौग को फोलो किया है.स्वयं अच्छी -२ कविताओं से  ज्ञान वर्धन करती रहती हैं. उनका कहना हमारे ज्योतिष के अनुसार सही है.वस्तुतः पूर्व जन्म के संचित कर्म-फल ही इस जन्म का प्रारब्ध या भाग्य कहलाते हैं.वीना जी के पिता जी ने भी मेरे पिता जी की ही भांति अपनी दरियाबाद की जायदाद ठुकरा दी और आत्म निर्भर रहे.हमारे और उनके बीच यह बात समान है.उनके समस्त परिवार के उज्जवल भविष्य के लिए हमारी शुभ कामनाएं.

इसी क्रम में लखनऊ से सम्बंधित अल्पना वर्मा जी के आबुधाबी से लिखे पोस्ट्स ''पाखी''के माध्यम  से पढ़े;उनके दोनों ब्लोग्स जानकारी का खजाना हैं जिनका अध्ययन धीरे धीरे करंगे और कुछ नया ज्ञान प्राप्त करेंगे.लखनऊ के ही डाक्टर डंडा लखनवी साहब की रचनाएं भी ज्ञानवर्धक हैं.''ज्योतिषियों और वैज्ञानिकों की नोंक झोंक '' शीर्षक में उन्होंने यथार्थ चित्रण किया है,मैं उन से सहमत हूँ और अपने पोस्ट्स-''ज्योतिष और हम''तथा ''ढोंग पाखण्ड  और ज्योतिष ''में लोगों को जागरूक करने का प्रयास कर चुका हूँ.

आशीष जी को आशीष
डाक्टर दिव्या जी ने संस्कारों की बात उठाई है तब मेरठ वासी और वर्तमान में जालंधर में रह रहे आशीष जी का ज़िक्र किये बगैर इस पोस्ट का समापन नहीं किया जा सकता.आशीष जी दो वर्ष पूर्व मेरठ के बिग बाज़ार  में यशवंत को मिले थे.यशवंत ने अपनी ड्यूटी सही ढंग से निभाई और उनकी माता जी को सहयोग दिया तभी से उनकी उस पर विशेष कृपा रही है.परन्तु मेरे ब्लौग पर आकर जो मान सम्मान मुझे उन्होंने व्यक्त किया है वह भी उनके परिवार के सुसंस्कारों का ही  प्रभाव दर्शाता है.वह अपने परिवार सहित इसके लिए धन्यवाद के पात्र हैं.

४९ वर्षों के बाद दोबारा लखनऊ आने पर एक वर्ष के भीतर ही योग्य -अनुभवी लोगों के विचारों से हमारी जो ज्ञान वृद्धी हुई,उसके लिए सबके आभारी हैं.



Typist -यश(वन्त)


 

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