मंगलवार, 3 अगस्त 2010

लखनऊ तब और अब ------ विजय राजबली माथुर

जन्म से १९६१ तक लखनऊ में रहने के बाद गत वर्ष अक्टूबर,२००९ में पुनः लखनऊ वापसी हुई.तब से अब तक के लखनऊ में न केवल क्षेत्रफल की  दृष्टि से बल्कि लोगों के तौर तरीकों और आपसी व्यव्हार में भी बेहद तब्दीली हो चुकी है.१९८१ में जब करगिल में नौकरी के सिलसिले में था तो टी बी अस्पताल के सीऍमओ साः ने बोली के आधार पर कहा था कि क्या आप लखनऊ के हैं.९ वर्ष कि उम्र में शहर छोड़ने के बीस सालों बाद भी बोली के आधार पर मुझे लखनऊ से जोड़ा गया था.लेकिन ४९ साल बाद वापिस लखनऊ लौटने पर यहाँ के लोगों ने मुझे बाहरी माना है.तब हुसैन गंज में रहता था,मुरली नगर के डी पी निगम गिर्ल्स जू.हाई स्कूल  में पढता था और अब कचहरी से लगभग १० कि मी दूर नई कोलोनी में रहता हूँ.लखनऊ की नई कोलोनियों में लगभग ८०% लोग बाहर  से आकर बसे हैं और लखनवी तहजीब से कोसों दूर हैं वे ही मुझे बाहरी मानते हैं.अपने नजदीकी रिश्तेदार भी मेरे लखनऊ  वापिस आ जाने से असहज महसूस कर रहे हैं.हकीकत यह है कि अपना ३१ वर्ष पुराना जमा-जमाया मकान बेच कर उसके आधे से भी छोटा मकान लेकर नयी कोलोनी में रहना उनको भारी अखर गया है जब कि अपना पहला मकान भूखे रहकर या,चना-परमल पर भी गुज़ारा करके १५ सालों में  किश्तें चुका  कर बना पाया था और उसी को बेच कर बहुत छोटा सा महंगा मकान मिल पाया है. कहीं से भी किसी से भी एक चुटकी धूळ या एक भी गिट्टी खैरात में लेकर या उधार में ले कर गुजारा  नहीं किया,यही उन दौलत वालों को खटकता है.लोगों को ईमानदारी और मेहनत से गुज़र-बसर करना सुहाता नहीं है और वे पेशे पर हमला करते हैं.जो ज्योतिषी बेईमानी,ढोंग और पाखण्ड पर चलते हैं उन्हें भी मेरा मानदारी और वैज्ञानिक आधार पर  चलना नहीं सुहाता है.यह सब लखनवी कल्चर के खिलाफ है लेकिन लखनऊ उन्हीं का है

photo by mr.kartik mathur

लखनऊ से बरेली वहां से शाहजहाँपुर जहाँ से सिलिगुरी फिर शाहजहाँपुर और मेरठ रहकर आगरा पहुंचे और अपना मकान बना कर बस गए.मेरठ कॉलेज में पढाई के दौरान छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष( सत्यपाल मलिक साहब )  से  शायर फ़िराक गोरखपुरी का यह कथन सुनकर आगरा बसने का फैसला किया था की,यू .पी.में जितने आन्दोलन मेरठ -कानपुर डायगोनल  से शुरू हुए विफल रहे जबकि बलिया-आगरा डायगोनल  से शुरू आन्दोलन पूरे यू.पी. में छा कर देश में भी सफल रहे.आगरा के अब के लोगों में वह राजनीतिक  समझ नहीं देखी  उनकी बेरुखी और पुत्र के आग्रह के कार पुनः लखनऊ आने का फैसला किया, अभी तो पूरी तरह सेटल भी नहीं हो सके हैं –देखते हैं की क्या यहाँ रह कर देश के लिए कोई राजनीतिक योग दान दे सकता हूँ या नहीं. " जननी जन्मभूमिश च स्वर्गादपि गरीयसी” कहा तो जाता है लेकिन मेरी जन्म  भूमि लखनऊ और यहाँ के लोग मुझे देश- समाज के हित में कुछ करने देने में कितना सहयोग करते हैं – यही देखना – समझना बाकी है.उम्मीद छोड़ी नहीं है.

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 १३ अप्रैल २०११ को 'हिन्दुस्तान' लखनऊ में छपा आदरणीय के. पी. सक्सेना साहब और १७ अप्रैल २०११ को सैय्यद हैदर अब्बास रजा साहब  के कथन से भी लखनऊ वासियों के चरित्र में बदलाव की पुष्टि होती है -







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