मंगलवार, 22 जुलाई 2014

बदलाव और विकास कैसा हुआ है लखनऊ में ?-----विजय राजबली माथुर

नौ वर्ष की आयु में 1961 में जब लखनऊ छोड़ा था तब शहर आज के इतना न तो बड़ा था और न ही तथाकथित विकसित। लेकिन तब सड़कें भी साफ-सुथरी थीं और गोमती का पानी भी काफी साफ था। बचपन में माता-पिता के साथ जाना-आना होता था किन्तु ठीक-ठीक याद है कि चाहे किसी भी पुल -मंकी ब्रिज जिसे अब हनुमान सेतु कहते हैं,काठ का पुल (तब निशात गंज पुल का यही नाम था),या फिर डालीगंज का पुल से गुजरने पर नीचे कल कल निनाद से बहता स्वच्छ पारदर्शी जल रिक्शा या साईकिल पर बैठने के बावजूद साफ-साफ नज़र आ जाता था।  हुसैन गंज से न्यू हैदराबाद,ठाकुरगंज-निवाजगंज,या सदर कहीं भी जाने पर सड़कें और गलियां साफ-सुथरी ही मिलती थीं। 

57 वर्ष की आयु में 2009 में जब 48 वर्ष बाद  वापिस लखनऊ लौटा तब शहर का आकार भी काफी बड़ा पाया और इमारतों का आकार भी तथा गलियों को छोड़ कर मुख्य सड़कों का आकार भी काफी बड़ा पाया। लेकिन नई-नई कालोनियों के अंदर भी सड़कों को उधड़ा हुआ पाया और मुख्य मार्गों की सड़कों को भी गड्ढायुक्त हिचकोलो वाली पाया तब से अब तक इस ओर कोई फर्क नहीं नज़र आया क्योंकि अब सड़कें बनते ही उधड़ना शुरू हो जाती हैं।चौड़ी सड़कों से गुजरना भी आसान काम नहीं है क्योंकि दोनों ओर कार पार्किंग या अवैध दुकाने अवरोध उपस्थित करती हैं।पहले ऐसा नहीं था और सड़कें आवागमन के लिए मुक्त थीं।  किसी भी पुल से गुज़र जाएँ अब तो गोमती नदी नहीं 'नाला' ही नज़र आती है। काला पानी उसमें तैरती काई,पोलीथीन आदि तो दीख जाते हैं लेकिन उस पानी में अपना चेहरा भी नज़र नहीं आ सकता है। 

अक्सर दूर  कहीं भी जाना-आना बस या टेम्पो से हो पाता है। इसलिए पहले जहां रहते थे और पढ़ते थे उस ओर नहीं जा पाते थे। इत्तिफ़ाक से कल साईकिल से लंबी दूरी तक जाने का मौका मिल गया तो हुसैन गंज की उस गली की ओर भी गया जहां खुले नाले के बगल वाले मकान में तब रहते थे। मुख्य विधानसभा मार्ग के समानान्तर चल रही यह गली अब ढके हुये नाले के बावजूद बेहद गंदी नज़र आई। तब अपने घर के बारामदे में खड़े होकर खुले  नाले की सीध में नज़र दौड़ा कर विधानसभा मार्ग पर चल रहे आवागमन को साफ देख लेते थे । ताज़ियों का जुलूस हो या छात्रों का प्रदर्शन जुलूस या कर्मचारियों अथवा राजनीनीतिक प्रदर्शनकारियों का जुलूस सब घर पर खड़े-खड़े दीख जाते थे। अब कल नज़र आया कि ढके नाले पर भी अतिक्रमण है और मुख्य मार्ग इस गली से नहीं देखा जा सकता। अब इस गली में प्रवेश स्टेशन से आने वाले मार्ग से ही संभव है बीच सड़क पर डिवाईडर उपस्थित है जिसमें शायद लोगों ने छोटा सा कट लगा कर पैदल पार करने का मार्ग बना लिया है परंतु तीव्र गति से चलने वाले वाहनों के कारण दुर्घटना कारक भी है। तब मैं और छोटा भाई भी स्कूल से आते-जाते आराम से सड़क पार कर लेते थे-अकेले भी। गली के दूसरे छोर तक पहुंचना कष्टकारक रहा जबकि तब दोनों भाई भाड़ पर जाकर चना भुनवा लाते थे और बरलिंगटन होटल स्थित पोस्ट आफिस से पोस्ट कार्ड भी आराम से ले आते थे। अब ओडियन सिनेमा से क़ैसर बाग जाने वाली महत्वपूर्ण सड़क पर कई जगह बेशुमार गंदगी के ढेर व बदबू का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार ठाकुरगंज व निवाज़ गंज की गलियों का भी बुरा हाल अब है जो तब नहीं था। 

कहा जाता है कि लखनऊ अब विकसित नगर है लेकिन मुझे तो तबका लखनऊ विकसित लगता है अब तो आपा-धापी ,खींच-तान,झगड़े-झंझट का नगर हो गया है। बदलाव और विकास तो बहुत हुआ है लेकिन असमानता की खाई बढ़ाने वाला।  असमान भौतिक प्रगति किन्तु समान रूप से नैतिक पतन खूब हुआ है हमारे नगर में। 
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2 टिप्‍पणियां:

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