शनिवार, 25 सितंबर 2010

सिलीगुड़ी में सवा तीन साल--(2)

(पिछली पोस्ट से आगे.......)

दिसंबर में सरकारी प्रदर्शनी पर भी भारत -पाक युद्ध की छाप स्पष्ट थी.कानपुर के  गुलाब बाई के ग्रुप के एक गाने के बोल थे--

चाहे बरसें जितने गोले,चाहे गोलियां
अब न रुकेंगी,दीवानों की टोलियाँ

शास्त्री जी व जनरल चौधरी जनता में बेहद लोकप्रिय हो गए थे.पहली बार कोई युद्ध जीता गया था.युद्ध की समाप्ति पर कलकत्ता की जनसभा में शास्त्री जी ने जो कहा था उसमे से कुछ अब भी याद है.पडौसी भास्करानंद मित्रा साः ने अपना रेडियो बाहर रख लिया था ताकि सभी शास्त्री जी को सुन सकें.शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था.उन्होंने सप्ताह में एक दिन (उनका सुझाव सोमवार का था) एक समय अन्न त्यागने की जनता से अपील की थी.उन्होंने PL -४८० की अमरीकी सहायता को ठुकरा दिया था क्योंकि प्रेसीडेंट जानसन ने बेशर्मी से अय्यूब का नापाक साथ दिया था.चीनी आक्रमण के समय केनेडी से जो सहानुभूति थी वह पाक आक्रमण के समय जानसन के प्रति घृणा में बदल चुकी थी,हमारे घर शनिवार की शाम को रोटी चावल नहीं खाते थे.हल्का खाना खा कर शास्त्री जी के व्रत आदेश को माना जाने लगा था.शास्त्री जी ने अपने भाषण में यह भी बताया था की १९६२ युद्ध के बाद चीन से मुकाबले के लिए जो हथियार बने थे वे सब सुरक्षित हैं और चीन को भी मुहं तोड़ जवाब दे सकते हैं.जनता और सत्ता दोनों का मनोबल ऊंचा था.
मेरी कक्षा में बिप्र दास धर नामक एक साथी के पिता कलकत्ता में फ़ौज के J C O थे.एक बेंच पर हमारे पास ही वह भी बैठता था.उसके साथ सम्बन्ध मधुर थे.जिन किताबों की किल्लत सिलीगुड़ी में थी वह अपने पिता जी से कलकत्ता से मंगवा लेता था.हिन्दी निबंध की पुस्तक उससे लेकर तीन-चार दिनों में मैंने दो कापियों पर पूरी उतार ली,देर रात तक लालटेन की रोशनी में भी लिख कर.उसके घर सेना का ''सैनिक समाचार'' साप्ताहिक पत्र आता था.वह मुझे भी पढने को देता था.उसमे से कुछ कविताएँ मुझे बेहद पसंद आयीं मैंने अपने पास लिख कर रख ली थीं।
सीमा मांग रही कुर्बानी

सीमा मांग रही कुर्बानी
भू माता की रक्षा  करने बढो वीर सेनानी
महाराणा छत्रपति शिवाजी बूटी अभय की पिला गये
भगत सिंह और वीर बोस राग अनोखा पिला गए
शत्रु सामने शीश झुकाना हमें बड़ों की सीख नहीं,
जिन्दे लाल चुने दीवार में मांगी सुत  की भी भीख  नहीं,
गुरुगोविंद से सुत कब दोगी बोलो धरा भवानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विकट समय में वीरों ने यहाँ अपना रक्त बहाया था
जब देश की खातिर अबलाओं ने भी अस्त्र उठाया था.
कण-कण में मिला हुआ है यहाँ एक मास के लालों का
अभी भी द्योतक जलियाना है देश से मिटने वालों का
वीरगति को प्राप्त हुई लक्ष्मी झांसी  वाली रानी,
सीमा मांग रही कुर्बानी.

अपनी आन पे मिटने को यह देश देश हमारा है
मर जायेंगे पर हटें नहीं यह तेरे बड़ों का नारा है
होशियार जोगिन्दर कुछ काम हमारे लिए छोड़ गए
दौलत,विक्रम मुहं शत्रु का मुख मोड़ गए.
जगन विश्व देखेगा कल जो तुम लिख रहे कहानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विक्रम साराभाई आदि परमाणु वैज्ञानिकों,होशियार सिंह,जोगिन्दर सिंह,दौलत सिंह आदि वीर सैन्य अधिकारियों को भी पूर्वजों के साथ स्मरण किया गया है.आज तो बहुत से लोगों को आज के बलिदानियों के नामों का पता भी नहीं होगा.

रूस नेहरु जी के समय से भारत का हितैषी रहा है लेकिन उसके प्रधान मंत्री M.Alexi kosigan भी नहीं चाहते थे कि शास्त्री जी लाहोर को जीत लें उनका भी जानसन के साथ ही दबाव था कि युद्ध विराम किया जाए.अंतर्राष्ट्रीय दबाव पर शास्त्री जी ने युद्ध विराम की  बात मान ली और कोशिगन के बुलावे पर ताशकंद अय्यूब खान से समझौता करने गए.रेलवे के  एक उच्च अधिकारी ने जो ज्योतिष के अच्छे जानकार थे और बाद में जिन्होंने कमला नगर  आगरा में विवेकानंद स्कूल की स्थापना की शास्त्री जी को ताशकंद न जाने के लिए आगाह किया था.संत श्याम जी पराशर ने भी शास्त्री जी को न जाने को कहा था.परन्तु शास्त्री जी ने जो वचन दे दिया था उसे पूरा किया,समझौते में जीते गए इलाके पाकिस्तान को लौटाने का उन्हें काफी धक्का लगा या  जैसी अफवाह थी कुछ षड्यंत्र हुआ 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में उनका निधन हो गया.11 जनवरी को उनके पार्थिव शरीर को लाया गया,अय्यूब खान दिल्ली हवाई अड्डे तक पहुंचाने आये थे.एक बार फिर  गुलजारी लाल नंदा ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे.वह बेहद सख्त और ईमानदार थे इसलिए उन्हें पूर्ण प्रधानमंत्री बनाने लायक नहीं समझा गया.  

नेहरु जी और शास्त्री जी के निधन के बाद 15 -15 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले नंदा जी जहाँ सख्त थे वहीँ इतने सरल भी थे कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व दिल्ली के जिस फ़्लैट में वह रहते थे वहां कोई पहचानने वाला भी न था.एक बार फ़्लैट में धुआं भर गया और नंदा जी सीडियों पर बेहोश होकर गिर गए क्योंकि वह लिफ्ट से नहीं चलते थे.बड़ी मुश्किल से किसी ने पहचाना कि पूर्व प्रधानमंत्री लावारिस बेहोश पड़ा है तब उन्हें अस्पताल पहुंचाया और गुजरात में उनके पुत्र को सूचना दी जो अपने पिता को ले गए.सरकार की अपने पूर्व मुखिया के प्रति यह संवेदना उनकी ईमानदारी के कारण थी.

कामराज नाडार ने इंदिरा गांधी को चाहा और समय की नजाकत को देखते हुए वह प्रधानमंत्री बन गयीं.किन्तु गूंगी गुडिया मान कर उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने वाले कामराज आदि सिंडिकेट के सामने झुकीं नहीं.1967 के आम चुनाव आ गए,तब सारे देश में एक साथ चुनाव होते थे.उडीसा में किसी युवक के फेके पत्थर से इंदिरा जी की नाक चुटैल हो गयी.सिलीगुड़ी वह नाक पर बैंडेज कराये ही आयीं थीं.मैं और अजय नज़दीक से सुनने के लिए निकटतम दूरी वाली रो में खड़े हो गए.मंच14 फुट ऊंचा था.सभा की अध्यक्षता पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन ने की थी.  

इंदिरा जी के पूरे भाषण में से एक बात अभी भी याद है कि जापानी लोग जरा सी भी चीज़ बर्बाद नहीं करते हमें बखूबी सीखना चाहिए.आज जब कालोनी में एक रो से दूसरी रो तक स्कूटर,मोटरसाइकिल से लोगों को जाते देख कर या सड़क पर धुलती कारों में पानी की बर्बादी देख कर तो नहीं लगता की इंदिरा जी के भक्त भी उनकी बातों का पालन करते हैं जबकि शास्त्री जी की अपील का देशव्यापी प्रभाव पड़ा था.  
उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था.संविद सरकारें बन गयीं थी.केंद्र में सिंडिकेट के प्रतिनिधि मोरार जी देसाई ने इंदिरा जी के विरूद्ध अपना दावा पेश कर दिया था.यदि चुनाव होता तो मोरारजी जीत जाते लेकिन इंदिरा जी ने उन्हें फुसला कर उप-प्रधानमंत्री बनने पर राजी कर लिया.

जाकिर हुसैन साःराष्ट्रपति और वी.वी.गिरी साः उप-राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.''सैनिक समाचार''में कैकुबाद नामक कवि ने लिखा--

ख़त्म हो गए चुनाव सारे
अब व्यर्थ ये पोस्टर और नारे हैं
कोई चंदू..............................हैं,
तो कोई हजारे हैं.........

चुनाव तो ख़त्म हुए लेकिन हमारे तो बोर्ड के इम्तिहान अभी बाक़ी थे दिसंबर में प्री-टेस्ट में ६० में से हम कुल २० छात्र ही बोर्ड के लिए चुने गए थे.स्कूल बंद हो चुके थे,घर पर ही तैय्यारी करनी थी.जनरल साइंस का कोर्स पूरा नहीं हो सका था.स्कूल सेक्रेट्री डाक्टर इंद्र बहादुर थापा अपने क्लिनिक से स्कूल आकर हम लोगों को पढ़ाते थे.एक पेशेवर डाक्टर का पढ़ाने का अंदाज़ बिलकुल मंजे हुए शिक्षक जैसा था.उनके पढाये पाठ सभी को आसानी से समझ आ जाते थे.

गरमी के मौसम में रात 11  बजे तक लालटेन से पढ़ कर उसे धीमा कर के छोड़ देते थे और सुबह 4 बजे फिर तेज़ करके थोडा देख कर स्नान आदि कर के 6 बजे घर से परीक्षा देने निकल पड़ते थे.स्कूल से मेरा एडमिट कार्ड भी बाबू जी ही लाये थे और जब रिज़ल्ट निकला तो भी वही स्कूल से पता कर के आये थे.वहां अखबार में रिज़ल्ट नहीं निकलता था.प्रीयूनिवर्सिटी में दाखिला नहीं लिया क्योंकि बाबू जी का  तबादला यू.पी.में होने की संभावनाएं थीं.

(अगली किश्त में जारी.......)

Typist -यशवन्त
   
  

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3 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.

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  2. पढ़ना बहुत अच्छा लगता है , कुछ अलग सा लगता है !

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    1. वस्तुतः अपनी बात के साथ-साथ देश-समाज के हालात का भी ज़िक्र करता चला हूँ।

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