बरेली के दौरान (भाग-2 )http://vidrohiswar.blogspot.in/2013/05/2.html
बरेली के दौरान
जब हम लोग धर्म प्रकाश जी के इस मकान में रहने आए थे तब कमरों व बारामदे की छत खपरैल की थीं और एक पड़ौसी की तरफ की दीवार कच्ची मिट्टी की बनी थी। कुछ दिनों बाद दुकान के हिस्से को उन्होने पक्का करवा कर दो मंजिल बनवा कर दुकान के ऊपर भी घर किराये पर उठा दिया था। कच्ची दीवार को पूरा ही उन्होने पक्का करवा डाला था। जब मिट्टी की दीवार तोड़ी गई तो सुना था कि उसमें उनको कुछ गड़ा हुआ खजाना मिला था। कानूनन वह सरकार का होता। पड़ौसी का घर बंद रहता था वह अविवाहित सज्जन अपने किसी भतीजे के पास बाहर रहते थे। धर्म प्रकाश जी की धर्म पत्नी साहिबा ने उनके सिर पर पोटली बांध कर गहने देकर उनको किसी रिश्तेदार के घर छिपवा दिया था। किसी की शिकायत पर जब पुलिस आई तो दुकान से उनके छोटे भाई को पकड़ कर थाने ले गई। धर्म प्रकाश जी की पत्नी को मजदूर गण 'ललाईन'कहते थे। वही मकान निर्माण का कार्य देखती थीं। ऐसा सुनने में आया था कि वह थाने मे काफी गरम होती हुई पहुँचीं और अपने पति 'धर्म प्रकाश'जी को गायब करने तथा देवर को प्रताड़ित करने का इल्ज़ाम पुलिस पर लगाते हुये दरोगा जी को खूब फटकारा और उनके विरुद्ध शिकायत करने की धमकी दी जिससे घबराकर उन्होने उनके देवर 'नारायण दास' जी को भी तत्काल थाने से बगैर लिखा-पढ़ी के ही छोड़ दिया था। उनको पकड़ना ही नहीं दिखाया होगा।
आज आए दिन पुलिस द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न की कहानियों से रंगे अखबार पढ़ने को मिलते हैं तब आज की उच्च शिक्षित महिलाओं की बुद्धि पर हैरानी होती है। अबसे 52 वर्ष पूर्व की अशिक्षित 'ललाईन' के ज्ञान और पुलिस के प्रति उनके तेवर को क्या आज की शिक्षित महिलाएं अपना कर अपने शोषण-उत्पीड़न से टक्कर नहीं ले सकती हैं ? या अब पुलिस का चरित्र हींन होना ही पुलिस की पहचान बन गया है -इस उदारवादी विकास वाले भारत में -महिला और पुरुष का भेद मिटा कर सबका उत्पीड़न समान बना दिया गया है? बड़ा विस्मय होता है!
ललाईन सुबह मजदूरों के पहुँचते ही आ जाती थीं और किसी को भी खाली नहीं बैठने देती थीं। मजदूरों के खाना खाने के समय खुद घर जाकर खाना खातीं और अपने पति व देवर का खाना लाकर दुकान मे पहुंचाती थीं। मकान मालकिन होने के नाते हमारी बउआ दोपहर में उनको चाय पिला देती थीं। उन लोगों का अपना घर भी सादगी युक्त ही था। जैसा कि आज चार पैसे होते ही लोगों मे घमंड झलकता देखते हैं वैसा तब के उन धनाढ्यो में दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता था। जब कभी बउआ के साथ उनके घर गए उन्होने अपने बच्चों के साथ ही हम लोगों को भी खेलने दिया व उनके साथ ही खाने की चीज़ भी दीं,बिना किसी भेद-भाव के।
बाबू जी के आफिस के एक गेरिजन इंजीनियर साहब जिस मकान में रहते थे वह कुतुब बाज़ार जाने के रास्ते में पड़ता था। वह अक्सर अपने बारामदे में बैठे होते थे और बाबूजी द्वारा 'नमस्ते' करने का जवाब बड़ी ही आत्मीयता से देते थे। उस समय तक अफसर होने का घमंड उनमे नहीं था।
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ललाईन जैसी नेक दिल स्त्री को नमन .. गेरिजन इंजीनियर साहब जैसे इंसान भी आज देखने को कहा~मिलते हैं..बहुत सुन्दर संस्मरण ...आभार
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