गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

सोच -सोच का समाचार

वैसे तो अक्सर अब मैं बहुत ही कम घरेलू कार्य वश निकलता हूँ किन्तु पुत्र अपने कंप्यूटर छात्रों के साथ व्यस्त चल रहा था अतः टूटी हुई चप्पलों को सिलवाने मैं खुद ही चला गया था। कारीगर महोदय जब खाली हुये और मोटरसाईकिल वाले साहब अपने जूते लेकर जाने लगे तभी एक महिला अपनी लगभग 12 वर्षीय पुत्री को लेकर कुछ कार्य करवाने पहुँचीं और वह चाहती थीं कि कारीगर महोदय पहले उनको तवज्जो दें,लेकिन क्रमानुसार उन्होने पहले मेरा कार्य हाथ में लिया। चप्पलों में छोटे-छोटे टांके लगाने  थे उनको देख कर उक्त महिला अपनी पुत्री की ओर मुखातिब होकर व्यंग्यात्मक मुस्कराहट बिखेरने लगीं। निश्चित रूप से उनकी पुत्री ने भी हास्यास्पद ढंग से अपनी माँ से सहमति व्यक्त की। हालांकि मुझसे कुछ कहा नहीं गया था किन्तु लक्ष्य मेरे द्वारा चप्पलों की मरम्मत करवाने की ओर ही था। उन लोगों के भाव से ऐसा लग रहा था कि मुझे वे चप्पलें फेंक कर नई चप्पलें खरीदना चाहिए था।

हमारा दृष्टिकोण यह है कि केवल पट्टियों के टूटने पर पूरी चप्पल फेंक कर नई खरीदने का अर्थ है एक पूंजीपति और धनाढ्य व्यापारी को लाभ पहुंचाना। जबकि मेरे द्वारा मरम्मत करवाने पर कारीगर साहब को जो बीस रुपए मिले उसमें उनका धागा और कीलें पाँच रुपए की होंगी और उनको पारिश्रमिक रूप पंद्रह रुपए मिल गए होंगे। इसी प्रकार जो लोग टूटी-फूटी चीजों की मरम्मत उनसे करवा लेते होंगे उसके आसरे उनका जीविकोपार्जन हो जाता होगा।यदि हम  सब लोग ही मरम्मत  के स्थान पर नई चीज़ें खरीदने लगें तब ऐसे कारीगरों के सम्मुख तो भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में मिलों के सूती वस्त्रों का चलन होने से बुनकरों और उनके परिवारों को मौत का वरण करना पड़ा था और एक ज़िले के कलक्टर को अपने गवर्नर जनरल को लिखना पड़ा था कि,"विश्व के आर्थिक इतिहास में ऐसी भुखमरी मुश्किल से ढूँढे  मिलेगी;बुनकरों की हड्डियों से भारत के मैदान सफ़ेद हो रहे हैं। " और इसी वजह से महात्मा गांधी ने 'चर्खा'आंदोलन के जरिये खादी को बढ़ावा देने का जनता से आह्वान किया था। लेकिन आज के मनमोहनी उदारवाद में जनता खुद धनवानों की लूट को मजबूत कर रही है और अपने बीच के छोटे कारीगरों के हितों पर डाका डाल रही है।उक्त महिला का व्यवहार -सोच इसी प्रकार की सोच का ज्वलंत उदाहरण है।



कल 19 फरवरी को जब यह समाचार फेसबुक पर दिया था तो 20 फरवरी तक 28 लोग इसे लाईक कर चुके थे और महत्वपूर्ण कमेंट्स आ चुके थे जिनकी फोटो प्रस्तुत की गई है। इनमे आजमानी साहब चूंकि 'पूंजी के व्यापारी'-बैंक से संबन्धित हैं और आगरा जो जूता उद्योग का प्रमुख केंद्र है में निवास कर रहे हैं अतः उनका कमेन्ट उद्योग हित मे है।लखनऊ नगर कमेटी ,भाकपा के सचिव कामरेड का कहना है कि यदि मैं रु 100/-में नई चप्पल खरीदता तो उसमें एकसाईज़ ड्यूटी,व्यापार कर,सेवा कर,उद्योगपति का लाभ 40-50प्रतिशत,थोक व फुटकर व्यापारियों के लाभ,ढुलाई आदि भी शामिल होते और मजदूर कारीगर का पारिश्रमिक रु 5/-से अधिक नहीं भुगतान किया जाता।

प्रस्तुत दृष्टांत में यदि कारीगर महोदय को रु 20/- में से रु 15/- का परिश्रमिक प्राप्त हो गया तो वह कारखाना श्रमिक के परिश्रमिक से तीन गुना अधिक मिल गया। चार अलग-अलग चप्पलों की मरम्मत से हमारी तीन चप्पलें इस्तेमाल लायक हो गईं मात्र रु 20/- में और एक कारीगर को तीन गुना अधिक पारिश्रमिक भी मिल गया। इसीलिए गौतम कुमार जी,अनीता गौतम जी, दृगविंदु मणि सिंह जी व सफदर हुसैन रिजवी साहब  ने मेरे निर्णय व कृत्य का समर्थन किया है। 

मैं जूलाई  1975 से अक्तूबर 2009 के प्रथम सप्ताह तक खुद भी आगरा में रहा हूँ तथा इस दौरान 1985 ई तक होटल मुगल शेरटन में सुपरवाएजर अकाउंट्स के रूप में तथा फिर 2000ई तक प्रमुख जूता बाज़ार हींग -की-मंडी  मे पाँच सिन्धी थोक व्यापारियों के यहाँ स्वतंत्र रूप से उनके अकाउंट्स कार्य -सेल्स टैक्स/इन्कम टैक्स केसेज समेत देखता रहा हूँ। मेरा बहुत नजदीक से यह अनुभव है कि सवर्ण कारखानेदार व थोक व्यापारी दलित जूता कारीगरों का घनघोर आर्थिक-मानसिक-शारीरिक शोषण करते हैं। 

आगरा भाकपा के जिलामंत्री व शाखा लँगड़े की चौकी के मंत्री भी जिस उद्योग से संबन्धित थे उसमें कबाड़ियों द्वारा खरीदी गई  टूटी-फूटी चप्पलें आदि को  काट-कतर कर चक्की में पीस कर बुरादा बनाया जाता था। इसको वे तौल के भाव दाना उठाने वाले उद्योगपति को बेच देते थे जो दाना बना कर शीट बनाने वाले उद्योगपति को बेचते थे। इन शीटों का प्रयोग फिर से जूता-चप्पल बनाने में होता था। कुल मिला कर उद्योगपति-व्यापारी भारी मुनाफे में रहते हैं और बेचारा गरीब जूता कारीगर सिसकता रह जाता है। यही वजह है कि हम लोग प्रयोग लायक रहने तक पुराने जूता-चप्पल का ही इस्तेमाल करते रहते हैं। 

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2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी सोच बहुत अच्छी है अंकल.. हम जब छोटे थे और हमारी चप्पल टूटती तो खुशी होती कि अब नई आ जाएगी पर पापा नई बद्दियां ले आते और उन्हें ठीक कर देते थे। ऐसा करने पर हमको बहुत बुरा लगता.. पर आज बहुत अच्छा लग रहा है कि ऐसा करके हम कितने और लोगों के लिए थोड़ा बहुत कर जाते हैं..

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  2. इस दृष्टिकोण को मैंने भी अपनाया है. मुझे इस प्रकार की दृष्टि और आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है. वैसे आजकल इस प्रकार के कामगार मिलना भी इतना आसान नहीं रह गया है.

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