रविवार, 15 जून 2014

बाबूजी का स्मरण 'फादर्स डे' पर ---विजय राजबली माथुर



परसों 13 जून को बाबूजी की 20 वीं पुण्यतिथि थी और कल 14 जून को उनके अंतिम संस्कार  का दिवस । जून का तीसरा रविवार होने के कारण आज अंतर्राष्ट्रीय 'पितृ दिवस' है। हम लोग 'वसुधेव कुटुंबकम' के अनुगामी हैं इसलिए विश्व पितृ दिवस पर एक बार फिर पिताजी का स्मरण करने का सुअवसर मिल गया है। 

यों तो इस ब्लाग में अनेक अवसरों पर बाबूजी का स्मरण किया गया है परंतु 'फादर्स डे' पर ज़िक्र करते समय 50-52  वर्ष पीछे लौट चलता हूँ। 1962 में चीन के आक्रमण के समय बाबूजी का स्थानांतरण बरेली से सिलीगुड़ी (जो उस वक्त नान फेमिली स्टेशन था ) हो गया था और हम लोग शाहजहाँपुर में नानाजी के पास रहे थे। बीच सत्र में हम लोगों के दाखिले में अनेकों अड़चनें आईं। छोटी बहन को तो प्रवेश आर्य कन्या पाठशाला में नाना जी के एक भाई के सहपाठी तिनकू लाल वर्मा जी के प्रबन्धक होने के कारण सुगमता से मिल गया। छोटे भाई व मेरे लिए दिक्कतें आईं। अंततः नानाजी के घर खाना बनाने वाली मिसराईन जी के बड़े सुपुत्र द्वारा स्थापित 'विश्वनाथ जूनियर हाई स्कूल' के प्रबन्धक उनके छोटे भाई से नानाजी ने समस्या बताई तो उन्होने हम लोगों का दाखिला करवा दिया। 

सिलीगुड़ी में पिताजी के साथ कमरे पर कानपुर के  एक क्रिश्चियन लाल साहब रहते थे और वे दोनों मिल कर खाना बनाते खाते थे। फिर जब 1963 में फेमिली रखने की इजाजत मिल गई तो बाबूजी माँ और छोटी बहन को कुछ समय के लिए वहाँ ले गए थे और हम दोनों भाई नानाजी के पास ही रहे। परंतु पहले निर्णय यह हुआ था कि बहन तो न्यू हैदराबाद,लखनऊ में मामाजी के पास रहेगी मैं सप्रू मार्ग,लखनऊ में भुआ के पास तथा भाई शाहजहाँपुर में नानाजी के पास। किन्तु माँ के फुफेरे भाई -गोपाल मामाजी ने उनको समझाया कि शोभा को वह अपने साथ ले जाएँ और मुझे व अजय को एक साथ भुआ अथवा नानाजी के पास छोड़ें। व्यवस्था बदल जाने के कारण बाबूजी,माँ व बहन तो रिज़र्वेशन के हिसाब से सिलीगुड़ी चले गए थे मैं भुआ के पास से अजय के साथ रहने शाहजहाँपुर भेजे जाने के इंतज़ार में रह गया था। बाद में लाखेश भाई साहब मुझे शाहजहाँपुर छोड़ आए थे जो अब डेढ़ कि मी के फासले पर रहते हुये भी मुझसे दूरी बनाए हुये हैं। 

बाराबंकी से बाबूजी के चाचा (स्व राय धर्म राजबली माथुर साहब) भुआ के पास मुझसे मिलने आए थे और बड़े ताउजी ने पत्र भेज कर माता-पिता दोनों की गैर हाज़िरी में रहने पर साहस कायम रखने की हिदायत दी थी। कुछ समय बाद माँ भी शाहजहाँपुर लौट आईं थीं। भुआ ने माँ व हम सब को 1964 की गर्मी की छुट्टियों में लखनऊ बुलवाने का विचार किया था जिसकी भनक लगने पर छोटी ताईजी ने बाबाजी से नानाजी को पत्र भेज कर दरियाबाद  बुलवा लिया था। लगभग 15 दिन हम लोग रायपुर कोठी ,दरियाबाद में रहे थे। उन दिनों लगभग रोजाना ही पेड़ से टूटे  ताज़े  कटहल की सब्जी  बनती थी। आम,जामुन,फालसे,राब आदि खाने का अवसर तब मिला था। दरियाबाद में उस समय पोस्टेड एक  सक्सेना दारोगा जी  अक्सर बाबाजी से मिलने आते थे वह बाबू जी के सहपाठी रहे थे। 

27 मई(उस दिन नेहरू जी का निधन हो जाने से लखनऊ में सन्नाटा था ) को हम लोगों को लखनऊ भुआ के पास जाना था। अलाहाबाद जाने के लिए छोटे ताऊ जी भी लखनऊ तक आए भीड़ के कारण हम लोगों को तो बैठवा दिया किन्तु उनको खड़े ही रहना पड़ा। बाराबंकी से वीरेंद्र चाचा भी लखनऊ के लिए सवार हुये वह भी उनके साथ ही खड़े-खड़े आए। तब वीरेंद्र चाचा पढ़ रहे थे फिर 1974 में दिल्ली के माडल टाउन में बाबूजी के साथ उनके घर गए थे । वीरेंद्र चाचा लानसर रोड स्थित मौसाजी के घर से खुद आकर लिवा ले गए थे। 1975 में मेरठ से मैं कई बार केन्द्रीय सचिवालय जाकर वीरेंद्र चाचा से मिलता रहा था परंतु एमेर्जेंसी लगने पर  मैं आगरा बाबूजी के पास चला गया था। बाद में वीरेंद्र चाचा अमेरिका जाकर सेटिल हो गए। धीरेन्द्र की शादी में उनसे मुलाक़ात नरेंद्र चाचा के यहाँ  मथुरा में हुई थी तब एक लंबे अरसे से विदेश में रहने के बावजूद उनमें वही पुरानी आत्मीयता पाई थी। जब बाबूजी और माँ फरीदाबाद में भाई के पास उसकी पुत्री के जन्म के समय गए थे तब नरेंद्र चाचा ने मुझसे कहा था कि तुम खुद को अकेला न समझना। दरियाबाद तो आगरा से लगभग 400 कि मी होगा और फरीदाबाद 200 कि मी किन्तु मथुरा सिर्फ 50 कि मी है कभी भी बेझिझक चले आना। बाबू जी के चचेरे भाई-बहनों का स्वभाव तो वही पुरानी आत्मीयता वाला है परंतु बाबूजी के अपने भतीजे व भांजे मुझसे विद्वेष भाव रखते हैं। 

आज जो लेखन के प्रति मैं अभिरुचि रखता हूँ इस प्रवृति को प्रोत्साहन बाबूजी द्वारा 1960-61 में लखनऊ में मेरे लिए रविवार को 'स्वतंत्र भारत' लेकर पढ़ने देने से प्रारम्भ हुआ था। जिस राजनीतिक दल भाकपा में मैं काफी समय से सक्रिय रहा हूँ उसके एक पूर्व प्रदेश सचिव कामरेड भीखा लाल जी ने भी मुलाक़ात होने पर बाबू जी के सहपाठी व रूम मेट रहने के आधार पर बड़ी ही आत्मीयता बरती थी। बाबूजी का व्यवहार सबके प्रति काफी अच्छा रहा है जिस कारण उनके नाम का आज उनके न रहने के 19 वर्ष बाद भी यह प्रभाव है कि उनके  लोग मेरे प्रति भी  आत्मीयता का भाव रखते हैं।


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