शुक्रवार, 8 मई 2015

डॉ डी मिश्रा (होम्योपैथ ) :कुछ भूली बिसरी यादें (भाग-2 ) --- विजय राजबली माथुर

डॉ डी मिश्रा (होम्योपैथ ) :
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डॉ डी मिश्रा होटल क्लार्क शीराज, आगरा के पूर्व जेनरल मेनेजर के पुत्र तथा खुद पूर्व पाइलट आफ़ीसर थे। फ्लाईट लेकर लंदन जाते रहते थे अतः वहाँ की होम्योपैथी एकेडमी से डिग्री हासिल कर ली थी। पिता के 'लकवा' लग्ने परउनकी सेवा करने के लिए स्तीफ़ा देकर मेडिकल प्रेक्टिस करने लगे थे। उनसे मुलाक़ात इस वजह से हुई कि उनके कंपाउंडर के पिता की मृत्यु बंगलौर में हो गई थी जिसमें उनको जाना था लेकिन डॉ साहब ने उनसे शर्त रखी थी कि वह अपना रिपलेसमेंट देकर जाएँ तो चाहे जितने दिन भी बाद आयें वरना वह रिलीव नहीं करेंगे और बगैर रिपलेसमेंट देकर जाने पर वह जाब से हटा देंगे। वह कंपाउंडर हमारे एक परिचित डॉ के सहपाठी थे इसलिए मुझे जानते थे और यह भी कि होटल मुगल, आगरा में सुपरवाईजर अकाउंट्स के पद से सस्पेंड हो चुकने के कारण मेरे पास वक्त भी था। उन सज्जन ने अपनी मजबूरी में मदद करने का निवेदन किया और यह भी कि मैं डॉ मिश्रा को यह न बताऊँ कि मैं खुद 'आयुर्वेद रत्न', आर एम पी हूँ ।
दूसरों को मदद करने की आदत के कारण मैंने उनको रिलीव करा दिया। होम्योपैथी में दिलचस्पी व जानकारी मुझको बहुत पहले से थी अतः मैंने डॉ साहब को कोई दिक्कत न होने दी।हिसाब भी उनको इस प्रकार सौंपता था कि समझने में उनको दिक्कत न हो उसको तो उन्होने मेरी अकाउंट्स की जानकारी के संदर्भ में देखा किन्तु दवाएं मरीजों को देने व प्रयोग की विधि मरीजों को समझाने की मेरी विधि से वह खासे चकित थे। एक दिन डॉ साहब ने कंपाउंडर का नाम लेकर कहा कि उसको इतना समझाने व इतने दिन काम करने के बाद भी वह मरीजों को इस ढंग से नहीं समझा पाता है आपने अकाउंट्स में होते हुये भी क्या कमाल कर दिया है! मैंने डॉ साहब को बताया कि मेरे नानाजी डॉ राधे मोहन लाल माथुर साहब निशुल्क होम्योपैथी इलाज करते थे उनके साथ काफी रहने के कारण बचपन से समझता रहा हूँ। डॉ साहब को मुझसे आत्मीयता हो गई और समय मिलने पर यों ही बातें करते रहते थे।
डॉ साहब ने दैनिक दवाओं की तीन श्रेणियाँ बना रखी थीं : ए बी सी । ए-धनवानों की दर, बी- मध्यम वर्ग की दर और सी- निर्धनों के लिए दर। एक ही दवा की कीमत व्यक्ति की हैसियत के अनुसार अलग-अलग लेते थे एवं एक सफाई कर्मचारी की बारह वर्षीय पुत्री जिसके दिल में छेद था का इलाज वह निशुल्क कर रहे थे। अर्थात वह ही सच्चे कम्युनिस्ट थे जिसके अनुसार प्रत्येक से उसकी क्षमतानुसार व प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार देना होता है। (जबकि एक शीर्षस्थ कम्युनिस्ट मिश्रा जी की नीति है कि दलितों व पिछड़ों से काम तो लो पर उनको कोई पद न दो )।
आगरा यूनिवर्सिटी के निसंतान हेड क्लर्क जी पी माथुर साहब की पत्नी से वह 10 गुना अधिक चार्ज लेते थे क्योंकि वह जानते थे कि उनको सस्ती दवा देने पर वह डॉ साहब को मूर्ख समझेंगी । डॉ मिश्रा जी ने मुझसे पूछा था कि क्या मैं उनको जानता हूँ ? मैंने स्पष्ट कह दिया था कि हाँ जानता तो हूँ परंतु उनका रहस्य नहीं बताऊंगा। डॉ साहब की क्लब के साथी और उनके मित्र श्याम मेहरा साहब जिनका होटल मुगल में प्रिंटिंग कार्य चलता था और जिनको तमाम चेक मेरे द्वारा बनाए गए भुगतान हुये थे और वह दवा के भुगतान की हैसियत में थे किन्तु उनकी पत्नी का इलाज निशुल्क करते थे। एक रोज़ श्याम मेहरा साहब ने अपने सिर में चक्कर होने की बात कही तो डॉ साहब ने मुझसे बोला कि माथुर साहब श्याम बाबू को बी जी की एक डोज़ दे दीजिये। मैंने सादी गोलियों(BLANK GLOUBLES) को पुड़िया बना कर दे दिया। थोड़ी देर बाद डॉ साहब ने मेहरा साहब से पूछा कि श्याम बाबू कुछ आराम मिला वह बोले चक्कर कुछ कम तो हो गए हैं तब डॉ साहब ने उनको कुछ देर और रुके रहने को कहा कि बिलकुल आराम मिलने पर ही कार ड्राईव करें। पाँच मिनट बाद नार्मल होने की बात कह कर वह चले गए।
मैंने डॉ मिश्रा जी से पूछा कि आपने BG- सादी गोलियेँ दिलवाईं तो भी मेहरा साहब को फायदा हो गया? डॉ साहब का जवाब था कि श्याम बाबू को हुआ ही कुछ नहीं था वह तो अपनी मिसेज को जतलाना चाहते थे कि वही नहीं बीमार हैं खुद श्याम बाबू भी बीमारी के बावजूद इतनी मेहनत करते रहते हैं तो उनको सादी गोली नहीं देते तो दवा क्या देते?
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एक बार जान-पहचान हो जाने पर डॉ मिश्रा जी ने यदा-कदा मिलते रहने को कहा था और मैं उनसे मिलता भी रहता था। जीवनी मंडी , आगरा से जब उन्होने अपना क्लीनिक घटिया रोड पर स्थानांतरित कर लिया था तो मेरे बाज़ार जाते समय उन्होने आवाज़ देकर बुलाया और कहा कि " माथुर साहब दिस इज़ यौर क्लीनिक ,यू आर आलवेज मोस्ट वेलकम " । उनको मैंने बाद में बता भी दिया था कि मैंने 'आयुर्वेद रत्न' किया है तथा मेरा RMP रेजिस्ट्रेशन भी है। इसलिए उनको और भी दिलचस्पी हो गई थी। 
जब कम्युनिस्ट कर्ता-धर्ता मिश्रा जी का संकीर्ण दृष्टिकोण  देखता हूँ  तब डॉ डी मिश्रा जी की याद तीव्रतर हो जाती है। 

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