रविवार, 23 जुलाई 2017

रिश्ते सिर्फ घरेलू ही नहीं होते ? ------ विजय राजबली माथुर




* यों साधारण तौर पर 'रिश्ते' से तात्पर्य घरेलू और पारिवारिक रिश्ते - नातों से लिया जाता है। परंतु सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परस्पर संबंध भी 'रिश्ते ' ही होते हैं। कार्यस्थल पर सह-कर्मियों,अधीनस्थों और वरिष्ठों के मध्य भी रिश्ते होते हैं। मेरठ की एक प्राईवेट लिमिटेड कंपनी मे मुझे पहली नौकरी अपने नानाजी के फुफेरे भाई जो तब वहाँ इंस्पेक्टर ऑफ फैक्टरीज थे के ज़रिये मिली थी.  जब वह कानपुर प्रमोशन पर जा चुके थे और मुझे कार्य करते हुये ग्यारह माह हो चुके थे तब अचानक एक दिन कहा गया कि, लेखा विभाग के तीनों कर्मचारी त्याग - पत्र दे दें तीन दिनों के अंतराल के बाद नया नियुक्ति पत्र दे दिया जाएगा। जबकि अन्य दो लोगों ने ऐसा ही किया मैंने त्यागपत्र न देकर टर्मिनेट किए जाने को कहा।मुझे शो काज नोटिस दिया गया जिसका जवाब मैंने पूर्व पर्सोनेल आफिसर डॉ एम एल झा साहब से लिखवा लिया और उनके निर्देश पर पूर्व फैक्ट्री मेनेजर जैन साहब से वेरिफ़ाई करवाकर टाईप करा कर दे दिया। फैक्ट्री  मेनेजर बृजेन्द्र कुमार अखौरी साहब मेरी सीट पर आए और मुझे बाहर बुलाकर अपना जवाब वापिस लेने को कहा उनकी दलील थी कि, शो काज नोटिस और जवाब दोनों फाड़ देंगे। लेकिन मैंने कहा कि, आप फाड़ने के बजाए कनसेंट टू रिकार्ड कर सकते हैं। अंततः वैसा ही किया गया और मेरी नौकरी लगातार जारी रही जबकि दोनों साथियों की फ्रेश सर्विस हो गई।  
गैर मान्यता प्राप्त यूनियन के कोशाध्यक्ष महोदय ने मुझे दो माह पीछे से सदस्यता देकर यूनियन कार्यकारिणी में शामिल किए जाने का प्रस्ताव किया ( उनकी धारणा थी कि, जब मैं अकेले टकरा सकता हूँ तब मुझे सबके हित के लिए आगे आना चाहिए ) जिसे मैंने स्वीकार कर लिया और इस प्रकार 1973 में 21 वर्ष की आयु से ट्रेड यूनियन के साथ रिश्ते शुरू हुये। ** 1975 मे एमर्जेंसी के दौरान मैं वहाँ से छोड़ कर आगरा चला गया और कुछ दिन बाद निर्माणाधीन होटल मोघुल ओबेराय ज्वाइन कर लिया जो बाद में मुगल शेरटन हो गया था। 1977 मे होटल मुगल कर्मचारी संघ की स्थापना में प्रयासरत सुदीप्तो  मित्रा का बैंक आफ बरोदा में पी ओ के रूप में चयन हो गया और उनके सुझाव पर मुझे सेक्रेटरी जेनरल बना दिया गया। वस्तुतः प्रारम्भ में ही वह मुझे चाह रहे थे जबकि मैंने उनको प्रस्तावित कर दिया था। 
मेरठ के अपने अनुभवों के आधार पर मैं आगरा में अलग थलग रहना चाहता था। एक बार  शुरुआत  में पर्सोनेल मेनेजर आनंदों शोम ने मुझसे अपने आफिस में  बुला कर किसी दूसरी कंपनी में रोज़गार ढूँढने को कहा (मतलब साफ़ था कि, मुझे रिजाइन करना है ), मैंने उनको जवाब दिया कि, आप टर्मिनेट कर सकते हैं परन्तु मैं रिजाइन नहीं कर रहा और बात आई गयी ख़त्म हो गई थी किन्तु खतरा था इसी लिए मैंने युनियन के महामंत्री पद का दायित्व सम्हाल लिया था. मैंने अपने कार्यकाल में कई लोगों की नौकरी बचाने में मदद की, कई लोगों को निहायत ज़रुरत पर भी छुट्टी न मिलने पर उनको सवैतनिक अवकाश मंजूर करवाया,जिनके साथ ज्यादती हुई थी उनको वाजिब प्रोमोशन दिलवाया . इन सबका ही नतीजा था जब इन्वेंटरी में मैंने घपला पकड़ा था तब मुझको रिवार्ड न देकर निलंबित करके दोषियों को बचाया गया था . तब जनवरी १९८५ में निलंबन के दौरान हुए युनियन के चुनावों में बगैर प्रचार के भी मुझे सेकेण्ड हायेस्ट वोट मिले थे जिससे भयभीत होकर फरवरी में टर्मिनेट कर दिया गया. होटल मुग़ल के विरुद्ध श्रम न्यायालय में परिवाद (Case ) करने के सिलसिले में AITUC से संपर्क हुआ जिसके ज़रिये CPI से. पार्टी में शामिल होने के दस माह बाद ही मुझे जिला काउन्सिल में शामिल कर लिया गया और मैं पार्टी कार्यालय में सहयोग करने लगा. हालांकि जिलामंत्री तो कामरेड रमेश मिश्र थे परन्तु कार्यालय का कार्य कोषाध्यछ कामरेड डॉ रामगोपाल सिंह चौहान और डॉ एम् सी शर्मा देखते थे. वे दोनों मेरे कार्य करने से काफी प्रभावित थे. डॉ चौहान तो इतने कि, जब वह गंभीर रूप से बीमार हुए तब अपने उत्तराधिकारी के रूप में मेरा ही नाम प्रस्तावित कर दिया और उनके सम्मान को देखते हुए काफी सीनियर्स के होने के बावजूद मुझे ही उनका चार्ज दिया गया.
*** ईमानदार कार्य और परस्पर व्यवहार - रिश्तों के कारण ही युनियन और पार्टी में मुझे दायित्व मिले थे. लेकिन फिर भी कुछ लोग सभी जगहों पर जल्खोरे और चिढोकरे होते हैं उनसे CPI भी अछूती नहीं है इसी कारण आगरा में १४ वर्षों तक पार्टी से अलग रहा था परन्तु वहां के तत्कालीन जिलामंत्री के आग्रह पर पुनः पार्टी में वापिस आ गया था और लखनऊ आने पर यहाँ भी सक्रिय रहा.किन्तु यहाँ भी वैसे जल्खोरे और चिढोकरे दो लोगों के कारण फिलहाल शारीरिक रूप से सक्रिय नहीं हूँ क्योंकि, एथीस्ट होने का एलान करने के बावजूद इन दोनों ने तांत्रिक प्रक्रिया से मुझे अस्वस्थ कर रखा है.
निहित स्वार्थ वाले लोगों की कथनी और करनी में अंतर होता है और उनके साथ काम करने में मुझे दिक्कत होती है. इसलिए चुप बैठना ही श्रेयस्कर भी है.

Link to this post-



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

ढोंग-पाखंड को बढ़ावा देने वाली और अवैज्ञानिक तथा बेनामी टिप्पणियों के प्राप्त होने के कारण इस ब्लॉग पर मोडरेशन सक्षम कर दिया गया है.असुविधा के लिए खेद है.

+Get Now!