रविवार, 5 फ़रवरी 2023

यादों के झरोखों से 71 वर्ष





प्रारम्भिक शिक्षा डी पी निगम गर्ल्स जूनियर हाईस्कूल, मुरलीनगर,लखनऊ से सम्पन्न हुई और बाबूजी के बरेली स्थानांतरण होने पर 1961 में रूक्स  प्राइमरी स्कूल,बरेली कैंट से 5 वीं कक्षा  उत्तीर्ण करके रूक्स हायर सेकेंडरी  स्कूल ( जो अब रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल हो गया है ) से 6 ठवीं कक्षा  की पढ़ाई अधूरी हुई क्योंकि बाबूजी का पुनः स्थानांतरण सिलीगुड़ी 1962 में हो गया और बाकी की पढ़ाई विश्वनाथ जूनियर हाईस्कूल,बहादुरगंज,शाहजहांपुर से हुई। यहीं 7 वीं कक्षा में जिला वादविवाद प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिलने पर ' कामायनी' पुस्तक  पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हुई। 



1964 में सिलीगुड़ी के आश्रमपाड़ा स्थित कृष्ण माया मेमोरियल हाईस्कूल में 8 वीं कक्षा  में प्रवेश लिया और यहीं से 1967 में स्कूल फाईनल परीक्षा उत्तीर्ण की। 

सितंबर 1967 में गांधी फैज़ाम कालेज,शाहजहांपुर से 11 वीं कक्षा उत्तीर्ण करके इंटरमीजियट परीक्षा श्री सनातन धर्म इंटरमीजियट कालेज,लालकुर्ती,मेरठ कैंट से सम्पन्न करके 1969 में मेरठ कालेज,मेरठ में बी ए में प्रवेश लिया और 1971 में मेरठ विश्वविद्यालय , मेरठ ( जो अब चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय हो गया है)से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। 

 बिहार,कश्मीर,गोआ  और मेघालय के पूर्व  राज्यपाल  सत्यपाल मलिक साहब 1969 तक मेरठ कालेज छात्रसंघ के अध्यक्ष थे किन्तु डॉ वी पूरी के त्यागपत्र के बाद बने कार्यवाहाक प्रधानाचार्य डॉ बी भट्टाचार्य ने उनको निष्कासित करके जिलाधिकारी ऋषिकेश कौल  से उनके विरुद्ध इजेक्शन नोटिस जारी करा  दिया किन्तु सत्यपाल मलिक कालेज आते और साथियो से  मिलते रहे । 

 मुख्यमंत्री चौ.चरण सिंह ने छात्र संघों की सदस्यता को ऐच्छिक बना कर सारे छात्र नेताओं को आन्दोलन क़े एक मंच पर खड़ा कर दिया.। 

ताला पड़े यूनियन आफिस क़े सामने कालेज क़े अन्दर १९७० में जो सभा हुई उसमें पूर्व महामंत्री विनोद गौड ने दीवार पर चढ़ काला झंडा फहराया और पूर्व प्रेसीडेंट महावीर प्रसाद जैन ने उन्हें उतरने पर गले लगाया तो सतपाल मलिक जी ने पीठ थपथपाई और राजेन्द्र सिंह यादव ने हाथ मिलाया.इस सभा में सतपाल मलिक जी ने जो भाषण दिया उसकी ख़ास -ख़ास बातें ज्यों की त्यों याद हैं (कहीं किसी रणनीति क़े तहत वही कोई खण्डन न कर दें ).सतपाल मलिक जी ने आगरा और बलिया क़े छात्रों को ललकारते हुए,रघुवीर सहाय फिराक गोरखपुरी क़े हवाले से कहा था कि,उ .प्र .में आगरा /बलिया डायगनल में जितने आन्दोलन हुए सारे प्रदेश में सफल होकर पूरे देश में छा  गये और उनका व्यापक प्रभाव पड़ा.(श्री मलिक द्वारा दी  यह सूचना ही मुझे आगरा में बसने क़े लिए प्रेरित कर गई थी ).मेरठ /कानपुर डायगनल में प्रारम्भ सारे आन्दोलन विफल हुए चाहे वह १८५७ ई .की प्रथम क्रांति हो,सरदार पटेल का किसान आन्दोलन या फिर,भा .क .पा .की स्थापना क़े साथ चला आन्दोलन  हो.श्री मलिक चाहते थे कि आगरा क़े छात्र मेरठ क़े छात्रों का पूरा समर्थन करें.श्री मलिक ने यह भी कहा था कि,वह चौ.चरण सिंह का सम्मान  करते हैं,उनके कारखानों से चौ.सा :को पर्याप्त चन्दा दिया जाता है लेकिन अगर चौ.सा : छात्र संघों की अनिवार्य सदस्यता बहाल किये बगैर मेरठ आयेंगे तो उन्हें चप्पलों की माला पहनाने वाले श्री मलिक पहले सदस्य होंगें.चौ.सा :वास्तव में अपना फैसला सही करने क़े बाद ही मेरठ पधारे भी थे और बाद में श्री सतपाल मलिक चौ. सा : की पार्टी से बागपत क्षेत्र क़े विधायक भी बने और इमरजेंसी में चौ. सा :क़े जेल जाने पर चार अन्य भा.क्र.द.विधायक लेकर इंका.में शामिल हुए.। 

जब भारत का एक हवाई जहाज लाहौर अपहरण कर ले जाकर फूंक दिया गया था तो हमारे कालेज में छात्रों व शिक्षकों की एक सभा हुई जिसमें प्रधानाचार्य -भट्टाचार्य सा :व सतपाल मलिक सा :अगल -बगल खड़े थे.मलिक जी ने प्रारंभिक भाषण में कहा कि,वह भट्टाचार्य जी का बहुत आदर करते हैं पर उन्होंने उन्हें अपने शिष्य लायक नहीं समझा.जुलूस में भी दोनों साथ चले थे जो पाकिस्तान सरकार क़े विरोध में था.राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे यहाँ ऐसी ही एकता हमेशा रहती है,वरना अपने निष्कासन पर मलिक जी ने कहा था -इस नालायक प्रधानाचार्य ने मुझे नाजायज तरीके से निकाल  दिया है अब हम भी उन्हें हटा कर ही दम लेंगें.बहुत बाद में भट्टाचार्य जी ने तब त्याग -पत्र दिया जब उनकी पुत्री वंदना भट्टाचार्य को फिलासफी  विभाग में लेक्चरार नियुक्त कर लिया गया./। 

समाज-शास्त्र परिषद् की तरफ से बंगलादेश आन्दोलन पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था.उसमें समस्त छात्रों व शिक्षकों ने बंगलादेश की निर्वासित सरकार को मान्यता देने की मांग का समर्थन किया.सिर्फ एकमात्र वक्ता मैं ही था जिसने बंगलादेश की उस सरकार को मान्यता देने का विरोध किया था और उद्धरण डा.लोहिया के हवाले से देते हुए .मैंने कहा था कि,बंगलादेश हमारे लिए बफर स्टेट नहीं हो सकता और बाद में जिस प्रकार कुछ समय को छोड़ कर बंगलादेश की सरकारों ने हमारे देश क़े साथ व्यवहार किया मैं समझता हूँ कि,मैं गलत नहीं था.परन्तु मेरे बाद क़े सभी वक्ताओं चाहे छात्र थे या शिक्षक मेरे भाषण को उद्धृत करके मेरे विरुद्ध आलोचनात्मक बोले.विभागाध्यक्ष डा.आर .एस.यादव (मेरे भाषण क़े बीच में हाल में प्रविष्ट हुए थे) ने आधा भाषण मेरे वक्तव्य क़े विरुद्ध ही दिया.तत्कालीन छात्र नेता आर.एस.यादव भी दोबारा भाषण देकर मेरे विरुद्ध बोलना चाहते थे पर उन्हें दोबारा अनुमति नहीं मिली थी.गोष्ठी क़े सभापति कामर्स क़े H .O .D .डा.एल .ए.खान ने अपने  भाषण में  मेरी सराहना करते हुये कहा था कि 

हम उस छात्र से सहमत हों या असहमत लेकिन मैं उसके साहस की सराहना करता हूँ कि,यह जानते हुये भी सारा माहौल बंगलादेश क़े पक्ष में है ,उसने विपक्ष में बोलने का फैसला किया और उन्होंने मुझसे इस साहस को बनाये रखने की उम्मीद भी ज़ाहिर की थी.। 

मेरे लिए फख्र की बात थी की सिर्फ मुझे ही अध्यक्षीय भाषण में स्थान मिला था किसी अन्य वक्ता को नहीं.इस गोष्ठी क़े बाद राजेन्द्र सिंह जी ने एक बार जब सतपाल मलिक जी कालेज आये थे मेरी बात उनसे कही तो मलिक जी ने मुझसे कहा कि,वैसे तो तुमने जो कहा था -वह सही नहीं है, डाक्टर लोहिया का हवाला गलत दे दिया था लेकिन अपनी बात ज़ोरदार ढंग से रखी ,उसकी उन्हें खुशी है.। 

  चूंकि राजनीति में मेरी शुरू से ही दिलचस्पी रही है,इसलिए राज-शास्त्र परिषद् की ज्यादातर गोष्ठियों में मैंने भाग लिया.समाज-शास्त्र परिषद् की जिस गोष्ठी का ज़िक्र पहले किया है -वह भी राजनीतिक विषय पर ही थी.राजशास्त्र परिषद् की एक गोष्ठी में एक बार एम.एस.सी.(फिजिक्स)की एक छात्रा ने बहुत तार्किक ढंग से भाग लिया था.प्रो.क़े.सी.गुप्ता का मत था कि,यदि यह गोष्ठी प्रतियोगी होती तो वह निश्चित ही प्रथम पुरस्कार प्राप्त करती.राजनीती क़े विषय पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों क़े लिये यह दृष्टांत आँखें खोलने वाला है.प्रो.मित्तल कम्युनिस्ट  थे,उन्होंने" गांधीवाद और साम्यवाद " विषय पर अपने विचार व्यक्त किये थे.उनके भाषण क़े बाद मैंने भी बोलने की इच्छा व्यक्त की ,मुझे ५ मि.बोलने की अनुमति मिल गई थी किन्तु राजेन्द्र सिंह यादव छात्र -नेता ने भी अपना नाम पेश कर दिया तो प्रो.गुप्ता ने कहा कि फिर सभी छात्रों  हेतु अलग से एक गोष्ठी रखेंगे.१० अप्रैल १९७१ से हमारे फोर्थ सेमेस्टर की परीक्षाएं थीं,इसलिए मैंने नाम नहीं दिया था.प्रो.आर.क़े.भाटिया ने अपनी ओर से मेरा नाम गोष्ठी क़े लिये शामिल कर लिया था,वह मुझे ४ ता.को मिल पाये एवं गोष्ठी ६ को थी.अतः मैंने उनसे भाग लेने में असमर्थता व्यक्त की.वह बोले कि,वह कालेज छोड़ रहे हैं इसलिए मैं उनके सामने इस गोष्ठी में ज़रूर भाग लूं.वस्तुतः उनका आई.ए.एस.में सिलेक्शन हो गया था.वह काफी कुशाग्र थे.लखनऊ विश्विद्यालय में प्रथम आने पर उन्हें मेरठ-कालेज में प्रवक्ता पद स्वतः प्राप्त हो गया था.उनकी इज्ज़त की खातिर मैंने लस्टम-पस्टम तैयारी की.विषय था "भारत में साम्यवाद की संभावनाएं"और यह प्रो. गुप्ता क़े वायदे अनुसार हो रही गोष्ठी थी. अध्यक्षता प्राचार्य डा. परमात्मा शरण सा :को करनी थी. वह कांग्रेस (ओ )में सक्रिय थे उस दिन उसी समय उसकी भी बैठक लग गई.अतः वह वहां चले गये,अध्यक्षता की-प्रो. मित्तल ने.मैंने विपक्ष में तैयारी की थीऔर उसी अनुसार बोला भी.मेरा पहला वाक्य था-आज साम्यवाद की काली- काली घटायें छाई हुई हैं.मेरा मुंह तो आडियेंस की तरफ था लेकिन साथियों ने बताया कि,प्रो. मित्तल काफी गुस्से में भर गये थे..प्रथम पुरस्कार प्रमोद सिंह चौहान को "दास कैपिटल"मिली थी.वह मेरे ही सेक्शन में थाऔर मैंने भी यूनियन में एम.पी. हेतु अपना वोट उसे ही दिया था.बाद में प्रो. भाटिया ने बताया था कि,उन्होंने तथा प्रो. गुप्ता ने मुझे ९-९ अंक दिये थे,प्रो. मित्तल ने शून्य दिया अन्यथा प्रथम पुरुस्कार मुझे मिल जाता क्योंकि प्रमोद को प्रो. भाटिया तथा प्रो. गुप्ता ने ५-५ अंक व प्रो. मित्तल ने पूरे क़े पूरे १० अंक दिये थे.







15 मई 1972 से जून 1975 तक मैं सारू कंपनी , मेरठ में सेवारत रहा। फिर 22 सितंबर 1975 से जनवरी  1985 तक होटल मुगल,,आगरा में रहा। दोनों जगह मुझे यूनियंस  कार्यकारिणी में शामिल किया गया , होटल मुगल कर्मचारी  संघ का मैं संस्थापक महामंत्री रहा। 1986 से भाकपा,जिला काउंसिल ,आगरा में शामिल हुआ और डाक्टर रामगोपाल सिंह चौहान साहब के रुग्ण होने पर मुझे जिला कोषाध्यक्ष का दायित्व दिया गया किन्तु 1994 में कामरेड  मित्रसेंन  यादव और कामरेड रामचन्द्र बक्श सिंह के साथ सपा में आ  गया लेकिन फिर 2006 में भाकपा में वापिस आ गया था वहाँ से 2009 में लखनऊ आने पर यहाँ भी जिला काउंसिल में शामिल किया गया। वर्तमान में भौतिक रूप से सक्रिय नहीं हो पा रहा हूँ किन्तु सदस्य के रूप में शामिल हूँ। 
आगरा में विभिन्न साप्ताहिक पत्रों में लिखता रहा था , सप्तदिवा साप्ताहिक और अग्रमंत्र  त्रैमासिक में उपसंपादक भी रहा।ब्रह्मपुत्र समाचार ,साप्ताहिक में भी लेख आगरा में छपते रहे थे ।  शुरुआत में लखनऊ में भी एक पत्र में लिखा लेकिन 2010 से ब्लाग्स लेखन प्रारंभ कर दिया। एनडीटीवी के पूर्व एंकर रविश कुमार साहब ने 02-02-2011 को हिन्दी के हिंदुस्तान में यह परिचय प्रकाशित किया था । लेकिन 2014 के बाद एक एक करके हमारे सभी ब्लागस को फ़ेसबुक पर एन्टी कम्युनिटी स्टेंडर्ड घोषित करके प्रतिबंधित कर दिया गया  है।


अभी भी लिखने का शौक है , अक्टूबर 2019 में बाबूजी की शताब्दी पर उनकी स्मृति में चुने हुए लेख यशवंत से संकलित करवा कर  '  विजय विचार ' पुस्तक प्रकाशित करवा चुका हूँ । 
धर्म,अध्यात्म,ज्योतिष और राजनीति पर स्वतंत्र विचार रखता हूँ और उन पर लेख ब्लाग्स में लिख चुका हूँ। 








जब मैं 7-9 वर्ष की आयु में डी पी निगम गर्ल्स जूनियर हाईस्कूल,लखनऊ में कक्षा 3-4 का छात्र था तब हमारे बाबूजी मेरे लिए प्रत्येक रविवार को 'स्वतंत्र भारत' की एक प्रति ले देते थे जिस पर हमारे फुफेरे भाइयों (जिनमें से एक पूना में सेटिल हैं तो दूसरे डेढ़ किलो मीटर की दूरी पर रहते व मुझे तुच्छ समझते थे अब हम दूसरी जगह आ चुके है तो स्वतः ही दूरी बन गई ,  लेकिन जो फासला एक अमीर एक गरीब के साथ रखता है वही वह भी रखते  रहे हैं-अब भूल चुके हैं कि कभी हमारे घर पर बाढ़ पीड़ित बन कर भी रहे थे वस्तुतः१९६० में जब जी.पी.ओ.तक बढ़ का पानी आ गया था तब हमारी भुआ,फूफाजी सपरिवार अपने सप्रू मार्ग के मकानमें ताला लगा कर आ गए और बाढ़ उतरने के बाद ही वापिस गए थे ) को एतराज होता था। वे भुआ-फूफाजी से शिकायत करते थे कि मामाजी बेकार विजय के लिए इतना खर्चा करते हैं वह क्या समझता होगा? मुझे खुद अब कुछ याद नहीं है कि उस समय वाकई मैं अखबार पढ़ कर क्या समझता था? परंतु हमारे बाबूजी कुछ तो समझते होंगे जो मेरे लिए खुद-ब-खुद पहल कर के अखबार लेने लगे थे और उस पर माँ को भी कभी कोई आपत्ति नहीं हुई थी बल्कि वह भी मसालों आदि की जिन पुड़ियों में कविता आदि मिलते थे मुझे सौंप देकर प्रोत्साहित ही करती थी। 1961-62  में बरेली में कक्षा 5-6  में मुझे बाबूजी अपने दफ्तर की स्टाफ क्लब से 'धर्मयुग','साप्ताहिक हिंदुस्तान',कुछ उपन्यास (जिनमें स्वाधीनता आंदोलन के कुछ क्रांतिकारी आंदोलन पर भी आधारित थे) भी पढ़ने को ला देते थे। उस पर भी माँ की तरफ से न  कोई आपत्ति थी न  ही पढ़ने से माँ ने रोका।
1969-71 के दौरान इंटर और बी ए की पढ़ाई के समय बाबू जी अपने आफिस की लाइब्रेरी से दैनिक 'नवभारत टाईम्स' और 'हिंदुस्तान' के विगत दिवस के अंक ला देते थे जिनको अगले दिन सुबह वापिस ले जाना होता था। इनके साथ-साथ 'धर्मयुग','हिंदुस्तान','सरिता','सारिका' और कुछ उपन्यास भी लाते थे जिनको 7 दिन में पढ़ कर वापिस करना होता था अखबार पढ़ते-पढ़ते अखबारों में लिखने की आदत पड़ गई थी। इस प्रकार कह सकता हूँ कि आज के मेरे लेखन की नींव तो बाबूजी द्वारा ही डाली हुई है। इसलिए जब कभी भूले-भटके कोई मेरे लेखन को सही बताता या सराहना करता है तो मुझे लगता है इसका श्रेय तो बाबूजी  को जाता है क्योंकि यह तो उनकी 'दूरदर्शिता' थी जो उन्होने मुझे पढ़ने-लिखने का शौकीन बना दिया था। आज उनको यह संसार छोड़े हुये सत्ताईस  वर्ष  से अधिक व्यतीत हो चुके हैं परंतु उनके विचार और सिद्धान्त आज भी मेरा 'संबल' बने हुये हैं।मेरे लेखन को  सम्पूर्ण श्रेय श्रद्धेय बाबूजी का है।
 मेरठ कालेज,मेरठ में बीच के खाली पीरियड्स में मैं लाइब्रेरी के एक अलग-थलग कोने में बैठ कर जिन पुस्तकों को पढ़ता था उनमें कुछ के नाम आज भी याद हैं-काका कालेकर साहब की गांधी जी पर पुस्तक,'हिन्दी के साहित्य सेवी' आदि। स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' के प्रवचनों का संकलन-'धर्म और विज्ञान' पुस्तक काफी मोटी  और भारी थी कई माह में उसका अध्यन पूर्ण हो पाया था। लाइब्रेरियन साहब ने अपनी कुर्सी के नीचे उस पुस्तक को रख छोड़ा था क्योंकि उनको मालूम था कि पूरा पढे बगैर मैं रहूँगा नहीं तो रोज़-रोज़ आलमारी में रखने का झंझट वह क्यों करें?'मेरठ कालेज पत्रिका' में मेरा पहला लेख-'रावण -वध एक पूर्व निर्धारित योजना' 1970-71 के अंक में छ्पा था जिसका संशोधित और विस्तारित रूप आगरा में 'सप्तदिवा साप्ताहिक' में दो किश्तों में  1982 में प्रकाशित हुआ था जिसे 'क्रांतिस्वर' ब्लाग में 2010 में चार किश्तों मे दिया गया था।  

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