रविवार, 21 नवंबर 2010

क्रांतिनगर -मेरठ में सात वर्ष (१)

हमारे बाबूजी सिलीगुड़ी से सीधे मेरठ पहुँच चुके थे.हम लोग भी जून १९६८ में मेरठ आ गए.राजनीतिक दृष्टि से मेरठ सन १८५७ ई .की प्रथम भारतीय स्वतंत्रता  की क्रांति का उदगम नगर तो है ही प्राचीन हस्तिनापुर भी तब मेरठ जिले का ही भाग था जो महाभारत -काल में इन्द्रप्रस्थ भी कहलाता था .भौगोलिक दृष्टि से यह राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली क़े बहुत निकट है तथा जलवायु की दृष्टि से एक उत्तम नगर है.यहीं तीन वर्ष पढ़ाई,तीन वर्ष कमाई और एक वर्ष  दोनों क़े बीच बेरोजगारी क़े गुजरे हैं .हमारी बउआ को यह शहर बहुत पसन्द था.एक बार आगरा छोड़ते समय विचार बना था कि पुनः मेरठ में ही शिफ्ट हुआ जाये तब यशवन्त भी वहीं जाब कर रहा था.उसे भी मेरठ पसन्द है.लेकिन राजनीतिक कारणों से वहां की बजाये लखनऊ आ गए हैं,वहां की बहुत सी बातें ,बहुत सारे संघर्ष आज भी ज्यों क़े त्यों याद हैं.पूनम तो आगरा छोड़ने क़े ही पक्ष में नहीं थीं,मेरठ तो कतई नहीं जाना चाहती थीं,किसी तरह लखनऊ क़े लिए सहमत हो गयीं थीं ,लखनऊ क़े लोगों का व्यवहार उन्हें बहुत ही नागवार लगा है.

मेरठ में सिटी स्टेशन क़े निकट प्रेमपुरी में भगवत दयाल शर्माजी क़े मकान में एक कमरा लेकर बाबूजी रह रहे थे ,उसी में हम सब लोग भी आ कर ठहरे.शर्मा दम्पत्ति बुजुर्ग थे और उनका व्यवहार मधुर था ,उन्होंने बाहर का बारामदा हम लोगों को प्रयोग करने  की छूट दे दी थी .बाबूजी का आफिस कैंटोनमेंट में था इसलिए स्कूल ,कालेज खुलने से पहले ही बाबूजी उधर ही मकान किराये पर ले लेना चाहते थे.लगभग एक माह उनके मकान में हम लोग रहे होंगे,वहां उनके पडौसी ने नया टेलीविजन जब लिया तो अपने बाहर क़े कमरे में रखा और आस -पास क़े लोगों को उनके घर आकर दूर -दर्शन पर आने वाली फिल्म देखने का न्यौता दिया.अजय और शोभा तो खुशी से चले जाते थे एक दिन मुझे भी मकान मालिक क़े कहने पर बाबूजी व बउआ ने ज़बरदस्ती भेज दिया था.कौन सी फिल्म थी क्या दिखाया गया मुझे मालुम नहीं क्योंकि बेमन से गया था तो कोई ध्यान ही नहीं दिया .मेरठ में बाबूजी क़े आफिस क़े एक (कानपूर क़े ब्राह्मन )पं .जी ने बाबूजी को आनंद मार्ग और उसके राजनीतिक संगठन प्राउटिस्ट ब्लाक आफ इंडिया में शामिल करने का प्रयत्न किया .उनकी दी हुयी पुस्तकों का अध्यन कर मैंने बउआ को पुस्तकें पढ़वाकर समझाया कि बाबूजी को इनसे अलग करवाएं ये संगठन देश -हित में नहीं हैं.मेरा अनुमान कुछ  ही वर्षों में सच साबित हो गया जब तत्कालीन प्रधान मंत्री (इदिरा गांधी ) ने आनंद मार्ग क़े आश्रमों पर छापा  डलवा कर उसकी रीढ़ तोड़ दी .उन पं . जी ने कानपूर में P .B .I .से चुनाव भी लड़ा था वह हारे भी और बर्खास्त भी कर दिए गए ;तब मैंने बउआ से कहा कि यदि तब आप बाबूजी को उनसे अलग न करातीं तो अब हम लोगों क़े समक्ष भी विकट समस्या आ सकती थी.मैं तब इंटर फाईनल में था और शुरू से ही राजनीतिक प्राणी रहा हूँ इसलिए ताड़ गया था जबकि अजय व शोभा छोटे भी थे और उन्हें इन सब बातों से मतलब भी न था.पी .बी .आई.का अखबार " प्रउत "(जिसका अर्थ प्रगतिशील उपयोगी तत्व बताया जाता था )बड़ी लुभावनी बातें लिखता था,यथा -"जब प्र उ त ने केसरिया पहना ............"प्राउटिस्ट ब्लाक   आफ इंडिया -काश्मीर समस्या का समाधान "कलजल"या  "कजहिल"में बताता था.कश्मीर ,लाहौल स्पीति,जम्मू ,लद्धाख.कश्मीर,जम्मू ,हिमाचल,लद्धाख .एक बड़ा प्रदेश बना कर नया समीकरण बनाना उद्देश्य था.आनंद मार्ग क़े संस्थापक (प्रभात रंजन सरकार उर्फ़ आनंद मूर्ती जो कभी रेलवे में क्लर्क थे )का दावा था कि वह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस क़े भान्जे हैं परन्तु उनकी नीतियां नेताजी की विचार -धरा की विरोधी थीं और इसी बात को पकड़ कर मैंने बउआ  को आगाह किया था.आनंद मार्ग सरीखे संगठन सरकारी अधिकारियों ,कर्मचारियों क़े मध्य पैठ बनाने में माहिर होते हैं.छोटी नानीजी की रिश्ते की एक भुआ क़े पति जो उस समय मेरठ में सेल्स टैक्स आफीसर थे ,भी आनंद मार्ग की गतिविधियों में संलग्न थे.लला का बाजार सब्जी लेने दोनों भाई भी अक्सर बाबूजी क़े साथ जाते थे.वहीं प्र उ त का दफ्तर भी घंटाघर क़े पास ही था ,वहां की गतिविधियाँ भी मुझे संदेहास्पद ही लगी थीं.सब बातें बउआ को बता दीं थीं और इस प्रकार अपने बाबूजी को उस संगठन से दूर कराने में कामयाबी हासिल कर ली थी.सवा सोलह वर्ष की उम्र में इसे अपनी पहली राजनीतिक सफलता कहूँ तो गलत नहीं माना जाना चाहिए.

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4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आना। संगीत के बैकग्राउंड में आलेख पढना और टिप्पणी देना मन प्रफुल्लित कर गया। इस आलेख की अगली कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी।

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  2. यादें तो सहेजने के लिए ही होती हैं। बहुत ही अच्छे संस्मरण लिख रहे है...बीच में मैं पढ़ नहीं सकी तो मैने ही कुछ गंवाया

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  3. संगीत के बैकग्राउंड में आलेख पढना बहुत अच्छा लगा| धन्यवाद|

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