नवम्बर १९७८ में जब भांजी को लेकर बाबूजी आये थे तो उसका स्वास्थ्य ज्यादा बेहतर नहीं था क्योंकि वह वहां सूखा रोग के कारण जन्मतः ऐसी थी.हमारे घर रह कर जब अलीगढ़ लौटी तो वहीं के स्टूडियो में खींचे फोटो के अनुसार इतना सुधार हुआ था.
(बीमारी के दौरान अलीगढ में रत्ना ) |
(आगरा में स्वास्थ्य लाभ के दौरान रत्ना ) |
(आगरा से लौटने के बाद अलीगढ के स्टूडियो में खींचा गया रत्ना का फोटो ) |
पहली जनवरी १९७९ को छुट्टियों से लौट कर मैंने अपनी ड्यूटी ज्वाइन कर ली थी.इसी त़ा. से प्रभावित 'सुपरवाइजर अकाउंट्स' के रूप में प्रमोशन भी बाद में मुझे मिला,परन्तु यों ही नहीं -उसके लिए पहले मुझे काफी त्याग करना पड़ा.उसके जिक्र से पहले युनियन के रजिस्ट्रेशन के बाद के घटनाक्रम को बताना जरूरी है.
हमारी युनियन के अध्यक्ष सी.पी.भल्ला साहब ने रजिस्ट्रेशन होते ही मेनेजमेंट के समक्ष मान्यता प्रदान करने की मांग रख दी.पर्सोनल मेनेजर झा साहब ने जेनेरल मेनेजर पेंटल साहब से पक्ष में सिफारिश कर दी.हमारी युनियन-'होटल मुग़ल कर्मचारी संघ'को मेनेजमेंट ने मान्यता शीघ्र ही दे दी ,जिस दिन यह घोषणा हुई उस दिन फ़ूड एंड बेवरेज मेनेजर कार्यवाहक जी.एम्.थे .उन्होंने मेनेजमेंट की तरफ से सम्पूर्ण स्टाफ को 'गाला लंच' देने का भी एलान कर दिया.मैं वैसे वहां लंच नहीं लेता था,परन्तु अध्यक्ष,कार्यकारिणी सदस्यों तथा झा साहब का आग्रह टाल न सका और उस दिन वह लंच करना ही पडा.
यूनियन रजिस्टर्ड होने तथा मान्यता भी मिल जाने से स्टाफ का भारी दबाव था कि वेतन बढ़वाया जाए ,हालांकि उस वक्त होटल मुग़ल आगरा का हायेस्ट पे मास्टर था. हम लोगों ने एक चार्टर आफ डिमांड बना कर पर्सोनल मेनेजर को सौंप दिया. हमारे साथियों ने जितना चाहते थे उसका दुगुना वेतन बढाने की मांग रख दी जिसे देखते ही झा साहब व्यंग्य से मुस्करा दिए और बोले इसे तो हेड क्वार्टर भी मंजूर नहीं करने वाला.कई बैठकों के बाद भी जब कार्यकारिणी ने बार-बार इसी की पुष्टि कर दी तो झा साहब नया तर्क ले कर आये कि यह चार्टर आफ डिमांड उन पदाधिकारियों द्वारा बनाया गया है जिन्हें स्टाफ ने नहीं चुना था,लिहाजा फ्रेश मेंनडेट लेकर आओ .भल्ला साहब जो कभी ओबेराय होटल में भी पेंटल साहब के साथ काम कर चुके थे स्टाफ का भरोसा नहीं जीत सकते थे लिहाजा मैंने खुद एक दुसरे व्यक्ति को अध्यक्ष पद के लिए यह कह कर तैयार किया कि प्रत्यक्ष तौर पर तो मुझे भल्ला साहब का ही समर्थन करना होगा लेकिन जिताएंगे तुम्हे ही .वह शख्स अनजान थे और मुफ्त में युनियन की अध्यक्षता मिलती नजर आ रही थी. खुशी -खुशी राजी हो गए.
अध्यक्ष पद के दो उम्मेदवार हो गए किन्तु मेरे सेक्रेटरी जेनरल तथा कोषाध्यक्ष पद के लिए कोई दावेदार नहीं था.एक सज्जन को पकड़ कर कोषाध्यक्ष पद हेतु नामांकन कराया क्योंकि उस समय के कोषाध्यक्ष को संभावित प्रमोशन के कारण पद छोड़ना था.दो पद निर्विरोध निर्वाचित घोषित हुए.केवल अध्यक्ष पद का ही चुनाव हुआ.कार्यकारिणी सदस्य भी विभागों से निर्विरोध निर्वाचित हो गए थे.अध्यक्ष भल्ला साहब हर जगह मुझे साथ-साथ अपने प्रचार में ले जाते थे. मैं यही कहता था -आप लोगों ने भल्ला साहब का कार्य देखा है ,संतुष्ट हैं तो इन्हें ही पुनः मौक़ा दें.
लोगों को पता था मैं किसे चाहता हूँ और उन्हें वोट किसे देना है.झा साहब ने कूटनीति फेंकते हुए लोगों द्वारा मेरी पसन्द के उम्मेदवार को ही जिताने का अपनी और से प्रयास किया ताकि भल्ला साहब को बाद में समझाया जा सके और मेरे विरोधी के तौर पर खड़ा किया जा सके.जैसा कि स्वभाविक था ठाकुर पुष्पेन्द्र बहादुर सिंह लगभग एकतरफा वोट पाकर जीत गए.भल्ला साहब चाहते थे मैं उनकी हार के बाद पद त्याग कर दूँ.परन्तु पेंटल साहब खूब होशियार थे उन्होंने यह समझते और बूझते हुए कि भल्ला साहब हारे ही इसलिए कि उन्हें मेरा समर्थन था ही नहीं,एक अन्य कार्यकारिणी सदस्य श्री दीपक भाटिया के माध्यम से उन्होंने मुझे सन्देश भिजवाया कि यदि मैं श्री भाटिया को पदाधिकारी बना लूं तो पेंटल साहब हर विवाद में मेरा ब्लाइंड समर्थन करेंगें.चूंकि झा साहब खुद को रिंग मास्टर समझते थे और युनियन को पाकेट युनियन बनाना चाहते थे इसलिए मुझे भी अपनी बातें मनवाने के लिए पेंटल साहब का समर्थन मिलने का आश्वासन घाटे का सौदा नहीं लगा.
श्री दीपक भाटिया पहले फिल्म ऐक्ट्रेस जया भादुरी के पी.ए.थे और उनकी शादी अमिताभ बच्चन से हो जाने पर कुछ दिन जया के कहने पर भाटिया को अपना अतिरिक्त पी.ए.बनाये रखा परन्तु वह सरप्लस ही थे.आगरा के होने के कारण भाटिया को श्री बच्चन ने पेंटल साहब से कह कर ही मुग़ल में जाब दिलवाया था और वह पेंटल साहब के प्रति एहसानमंद भी थे.अतः श्री पेंटल ने भल्ला के बदले भाटिया को तरजीह दे दी. हमने श्री भाटिया को सेकिंड ज्वाइंट सेक्रेटरी पद दे दिया.
पुनः चुनावों में जीत कर आई नई कार्यकारिणी ने भी पुराने चार्टर आफ डिमांड को ही पास कर दिया अतः झा साहब के पास निगोशिएशन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा.कई दौर की धुंआ धार मीटिंगों के बाद एक निश्चित वेतन मान को लेकर मेनेजमेंट के साथ सहमति बनाने के फार्मूले को ढूँढा गया.इसमें न्यूनतम वेतन-वृद्धि रु.४५/-और अधिकतम रु.९०/-किया जाना था सबसे निचले ग्रेड को अधिकतम और ऊपर उठते ग्रेड्स में कम वृद्धि होनी थी.आफिस के लोगों विशेषकर लेखा विभाग वालों की कम वृद्धि का प्रस्ताव था.बस यहीं झा साहब को खेल करने का मौका भी था.उन्होंने अध्यक्ष को और पुराने अध्यक्ष को लेखा विभाग के मेरे साथियों के मध्य मेरी छवि ख़राब करने की मुहीम पर लगा कर कार्यकारिणी में एक अलग स्वर उठवा दिया जिसे मेनेजमेंट-युनियन मीटिंग में उन्होंने खुला समर्थन भी दिया ,उद्देश्य था लोअर स्टाफ जिसकी तादाद ज्यादा थी के मध्य मेरी इमेज बिगड़ जाए.श्री दीपक भाटिया के माध्यम से पेंटल साहब का सन्देश मुझे मिल गया वही होगा जो मैं चाहता हूँ.११ सितम्बर १९७८ की मीटिंग में पेंटल साहब ने निर्णायक तौर पर कह दिया आज के बाद और कोई मीटिंग नहीं होगी और सेक्रेटरी जेनेरल द्वारा समर्थित वेतन वृद्धि को वह मंजूर करते हैं अब कोई बदलाव उन्हें मंजूर नहीं है.
प्रोमोशन के लिए जो लिस्ट मैंने दी थी उसमें से अपना नाम मुझे हटाना पड़ा,इसी विवाद के कारण अतः मेरे अतिरिक्त सभी लोगों को अपग्रेड भी करने की बात मान ली गई.पेंटल साहब ने उठते-उठते कहा आप लोगों की डिमांड नहीं थी फिर भी साल में एक बार फ्री जूता यूनिफार्म के साथ देंगें.उनके इतना कहते ही मैंने तपाक से कह दिया और आप अपनी तरफ से दे ही क्या सकते हैं.मेरे जवाब पर सभी लोग ठट्टे लगाते हुए उठ गए और इस प्रकार 'एग्रीमेंट सेटलमेंट'सम्पन्न हो गया.
एग्रीमेंट के दौरान के झंझटों तथा मकान की प्रक्रिया के व्यवधानों का समाधान कैसे हुआ इसका जिक्र अगली बार.............
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आप बडे इतमिनान से अपनी यादे हमारे साथ बांट रहे हो,
जवाब देंहटाएंगुरूजी प्रणाम यह अनुभव भी रोमांचक रहा !
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