बरेली के द्रोणाचार्य की करामात
कल 05 सितंबर को द्वितीय राष्ट्रपति सर्व पल्ली डॉ राधा कृष्णन का जन्म दिवस 'शिक्षक दिवस' के रूप मे मनाया जाएगा। 1962 से यह परंपरा जो नेहरू जी ने शुरू की थी निभाई जा रही है। आज 50 वर्ष बाद भी एक ऐसी घटना ज्यों की त्यों याद है जो शायद कभी भी भूलेगी नहीं। पहले उसी का ज़िक्र करते हैं।
मैं छठी कक्षा मे 'रूक्स हायर सेकेन्डरी स्कूल'(जो अब रवीन्द्र नाथ टैगोर इंटर कालेज है),बरेली मे था और छोटा भाई 'रूक्स प्राइमरी स्कूल' मे। दोनों स्कूल लगभग आधा किलोमीटर दूर थे। हमारे स्कूल मे यह अफवाह पहुंची कि हेड मास्टर साहब ने एक लड़के को मुर्गा बनाया और खूब पीटा वह मर गया। लगभग आधा स्कूल प्राइमरी स्कूल की ओर दौड़ पड़ा ,बीच रास्ते मे घर होने के बावजूद मैं भी सबके साथ ही सीधे चला गया। तब तक स्कूल बंद हो चुका था। सन्नाटा था अतः लौटते मे घर पर होते हुये गया भाई सुरक्षित घर पर मौजूद था।
स्कूल के हेड मास्टर ईशरत अली साहब कुछ मरखने थे ,जब मैं वहाँ 5 वी मे था तो वह हमे हिन्दी पढ़ाते थे। मैं तो रट्टू था लेकिन जो लोग पिछला पाठ याद न रख पाते थे उनकी दोनों हथेलियों पर वह हरी टहनी से वार करते थे। उस घटना क्रम मे किसी लड़के से वह इतना क्रुद्ध हुये थे कि उसे स्कूल गेट के बाहर कान पकड़ कर मुर्गा बनवा कर उसकी पीठ पर काफी इंटे रखवा दिये थे और छड़ी से पीटते रहे थे। उस लड़के के नाक-कान,गले से खून आने लगा और बेहोश हो गया। तब सेकेंड हेड मास्टर रमज़ान अहमद साहब ने उस लड़के को दूसरे शिक्षकों के जरिये कैंट अस्पताल भिजवा कर हेड मास्टर साहब को लात -घूंसो से पीटते हुये स्कूल के बाहर खदेड़ दिया उससे पहले स्कूल की छुट्टी का घंटा बजवा दिया था। हेड मास्टर साहब को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और केंटोमेंट बोर्ड ने तत्काल सस्पेंड कर दिया। तत्काल प्रभाव से उस स्कूल मे अवस्थी साहब को हेड मास्टर के रूप मे स्थानांतरित कर दिया और उनके स्थान पर उस स्कूल मे रमज़ान अहमद साहब को प्रोमोशन देकर हेड मास्टर बना दिया। बहुत बाद मे ईशरत अली साहब को डिमोट करके तीसरे स्कूल मे सेकेंड हेड मास्टर बना दिया गया।
आज भी शिक्षकों/शिक्षिकाओं द्वारा विद्यार्थियों के शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं। इसका कारण शिक्षक समुदाय द्वारा 'द्रोणाचार्य' को अपना आदर्श मानना हो सकता है। कुछ लोग खुद को 'द्रोणाचार्य' कहलवाने मे गर्व की अनुभूति करते हैं। हमारे देश को 'द्रोणाचार्य' सरीखे गुरुओं से मुक्त रखने की परमावश्यकता है।
डॉ एल ए खान साहब का निर्णय
19 वर्ष बाद जब मैं मेरठ कालेज,मेरठ मे बी ए थर्ड सेमेस्टर का छात्र था तो भाषण गोष्ठियों मे भाग लेने के कारण सभी शिक्षकों की नज़रों मे था। ज़्यादातर मे दिक्कत नहीं थी परंतु बांग्ला देश को समर्थन के मुद्दे पर हुई गोष्ठी मे मेरे भाषण से समस्त छात्र और समस्त शिक्षक असहमत थे केवल डॉ एल ए खान साहब ने मेरी सराहना की थी। उसकी रिपोर्ट यह है-
समाज-शास्त्र परिषद् की तरफ से बंगलादेश आन्दोलन पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था.उसमें समस्त छात्रों व शिक्षकों ने बंगलादेश की निर्वासित सरकार को मान्यता देने की मांग का समर्थन किया.सिर्फ एकमात्र वक्ता मैं ही था जिसने बंगलादेश की उस सरकार को मान्यता देने का विरोध किया था और उद्धरण डा.लोहिया की पुस्तक "इतिहास-चक्र "से लिए थे (यह पुस्तक एक गोष्ठी में द्वितीय पुरूस्कार क़े रूप में प्राप्त हुई थी ).मैंने कहा था कि,बंगलादेश हमारे लिए बफर स्टेट नहीं हो सकता और बाद में जिस प्रकार कुछ समय को छोड़ कर बंगलादेश की सरकारों ने हमारे देश क़े साथ व्यवहार किया मैं समझता हूँ कि,मैं गलत नहीं था.परन्तु मेरे बाद क़े सभी वक्ताओं चाहे छात्र थे या शिक्षक मेरे भाषण को उद्धृत करके मेरे विरुद्ध आलोचनात्मक बोले.विभागाध्यक्ष डा.आर .एस.यादव (मेरे भाषण क़े बीच में हाल में प्रविष्ट हुए थे) ने आधा भाषण मेरे वक्तव्य क़े विरुद्ध ही दिया.तत्कालीन छात्र नेता आर.एस.यादव भी दोबारा भाषण देकर मेरे विरुद्ध बोलना चाहते थे पर उन्हें दोबारा अनुमति नहीं मिली थी.गोष्ठी क़े सभापति कामर्स क़े H .O .D .डा.एल .ए.खान ने अपने भाषण मेरी सराहना करते हुये कहा था
हम उस छात्र से सहमत हों या असहमत लेकिन मैं उसके साहस की सराहना करता हूँ कि,यह जानते हुये भी सारा माहौल बंगलादेश क़े पक्ष में है ,उसने विपक्ष में बोलने का फैसला किया और उन्होंने मुझसे इस साहस को बनाये रखने की उम्मीद भी ज़ाहिर की थी.
मेरे लिए फख्र की बात थी की सिर्फ मुझे ही अध्यक्षीय भाषण में स्थान मिला था किसी अन्य वक्ता को नहीं.इस गोष्ठी क़े बाद राजेन्द्र सिंह जी ने एक बार जब सतपाल मलिक जी कालेज आये थे मेरी बात उनसे कही तो मलिक जी ने मुझसे कहा कि,वैसे तो तुमने जो कहा था -वह सही नहीं है,लेकिन अपनी बात ज़ोरदार ढंग से रखी ,उसकी उन्हें खुशी है.
प्रो आर के भाटिया और प्रो कैलाश चंद्र गुप्ता
मेरठ कालेज मे राजनीति शास्त्र के एक प्रो. एस एस मित्तल साहब कम्युनिस्ट थे, एक बार उन्होंने" गांधीवाद और साम्यवाद " विषय पर अपने विचार व्यक्त किये थे.उनके भाषण क़े बाद मैंने भी बोलने की इच्छा व्यक्त की ,मुझे ५ मि.बोलने की अनुमति मिल गई थी किन्तु राजेन्द्र सिंह यादव छात्र -नेता ने भी अपना नाम पेश कर दिया तो राज शास्त्र परिषद के इंचार्ज प्रो.गुप्ता ने कहा कि फिर सभी छात्रों हेतु अलग से एक गोष्ठी रखेंगे.१० अप्रैल १९७१ से हमारे फोर्थ सेमेस्टर की परीक्षाएं थीं,इसलिए मैंने नाम नहीं दिया था.प्रो.आर.क़े.भाटिया ने अपनी ओर से मेरा नाम गोष्ठी क़े लिये शामिल कर लिया था,वह मुझे ४ ता.को मिल पाये एवं गोष्ठी ६ को थी.अतः मैंने उनसे भाग लेने में असमर्थता व्यक्त की.वह बोले कि,वह कालेज छोड़ रहे हैं इसलिए मैं उनके सामने इस गोष्ठी में ज़रूर भाग लूं.वस्तुतः उनका आई.ए.एस.में सिलेक्शन हो गया था.वह काफी कुशाग्र थे.लखनऊ विश्विद्यालय में प्रथम आने पर उन्हें मेरठ-कालेज में प्रवक्ता पद स्वतः प्राप्त हो गया था.उनकी इज्ज़त की खातिर मैंने लस्टम-पस्टम तैयारी की.विषय था "भारत में साम्यवाद की संभावनाएं"और यह प्रो. गुप्ता क़े वायदे अनुसार हो रही गोष्ठी थी. अध्यक्षता प्राचार्य डा. परमात्मा शरण सा :को करनी थी. वह कांग्रेस (ओ )में सक्रिय थे उस दिन उसी समय उसकी भी बैठक लग गई.अतः वह वहां चले गये,अध्यक्षता की-प्रो. मित्तल ने.मैंने विपक्ष में तैयारी की थीऔर उसी अनुसार बोला भी.मेरा पहला वाक्य था-आज साम्यवाद की काली- काली घटायें छाई हुई हैं.मेरा मुंह तो आडियेंस की तरफ था लेकिन साथियों ने बताया कि,प्रो. मित्तल काफी गुस्से में भर गये थे. मुझे चार पुस्तकें इसी गोष्ठी में द्वितीय पुरूस्कार क़े रूप में प्राप्त हुई थीं.प्रथम पुरस्कार प्रमोद सिंह चौहान को "दास कैपिटल"मिली थी.वह मेरे ही सेक्शन में थाऔर मैंने भी यूनियन में एम.पी. हेतु अपना वोट उसे ही दिया था.बाद में प्रो. भाटिया ने बताया था कि,उन्होंने तथा प्रो. गुप्ता ने मुझे ९-९ अंक दिये थे,प्रो. मित्तल ने शून्य दिया अन्यथा प्रथम पुरुस्कार मुझे मिल जाता क्योंकि प्रमोद को प्रो. भाटिया तथा प्रो. गुप्ता ने ५-५ अंक व प्रो. मित्तल ने पूरे क़े पूरे १० अंक दिये थे.
प्रो.कैलाश चन्द्र गुप्ता द्वारा वर्णन की एक बात का ज़िक्र किये बगैर वृतांत समाप्त नहीं किया जा सकता.वह स्वंय बनिक समाज क़े होते हुए भी बनियों की मनोदशा पर बहुधा एक कहानी दोहरा देते थे.उन्होंने सुनाया था कि,एक गाँव में एक बनिए ने शौकिया मूंछें रख लीं थीं जो उसी गाँव क़े एक ठाकुर सा :को नागवार लगा.ठाकुर सा :ने बनिए को धमकाया तो वह नहीं माना;फिर उन्होंने बनिए को दस रु.का नोट देकर मूंछें नीची रखने को कहा तो बनिए ने अगले दिन से ऐसा करने का वायदा कर दिया. ठाकुर सा :प्रसन्न होकर चले गये.बनिया रोज एक तरफ की मूंछ नीची और एक तरफ की ऊँची रखने लगा. जब एक रोज दोबारा ठाकुर सा :उधार से गुजरे तो बनिए की एक मूंछ ऊँची देख कर भड़क गये.बोले तुम्हें दस रु. किस बात क़े दिये थे?बनिए ने सहज जवाब दिया सा :इतने में सिर्फ एक ओर की मूंछें नीची की जा सकतीं थीं सो वह मैं कर रहा हूँ.ठाकुर सा :ने तुरन्त एक और दस का नोट देकर कहा अब से दोनों मूंछें नीची रखना. बनिए ने फिर दोनों तरफ की मूंछें नीची कर लीं. प्रो. गुप्ता यह कहानी सुना कर जोरदार ठहाका लगते थे.
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पैसे के लिए बहुत से लोग बहुत कुछ कर सकते हैं...कुछ दबंगों के डर से अपना आत्म सम्मान तक ताख पर रख देते हैं...निर्बल की गति यही है...
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट.....