शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

पुण्य तिथि पर मामा जी का स्मरण इस बार क्यों? ------ विजय राजबली माथुर





21 सितंबर 1977 को जिंनका निधन हुआ  डॉ कृपा शंकर माथुर साहब (तत्कालीन विभागाध्यक्ष -मानव शास्त्र,लखनऊ विश्वविद्यालय) की कुछ यादें : 



न्यू हैदराबाद ,लखनऊ मे घर के सामने के पार्क मे लेखक को गोद मे लिए हुये


यों तो इसी ब्लाग मे मामा जी का ज़िक्र कई बार आया है और आगे भी होगा।  परंतु उनके निधन के 35 वर्ष बाद 36 वीं पुण्य तिथि पर सिर्फ उनसे संबन्धित खास-खास बातें लिखने का ख्याल 18 अगस्त 2012 को तब आया जब हमे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान मे आयोजित डॉ राही मासूम रज़ा साहब के चित्र अनावरण मे भाग लेने का अवसर मिला। 'डॉ राही मासूम रज़ा साहित्य एकेडमी' के मंत्री और फारवर्ड ब्लाक , उत्तर प्रदेशके अध्यक्ष राम किशोर जी ने हमे भी समारोह मे आने को कहा था जहां डॉ रज़ा साहब के भांजे साहब जो इस वक्त लखनऊ विश्वविद्यालय मे मानव शास्त्र के विभाध्यक्ष हैं भी आए थे और उन्होने अपने मामाजी डॉ राही मासूम रज़ा साहब के संबंध मे व्यक्तिगत जानकारियों का विस्तृत वर्णन किया था। उन्हीं से प्रेरणा लेकर मैं भी अपने मामाजी डॉ कृपा शंकर माथुर साहब को आज उनकी पुण्य तिथि पर श्रद्धांजली अर्पित कर रहा हूँ। 

मामा जी हमारी माँ से पाँच वर्ष छोटे थे और उनको काफी प्रिय थे। मामाजी भी हम लोगों को काफी मानते थे हम लोगों के बचपन के सभी फोटो उनके ही खींचे हुये हैं सिवाए एक-दो फोटो के जिनमे वह मुझे गोद मे लिए हुये हैं। वह बचपन से ही काफी मेधावी थे और उनको शुरू से ही योग्यता के कारण 'वजीफा' मिलता रहा था। नाना जी एगरीकल्चर विभाग मे बरेली मे पोस्टेड थे जब मामा जी ने इंटर् मीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। मामाजी के घनिष्ठ मित्र आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ यूनिवर्सिटी मे दाखिला ले रहे थे अतः वह भी उनके साथ ही पढ़ना  चाहते थे। नाना जी ने व्यक्तिगत आधार पर कुछ नुकसान उठाते हुये लखनऊ ट्रान्सफर करवाया और मामा जी को लखनऊ यूनिवर्सिटी मे दाखिला लेने का अवसर प्रदान किया। जब मामा जी ने B.com.मे लखनऊ यूनिवर्सिटी को टाप किया  तो एङ्ग्थ्रोपालोजी के तत्कालीन विभागाध्यक्ष डॉ माजूमदार साहब ने मामाँजी को बुला कर कहा कि M.A. मे एङ्ग्थ्रोपालोजी लो तुम्हें विभाग मे ही रख लेंगे। मामा जी ने उनकी बात को आदर दिया और उन्होने भी अपना वायदा निभाते हुये मामा जी के पुनः यूनिवर्सिटी मे टाप पर रहने के आधार पर नियुक्ति -पत्र दिलवा दिया। उस वक्त शायद उनका वेतन रु 300/-मासिक था। 

यूनिवर्सिटी मे मामाजी फोटोग्राफी एसोसिएशन के सेक्रेटरी भी रहे जबकि प्रो शेर सिंह साहब अध्यक्ष थे। डॉ माजूमदार साहब के बाद प्रो शेर सिंह जी विभाध्यक्ष बने थे किन्तु बाद मे वह नेहरू मंत्रिमंडल मे बतौर उप-मंत्री शामिल हो गए थे । अतः मामाजी उनके बाद से मृत्यु पर्यंत एङ्ग्थ्रोपालोजी के विभागाध्यक्ष रहे। शायद उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की स्थापना के समय मामाजी भी उससे सम्बद्ध रहे थे।

बरेली से आने के बाद नाना जी ठाकुर गंज मे अपनी फुफेरी बहन के मकान मे किराये पर रहे थे वहाँ से यूनिवर्सिटी दूर थी और मामाजी साइकिल से ही पढ़ने आते थे किन्तु जाब मिल जाने पर उन्होने न्यू हैदराबाद मे 'खन्ना विला' मे किराये पर एक हिस्सा ले लिया । यह मकान चौधरी वीरेंद्र वर्मा ने किराये पर लिया था और मामाजी उनके किरायेदार  थे। वीरेंद्र वर्मा जी उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल मे तब संसदीय सचिव थे(जो बाद मे हिमाचल के राज्यपाल बने और भाजपा मे शामिल हो गए थे) और उनके पास दो मंत्री- चंद्र भानु गुप्ता जी एवं चौधरी चरण सिंह जी अक्सर रिक्शा पर बैठ कर आते-जाते थे । उस वक्त तक ये मंत्री गण सादगी से और जनता से घुल-मिल कर रहते थे आज तो पार्षद भी खुद को VIP समझता है। उस समय मामाजी के पास फोन नहीं था आवश्यकता पड़ने पर वर्मा जी  के फोन का इस्तेमाल आठ आना के भुगतान पर कर लेते थे।

डॉ माजूमदार तो मामाजी का विवाह भी अपनी पुत्री से करने के इच्छुक थे परंतु हमारी एक दादी जी (बाबूजी की चाची )अपनी भांजी से उनका विवाह कराने मे सफल रहीं। माईंजी के भाई  वेद प्रकाश माथुर साहब सेंट्रल एकसाईज मे तब इंस्पेक्टर थे और न्यू हैदराबाद मे ही रहते थे। जब हमारी माँ नानाजी के पास आती थीं तो माईंजी विवाह पूर्व ही अपने छोटे भाई-बहनों से मुझे मँगवा लिया करती थीं और दिन भर अपने पास रखती थीं। मामाजी की बारात मे मैं भी बाबूजी और नानाजी की गोद मे रह कर शामिल हुआ था। अजय काफी छोटे होने के कारण माँ के साथ घर पर रहे,तब (58 वर्ष पूर्व)महिलाओं के बारात मे शामिल होने का चलन नहीं था।

जब माईंजी के भाई साहब का अन्यत्र ट्रांसफर हो गया तो मामाजी ने उसी मकान को किराये पर ले लिया और उसमे यूनिवर्सिटी मे बंगला मिलने तक रहे। ऊपर वाला चित्र उसी मकान के सामने के पार्क का है। जब बाबूजी ने एम ई एस की नौकरी ज्वाइन की तब मामाजी रिसर्च हेतु आस्ट्रेलिया गए हुये थे और नानाजी पूरे मकान मे अकेले रहते थे अतः उनके कहने पर बाबूजी कुछ समय वहाँ रहे। बाद मे हुसैन गंज मे नाले के निकट फख़रुद्दीन मंज़िल मे नीचे के एक हिस्से मे हम लोग रहते थे और अक्सर न्यू हैदराबाद मामाजी के यहाँ जाना होता रहता था। उन लोगों का भी हमारे यहाँ आना होता रहता था । एक बार दीवाली के रोज़ मामाजी अकेले ही थोड़ी देर को आए थे और कुछ आतिशबाज़ी दे गए थे। 'अनार' शायद शक्तिशाली था जिससे मेरा पैर झुलस गया था। दोज़ पर जब हम लोग उनके घर गए तब मामाजी ने कहा कि वह यह बताना भूल गए थे कि बड़ों की निगरानी मे ही हम लोगों को वह आतिशबाज़ी दी जाती। अब तो हम लोग आतिशबाज़ी के विरुद्ध हैं और मेरा पुत्र भी पटाखे नहीं छुड़ाता है।

1961 मे हम लोगों के बरेली जाने के बाद मामाजी का कोई आपरेशन हुआ था तब फिर लखनऊ आना हुआ था। बहन तो माँ के साथ मामाजी के घर रहीं और हम दोनों भाई बाबूजी के साथ भुआ के घर -6,सप्रू मार्ग पर। मेडिकल कालेज मे मामाजी को देखने बाबूजी के साथ जाते थे। तब मेडिकल कालेज यूनिवर्सिटी के ही अंडर था और इस कारण मामाजी का विशेष ध्यान वहाँ रखा जाता था।

1971 मे अजय डेंटल हाईजीन का कोर्स करने हेतु मामाजी के घर रहा था। जब बाढ़ आने पर RSS के लोग मामाजी के बंगले पर फोन करने आते थे तो मामाजी ने उन लोगों को निशुल्क सुविधा प्रदान की थी । माईंजी चूंकि तब शायद कांग्रेस मे सक्रिय थीं और उनके कोई भाई भी कांग्रेस मे थे(माईंजी के एक भतीजे प्रदीप माथुर साहब तो इस वक्त कांग्रेस विधायक दल के नेता हैं)। इसलिए लोगों को कौतूहल हुआ। नाना जी ने हमे बताया था कि पढ़ाई के दौरान ठाकुर गंज मे निवास करते हुये मामाजी RSS मे सक्रिय रहे थे। पंडित दीन दयाल उपाध्याय मामाजी के घर किसी कार्यक्रम मे आए थे और नानाजी भी उनसे मिले थे। 1948 मे गांधी जी की हत्या के बाद से मामाजी ने RSS से अलगाव कर लिया था किन्तु बाढ़-सहायता हेतु उनके लोगों को फोन करने की सुविधा प्रदान कर दी थी।

1969 मे लता मौसी (माँ की चचेरी बहन) की शादी के बाद जब हम लोग मामा जी के घर आए थे तो मामजी ने मेरे विषय जानने के बाद माँ से कहा था कि जीजाजी से कह कर B.A.मे  विजय से 'इतिहास' विषय हटवा लेना क्योंकि इतिहास पढ़ कर दृष्टिकोण 'सांप्रदायिक' हो जाता है। इतिहास मेरा प्रिय विषय था किन्तु मामाजी के परामर्श के अनुसार उसे छोड़ कर 'सोशियोलाजी' ले लिया। मामाजी ने M.A.लखनऊ यूनिवर्सिटी से उनके एङ्ग्थ्रोपालोजी मे उनके पास रह कर करने को कहा था और आश्वासन दिया था कि वह यूनिवर्सिटी मे ही अपने विभाग मे जाब दिला देंगे। किन्तु मैंने एम ए ही नहीं किया और प्राईवेट जाब पकड़ लिया। यदि तब मामाजी की बात पूरी की होती तो शायद डॉ राही मासूम रज़ा साहब के भांजे साहब के साथ उनके विभाग मे होता। 

1977 की 21 सितंबर को जब मैं होटल मुगल से ड्यूटी करके घर पहुंचा था तब तक मामजी की मृत्यु  की सूचना टेलीग्राम द्वारा पहुँच चुकी थी और माँ-बाबूजी लखनऊ जाने को तैयार थे। बाबू जी माँ को वहाँ छोड़ कर लौट आए थे और चार-पाँच दिन बाद मुझे व अजय को माईंजी के पास जाने को कहा । हम दोनों भाई लखनऊ आए थे दो रोज़ रह कर अपने साथ माँ को लेते गए थे। मामाजी उस समय 'नवजीवन' के लिए एक लेखमाला चला रहे थे 22 सितंबर को जो उनका लेख छ्पा था उस अखबार की प्रति हमारे पास सुरक्षित है किसी और अवसर पर उसकी स्कैन कापी प्रकाशित करेंगे।

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