आगरा के लोगों को अक्सर यह कहते सुना -जिसे कही कोई और ठौर न मिला वह आगरा में आ गिरा.हो सकता है मुझे मेरे बेरोजगार होकर आने के कारण यह सुनाया जाता हो.मैं तो आगरा के भौगोलिक और ऐतिहासिक महत्त्व के कारण ही चला आया था ,वर्ना मेरठ में रुक कर ही जाब पा सकता था,अजय भी बीमारी से उठे थे-कमजोर थे और शोभा को कुछ ही समय में सुसराल चले जाना था अतः माता-पिता को भी मुझ से सहयोग मिल जाए यह भी मन में था.
मकान मालिक खुद अशोक नगर में रहते थे और नगर निगम में सर्विस करते थे.कालोनी में कायस्थ और ब्राह्मणों में नाम को लेकर रस्साकशी थी.कायस्थों ने उसका नामकरण 'चित्रगुप्त कालोनी'रखा था और इसी पते से डाक आ जाती थी.ब्राह्मणों ने'जनकपुरी' 'नामकरण कर रखा था.कुछ समय द्वन्द चला फिर नगर निगम ने जनकपुरी ही मान्य किया.उसी कालोनी में तब तक श्मशान घाट भी चल रहा था.वैसे ए.डी.ए .के मकान बउआ को पसंद थे और मुझ से कहती थीं की अपना ले लो.फिलहाल मेरा लक्ष्य पहले नौकरी ढूंढना था.वाचनालय जा कर अखबारों में टटोलना और साक्षात्कार देते जाना यही कार्य था-सोर्स थी नहीं.
आई.टी.सी.का Hotel Moughul Oberay बन रहा था उनके लेखा विभाग के लिए एप्लाई कर दिया .१५ सितम्बर १९७५ को लिखित टेस्ट का बुलावा मिला जो हुआ१६ को. इन्टरवियू लेटर मिला १८ को इस हेतु पहुंचे.२० टेस्ट देने वाले( जिनमें कास्ट अकौन्टेंसी में इंटर पास तथा सिंधी भी थे) लोगों में से सिर्फ चार को बुलाया गया था और वे चारों कायस्थ थे ,सीट दो ही थीं.प्रोजेक्ट कमर्शियल मैनेजर श्री एन.के.कानूगा ने खुद सिंधी होते हुए भी उन सिंधी उम्मीदवारों को फेल होने पर २० ता.के इन्टरवियू में नहीं बुलाया था.सर्वश्री विनोद श्रीवास्तव एवं सक्सेना के पास अनुभव नहीं था,उन्हें नहीं लिया गया.श्री सुदीप्तो मित्रा के पास कुछ माह का अनुभव था उन्होंने ०१ अक्टूबर से ज्वाईन करने को कहा.मेरे पास सवा तीन साल का अनुभव था और बेरोजगार था;सोमवार २२ सितम्बर से ज्वाईन करने का आश्वासन दे दिया .कानुगा सा :चाहते थे मैं उसी दिन ज्वाईन कर लूं,वहां से लौटते में टक्कर रोड पर पी.डब्ल्यू.डी.क्वार्टर में रानी मौसी से मिलने गया था वह भी बोलीं तुमने गलती की आज शनिवार को ही ज्वाईन कर लेते.शाम को दफ्तर से लौट कर बाबूजी ने भी यही कहा आज ही ज्वाईन करते तो ठीक था.वस्तुतः ऐसी मान्यता है कि शनिवार को प्रारंभ किया काम लम्बा चलता है इसलिए नौकरी के लिए शनिवारी ज्वाईनिंग शुभ मानी जाती है.परन्तु जब सरू स्मेल्टिंग,मेरठ में मैं सोमवार १५ मई १९७२ को ज्वाईन करने की कह कर आया तब से अब तक मुझ से यह बात बाबूजी ने कही नहीं थी,वर्ना मुझे कोई दिक्कत न होती.और यह भी हो सकता है कि सरू स्मेल्टिंग ,मेरठ में शनिवार को ज्वाईन करता तो वहीं से रिटायर होता और आज भी वहीं होता.या फिर शनिवार को होटल मुग़ल,आगरा ज्वाईन करता तो २०१० में वहीं से रिटायर होता,मकान वहीं बन ही गया था.
यदि ,किन्तु,परन्तु न हों तो कोई भी क्या से क्या न बने. यदि अवरोध और बर्खास्तगीयों का सामना न करता ,लोगों के तीखे विरोध सामने न होते तो जैसा था वैसा ही रह गया होता.इन थपेड़ों ने एक मामूली से क्लर्क को 'विपत्ति के विश्वविद्यालय'में पढ़ा कर लेखक,ज्योतिषी एवं राजनीति का सिपाही बना दिया है.आज जब एन .डी .टी.वी.के रवीश कुमार जी इस ब्लाग को 'हिंदुस्तान'में स्थान देते हैं या दूसरे ब्लाग 'क्रांति स्वर 'को 'जन सन्देश टाईम्स'में जाकिर अली'रजनीश' जी स्थान देते हैं तो शायद उन परिस्थितियों में सम्भव न होता.मेरे पास कहने-लिखने लायक कुछ नहीं होता.'रजनीश'जी के ब्लाग पर आज जब फासिस्ट ब्लागर्स मेरी आलोचना करते है तो सिद्ध होता है कि वस्तुतः क्रांति एवं विद्रोह लायक कुछ तो बात मेरे अन्दर भी है ही वर्ना इतने महान विद्वान मेरा नाम भी लेना क्यों पसंद करते?
जब १९७३ में २१ वर्ष की उम्र में 'पी.सी.टाईम्स',मेरठ में लिखना शुरू किया तो शौकिया ही था.अखबार के प्रबंधक मिश्र जी ने सम्पादक महोदय द्वारा सन्देश देकर मिलने को बुलाया था तो मुझसे पूंछा था-'आपने साहित्य में एम्.ए. किया है या राजनीति में?'मैंने सहज उत्तर दिया था सा :मैंने तो एम्. ए .ही नहीं किया है बी.ए .करके नौकरी में आ गया.उन्होंने कहा था-लेखन में डटे रहो हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है.बुजुर्गों के आशीर्वाद व्यर्थ नहीं होते हैं ,शायद ये आशीर्वाद ही सम्मान दिला देते हैं.लेकिन विरोधियों की भूमिका इन आशीर्वादों से भी ज्यादा मानता हूँ ,यदि विरोध न हो तो मुझे पता कैसे चले कि मुझे मान दिया गया था.क्रिटिकसिज्म रूपी टार्च की लाईट मुझे आगे बढ़ने का रास्ता दिखाती रही है और इस रोशनी की निरन्तर जरूरत बनी रहेगी.
२२ सितम्बर ,१९७५ सोमवार के दिन ठीक ०९ बजे मैं हाजिर था ,मेरा एप्वायीन्मेंट लेटर भी तैयार था जिसे प्राप्त कर मैंने ज्वाईनिंग दे दी.पहले दिन कानुगा सा :ने हाफ डे में ही घर भेज दिया और कहा वैसे ड्यूटी के बाद भी रुकना पड़ेगा. वह बहुत नेक इंसान थे,परन्तु जो भले होते हैं उन्हें ही तो समस्याओं का सामना करना पड़ता है.कानुगा सा :को हार्ट अटैक पड़ा और वह घर से ही काम देखने लगे. मैं कागजात लेकर जाता था ,काम देख कर वह खुश थे लेकिन उनको अफ़सोस इस बात का था कि मुझे वेतन रु.२७५ मात्र ही दिया था और मित्रा जी को रु.३०० कारण सिर्फ यह था वह एक्सपेरिएंस सर्टिफिकेट ले आये और मैं एक बर्खास्त कर्मचारी कहाँ से लाता.उन्होंने बाद में कम्पेन्सेट करने को कहा.लेकिन बीमारी के बीच ही उन्हें कं.ने दूसरी जगह ट्रांसफर कर दिया.उनकी जगह श्री राजा राम खन्ना ,रिटायर्ड कमर्शियल मैनेजर ,सहारनपुर फैक्टरी भेजे गए .वह भी अच्छे आदमी थे.उनसे बहुत काम सीखा जो आगे बहुत काम आया.विस्तार से अगली बार.........
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गुरूजी आप के संस्मरण पढ़ने के बाद ऐसा लगता है की आप का जीवन सदैव द्वन्द पूर्ण था ! बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आप का यह संस्मरण| धन्यवाद|
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