करन लाईन्स वाले क्वार्टर में भुआ -फूफा जी भी लखनऊ से कुछ दिन के लिए आये थे.फूफा जी अपनी सर्विस में मेरठ में रह चुके थे और उस वक्त उनके एक चचेरे भाई डॉ. अर्जुन प्रसाद माथुर वहीं पर सिविल सर्जन थे.वे लोग मुझे तथा शोभा को भी उनके घर ले गए थे.एक दिन फूफा जी अपने पुराने साथी श्री आर.एस.माथुर के घर साकेत कालोनी मिलने गये और चूंकि यह नयी कालोनी थी ,इसलिये मुझे भी साथ ले गये थे -दोनों लोग अलग -अलग साईकिलों से गये थे.गर्मी के दिनों में भी आर.एस. सा :ने पानी तभी पिलाया जब चलते वक्त फूफा जी ने माँगा .यह वही सज्जन थे जिनका कचहरी रोड पर मेरठ कालेज के सामने 'आर.एस.ब्रदर्स'नामक रेस्टोरेंट था.पता नहीं क्यों फूफा जी इनसे मिलने चले गये जबकि इन्ही के कारण फूफा जी को नाहक ही सात वर्ष सस्पेंड रहना पड़ा और बेहद तकलीफें उठानी पडीं थीं.जैसा उस समय मैंने सुना था कि, यूं.पी.हैण्डलूम्स में कहीं फूफा जी ने इन महाशय से चार्ज लिया था और इनके ब्राद्री का होने के कारण फूफा जी ने इन पर विशवास कर के सिर्फ कागजों पर चार्ज ले लिया -फिजिकल वेरिफिकेशन नहीं किया.इन सा :ने छत के पंखों के स्थान पर मिट्टी की हांड़ीयें लटका दी थीं.कपडा ढक रखा था और पंखे बेच खाये थे..इल्जाम फूफा जी को झेलना पड़ा था.लेकिन वह दोषी नहीं थे,इसलिये बहाल हो सके.जब बाबूजी ने ही फूफा जी को उनसे मिलने से रोकने का प्रयत्न नहीं किया तो मैं क्या बोलता ,वैसे मुझे फूफा जी का उनके घर जाना पसंद नहीं आया था.
नानाजी की ही भांति बाबूजी को भी लड़कियों को पढ़ाना पसंद नहीं था,इसलिये शोभा को इंटर के बाद नहीं पढने भेजा.मेरे विचार से ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि शोभा हम दोनों भाईयों के मुकाबले पढने में तेज थी और उसको नं.भी ज्यादा मिलते थे.लेकिन कुछ बोलने की हैसियत नहीं थी.भुआ तथा मामाजी से बउआ ने शोभा की शादी हेतु वर की तलाश करने में मदद माँगी. दोनों ने कह दिया पहले ग्रेज्युएट कराओ.बाबू जी पढ़ाना नहीं चाहते थे.अतः बउआ ने छोटी नानी जी से कहा जो उनके प्रति मित्रवत व्यवहार रखती थीं.जनवरी ७४ में रंजना मौसी की शादी हो चुकी थी इसलिये नानी जी ने पूंछा कि उनके देवर से करना चाहें तो बात चलायें.बाबूजी ने छोटे नानाजी से संपर्क करके उनके समधी सा :अलीगढ़ के श्री सरदार बिहारी माथुर ,रेलवे के क्लेम्स विभाग में विजिलेंस अधिकारी से बात चलाई.बायोडाटा स्वीकार करते हुए उन्होंने फोटो दूसरा 'माथुर स्टूडियो'से ही खिंचवाकर भेजने को कहा.वैसा ही किया गया.बात चलने के बीच ही बाबूजी आगरा ट्रांसफर लेकर चले गये.
१९७३ में कमल मौसी (नानाजी की भतीजी)के विवाह में भाग लेने हेतु ,माता-पिता की और से मैं गया था.तब तक नानाजी और उनके भाईयों का व्यवहार पहले जैसा ही था.शादी के बाद सलाद आदि की बची गाजरें विश्वनाथ नानाजी घिस रहे थे उनकी परेशानी देखते हुए मैंने मदद करने को कहा तो उन्होंने कह दिया हम नाती से काम नहीं लेंगे. मैंने यह कह कर आप काम नहीं ले रहे है -अकेले-अकेले मन न लगने के कारण मैं व्यस्त होना चाहता हूँ तब बड़ी मुश्किल से वह हटे.हलवा बनाने के बाद उन्होंने सबसे पहले मुझे ही खिलाया फिर सबको दिया.इसी बीच मेरठ में साम्प्रदायिक दंगे हो गये थे उन्होंने मुझे एक दिन और रोक लिया जबकि मेरे पास छुट्टी नहीं थी.स्टेशन वह ,हमारे नाजी तथा बबूए मामाजी भी छोड़ने आये थे.शाहजहांपुर से बरेली तक फिर वहां से दूसरी गाडी पकड़ कर हापुड़ और वहां से फिर दूसरी गाडी से मेरठ जाना होता था.चुकी टिकट विश्वनाथ नानाजी ने खरीद कर दिया (मैं उनकी भतीजी का बेटा था इसलिये) जो मेरठ सिटी तक था और हमें कैंट तक जाना था.कैंट पर उतरने पर उसे बिना टिकट माना गया,टी.सी..सा :जानते थे मैं मिलेटरी क्वार्टर में रहता हूँ ,बोले अर्दली को ५० पैसे चाय पीने के दे दो और मस्ती से घर जाओ.
सरू स्मेल्टिंग की नौकरी के दौरान एक बार एल.आई.सी .,का लिखित एक्जाम देने मैं लखनऊ आया था.मामा जी यूनिवर्सिटी कैम्पस में रहते थे.सुबह-सुबह मैं पहुंचा था.मामा जी को जय राम जी कह कर अभिवादन किया उन्होंने वहीं बाहर दूसरी कुर्सी पर बैठा लिया.उनका छोटा पुत्र शेष उनके कहने पर पानी लाया था उसने पहचान लिया और जाकर माँइजी से बताया.तब उन्होंने आकर मामाजी से पूंछा आपने अपने भांजे को नहीं पहचाना,यह विजय है.मामाजी बोले इसने नाम नहीं बताया था सिर्फ मामाजी कहा था हमने सोचा शायद शाहजहांपुर से कोई आया होगा.(इसी प्रकार एक बार भुआ के घर सप्रू मार्ग पर अकेले आये थे तो भुआ ने नहीं पहचाना ,फूफा जी के टोकने पर कह दिया दरियाबाद के सभी लड़के हमें भुआ कहते हैं इसने नाम नहीं बताया था).घरेलू रिश्तों में तब तक अपना नाम बताने का प्रचालन नहीं था ,इसलिये अपना नाम खुद तब तक नहीं बताते थे जब तक कहा न जाये.
लौटते में लखनऊ मेल से शाहजहांपुर नानाजी से मिलने चला गया था.आधी रात को अचानक पहुँचने पर नानाजी बेहद खुश हुए थे.उनके एक भाई ने बगल के घर से पूंछा कि इतनी रात में किसके लिए दरवाजे खोल दिये,क्या बात है क्या वह मदद को आयें.नाना जी ने जवाब दे दिया चिंता न करो कन्हैय्या आया है मुझे मेरठ ले जाने को.(नानाजी के पिताजी ने मेरा नाम कन्हैय्या रखा था और ननसाल में यही नाम चलता था)हालाँकि मैं तो मिलने ही गया था परन्तु फिर नानाजी की बात ही दोहरा दी .दो गाडियें बदल कर जब घर पहुंचे तो बउआ भी अपने पिताजी को देख कर चौंकीं,मैंने उन्हें बता दिया नाना जी आना चाह रहे थे इसलिये ले आये.नानाजी बाद में दिल्ली मौसी के पास भी गये और वहीं से सीधे लौटे.
अक्सर रानी मौसी के घर घंटाघर बाजार जाया करते थे.माता-पिता उनके घर कम ही जाते थे.अजय आगरा में थे इसलिये मुझे ही हाल-चाल जानने हेतु जाना होता था.बीच चौराहे पर एक बार सी.पी.एम्.वालों का जुलूस जा रहा होने के कारण रुकना पड़ा.सामने मौसी का घर होते हुए भी आधे घंटे बाद ही पहुँच पाये.जुलूस में जो नारे लग रहे थे उनमें मुख्य यह था-'इंदिरा तेरे राज में बच्चे भूंखे मरते हैं'.मेरे विचार में तब से स्थितियां वैसी ही हैं.
उनके घर से लौटते में कभी-कभी एक तंग गली से चले जाते थे जिससे चौराहे की भीड़ से बच सकें.जाते वक्त भी उस गली से चले जाते थे. कभी दिक्कत नहीं हुई थी,लेकिन एक बार एक ऐसी अनहोनी दुर्घटना होते-होते बची अगर वह घट जाती तो मैं आज आप से यह सब कहने बताने-लिखने के लिए उपलब्ध न होता.उस दिन दोपहर के तीन -चार बजे के करीब गली में भारी भीड़ के कारण साईकिल से उतर कर पैदल चलना पड़ा था.एक हलवाई (जो लोकल भाषा में हिन्दू था)के पकौड़ियों के थाल से मेरी साईकिल का कैरियर एक शख्स (जो मुस्लिम था)ने
टकरा कर उलट दिया और मुझे पकड़ कर उसका हर्जाना भरने की हुंकार करने लगा.आनन्-फानन में बहुत बड़ा मजमा जुट गया उन लोगों का इरादा मुझे क़त्ल कर शहर को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झोंक देना था.हलवाई सा :से मैंने कहा आप ही बताइये कि मेरी गलती है या उन सज्जन की.वह वृद्ध बेचारे बोले कि हम क्या बतायें हमारा तो नुक्सान हो ही गया है.वह जानते थे उनका नुक्सान करने वाले ही उनकी आड़ लेकर हंगामा काट रहे हैं. मैंने तो उस क्षण समझ लिया था कि बस वह जीवन का अंतिम क्षण है और इस बात पर अडिग था कि नुक्सान मैंने नहीं बल्कि इल्जाम लगाने वाले सा :का है.'जाको राखे साईंयां ,मार सके न कोये' वाली उक्ति चरितार्थ करते हुए उपद्रवी गुरुप का एक तगड़ा युवक आगे आया और उसने थाल पलटने वाले अपने साथी से मेरी साईकिल ले ली और तेज-तेज डग भर कर लपकने लगा ;यह देख कर उपद्रवी ने मेरा हाथ यह सोच कर छोड़ दिया कि वह मुझे मार डालेगा.वह बहुत आगे था मैं दौड़ते-दौड़ते उसके पास जब तक पहुंचा भीड़ उसी तरफ आती हुई बहुत पीछे थी.मैंने साईकिल का कैरियर पकड़ लिया तब वह मुझे घसीटता हुआ तेजी से चौराहे तक ले गया और जब पुलिस वाला दिखाई दे गया तो मुझसे बोला बिना पीछे मुड़े हुए सीधे घर भाग जाओ और वहीं जाकर रुकना .मैं नहीं जानता भीड़ से वह युवक कैसे निपटा होगा जो उसी की धर्मावलम्बी थी. बहर हाल उस युवक की ताकीद के मुताबिक़ फिर कभी उस गली से नहीं गये -आये.घंटाघर तो आते जाते रहे तब भी जब अकेले मेरठ में रह गये थे.लोगों के मुताबिक़ मेरा वह इसी जीवन में पुनर्जन्म था.जबकि एक बार लखनऊ के अलीगंज मंदिर में भी ५ वर्ष की उम्र में कुचलते -कुचलते बचा था तब भी शायद पुनर्जन्म था और तब भी जब रूडकी रोड क्रास करते में मोटर साईकिल से टकराया था.एक तरफ कुछ लोग पुनर्जन्म नहीं मानते तो दूसरी तरफ कुछ लोग इसी जीवन में मेरे तीन पुनर्जन्म मानते हैं.मैं खुद आज उन ग्रहों के प्रभाव को समझता हूँ जिनके कारण ऐसी घटनाएं हुई थीं.कुछ और भूली बिसरी बातें अभी मेरठ की ही अगली बार भी फिर उसके बाद आगरा प्रस्थान.........
नानाजी की ही भांति बाबूजी को भी लड़कियों को पढ़ाना पसंद नहीं था,इसलिये शोभा को इंटर के बाद नहीं पढने भेजा.मेरे विचार से ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि शोभा हम दोनों भाईयों के मुकाबले पढने में तेज थी और उसको नं.भी ज्यादा मिलते थे.लेकिन कुछ बोलने की हैसियत नहीं थी.भुआ तथा मामाजी से बउआ ने शोभा की शादी हेतु वर की तलाश करने में मदद माँगी. दोनों ने कह दिया पहले ग्रेज्युएट कराओ.बाबू जी पढ़ाना नहीं चाहते थे.अतः बउआ ने छोटी नानी जी से कहा जो उनके प्रति मित्रवत व्यवहार रखती थीं.जनवरी ७४ में रंजना मौसी की शादी हो चुकी थी इसलिये नानी जी ने पूंछा कि उनके देवर से करना चाहें तो बात चलायें.बाबूजी ने छोटे नानाजी से संपर्क करके उनके समधी सा :अलीगढ़ के श्री सरदार बिहारी माथुर ,रेलवे के क्लेम्स विभाग में विजिलेंस अधिकारी से बात चलाई.बायोडाटा स्वीकार करते हुए उन्होंने फोटो दूसरा 'माथुर स्टूडियो'से ही खिंचवाकर भेजने को कहा.वैसा ही किया गया.बात चलने के बीच ही बाबूजी आगरा ट्रांसफर लेकर चले गये.
१९७३ में कमल मौसी (नानाजी की भतीजी)के विवाह में भाग लेने हेतु ,माता-पिता की और से मैं गया था.तब तक नानाजी और उनके भाईयों का व्यवहार पहले जैसा ही था.शादी के बाद सलाद आदि की बची गाजरें विश्वनाथ नानाजी घिस रहे थे उनकी परेशानी देखते हुए मैंने मदद करने को कहा तो उन्होंने कह दिया हम नाती से काम नहीं लेंगे. मैंने यह कह कर आप काम नहीं ले रहे है -अकेले-अकेले मन न लगने के कारण मैं व्यस्त होना चाहता हूँ तब बड़ी मुश्किल से वह हटे.हलवा बनाने के बाद उन्होंने सबसे पहले मुझे ही खिलाया फिर सबको दिया.इसी बीच मेरठ में साम्प्रदायिक दंगे हो गये थे उन्होंने मुझे एक दिन और रोक लिया जबकि मेरे पास छुट्टी नहीं थी.स्टेशन वह ,हमारे नाजी तथा बबूए मामाजी भी छोड़ने आये थे.शाहजहांपुर से बरेली तक फिर वहां से दूसरी गाडी पकड़ कर हापुड़ और वहां से फिर दूसरी गाडी से मेरठ जाना होता था.चुकी टिकट विश्वनाथ नानाजी ने खरीद कर दिया (मैं उनकी भतीजी का बेटा था इसलिये) जो मेरठ सिटी तक था और हमें कैंट तक जाना था.कैंट पर उतरने पर उसे बिना टिकट माना गया,टी.सी..सा :जानते थे मैं मिलेटरी क्वार्टर में रहता हूँ ,बोले अर्दली को ५० पैसे चाय पीने के दे दो और मस्ती से घर जाओ.
सरू स्मेल्टिंग की नौकरी के दौरान एक बार एल.आई.सी .,का लिखित एक्जाम देने मैं लखनऊ आया था.मामा जी यूनिवर्सिटी कैम्पस में रहते थे.सुबह-सुबह मैं पहुंचा था.मामा जी को जय राम जी कह कर अभिवादन किया उन्होंने वहीं बाहर दूसरी कुर्सी पर बैठा लिया.उनका छोटा पुत्र शेष उनके कहने पर पानी लाया था उसने पहचान लिया और जाकर माँइजी से बताया.तब उन्होंने आकर मामाजी से पूंछा आपने अपने भांजे को नहीं पहचाना,यह विजय है.मामाजी बोले इसने नाम नहीं बताया था सिर्फ मामाजी कहा था हमने सोचा शायद शाहजहांपुर से कोई आया होगा.(इसी प्रकार एक बार भुआ के घर सप्रू मार्ग पर अकेले आये थे तो भुआ ने नहीं पहचाना ,फूफा जी के टोकने पर कह दिया दरियाबाद के सभी लड़के हमें भुआ कहते हैं इसने नाम नहीं बताया था).घरेलू रिश्तों में तब तक अपना नाम बताने का प्रचालन नहीं था ,इसलिये अपना नाम खुद तब तक नहीं बताते थे जब तक कहा न जाये.
लौटते में लखनऊ मेल से शाहजहांपुर नानाजी से मिलने चला गया था.आधी रात को अचानक पहुँचने पर नानाजी बेहद खुश हुए थे.उनके एक भाई ने बगल के घर से पूंछा कि इतनी रात में किसके लिए दरवाजे खोल दिये,क्या बात है क्या वह मदद को आयें.नाना जी ने जवाब दे दिया चिंता न करो कन्हैय्या आया है मुझे मेरठ ले जाने को.(नानाजी के पिताजी ने मेरा नाम कन्हैय्या रखा था और ननसाल में यही नाम चलता था)हालाँकि मैं तो मिलने ही गया था परन्तु फिर नानाजी की बात ही दोहरा दी .दो गाडियें बदल कर जब घर पहुंचे तो बउआ भी अपने पिताजी को देख कर चौंकीं,मैंने उन्हें बता दिया नाना जी आना चाह रहे थे इसलिये ले आये.नानाजी बाद में दिल्ली मौसी के पास भी गये और वहीं से सीधे लौटे.
अक्सर रानी मौसी के घर घंटाघर बाजार जाया करते थे.माता-पिता उनके घर कम ही जाते थे.अजय आगरा में थे इसलिये मुझे ही हाल-चाल जानने हेतु जाना होता था.बीच चौराहे पर एक बार सी.पी.एम्.वालों का जुलूस जा रहा होने के कारण रुकना पड़ा.सामने मौसी का घर होते हुए भी आधे घंटे बाद ही पहुँच पाये.जुलूस में जो नारे लग रहे थे उनमें मुख्य यह था-'इंदिरा तेरे राज में बच्चे भूंखे मरते हैं'.मेरे विचार में तब से स्थितियां वैसी ही हैं.
उनके घर से लौटते में कभी-कभी एक तंग गली से चले जाते थे जिससे चौराहे की भीड़ से बच सकें.जाते वक्त भी उस गली से चले जाते थे. कभी दिक्कत नहीं हुई थी,लेकिन एक बार एक ऐसी अनहोनी दुर्घटना होते-होते बची अगर वह घट जाती तो मैं आज आप से यह सब कहने बताने-लिखने के लिए उपलब्ध न होता.उस दिन दोपहर के तीन -चार बजे के करीब गली में भारी भीड़ के कारण साईकिल से उतर कर पैदल चलना पड़ा था.एक हलवाई (जो लोकल भाषा में हिन्दू था)के पकौड़ियों के थाल से मेरी साईकिल का कैरियर एक शख्स (जो मुस्लिम था)ने
टकरा कर उलट दिया और मुझे पकड़ कर उसका हर्जाना भरने की हुंकार करने लगा.आनन्-फानन में बहुत बड़ा मजमा जुट गया उन लोगों का इरादा मुझे क़त्ल कर शहर को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झोंक देना था.हलवाई सा :से मैंने कहा आप ही बताइये कि मेरी गलती है या उन सज्जन की.वह वृद्ध बेचारे बोले कि हम क्या बतायें हमारा तो नुक्सान हो ही गया है.वह जानते थे उनका नुक्सान करने वाले ही उनकी आड़ लेकर हंगामा काट रहे हैं. मैंने तो उस क्षण समझ लिया था कि बस वह जीवन का अंतिम क्षण है और इस बात पर अडिग था कि नुक्सान मैंने नहीं बल्कि इल्जाम लगाने वाले सा :का है.'जाको राखे साईंयां ,मार सके न कोये' वाली उक्ति चरितार्थ करते हुए उपद्रवी गुरुप का एक तगड़ा युवक आगे आया और उसने थाल पलटने वाले अपने साथी से मेरी साईकिल ले ली और तेज-तेज डग भर कर लपकने लगा ;यह देख कर उपद्रवी ने मेरा हाथ यह सोच कर छोड़ दिया कि वह मुझे मार डालेगा.वह बहुत आगे था मैं दौड़ते-दौड़ते उसके पास जब तक पहुंचा भीड़ उसी तरफ आती हुई बहुत पीछे थी.मैंने साईकिल का कैरियर पकड़ लिया तब वह मुझे घसीटता हुआ तेजी से चौराहे तक ले गया और जब पुलिस वाला दिखाई दे गया तो मुझसे बोला बिना पीछे मुड़े हुए सीधे घर भाग जाओ और वहीं जाकर रुकना .मैं नहीं जानता भीड़ से वह युवक कैसे निपटा होगा जो उसी की धर्मावलम्बी थी. बहर हाल उस युवक की ताकीद के मुताबिक़ फिर कभी उस गली से नहीं गये -आये.घंटाघर तो आते जाते रहे तब भी जब अकेले मेरठ में रह गये थे.लोगों के मुताबिक़ मेरा वह इसी जीवन में पुनर्जन्म था.जबकि एक बार लखनऊ के अलीगंज मंदिर में भी ५ वर्ष की उम्र में कुचलते -कुचलते बचा था तब भी शायद पुनर्जन्म था और तब भी जब रूडकी रोड क्रास करते में मोटर साईकिल से टकराया था.एक तरफ कुछ लोग पुनर्जन्म नहीं मानते तो दूसरी तरफ कुछ लोग इसी जीवन में मेरे तीन पुनर्जन्म मानते हैं.मैं खुद आज उन ग्रहों के प्रभाव को समझता हूँ जिनके कारण ऐसी घटनाएं हुई थीं.कुछ और भूली बिसरी बातें अभी मेरठ की ही अगली बार भी फिर उसके बाद आगरा प्रस्थान.........
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बड़ी तगड़ी याददास्त है माथुर साहब आपकी !बहुत बारीकी से वर्णन किया है !
जवाब देंहटाएंबहुत छोटी छोटी बात को यादरखते है आप माथुर साहेब क्या याददास्त है आपकी ....अच्छा संस्मरण
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संस्मरण,बहुत बारीकी से वर्णन किया है| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंमाथुर जी मै आप के इस पोस्ट को चार दिनों बाद पढ़ रहा हूँ ,ऐसा लगा जैसे ताजा तस्वीर सामने हो ! बुरा न माने तो एक सुझाव दू ...आप बिषय बदलते ही लाइन बदल दे , जिससे पढ़ने वाले को हल्का पन महसूस हो !इस उम्र में भी आप के याददास्त बड़े काबिले तारीफ है ! सूक्ष्म बातो को भी गहराई से ब्यक्त किया है , जिससे उस समय के हालत भी उजागर हो जाते है !जाको राखे साईया , मार सके न कोई !..आप बड़े भाग्यशाली है ! मेरे लिए आप किसी गुरु से कम नहीं ! किसी पोस्ट पर मेरे टिपण्णी न आने पर नाराज न होए क्यों की मुझे सदैव समय का आभाव रहता है ! आप का गोरख नाथ ...
जवाब देंहटाएंदिलचस्प संस्मरण...इसे जारी रखें...
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