गुरुवार, 9 जून 2011

आगरा /१९७८-७९ (भाग-३)

मुझे मकान तो कमला नगर में एलाट हो गया था परन्तु उसकी कंडीशन ऐसी न थी कि,पजेशन लेकर उसमें रहने चले जाते.आवास-विकास परिषद् एक सरकारी उपक्रम था और वहां काम रिश्वत के जोर से होता था जिसकी रिश्वत लेने की आदत नहीं वह दे कैसे सकता था?लिहाजा काफी दौड़ -धुप करनी पड़ती थी.आफिस से छुट्टी लेकर साईकल से जाता-आता था ,काफी समय लग जाता था अतः यूं.ऍफ़.सी.शेखर साहब ने कहा जब कैशियर बैंक जाए उसके साथ कार से जाओ और कार से लौट आओ रस्ते का समय और थकान बचे तभी ठीक से काम होगा.इसका फायदा भी हुआ कि,जब सब कुछ ओ.के.हो गया तो संपत्ति प्रबंध अधिकारी ने कहा दो गवाह ले आओ हम पजेशन लेटर दे देंगें.एक कैशियर और दुसरे कार ड्राईवर गवाह हो गए और एक और राउंड लगाए बगैर कागजात मिल गए.परन्तु सितम्बर १९७८ में आगरा में भी यमुना में बाढ़ आ गई थी,इसलिए भी टेक ओवर करने के बाद भी किराए के ही मकान में रहते रहे,और ३० सितम्बर को बाबूजी को रिटायर भी होना था उनका खेरिया एयर-पोर्ट का ए.जी.ई.आफिस वहां से बहुत दूर हो जाता इसलिए भी देर कर दी.

उधर हमारे चार्टर आफ डिमांड में लोअर स्टाफ का अधिक ख्याल रखने का मुद्दा हमारे आफिस स्टाफ के हितों के प्रतिकूल पड़ता था.झा साहब आफिस वालों को मेरे विरुद्ध उकसा रहे थे और मैं बहुमत साथ रखने की खातिर आफिस वालों का विरोध सहने के लिए पूरे तौर पर तैयार था.मैंने अपना 'सुपरसेशन' वाला केस भी विद्ड्रा कर लिया जिससे किसी को यह भी कहने का मौका न मिले कि खुद तो प्रमोशन ले लिया और बाकी साथियों का ख्याल नहीं रखा.

युनियन प्रेसीडेंट और बाकी कार्य कारिणी सदस्य झा साहब के इन्फ्लुएंस में चल रहे थे.दीपक भाटिया पूरे तौर पर मेरे साथ थे उनकी ड्यूटी ही ऐसी थी कि अनेकों बार जी.एम्.से सामना होता था उनके माध्यम से मुझे पता था कि पेंटल साहब झा साहब से कितना दुखी हैं और वह हर हाल में मेरे ऊपर झा साहब को नहीं हावी होने देंगे यदि मैं अड़ा रहा तो.इसलिए गिनती के हिसाब से अल्पमत में होते हुए भी और इसलिए भी कि मेरे हटने पर कोई भी सेक्रेटरी जेनरल बनने को तैयार न होता मैं अपने निर्णय को लागू करने में पूर्ण कामयाब रहा.झा साहब की कूटनीति उनके और उनके समर्थक कार्यकारिणी सदस्यों के खिलाफ पड़ गई.सारे स्टाफ के मध्य सन्देश साफ़ था केवल विजय माथुर की अड़ के कारण लोअर स्टाफ का बेनिफिट हुआ है.लिहाजा झा साहब को अपना स्टैंड बदलना पडा.झा साहब के सिखाये आफिस के लोग भी अब पूरी तौर पर मेरे फैसले के पक्ष में हो गए .यही कारन था कि सभी एकजुट होकर रत्ना को देखने और मिलने पहुंचे थे-दिसंबर १९७८ में मेरी छुट्टियों के दौरान.

बाबूजी के रिटायरमेंट के बाद चूंकि रत्ना को लाना था लिहाजा फैसला हुआ कि अपने ही मकान में लाया जाए.बिजली बगैर तो काम चल सकता था पर पानी कनेक्शन जरूरी था.कारपोरेशन का विभाग कुंडली मारे बैठा था. बात वही रिश्वत कौन और कहाँ  से दे?हमारे एक सहकर्मी के पडौसी टैक्जेशन आफीसर थे उनकी मदद ली और काम चुटकियों में हो गया.छोटी दिवाली के दिन पानी का कनेक्शन चालू हो गया .मैं और अजय देर रात में पानी चालू कराकर प्रताप नगर लौटे जहाँ दोनों भाई ही त्यौहार के मौके पर थे.बाबूजी और बउआ शाहजहांपुर नानाजी का आँख का आपरेशन कराने गए थे.

१२ नवंबर को हम लोग अपने मकान में आ गए .रत्ना के आने के बाद कुछ रिश्तेदारों को बुला कर कथा करवाई गई (माता-पिता उसी पद्धत्ति पर चलते थे,उनके बाद मैंने आर्य समाज ज्वाइन किया था).


मार्च १९७९ में झा साहब ने मुझ से कहा तुमने अपना दावा वापिस ले लिया था इसलिए तुम्हारा प्रमोशन नहीं हो सका था और तुम्हारा केस वाजिब है अतः हम मेनेजमेंट की तरफ से तुम्हें डबल प्रमोशन देकर सुपरवाइजर बना रहे हैं.तुम अपने नीचे एक अपरेंटिस भी अपनी पसंद  का ले आओ रख लेंगें.हमारे रिश्ते के एक मौसा जी को हार्ट अटैक के दो राउंड पड़ चुके थे उनके बड़े बेटे को जिसने बी.काम कर लिया था हमने रखवा दिया. 

क्रमशः....


Link to this post-



3 टिप्‍पणियां:

ढोंग-पाखंड को बढ़ावा देने वाली और अवैज्ञानिक तथा बेनामी टिप्पणियों के प्राप्त होने के कारण इस ब्लॉग पर मोडरेशन सक्षम कर दिया गया है.असुविधा के लिए खेद है.

+Get Now!